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शनिवार, 4 मई 2013

प्रश्नशंकुलता:हमारा व्यक्तित्व...!


         हमारा व्यक्तित्व...! क्या यह उस बहती हुई नदी के समान है जो उफनती तो है लेकिन उसका बहाव एक नियत दिशा की ओर ही होता है...! फिर..! उसका उफनना...उसकी भंवरें...व्यर्थ हो जाती हैं..! क्या सारी चीजें पूर्व नियत या सीमा में ही होती हैं...? क्या उस नदी के समान ही मानसिक उफान, आवेग इत्यादि हमें एक नियत दिशा की ओर ही ले जाते हैं...! उसकी दिशा में कोई अंतर नहीं डालते..? क्या हमारी नियति ऐसी ही है...अपरिवर्तनीय..! एक निश्चित दिशा की ओर नदी के खांचों में उफनते हुए बह जाना..! या कि सारी स्थितियां धोखा तो नहीं है...!
          आखिर उसकी नियति है क्या...? वास्तव में उस नदी के समान या भिन्न...? नदी तो अपने द्वारा नियत दिशा की ओर ही बहती है...हजारों वर्षों के जिस बहाव में उसने जो कटान निर्मित किए हैं वह उसी में से होकर उसी दिशा की ओर बहती है...लेकिन वह..! उसकी तो कोई दिशा ही नहीं...! कोई स्व-निर्मिति ही नहीं...! वह है क्या, क्या एक निरा पुतला..! या फिर कोई भी आकर ले लेने वाला अमीबा...! क्या इसे जीवन माना जा सकता है...! आकार रहित जीवन...! आखिर इसका अर्थ क्या है..? सच में...उसने अभी तक अपने लिए जो कटान निर्मित किए हैं क्या उसके खांचों में उसका जीवन बहा जा रहा है...?
     बचपन से लेकर आज तक ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह अपने लिए कटान ही निर्मित करता आया है लेकिन यह कितना गहरा और किस दिशा में हुआ इसे नहीं समझ सका है| उसकी यह स्व-निर्मिति जिसे वह गति समझ रहा है या अपने लिए एक कटान समझता है वास्तव में वह ऐसा कुछ है भी या नहीं...? उसके लिए कितना जटिल प्रश्न...!
      अन्तस में उठने वाले विचारों की यह प्रश्नशंकुलता उसे एक अजीब सी भंवरों में उलझा देती है...इसमें उलझ वह दिशाहीन सा हो जाता है और उसकी यह दिशाहीनता उसमें एक बेचारगी के भाव के रूप में दिखाई देने लगतीहै| यही बेचारगी का भाव उसे दुखी सा कर देता है| तभी तो एक दिन उसके एक मित्र ने उससे कहा था-
       “अरे भईया कभी तो खुश रहा करो|”
उसका इस तरह कहना वह नहीं समझ सका| शायद उसके अन्तस की बेचारगी को भांप कर ही उसने ऐसी बात कही हो| फिर उसने कहा-
“भईया कम से कम खुश तो रहा करो, आपकी कोई समस्या तो दिखती नहीं और यदि हो भी तो इस तरह सोचने से कोई समस्या नही सुलझ सकती है|”
इसके बाद वह मित्र जीवन में यथार्थता को समझाता रहा और बोला, “यथार्थ जीवन जियो भावुक मत बनो|”
      ‘यथार्थता है क्या...’ इसी तरह के प्रश्नों से तो वह जूझता रहा है...कभी-कभी तो उसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे यथार्थता नाम की कोई चीज ही नहीं है... और है भी तो...लोगों के अपने-अपने नजरिए में यह यथार्थता खो जाती है...! इस यथार्थता को जीवन में कैसे उतारा जाए यह उसके लिए बहुत ही गूढ़ प्रश्न रहा है...| हालाँकि उसके मित्र ने इसे समझाते हुए उससे कहा,
        “जिस वस्तु पर अपना वश नहीं या जिसे हम नहीं बदल सकते यही एक प्रकार की यथार्थता है उसे इसी रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए|” आगे फिर समझाते हुए बोला-
     “...फिर तुम्हीं बताओ जिसे हम नहीं बदल सकते उसके लिए हम दुखी और परेशान होकर ही क्या कर लेंगे सिवाय अपने को कष्ट देने के या जीवन को नीरस बना लेने के|”
       आदत से मजबूर वह मन ही मन उसकी बातों का अर्थ खोजने लगा...उसने जो बातें कहीं वह उसके व्यक्तित्व के अनुरूप ही थी...छोटी-छोटी बातों में भी खुश रहने वाला बिंदास जीवन शैली थी उसकी...! जो जैसा आया उसको उसी रूप में बिना लाग लपेट के स्वीकार कर लेना उसकी आदत थी...मन की गांठे भी बड़ी सहजता से वह खोल देता था...तभी तो उसने किन्तु-परन्तु को भूल यथास्थिति को स्वीकार कर प्रसन्न रहने की बात कह डाली| लेकिन...वह ऐसा नहीं कर पाएगा...हालाँकि उसके मित्र का व्यक्तित्व उसके लिए आकर्षण का विषय रहा है...आखिर वह कैसे अपने मन की प्रश्नशंकुलता एवं मित्र की यथार्थता को एक साथ स्वीकार कर ले...और अपने मन की यथार्थता को भूल जाए...! इसी मन के कारण स्वयं वह मित्र जैसा सहज और सरल नहीं बन पाया है जबकि उसका वह मित्र सदैव सहज और सरल ही दिखाई दिया है; जीवन को प्राकृतिक ढंग से जीने वाला...!