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शनिवार, 8 अगस्त 2015

तड़फड़ाती ये नन्हीं सी मछलियाँ

        “भईया तू शहर जाएगा...?” ‘बिने’ की छोटी बहन ने जब अपने भाई से यह प्रश्न किया तो दोनों अपने गाँव के किनारे वाले भीटे पर खेल रहे थे...हरी-हरी दूब पर वे दोनों अपने में ही मगन थे कि तभी दिप्पी ने अपने से चार-पाँच साल बड़े भाई से यही प्रश्न पूँछ लिया था..उस समय बिने दूब की डंठल से सींकें बनाकर इसे चींटों के बिल में डाल कीड़े निकाल रहा था...बिल में जब कीड़ा इस सींक को पकड़ता तो उसे ऐसा लगता जैसे यह कीड़ा सींक को अपनी ओर खींच रहा हो...तब बिने सींक को धीरे-धीरे बिल से खींचने लगता...इसी के साथ वह कीड़ा भी निकल आता...! इसे देख दोनों ताली बजाते...एक बिल से दूसरे में वह यही क्रिया दुहराता जा रहा था...इस खेल में उसे बहुत मजा आ रहा था...गाँव के अन्य बच्चे भी वहीँ पास में ही नीम के पेड़ की छाया में बैठ अपनी घास चरती भैसों की रखवाली कर रहे थे कि कहीं ये किसी की फसल वाली खेतों में न चली जाएं...कुछ बच्चे वहीँ नजदीक के गड़हे में मछलियाँ भी पकड़ रहे थे...हालांकि बिने के पास चराने के लिए अपनी भैंस तो थी नहीं..! लेकिन अपने-अपने जानवर चराते बच्चों के साथ खेलना उसे बहुत अच्छा लगता...कभी-कभी तो उसका पूरा दिन ऐसे ही खेलते हुए बीत जाता...! आज उसकी छोटी बहन भी उसके साथ खेलने आई थी...खेलते-खेलते ही उसने अपने भाई से यही पूँछा था...!

         छोटी बहन दिप्पी के इस अप्रत्याशित प्रश्न पर “नहीं तो..” कहते हुए बिने सींक को वहीँ बिल में छोड़ उसकी ओर देखने लगा...! “बापू कह रहे थे भईया शहर से तेरे लिए नई फिराक लाएगा...” भाई को अपनी ओर देखते हुए दिप्पी ने फिर कहा| “कैसे शहर जाऊँगा..? छोटा हूँ...बड़े होने पर तेरे लिए फिराक लाऊंगा..!” कहते हुए बिने उठ खड़ा हुआ..लेकिन..पता नहीं क्यों अब वह थोडा उदास सा हो गया था...खेलने में उसका मन नहीं लगा..“आ घर चलें” कहते हुए उसने दिप्पी का हाथ पकड़ लिया..दोनों घर की ओर चल दिए...वैसे बिने खेलने में ही मस्त रहता है, अभी वह किसी दुनियादारी को नहीं समझता...लगभग इग्यारह-बारह साल का लड़का कुछ समझेगा भी नहीं..! लेकिन छोटी बहन के इस प्रश्न ने उसे थोड़ा विचलित जरुर कर दिया...

         आज से दो दिन पहले वह ऐसे ही खेल कर जब घर वापस आया था तो साँझ हो चली थी...माँ ने घर में अभी तक चूल्हा नहीं जलाया था..! अकसर माँ इस समय तक चूल्हा जला लेती थी...हालाँकि कभी-कभी उसे चूल्हा जलता हुआ नहीं भी मिलता था...तब पिता के आने के बाद ही माँ खाना बनाना शुरू करती थी...लेकिन माँ आज उदास थी..! उसे देखते ही वह गुस्से में बिफर पड़ी थी...और फिर...उसकी पीठ और गाल माँ की मार से लाल हो गए थे...! माँ रोते हुए अपना भाग्य भी कोसते जा रही थी “हे भगवान कहाँ से यह ‘बहीपार’ लड़का दे दिए हो..! न पढ़ाई न लिखाई...बस खेलना...एक इसी का तो आस था...यह भी...” तभी उसके पिता घर के सामने छप्पर के नीचे पड़े झिंलगी सी चारपाई पर साथ लाए छोटे से झोले को रखते हुए “का बात हइ..” कहते हुए बिने की ओर देखने लगे थे...बिने माँ से मार खा चुपचाप सिर झुकाए खड़ा था....उसके पिता को समझते देर न लगी “अच्छा ये ससुर आज फिर बहीपारी किये हैं...” कहते हुए पिता ने उसे मारने के लिए हाथ उठाया...तभी बिने की माँ बोल उठी “रहई दो हमने बहुत मारा है”...और इसी के साथ पति का हाथ भी पकड़ लिया..“ससुरा हेहर हो चुका है..” कह बिने के पिता झिंलगी चारपाई की ओर दिप्पी को पुकारते हुए लौट गए...माँ से मार खाते भाई को दिप्पी भी वहीँ खड़ी होकर चुपचाप देख रही थी..पिता ने झोला दिप्पी को पकड़ाया...शायद वह मजूरी कर के आए थे..! फिर थोड़ी देर बाद ही चूल्हा भी जल चुका था...

          उस दिन पिता माँ से कह रहे थे “अधिया खेत की जोताई में कोनों फायदा नहीं..एक तो मालिक खाद-बीज, पानिऊ का नाहीं देते...कहते हैं..फसल में सब काट के बाँट लो...और फसल कैसे हो...? पानी नाहीं बरसत...! नहर के हाल ई है कि एक तो आवत नहीं औउर आवत भी है तो ई बड़कन पहिले से ही घार काट लेत हैं...पानी मिलबे क नाहीं...बोलो तो मार करई पर उतारू....कैसे खेती हो...देखो न पिछली बार कुछ पैदई नाहीं भा औउर खाद..बीज..जुताई का कर्जा ऊपर से...हाँ...एंसवऊँ का हाल इहे जान पडत है..!”

           इधर पास में ही एक टूटे पायों वाले खटोले जो शायद उसके जन्म के समय उसके पिता ने बनवाया था..उसी पर वह माँ की पिटाई से नाराज लेटा माता-पिता के बीच चल रही  वार्तालाप भी सुनता जा रहा था...“हमहूँ सोचे रहे ई तोहार लड़िका पढ़ी लेत तो कुछ कष्ट कटत...लेकिन एकर कोनऊ ठीक लच्छन नाहीं देखात बा” माँ ने ही कहा..पिता की आवाज सुनाई दी “अरे हाँ..ऊ आज तो बड़ी मुश्किल से काम मिला...हम तो निराश लौटा आवत रहे..ऊ तो गोमवा मिली गवा कहेस कि जहाँ काम कर रहा है एक मजूर की अउर जरुरत है...मुला बहुत खटई क पड़ा पूरे आठ घंटा..!” माँ सुनती रही थी...कुछ क्षण बाद लम्बी स्वाँस भरते हुए बोली, “हाँ...तो आज फिर चूल्हा जलबऊ मुश्किल होतई...” अचानक उसके पिता को जैसे कुछ याद आ गया था..बोले..“अरे हाँ..! याद आवा...गोमावा के जान-पहचान का कोई साहेब शहर में रहत हैं...उनको कोनऊ लड़िका का जरुरत है...ऊ कहत रहे कि महीना में पैसा ठीक-ठाक मिलि जावा करे...”

          फिर...उसने ने सुना...उसी को शहर भेजने की बात पिता कर रहे हैं क्योंकि वह स्कूल नहीं जाता..दिन भर खेलता रहता है..’बहीपारी’..करता रहता है...ऐसे में शहर वाले साहेब के यहाँ उसके काम करने से दो-चार पैसे मिलेंगे...चूल्हा जलने में आसानी होगी...फिर..दिप्पी के विवाह में भी उसकी कमाई काम आएगी...बिने ने माता-पिता के इस वार्तालाप को सुना भर...! इससे ज्यादा वह कुछ सोच नहीं पाया था...तभी दिप्पी की आवाज भी उसके कानों में पड़ी थी...”माँ भईया शहर जाएगा..?” माँ के गले को पकड़ लगभग झूलती सी दिप्पी ने पूँछा था.. “हाँ तेरे लिए वह शहर से फिराक लाएगा..” यह सुन उसने खटोले से ही माँ की ओर देखा था..पिता वहीं माँ के पास मोढ़े पर बैठे दिप्पी से यही कह रहे थे...रोटी सेंकती माँ झल्लाई सी दिप्पी को परे धकेल दिया था...दिप्पी आकर पिता की गोंद में बैठ गई थी...भीटे पर खेलते समय दिप्पी ने इन्हीं बातों को सुन भाई से शहर जाने वाला प्रश्न किया है|

          माता-पिता ने उसकी ‘बहीपारी’ से पहले उसे स्कूल भेजने का भी प्रयास किया था...पहले दिन तो पिता स्वयं उसे स्कूल तक लेकर गए थे..! दूसरे दिन वह स्कूल नहीं जाना चाहता था...रोने लगा था..माँ की धोती पकड़ लटक सा गया...तब..उसे खींच कर उसकी बाँह पकड़े हुए ही पिता उसे भीटे तक ले गए थे...! इस भीटे से होकर गुजरता रास्ता स्कूल तक जाता था...उस दिन तो वह रोते हुए ही अन्य बच्चों के साथ स्कूल गया था..! गाँव के इस दूर-दराज के स्कूल में अकसर मास्टर जी ही नहीं आते थे..! कभी-कभार मास्टर जी आये भी तो प्रधानाध्यापक कक्ष में ही बैठे-बैठे न जाने क्या करते रहते...वह स्कूल में यूँ ही बैठा रहता...कोई किताब खोलने के लिए भी उससे नहीं कहता..! बस स्कूली बस्ते के साथ वह आता और वैसे ही वापस फिर घर चला जाता...इस स्कूली पढ़ाई से उसका मन उचटने लगा था...ऐसे ही कुछ दिन बीतने के बाद वह स्कूल जाते रास्ते से ही खेलने के लिए मुड़ जाता...और..दिन भर इधर-उधर खेलता रहता...

         खासकर बरसात के दिनों में...! कई दिनों की बारिश के बाद जब तालाब का गँदला पानी बह जाता और चारों तरफ हरियाली फूट पड़ती तब इसके बाद होने वाली बारिशों से उफनते तालाब से साफ पानी नाले की ओर बहने लगता...! इस साफ बहते पानी में तैरती छोटी-छोटी मछलियों को बिने देर तक देखता रहता...! कभी-कभी झुण्ड में तैरती इन नन्हीं-नन्हीं मछलियों को वह अपनी छोटी-छोटी अंजुरियों में भरकर उठा लेता...अंजुरियों का पानी रिस जाने पर जब ये मछलियाँ तड़फड़ाने लगती तो वह इन्हें फिर से उसी पानी के बहाव में छोड़ देता...आड़े-तिरछे तैरकर भागती इन नन्हीं मछलियों को देख वह बहुत खुश होता...! ...और स्कूल जाने की बात भूल जाता....!

         ऐसे ही बरसात के दिनों में, बहते पानी से मछलियाँ पकड़ने के लिए वह लोगों को ‘परहा’ लगाए देखता तो स्कूल का रास्ता छोड़ वहीँ पहुँच जाता..और...घंटों उछलती-कूदती मछलियों को ‘परहे’ में फँसता देखता रहता..! ‘परहे’ में फँसी इन मछलियों को पास में ही खोदे गए एक छोटे से गड्ढे में रखा जाता...गड्ढे के थोड़े से पानी में ये मछलियाँ तड़फड़ाते हुए मरती रहती...! ऐसे ही एक दिन जब वह एक परहे के पास बैठा था...गड्ढे में रखी इन मछलियों पर उसका ध्यान गया...! आव देखा न ताव उसने झट से अपनी छोटी-छोटी अंजुरियों से गड्ढे की सारी मछलियों को बहते पानी में उलीच दिया...! ऐसा करते देख कोई चिल्लाते हुए उसकी ओर दौड़ा था...किसी तरह मार खाने से बचते हुए वह घर भाग कर पहुँचा...बाद में, पिता की खूब मार पड़ी...उस ‘परहे’ के पास से उसके छूटे हुए स्कूली बस्ते को भी पिता ही ले आए थे...! पहले से ही स्कूल से उसका मन उचटता जा रहा था लेकिन इस घटना के बाद तो उसका स्कूल जाना ही लगभग बंद हो गया...! इसके लिए कई बार मार भी पड़ी लेकिन उस पर कोई असर नहीं होता...हाँ दो दिन पहले माँ की मार से वह नाराज हो खटोले पर सो गया था...माँ ने उसे खाने के लिए बाद में जगाया था|

         भीटे से ही दिप्पी का हाथ पकडे-पकड़े जब बिने घर पहुँचा तो...चूल्हा जला हुआ था...धुएँ से घिरी माँ उसे देखते ही उठ खड़ी हुई...उसके पास आई...उसके माथे पर अपना हाथ फेरा और कुछ ऐसा ही बोली “तू इतना खेल कर भी नहीं थकता” माँ ने जैसे उसे दुलारा हो..! पिता ‘मजूरी’ से आज कुछ जल्दी आ गए थे...शायद गोमा से मिलने चले गए थे...माँ तब तक कच्ची कोठरी से एक लड्डू ले आई और आधा-आधा भाई-बहन को दे दिया...

        अगले दिन सबेरे बिने जब सोकर उठा तो देखा...पिता ‘मजूरी’ पर नहीं गए थे...बात यह थी कि वह नजदीक के कस्बे में एक निर्माणधीन मकान में ‘मजूरी’ कर रहे थे, कल ही उस मकान पर छत डाला गया था..वहाँ का काम अब खतम हो गया था...हाँ वह लड्डू भी छत पड़ने की ख़ुशी में उसी निर्माणाधीन मकान के मालिक ने बाँटा था...पिता ने इस लड्डू को वहाँ नहीं खाया था....जिस दिन पिता घर पर रहते उस दिन बच्चों के साथ खेलने जाना उसके लिए आफत को दावत देने जैसा होता...हालाँकि..ऐसी स्थितियों में...खेलने के चक्कर में गाहे-बगाहे पिता से मार खा जाना उसकी आदत में शुमार होता जा रहा था....

         लगातार तीन-चार दिनों की ‘मजूरी’ के बाद बिने के पिता को आज आराम करने का मौका मिल गया था...हाँ अब तक दिन भी चढ़ गया था...बिने ने देखा पिता झिंलगी खटिया पर आँखें बंदकर हुए लेटे हुए थे...माँ भी दिप्पी के साथ पड़ोस में कहीं गई थी...इधर बिने की मंडली के बच्चे अपने-अपने जानवरों को ले निकल गए थे...वह उन बच्चों के साथ खेलने के लिए बेचैन हो उठा...

          बिने इस समय अपनी पूरी ताकत के साथ दौड़ रहा था....वह जल्दी से जल्दी उन बच्चों के साथ हो लेना चाहता था...उनके साथ खेलना चाहता था....बिने दौड़ते हुए भीटे पर पहुँचा..लेकिन बच्चे वहाँ नहीं मिले...दूर उसे बाग़ के पास कुछ जानवर चरते दिखाई दिए...उसने फिर दौड़ना शुरू किया...अरे...! आज सब ‘चिल्होर’ खेल रहे है...हाँ इस खेल में उसे बहुत मजा आता है...पेड़ों पर चढ़ने का तो वह मास्टर है ही....कोई तने और डालों में ही अटका हो तब तक वह पेड़ की फुनगी छू लेता था....और उसकी यह योग्यता ‘चिल्होर’ जैसे खेल में खूब काम आती...मजाल है कि कोई बच्चा उसे छू ले..! इस डाल से उस डाल पर बंदरों की भांति उछलते-कूदते फिर धम्म से जमीन पर...और जब तक ‘चोर’ बच्चा छूने के लिए उसके पास पहुँचे वह उस दो पेड़ों के बीच गोले में रखी दो फीट की डंडी के पास पहुँच जाता...और एक टांग को उठाकर  उसके बीच से उस डंडी को ऐसा फेंकता कि दूर जाकर गिरती...जब तक ‘चोर’ बच्चा उसे उठा कर वापस उसी गोले में रखता तब तक बिने पेड़ की डालियों के बीच बैठा हँस रहा होता...उसे ‘चोर’ बनने का मौका कम ही मिलता...हाँ बच्चों के बीच उसे ‘बंदर’ की उपाधि मिली थी...

          बिने अपने प्रिय खेल ‘चिल्होर’ के इसी खेल में मगन था...अभी-अभी वह डंडी फेंककर पेड़ की डालियों के बीच आया ही था...उसके कानों में “भईया..भईया...तू...कहाँ हो...” सुनाई पड़ा...अरे ...यह तो दिप्पी की आवाज है...उसकी छोटी बहन की...! जो रूवांसी हो उसी को पुकार रही थी...वह झट से पेड़ से उतर आया...उसने देखा....दूर..दिप्पी दौड़ती चली आ रही है...! वह दौड़ कर दिप्पी के पास पहुँच गया...

          बात यह थी...जब बिने, पिता को सोता समझ खेलने के लिए चला गया था उसी के थोड़ी देर बाद ही उसकी माँ भी पड़ोस से वापस आ गई थी...आहट पा उसके पिता जाग पड़े थे...आते ही माँ ने पूँछा “बिने के बापू...बेटूवा कहाँ गवा...?” पिता ने इधर-उधर नजरें घुमाई “अरे दिप्पी की माई...! गवा होये ससुरा कहीं..बहीपारी करई...ई धोबी क कुत्ता न घर का न घाट का...” यह कहने को तो बिने के पिता ने कह दिया..लेकिन पत्नी से जैसे आँखे चुराते हुए कहा हो...तभी बिने की माँ बोल उठी “बस बहुत होई ग बिने क बापू..बेटुवा क इतना जिनि बोला...कई त लिहा अपने मन का...अबई हमार ई छोट बच्चा तू अबहीं से सयान बनइ देत हया...!” इतना कह बिने की माँ वहीँ घर के सामने नीम के पेड़ के चारों ओर बने मिट्टी के चबूतरे पर बैठ सुबकने लगी..इस घटनाक्रम से भौंचक दिप्पी सुबकते हुए माँ को देखे जा रही थी...पिता दूसरी ओर मुँह फेर जैसे अनजानी सी राहों की ओर ताकने लगे थे...
                                               
         माँ सुबक रही थी...देख...दिप्पी परेशान हो उठी...उससे नहीं रहा गया...माँ के पास पहुँची...बोली...माँ रोती क्यों हो...भईया शहर जाएगा...फिराक लाने..? हाँ...न..नहीं..हाँ...कब लेकर आएगा..? ...कल आ जाएगा न..?...नहीं...फिर मेरा फिराक कब लाएगा...? मेले में पहनुंगी...माँ कुछ नहीं बोली...माँ बता..भईया काल्हि के काल्हि के बाद फिराक ले कर आ जाएगा न...?....नहीं दीवाली पर आएगा...दीवाली पर...? माँ...एक दिन तू कह रही थी इस बार भईया और हम दोनों साथ मेला देखने जायेंगे...माँ कुछ नहीं बोली...नहीं माँ मैं फिराक नहीं लुंगी...भैया शहर न जाए...फिराक नहीं लुंगी माँ...! अब दिप्पी भी सुबकने लगी...माँ ने उसे अपनी गोंदी में बैठा लिया...अचानक दिप्पी का सुबकना बंद हो गया..धीरे से...माँ से अलग हो वहीँ से भीटे की ओर देखने लगी...वह भीटे की ओर दौड़ पड़ी...

         भीटे के चारों ओर दिप्पी ने भईया को खोजा...फिर वह तालाब की ओर गयी...बिने वहां भी नहीं दिखाई दिया..भईया..! हे भईया..!! ई भैइयवा कहाँ गवा...भईया रे...जोर से दिप्पी चिल्लाई...! दिप्पी अब बाग़ की तरफ भागी...भईया पेड़ पर चढ़ता दिखा..भईया...भईया पुकारते वह उसी ओर दौड़ पड़ी...

         पेड़ से उतर दिप्पी को पकडे-पकडे बिने बोला..“का है दिप्पी”....“भ..ई...या...ऊ..” दिप्पी हांफ रही थी कुछ क्षण की चुप्पी के बाद दिप्पी ने कुछ इसी तरह से कहा, “भईया...मैं...फ़िराक...नहीं..लुंगी..तू शहर नहीं जाएगा..” दिप्पी फिर बोली.. “चल भैया..बापू से बता दे...” बिने के कुछ समझ में नहीं आया उसने अपने पीछे खड़े बच्चों की ओर मुड़कर देखा..और...दिप्पी का हाथ पकड़ धीरे-धीरे क़दमों से घर की दिशा में चल पड़ा...बिने को कुछ-कुछ इसका अहसास हो चला था कि उसे शहर जाना है..कल रात...पिता जब गोमा के यहाँ से लौट कर आये थे तो माँ से यही कह रहे थे...गोमा के यहाँ शहर वाले साहब से बात हुई गयी है...पिता माँ से यह भी कह रहे थे कि दो दिन बाद लड़के को शहर लेकर जाना है...फिर उसे गहरी नींद आ गई थी...लेकिन रात वाली यह बात सबेरे वह भूल चुका था...और वैसे ही मस्ती में खेलने चला गया...

           घर पहुँच कर उसने देखा पिता वैसे ही खटिया पर पड़े थे...माँ देहरी पर उदास बैठी थी...उसे देख माँ कुछ नहीं बोली...वह जाकर पिता की खटिया पर बैठ गया...पिता को कुछ आहट हुई...देखा बिने बैठा है...वह उठ गए...बिने के सिर पर हाथ रखते हुए कहा “काल्हि” शहर चलना है आठ बजे वाली गाड़ी से...सबेरे ही नहा-धो लेना...बिने कुछ नहीं बोला..दिप्पी भी आई...पिता से बोली “बापू फिराक नहीं लेंगे..” बापू ने अनसुनी कर दिया...बिने अब वहां से उठकर दुवारे के छोटे से नीम के पेड़ की छाया में अपने टूटे हुए से खटोले पर जाकर लेट गया...वहीँ दिप्पी भी आ गयी...वह वहीँ खटोले के ही पास जमीन पर बैठ मिटटी से कुछ खेलने लगी थी...बिने शांत लेटा हुआ दिप्पी को देखते जा रहा था....

           आज बिने को शहर जाना था...पिता ने सबेरे ही उसे जगा दिया था...हाँ दिप्पी भी जाग उठी थी...दिप्पी को भी यह अहसास हो चला था कि भईया आज शहर चला जाएगा...दिप्पी बिने के पास आई..बोली...भईया चलें खेलें...बिने ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की...दिप्पी ने बिने का हाथ खींचते हुए फिर खेलने वाली बात दुहराई...बिने चुपचाप दिप्पी का हाथ पकड़ भीटे की ओर चल दिया..वहाँ घूमते हुए वह तालाब की तरफ मुड़ गया...हाँ...हाल में ही हुयी बरसात से तालाब उफन चुका था...इसका साफ़ पानी छहरते हुए धीमी गति से बहता हुआ दूर नाले में जाकर मिल रहा था...बिने ने देखा...इस छहरते पानी में नन्हीं छोटी-छोटी मछलियाँ आड़े-तिरछे तैरती चली जा रही थी...हाँ...आज वह इन्हें अपनी अंजुरियों में भरकर नहीं उठा रहा था...इन नन्हीं मछलियों को वह ऐसे ही तैरते देख बहुत खुश हो रहा था...अपने पैरों से छहर कर बहते इस पानी में..छप..छप..करते इन मटमैली...चमकीली...तैरती नन्हीं मछलियों के पीछे वह बहन के साथ भागने लगा था..दोनों भाई-बहन इसी में मगन थे तभी पीछे से पिता की आवाज कानों में पड़ी...
        

         ...माँ फटे आँचल से अपने आँसू पोंछे जा रही थी...और...दिप्पी माँ का हाथ पकड़े सुबक रही थी...बिने पिता के पीछे-पीछे चला जा रहा था...उसे शहर के लिए आज गाड़ी पकड़ना था...

              बिने को शहर आए हुए दो माह से अधिक हो चला था...शहर में दो पड़ोसनों के बीच की इन बातों को  एक पड़ोसन ने अपने पति से साझा किया...वह बात यह थी....

            "क्या कहें वह बच्चा ही तो था उसकी उम्र यही कोई दस-बारह वर्ष के बीच रही होगी...पड़ोसन के यहाँ वह नौकर के रूप में काम करने आया था...घर के सारे काम तो वह बहुत सलीके से करता था लेकिन पड़ोसन ने बताया कि उस लड़के का यहाँ शहर में उनके घर मन नहीं लगता था...उस बच्चे के पिता ने घर की आर्थिक तंगी के चलते ही उसे एक घरेलू नौकर के रूप में शहर में भेजा था लेकिन उस बच्चे को यह नहीं पता था कि वह यहाँ एक घरेलू नौकर के रूप में काम करने आया है...उस बच्चे के घरेलू काम करने के बदले मासिक ढाई हजार रूपया उसके पिता के हाथों में दे दिया जाता था...
         
               पड़ोसन यह भी कह रही थी कि...वह लड़का अकसर अपने घर और गाँव को लेकर परेशान हो उठता और कहता, “मैं यदि अपने गाँव होता तो तालाब में नहाने जाता; दिन भर तालाब में डूबा रहता...मछली मारता..पेड़ पर चढ़ आम तोड़ता..गंजी खोदता...लेकिन यहाँ क्या है..यहाँ कुछ भी नहीं है?” पड़ोसन बता रही थी कि अकसर वह इन्हीं बातों को दुहराता रहता था....एक दिन जब वह बच्चा बहुत परेशान हो उठा तो पड़ोसन ने अपना मोबाइल बच्चे को देकर अपने पिता से बात कर लेने के लिए कहा...बच्चे ने मोबाइल पकड़ते ही अपने पिता से कहना शुरू किया, “अरे बापू..! यहाँ आऊ हमको तुरन्त लियाव जाव...यहाँ न तालाब है..न गंजी के खेत हैं...न आम के पेड़ हैं...यहाँ कुछ नहीं है, हमारा मन नहीं लगता हमें लियाई जाव..” पड़ोसन ने बताया....यह बात करते समय उस बच्चे की आँखों में आंसू भी छलक पड़े थे.....फिर उस बच्चे का पिता शहर आया और उसे वापस गाँव लिवाकर चला गया.....हाँ...पड़ोसन यह कह रही थी कि यदि वह लड़का घर पर रुकता तो हम उसके महीने के पैसे और बढ़ा देती क्योंकि वह घर के कामों को बहुत होशियारी और लगन के साथ करता था...

              .....मैं सोचती हूँ...उस बच्चे का बचपना..कितना अल्हड़..रहा होगा..! एकदम निच्छल..निर्मल..! उस बच्चे को उसका पिता तो वापस लेकर चला गया, लेकिन न जाने ऐसे कितने बच्चे अपनी इस अल्हड़ता और निर्मलता को जीवन की इन कठोर चट्टानों के बीच खो देते होंगे...असमय उनके अन्दर की असीम प्रतिभाएँ मर जाती होंगी...न जाने हम क्या कर रहे हैं...बालश्रम के कानून का ढिढोरा हम अवश्य पीटते हैं..लेकिन समाज या सरकार के स्तर पर हम ऐसे बच्चों के लिए क्या कर पाते हैं..?"

                   लेकिन एक बात और थी जो इन शहरी लोगों को नहीं पता था... बिने को लेकर उसके पिता गाँव के लिए 'साहब' के घर से निकल चुके थे....थोड़ी दूर चलने पर बिने को सड़क के दोनों और कुछ दुकानें दिखाई पड़ी....बिने एक ऐसी ही दूकान देखकर ठिठक पड़ा...जब पिता ने उसे इस तरह ठिठकते हुए देखा तो बिने ने एक दूकान की ओर इशारा किया और पिता से बोला...."बापू ऊ जो फिराक टंगा है न...उसे दिप्पी के लिए खरीद लेऊ....दिप्पी खुश हो जायेगी...." पिता ने बिने को एक भर नजर देखा..! यह सोचते हुए कि "हमार बिने इतना सयान हो चुका है...?"  उस दुकान की ओर अपना कदम बढ़ा दिया... 
                                                                            -----विनय