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सोमवार, 30 जुलाई 2012

कलुई


        उस दिन वह कुत्ता गाड़ी से टकराते-टकराते कैसे बचकर भागा था बरबस वह घटना याद आ जाती है. हाँ वह तेज चलती गाड़ी के ठीक सामने जो आ गया, उसे बचाने का कोई अवसर नहीं था और उसके ऊपर से मेरी गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ गई. ‘वोह! शायद मर गया..’,मैंने सोचा और पीछे मुड कर देखा. लेकिन यह क्या..!वह तो दिखाई ही नहीं दे रहा है...,शायद भाग गया..,लेकिन भागते हुए भी तो अगल-बगल कहीं नहीं दिख रहा है, तब तक साथ बैठे मेरे बच्चे मुझे कोसने लगे, ’नहीं गाड़ी चलाना आता तो क्यों चलते हो’..,’अब हम कभी आपके साथ गाड़ी पर नहीं बैठेंगे’..,’बेचारा कुत्ता दब गया’,आदि आदि.मैं भी थोडा चिंतित हो उठा यह सोचकर कि खामखाँ एक जान मेरे हाथ चली गई जबकि बचपन से मैं एक चींटी तक को मारना पाप समझता था. मैं गाड़ी से उतरा और चारों ओर नजर दौडाई लेकिन वह कहीं नहीं दिखा..,तभी कूँ-कूँ की धीमी आवाज सुनाई दी.., मैंने गाड़ी के नीचे झांक कर देखा, अरे..! यह क्या! मैंने देखा वह आगे की पहियों को जोड़ने वाले राड और चेचिस के बीच फंसा पड़ा है. उसे निकालने की तरकीब सोचने लगा..,मुझे लगा यदि गाड़ी को थोडा पीछे धकेला जाए तो शायद वह निकल जाए, फिर मैंने अकेले ही बोनट की ओर से धकेला, मुझे लगा अब वह नीचे गिर गया होगा और दुबारा नीचे झांककर देखा, अरे! यह क्या! वह कहाँ गया ! तब तक पास आ गए एक व्यक्ति की आवाज कानों में पड़ी, ‘वह... भागा... !’ नजर घुमाई तो देखा वह दूर खेतों में भागा जा रहा था उसे कोई गंभीर चोट नहीं लगी थी, मेरे जान में जान आई और गहरा संतोष का भाव चेहरे पर छा गया, मैं अपने बच्चों की तरफ देखकर विजयी भाव से मुस्कराने लगा...  

       न जाने क्यों मुझे उस समय ‘कलुई’ कि याद आ गई. मेरे हम-उम्र लगने वाले चाचा जो अब इस दुनियां में नहीं हैं, और दूसरा मैं. हम दोनों का कलुई से विशेष लगाव था. परिवार में एक बुजुर्ग जिन्हें हम लोग ‘ददा’ कह कर पुकारते थे, हम लोगों के ‘कलुई प्रेम’ से चिढ़ते थे..,उसी ‘कलुई’ ने जब पहली बार बच्चे दिए तो ददा ने कहा ‘सुरेशानंद और विनेकानंद’ का वंश चल गया’. वह अपने घर में अकेले ही रहते थे,क्योंकि उनका विवाह नहीं हुआ था, उनका देखभाल ह्मलोंगों के परिवार वाले ही करते थे. हाँ तो ददा जहां रहते थे वहाँ छोटी सी एक ‘गढ़हिया’ यानी एक तालाब था जो आज भी है लेकिन उसके कुछ हिस्से को पाट कर अब घर बना लिया है, हाँ तो उस तालाब के किनारे पर ही ददा का घर था. वहाँ झाडझंखार एवं चौड़े पत्तों वाले छोटे-छोटे पौधे हुआ करते थे जिन्हें हम ‘कंघी’ के नाम से जानते थे, साथ ही बांस की कोठ एवं इमली,नीम तथा कई अन्य प्रकार के पेड़ हुआ करते थे इससे वहाँ आसपास सदैव नमी बनी रहती थी और इसी नमी एवं झाडझंखार के बीच ‘महोख’ नामक कई पक्षी रहा करते थे हलांकि आज भी यदा-कदा कोई एकाध दिख जाता है. उनमें से कोई एक जब ‘पूऊत...पूऊत... पूऊत’ ‘कर बोलना शुरू करता था तो दूसरा भी उसी सुर में अपना सुर मिलाने लगता था. इस ‘पूऊत...पूऊत...’ से काफी शोर होता था और ददा इससे बहुत चिढ़ते थे तथा उन पक्षियों पर ’हड-हड ससुरे’ कह चिल्लाने लगते थे. ‘ददा’ से उनके इस चिढ़ का हम अपने तरीके से बदला भी ले लिया करते थे. हम तीन बच्चे अकसर जब वे सोए रहता थे तो उनसे कुछ दूरी पर खिड़की के पीछे खड़े हो ‘पूऊत...पूऊत... पूऊत’ तेज आवाज में बोलना शुरू कर देते थे, और ददा जग कर अपने ‘सोंटे’ को लकलकाते हुए हमारी तरफ दौड़ते थे और कभी-कभी उस डंडे को हमारी ओर फेंक कर मारने का प्रयास कर अपने गुस्से को शांत कर लिया करते थे, खैर हमारा बदला भी पूरा हो चुका होता था. लेकिन ‘कलुई’ बहुत समझदार थी घर का दरवाजा खुला होने पर भी वह घर के अंदर तक नहीं जाती थी, बाहर बैठकर ही ‘कौरे’ का इंतजार करती रहती थी. खाने के बाद हम सभी रोटी के बचे टुकड़े उसे दिया करते थे. रात में उसके भौंकने कि कुछ अदा ऐसी होती थी जिसे पहचान मेरे बाबा कहा करते थे, ’कोई बात जरूर है तभी भौंक रही है’ और उसके भौंकने का कारण पता करने पर उसे अकसर कई बार सांप या बिच्छुओं का रास्ता रोकते हुए पाया था. और जब कलुई मरी थी.....,तब हम बड़े हो चुके थे, हम लोंगों ने उसके मृत शरीर को फूलों से सजाया था..., हमने कब्र खोदी..., और दफनाया था. 

         ‘कलुई’ से संबंधित एक घटना आँखों के सामने घूम गई.उस समय मेरी उम्र ७-८ वर्ष के आस-पास रही होगी.उस दिन हम सारे बच्चे एक छोटे से पिल्ले को लेकर परेशान थे. हाँ, हम बच्चों ने  उसे ‘कलुई’ नाम दिया था क्योंकि एक तो वह मांदा थी दूसरे उसका एकदम काला  रंग ! जब मैंने उसको पहली बार देखा था तो दंग रह गया था . अरे ! क्या गजब का साहस था उसका ! नन्हीं जान!, दो-ढाई महीने की..!, अकेले..! तीन-तीन मुसदंडे कुत्तों का मुकाबला कर रही थी! हाँ, एक घर के लिए खुदे नींव के इस ओर अकेले वह और दूसरी ओर वे तीनों कुत्ते ! जो उसे देखकर भौंके जा रहें थे, वह भी उसी अंदाज में अपनी नन्हीं सी ऐंठी पूंछों के साथ निडरता से बौं-बौं किए जा रही थी. मैं बड़े ध्यान से उसे देखने लगा, मुझे लगा जैसे मैं किसी ऐसे गुरु से शिक्षा प्राप्त कर रहा हूँ जो मुझे साहसी बनने की सीख दे रहा हो. मैं धीरे से आगे बढ़ा और उसे अपनी गोंदी में उठा लिया..!

       घर पर हम कई सारे बच्चे मिलकर उसका देख-भाल करने लगे. हम बच्चों की दिनचर्या उसी से शुरू होती थी. अल-सुबह उठते ही हम उसके पास पहुंच जाते थे और उसके साथ खेला करते थे. एक तरह से हम सब के लिए वह मनोरंजन का साधन भी थी. मेरी एक बुआ जो मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी उसे बहुत प्यार से खाना खिलाती थी उनका भी उस ‘कलुई’ से बहुत लगाव था. हम बच्चे ‘कलुई’ को खाना खिलने की जिम्मेदारी उन्हीं को सौंप दिए थे. ऐसे ही कुछ दिन बीते थे कि एक दिन बहुत सबेरे ही कलुई....कलुई.....पुकारती आवाज कानों में पड़ी यह बुआ की आवाज थी कुछ घबड़ाहट भरी, मैं भी चौंक कर उठ गया और बुआ के पास गया यह जानने की बात क्या है. बुआ ने बताया,‘कलुई’ दिखाई नहीं दे रही है’, ‘वह कहाँ गई’....,यह सोचकर मैं भी चिंतित हो उठा. वह अभी बहुत छोटी थी..बुरे ख्याल मन में आने लगे. तब तक हम कई बच्चे इकठ्ठा हो गए, फिर हम लोंगों ने मिलकर उसे खोजना शुरू किया, दोपहर हो गया...,लेकिन वह नहीं मिली !

      मुझे याद आता है उस दिन हम सारे बच्चे बहुत दुखी थे. कितनी प्यारी थी वह..,खेलते समय वह भी हम लोंगों के साथ दौड़ा करती थी...लेकिन वह कहाँ और किस हाल में होगी फिर मिलेगी या नहीं ...,बार-बार ऐसे ख़याल मन में आ रहें थे. ऐसे ही सोचते-सोचते दोपहर के तीन-चार बज गए. तभी किसी ने आवाज दी ‘अरे ! देखो! शायद यहाँ है’ और ईख की सूखी पत्तियों के गट्ठर की ओर इशारा किया. फिर हम सभी बच्चे मिल उसे वहाँ खोजना शुरू कर दिए.सारे गट्ठर को हम लोगों ने उलट-पलट डाला लेकिन वह नहीं मिली, हाँ उसमें से एक बिल्ली निकल कर भागी. हम सभी निराश हो पास ही कुँए की जगत पर बैठ गए. वहाँ बैठे हुए कुछ ही देर हुआ होगा कोई चिल्लाया, ‘अरे ! वह देखो ! कलुई आ रही है !’ हम लोगों ने देखा दूर बाग के बीच रास्ते से वह भागी चली आ रही है, सभी बच्चे उसकी ओर दौड़ पड़े, हम सभी ने बारी-बारी से उसे अपनी गोंदी में उठाया जैसे इत्मीनान कर लेना चाहते हों कि वह हमारी ‘कलुई’ ही है......हाँ उसी प्रसन्नता की अनुभूति उस भागते कुत्ते को देख कर हुई.

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रविवार, 8 जुलाई 2012

सत्यमेव जयते


          आमिर खान के शो ’सत्यमेव जयते’ में आज जातिवाद, छुआछूत आधारित सामाजिक भेदभाव जैसी कुप्रथा को मुद्दा बनाया गया। इसे देखकर कुछ यादें ताजा हो गयी! बचपन में कपड़े सीने का काम करने वाला एक आदमी अकसर हमारे घर आया करता था। वह घर से कपड़े लेकर उन्हें सिलकर फिर घर पहुँचा दिया करता था। एक बार हमारे घर पर किसी की तेरहवीं पर भोज का कार्यक्रम था उसे भी निमंत्रित किया गया था। खाना खाने वाले लोगों की पंक्ति के बीच में बैठकर वह भी भोजन कर रहा था। उसे इस तरह लोगों के बीच पाँत में बैठकर खाना खाते हुए देखकर घर के ही एक सदस्य ने कुछ बडबडाते हुए उसकी ओर इशारा किया और फिर मैनें उन्हें उस व्यक्ति को खाने वाले लोंगों की पाँत से उठाते देखा। वह उस बेचारे को सबसे अलग बैठ कर खाने के लिए कह रहे थे क्योंकि वह तथाकथित एक दलित जाति से था। लेकिन तब उस व्यक्ति ने अपने को बहुत अपमानित महसूस किया था। फिर उसने खाना नहीं खाया और वह उठकर चला गया था। आज भी वह घटना मुझे बरबस याद आती रहती है अपमान बोध से पीड़ित वह फिर कभी हमारे घर दिखाई नहीं दिया।

       इसी तरह स्कूली दिनों का मेरा एक अन्य अनुभव रहा है। मैं इंटर प्रथम का छात्र था उन दिनों कभी-कभी मैं अपने स्कूटर से कालेज चला जाता था। मेरे गाँव का ही मेरा एक सहपाठी भी मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढ़ता था। अकसर मैं अपने उस सहपाठी मित्र के भी स्कूटर पर बैठाकर कालेज चला जाता था। उसे इस तरह हमारे साथ स्कूटर पर बैठ आते-जाते देख हमारी कक्षा के तथाकथित ऊँची जाति के छात्र मेरी खिल्ली उड़ाया करते थे कि मै एक दलित जाति के छात्र को अपने स्कूटर पर क्यों बैठाता हूँ।

               उक्त बातें तो मेरे अपने अनुभव का विषय रहा है लेकिन मेरे एक परिचित ने बातों-बातों में ही अपनी एक ऐसी पीड़ा को मुझसे व्यक्त किया जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को सोचने पर विवश कर सकता है। वह सरकारी सेवा में हैं तथा उन्होंने बताया कि कैसे अनुसूचितजाति वर्ग में पैदा होने के कारण उनके बच्चों कि पढ़ाई बाधित हुई थी! 
            पहले उनके बच्चे गाँव में पढ़ते थे। जब वे सरकारी नौकरी में आए तो वह बच्चों को शहर में पढाना चाहते थे, लेकिन शहर में उन्हें किराए का घर इसलिए नहीं मिल पाया था कि वह एक दलित जाति से थे। कोई उन्हें किराये पर अपना घर देने के लिए तैयार नहीं होता था। इस कारण से उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा तीन वर्ष पीछे हो गई थी। 

            वास्तव में जातिगत भेदभाव के मनोरोग को हम आज भी देख एवं सुन सकते हैं, शहरों में हो सकता है यह कुछ कम दिखाई दे लेकिन गाँवों में यह अपने उसी वीभत्स रूपों में आज भी है जैसा कि आमिर ने अपने शो में दिखाया। हम दलितों की इस पीड़ा को दलित हो कर ही अनुभव कर सकते हैं इस समाज के प्रति उनके विद्रोह के स्वर बेहद जायज हैं। और जब तक शेष समाज भी इस पीड़ा को उसी शिद्दत से अनुभव नहीं करता यह मनोरोग समाप्त होने वाला नहीं है। आमिर को साधुवाद !

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