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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

सभ्यता की अदालत

           सुबह बड़े आराम से उठा, वैसे तो मोबाइल ने साढ़े पाँच बजे से ही मुझे उठाने का उपक्रम शुरू कर दिया था, लेकिन मैं था कि खुद के बनाए हुए उसूलों के प्रति ही विद्रोही रुख अख्तियार कर बिस्तर से नहीं उठ रहा था| यह उसूल कोई बड़ेवाला टाइप का नहीं, बस इतना ही था कि मोबाइल का एलार्म बजने पर मैं उठ जाया करुंगा| वैसे भी, मैं कोई राजा भी तो नहीं हूँ कि "प्राण जाय पर वचन न जाए" टाइप के बड़े और महान उसूलों को लेकर चलूँ| इस तरह के उसूलों का बनाना मैं "फ्युडलिज्म" का प्रतीक मानता हूँ! आखिर भला, एक अदना या साधारण इंसान क्या अपने बनाए बड़े उसूलों पर टिक सकता है? उसे तो पग-पग पर अपने उसूलों से समझौता करने की जरूरत होती है|  इसीलिए समझदार लोग कह गए हैं, "जैसी बहे बयार पीठ कीजै तब तैसी|"

      तो मैं तब बिस्तर छोड़ा, जब मोबाइल भी थक-हारकर मुझे उठाना बंद कर दिया और मैं छह बजे के बाद ही उठा| खैर शरीर की अकड़न दूर करने के लिए मैं अपने आवास के कमरों में चहलकदमी करने लगा| इस बीच मेरी दृष्टि कमरे में ही फुदकते एक मेढक पर पड़ी, जो मेरी इस सुबहचर्या को पढ़ते होंगे उन्हें याद होगा एक बार इसमें मैंने अपनी दयालुता और संवेदनशीलता की डींग हांकते हुए लिखा था कि कैसे एक मेढक को कमरे से बाहर कर देने के बाद उसे फिर कमरे में आने दिया था! लेकिन आज मैंने इस मेढक के प्रति वैसी दया नहीं दिखाई, बल्कि उसे अपनी मुट्ठी में दबोचकर बाउंड्रीवाल के उसपार फेक दिया जहाँ से वह लौट कर न आ पाए!! खैर|

         मैं थोड़ा कमरे में और थोड़े आवासीय कैंपस में काम भर का टहल लिया था| इसके बाद चाय-वाय लेकर अखबार के पन्ने पलटने लगा| अखबार में एक जगह पढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट अपने किसी अवमानना के मामले में किसी से कह रही है कि माफी मांगने में बुराई क्या| 

         लेकिन, जब कोई जाना माना हो जाता है तो उसे अपने उसूल भी जाने-माने रखने चाहिए! तो ऐसे ही एक जाने-माने सज्जन शायद अपने जाने-माने उसूल के कारण ही माफी मांगने के लिए तैयार नहीं हैं!! खैर यह तो जानी-मानी कोर्ट और उन 'जाने-माने' के बीच की बात है, दोनों के बीच कोई न कोई सर्वमान्य हल निकल ही आएगा|

          'गैर जाने-माने' लोगों के साथ ऐसे ही मामले में क्या हो सकता है, यह सोचने की बात है!! इस बात पर मैं विचारों की चकरघिन्नी में फंस गया था कि मेरा ध्यान रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास 'गोरा' के उस अंश पर गया, जिसमें 'गोरा' गाँव के साधारण लोगों के पक्ष में, उनके लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ना चाहता है और इस चक्कर में उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है| तब गोरा का सहपाठी 'सातकौड़ी' जो एक वकील भी है, उसे जमानत पर छुड़ाने का प्रस्ताव देता है, लेकिन इस प्रस्ताव के प्रतिवाद में 'गोरा' कहता है - "नहीं, मैं वकील भी नहीं करूंगा और मुझे जमनत पर छुड़ाने की चेष्टा भी नहीं करनी होगी|" 

          इसके लिए 'गोरा का तर्क है- "संयोग से मेरे पास साधन है, दोस्त हैं, इसलिए मैं बच जाऊं, यह मैं नहीं चाहता…..न्याय करने की जिम्मेदारी राजा की है, प्रजा के साथ अन्याय न हो यह राजा का ही धर्म है, लेकिन इस राज में यदि वकील की फीस न जुटा सकने पर प्रजा को हवालात में सड़ने या जेल में मरना पड़े, सिर पर राजा के रहते भी पैसा देकर इंसाफ खरीदने की कोशिश में लुट जाना पड़े, तो ऐसे अन्याय के लिए एक धेला भी मैं खर्च करना नहीं चाहता|" 

     'गोरा' आगे फिर कहता है -

    "आजकल इंसाफ के लिए राजा के सामने जाने पर चाहे वादी हो, चाहे प्रतिवादी,चाहे दोषी हो, चाहे निर्दोष, प्रजा को रोना ही पड़ता है| जो गरीब है, इंसाफ की लड़ाई में उसके लिए हार-जीत दोनों ही में सर्वनाश है, फिर जहाँ राजा वादी है और हम जैसे लोग प्रतिवादी, वहाँ उनकी ओर से ही सब वकील बैरिस्टर हैं| अगर मैं जुटा सकूं तो ठीक है, नहीं तो मेरा भाग्य|" (आज के संदर्भ में 'राजा' का आशय 'ताकतवर व्यक्ति या समूह' से लिया जा सकता है)

        उत्तर में 'सातकौड़ी' का यह कथन आज की न्याय-व्यवस्था पर भी एक व्यंग्य की ही तरह है -

       "सिविलाइजेशन कोई सस्ती चीज तो नही है| इंसाफ में बारीकी के लिए कानून में भी बारीकी आवश्यक है-कानून में बारीकी होने पर बिना पेशेवर कानूनदां के काम नहीं चलता- पेशे की बात आते ही बिक्री-खरीद की बात आ जाती है, इसलिए सभ्यता की अदालत में इंसाफ अपने-आप दुकानदारी हो जाता है|"

       लेकिन गोरा राजा को न्याय के लिए जिम्मेदार मानता है इसीलिए वह कहता है, "अभागे वादी-प्रतिवादी दोनों पक्षों के लिए वकील नियुक्त करता|" 

      वाकई यह सोचने की बात है, अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक हमारी न्याय व्यवस्था में आखिर क्या बदलाव आया? आज हम कानून जरूर बनाते हैं, लेकिन उन्हें लागू करने का वही पुराना तरीका और वैसी ही न्याय-प्रणाली!! न्यायालय के परिसर में जाने पर उसी अंग्रेजियत आबोहवा से मुलाकात होती है| 

      आखिर में दिमाग भन्ना सा गया, जैसे कुछ लंबी सोच लिए…

#चलते_चलते 

        दो के उसूलों की टकराहट में असमंजसावस्था उत्पन्न होती है! 

#सुबहचर्या