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शुक्रवार, 13 मई 2016

उस दिन की बस-यात्रा

        बस में उस दिन भीड़ बहुत थी...पैर रखने के लिए तिल भर की जगह मिलना मुश्किल हो रहा था...यात्रियों से खचाखच भरी इस बस में जैसे-तैसे ड्राइवर के पीछे की सीटों के पास पहुँच कर बोला, “यहाँ मेरी कौन सी सीट है..?” तो वहीँ सीट से उठते एक लड़के ने कहा था, “यह है” | असल में महोबा से राजधानी या कानपुर जानेवाली यह आखिरी बस रात साढ़े नौ बजे चलती है..स्वाभाविक है यात्रियों की भीड़ इस बस में कुछ ज्यादा ही होती है...ऐसी ही पिछली बार की यात्रा में कंडक्टर ने मुझे अपनी सीट देकर स्वयं महोबा से कानपुर के बीच तीन घंटे खड़े होकर ही भरी बस में कंडक्टरी किया था..संयोग से उस दिन कंडक्टर की सीट पर मेरे ही साथ ही एक पूर्व विधायक भी बैठे थे...        
        लेकिन इस बार डिपो इंचार्ज को मेरे जाने की सूचना देकर मेरे सहायक ने एक सीट कब्जिया लिया था...सीट पर बैठते ही एक तरह से सुकून का एहसास हुआ..सोचा...बैठने से आराम तो मिलता ही है, साथ ही मन में ख़याल उठा, “जब इतनी भीड़ होती है तो ये रोडवेज वाले क्यों नहीं इसके आगे पीछे राजधानी तक न सही, कानपुर तक तो कोई बस चला देते..? लेकिन..हो सकता है इन रोडवेज वालों की कोई समस्या हो, जो ऐसा न कर पा रहे हों” खैर...
        चलती बस में अभी झपकी आई ही थी कि ड्राइवर ने बस रोक दिया था...शायद, बस में यात्रियों का टिकट बनना अभी बाकी था...! यह रोडवेज कंडक्टरों में एक आम बात है कि बस-स्टेशन पर ही खड़ी बस में सभी यात्रियों का टिकट नहीं बनाते बल्कि बस में भीड़ होने पर बस-स्टेशन से चलने के बाद बस को फिर सड़क के किनारे कहीं रोक कर टिकट बनाते हैं, इस तरह अनावश्यक रूप से यात्रियों को बिलम्ब होता है...
         हाँ, टिकट बनने के बाद जब बस चली तो मैं झपकी आने का प्रयास करने लगा था, तब रात के रात के दस से ज्यादा हो चुके थे, और मेरी यह बस-यात्रा भी जाम आदि के हालात को देखते हुए कम से कम छह घंटे में पूरी होने वाली थी...वैसे बस में सोने के सम्बन्ध में मेरा अपना अनुभव भी है...पहले, रात की बस-यात्रा में भी मुझे नींद नहीं आती थी लेकिन अब रात में चलती बस में मुझे नींद आ जाती है...कारण कि, अब अकसर रात में ही बस-यात्रा करनी होती है...इधर नींद के सम्बन्ध में हाल ही की एक रिसर्च को मैंने किसी अखबार में पढ़ा है...किसी नए स्थान और नई परिस्थितियों में ठीक से नींद नहीं आती, क्योंकि तब दिमाग का एक हिस्सा सुरक्षा को लेकर चौकन्ना रहता है..और यह जैव विकास का हिस्सा रहा है...इसी कारण जानवर सोते हुए भी चौकन्ने रहते हैं, यदि उनके दिमाग का एक हिस्सा सोता है तो दूसरा हिस्सा जागता रहता है...मानव दिमाग भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता है...लेकिन जब दिमाग सुरक्षा को लेकर अभ्यस्त हो जाता है तो फिर नींद में कोई दिमागी खलल नहीं पड़ता, बशर्ते तीन-तेरह में आपका मन उलझा हुआ न हो..! हाँ तो, अब रात में बस-यात्रा की आदत हो जाने से दिमाग को असुरक्षा सम्बन्धी बोध नहीं होता और यह चैन से सो जाता है...यहाँ एक बात तो मैं मानता हूँ..जैसे समाज बंटा है वैसे ही आदमी और क्या जानवर..! सभी का स्वयं का दिमाग भी कई भागों में बंटा होता है...इस दिमाग का कोई हिस्सा सोता है तो कोई जागता है...कोई हिस्सा झगड़ना चाहता है तो कोई हिस्सा पुचकारता है..मतलब साफ़..! समाज में विरोधाभाष प्राकृतिक होते है...और साथ में ही संतुलन की प्रक्रिया भी चलती रहती है...जब सुरक्षा का बोध हो जाता है तब..!
       
        इधर यात्रियों से भरी चलती बस में इंजन की ध्वनि के साथ यात्रियों के ‘बोलचाभर’ से कान के परदे रह-रहकर झंकृत हो रहे थे...धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ लोरी जैसा आभास देने लगी थी...अचानक, मेरी झपकी तब टूटी जब किसी शराबी जैसे व्यक्ति के तेज बोलने की आवाज के साथ ही बस का दरवाजा भी पीटे जाने की आवाज सुनाई पड़ी, हालाँकि तब भी मैं आँख मूँदे ही रहा...फिर मुझे आभास हुआ कि बस रुकी है और बस-कंडक्टर किसी व्यक्ति के चढ़ने की कोशिश पर भी बस का दरवाजा नहीं खोल रहा है...बस चलकर फिर रुक गई...इसके बाद ड्राइवर के दरवाजे के जोर से बंद होने की आवाज सुनाई पड़ी...बस फिर चल पड़ी...हालाँकि झपकी लेने का मेरा प्रयास भी जारी था...
        अचानक..! शराबियों के से अंदाज़ में बोलते किसी व्यक्ति की तेज आवाज “अरे ड्राइवर कोई कैसेट-वैसेट लगाओ..गाना सुनाते चलो..लगाओ भाई..कोई कैसेट..लगाओ...” सुनकर मैं चौंक पड़ा और मेरी आँख खुल गई...देखा ! एक तीस से बत्तीस वर्ष का व्यक्ति बस की बोनट पर बैठ ऊलजुलूल बात करते हुए गालियाँ भी बके जा रहा था, देखने से वह किसी ठीक-ठाक घर (आर्थिक रूप से) का ही प्रतीत हुआ... “तो यही व्यक्ति बस में चढ़ने के लिए चिल्ला रहा था..!” सोचते हुए, मुझे एहसास हुआ कि बस के यात्री खासकर महिलायें उसकी बातों से कुछ असहजता महसूस कर रही थी लेकिन वह शराबी अपनी ही रौ था...मैं फिर सोने का प्रयास करने लगा था...
          शायद, बस किसी कसबे से गुजरी थी, यहाँ से बस में सवार हुए उस शराबी के अलावा अन्य सभी यात्रियों का टिकट बनाने के बाद कंडक्टर ने दो-तीन बार आवाज लगाई, “अरे भाई किसी का टिकट बनना तो बाकी नहीं रह गया है..?” लेकिन उत्तर में कोई स्वर नहीं उभरा...कुछ देर बाद कंडक्टर मेरे बगल में आकर खड़ा हो गया था और नशे में धुत उस व्यक्ति को लक्षित करते हुए कहा, जो अभी भी टिकट लेने से बेपरवाह इधर-उधर की बातों में ही मशगूल था, “तू दो हाथ का आदमी है..जमीन पर गिर पड़ेगा..!” यह सुनते ही शराबी कंडक्टर पर भड़कते हुए बोला, “क्या कहा..? बता क्या बोला..? तुम साले हमें मारेगा..आ पहले मार..तुझे मैं देखता हूँ...” और वह उठ खड़ा हुआ..उसकी लम्बाई कंडक्टर से भी ज्यादा थी..मुझे याद आता है कि उसकी कद-काठी से सहमते हुए ही कंडक्टर ने उससे कहा था, “पहले टिकट बनवा ले..” कंडक्टर की इस सहमी हुई सी धीमी आवाज से नशे में धुत वह शराबी आक्रामक होते हुए बोला, “अबे कंडक्टर तुझे बोलने की तमीज नहीं है..! आ मैं तुझे तमीज सिखाता हूँ..” फिर लोगों के बीच-बचाव और हस्तक्षेप से उसने टिकट बनवाया लेकिन कंडक्टर के लिए उसका बड़बड़ाना जारी ही रहा...मेरी आँख खुल गई थी और कंडक्टर मुझे शान्त दिखाई पड़ा था...इस बीच मैंने उस नशेड़ी को एक आठ-दस साल के बच्चे को बेहद आत्मीयता के साथ अपने पास बैठाते हुए तथा एक अन्य व्यक्ति से पैर छू जाने पर बार-बार उस व्यक्ति से उसे माफ़ी माँगते हुए देखा..! हाँ, बीच-बीच में वह “रोडवेज वाले चोर होते है...कंडक्टर मैं तुझे पीटता हूँ..” जैसे वाक्य भी बोलता जा रहा था...इधर इस शराबी को देखकर मैंने सोचा...

          “शराबियों की नशे में हालत भी बड़ी विचित्र होती है..न उनमें अच्छाई होती है और न ही बुराई..! बस उनमें केवल नशे का ही रौ होता है..और..नशे की स्थिति में ये अपने ‘अवचेतन मस्तिष्क’ के अनुसार व्यवहार करने लगते हैं...जो उस व्यक्ति (शराबी) का ‘मूल-चरित्र’ होता है...शायद इसीलिए नशे में इनकी दबी हुई प्रतिभा भी निखर आती है...और तो और...बेचारे ये शराबी! नशे में बहुत पारदर्शी भी होते हैं (इसमें किसी की जेब से पैसा चुराकर शराब पीने की इनकी प्रवृत्ति को न जोड़े क्योंकि ऐसा वे ‘पारदर्शी’ होने के लिए ही करते हैं)...मतलब कुल मिलाकर ये नशे में अपने असली रूप में होते हैं...” इन विचारों के साथ ही गंतव्य की प्रतीक्षा में मैंने फिर से अपनी आँखें बंद कर लिया था..
         
        थोड़ी देर बाद मुझे एहसास हुआ कि बस कहीं पर रुकी हुई है, आँख खुली तो देखा..! वह शराबी बस से उतर कर कंडक्टर को अनाप-शनाप बोल रहा था और मेरी बगल वाली सीट पर बैठा एक युवा लड़का अपने मोबाइल से १०० नंबर मिला कर उस शराबी के बस में उत्पात मचाने की बात कह रहा था ...जब बस चली तो शराबी दौड़कर बस में चढ़ा...लेकिन ! न जाने क्यों मुझे उस लड़के का 100 नंबर पर फोन करना और शराबी के बारे में पुलिस को सूचना देना अच्छा नहीं लगा...शायद मेरे लिए! इसका कारण यही रहा होगा कि वह शराबी आम यात्रियों के लिए (सिवा उसकी चिल्लाहटों के) कोई गंभीर समस्या उत्पन्न नहीं कर रहा था...जबकि कंडक्टर ने ही नशे में धुत उस व्यक्ति को ठीक से ‘हैंडल’ नहीं किया था बस...! खैर..
         बस चली जा रही थी..अमूमन रात में बस ड्राइवर बस के अन्दर की लाईट को बुझा देता है लेकिन मैंने गौर किया कि इस बस के ड्राइवर ने ऐसा नहीं किया था...लोगों की हलचल और प्रकाश के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी..वैसे तो, मैं आँख बंद ही किये रहता था..लेकिन थोड़े-बहुत हलचल पर आँख खुल जाती...
           अब मेरा ध्यान ड्राइवर के पीछे बस के बोनट और सीट के बीच के स्थान पर गया...वहाँ बस के फर्श पर ही तीन-चार औरते अपने छोटे बच्चों के साथ बैठी हुई थी...वे सब रह-रहकर ऊँघते हुए आपस में बात करती जा रही थी...बतियाते हुए उनमें से एक कह रही थी “वह गलत बातों पर ठेकेदार से लड़ जाती है, इसीलिए ठेकेदार उसे कुछ नहीं कहता..लेकिन अपने काम में कमी भी नहीं करती” इन औरतों की ऐसी ही बातों से मैंने अनुमान लगाया कि ये किसी शहर में मजदूरी करती होंगी...हाँ, उनके चेहरों पर श्रमार्जित आत्मनिर्भरता के साथ ही आत्मसम्मान की झलक भी मुझे दिखाई दी...इनकी बातों से मेरे मन में यह विचार आया, ‘वास्तव में हर गलत बात पर महिलाओं को प्रतिरोध करना सीखना चाहिए’ और इसी के साथ पत्नी की कही वह बात भी मुझे याद आई “जो महिलाएँ संकोची होती हैं और गलत बातों का विरोध करने में मुखर नहीं होती उन्हीं के साथ अन्याय भी होता है तथा अकसर ऐसी ही औरते दुर्व्यवहार का शिकार भी होती है..” लेकिन बेचारी औरतों को अपनी मुखरता की कीमत भी चुकानी पड़ती है...क्योंकि तब उन्हें ही गलत ठहराने की असफल कोशिश भी की जाती है...
        बस की फर्श पर बैठी उन महिलाओं को देख मैं इन्हीं बातों में खोया था कि उसी समय बस रुक गई...पता चला नीचे से किसी ने बस को रुकने का इशारा किया था...हाँ, किसी पुलिस चौकी पर बस रुकी थी ! शायद पुलिसवालों नें ही बस को रोका था...मुझे 100 नंबर पर पुलिस विभाग की इस त्वरित सक्रियता पर हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ...अचानक बस रुकते ही ‘शराबी’ बोल उठा, “यहाँ बस क्यों रुकी..? ये रोडवेज वाले चोर हैं...” तभी किसी ने कहा, “पुलिस चौकी पर पुलिसवालों ने बस रोका है..” यह सुनकर नशे में धुत वह व्यक्ति थोड़ा अचकचा सा गया..! और बोला, “मुझे पुलिस-फुलिस से डर नहीं लगता..” अब तक कंडक्टर और ड्राइवर दोनों बस से उतर चुके थे...यहाँ मैंने ‘रीड’ किया कि वैसे तो यह शराबी जब कहीं बस रूकती तो तुरंत बस से उतर जाता लेकिन इस बार वह बस से नहीं उतरा...शायद पुलिस के नाम से अन्दर ही अन्दर सहमा गया था...तभी किसी ने उसे पुकारा, “चलो नीचे उतरो दरोगा जी बुला रहे हैं..” सुनते ही “अरे मैं डरता नहीं” बोलते हुए वह बस से उतर गया था और उसके पीछे सौ नंबर पर फोन करने वाला युवक “अब इसका नशा उतर जाएगा” कहते हुए बस के अन्य यात्रियों के साथ नीचे उतरा...
        नीचे का घटनाक्रम जानने के लिए मैं भी उत्सुक था पर बस से नहीं उतरा...इधर मेरी नींद गायब थी और बिलम्ब से घर पहुँचने की चिंता अलग से सता रही थी...अन्यमनस्क सा देखा, मेरे सामने ठीक बस के बोनट के बगल वाली सीट पर एक सज्जन (जो उस शराबी के साथ ही बस में सवार हुए थे, लेकिन उसके साथ के नहीं थे) और जिनकी उम्र लगभग पैंसठ वर्ष के आसपास रही होगी मेरी ही ओर देख रहे थे, मुझसे मुखातिब होकर बोले, “लडके ने स्मार्ट बनने के चक्कर में नाहक ही 100 नंबर पर फोन कर दिया था” मैंने भी सहमति में कहा- “हूँ..सही बात है...इस चक्कर में नाहक ही देर होगी..” और मन ही मन सोचा, “चलो और कुछ नहीं तो इससे उस शराबी को कुछ न कुछ सबक तो मिलेगा ही..”
      
         अब तक उस पुलिस चौकी के सामने हमारी बस को खड़े हुए करीब बीस मिनट से अधिक हो गए थे...मन ऊब रहा था...कभी-कभी बस की खिड़की से ही जिज्ञासा-वश हम पुलिस चौकी की ओर निहार लेते लेकिन समझने के लिए कुछ नजर नहीं आता...इसी बीच एक लड़का बस में चढ़ा...उसने बताया, “अभी तो दारोगा जी कंडक्टर से ही निपट रहे हैं..” मेरी जिज्ञासा को समझते हुए इसके आगे उसने जोड़ा “कंडक्टर ने बस की छत पर भी पंद्रह-बीस आदमियों को बैठा लिया था...!” तब तक मेरे सामने बैठे बुजुर्ग सज्जन उससे पूँछ बैठे, “अरे! उन सब का टिकट बना था कि नहीं..?” लड़के ने कहा, “हाँ टिकट तो कंडक्टर ने बनाया था..” इसपर बुजुर्ग से सज्जन ने कहा, “कंडक्टर को बस की छत पर बैठने वालों का टिकट नहीं बनाना चाहिए था...” इस तरह हम ऐसे ही बतकही में उलझे कंडक्टर और ड्राइवर के आने का इंतज़ार करने लगे थे...
         लगभग दस-बारह मिनट बाद लोगों का रेला बस में प्रवेश करने लगा था..ठीक इसी समय ड्राइवर का दरवाजा खुलने की आवाज आई...देखा! ड्राइवर अपनी सीट पर बैठ गया था फिर कंडक्टर को बस पर चढ़ते देख मुझे तसल्ली हुयी कि अब बस चलेगी...! अब बस में कुछ ज्यादा ही भीड़ हो गई थी और जैसे ही बस चली मेरे बगलवाली सीट पर 100 नंबर पर फोन करने वाला वह लड़का भी आकर बैठ गया...लेकिन शराबी बस में दिखाई नहीं दिया..! उत्सुकतावश पूँछने पर उस लड़के ने बताया “शराबी को पुलिस चौकी में ही रोक लिया गया है” फिर उसने चौकी में घटित घटना के बारे में बिस्तार से बताया- “पहले तो बस कंडक्टर पर ही दरोगा पिल पड़ा था..उसने कंडक्टर की बात सुनकर कहा, साले! पहले तुझसे निपटूँ या उस शराबी से..! तूने भी तो बस की छत पर बीसों लोगों को बैठा रखा है..कंडक्टर ने कुछ कहने की कोशिश की तो वह और भड़क गया बोला कि तुझे टिकट बनाना ही नहीं चाहिए था..इसके बाद बस की छत पर बैठे लोगों को गरियाते हुए सबको उतरने के लिए कहा..” आगे लड़के ने शराबी के बारे में बताया– “हाँ, कंडक्टर को हड़काने के बाद जब दरोगा ने शराबी से बात करना चाहा तो वह दरोगा को धौंस दिखाने के चक्कर में अपने मोबाइल से न जाने किस-किस को फोन मिलाने लगा था...इस पर दरोगा ने उसका मोबाइल छीनकर और उसे दो-चार थप्पड़ जड़ चौकी में ही बैठा लिया” फिर लड़के ने बस में भीड़ की ओर इशारा किया, “देखिये ये लोग बस की छत पर ही बैठे थे...”
          मेरी और लड़के की बात सुनकर सामने बैठे बुजुर्ग सज्जन भी बोले, “कंडक्टर को उस शराबी को बस में नहीं बैठाना चाहिए था..” मैंने सहमति में सिर हिलाया..तब तक लड़के ने कहा, “नहीं इसमें ड्राइवर की गलती है..! कंडक्टर ने तो उस शराबी को देखते ही बस का दरवाजा बंद कर लिया था..लेकिन वह ड्राइवर के दरवाजे से बस में घुस आया था..ड्राइवर को बस का दरवाजा नहीं खोलना चाहिए था...” लड़के की इस बात के साथ ही हम लोगों के वार्ता पर विराम लग गया था..
         बस इत्मीनान से चली जा रही थी..जैसे इसके अन्दर और बाहर का सारा संकट टल गया हो...! मेरे सामने ही बस के फर्श पर बैठी औरतें ऊँघ रही थी..वहीँ एक छोटे बच्चे के रोने पर उसकी माँ उसे चुप कराते हुए अपने आँचल में छिपा लिया था...बच्चा अब शांत हो गया था...मेरे पीछे से कुछ अन्य लड़कों की आपस में ठेठ बुन्देली में बतियाने की आवाजें आ रही थी..उनकी बातों से ‘आई.पी.एल.’ में उनकी विशेषज्ञता झलक रही थी...उनमें से कोई धोनी को टिप्स दे रहा था तो एक विराट और अनुष्का पर अफ़साने सुना रहा था और तो और उनमें से कोई एक कह रहा था, “अबकी बार कानपुर में मैच देखेंगे” तो दूसरे की आवाज आई “लखनऊ में भी स्टेडियम बन रहा है..” ये सभी खड़े होकर ही आपस में बतिया रहे थे जो शायद बस की छत पर सवार थे, इधर मैं सोच रहा था...
          “पेट पालने की जद्दोजहद के बीच भी ये क्रिकेट, आई.पी.एल. को नहीं भूल रहे हैं...! इनकी बातों में खेल-भावना से अधिक ‘बाजार की खेल-भावना’ झलक रही है...वैसे बेचारे! इन श्रमिकों लिए यह बाजार भी किसी काम का नहीं...इस तरह के खेलों का आयोजन बाजार-भावना को बनाए रखने के लिए ही आयोजित किए जाते होंगे...और हो सकता है इन श्रमिकों की गाढ़ी कमाई का कोई हिस्सा इस खेल-भावना की भेंट चढ़ जाता हो..!” मुझे यह खेल और खेल-भावना अद्भुत प्रतीत हुई..! इस बीच मैंने देखा, बच्चे को लिए हुए उस औरत ने थोड़ी जगह बनाई और आपस में बात कर रहे लड़कों में से एक को वहीँ अपने पास बुलाकर बैठा लिया...शायद यह उसका पति रहा होगा...खैर जो भी हो...
       
          इधर मेरा ध्यान अब उस युवक की ओर गया जिसने १०० नंबर पर फोन किया था..वह भी अपने साथी से बात कर रहा था...अब पुलिस चौकी की घटना के बाद उसके बात करने का अंदाज और हाव-भाव अधिक मुखर हो गया था जो शायद 100 नंबर पर फोन करने से अर्जित सफलता के श्रेय से उपजी थी...लड़के की बढ़ी इस अति सक्रियता को मेरे सामने वाले बुजुर्ग सज्जन तिरछी नज़रों से देख रहे थे..! देखते-देखते लड़के ने अपनी सीट पर किसी और को बैठाकर स्वयं ड्राइवर की सीट के ठीक पीछे रखे सामानों के ऊपर जाकर बैठ गया..! फिर अप्रत्याशित ढंग से उस बुजुर्ग सज्जन के चिल्लाने की आवाज मुझे सुनाई पड़ी, “अबे उठ ! उठ..उठ वहाँ से..” वह लड़का उन बुजुर्ग की ओर देखने लगा जो उससे कह रहे थे, “मैं कहता हूँ उठ वहाँ से...” अंत में लड़के से रहा नहीं गया उसने भी चिल्ला कर कहा, “क्या बात है..क्यों चिल्ला रहे हो..?” बुजुर्ग की गुस्से से भरी आवाज फिर गूँजी, “अबे उठता है कि नहीं..कि अभी तुझे बताऊँ..? साले कहीं के..!” अब उस लड़के से रहा नहीं गया उसने कहा, “ढंग से बात कर...क्या बात है..” फिर सज्जन की आवाज आई, “तुझे पता नहीं तू कहाँ बैठा है..? मेरे बैग के ऊपर तू बैठ गया..तू जानता नहीं उसमे क्या है...!!” इतने में उस लड़के ने अपने हाथ में पकड़े हुए एक बैग को उठा कर दिखाते हुए कहा, “यही तेरा बैग है..? मैं इस पर नहीं बैठा था...” शायद लड़का कहना चाहता था कि बैठने के पहले ही मैंने बैग को हाथ में ले लिया था..खैर..इसके बाद भी बुजुर्ग और उस लड़के में काफी नोक-झोंक हुई...बुजुर्ग ने लगभग धमकी देने के अंदाज में उस लड़के से कहा, “जब तू महोबा लौटेगा तो मैं तुझे देख लुँगा..” शायद वह बुजुर्ग सज्जन महोबा के ही रहनेवाले थे और लड़का वहाँ काम करता होगा...इसके बाद लड़के ने भी कहा, “हाँ..हां...देख लेना..” देख लेने की इन बातों के साथ उनके बीच के विवाद की ध्वनियाँ शान्त हुई थी...
        बस के वातावरण में थोड़ी कडुवाहट पसरी देख मैंने सोचा, “नाहक ही बुजुर्ग इतना गुस्सा हुए..उन्हें अपनी बुजुर्गियत का भी ध्यान रखना चाहिए था..!” खैर..इसके कुछ समय बाद मुझे अपना गंतव्य आने का एहसास हुआ और बस से उतरने के लिए सीट से उठने की हड़बड़ाहट में मैंने अपने पैर को आगे बढ़ाया ही था कि किसी ने मेरे पाँव के नीचे बलपूर्वक अपनी हथेलियाँ लगाकर बस की फर्श पर पड़ने से इसे रोक दिया था..! मैंने देखा यह वही लड़का था जो बाद में बस की फर्श पर बैठा था...मैंने मन ही मन सोचा, “इस मजदूर की इतनी हिम्मत..?” और उसे देखते हुए मैं गुस्से से आग बबूला होते हुए बोला, “यह क्या है..? पैर रखने दे..” इसके बाद जब लड़के ने कहा, “देख कर पैर रखिए” तो मैं गुस्से में उसी अंदाज में बोला, “लोग अब उतरेंगे कि तुझे देखेंगे..! रास्ता छोड़ कर बैठ..!” मेरे इस गुस्से को भाँपते हुए उसने कहा, “अरे ! नीचे तो देखो..बच्चा सोया है..” फिर मैंने नीचे ध्यान दिया, “अरे! यहाँ तो सात-आठ महीने का बच्चा सोया है..!!” हाँ..यदि उस लड़के ने अपनी हथेलियों पर मेरा पैर न रोका होता तो मेरा पैर सीधे उस नन्हें से बच्चे के ऊपर ही पड़ता..!! अचानक मेरा गुस्सा शांत हो गया और मैंने उस लड़के से यह कहते हुए “अब सोने का समय नहीं..,बच्चे को उठा लो...” सावधानी के साथ बच्चे को बचाते हुए खड़ा हो गया और बस के दरवाजे के पास पहुँचा था...
           इधर जैसे ही मैं बस से उतरा, उस शराबी के बारे में ही सोचता जा रहा था...मेरे मन-मस्तिष्क में वह शराबी, बुजुर्ग सज्जन और स्वयं मैं..! तीनों न जानें क्यों आपस में गड्डमड्ड होते जा रहे थे...मुझे एहसास हुआ..जब हम गुस्सा हुए थे तो “इस मजदूर की इतनी हिम्मत..!” ऐसी बात सोचकर ही..! जैसे हम भी नशे में हो गए थे...और उन बुजुर्ग सज्जन महोदय की बात “जब तू महोबा लौटेगा तो मैं तुझे देख लुँगा” में उनकी ताकत का नशा छिपा बैठा था...हाँ..! यहीं पर एक बात और है, जो मुझे पता चली, वह यह कि...हमारे दिमाग के एक हिस्से की करतूत के बारे में स्वयं हमारे इसी दिमाग के दूसरे हिस्से को कुछ भी पता नहीं होता..!! फिर तो...समाज को छोड़ो, स्वयं व्यक्ति कैसे संतुलित होगा..? हाँ, बेचारा वह शराबी! वह नशे में पारदर्शी था...वह नशे में है, इसे सब जानते थे...लेकिन वही पुलिस के जंजाल में फँस गया...और हम अपने गंतव्य पर पहुँच रहे हैं..! हमारे अन्दर के नशे को न हम पहचान पाए और न कोई दूसरा...! हम सभ्यता का लाइसेंस लिए बैठे रहे थे...आखिर हमें कौन पहचानता..? यहाँ कौन नहीं है नशे में..? लेकिन शराबी का वह पारदर्शी नशा बुरा नहीं था जबकि हमारा नशा जानलेवा था...! शायद, हमारे दिमाग के किसी हिस्से में छिपा हुआ यही नशा हमारे साथ समाज को भी असंतुलित कर देता है...अब बस आँखों से ओझल हो चुकी थी...इधर मैं सोच रहा था...आज की इस रात को पुलिस चौकी में बैठा वह शराबी शायद यही गुनगुना रहा होगा....

मुझे दुनियांवालों शराबी न समझो..
मैं पीता नहीं हूँ पिलाई गई है....
यहां बेखुदी में कदम लड़खड़ाए
वही राह मुझको दिखाई गई है..

नशे में हूँ लेकिन मुझे ये खबर है
कि इस जिंदगी में सभी पी रहे हैं
किसी को मिले हैं छलकते प्याले
किसी को नजर से पिलाई गई है..
        मुझे दुनिया वालों....
किसी को नशा है जहाँ में ख़ुशी का
किसी को नशा है गमें जिंदगी का
कोई पी रहा है लहू आदमी का
हर इक दिल में मस्ती रचाई गई है..
         मुझे दुनियाँवालों..

जमाने के यारों चलन हैं निराले
यहाँ तन है उजले मगर दिल है काले
ये दुनिया है दुनिया यहाँ मालोदर में
दिलों की खराबी छुपाई गई है..
       मुझे दुनियावालों... 
          ------------------------------vinay