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बुधवार, 16 मई 2012

खेल


          बहुत दिनों के बाद गांव में मैं अपने खेतों की ओर गया | खेतों से सटा हुआ कई एकड़ में फैला एक मैदान था जिसमें तरह-तरह की झाडियों के साथ कई प्रकार पेड़ भी थे | बचपन से ही मैंने लोगों को उस मैदान को वन के नाम से पुकारते हुए सुनते आया था | पूजा एवं त्योहारों के अवसर पर प्रसाद आदि बांटने के लिए वहाँ से ढाक के पत्ते तोड़ कर लाया करता था वहीँ से हम बच्चे तुलसी के पौधे लाकर घरों में लगाया करते थे | उसी वन के एक किनारे सड़क के दूसरी ओर स्थित विद्यालय में पढ़ाई के समय हम बच्चे वन के खाली मैदान में खेला भी करते थे | कई बार हम बच्चे उस वन में मोरों के झुंड को घूमते तथा उन्हें नाचते हुए भी देखा था तथा झाडियों में घूमते खरगोशों को पकड़ने की कई बार कोशिश भी की थी | बरसात के दिनों में वहाँ छोटे-छोटे तालाबों,गढ्ढों में पानी भरने के साथ मेंढकों के टर्राने की आवाजें भी सुनी थी | संवेदनशीलता का पाठ बचपन में ऐसे ही वातावरण से सीखा था |

           आज उसी वन को कई फिट ऊँची ईटों की चहारदीवारी से घेर दिया गया है तथा उस स्थान को मशीनों से समतल कराया जा रहा था | पूंछने पर गांववालों ने बताया कि उस भूमि को गाँव के ही एक व्यक्ति ने बेंच दी है अब यहाँ एक इंजीनियरिंग कालेज खुलेगा | लेकिन मैं उस वनभूमि को अब तक ग्रामसभा के स्वामित्व में ही समझते हुए आया था , इसके उत्तर में ग्रामवासी ने बताया कि बेचनेवाले ने कई वर्षों पहले ग्रामसभा से अपने नाम से उस भूमि का पट्टा करा लिया था , हालाँकि वह पट्टा गलत था क्योंकि वह स्वयं उस समय प्रधान भी था और समाज के तथाकथित उच्चवर्ग से था | उस पट्टे का विरोध करनेवालों को न्यायालय में भी सफलता नहीं मिली | यह सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने कमजोर वर्ग के भूमिहीनों की भूमि पर डाका डाला हो और समाज में उन्हें सदैव के लिए कमजोर और दुर्बल बने रहने के लिए अभिशप्त कर रखा है और उनकी सुनने वाला कोई नहीं है , क्योंकि यह लाखों का सौदा था |

            मुझे उस नवनिर्मित चहारदीवारी के ऊपर एक मोर नजर आया , मैंने सोचा वहाँ खुलने वाला इंजीनियरिंग कालेज क्या प्रकृति की इंजीनियरिंग से बड़ा है या फिर सब पैसों का खेल है !

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