यह अकथ-मन ! यहाँ प्रश्नों और उत्तरों की टकराहटों में एक सार्थक दुनियाँ तलाशनें की आकुलता है...
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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018
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रविवार, 3 जून 2018
फिटनेस का स्लोगन ; सुबहचर्या
बहुत दिनों बाद आज अपने उसी पुराने टाइम पर टहलने निकला था। यानि लगभग पौने पाँच बजे सुबह..वैसे सप्ताह में औसतन तीन दिन सुबह का टहलना हो जाता है, लेकिन अपने आवास के लान में ही। क्योंकि इधर स्टेडियम जाना अब कम हो गया है। बहुत दिनों बाद वही पुराना ग्रुप टहलते हुए मिला। उनके आपस की चर्चा में एक व्यक्ति सत्ताधारी के पक्ष में बोल रहा था, तो दूसरा विरोध में। उनकी बातों को सुनते हुए मैं आगे बढ़ गया था। हाँ, स्टेडियम के मैदान में, खुले आकाश में चाँद बहुत सुन्दर दिखायी दिया और कुछ क्षणों तक अपलक मैं उसे निहारता रह गया था। खैर..
स्टेडियम में टहलने वालों की संख्या से मैंने अनुमान लगाया कि धीरे-धीरे अपने फिटनेस के प्रति लोग सजग हो रहे हैं। वहाँ के कंक्रीट-पथ पर चलते हुए ही ध्यान आया कि आजकल "आप फिट तो इंडिया फिट" टाइप श्लोगन चल रहा है..हाँ, इधर यह नया श्लोगन ईजाद किया गया है..वैसे तो, कहते हैं कि यह देश गाँवों में निवास करने वाले गरीब, मजदूर और किसानों का देश है, तो क्या इनके लिए भी इस श्लोगन का कोई महत्व है..? नहीं है..! सच तो यह है कि फिटनेस का मंत्र उनके लिए है जो देश के संसाधनों पर अवैध कब्जा किए हुए बैठे हैं या कर रहे हैं और वही अपने "फिटनेस" को लेकर सबसे ज्यादा चिन्तित भी होते हैं...आखिर क्या इस फिटनेस के मंत्र में उपभोगवादी मानसिकता छिपी दिखायी नहीं देती..? यही सोचते-सोचते मैंने स्टेडियम का एक चक्कर लगा लिया था।
मैंने देखा.. मेरे सामने एक व्यक्ति अपने हाथों को झटकता हुआ सा तेज गति में चला जा रहा था...वह अपने फिटनेस को लेकर काफी सजग दिखायी दिया...मेरी भी सजगता बढ़ी और मैं भी उसके पीछे-पीछे उसके अनुसरण की कोशिश करने लगा था...लेकिन मेरा मन कुछ और ही सोच रहा था, मैं उस श्लोगन का श्रोत ढूँढ़ने लगा...निश्चित ही ऐसे नारे आम आदमी की ओर से नहीं उछाले जाते। न जाने क्यों मुझे मोहन राकेश के नाटक "अषाढ़ का एक दिन" में आए दन्तुल और कालिदास के बीच के वार्तालाप का वह प्रसंग ध्यान में आ गया :
दन्तुल किसी राज्य का सैनिक है, उसके बाण से घायल एक मृगशावक को कालिदास बचाने का प्रयास करता है, और दन्तुल उस घायल मृगशावक को सौंपने के लिए कहता है, अन्यथा दंडित करने की धमकी देता है। लेकिन कालिदास, दन्तुल को उस घायल मृगशावक का अपराधी ठहराते हुए सौंपने से इनकार कर देता है।इसके बाद का वार्तालाप इस प्रकार है -
"दन्तुल : तो राजपुरुष के अपराध का निर्णय ग्रामवासी करेंगे! ग्रामीण युवक, अपराध और न्याय का शब्दार्थ भी जानते हो!
कालिदास: शब्द और अर्थ राजपुरुषों की सम्पत्ति है, जानकर आश्चर्य हुआ।"
तो वाकई! इसीतरह शायद "फिटनेस" का वह मंत्र भी "राजपुरुषों" की ही देन है और वही इसका अर्थ भी तय करते हैं... इसी के साथ अभी-अभी आसमान में निहारे चमकते चाँद पर एक बार पुनः ध्यान चला गया..इस नाटक में एक जगह मल्लिका कह रही है -
"एक दोष गुणों में उसी तरह छिप जाता है जैसे चाँद की किरणों में कलंक ; परन्तु दारिद्र्य नहीं छिपता।"
बात वही है, यहाँ फिटनेस से ज्यादा महत्वपूर्ण है दारिद्र्य से निपटने की जद्दोजहद..! लेकिन इधर लोगों को व्यर्थ के नारों में उलझाये रखने का चलन बढ़ चला है और अपारदर्शिता के लिए ही पारदर्शिता का खेल खेला जाने लगा हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं कि "संविधान" का प्रभाव राजधानियों से आगे बढ़ ही नहीं पाता जबकि सत्ताजनित "राजपुरुषों" का प्रभाव ही सर्वत्र है। हो सकता है, "फिटनेस" की बात इन्हीं पर लागू होती हो..! खैर, दूर-दराज की रियाया टाइप की जनता सदैव से फिट रही है...!!
अब तक मैं स्टेडियम का दूसरा चक्कर पूरा कर लिया लेकिन न जाने क्यों सुबह-सुबह मेरा मूड भी खराब हो चुका था। वापस मैं अपने आवास पर पहुँचा, वहाँ लान की हरी-हरी दूब को देखकर "अषाढ़ का एक दिन" नाटक की वह एक पंक्ति मुझे फिर याद आ गई -
"जीवन एक भावना है! कोमल भावना! बहुत-बहुत कोमल भावना!!"
मैं तो समझता हूँ, जो इसे समझता है उसे ही फिटनेस का राज भी पता है। बाकी सब ऐसेइ है...
#चलते-चलते
फिटनेस का राज हमारी कोमलता में छिपा होता है, और हम जितने असंवेदनशील होंगे उतने ही अनफिट होंगे।
#सुबहचर्या
1.06.18
शुक्रवार, 25 मई 2018
जीवन की सहजवृत्ति
अभी-अभी पौधे और घास सींचकर बरामदे के तखत पर मैं बैठा हूँ...जानता हूँ, इन्हें छोड़कर अब जाने वाला हूँ...लेकिन इन्हें कुम्हलाते...मुरझाते...नहीं देख सकता..एक अजीब सा लगाव हो आया है..इन पौधों और इस वातावरण से...!! खैर...यह भी जानता हूँ...हम इंसान हैं...भावात्मक बातें सोच-सोचकर भावुक हो उठते हैं..और..निश्चित रूप से हम अपने परिवेश और चीजों से अपने विचारों और सोच के अनुसार ही बर्ताव करने लगते हैं...हाँ..हम अपनी चाहना के अनुसार ही अपनी सोच निर्मित करने लग गए हैं..सच में, आखिर मनुष्य ही तो "सोचनीय" प्राणी है..
...आखिर गौरैया के उस जोड़े और उसके उन बच्चों के बीच ऐसा कौन सा रिश्ता है..जिसके बारे में वे सोचकर व्यवहार करते हैं...!! मैं नहीं जानता...कि...इन पक्षियों के आपस के बीच के कार्य-व्यवहार में इनका कोई सोच आड़े आता होगा..यह तो इनकी सहज वृत्ति है...लेकिन, हम इंसान अपनी सहजवृत्ति खोते जा रहे हैं...अपनी सोच के गुलाम बनते जा रहे हैं.. और यह हमें लगातार अमानवीय बनाती जा रही है...अब तो शायद हमें अपनी सहजवृत्तियों को जगाने के लिए बहुत सारे "डे" भी मनाने पड़ते हैं..!
लेकिन...इनके लिए किसी "डे" की जरूरत नहीं है...क्योंकि ये प्रकृति को समझते हैं...
उस दिन गौरया के घोसले से तिनके जमीन पर गिर इधर-उधर बिखरे पड़े दिखाई दिए थे...मैंने लकड़ी के उस घोसले में झाँक कर देखा, उसमें गौरया नहीं दिखाई पड़ी। इधर मैं उन गौरयों के जोड़ों को कई दिनों से इस घोसले में तिनके लाते हुए देख रहा था...सुबह-सुबह मेरे दरवाजा खोलते ही फुर्र करके ये जोड़े उड़ जाते..कभी-कभी जोड़े का एक गौरैया घोसले के अन्दर से झाँक रहा होता तो दूसरा बाहर से घोसले में झाँकता दिखाई दे जाता...गौरयोों के लिए यह घोसला गौरया दिवस पर हमारे डी एफ ओ साहब ने हमें उपहार में दिया था, जिसे मैंने पिछले दो साल से अपने सरकारी आवास के बरामदे में टांगा हुआ है। इस घोसले में अब तक दो-एक बार गौरयों के जोड़ों ने अंडे भी दिए हैं। गौरैैया का जोड़ा अंडे देने के पहले तिनके ला-लाकर इस घोसले में बिछाते हैं...इसके लिए ये जोड़े मिलकर बड़ी लगन केे साथ मेहनत करते हैं.. घोसले बनाने की इनकी लगन देख मुझे इंसानों को लेकर अचरज होता है।
इधर छह-सात महीने पहले मुझे एक अन्य चिड़िया दिखाई पड़ी थी...यह गौरया से थोड़ी बड़ी और मैना से थोड़ी छोटी होती है, और काफी फुर्तीली भी दिखाई देती है..। इस चिड़िया का नाम तो नहीं पता, लेकिन यह एक शिकारी टाइप की चिड़िया प्रतीत हुई..जो गौरैया के घोसले के आसपास उन दिनों अधिक मँडराती है जब गौरैया के अंडे देने का समय होता है, तब गौरैया के जोड़े इसे भगाने के लिए चीं-चीं करते हुए इसकी घेराबंदी करते हुए दिखाई देते हैं। अकसर सुबह इस चिड़िया रूपी खतरे को भाँप गौरैया की तेज चहचहाटों को सुनकर मैं भी बाहर निकल आता और गौरयों के सहयोग में उस शिकारी चिड़िया को भगाने लगता..
इधर मैंने ध्यान दिया है कि गौरैया के जोड़े अब इसमें अपना घोसला लगाने से कतराने लगे हैं...शायद यही वजह है कि इस घोसले से गौरैया के नन्हे बच्चों की चीं-चीं की आवाज सुने मुझे कई माह हो चुके हैं...उस दिन मैंने सुबह-सुबह इसी घोसले को फिर उजड़ा हुआ पाया था...शायद उसी शिकारी चिड़िया ने उसके घोसले को उजाड़ा होगा..! घोसले के सारे तिनके बरामदे के फर्श पर बिखरे पड़े थे...
खैर...जब मैं देर शाम घर पहुँचा तो पत्नी कुछ ज्यादा ही परेशान दिखाई पड़ी...परेशानी का कारण पूँछने पर उन्होंने बताया कि पोर्टिको की छत पर पंखे लगाने वाली डिब्बी से गौरैया के घोसले से उसके बच्चे गिर पड़े हैं..जिसमें से एक गिरने की चोट से मर गया...और दूसरा अभी जिन्दा है...श्रीमती जी उसी को बचाने की चिन्ता में थी...मैं भी झल्लाते हुए बोला, "इन गौरयों को यह भी नहीं पता कि कहाँ घोसला लगाना चाहिए और कहाँ नही.." लेकिन इसमें बेचारी इन नन्हें पक्षियों का क्या दोष..!! असल मे ये बेचारे हमारी बदली जीवन शैली के शिकार हुए हैं...सोचते-सोचते..पत्नी के साथ उसे देखने मैं भी बाहर आ गया...गौरैया का वह नन्हा बच्चा एक कोने में दुबका सा बैठा था...वहाँ से उठाकर उसे मैंने कार की बोनट के उस भाग पर रख दिया जहाँ वह थोड़ा सुरक्षित रह सके...
... अगले दिन अलसुबह श्रीमती जी ने पके चावल के छोटे से टुकड़े को उस गौरैया की नन्हीं सी चोंच के पास ले जाकर उसे चुगाने का प्रयास किया, लेकिन उसने अपनी चोंच नहीं खोली..इसके बाद हम उसके मम्मी-पापा का इन्तजार करने लगे थे..थोड़ी देर बाद ही पोर्टिको से चीं-चीं की आवाजें सुनाई दी.. उत्सुकतावश देखने पर पाया कि गौरैया का एक जोड़ा उस नन्हीं सी जान को फुदक-फुदक कर चुगाने पर लगा हुआ था..अब वहीं गौरैया का बच्चा अपने मम्मी-पापा की चोंच में कुछ देखते ही झट से अपनी नन्हीं चोंच खोल देता...इघर हमने गौरया के उस जोड़े को दिवाल के सहारे खड़े एक पत्थर की चट्टी के पास भी उछल-कूद करते हुए देखा..! पता चला कि वहाँ छिपे बैठे एक अन्य बच्चे को भी वे बारी-बारी से चुगा रहे थे...मतलब इस जोड़े के तीन बच्चों में से दो बच्चे बचे हुए हैं...पत्नी ने उन दोनों बच्चों को एक साथ कर दिया और उनके लिए पके चावल और एक प्याले में पानी का प्रबंध भी कर दिया गया...
हाँ.. देर शाम हम कहीं से आए थे..तब तक तुफान और बारिश गुजर चुका था...मुझे गौरैये के उन बच्चों की चिन्ता हो रही थी.. मैंने देखा...उनके पंख एक दम भींगे हुए थे और पानी-भरे उस बड़े से प्याले की कोर पर वे सहमे हुए से बैठे थे...उन्हें देखकर ऐसा लगा, जैसे ठंड से वे काँप रहे हों.. खैर हमने उन्हें, वहाँ से उठाकर एक छोटी सी डलिया में कपड़ा बिछा उसमें रख, डलिया को घर की लाबी में रख दिया...रात में हमने पाया...वे दोनों अपना सिर लुढ़काए आराम से सो रहे थे.. शायद उन्हें गरमाहट मिल गई थी...
अगले दिन सुबह पत्नी ने उन दोनों बच्चों को फिर से पोर्टिको में रख दिया था...जहाँ उन्हें चुगाने उनके मम्मी-पापा आ गए थे...पत्नी ने हमें बताया कि उन बच्चों को पोर्टिको में रखने में कुछ देर हो गई थी और इधर गौरैया का वह जोड़ा जोर-जोर की चीं-चीं की आवाजों के साथ इधर-उधर फुदकते हुए जैसे अपने बच्चों को ही खोज रहा था.!! बच्चों को देखते ही वे उन्हें चुगाने में जुट गए थे...बाद में सुपुत्र महोदय ने जब गौरैया के उन बच्चों की तरफ अपनी हथेली बढ़ाई तो वे फुदककर उनकी हथेली पर आ गए थे और फिर उछलकर थोड़ी दूर उड़ दूसरी ओर जाकर बैठ गए...अब वे उड़ना भी सीख चुके थे...कुछ ही देर बाद वे फुर्र हो चुके थे...