प्लेटफार्म पर पहुंचते ही ट्रेन भी आ गई। मेरा रिज़र्वेशन फर्स्ट एसी में था। यह बोगी इंजन के पास लगी थी। बिहार जाने वाली ट्रेनों में खूब भीड़ होती है, इसीलिए प्लेटफार्म पर भी भीड़ थी। ट्रेन में चढ़ने की जद्दोजहद में पड़ी इस भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए मैं अपने डिब्बे तक पहुँचा। इसमें दाखिल हुआ और एसी जोन का डोर खोलकर आगे बढ़ा। सामने दूसरा डोर देख मैं थोड़ा ठिठका। संयोग से वहां एक टीटी साहब मिल गए, पूँछने पर ‘उधर सेकेंड एसी है’ कहकर पीछे केबिन में जाने का इशारा किया। दरअसल यह बोगी सेकेंड एसी की थी, जिसमें फर्स्ट एसी के भी दो केबिन थे। स्लाइडर-दरवाजा खिसकाकर मैं केबिन में दाखिल हुआ। ऊपर का बर्थ मेरा था। इससे जुड़ा एक सीढ़ीनुमा ढांचा वाकई में ऊपरवाले बर्थ के लिए सीढ़ी है, यह समझने में मुझे कुछ पल लगे। बर्थ पर चादर का लिफाफा न देख नीचे निहारा। नीचे की एक बर्थ पर कोई व्यक्ति सोने की मुद्रा में था तो दूसरे पर एक लड़की अपने मोबाइल में खोई थी। उसे यह भान हुआ कि मैं अपना बिछौना खोज रहा हूं, लेकिन उसकी कोई प्रतिक्रिया न पाकर मैं ऊपर बर्थ पर चढ़ गया।
ट्रेन के फर्स्ट एसी और सेकेंड एसी के बीच केवल ‘सीढ़ी’ और ‘प्राइवेसी’ का अंतर है। फिर भी अपने बर्थ पर आकर मुझे श्रेष्ठता-बोध हुआ कि हमसे नीचे की जो भी श्रेणी है उसमें सफर करने वाला मेरे से कमतर है। ट्रेन ही नहीं, किसी भी व्यवस्था में यह श्रेणीकरण बहुत जरूरी है अन्यथा बेचारा यह श्रेष्ठता का बोध जीते जी मर जाए! पता नहीं मनुष्य स्वयं को क्यों सामाजिक प्राणी कहता है जबकि पद-पैसा-अहंकार के कॉकटेल से अर्जित ‘श्रेष्ठता-बोध’ में वह ‘प्राइवेसी’ को ‘सुविधा’ की तरह चाहने लगता है।
अचानक “अंकल लीजिए…” सुनकर मैं चौंक पड़ा जैसे सोते से जागा। यह वही नीचे बर्थ वाली लड़की थी जो मुझे एक पैकेट दे रही थी जिसमें बिछौना था। “तो लड़की कांशस थी” सोचते हुए मैंने उससे पैकेट ले लिया। उसका यह संवेदनशील व्यवहार मुझे अच्छा लगा।
बर्थ पर अब मैंने चादर बिछाया। ट्रेन गाजियाबाद स्टेशन छोड़ चुकी थी। मैं यहीं से ट्रेन में सवार हुआ था।
“कल ही मुझे स्कूल ज्वाइन करना है, नहीं तो इसके बाद दो दिन की छुट्टी रहेगी..” उसी लड़की की आवाज थी। वह मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी।
दूसरों के बीच में हो रही बातचीत नहीं सुनना चाहिए, लेकिन ऐसी बात निहितार्थ से जब अपनी बात लगे तो सुनने में रुचि होना स्वाभाविक है। मैंने उसकी बातचीत पर कान लगा दिया,
“दो कमरे का फ्लैट है, मेरा उसमें जैसे दम घुटता है। मैं बहुत दिनों तक तो दूसरे कमरे तक भी नहीं जाती थी..अब दूसरे कमरे में भी जाने लगी हूं…मैं तो लखनऊ में बड़े घर में रहती आई हूँ। वहां तो छत पर धूप लेने की मेरी आदत है। लेकिन नोएडा की इस सोसायटी में यह संभव ही नहीं। वहां तो कभी धूप मिलती ही नहीं। और सोसायटी में फ्लैट से बाहर निकल कर लोगों के साथ बैठने की भी मेरी आदत नहीं..नोएडा बकवास जगह हम वहां नहीं रहना चाहते।”
नोएडा में सोसायटी कल्चर पर मैं भी यही सोचता हूं।
लड़की लखनऊ के किसी सरकारी स्कूल में टीचर है उसके विवाह के तीन माह हुए हैं और उसकी ससुराल नोएडा में है। वहां दो कमरे के फ्लैट में वह संयुक्त परिवार के साथ रहती है। उसका पति दिल्ली में भारत सरकार के किसी मंत्रालय में नौकरी करता है। लड़की को खाना बनाना नहीं आता। इसके लिए उसकी सास टोकती है। ससुराल में वह डरी-सहमी रहती है। लेकिन वह सास की शिकायत नहीं करती। उस लड़की से कोई बदजुबानी करे यह उसे उतना बुरा नहीं लगता जितना कि कहने का अंदाज। वह अंग्रेजी में बोलती है “The problem is not abusing. Problem is tone of talking” इसी में वह जोड़ती है “ये लोग ‘करिए’ की जगह ‘कर’ बोलते हैं।”
तो पूरब की यह लड़की पश्चिम में ब्याही है, उसकी ‘Tone of talking’ और ‘करिए’ की जगह ‘कर’ वाली बात पर मैंने अनुमान लगाया। मुझे खांटी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बुजुर्ग नेता याद आए। जब उन्होंने मुझसे कहा था, “आप रामायणी हो हम लोग महाभारती…आगरे से पूरब के लोग रामायणी होते हैं जबकि इससे पश्चिम के लोग महाभारती हैं।” इस बात का निहितार्थ भी उन्होंने समझाया था, “रामायण में राजपाट का त्याग कर राम वनवास को स्वीकार करते हैं वहीं महाभारत में सूई की नोक के बराबर भूमि भी देने के लिए तैयार नहीं है।” उनकी इस बात पर मैं मुस्कुरा उठा था। दरअसल उनके कहने का आशय था कि पश्चिम के लोगों की भाषा में अक्खड़पन और उनमें जुझारूपन होता है। मैंने भी उनसे कहा था, “लेकिन यहाँ पश्चिम के लोग गन्ने के जैसे होते हैं ऊपर से कठोर और अंदर से मीठे।” मेरी बात सुन वे बुजुर्ग नेता हँसने लगे थे।
गाड़ी की रफ्तार धीमी हो रही थी। मुझे पानी का बोतल लेना था। गाड़ी रुकी तो पानी तलाशने मैं नीचे उतरा, लेकिन मेरा डिब्बा प्लेटफार्म के छोर पर था, जहां न कोई बूथ था और न ही वेंडर आता दिखाई पड़ा। उस लड़की ने इस बीच कोच के अटेंडेंट लड़के को पानी का बोतल लाने के लिए पैसे दिए। वह लड़का दौड़ते हुए बूथ तक गया और वहां से पानी का बोतल लाया और लड़की को दिया। मैं देखता रह गया। इधर गाड़ी छूटने को हुई तो मैं डिब्बे में चढ़ आया। मैंने उस लड़के से पानी के बोतल के बारे में पूँछा। उसने बताया कि अभी कोई आएगा। मैं बर्थ पर चला आया। कुछ देर बाद एक लड़का पानी का बोतल बेचते हुए आया। मैंने उससे एक बोतल लिया। मैं ईयर बड कान में लगाने जा रहा था कि लड़की फिर मोबाईल पर बात करते सुनाई पड़ी। मैंने उसकी बातों पर कान लगा दिया।
“नहीं मम्मी जी मेरे खाने की चिंता मत करिए तब तक मैं पहुँच जाउंगी..हाँ, भाई मुझे लेने चारबाग आएगा..आप समय पर खाना खा लिया करिएगा और समय पर दवा भी लेते रहिए…हाँ मैं पहुँचकर बात करुंगी।“ लड़की अपनी सास से बात कर रही थी।
इसके बाद उसकी बातचीत उससे फिर होने लगी जिससे पहले हो रही थी, शायद वह बातचीत अधूरी रह गई थी,
“.. हमें थोड़ा समय का मार्जिन लेकर घर से निकलना चाहिए था..पहली बार था हम अंदाज नहीं लगा सके..जब स्टेशन पर पहुँचे तो गाड़ी छूट रही थी हम दोनों खूब दौड़े..ये हमें तेज दौड़ने के लिए कह रहे थे..मैं हिम्मत भर दौड़ी.. मैंने दौड़ा कि फेफड़े बाहर आ गए.. लेकिन ट्रेन सामने से निकल गई, बहुत खराब लगा..बस एक मिनट की देर हुई थी… हम हाँफते हुए बैठ गए..दोनों कुछ देर वहीं सुस्ताए…डेढ़ घंटे बाद यह ट्रेन थी.. इनके रेल विभाग में कोई परिचित थे, उनके प्रयास से इस ट्रेन का रिजर्वेशन मिल गया…अभी मम्मी जी का फोन आया था..नहीं यार..गलती सुधारी जाती है..मेरे लिए फैमिली फर्स्ट..हाँ बढ़िया हैं, हैं तो अच्छे इंसान लेकिन सब को अलग-अलग ढंग से हैंडल करना पड़ता है।”
कुछ क्षण तक उसके बतियाने की आवज नहीं सुनाई पड़ी तो मैं समझ गया कि उसकी बातचीत अब खतम हो चुकी है। इधर ट्रेन अपने फुल स्पीड में थी। लेकिन थोड़ी ही देर में उसकी बातचीत फिर सुनाई पड़ी। इस बार उसके आवाज की टोन बता रही थी कि वह अपने पति से बात कर रही थी। उसकी इस बातचीत से मैंने अब अपना ध्यान हटा लिया था। फिर भी उसकी कुछ बातें बरबस मेरे कान में पड़ी जैसे कि, "चिल रहिए यार, सांच को आंच कहां” और मजाक में कही गई बात ‘I got married to a liar.’ तथा “Don't focus be a negative”
वाकई वह लड़की समझदारी भरी बातें कर रही थी। हमारे सोचने का तरीका हमारे जीवन को प्रभावित करता है।
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