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मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

मन के हमदम बनिए!

        पाँच बजकर पच्चीस मिनट हो रहे थे जब मैं विस्तर से उठ बैठा। सोचा आज टहलने निकल ही लूँ। असल में इधर तीन दिनों से टहलना-घूमना बंद था, कारण इन तीन दिनों की दिनचर्या शांत नहीं थी। घरेलू कार्य से लेकर सरकारी कार्यों में उलझा रहा था। अब ऐसे में सुबह-सुबह उठने का मन नहीं करता आलस घेरे रहता है। तो, आज मैं थोड़ा रिलैक्स मूड में होने के कारण टहलने निकल लिया...स्टेडियम और आवास के बीच में था कि मित्र शुक्ला जा का फोन आया, उन्हें भी सुबह की सैर करनी होती है। हाँ, इनके बारे में बताएँ, इन जनाब को तो योग का टीचर होना चाहिए था। योग पर इनकी पर इनकी पकड़ देखते बनती है...योग और अन्य विषयों पर ये खूब अध्ययन करते हैं और योग के जबर्दस्त टिप्स कर लेते हैं, जो हम जैसे सामान्यों के लिए असंभव सा होता है। अकसर क्या होता है कि ये हमसे भी वैसे आसन कराने लगते हैं, मुझसे वैसा नहीं हो पाता, तो मैं इन्हें योग करते देखने लगता हूँ..खैर 

           मैं स्टेडियम पहुँच गया था, इसके दो चक्कर लगाया। तब तक शुक्ला जी मिल गए और अपने साथ हमें भी योग कराने लगे। दो -एक टिप्स के बाद जब मेरी हिम्मत जबाव दे गई तो मैं खड़े होकर इनके योगाभ्यास को देखने लगा। लौटते समय हममें योग को लेकर थोड़ी बहुत बातचीत भी हुई। मतलब योग केवल शारीरिक क्रिया भर नहीं यह मन से जुड़नी चाहिए, मतलब मानसिक योग के बिना शारीरिक योग भी सफल नहीं हो सकता। 

        हाँ, यह सब मैं अपने फोन पर जब लिख रहा हूँ तो साथ-साथ इसी फोन से गूगल म्यूजिक पर अपने पुराने पसंदीदा फिल्मी गीत भी सुनते जा रहा हूँ.."न तुम हमें जानों...न हम तुम्हें जाने, नजर लगता है कुछ ऐसा कि मेरा हम दम मुझे मिल गया" मतलब भाई, मन को वाह्य झंझावातों से मुक्त करने का प्रयास करते रहना चाहिए! चाहे जिस तरह से!! 

           आज का अखबार पढ़ रहा था तो एक हेडिंग पर ध्यान चला गया - "भीड़ में अकेले खड़े होने का साहस" तो भाई यह साहस ऐसे नहीं आता, अन्दर पढ़ा तो लिखा मिला "यदि आप दूसरों के कहने पर अपना जीवन जिएंगे, तो सफलता कैसे हासिल करेंगे? जीवन तो आपका है, तो फिर सुख और दुख सब कुछ अापके हिसाब से ही चलेंगे।...जैसे ही आप अपने विचारों और व्यवहारों के अनुरूप जीना शुरू कर देंगे, वैसे ही आप अपने सुख-दुख के मालिक स्वयं हो जाएंगे। आपका जीवन सहजता से आगे बढ़ेगा।" कुल मिलाकर मन के हमदम बनिए! 

          इन पंक्तियों को लिखते समय मेरा एक और पसंदीदा गाना बजने लगा है "ये मेरा दीवानापन है.." हाँ भाई, अपने मन को "दीवानेपन" के साथ पकड़िए!!! 

         चलते-चलते -

         आप वही करिए जो आपका मन कहता हो...मन के विरुद्ध किया गया काम अ-योग होता है! और मन कभी आपके विरुद्ध नहीं जाता.. बस मन को पहचानिए.! 

     #सुबहचर्या 

भ्रम और अनुभूतियाँ (सुबहचर्या)

          आजकल व्यस्तताएँ कुछ ज्यादा हैं, दिनभर की मानसिक और शारीरिक थकान के कारण सुबहचर्या प्रभावित हो रही है। कई बार सुबह का टहलना स्थगित हो जाता है। लेकिन आज की सुबह अलसाए मन को चपत लगाते हुए बिस्तर छोड़ दिया था। टहलने निकले तो मन हुआ कि उस पहाड़ी पर चढ़े जिस पर महोबा का विकास भवन बना हुआ है। पहाड़ पर स्थित यह विकास-भवन दूर से किसी सरकारी भवन की अपेक्षा विशाल पर्यटक-गृह जैसा प्रतीत होता है। वैसे एक बात है विकास भवन को ऊँचाई पर नहीं होना चाहिए। क्या किया जाए, अभी तक इस देश के लिए विकास भी ऊँची चीज ही बनी हुई है। विकास-भवन के ऊँचाई पर होने का एक फायदा विकास कर्मियों को यही है कि यहाँ शिकायत-कर्मी  थोड़ा कम ही पहुँच पाते हैं। 

       तो सुबह लगभग साढ़े पाँच बज रहे होंगे टहलते-टहलते विकास-भवन वाली पहाड़ी पर चढ़ने लगे थे। वैसे तो इस पहाड़ी पर चढ़ते समय थोड़ा-बहुत तो दम फूलने ही लगता है, लेकिन आज बड़े मजे से तेज-तेज डग भरते हुए बिना दम फूले इस पहाड़ी पर मैं चढ़ गया था।पहाड़ी पर स्थित विकास भवन के चारों ओर कोलतार की सड़क बनी हुई है, फिर इसी पर चलते हुए विकास भवन का चक्कर लगाने लगा था। यहाँ शहर के लोग भी टहलने आ जाते हैं। खैर.. 

       टहलते हुए एक बातचीत मेरे कान में पड़ी। कोई कह रहा था, "अपने समाज के लोगों से कह दिया गया है कि यदि कोई वोट मांगने आए तो कह दिया जाए कि हमारे समाज ने तय कर लिया है कि हमें कहाँ वोट देना है..अब हम कुछ नहीं कर सकते..हमारा भी वोट वहीं जाएगा।" कान में पड़ी यह बात मन को कुरेद गई। इसी के साथ उस व्यक्ति की बात याद आ गई जिसकी कार में मैंने लिफ्ट लिया था। था तो वह गँवई ही, लेकिन काम धंधे के चक्कर में उसे दुनियादारी का बखूबी ज्ञान हो चला था। मुझसे बातचीत करते हुए उसने कहा था, "साहब जी, विधायकों और सांसदों को ही मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार होना चाहिए" उसकी इस बात पर मैंने कहा था, "यही चुनते हैं" फिर उसने अपने कहने का मतलब मुझे समझाया। 

          "नहीं सर जी, मेरा मतलब यह है कि पार्टी-शार्टी की व्यवस्था (राजनीतिक दल) खतम होनी चाहिए..लोग अपने दम पर चुनाव लड़ें..इनमें जो अच्छा हो, वह जीते...और फिर यही जीते हुए विधायक या सांसद मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का चुनाव करें.. ऐसी व्यवस्था में, ये मंत्री-संन्त्री जो चुनाव प्रचार के लिए निकलते हैं और इससे जनता का जो जी हलकान होता है, वह नहीं होगा..सब अपना-अपना ही प्रचार करेंगे..सरकार को भी कोई व्यवस्था नहीं करनी होगी तथा व्यर्थ का सरकारी ताम-झाम भी नहीं रहेगा और पैसा भी बचेगा..." 

       मुझे उस व्यक्ति की बात काफी-कुछ जमीं! एक आम आदमी दंद-फंद करता और उससे जूझता हुआ भी कुछ सोच सकता है! 

         इन्हीं बातों-खयालों में खोए हुए मैंने विकास भवन का दो चक्कर लगा लिया था। लौटने को हुआ तो एक क्षण के लिए विकास-भवन की इस पहाड़ी से ऊपर आसमान और पूरब दिशा में, क्षितिज को निहारा..दूर स्लेटी रंग की पहाड़ियों के ऊपर सूरज की हलकी-हलकी लालिमा विखरनी शुरू हो चुकी थी.. बहुत ही सुन्दर लगा..आनंदानुभूति सी हुई...! फिर नीचे महोबा शहर पर निगाह डाली...शहर की लाइटें यहाँ से सुन्दर नजारा पेश कर रहीं थी। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि भले ही तुम्हारी बनाई दुनियाँ निरुद्देश्य सी हो लेकिन मेरी चेतना की ये अनुभूतियाँ तो सच्ची ही हैं।

             टहलकर मैं वापस आ गया था। चाय बनाई, चाय पीते हुए अखबार पढ़ा। सम्पादकीय "वोट डालने निकले" पर ध्यान गया। फिर घर से बात की "श्रीमती जी ने कहा वोट डालने क्या जाएं! ये वोट लेने वाले केवल भ्रमित ही तो करते हैं" इस पर मैं कुछ नही कह पाया और मुझे भी लोकतंत्र से वितृष्णा की सी अनुभूति होने लगी थी। 

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

ई-रिक्शा वाला लड़का

        आजकल शहरों में ई-रिक्शा खूब चलने लगे हैं। उस ई-रिक्शा पर कोई सवारी नहीं बैठी थी, उसे चलाने वाला लड़का यही कोई बीसेक साल का रहा होगा। रिक्शे पर बैठते ही मैंने उसे रिक्शा चलाने के लिए कहा। लड़के ने "बस दादा एक मिनट में चलते हैं" कह कर बगल में गुमटी-दुकानदार की ओर हाथ बढ़ा दिया। गुटखा लेते देख मैंने उससे "दिनभर में कितने का गुटका खा लेते हो" की बात पूँछी तो गुमटी वाला दुकानदार कहने लगा "नहीं ज्यादा नहीं बेंच पाता"। इस बीच लड़के ने गुटखे का एक पाउच मेरी ओर बढ़ाते हुए पूँछा, "दादा आप खाएंगे?" मैंने उसे अपने गुटखा न खाने की बात बताई। 
         लड़के ने ई-रिक्शा चालू किया और मुझसे बोला, "दादा, यह दो-ढाई सौ रूपये का गुटका रोज बेच लेता है...अभी यहाँ यह नया है..ऊधार-वुधार देता नहीं..इसलिए इसका गुटखा कम बिकता है जबकि इसके पीछे वाले उधार भी दे देते हैं।" मैं समझ गया कि गुमटी वाले के साथ ही लड़के ने भी मेरी पूरी बात नहीं सुनी।
         मेरा ध्यान लड़के द्वारा बार-बार मुझे "दादा" कहने पर चला गया। मैंने सोचा यह मेरे सफेद बालों का प्रभाव होगा। हाँ याद आया अभी कल ही एक और ने मुझे "दादा" कह कर संबोधित किया था, जबकि उसकी उम्र मेरी उम्र के आसपास ही रही होगी, हाँ बाल उसने काले कर रखे थे। खैर, मैं मन ही मन मुस्कुरा उठा था। 
      
          बात करने की इच्छा से मैंने ई-रिक्शे वाले लड़के से पूँछा-
          "एक बार चार्जिंग के बाद तुम्हारा रिक्शा कितना चलता है"  
           लड़के ने कहा-
          "सुबह छ: बजे निकालते हैं और दस बजे खड़ी करते हैं...फिर वही दो-ढाई  बजे से छह-सात बजे तक चलाते हैं।"
          "मतलब दस बजे से ढाई बजे के बीच इसे चार्ज भी करते होगे?" मैंने पूँछा।
          उसने कहा, "हाँ अंकल" मैंने मन ही मन हिसाब लगाया कि ई-रिक्शे को चार्ज करने में उसे चार घंटे लगते होंगे। फिर मैंने लड़के से कहा- 
           "चलो, ई-रिक्शा बढ़िया होता है... इसमें गैस-वैस का खर्च नहीं पड़ता!..बचत ही होती है।" 
            अरे नहीं अंकल!  छह महीने में बैटरी बदलवानी पड़ती है.. पैंतीस हजार रूपए का खर्चा पड़ता है.. और सवारी भी उतनी नहीं मिल पाती..चार सवारी या फिर आगे एक बैठा लें तो कभी-कभी पांच सवारी ही हो पाते हैं...नहीं तो चार से ज्यादा नहीं होते.. अंकल अभी देखिए..इस समय आप अकेले सवारी हो।" लड़के ने कहा। 
          "लेकिन गैस वाले आटो को तो गैस का खर्च पड़ता होगा।" मैंने उसकी बातों में रुचि दिखाते हुए कहा। 
        "अंकल, वे ढाई सौ का गैस रोज जरूर भराते हैं लेकिन छह सवारी भी बैठा लेते हैं.. अगर एक ट्रिप में हम पचास कमाते हैं तो वे साठ।"
           लड़के के ई-रिक्शे पर मैं सवारी के रूप में अकेला था। सवारी के चक्कर में सड़क पर किसी को देख लेता तो वह उसे सवारी समझ रिक्शे की गति धीमी कर लेता। अभी हम बात कर ही रहे थे कि पैदल चलते एक ऊम्रदराज मोटे व्यक्ति को देखकर लड़के ने रिक्शा धीमा किया और उनसे चलने की बावत पूँछने लगा। जब वे सज्जन कुछ नहीं बोले तो, रिक्शे की गति बढ़ाते हुए लड़के ने मुझसे कहा-
          "अंकल, इन्हें कुछ तो बोलना चाहिए था..."नहीं" ही कह देते"।
          मैंने कहा, "वे क्या कहते, उनको कहीं जाना नहीं होगा..सड़क पर केवल टहलने निकले होंगे।"
          हाँ, अंकल सही कहा आपने! हो सकता है इनको शुगर-उगर हुआ हो।" 
          
          ई-रिक्शा वाला लड़का फिर बोला-
          "अंकल, मेरे दोस्त के एक पापा थे..अभी कुछ दिन पहले शुगर से ही वो मर गए।"
            मैं उसकी बात ध्यान से सुन रहा था। लड़के ने कहा -
           "अंकल शुगर मोटे लोगों को ही होता है.. इसमें जागिंग-वोगिंग खूब करना चाहिए।"
            मैंने कहा-
            "हाँ इसमें खूब पैदल-वैदल टहलना चाहिए।"
            "अंकल यही तो मैं अपने दोस्त के पापा से कहता था..उनसे कहता..आलू-फालू मत खाया करो..हरी सब्जी खाया करो..तो, अंकल, वो मुझसे कहते कि तुम डाक्टर हो? मैं कहता, डाक्टर तो नहीं हूँ...पर इतना तो जानता हूँ..लेकिन अंकल, तब मेरे दोस्त के वो पापा कहते, मुझसे यह सब नहीं हो पाएगा।"
          
             इधर मैं ध्यान दे रहा था, ई-रिक्शे वाला लड़का अब अपने प्रत्येक संबोधन में मुझे "अंकल" कह रहा था। ई-रिक्शे पर लड़का मुझे अकेला ही लिए चला जा रहा था और ई-रिक्शा चलाते समय मुझसे बतियाए भी जा रहा था। उससे बात करना मुझे भी अच्छा लग रहा था। वह बोला-
         "अंकल..एक बात है.. मेरे दोस्त के पापा तो बहुत दुबले-पतले थे.. ऐसे कि हवा में उड़ जाएं..फिर भी पता नहीं कैसे उनको शुगर...?"          "देखो, यह रोग टेंशन-वेंशन से भी हो जाता है" मैंने कहा।
         "हाँ अंकल यह बात तो है, मेरे दोस्त के पापा वैसे तो अपने घर के मुखिया थे...लेकिन उनको घर में कोई पूँछता-ऊँछता नहीं था..अंकल, जैसे अब आप बड़े हैं तो अपने घर के मुखिया भी होंगे..अगर तिसपर आपको कोई न पूँछे आपको कुछ न समझे तो..!!"
         मैं कुछ कहने ही जा रहा था, लेकिन पता नहीं क्या कहता, कि उसी समय लड़के ने ई-रिक्शा रोक सवारी बैठायी। अब हमारे बीच का वार्तालाप टूट चुका था। 
                          *****

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

अभयदाता-तंन्त्र

          "अरे सर..आप आफिस में हैं...कहाँ मिलेंगे...?.. एक कार्ड है...आपको देना था.." मोबाइल फोन पर आती यह आवाज एक परिचित की लगी..। "इस समय तो, मैं किसी गाँव में हूँ...हो सकता है..आने में देर लगे.." मैंने फोन पर कहा। असल में मैं भी सरकारी आदमी हूँ, सरकारी काम से ही गाँव में था। "फिर तो..मैं आपके आवास पर यह कार्ड भेज देता हूँ.. कोई तो होगा न आवास पर..?" उधर से आवाज आई। "नहीं..दरवाजे के नीचे से कार्ड डाल दीजिएगा...मुझे मिल जाएगा.." मैंने बोला। "ठीक है..लेकिन कल आइएगा जरूर..हमारे भाई का सम्मान-समारोह है।" "कार्ड मिले या न मिले आपका फोन आ गया यही बहुत है..हम अवश्य आएंगे।" फोन करने वाले व्यक्ति से मेरा कोई प्रगाढ़ परिचय तो नहीं था, लेकिन जैसे मैंने चाटुकारिता में यह वाक्य बोला हो। इसके साथ हमारी वार्ता भी समाप्त हो गई थी। यह गाँव एक कम ऊँचाई वाले पहाड़ी चट्टान पर बसा हुआ है। गाँव से लौटते समय वातावरण में धीरे-धीरे काला रंग भरने लगा था। 
          
          इस इलाके में पहाड़ तोड़कर निकले पत्थर से गिट्टी बनाई जाती है। यहाँ पहाड़ को उसकी ऊँचाई से अधिक की गहराई तक खोदकर उसे गिट्टियों में बदल गायब कर दिया जाता है। इसलिए इस क्षेत्र में पत्थर तोड़ने वाले क्रेशर-मशीनों का उद्योग पनप आया है। कहते हैं, यहाँ के गरीब-मजदूर इसमें रोजगार पाते हैं। लेकिन, एक-एक कर गायब होते पहाड़ों के बाद फिर यहाँ क्या बचेगा? और तब इस क्षेत्र में मजदूरों के लिए कौन सा रोजगार पनपेगा? फिर तो, पत्थर उद्योग में मजदूरों के लिए रोजगार तलाशना यहाँ के लिए दीर्घकालिक रूप से घाटे का सौदा ही सिद्ध होगा, क्यों! क्योंकि, ये पहाड़ मुझे वनस्पतियों और नमी का संरक्षण करते दिखाई देते हैं, या कम से कम जैव-संवर्धन के लिए ये पहाड़ यहाँ होने ही चाहिए। लेकिन एक कम वर्षा वाले सूखे क्षेत्र में ऐसा पहाड़-तोड़ पत्थर-खनन हृदय-विदारक और व्यवस्था के प्रति मन विचलित करने वाला है। या तो, शायद हम सोच बैठे हैं; भविष्य में मानव सभ्यता इतनी विकसित होगी कि उसके अस्तित्व के लिए धरती की भी आवश्यकता न हो! 
          यहाँ खदान-क्षेत्र में गाँव की सड़कें, ट्रकों से पत्थर-ढुलाई के चलते बारहों महीने खास्ताहाल रहती हैं, जिस पर चलना दूभर होता है। इस क्षेत्र की सड़कों का मरम्मत सीमित सरकारी बजट में नहीं हो पाता। जब-तब क्रेशर-यूनियन वाले अपने व्यावसायिक हित में ट्रकों के चलने लायक सड़कों की मरम्मत कराते हैं, लेकिन बरसात के दिनों में स्थिति बेहद खराब हो जाती है। सड़कों पर बन आए गड्ढों में भरे पानी में ट्रक छपकोरिया खेलते हुए निकलते हैं, और गड्ढों में उठे सुनामी से किनारे के कच्चे घरों की दिवालें छीज कर भरभरा जाती हैं। इन बेचारों बुन्देलखण्डियों के लिए गड्ढे में उठी सुनामी ही बहुत कुछ है, चाहे इससे भला हो या बुरा! वैसे यहाँ के ये लोग इसे ही अपनी नियति मान बैठे हैं, लेकिन कभी-कभी इनका विरोध तूती की आवाज जैसे सुनाई दे जाती है।
          
            उस दिन गाँव वाले बहुत आक्रोशित थे, खासकर औरतें। और, विरोध का नेतृत्व भी औरते ही कर रहीं थीं। एक औरत जबर्दस्ती मुझे अपने घर के अन्दर ले गई। आँगन को दिखाते हुए उसने कहा, "देख रहे हैं न साहब, इस पानी को हमें उलचना पड़ता है..लेकिन कहाँ उलचे..? इनके ट्रकों ने रास्ता-नाली सब बर्बाद कर दिया है" मैं आँगन में पानी भरा देख बाहर आ गया। मैंने देखा, गाँव के बाहर उस रास्ते पर सैकड़ों ट्रक खड़े थे और ग्रामीणों ने सड़क पर अवरोध खड़ा कर रखा था। "साहब समस्या सुलझने तक इस रास्ते से ट्रकों को नहीं जाने देंगे" आवाज एक औरत की थी जो एक घर की कच्ची दीवाल के पास सड़क के गड्ढे में जमें पानी की ओर इशारा कर कह रही थी।
            ठीक उसी समय नेता के लिबास में एक व्यक्ति नमूदार हुआ। जो उस औरत से कहने लगा, "बनवाता नहीं हूँ क्या इस सड़क को..जो किचिर-पिचिर किए जा रही हो..अभी पिछली बार ही तो बनवाया था इसे।" फिर उसने अपना परिचय क्रेशर-यूनियन के प्रतिनिधि के रूप में देते हुए मुझसे कहा कि क्रेशर-मालिकों के चन्दे से वह सड़क ठीक कराता रहता है। "तो ये हैं प्रतिनिधि जी, आला अफसर ने इन्हीं को लेकर समस्या हल करने के लिए कहा था!" उन्हें देखकर मैंने सोचा। "का ठीक कराए थे? सब पैसा खा जाते हैं .." वह औरत बोली थी। "अरे! ये गाँव के लोग ऐसे ही झूठ बोलते हैं..इसीलिए इनकी ऐसी दशा है..हाँ, तुम लोग दिवाल हटाने के लिए पैसा भी तो ले चुके हो..लेकिन अभी तक नहीं हटाए..सड़क छेंक कर घर बनाए हो!" प्रतिनिधि ने कहा था। "का हटाएं..अभी पूरा पैसा भी तो नहीं दिए...बारिश में कहाँ जाएँ! फिर हमारा घर तो यहाँ पर पहले से बना है..तब तुम क्रेशर-वेशर वाले भी नहीं थे" महिला ने तीखे शब्दों में कहा था। मैंने देखा यहाँ की समस्या पर पुरुषों द्वारा विरोध नगण्य था। शायद मजदूर टाइप के पुरुष अपनी गरीबी, बेकारी और नशाखोरी जैसी आदतों के कारण क्रेशर मालिकों के साथ समझौता-परस्ती के लिए मजबूर होंगे। मैनें गाँव वालों को किसी तरह समझा-बुझा कर रास्ता खुलवाया। 
          इसके बाद, एक दिन क्रेशर-यूनियन के वही प्रतिनिधि मेरे कार्यालय में मुझसे मिलने आए। उनका नाम रामनयन था। कहते हैं, रामनयन पहले साइकिल से चलने वाले अति साधारण आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति थे। लेकिन आज क्रेशर-मशीनों के मालिक हैं तथा लग्जरी वाहनों में चलते हैं। इस क्षेत्र में ज्यादातर क्रेशर-मशीनें नेता-अफसर-ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और उनकी काली कमाई से अस्तित्व में हैं। हाँ तो, आते ही रामनयन ने जिले के आला अफसर से अपने परिचय की चर्चा किए। चर्चा का विषय था कि कैसे वे दलितों से एक भूमि-विवाद के मामले में उस आला अफसर से तहसीलदार को डटवाते हुए अपने पक्ष में जमीन की पैमाइश करा लिए थे। बस यही, इतना परिचय था उस व्यक्ति से ! या फिर, आला अफसर को देने के लिए लाये एक तोहफे के साथ, उस व्यक्ति को मैंने एक समारोह में देखा था।
           हाँ, फोन रामनयन का ही था। आवास पर लौटते-लौटते अँधेरा हो गया था। दरवाजा खोला तो सामने फर्श पर एक कार्ड पड़ा मिला..मैंने कार्ड उठाया। यह एक आमंत्रण-पत्र था। "तो, रामनयन ने उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने अपने भाई के स्वागत-समारोह में मुझे आमंत्रित किया है।" लेकिन मेरा मन अगले दिन होने वाले उस स्वागत-समारोह में सम्मिलित होने को लेकर एक अजीब से ऊहापोह में फंस गया। मैंने निस्पृह-भाव से उस आमंत्रण-पत्र को मेज के एक किनारे रख दिया। न जाने क्यों, मेरा अन्तर्मन मुझे वहाँ जाने से रोक रहा था। इसे लेकर मैं किंचित तनाव में आ गया। उस स्वागत-समारोह में जाकर मैं साधन नहीं बनना चाहता था। लेकिन मन को समझाया, "बाबू, यह लेन-देन का खेल है, यही सामाजिकता है!" मन अब वहाँ जाने के लिए तैयार हो चुका था। 
             समारोह-स्थल काफी कुछ बेहतर ढंग से सजाया गया था।सम्मान-मंच भी किसी नाट्य-मंच की तरह सजा था। विवाह-मंडप की सी रौनक वहाँ छायी हुई थी। चकर-पकर मैं उस स्थान को निहार रहा था कि तभी रामनयन की निगाह मुझ पर पड़ी। वे मेरे पास आए और मुझसे हाथ मिलाकर अन्य अतिथियों की ओर मुड़ गए। मैं यूँ ही खड़ा रहा और एक-एक कर वहाँ आए अतिथियों को निरखने लगा था। क्षेत्रीय विधायक, स्थानीय छुटभैये नेता, ठेकेदार, अफसर, क्रेशर मालिक ही तो वहाँ दिखाई पड़ रहे थे! मामला उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के स्वागत का था, सो जनपद के न्यायाधीशों की भी आमद हो चुकी थी। मतलब तंन्त्र के सभी विशिष्ट-जन वहाँ उपस्थित थे। अब तक मैंने भी दर्शक-दीर्घा में स्थान ग्रहण कर लिया था। अनमने से, बैठे-बैठे मैं न जाने किस बात की टोह में था कि उद्घोषक की आवाज पर कान दे दिया "माननीय न्यायमूर्ति बस आने ही वाले हैं।" कुछ ही क्षणों बाद न्यायमूर्ति जी की कार समारोह-स्थल पर प्रवेश कर रही थी। सभी अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर उनका स्वागत करने लगे थे। आयोजकों ने मंच पर ले जाकर उन्हें आसन ग्रहण कराया। 
         करतल-ध्वनि के स्वागत के बीच उद्घोषक ने बारी-बारी से विशिष्ट-जनों को न्यायमूर्ति के स्वागत के लिए मंच पर आने का आह्वान किया। सबसे पहले प्रशासन और पुलिस विभाग के अधिकारियों और तत्पश्चात अन्य विशिष्ट-जनों से न्यायमूर्ति का स्वागत कराया गया। वाकई! आयोजकों का प्रशासनिक अधिकारियों पर अच्छा प्रभाव दिखाई दे रहा था और स्वागत-समारोह का यह आयोजन न्यायमूर्ति के लिए कम, आयोजकों के लिए ज्यादा लगा, जो रामनयन की विशिष्टता में वृद्धि करने वाली थी। इस बीच बैठे-बैठे रामनयन की मुझसे कही एक बात याद आ गई। रामनयन ने कहा था, "हम आपस के हैं.. वह मेरी नहीं सुनता, मैं उसकी शिकायत करवा देता हूँ...जरा आप उसकी कस कर जाँच करा दीजिएगा..उसे सबक मिल जाएगा।" खैर, मेरे हाँ-हूँ के बाद वह बात आई-गई हो गई थी। मात्र कुछ क्षणों के परिचय से रामनयन के लिए मैं "आपस का" हो गया था। यह परिचय भी क्या बला है, जो कभी-कभी घोर धर्म-संकट में डाल देता है। ऐसे कई अवसर आए जब इस धर्म-संकट से उबरने के चक्कर में मेरे परिचित धीरे-धीरे अपरिचित होते गए। परिचय का यह खेल मेरे समझ में कभी नहीं आया। 
           इन्हीं बातों में खोई मेरी तन्द्रा को मंच के उद्घोषक ने तोड़ा। बात कोई विशेष तो नहीं, लेकिन न जाने क्यों मैं इस पर कान दे गया। उद्घोषक जी मंच से कह रहे थे, "देखिए! ऐसे होते हैं संस्कारी...न्यायमूर्ति जी के बगल में नहीं बैठना चाहते..आखिर कैसे बैठेंगे.. प्रोटोकॉल एलाउ नहीं करता बगल में बैठना..! इसे कहते हैं संस्कार!!"  मंच पर न्यायमूर्ति जी अकेले बैठे थे उनके अगल-बगल की कुर्सियाँ खाली थी। आयोजक ने जनपद के किसी अधिकारी को उनके बगल की कुर्सी पर बैठने के लिए कहा होगा तो उन अधिकारी जी का संस्कार जाग उठा था। वाकई! यह देश ऐसा ही है ; छोटे-बड़े का देश! इस देश में किसी बड़े के सामने कोई छोटा ऊँची आवाज में नहीं बोल सकता..ऊँची आवाज में बोलने का अधिकार तो यहाँ केवल बड़ों को ही प्राप्त है। सदियों से यही संस्कार मिला है यहाँ के लोगों को।
          इसके बाद उद्घोषक ने न्यायमूर्ति की सहृदयता का उल्लेख किया, "माननीय जज महोदय इस क्षेत्र के बारे में बेहद संवेदनशील हैं...रास्ते में आते समय क्रेशर-मशीनों से उठते धूल पर इन्होंने चिंता जताई..इस धूल से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे दुष्प्रभाव पर चिन्तित थे...! लेकिन हम माननीय न्यायमूर्ति जी से यह भी कहना चाहते हैं कि यहाँ के गरीबों-मजदूरों-बेरोजगारों के लिए यह पत्थर-उद्योग रोजगार मुहैया कराता है।"  यह कहते हुए उद्घोषक जी ने न्यायमूर्ति की ओर ऐसे देखा, जैसे लगे हाथ वे उनसे यहाँ के पत्थर-खनन और क्रेशर-उद्योग से संबंधित किसी याचिका पर अभयदान मांग रहे हों। ऐसे विशिष्ट-जनों के बीच गरीब-मजदूर-बेरोजगार जैसे अविशिष्ट जन इस स्वागत-समारोह में आमंत्रित नहीं थे। आखिर ये बेचारे दिखाई भी कैसे देंगे, विशिष्ट-जनों के गठजोड़ के हिस्से जो नहीं हैं! 
            मेरा मन उद्विग्न हो उठा! यहाँ मुझे एक अजीब सा घुटन हो रहा था। अचानक मैं उठा, और समारोह-स्थल से बाहर निकल आया। बाहर आते ही मुझे सुकून का एहसास हुआ और मैं विशिष्ट-जनों के अभयदाता-तंन्त्र से आजाद था। अब मैं अविशिष्ट और मुझे भय के साथ जीना था। फिर भी न जाने क्यों, मैं अपनी अविशिष्टता के एहसास के साथ खुश था, जिसमें गजब की स्वातंत्र्यतानुभूति थी। 

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

मैं किसी के जेब-वेब में नहीं रहती

         शाम को आफिस से लौटकर अपने आवास में पदार्पण करते समय मैं मोबाइल फोन पर बात भी कर रहा था। बात समाप्त होने पर देखा, फोन के स्क्रीन पर श्रीमती जी का नम्बर दिखाई पड़ा, लेकिन मैंने काल पर प्रेस नहीं किया तथा फोन को वैसे ही, यह सोचते हुए, अपनी पैंट की जेब में रख लिया कि, अभी थोड़ी देर बाद रिलैक्स होकर फोन कर लेंगे। इसके बाद किसी काम में व्यस्त गया तथा फोन के बारे में भूल गया। कुछ क्षणों बाद मेरे कानों में एक महीन सी "हलो-हलो" की आवाज सुनाई पड़ी। यह आवाज मेरे जेब में पड़ी मोबाइल फोन से आ रही थी। देखा, श्रीमती जी की ही काल थी...मैं समझ गया कि मोबाइल के टच-स्क्रीन पर टच हो जाने से काल चली गई होगी।              

          जेब से फोन निकाला और मैं भी "हलो-हलो" करने लगा। उधर से श्रीमती जी की आवाज आ रही थी  "तुम्हें मेरी आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है क्या? इतनी देर से हलो-हलो कर रही हूँ...!"  मैंने कहा, " नहीं..ऐसी बात नहीं..असल में यार! तुम्हारी आवाज मेरे जेब से आ रही थी.." मेरे इतना कहते ही वह तपाक से बोली, "सुनो! मैं किसी की जेब-वेब में नहीं रहती कि मेरी आवाज जेब से आएगी..!!" मैंने हँसते हुए कहा, " अरे भाई! तुम नहीं, मेरा मोबाइल मेरे जेब में था..जहाँ टच हो जाने से काल चली गई होगी ..मैं जानता हूँ..तुम जेब में नहीं रह सकती" खैर, इसके बाद हम दोनों एक साथ हँस पड़े थे। 

         

         मैं जानता हूँ, श्रीमती जी अपनी पत्नी की भूमिका के साथ-साथ एक स्त्री होने और इसके सम्मान के प्रति भी काफी सजग और संवेदनशील रही हैं, शुरू से ही मुझे इस बात का इल्म रहा है और इसी वजह से कभी-कभी वे पारिवारिक परिस्थितियों में असहज हो जाती हैं। खैर, फोन पर हमारी वार्ता समाप्त हुई तो मेरा ध्यान उस दिन की उनकी बात पर चला गया।

         किसी छुट्टी के दिन जब मैं घर पर होता हूँ तो उनके किचन-टाइम पर मैं भी या तो टी.वी. पर न्यूज देखने या फिर मोबाइल में व्यस्त हो जाता हूँ। अकसर इस बात को लेकर हमारे बीच नोंक-झोंक भी हो जाती है। उस दिन मैंने अपनी इस ज्यादती को भाँप लिया और उनका साथ देने के लिए किचेन में चला आया। भृकुटी टेढ़ी कर उन्होंने मुझे देखा था, जैसे वे कहना चाहती हों, "मैं आपकी चाल समझती हूँ।" हाँ मेरी चाल उनकी डाट से बचने की ही थी, लेकिन वे बोली कुछ नहीं और इधर मैं वहीं किचेन की काली ग्रेनाइट वाले प्लेटफार्म के ऊपर पसर गया था। रोटी बेलते और सेंकते हुए श्रीमती जी हमें बताने लगी थीं.. 

          "जानते हो...वह जो हमारे घर के पीछे के खाली प्लाट पड़े हैं न..कल जब मैं गैलरी में थी तो देखा, एक दुबली-पतली कृशकाय स्त्री वहाँ उगे झाड़ और पेड़ों से सूखी टहनियाँ इकट्ठी कर रही थी...वहीं जमीन पर बैठा एक पुरुष आराम फरमा रहा था...वह उस औरत का पति ही था और दोनों मजदूर ही थे...काफी देर तक, मैं उस औरत को देखती रही थी...अब तक अकेले ही वह औरत लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर तैयार कर चुकी थी...उस गट्ठर को उसने यत्नपूर्वक अकेले ही बाँधा भी और वह औरत मुझे गर्भवती भी दिखी...मुझे उस स्त्री की, इस दशा पर अब तरस आने लगा था...और...इधर लकड़ियाँ तोड़ने से लेकर गट्ठर बाँधने तक उसका आदमी वहाँ बैठा रहा और उसने उस स्त्री की कोई मदद नहीं की थी..! मैंने देखा, उस औरत ने कपड़े की एक गुड़री बनाई और उसे अपने सिर पर रखा, फिर किसी तरह लकड़ी के उस गट्ठर को अकेले ही अपने सिर पर उठाकर रखा...यह सब मुझसे देखा न गया और उसके पास चली गई..."

          रोटियाँ बेलते और सेंकते हुए ही श्रीमती जी ये बातें मुझे बता रही थीं। इस दौरान मैं ध्यान से उनकी बात सुन रहा था...बातें मुझमें उत्सुकता जगा रही थी। एक बात और, इस सुनने-सुनाने के बहाने हमारा साथ भी हो रहा था। इधर मेरी दृष्टि सिंकती रोटियों पर भी पड़ रही थी। रोटियाँ आँच पाकर फूलती और जैसे ही फूली रोटियों से भाप निकलता, वे धीरे से पिचक जाती...फिर आगे की बात बताई..

         "जैसे ही स्त्री ने गट्ठर अपने सिर पर रखा..मैं उसके सामने खड़ी थी... मैंने उससे पूँछा, "तुम्हारे पेट में कितने महीने का बच्चा है?" उस स्त्री ने सकुचाते हुए बताया, "आठ...नहीं..नौ महीने का..!" आगे मैंने पूँछा, "तुम्हें जाना कहाँ है?" स्त्री का गंतव्य यहाँ से लगभग तीन किमी दूर पड़ता है..मैंने उसे डाटते हुए कहा, "उतार गट्ठर..तुरंत उतार.! तू यह गट्ठर नहीं ले जाएगी" स्त्री ने लकड़ी का गट्ठर अपने सिर से उतार कर जमीन पर रख दिया....

         ....इधर गुस्से से मैंने घूर कर उसके पति की ओर देखा, जो अब तक उठकर खड़ा हो गया था, मैंने पूँछा "क्यों..तू इसका पति है न?" उसके "हाँ" कहते ही मैंने उसे फिर डाटा, और कहा, "तू तो ठीक-ठाक है! और तू इसका पति भी है?...और...तुम्हारी यह पत्नी गर्भवती भी है न" अब वह सिर झुकाए मेरी बात सुन रहा था... मैंने उससे कहा, "तुम्हें शर्म नहीं आती...यह बेचारी गर्भवती है और कमजोर भी है...तब भी, इसने अकेले ही लकड़ियाँ तोड़ी और गट्ठर बनायी और अपने सिर पर भी रखा...तुमने कोई मदद नहीं की...इस हालत में बेचारी इतनी दूर तक लेकर जाएगी भी..!!" मैंने कहा, "यह नहीं ले जाएगी इस गट्ठर को...इसे तू ले जाएगा..! उठा इसे..! रख अपने सिर पर..!!" अब तक मेरी डाट से सहमा उसका पति गट्ठर को अपने सिर पर चुपचाप रख लिया था और आगे-आगे वह पीछे-पीछे उसकी वह स्त्री.. दोनों वहाँ से चले गए।"

            पूरी बात ध्यान से सुन मैंने एक गहरी साँस ली और श्रीमती जी से मैंने बस इतना ही कहा,

          "यार, गरीबी की स्थिति में और शारीरिक श्रम करने के कारण इन मजदूर टाइप के लोगों को अपनी संवेदनाओं को भी समझने का मौका नहीं मिलता होगा..!"

            मेरी बात पर उन्होंने मुझे ध्यान से देखा और रूखे अंदाज में बोली, "रोटियाँ सिंक गई हैं, खाने की तैयारी करो" यह कहते हुए वे किचेन से बाहर जाने लगीं तो मैं भी उनके साथ पीछे-पीछे किचेन से बाहर चला आया...वाकई!  चीजों को बहुत गहराई से समझने की जरूरत होती है। 

    

             इधर "नाक से सिंदूर लगाने" की बात पर मुझे ध्यान आया कि इस बात पर हमारे बीच बहुत पहले से ही चर्चा होती रही है। मैंने श्रीमती जी को मजाक में कई बार टोका भी है। ऐसे ही एक बार जब मैंने कहा, "यार, तुम सिंदूर नहीं लगाती, या लगाती हो तो बहुत कम...पता ही नहीं चलता..."  इस पर उन्होंने कहा था, "देखिए, हमारा विवाह बचपन में ही हो गया था..तब मेरी दादी कहा करती थी..सिंदूर इस तरह नहीं लगाना चाहिए कि दिखाई पड़े..या फिर सिर को पल्लू से ढँके रहना चाहिए...सिंदूर लगाना दिखावे की चीज नहीं होती..इसे दिखावे की तरह नहीं लगाना चाहिए" आगे उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा, "तभी से मेरी यह आदत पड़ गई है और ऐसे भी, लोग अपनी प्रिय चीज को बुरी नजरों से बचा कर रखते हैं... नुमाइश नहीं लगाते...समझे..!" इसके बाद मैंने इस विषय पर उन्हें फिर कभी नहीं टोंका। 

           सच है रिश्ते प्रदर्शित नहीं किए जाते बल्कि रिश्तों को जिया जाता है, प्रदर्शन में तो खोखलापन छिपा होता है!

निडरता और जीवन की सार्थकता

         "हम नौकरी-पेशा वाले न जाने क्यों पचास के पार थके-थके से लगने लगते हैं...लगभग स्थितिप्रग्य या कहें कि स्टैग्नेशन के अंदाज में! जैसे, जहाँ जाना था जा चुके, जहाँ से लौटना था लौट चुके हैं।" अपने पूर्व साथियों को देखते हुए मैंने उस दिन यही सोचा था..इनके चेहरों पर मुस्कुराहटें तो थीं..और..हँसी भी थी...लेकिन इनमें अब वह उल्लास दिखाई नहीं दिया था जो आठ-दस वर्षों पहले किन्हीं ऐसी ही मुलाकातों में दिखाई देता था। 

               घर पर आ मैंने श्रीमती जी से इसी बात की चर्चा की थी..वह मुझपर फटते हुए से बोली थीं, "अरे हाँ..सब आप की ही तरह गैरजिम्मेदार थोड़ी न होते हैं...सबको अपने परिवार की चिन्ता होती है...बस एक तुम्हीं हो, जैसे किसी से कोई मतलब नहीं.." हलांकि मैंने सफाई भी दी.. लेकिन एक स्त्री जिसका पति दूर नौकरी कर रहा हो और वह छोटी-बड़ी परिवारिक समस्याओं से अकेले जूझती रही हो तो, इस तरह उसका फटना स्वाभाविक ही है। मैंने सफाई दी "नौकरी भी तो, मैं परिवार के लिए ही कर रहा हूँ" लेकिन मेरी इस बात का भी उनपर असर होता नहीं दिखा।

   

            खैर, जो भी हो..उम्र के पचासवें वर्ष के आसपास पहुँच कर हम जैसे नौकरी-पेशा व्यक्तियों के चेहरों और स्वास्थ्य पर जीवन के जद्दोजहद और उससे उपजे तनाव का स्पष्ट-लक्षण परिलक्षित होने लगता है, साथ ही पारिवारिक समस्याओं से भी दो-चार होना पड़ता होगा...अब तक आगामी जीवन और कैरियर की भी स्थिति स्पष्ट हो चुकी होती है..शायद यही कारण है कि इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते व्यक्तित्व से खनक गायब होने लगती है..और..एक नई औपचारिकता घर करने लगती है...

          हो सकता है इसे पढ़ते हुए, कोई मेरी इन बातों से सहमत न हो,  यही सोचते-सोचते कल की रात दस बजे जब मुझे नींद सताने लगी...तो सोचा...चलो जल्दी सो जाते हैं, जिससे सबेरे पाँच के आसपास उठना हो जाएगा और टहलना भी हो जाएगा, क्योंकि इधर डेढ़-दो महीनों से सुबह स्टेडियम जाकर टहलना बंद सा हो चुका है...फिर सुबह जाकर लगभग साढ़े चार बजे नींद टूटी...रात का किया हुआ संकल्प याद आ गया..और..स्टेडियम की ओर जाने की तैयारी करने लगा...

        स्टेडियम की ओर जाते हुए मेरा ध्यान सड़क के किनारे खम्भों पर जलती लाईटों पर चला गया...वाकई!  सुबह होने को आ रही है.. लेकिन अभी तक बल्बों से छिटक रही रोशनी के इर्द-गिर्द कीट-पतंगे मँडरा रहे हैं...मन ही मन सोचा, "ये बेचारे रात भर से ऐसे ही मँडरा रहे होंगे..वह भी बिना थके..रोशनी के प्रति इनका इतना प्रेम..!." कई जगह कवियों ने तो रोशनी के प्रति इन कीट-पतंगों के इसी प्रेम को देखकर कर अपनी कविताएँ रच डाली हैं..हलांकि ऐसी मुझे कोई कविता याद नहीं आई... नहीं तो यहाँ एक-दो लाईन जरूरत लिखता..पढ़ाई में रट्टू टाइप का न होने के कारण अपने को कोस बैठा..

          टहलते हुए आगे स्टेडियम की ओर बढ़ा जा रहा था कि "चींपों-चींपों" की आवाज सुनाई पड़ी..! इतनी सुबह गधे की आवाज सुनकर मैं आश्चर्यचकित था...क्योंकि, एक दो वर्षों से यही मानते आया हूँ की हमारे देश में बहुत ही कम गधे बचे हैं...और अगर हैं भी तो खच्चर में, मतलब घोड़े के क्रासब्रीड हो चुके हैं... तब तक देखा, वह गधा दौड़ता हुआ मेरे पास से निकल गया....मैंने उसे ध्यान से देखा था...एकदम शुद्ध टाइप का गधा प्रतीत हुआ.. मेरे देखते-देखते उसके पीछे एक दूसरा गधा भी दौड़ते हुए निकल गया था...उसके दौड़ने की गति देख मुझे उसके गधे होने पर ही संदेह हो आया..लेकिन था वह गधा ही..अरे!  पिछले चुनाव पर गधे को लेकर छिड़े विवाद को सोचकर मैंने इस विषय पर सोचने पर तत्काल विराम लगा दिया....तब तक मेरा पीछा कर रहे एक मासूम से पिल्ले की "बौ-बौ" की आवाज सुनाई पड़ी, पीछे मुड़कर देखा..उसे देखकर मैं मुस्कुरा उठा था...

          स्टेडियम में इक्का-दुक्का लोग ही थे...इसका दो चक्कर लगाया और फिर लौट पड़े...लौटते हुए स्टेडियम में प्रवेश करते एक सज्जन दिखाई पड़े...मुझे याद आया..कई माह पहले ये किसी कार से अपने कुछ साथियों के साथ आते थे और चार-पाँच की संख्या में ग्रुप बना कर टहलते थे...और टहलते हुए इनकी हँसी के साथ जुमले सुनते हुए मैं अपनी #दिनचर्या के लिखने के विषय खोज लेता था.. आज इन्हें अकेला देख ग्रुप टूटने की सोच कुछ क्षण के लिए मन उदास हो गया...वाकई! जीवन में भी एक समय ऐसा ही आता है!!

    

           खैर... मैं टहलने का अपना कोटा पूराकर स्टेडियम से लौट पड़ा था...सड़क बैठे गो-वंशो के झुंड के पास एक कुत्ते के जोरदार ढंग से भौंकने की आवाज सुनी...पास पहुंचने पर देखा! एक गधा बेचारा सड़क पर बैठे उन गो-पशुओं के झुंड के पास से उदासी भरे कदमों के साथ धीरे-धीरे दूर चला जा रहा था...वह कुत्ता उसी गधे पर भौंक रहा था और उसे गायों से दूर भगा रहा था.. उस कुत्ते की गो-रक्षा जैसी भंगिमा पर एक बार फिर मैं मुस्कुरा उठा था...!! 

        आवास पर लौट आया था... तुलसी की पत्ती और अदरक डालकर चाय बनाया..एक बार श्रीमती जी जब यहाँ आई थीं तो तुलसी के पौधे रोप गई थीं..आजकल ये तुलसी के पौधे छंछड़ कर काफी संख्या में हो चुके हैं और मैं भी सुबह की चाय में इनका बखूबी प्रयोग करता हूँ... तो यही चाय पीते हुए मैं अपनी यह #सुबहचर्या लिख रहा हूँ... 

         इधर अखबार भी आ गया है... पढ़ा, लेकिन क्या पढ़ा, इसकी चर्चा यहाँ नहीं करना चाहता.. वैसे भी लंबा लिख गया.. आप भी पढ़ते-पढ़ते ऊब रहे होंगे.. 

     

           तो #चलते-चलते 

   

           एक जगह पढ़ा, सार्थक जीवन के लिए निडर होकर जिए..शायद जीवन का उल्लास इसी में निहित है....