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शनिवार, 11 अप्रैल 2020

कोरोना से हम मुकाबला कर लेंगे

         आज दो क्वारंटाइन सेंटर पर जाना हुआ। एक सेंटर पर चार लोग क्वारंटाइन थे। एक निश्चित दूरी पर उनके बिस्तर लगे थे| वहाँ एक पंजिका भी रखी थी, जिसमें क्वारंटाइन होने की तिथि एवं अवधि पूरी होने पर मुक्त किए जाने की तिथि अंकित की जाती है| इसके साथ ही इनके चिकित्सकीय परिक्षण हेतु आने वाले डाक्टर/चिकित्सा कर्मी के हस्ताक्षर भी होते हैं| इसी प्रकार एक दूसरी पंजिका इन्हें दिए जा रहे नाश्ते एवं भोजन के अंकन हेतु रखा था| कोरोना के भय से उस पंजिका को मेरी छूने की हिम्मत नहीं हुई| वहाँ उपस्थित एक चिकित्सा कर्मी ने उस पंजिका के पन्ने पलटते हुए उसका निरीक्षण कराया, जो स्वयं क्वारंटाइन में रहते हुए अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर रहा है| इसीतरह एक दूसरे सेंटर पर पंद्रह व्यक्ति क्वारंटाइन किए गए थे, मिले| इन सेंटर्स पर कुर्सी पर बैठने पर भी मुझे डर लग रहा था|
        
          खैर इन दोनों स्थानों पर संबंधित प्रधान, ग्राम सचिव, चिकित्सा कर्मी प्राणपण के साथ इन सेंटरों की व्यवस्था करते हुए दिखाई पड़े| इसी तरह जनपद में अन्य स्थानों पर भी क्वारंटाइन सेंटर बनाए गए हैं, जिनमें लॉकडाउन तोड़कर सुदूर शहरों से आने वाले श्रमिकों/ व्यक्तियों को क्वारंटाइन किया गया है और उन सबके लिए ऐसी व्यवस्थाएं की गई हैं| 
   
          एक बात है,भारत को गरीब मानकर कुछ लोग इस देश में स्वास्थ्य सेवाओं को विकसित देशों की अपेक्षा कमतर मानते हैं, जो कोरोना जैसी महामारी की दृष्टि से नाकाफ़ी है, मतलब हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की क्षमता इस महामारी का सामना करने लायक नहीं है| यह बात सत्य भी हो सकती है, लेकिन वहीं पर यह भी देख सकते हैं कि अति आधुनिक चिकित्सकीय सुविधाओं वाले राष्ट्र भी इस महामारी के सामने त्राहिमाम कर रहे हैं| लेकिन यह तथ्य वैसा नहीं है, जैसा हम समझ रहे हैं| भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं और अमेरिकी-यूरोपीय स्वास्थ्य सेवाओं में उद्देश्यपरक और चारित्रिक अंतर है| अमेरिका के स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में ज्यांद्रेज एवं अमर्त्यसेन का मानना है कि-
    
           "अमेरिका में उच्च स्तरीय मेडिकल सेवा होने की शानदार गुणवत्ता के बावजूद इस देश में स्वास्थ्य सेवा का पर्याप्त विस्तार नहीं हुआ है; और उससे कई लोग अछूते रह गए हैं। औद्योगिक देशों में अमेरिका की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था सबसे महँगी और अप्रभावी है, वहाँ स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च का आँकड़ा यूरोप के मुकाबले दोगुना ज्यादा है लेकिन इस व्यवस्था के नतीजे खराब हैं, और अमेरिका जीवन प्रत्याशा के मामले में विश्व में 50 वें रैंकिंग पर है|" इसका आशय यही है कि अमेरिका की यह व्यवस्था विषमतापूर्ण है| शायद यही वजह है कि अमेरिका इस महामारी का सामना करने में स्वयं को असहाय पा रहा है और उसकी स्वास्थ्य सेवाएं नाकाफी साबित हो रही है|
     
           वहीं पर भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की प्रकृति सामाजिक है और इसका स्वरूप लोकतांत्रिक होने के कारण यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का फैलाव भी है, जिसमें जनभागीदारी के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य केंन्द्रों का जाल भी है| इसी वजह से बहुत हद तक हम बीमारियों को रोकने में कामयाब भी  होते हैं| भारतीय स्वास्थ्य सेवा की यह प्रकृति ही उसे कोरोना जैसी महामारी का सामना करने में सक्षम भी बनाती है| क्वारंटाइन केंन्द्रों पर भ्रमण के समय हमें यह अहसास हुआ कि कोरोना जैसी महामारी का हम सफलतापूर्वक मुकाबला कर लेंगे|
         
            फिर भी, इस महामारी से सबक लेकर विशेषज्ञों की यह राय मानना जरूरी है कि "भारत में संस्थागत परिवर्तन करके बेहतर स्वास्थ्य सेवा देने की जरूरत है बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी में से ज्यादा अनुपात में सार्वजनिक खर्च किया जाए|" अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं को हम 'जन-विमर्श' का विषय बनाएँ|
     
           खैर, इसी के साथ हमें विकास के मायने भी बदलने होंगे| सिमेंटेड दुनियां या फिर इस दुनिया को नाप लेना ही 'विकास' नहीं हो सकता| हाँ, खेत की मेड़ पर निर्द्वन्द्व बैठकर आपस में मुस्कराते-बतियाते भैंस चराते और हरियाले झुरमुटों तथा पेड़ों के बीच इनके साफ-सुथरे घर भी विकास के मायने हो सकते हैं, बस इनके लिए हमें स्वास्थ्य और शिक्षा का बेहतर प्रबंध करना होगा|