रामचरितमानस में एक
चौपाई है
“रघुकुल
रीति सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाई।”
यहाँ चौपाई के इस कथन में
निहित वह ‘मानसिक तत्व’ विचारणीय है जो सामंतीय दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के साथ
दूसरों को भी सम्मोहित करने का कारण बनती है क्योंकि इस ‘प्रण’ में एक
तरह का ‘मानसिक अहंकार’ और उसका ‘नैतिक पक्ष’ बिम्बित हो रहा है। इस तरह का कथन और यह निर्णय
एक शक्तिशाली व्यक्ति ही ले सकता है; एक साधारण व्यक्ति यह सोच
भी नहीं सकता। ऐसे 'मानसिक
अहंकार' और इससे निर्मित ‘मानसिक तत्व’ जनित व्यवस्थाओं में आज के लोक मानस की दशा और
दिशा विश्लेषण का विषय हो सकता है। शाब्दिक
अर्थों में उक्त चौपाई की भावनाओं का गर्व और प्रशंसा के साथ उल्लेख किया जाता है
तथा एक धार्मिक विशेषण के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। लेकिन
इसके विश्लेषण से प्रतीत होता है कि एक ताकतवर और स्वयं को शक्तिशाली समझनेवाला
व्यक्ति जो दूसरों कि भावनाओं और स्थितियों की अनदेखी करता हो वही ऐसा कह और कर सकता
है, इस
तरह का ‘मानसिक तत्व’ ही प्रकारान्तर से धीरे-धीरे सामंतवादी मानसिकता में बदल
जाता है। इस 'मानसिक तत्व' को किसी धर्म, जाति या क्षेत्र विशेष के लोगों तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। इस चौपाई
के कथ्य के पीछे के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के विश्लेषण में यह भी पता चलता है कि कोई
व्यक्ति अपने किसी निर्णय या विचार से समाज या किसी व्यक्ति को प्रभावित करने के
लिए उसे नैतिकता या धार्मिकता की भावनाओं के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। यह व्यक्ति स्वयं को अन्य लोगों के समक्ष श्रेष्ठजन के रूप में भी प्रस्तुत करता है; इसके प्रभावस्वरुप आम जनमानस ऐसे व्यक्ति की बातों का
विरोध नहीं कर पाता और समाज भी दिग्भ्रमित होता रहता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति
अपनी श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए इस स्थिति का बड़ी चतुराई से अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति में दुरूपयोग करता है तथा यहीं से
एक प्रकार की सामंतवादी मानसिकता निर्मित होने लगती है।
भारतीय समाज जाति आधारित ऊँच-नीच के भेद-भाव से पीड़ित समाज है, वास्तव में इसके
मूल में हमारी एक दूसरे से श्रेष्ठता अर्जित करने का भाव रहा है। श्रेष्ठता अर्जित
करने का यह भाव कोई अस्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है क्योंकि प्रकृति में ‘उत्तरतम के
जीवितता’ का सिद्धांत इसे प्रकृतितः पुष्ट करता है। लेकिन भारतीय
सामजिक-सांस्कृतिक विकास के क्रम में इस प्रवृत्ति के विकसित होते जाने के जैविक
कारणों से इतर अन्य कारण रहे हैं। इसका कारण हमारी धार्मिक मान्यताओं के मूल में
छिपा है, वैदिक युग में आज की जैसी जातिवादी व्यवस्था नहीं थी, पुरुषसूक्त के जिस
श्लोक को लोग जातिवादी व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार मानते हैं वह मात्र मानव का
गुण कर्म के आधार पर विभेद था, यह श्रेष्ठता जन्मना नहीं थी। वैदिक युग की उक्त व्यवस्था
में कोई भी व्यक्ति अपने गुण-कर्मों के आधार पर किसी भी वर्ण में शामिल हो सकता था,
‘अहम् ब्रह्मासि’ की भावना सभी के लिए सामान थी और पिंड ही ब्रह्माण्ड है जैसी मान्यताएं
प्रमुख थी। लेकिन यह दार्शनिक दृष्टिकोण आरण्यक चिंतकों में ही विशेष रूप से
प्रचलित था, चूँकि यह मान्यताएं दुरूह और आमजन के समझ में आने वाली नहीं थी इसलिए
वैदिक कालीन मान्यताओं का स्वरुप धार्मिक आधार ग्रहण नहीं कर पाया था। अतः उस समय किसी
भेद-भाव या ऊँच-नीच की मान्यता के लिए कोई वैचारिक या धार्मिक धरातल प्रस्तुत नहीं
था और अच्छे बुरे की धर्म-अधर्म के रूप में व्याख्या भी नहीं की गयी थी। धीरे-धीरे
समाज में जटिलता बढ़ने के साथ ही सामाजिक क्रियाशीलता में भी वृद्धि हुई फलस्वरूप
जो दार्शनिक मान्यताएं मात्र अरण्यों तक ही सीमित था महाकाव्यकालीन युग में
धीरे-धीरे धार्मिक-स्वरुप ग्रहण करते हुए जन सामान्य में पहुँचने लगा तथा प्रतीकों
के रूप में इनका सरलीकरण भी हुआ। प्राकृतिक आपदाओं एवं व्याधियों तथा अन्य ऐसे ही
कारणों से भयभीत मानव मन को धार्मिक मान्यताएं कुछ आश्वस्त करती प्रतीत हुई। परिणामस्वरूप
इस भय ने ही एक दार्शनिक विचारधारा को धार्मिक विचारधारा में बदलते हुए भक्ति-सापेक्ष
ईश्वरवादी अवधारणा को विकसित किया। भय की इस आधारभूमि पर विभिन्न धार्मिक
विचारधाराओं या मतों का विकास होता चला गया। यहाँ उल्लेखनीय है कि भय की आधारभूमि
पर ही धार्मिक भावनाओं का विकास होता है।
ईश्वर-उपासना की अवधारणा एक तरह से सामंतवादी
विचारधारा की अभिव्यक्ति है जिसने सामंतवादी विचारधारा के लिए ‘मानसिक तत्व’ के निर्माण
में योगदान दिया। हमारी ईश्वरीय मान्यताओं में इस तरह की सोच प्रतिबिंबित होती है;
जहाँ हम ईश्वर में सर्वशक्तिमान जैसे गुणों की कल्पना करते हैं जो हमारे लिए असंभव
होता है और इन गुणों के प्रतीक के रूप में ईश्वर की उपासना करने लगते
हैं। इस ईश्वरीय काल्पनिक गुण से हमारी जो दूरी है वही
सामंतीय मानसिकता को पोषित करती है। उपासना पद्धति में ईश्वर और उपासक के बीच
निर्मित काल्पनिक दूरी को उभारा जाता है यही भावना ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा
का आधार बनती है। इसी श्रद्धा-भाव को उस सामंत या राजा के प्रति जगाया गया और उसे
भी ईश्वर का अंश घोषित किया गया जो मात्र ऊँच-नीच की भावना से ही अपनी शोषणकारी
शक्ति अर्जित करता था। इस पूरी प्रक्रिया में हम अपने लिए एक ऐसा ‘मानसिक तत्व’
निर्मित करते हैं जिससे एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जिसमें लोग यथास्थितिवादी,
भेद-भाव एवं ऊँच-नीच की मान्यताओं से पीड़ित होते है। धीरे-धीरे
भारतीय समाज में इसी भावना ने ‘बेचारगी’ का भाव भी उत्पन्न कर दिया।
महाकाव्य-काल
में ईश्वरवादी भावनाओं को व्यापक आधारभूमि प्राप्त हुई। वास्तव में भारतीय जनमानस के लिए महाकाव्य-कालीन चरित्र स्वयं में नायक
थे लेकिन इस नायकत्व का महिमामंडन आम-जन की उस बेचारगी के आलोक में किया गया जहां
सामान्य-जन शक्तिहीन बन उसी नायक पर निर्भर रहे। कभी-कभार आम-जन को शक्तिमान बताने
का प्रयास भी इन महिमामंडित चरित्रों के लिए ही इनके दासत्व-भाव को उभारते हुए किया
गया। महाकाव्यकालीन चरित्रों में ईश्वरवाद ने वैदिक विचारधारा “अहम् ब्रह्मास्मि”
या इस जैसी ही सबके बीच समरसता की भावनाओं (सर्व खल्व इदं ब्रह्म) को पोषित करने
की अन्य अवधारणाओं को धीरे-धीरे कमजोर कर दिया। अब भक्ति और योग संपृक्त कर्म भी
हमारी जड़ता को तोड़ नहीं पाया क्योंकि आम भारतीय-जन दार्शनिक मान्यताओं के इस
गूढ़ार्थ को समझ नहीं सका। यहाँ आकर दार्शनिक विचारधारा की व्याख्या धार्मिक
विचारधारा के रूप में इस प्रकार से किया गया कि इसके केंद्र में व्यक्ति न होकर
ईश्वर को मान लिया गया। सारी धार्मिक क्रियाओं में प्राकृतिक शक्तियों का ईश्वर के
रूप में मानवीकरण कर इनका आवाह्न भी मात्र व्यक्ति को स्वयं के दुखों से मुक्ति के
लिए किया गया। इस प्रकार ऐसी धार्मिक क्रियाओं में व्यक्तियों में ही ऊँच-नीच की
भावना घर करती चली गयी तथा इसने हमें एक सुविधाभोगी समाज में परिवर्तित कर दिया। प्रकृति से ही सीखी गयी वैदिक
सूक्ति ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’ की भावना क्षीण होते हुए 'मैं और बाकी सब मेरे लिए' का भाव विकसित होता चला
गया तथा आम-जन उद्देश्यहीन
हो निराशा के गर्त में चला गया।
इस
‘निराश’ और ‘भयभीत मन’ ने अपनी इस बेचारगी के कारण पौरोहित्यवाद को प्रश्रय दिया और पौरोहित्य-वर्ग ने अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए दार्शनिक
दृष्टिकोणों को धार्मिक आधार प्रदान कर प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीकों के रूप में
मानवीकरण किया। भयभीत मानव-मन इन प्रतीकों की उपासना में ही अपनी समस्याओं का हल खोजने
लगा और दार्शनिक मतों की ईश्वर-केन्द्रित इस व्याख्या से सामंतीय मनोवृत्ति का
विकास हुआ। इसी पौरोहित्यवाद ने पाप और पूण्य के खेल में भोले-भाले आम-जन को
श्रेष्ठ एवं निम्न में विभाजित कर दिया। यहाँ आकर स्थूल धार्मिक कर्मकांडों को
श्रेष्ठ बताते हुए श्रम-साध्य कार्यों को हीन मानते हुए एक तरह से इसे सांसारिक
बताया जाने लगा और निष्क्रियता जैसी अवस्था को मनुष्यों के लिए मुक्ति का श्रेष्ठ
मार्ग घोषित कर दिया गया। अब श्रमिक वर्ग की उपेक्षा होने लगी थी तथा समाज कई
श्रेणियों में विभाजित होने लगा था। बाद में यह विभाजन गुण-कर्म के आधार न होकर जन्म
पर आधारित मान लिया गया।
यहाँ विशेष उल्लेखनीय यह है कि धार्मिक-पौरोहित्यवाद
की प्रस्तुत की गई ईश्वरवादी उपासनापरक अवधारणा में श्रमिक-वर्ग उपेक्षित था फलतः
इसकी शेष समाज से भी दूरी बढती गयी तथा वह केवल श्रमिक भर रह गया था। इस पौरोहित्य
वर्ग ने स्वयं को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए ईश्वर-भक्ति का प्रतिपादन कर,
राजा को भी ईश्वर का अंश घोषित कर दिया। यहाँ पर आकर एक ऐसा ‘मानसिक तत्व’ निर्मित
हो चुका था जिसमें ‘मानसिक अहंकार’ और ‘नैतिक पक्ष’ का चतुराई-पूर्ण सम्मिलन था। इस
‘मानसिक तत्व’ से जन्मे सामंतवाद ने इसे ही अपना प्रमुख हथियार बना लिया। राजा के
विरोध को अनैतिक मानते हुए सांसारिक समस्याओं से जूझने की आम-जनों की शक्ति को
क्षीण करते हुए इसे माया और मुक्ति के मार्ग में बाधक घोषित का दिया गया। निराश भयभीत
भारतीय जन-मानस को दूसरों की अराधना में ही त्राण का मार्ग तलाशने के उपदेश दिए
जाने लगे। इन लोगों ने “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:...” कह भय से मुक्ति हेतु अवतारवाद की भी परिकल्पना कर आम-जन से इन स्थितियों
से मुक्ति हेतु स्वयं के प्रयास का अवसर भी छीन लिया। जीवन
को सहजता के साथ और प्राकृतिक ढंग से जीने वाले आम भारतीय जनमानस को अवतारवाद की
अवधारणा ने इस हद तक प्रभावित किया कि किसी भी सामाजिक अन्याय को भी ऊपर वाले की
देन या भाग्य का खेल मान उसे चुपचाप सहने को उसने अपनी
नियति मान लिया। पौरोहित्य-वर्ग एवं सामंतों द्वारा पुरुषसूक्त के श्लोक की
मनुस्मृति में ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की गई कि एक जन्मना जातिवादी समाज स्थापित हो
गया। इस पूरी प्रक्रिया से पुरोहित एवं सामंत सुरक्षित हो गए अब इनकी शक्ति को
चुनौती देने वाला कोई नहीं था। इस प्रकार भारत की दार्शनिक धार्मिक परम्पराओं ने
एक ऐसा ‘मानसिक तत्व’ निर्मित किया जिसने भारतीय समाज में सामंतीय दृष्टिकोण के
साथ इसे एक जातिवादी समाज में स्थाई रूप से विभाजित कर दिया।
अब विभाजित भारतीय समाज के लिए मुक्ति का मार्ग
जैसे बंद हो चुका था इस जातिवादी ढाँचे के कमजोर वर्ग को अपनी नियति इसी व्यवस्था
में दिखाई पड़ रही थी। ईसापूर्व की युद्धग्रस्त परिस्थितियों के समय की भारतीय
मानसिकता के बारे में इतिहासकारों ने लिखा है कि युद्ध के समय भारतीय किसान लड़ाई
के मैदान के पास ही इससे प्रभावित हुए बिना अपने खेतों में हल चलाता रहता था।
इतिहासकारों का यह कथन उस समय के कमजोर एवं मध्यमवर्ग की मानसिकता को प्रतिबिंबित
करती है| आखिर वह ऐसी कौन सी मानसिकता थी जिसके कारण यह वर्ग ऐसे युद्धों से
अप्रभावित रहता था जबकि इसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसपर अवश्य
पड़ता?
ऐसे युद्धों से आम-जन के अप्रभावित
रहने का कारण उस समय के शासकों का जनता के हितों पर ध्यान न देना भी रहा होगा तथा युद्ध केवल व्यक्तिगत हित के लिए ही लड़े जाते रहे होंगे। इस सम्बन्ध में विशेष बात यह भी रही होगी कि जातीय
समूहों में बटे समाज पर इन युद्धों से कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था क्योंकि जातीय
वर्गों का विभाजन इस प्रकार से किया जा चुका था कि इसके निचले पायदान पर खड़ा
व्यक्ति इन लड़ाइयों के परिणामों से अप्रभावित रहता अर्थात श्रमिक या मध्यम वर्ग के
लोग अपनी स्थितियों के लिए अभिशप्त थे। उस समय का शासक वर्ग वह चाहे कोई भी रहा हो जनता का शोषक ही
अधिक रहा होगा और सारा कुछ उसके ऐश्वर्य के लिए ही होता
रहा हो, अतः ऐसी स्थितियों में आम-जन का इन युद्धों से अप्रभावित रहना शायद
स्वाभाविक ही था।
वास्तव में युद्ध जैसी परिस्थितियों
में भी आम-जन की यह उदासीनता हमारे समाज में जड़ता के प्रतीक
के रूप में प्रदर्शित हो रही थी तथा हमारी जन्मना जातिवादी विचारधारा से ही यह
जड़ता और पुष्ट होती गयी जो आज भी जारी है। शायद भारतीय
साहित्य में इसी भावना को “कोऊ नृप होऊ हमई का हानी” के रूप में व्यक्त किया गया है, इसे हम
यथास्थितिवादी एवं भाग्यवादी सोच के प्रतीक के रूप में भी
ले सकते हैं। इस सोच का कारण उस ईश्वरवादी विचारों में
ही निहित है जहाँ हमने ईश्वर को ही सब कुछ मान कर अपने को उससे दूर खड़ा कर स्वयं
को आराधक की श्रेणी में स्थापित कर लिया है और अवतारवाद
की परिकल्पना कर त्राण के लिए उसके उपर निर्भर हो गए। इस
मानसिकता के कारण हमे अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए सदैव एक ‘हीरो’ की आवश्यकता
रही है, शायद इसी कारण स्वयं अपनी समस्याओं से हम नहीं जूझते
बल्कि अपने अवचेतन में पराधीनता जैसी मानसिकता लिए हुए दूसरों के माध्यम से ही इन
समस्याओं का निदान खोजते हैं। सच तो यह है हमारी इस मानसिक कमजोरी का लाभ हमारे ही
समाज के चालाक वर्ग उठाते रहे हैं और येन-केन प्रकारेण अपनी महत्ता स्थापित कर
हमें दिग्भ्रमित भी करते रहते हैं; अन्ततः भ्रष्टाचार का जन्म भी यहीं से प्रारम्भ
हो जाता है। प्रकारान्तर से वे लोग ऐसा सामन्तवादी खोल
विकसित कर लेते हैं जिसे भेदना जन-सामान्य के लिए दुष्कर हो जाता है। बड़े ही
चालाकी से समाज के ऐसे तत्व अपने खोल की सुरक्षा का दायित्व भी हमें सौंप कर हमें उपकृत करने अहसास भी जगा देते हैं।
इस प्रकार इन प्रवृत्तियों ने हमारे समाज को तमाम दायरों में बाँट दिया, जिसका दंश
हम जातिवाद एवं सामाजिक असमानता के साथ ही सामंतवादी मानसिकता के रूप में आज भी झेल रहें हैं। "वसुधैव कुटुम्बकम" की
हमारी भावना भी हमें अवास्तविक सी प्रतीत होती है, क्योंकि
हम अपने ही समाज में वास्तविक एकता स्थापित नहीं कर पाए। आज भी हम देखते हैं कि
भारतीय समाज ऐसी ही मानसिकता से पीड़ित है, हम अपनी इन
दुर्व्यवस्थाओं को नजरअंदाज करते हुए अपने पांच हजार
साल के इतिहास का उल्लेख महानता के इस गर्व के साथ करते है कि आज भी हमारे यहाँ पुरानी
परम्पराएं जीवित हैं। हमने
कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यदि हमारे यहाँ प्राचीन परम्पराएं आज भी
जीवित हैं तो उसके पीछे के क्या कारण रहे हैं, और इस पर गर्व
भी किया जा सकता है या नही ? या फिर हमारे समाज के
मानवीय पक्ष के साथ उसके सामाजिक, आर्थिक विकास में इन
परम्पराओं का कितना योगदान रहा है?
एक प्रकार से हम निर्मित उस
‘मानसिक तत्व’ से सांस्कृतिजन्य बेचारगी की जड़ता के शिकार हो
गए हैं। आमजन की इस संस्कृतिजन्य बेचारगी वाली मानसिकता के कारण ही कुछ लोग अपने को श्रेष्ठ जन के रूप में
प्रस्तुत कर एक शोषणवादी व्यवस्था को जन्म देकर स्वयं उनके तारणहार भी बन बैठे। इस
स्थिति ने एक ऐसे सामंतवादी व्यवस्था को जन्म दे दिया है जो हमारे देश की सारी
आधुनिक व्यवस्थाओं को घुन की तरह खाए जा रहा है, जहाँ आमजन आज भी मात्र मूकदर्शक
बना हुआ है। हमारी इस सांस्कृतिक कमजोरी ने ही देश को सैकड़ों वर्षों की गुलामी
में ढकेलते हुए बाहरी लोगों को इस देश पर शासन करने का अवसर प्रदान किया। यही
मानसिकता आज माफियावाद का रूप ले चुकी है जहाँ इसके
विभिन्न रूप दिखाई पड़ रहे हैं, यह भारतीय संविधान में प्रस्तावित नागरिकों में
समानता के उद्देश्य को खोखला सिद्ध कर रहा है।
हमारा
देश आधुनिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सबसे बड़ा प्रहरी दिखाई देता है, तथा गर्व
से विश्व मंच पर हम अपनी इस व्यवस्था का उल्लेख भी करते हैं, लेकिन आम-जन
की भागीदारी इस व्यवस्था में कहाँ तक है? वास्तव में देखा जाए तो सामंतवादी मानसिकता के गढ़ों ने
जनता का उनके अधिकारों के साथ व्यपहरण कर लिया हैं और इस लोकतांत्रिक प्रणाली में
जनता का उपयोग मात्र सरकार बदलने तक सीमित कर दिया है। शासक के
रूप में वही लोग, वही नीतियाँ, इनमें कोई खास बदलाव नहीं आ पाया है। इतने
वर्षों के बाद भी हमारे यहाँ प्राचीन सामाजिक, आर्थिक
असमानता आज भी व्याप्त है तथा जब-तब विषैले साँपों की तरह धार्मिक-जातीय
दुराग्रह राष्ट्र की एकता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर देते हैं। विचारणीय
है कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का आखिर उद्देश्य क्या है? ऐसा
प्रतीत होता है कि इसका उद्देश्य केवल सरकार बदलने तक सीमित हो गया है जो प्राचीन
एवं मध्यकालीन शासकों के हिंसक और पैत्रिक सत्ता संघर्ष को एक लोकतांत्रिक
व्यवस्था का आधार भर प्रदान करता हैं तथा इसे सत्ता प्राप्त करने की सीढी मात्र समझा गया है। गांवों
में मानव विकास की पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता का दर्शन आज भी हो जाता है जिसके
लिए किसी किताबी अध्ययन की आवश्यकता नहीं होगी। एक
विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र बनने का चाहे जितना ढिढोरा पीटें पर एक
राष्ट्र-राज्य का मानक भी हम नहीं गढ़ पाए हैं जिस पर चल कर कोई भी देश अपनी
ऊँचाइयों पर पहुँच सकता है।
हमारी आधुनिक
लोकतांत्रिक व्यवस्था में “अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग” ही दिखाई
देता है। आखिर हमारी इस आधुनिक व्यवस्था की यह दुर्दशा क्यों
है? चुनाव और बहुमत के खेल में
ही यह क्यों उलझ कर रह गया है? इसे समझने के लिए मानव मन की
महत्वाकांक्षा को समझना होगा। इसके लिए हम अपने उस ‘मानसिक तत्व’ को उत्तरदायी मान
सकते हैं जो समाज में मानसिक विभाजन को पुष्ट करता चला गया है। इसके क्रम में हमें
अन्य धार्मिक देनों को भी समझना होगा जैसे मानव सदैव से महत्वाकांक्षी रहा है और
उसकी इस इच्छा की पूर्ति के चार माध्यम रहे हैं जिन्हें चार पुरुषार्थ की संज्ञा
भी दी गई है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। पूर्व में धर्म और मोक्ष के भाव की प्रधानता थी क्योंकि प्रकृति पर मानव की निर्भरता अधिक थी और तब यही
शक्ति का आधार थी आज अर्थ और काम की प्रबलता है क्योंकि आधुनिक मानव भौतिक
व्यवस्थावों को अपने अनुकूल बनाता जा रहा है जिससे उसमें उपभोग की लालसा जागृत हो
रही है। यहाँ अर्थ और काम को उसके शाब्दिक अर्थों में ही नहीं बल्कि इसे व्यापक सन्दर्भों में ग्रहण
करना होगा जहां इसे शक्ति के अर्जन तथा इसके उपभोग के सन्दर्भ में देखना होगा और
इन सब के केन्द्र में हमारे औरों से श्रेष्ठ होते जाने का भाव छिपा है। यह दूसरों से श्रेष्ठ होते जाने का भाव मात्र अर्थ और काम की परिधि तक ही
सीमित हो चुका है। मोक्ष तथा पुरुषार्थ को निर्बल-वर्ग के लिए सुरक्षित रखते हुए
इसे सीढ़ी के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है जो सामंतवादी मानसिकता को ही
अभिव्यक्त करता है, इसी भाव को शासन व्यवस्था में भी ग्रहण
कर लिया गया है। शक्ति अर्जन करने की जो सामंतीय प्रवृत्ति लोगों को जातीय समूहों में बाँटकर प्राचीन युग से चली
थी अब इस प्रवृत्ति से अर्जित शक्तियों में विभाजन होने
लगा है। भारतीय समाज में शक्ति के आकांक्षी चालाक वर्ग ने ऊपर वाले पर विश्वास कर
सहज जीवन जीने वाले जन-मन की भावनाओं का अपने हित में दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर
दिया। यहाँ सामंतीय वृत्तियों को संस्कार-वश निर्मित ‘मानसिक तत्व’ से आधुनिक समाज
के विभिन्न स्तरों को भी प्रभावित करने में सहायता मिलने लगी।
अब शक्तियों के बटवारे का खेल आधुनिक
तरीके से खेला जाने लगा है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका शक्तियों के बटवारे के आधुनिक
युग के माध्यम बन चुके हैं। यह तीनो माध्यम अपनी उर्जा
लोकतंत्र नामक प्रक्रिया से प्राप्त कर रहे हैं; इस प्रक्रिया
के प्रथम सोपान वही आम-जन है जिसने प्राचीन दार्शनिक-धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक
संस्कारों वश अपनी दुरावस्थाओं को अपनी नियति मानकर किसी तारणहार को सहज रूप से
स्वीकार कर लेता है तथा अपनी दुरवस्थाओं के विरुद्ध खड़े होने का साहस नहीं दिखा
पाता। शक्तियों के बटवारे के इस खेल में उसे इसका
क्षणिक हिस्सा ही मिला है जिसका उपयोग भी वह कभी कभार ही कर सकता है। ऐसी मन:स्थिति और और इस खेल का क्या परिणाम हो सकता है इसे शक्तियों के
बटवारे के तीनों आधुनिक माध्यमों में व्याप्त विकृतियों में देखा जा सकता है।
भारतीय जनमानस में सामंतवादी मानसिकता
का प्रभाव इसकी आधुनिक संस्थाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। शासन व्यवस्था के सभी अंगों
में श्रेष्ठता अर्जित करने का भाव जैसे सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लिया गया है; यहाँ दायित्व का स्थान गौण हो चुका है, व्यक्ति को
उसके कार्य से नहीं बल्कि धारित-पद और उससे अर्जित शक्तियों के आधार पर महत्व मिल
रहा है, यह प्रवृत्ति शासन के
तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में भी दिखाई देता है। हमारी इस व्यवस्था में पद धारण
करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकार एवं शक्तियों को एक दूसरे से श्रेष्ठ
सिद्ध करने में ही समय और उर्जा नष्ट करता रहता है; परिणाम
स्वरूप अपनी इस महत्वाकांक्षा के कारण वह अपने दायित्वों से दूर होता चला जाता
हैं। इस प्रवृत्ति के कारण सही बात या उचित तथ्यों को
आगे बढ़ाने की क्षमता घटती चली जाती है और भ्रष्ट आचरण की शुरुआत भी यहीं से होता है।
इस मानसिकता से प्रभावित होने के कारण प्रशासकीय गुणों के लिए अनिवार्य निर्वैयक्तिकता
जैसा महत्वपूर्ण गुण तिरोहित हो जाता है जिसके कारण ऐसी प्रशासकीय प्रणाली में
आम-जन कार्यपालिका-जनित न्याय से वंचित हो जाता है। वास्तव में भारतीय नौकरशाही
में इस सामंतवादी सोच के ‘मानसिक तत्व’ को स्पष्ट रूप से खोजा जा सकता है।
हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली के
महत्वपूर्ण अंग राजनीतिक दलों में परिवारवाद, राजनैतिक नेताओं के
अपने-अपने चुनावी गढ़ इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं जहाँ का ताना-बाना हमारी सांस्कृतिकजन्य
बेचारगी से शक्ति प्राप्त करता रहता है और जो धीरे-धीरे एक लोकतांत्रिक सामंतवादी
ढाँचा विकसित कर लेता है। सबसे छोटी इकाई ग्रामपंचायत
जैसी संस्था से लेकर संसदीय व्यवस्था तक में इसी 'मैं और
बाकी सब मेरे लिए' की मानसिकता दिखाई देती है। यही नहीं
हमारी तमाम सामाजिक धार्मिक सस्थाएं इसके जीते जागते प्रमाण हैं जहाँ देश की
सीधी-साधी जनता को भ्रमित करते हुए ऊँचे पायदान पर बैठे लोग शक्ति-अर्जन और इसके
बँटवारे का खेल गुपचुप खेलते रहते हैं। इस तरह हमारी सारी आधुनिक व्यवस्थाएं जैसे
शक्तियों के विभाजन के खेल में ही उलझी हुई हैं और हम अपनी आत्मार्पित और
अधिनियमित व्यवस्थाओं से आज तक मात्र सरकारें बदलना ही सीख पाएं हैं समाज बदलना
नहीं।
वास्तव में सरकारों से हम समाज बदलने
की अपेक्षा कर भी नहीं सकते और यदि सरकारें इसकी कोशिश भी करती हैं तो इसकी
प्रकृया बहुत धीमी होती है, जो मात्र शक्ति अर्जित कर किसी तरह सत्ता में बने
रहने तक सीमित हो जाती है। इसे हम उसी तरह से देख सकते हैं जैसे एक सामन्तवादी
मानसिकता का व्यक्ति येन-केन प्रकारेण समाज पर अपनी उपादेयता स्थापित कर समाज को
बरगलाते हुए उससे अर्जित शक्तियों का अपने हित में लगातार दुरूपयोग करता रहता है। आज की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से उपजे तथाकथित जनप्रतिनिधियों में यह
प्रवृत्ति विशेष रूप से देखी जा सकती है। यह एक प्रकार
से लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सामन्तीकरण है, जिसका एक पूरा
चक्र है। इस चक्र की एक खास विशेषता है जिसमें एक
व्यवस्था दूसरी व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाते हुए ही आगे बढ़ती है।