"वे तो उसी पर निर्भर हैं, इसलिए उसने उनको पींज लिया है.. उसे पता है कि उसके बिना उनका काम नहीं चलने वाला…” पत्नी ने कहा।
“अरे, तो इसमें क्या है..उसकी तनख्वाह कम है इसे और बढ़ा दें..अभी काम के हिसाब से उसे पैसा नहीं मिल रहा है…” मैंने बोला।
“आप नहीं समझते..बात पैसा बढ़ाने की नहीं, पैसा बढ़ा दें लेकिन मजदूर फ्री भी रहना चाहते हैं..उन्हें छुट्टी तो चाहिए ही..और.. उन्हें छुट्टी भी देनी चाहिए…” पत्नी ने कहा।
“हाँ..ये बात तो है…” मेरी स्वीकारोक्ति।
दरअसल यह बातचीत एक घरेलू कामवाली के संबंध में थी। जिसे कुछ दिन के लिए काम से छुट्टी चाहिए लेकिन उसे छुट्टी देने में इसलिए आनाकानी हो रही थी कि घर का काम कैसे होगा।
पत्नी से हुई इस वार्तालाप के बाद मुझे ध्यान आया कि ‘नौकर’ होने और ‘मजदूर’ होने में बड़ा फर्क होता है। ऊपर की बातचीत जिस कामवाली के संदर्भ में रही थी उसे मैं ‘नौकर’ समझ रहा था लेकिन पत्नी की बात से मुझे अहसास हुआ कि वह ‘नौकर’ नहीं ‘मजदूर’ हैं। नौकर तो अपने मालिक के इशारों पर नाचता है, लेकिन मजदूर नहीं!!
यहां मुझे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास “नौकर की कमीज” की याद आई। वैसे तो इस उपन्यास में लेखक ने “ब्यूरोक्रेसी” पर जबरदस्त प्रहार किया है जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे लेकिन आज इसमें लेखक ने जिस मनोवैज्ञानिक और व्यंग्यात्मक लहजे में ‘नौकर’ और ‘मजदूर’ के बीच के अंतर को बताया है, उसकी चर्चा कर लेते हैं।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र संतू जो किसी आफिस में एक क्लर्क है, अपने बारे में सोचता है, “मैं शान्त होता था तो उसी आदमी की तरह, जिसकी एक शेर की देख-रेख करने की नौकरी थी।...शेर की नौकरी के डर से उसे रात-भर नींद नहीं आती थी।... शेर से ज्यादा वह मालिक से डरता था।” तात्पर्य यह कि कठिन से कठिन काम नौकर को नहीं डराता, उसे ‘मालिक’ डराता है।
"नौकरी में समझने के लिए कुछ रहता नहीं है। कुछ लोग इसलिए नहीं समझते कि उनके लिए कठिन है और कुछ लोगों के लिए समझने के लिए कुछ है ही नहीं।” दरअसल यहां नौकरी में जरूरी गुलामी की मानसिकता को इंगित किया गया है।
‘नौकर’ होने की स्थिति में और ‘’मजदूर’ होने की स्थिति में दोनों की मानसिकता में अंतर को उपन्यास में आए इन कथनों से समझा जा सकता है, एक जगह संतू जब स्वयं को नौकर मानकर सोचता है,"
"मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था। सूर्य का भी यही हाल था। फर्क सिर्फ दिन और रात का था" तो वह यहां इस आकाश की आड़ में छुपे दुनिया के उजाले को पाना चाहता है -
लेकिन मजदूर की दृष्टि से उसका नजरिया बदल जाता है। अब वह इस आकाश को फाड़कर पूरे आकाश जितना बड़ा सूरज या चंद्रमा को नहीं पाना चाहता बल्कि सूरज रोजी का दिन और चंद्रमा रात को नींद लाने का जरिया बन जाते हैं -
“जिस प्रकाश की झलक फटे हुए गोल छेद से, सूर्य और चन्द्रमा जानकर वे देखते हैं, उनसे कहा जाए कि सूर्य और चंद्रमा की खिड़की से कूदकर चोर की तरह वहां जाने की बात सोचने के बदले यदि पूरे आकाश को फाड़ दिया जाए तो पूरे आकाश जितना बड़ा सूर्य होगा और चंद्रमा होगा। यह बात सोची जाए, तब वे कहेंगे - ऐसे ही रहने दो! सूर्य कभी-कभी हमारे लिए रोजी का दिन भी ले आता है। और चन्द्रमा कभी-कभी नींद की रात। कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो हम मिलनेवाले काम के दिन और नींद की रात को भी खो बैठेंगे।”
एक ‘मजदूर’ की लालसा उतनी बड़ी या व्यापक नहीं होती जितनी कि एक ‘नौकर’ की। मजदूर में संवेदना और संतोष की वृत्ति हो सकता है, वह काम के घंटों के बाद चैन की नींद सोना चाहता है। जबकि नौकर इस हद तक मालिक की अपेक्षाओं का गुलाम हो चलता है कि संतू के शब्दों में -
“ छुट्टी से मुझे घबराहट होती है। छुट्टी मुझे एक ऐसी फुर्सत लगती है जिसमें एक आदमी अपना ही तमाशा देखता है।”
स्पष्ट है मजदूर लोकतांत्रिक परिस्थिति में ही मजदूर होता है, अन्यथा गुलामी की परिस्थिति में वह नौकर हो जाता है। एक मजदूर काम के प्रति ईमानदार हो सकता है लेकिन नौकर काम की अपेक्षा मालिक के प्रति ईमानदार होता है। इसलिए शेर की सेवा की नौकरी में उसे शेर से नहीं मालिक से डर लगता है।
जिस कामवाली के संबंध में पत्नी से मेरी बात हुई थी। दरअसल वह नौकर नहीं मजदूर थी, उसे सारा आकाश नहीं बल्कि उसे काम से कुछ पल की छुट्टी चाहिए। मजदूर को जीवन में सुकूँन की तलाश होती है। नौकर की अपेक्षा मजदूर होना कहीं ज्यादा अच्छा है।
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