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शनिवार, 23 जुलाई 2016

ऐसे शब्दों को शब्दकोश से ही निकाल देना चाहिए...

          बचपन में कभी किसी के मुँह से जब मैंने सुना "अरे उसके यहाँ क्या जाना...क्या खाना?" इस बात पर मैंने अपने दादाजी से पूँछा था कि "उसके" यहाँ जाना और खाना क्यों मना है, तो उन्होंने बताया था कि "विधर्मियों" के यहाँ नहीं जाते-खाते। चूँकि दादाजी से प्रश्न करने की आदत थी, इस पर मैं "विधर्मी" का मतलब पूँछ बैठा,तो दादाजी ने "उसके" ऊपर किसी का "कतल" करने का आरोप बताया था। उस समय यह बात मेरे लिए आई गई हो गई थी और इस पर मैंने बहुत कान भी नही धरा, लेकिन यहीं से मैंने "किसी गलत काम करने" को "विधर्म" समझने लगा था।
         हालाँकि बाद में जब मैं धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था तो किसी का कहा एक अन्य वाक्य भी कानों में पड़ा था, "वे विधर्मी लोग हैं.." हाँ, यहाँ पर इसका मतलब पूँछने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि जिन लोगों के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया गया था उससे "विधर्म" का एक दूसरा ही अर्थ मेरे सामने आया, मतलब वे "हिन्दू" के इतर हैं। इस प्रकार इस शब्द के दो अर्थ मेरे सामने आए, पहला यह कि "कोई गलत कार्य जिसे नहीं करना चाहिए" और दूसरा, "यदि मैं हिन्दू हूँ तो मेरे लिए दूसरे धर्मावलंबी"। लेकिन इस दूसरे अर्थ में मैं भी दूसरे धर्मावलंबियों की दृष्टि में "विधर्मी" हुआ। "विधर्मी" शब्द के इस दूसरे अर्थ से मैं विचलित हो गया था और इस दूसरे अर्थ को मैंने ग्रहण ही नहीं किया। फलतः दूसरे अर्थ के विनाशकारी प्रभाव से मैं बचा रहा और दादाजी द्वारा बताए "कतल" यानी "गलत काम" से ही "विधर्म" शब्द का मतलब निकालता रहा।
        इधर, दादाजी की उंगली पकड़ कर प्रयाग के माघमेले में घूमते हुए मेरा कुछ और शब्दों से तब परिचय हुआ था जब उन्होंने मुझे बताया था कि "यहाँ प्रवचन हो रहा है" या "कथा कह रहे हैं" या "प्रवचन उपदेश होते हैं" और "उपदेश करणीय-अकरणीय कामों के बारे में चर्चा है"। फिर कभी-कभी दादाजी मुझे लेकर "प्रवचन" या "कथा" के पण्डालों में बैठ जाया करते तो यहाँ पर सुनी बातों का मतलब "अच्छे काम करना चाहिए" या "जो अच्छा काम नहीं करता" वह दादाजी के कथनानुसार "वही आदमी विधर्मी हो सकता है" से निकालता। यहाँ भी मेरे जेहन में इसी बात की पैठ बनी कि अच्छे काम ही धार्मिक-काम होते हैं।
         आज इन बातों या शब्दों की मुझे क्यों याद आई? वह इसलिए कि इधर आकर कुछ वर्षों से "काफिर" और "जिहाद" जैसे शब्द भी कानों में गूँजने लगे हैं। मेरा मन बरबस ही ऐसे ही कुछ शब्दों की आपस में तुलना करने बैठ गया जैसे, "विधर्मी और कफिर" तथा "प्रवचन-जिहाद" या "उपदेश-जिहाद" या "कथा-जिहाद" आदि की तुलना। यहीं पर मैं "काफिर" और "जिहाद" का भी मतलब समझने की कोशिश कर रहा हूँ। मेरे दादाजी के जमाने का मेरी अपनी जाति के उस परिवार को "विधर्मी" इसलिए कहा गया क्योंकि वह परिवार "कतल" जैसे गलत काम करने का आरोपी था और माघ-मेले में सुने "प्रवचन" का उद्देश्य ऐसे ही गलत कामों से बचने के लिए होते थे। लेकिन क्या "काफिर" और "जिहाद" से भी यही अर्थ निकलते हैं? या फिर ऐसे शब्दों के क्या परिणाम होते हैं? इस पर भी हमें सोचना चाहिए।
          हाँ...! मैंने तो बचपन में ही "विधर्मी" शब्द के "दूसरे धर्मावलंबी" वाले अर्थ को ग्रहण नहीं किया था क्योंकि दादाजी जी का दिया अर्थ ही मेरे लिए मौंजू था। तो भाई! मैं यहाँ यही कहना चाहता था कि जिन शब्दों या उसके जिन अर्थों से समाज को या सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचे ऐसे शब्दों या उसके ऐसे अर्थ को शब्दकोश से ही निकाल देने चाहिए। ऐसे शब्दों वाले शब्दकोश हमारे धर्मग्रंथ नहीं हो सकते। सोचिए......

"बाबू जी, बताने पर मुझे क्या मिलेगा?"

          फेसबुक, ट्विटर जैसे तमाम सोशल मीडिया और ऊपर से इस पर सक्रियता की चाहत एकदम चौबीस घंटे चलने वाले किसी समाचार चैनल की तरह! अब भाई, मन भी तो दगा दे जाता है, वह यह कि, कोई फड़कता हुआ नया विचार हर समय तो मन में आता नहीं कि ब्रेकिंग न्यूज की तरह फेसबुक या सोशल मीडिया पर झट से पोस्ट कर दें। इसीलिए फेसबुक के टाइमलाईन पर लिखा "आपके मन में क्या है" जैसे मन को चिढ़ाता हुआ दिखाई देता है। खैर... मन तो मन...फेसबुक पर भी कुछ न कुछ पोस्ट करते ही रहना है सो मैंने अपने मन से शिकायत के लहजे में कहा, "क्यों बे! तुझे क्या हो गया है? एक वे समाचार चैनल हैं जो चौबीसों घंटे चलते रहते हैं और एक तू है कि चौबीस घंटे में कोई ढंग की बात भी नहीं सोच पाता..! मेरी फेसबुक की टाइमलाईन खाली की खाली निकल जाती है? पता नहीं तू कैसे अपने को सबसे तेज समझता है? जरूर युधिष्ठिर ने यक्ष को धता बताया होगा !"
           मन को मेरा हड़काना था कि यह मन भी मेरे साथ चिबिल्लई पर उतर आया और जैसे मुझसे कह उठा हो, "तुम तो यहाँ इस मँहगे ए सी अस्पताल में अपना दाँत दिखाने आए हो, जरा उस अादमी से जाकर पूँछ लो जिसके तो दाँत ही नहीं बचे हैं और जो बेचारा इस चिलचिलाती गर्मी में सड़क पर खड़ा न जाने क्या तलाश रहा है? जाओ उससे पूँछ-ताछ करो खाली-पीली तुम्हारी फेसबुक टाइमलाईन के लिए कुछ न कुछ मिल जाएगा..!"
          मैंने अस्पताल के शीशे के पार झाँका, वाकई! एक व्यक्ति इस चिलचिलाती गर्मी में खड़े-खड़े न जाने कहाँ खोया था। मन की बात सुन मैं झटपट उसके पास पहुँच गया अपने फेसबुक टाइमलाईन पर ब्रेकिंग न्यूज देने। मैं उससे कुछ बोलूँ कि इसके पहले ही मुझे देखते ही वह बोल उठा, "हाँ.. बाबू जी कहाँ चलना है..वैसे बहुत देर हो चुका है यहाँ खड़े-खड़े, और हाँ जो आप उचित समझें दे दीजिएगा..." एक क्षण मेरा सिर चकरा गया लेकिन फिर अगले पल संयत होते हुए बोला, "नहीं मुझे तुमसे कोई काम नहीं कराना है, मैं तो ऐसे ही तुमसे बात करने अा गया...कि...यहाँ खड़े-खड़े पसीने से तर-बतर होने पर तुम्हें कैसा प्रतीत हो रहा है.. आज काम नहीं मिला तो क्या करोगे? और हाँ..तुम्हारे ये जो दाँत टूटे हुए हैं इसे सामने इस अस्पताल में जा ठीक नहीं करा पा रहे हो..? इन बातों को सोच कर कैसा फील हो रहा है.. जरा मुझे बताओ" 
             "बाबू जी, बताने पर मुझे क्या मिलेगा?" एक मझी सी आवाज में वह आदमी बोला। इसपर मैंने जेब से मोबाईल निकाला और उसके फोटो लेने का अन्दाज बनाते हुए कहा, "देखो! तुम्हारी इस फोटो के साथ तुम्हारी बात अपने फेसबुक पर छापेंगे.." मेरी बात सुन वह आदमी बिना देरी किए बोल उठा, "वाह बाबूजी वाह! लेकिन अबकी बार मैं धोखा नहीं खाऊँगा.. आप जैसे NGO वाले होते बहुत चालाक हो..ऐसे ही पिछली बार मेरे गाँव में ये NGO वाले आए थे और खूब हमारी फोटो खींची... कहे थे कि टी वी पर आएगा.. सरकार डर कर घर-दुवार तो बनवा ही देगी..गरीबी दूर हो जाएगी..और हाँ, बाबूजी टी वी पर हमरे गाँव का नाम तो खूब हुआ! लेकिन हमें का मिला? हाँ गाँव के चौधरी के यहाँ फरचूनर जरूर खड़ी हो गई.. अऊर ऊ.. NGO वाले, फिर वहीं चौधरी के यहाँ हमका सब को भूलि के रसगुल्ला मलाई छानै लाग रहे..का समझे? हाँ, बाबूजी.. अब पहले दिनभर की मजूरी हमको दै दो फिर हमार इंटरभिउ लेउ..." 

           अभी इस आदमी की बात पूरी ही हुई थी कि मुझे लगा मेरा नम्बर आ गया होगा और मैं भागकर फिर से अस्पताल के अन्दर चला गया। वहाँ सोफे पर बैठते हुए मैं मन ही मन अपने मन को डाँटा, "क्यों बे मन, तू मुझे इतना बेवकूफ बनाता है? अभी तो गए थे मेरे तीन सौ रूपए!" तभी मन ने जैसे मुझसे कहा हो, "तो का समझते हो, ये समाचार चैनल चौबीस घंटे मुफ्त में चलते हैं..?" मन की डाट सुनकर फेसबुक पर छाने का मेरा भूत शान्त हो गया था और मन हुआ कि इस पाक महीने में ढाका में हुई धर्म-क्रान्ति पर ही कुछ लिख दूँ.. लेकिन मारे सेकुलरों के डर के कुछ लिख नहीं पाया..! मैं फेसबुक पर अपने खाली टाइमलाईन को देखे जा रहा था.. हाँ..अब जाकर मेरा नाम पुकारा गया था। 

                                                                                                                               ----मैं यानी विनय।
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शैक्षणिक तकाजा

            कार की ए सी खराब थी जिसकी वजह से इस गर्मी में कहीं आना-जाना नहीं हो पा रहा था। आखिरकार एक दिन समय निकाल इसे ठीक कराने की सोच ही लिया। कार को यह सोचकर गैरेज ले गया था कि इसे ठीक कराकर साथ में ही लेते आऊँगा। उस सर्विस सेंटर पर कारों की भीड़ लगी हुई थी। लेकिन थोड़ा अनुरोध करने पर बारी तोड़कर मेरे कार का नम्बर पहले लग गया। ए सी की जाँच करने पर पता चला इसकी किसी पाईप में लीकेज है जिसे बदलना होगा। इस बीच उस सर्विस सेंटर पर मेरे लगभग दो घंटे तो बीत ही चुके होंगे। मेरी मायूसी तब बढ़ गई जब पता चला कि वह पाईप इस सर्विस सेंटर के स्टोर पर नहीं है और नेट से पता चला कि शहर के किसी एक स्टोर पर एक ही पाईप बची है, जिसे मँगाना होगा जो आज सम्भव नहीं होगा, यह कल ही हो पाएगा। खैर...कल का आश्वासन पाकर मैं घर वापस आ गया।
           दूसरे दिन गैराज से फोन आया कि आपकी कार ठीक हो चुकी है और आकर ले जाएँ या कहें तो घर पर ही डिलिवर कर दिया जाए, लेकिन मैंने गैरेज पर जाना ही उचित समझा। गैरेज पर पहुँचा तो पता चला कार रेडी है, और कार को देखा तो ऐसा लगा जैसे अपने मालिक से बिछुड़ी उन्हीं का इन्तजार कर रही हो। तब तक मैकेनिक की आवाज कानों में पड़ी, "सर, कार में बैठ कर ए सी चेक कर लें।" वैसे भी उस लम्बे-चौड़े गैरेज में तमाम कारों के बीच बेहद गर्मी तो थी ही, मैं झटपट कार की पिछली सीट पर बैठ गया क्योंकि आगे मैकेनिक थर्मामीटर लेकर बैठा था। कार की ए सी चालू कर दी गई। तब-तब कहीं से दो लड़के, जो उस गैरेज में ही काम करते थे आकर मेरी कार में बैठ गए। इनमें से एक लड़का बोला, "उफ बाहर कितनी गर्मी है!" मैं समझ गया ये गर्मी से परेशान होकर ही कार की ए सी टेस्टिंग में थोड़ी ठंडक पाने के लिए कार में बैठे थे।
          हम सब कार में ही बैठे थे तभी मेरे बगल में बैठा एक लड़का बोला, जो शायद आगे की सीट पर बैठे अपने साथी से कहना चाह रहा था, "दिन भर बीत गया अब शाम को वेतन के मुद्दे पर चर्चा करेंगे? दिन में ही कर लेना चाहिए था, वैसे भी रोजे का समय है।" बातों-बातों में पता चला कि गैरेज में काम करने वाले लड़के अपना वेतन बढ़ाने की बात कर रहे थे और उसी के लिए गैरेज के मैनेजर के साथ इन लोगों की शाम को मीटिंग रखी गई थी। फिर कार में ही हमारे बीच बैठे एक अन्य लड़के ने कहा कि, "हमें तो पैसों की जरूरत है वेतन-सेतन बाद में तय करते रहें, पहले तो हमें कुछ पैसे का भुगतान कर दें..रोजा भी तो खोलना है।" "अरे यार जब इतनी देर हो चुकी है तो थोड़ी देर और सही, मीटिंग हो ही जाए।" दूसरे लड़के ने कहा था। तभी तीसरा लड़का जो उनमें वरिष्ठ और जिसके देखरेख में मेरे कार की सर्विस हुई थी, मुझसे बोला, "सर, यहाँ साठ प्रतिशत से अधिक मुस्लिम लड़के ही काम करते हैं और लगभग सभी रोजे से हैं।" हालाँकि वह लड़का स्वयं भी मुस्लिम था। उसकी बात सुन मैंने उससे कहा, "यार, तुम लोग दिनभर कुछ खाते-पीते नहीं हो कहीं डिहाइड्रेशन वगैरह न हो जाए!" इस पर उस लड़के ने कहा, "नहीं सर, ऐसा कुछ नहीं, ऊपरवाला सब ध्यान रखता है।" मैंने भी हामी भरी क्योंकि किसी की आस्था का मुझे भी सम्मान करना था! तभी कार के ए सी का तापमान माप रहे लड़के ने कहा, "सर ए सी इस समय अाठ डिग्री तक ठंडी हो चुकी है यह साढ़े सात तक पहुँच जाएगी...यह बहुत बढ़िया काम कर रही है।" उसी समय मुझे कट जैसी इंजन की आवाज सुनाई पड़ी, वह लड़का फिर बोला, "अभी तो आठ डिग्री पर रूक गया है लेकिन कार के रनिंग के समय यह साढ़े सात तक तो पहुँच ही जाएगा।" इसके बाद हम लोग कार से बाहर आ गए। लड़के ने कहा, "सर बिलिंग करा लीजिए।" और मैं काउन्टर पर पहुँच गया।
              बिलिंग काउन्टर पर वही वरिष्ठ लड़का मेरे पास आया और एक तरफ करते हुए मुझसे धीरे से बोला, "सर, आपका बिल इतने का आ रहा है, अगर आप सहमत हों तो इतने का करा देंगे, कुल इतने की बचत हो जाएगी, जिसमें से आप मुझे इतना दे दीजिएगा..तब भी आपका इतना तो बच ही जाएगा।" मतलब बचत के आधे-आधे का सौदा वह कर रहा था। हालांकि वह बचत मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थी और मेरे लिए नैतिकता का तकाजा भी इस सौदेबाजी के विरुद्ध था, फिर भी उस लड़के के चेहरे पर एक निगाह डालते हुए मन ही मन मुस्कुराते हुए इस सौदे पर मैंने सहमति दे दी।
             कार लेकर मैं उस गैराज के गेट से बाहर निकलते हुए गेट पास दिखा रहा था कि तभी एक दस-बारह साल का लड़का आया और कपड़े से मेरे कार के शीशों को पोंछने लगा, मैंने कार के शीशे चढ़ा लिए तथा उस लड़के की ओर देखते हुए गैराज से बाहर आकर रोड पर कार दौड़ाने लगा। इसी बीच कार के शीशे को साफ करने वाले उस लड़के की ओर मेरा ध्यान चला गया तथा यह सोचकर मन पश्चाताप कर उठा कि उस लड़के को दस रूपया तो दे देना ही चाहिए था, उसका भी मन खुश हो जाता...शायद इसीलिए वह शीशे साफ कर रहा था, नही तो इसकी क्या जरूरत थी? खैर....
             दूसरे दिन मुझे कार से ही लगभग डेढ़ सौ किमी की दूरी तय कर एक जगह जाना था। इस यात्रा के दौरान अकसर मेरी निगाहें सड़क के दोनों ओर कभी-कभी दिखने वाले, छोटे-छोटे आटो-सेंन्टरों के बोर्ड पर ठहर जाती और मैं उनका नाम पढ़ता रहता... जैसे "अली आटो गैरेज" "इस्माईल मोटर वर्कशॉप" आदि आदि नामों वाले। अब आप इसे संयोग कहिए या मेरे आँखों का दोष उस दिन मुझे जो भी आटो गैरेज या मिस्त्री-मैकेनिक का बोर्ड दिखता वे सभी मुस्लिम नाम वाले ही होते थे! हद तो तब हो गई जब मैं अपने गंतव्य पर पहुँच कर किसी काम से एक बैंक शाखा में ब्रांच-मैनेजर से मिलने गया। वहाँ भी एक व्यक्ति मैनेजर से किसी के लोन की चर्चा कर रहा था, जो एक उच्चजाति का हिन्दू प्रतीत हुआ, उसकी बातों पर ध्यान दिया तो पाया कि वह भी किसी "मोहम्मद अली आटो-गैरेज" के लिए लोन के बारे में ही बैंक शाखा प्रबन्धक से चर्चा कर रहा था।
              अपने काम से निवृत्त होकर मैं मुस्लिम समाज और युवकों की शिक्षा के बारे में सोचने लगा। मुझे लगा जो मुस्लिम युवक काम करना चाहते हैं वे सब ऐसे ही कामों में लगे हैं। मैंने देखा ऐसे मुस्लिम युवक ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, बल्कि इनमें से अधिकांश अनपढ़ ही होते हैं। मैं सोचने लगा, क्या ये मुस्लिम परिवार अपने बच्चों को गरीबी की वजह से नहीं पढ़ा पाते होंगे या फिर अन्य किसी वजह से? निश्चित रूप से मदरसा-शिक्षित मुस्लिम बच्चे आर्थिक दौड़ की प्रतिस्पर्धा में तो पीछे ही रह जाते होंगे। और, क्या जो मुस्लिम बच्चे मदरसों में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते उनमें से अधिकांश बच्चे अशिक्षित ही रह जाते होंगे ? क्या ये बच्चे ऐसे ही छोटे-बड़े आटो-गैरेजों में काम कर अपनी रोजी-रोटी चलाते होंगे या फिर गुमराह होकर अन्य कामों में भी संलिप्त हो जाते होंगे? मेरे मन में यह सोचकर थोड़ी सी सिहरन हुई कि कहीं ये बेचारे अधिकांश मुस्लिम बच्चे आधुनिक शिक्षा में इसलिए पिछड़ रहे हों कि इनके परिवारों के बीच आधुनिक शिक्षा को भी साम्प्रदायिक नजरिए से देखे जाने की प्रवृत्ति हो? खैर..इन बातों पर तो मुस्लिम समाज को ही ध्यान देना होगा।
              वैसे गैरेज या किसी ऐसी ही अन्य जगहों पर काम करना कोई खराब बात नहीं, लेकिन केवल इस प्रवृत्ति से ही भारतीय समाज की नीति नियामक मुख्यधारा में मुस्लिमों के सम्मिलित होने की क्षमता पर प्रश्नचिह्न तो खड़ा होता ही है। मुस्लिम समाज को अपने बच्चों को आधुनिक शैक्षणिक धारा से गुजारते हुए उनमें देश के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों-स्थानों पर पहुँचने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। और जो ऐसा कर लेते हैं वह ऐसे स्थानों पर पहुँचते भी हैं। एक समृद्ध और शक्तिशाली भारत के निर्माण के लिए यह बेहद अहम है।

स्मृति:शेष..भाई विनीत!

           भाई विनीत! यदि आप मुझे कहीं मिल जाते न.. तो आप से कहता "भाई जी अब से फेसबुक पर मेरे प्रत्येक पोस्ट को लाइक मत किया करिए...हाँ बस इतना कह दीजिएगा कि विनय भाई मैं आप की सभी पोस्टें पढ़ता हूँ..!!"
           हाँ..भाई विनीत! 28/5/16 का मेरा यह पोस्ट-
          "कविता - निस्सहायता और अकर्मण्यता से उपजी भावाभिव्यक्ति।
          कहानी या उपन्यास - स्वप्नलोक में विचरण करने वाला स्वप्नदर्शी।
          व्यंग्य - "खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचै" जैसी अभिव्यक्ति।
          अन्य लेखकीय विधा - बैठे-ठाले का खाली-पीली बोम मारना।"
          जिसपर आपकी यह टिप्पणी थी -
          "भाई ऐसे तो भावाभिव्यक्ति की सभी विधाएं हारे का हरिनाम हो जाएँगी। निःसंदेह कर्म काव्य से बड़ा है,..!
मानव को भाव, अनुभूति, अभिव्यक्ति, संवेदना की जो विशिष्टताएं प्राप्त हुई हैं, उनका उन्वान है साहित्य और कला, विज्ञान और विश्लेषण। आप स्वयं सर्जक हैं, ऐसा क्यों कह रहे हैं,,"
         भाई आपकी इस टिप्पणी को पढ़कर मैं स्वयं को कोसने लगा था कि नाहक ही मैंने ऐसी पोस्ट डाली जिसपर आपको ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी थी और इसे ही ध्यान में रखकर मैंने यह टिप्पणी की थी -
          "सभी आदरणीय मित्रों को हार्दिक धन्यवाद। 
वैसे सृजन हार से ही उपजती है जो शायद अगले को न हारने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ प्रश्न कथ्य पर नहीं है और न ही इन परिभाषाओं से कथ्य की मूल्यवत्ता प्रभावित होती है। बस शंका है कि कहीं लेखक कोई भटका हुआ राही तो नहीं...?"

         खैर..फिर इसके बाद मैंने फेसबुक पर कई पोस्टें डाली। न तो आपने मेरी उन पोस्टों को लाईक किया और न ही कमेंट...मैं आपका इन्तजार करता रहा..शायद आपके "लाईक" की मेरी आदत हो चुकी थी..! हाँ.. इसके बाद आपको पता है? मैंने आपकी फेसबुक टाइमलाईन चेक की और आपकी माँ की तस्वीर को लाईक किया जिसे आपने 18/5/16 को पोस्ट किया था...एक क्षण को मुझे लगा शायद आप मुझसे नाराज हो इसीलिए मुझे अपने पोस्ट पर आपकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है.. मैं परेशान था इसलिए नहीं कि मुझे आपकी लाईक नहीं मिल रही थी बल्कि परेशान इसलिए था कि इसी बहाने आपको एहसास करने की मेरी आदत पड़ चुकी थी....
         विनीत भाई! वैसे मैं सदैव से यह मानता आया हूँ कि रिश्ते बनाने नहीं पड़ते रिश्ते तो खुद ब खुद अपने आप बन जाते हैं..!! आपको याद है न.. जुलाई 1997 से FATI लखनऊ में तीन महीने की हमारी एक साथ ट्रेनिंग...आप उम्र में हमसे थोड़े बड़े थे.. अकसर आप कभी मुझे अकेले देखते तो मेरे कमरे में आ जाते और कभी-कभी तो कुछ मुद्दों पर बड़े भाई की तरह सलाह दिया करते..! हाँ मुझे आज भी याद है आप और रणवीर जब टेबल-टेनिस खेल रहे होते तो मैं वहीं बैठ कर आप दोनों का खेल देखा करता...
         खैर.. यूँ ही इसी तरह कैसे हम लोगों की तीन महीने की ट्रेनिंग अवधि बीत गई हमें पता ही नहीं चला..! हाँ आपको याद है न..उस दिन प्रशिक्षण पूरा हो जाने के बाद FATI संस्थान में हम सब का अन्तिम दिन था.. हम सब कितना रोए थे..! आखिर कोई न कोई रिश्ता तो हमारे बीच बन ही गया था...
           हाँ भाई! इसके बाद हमारी सेवाएँ बदल गई...आप जिला होमगार्ड कमांडेंट के पद पर चले गए और मैं प्रान्तीय विकास सेवा में चला आया तथा हमारी व्यस्तताएँ बढ़ गई, हमारा मिलना नहीं हो पाया...
           फिर...हम मिले यहीं इसी फेसबुक पर! मेरे लिखे से आपकी भावनाएँ जैसे एकाकार होती और इस दौरान मैंने देखा मेरी कोई भी पोस्ट आप से अछूती नहीं रही..!! वैसे भाई आप तो एक बेहद संवेदनशील इंसान थे...इस बात को मैं ट्रेनिंग अवधि में ही समझ गया था और आप मुझे किसी कैनवास के पात्र लगे थे जिसमें मैंने भी अपना अक्स ढूँढ़ने की कोशिश की थी।
           कई बार मैंने सोचा फेसबुक की इस आभासी (?) दुनियाँ से बाहर वास्तविक दुनियाँ में आप से मुलाकात हो, लेकिन इसे मैं टालता रहा, बस यही सोचकर कि आज नहीं तो कल...वैसे भाई विनीत! मैं हूँ ही ऐसा...रिश्ते निभाना जानता ही नहीं, क्योंकि मेरे दिमाग में एक कीड़ा घुसा है और वह यह कि रिश्ते निभाए नहीं जाते बल्कि रिश्ते यदि हैं तो खुद-ब-खुद निभते चले जाते हैं.. हाँ..भाई विनीत...मुझे रिश्तों को गुलदस्तों की तरह सहेजने से सदैव परहेज रहा है.. क्योंकि रिश्ते मेरे लिए बड़े प्लेटोनिक किस्म के होते हैं जिनका एहसास मैं तो करते रहना चाहता हूँ लेकिन किसी और को इसका एहसास नहीं करा पाता...! और यहीं पर...रिश्तों को लेकर मैं मात खा जाता हूँ.. और.. दूसरों की नजरों में मैं अपने रिश्तों से बहुत दूर दिखाई पड़ता हूँ..हाँ भाई विनीत! रिश्तों को लेकर मेरी यही नियति भी है....मैं जानता हूँ आज की दुनियावी जीवन में मैं गलत हूँ, लेकिन क्या करूँ.. मैं जो अपने आदत से लाचार हूँ....!
          भाई विनीत! केवल फेसबुक के मित्रों की ही दुनियाँ आभासी नहीं है...बल्कि... जिसे हम वास्तविक दुनियाँ समझते हैं वह तो और भी आभासिक है..! कभी-कभी तो मुझे मेरा यह एहसास ही वास्तविक दिखाई देता है...क्योंकि इस एहसास से निकले आँसू बेहद वास्तविक होते हैं...अब कल जब मैं बस में था यही कोई सुबह के साढ़े छह बज रहे होंगे मेरी एक मौसेरी बहन जो मुझसे बड़ी थी उनकी तीन दिन पहले ही मृत्यु हो गई थी.. हाँ, वहीं जा रहा था...अचानक मैंने अपना फेसबुक वाल चेक किया तो हम दोनों के एक कामन मित्र Vikas Chandra Tiwari जी के पोस्ट पर मेरी नजर ठहर गई... आपकी तस्वीर के साथ कुछ लिखा हुआ...मैं लिखे हुए को बार-बार पढ़ता रहा...मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था... यह क्या है... क्यों है....? वैसे तो मैं समझ गया कि जो होना था वह हो चुका है... मुझे ऐसा एहसास हुआ जैसे मेरे सामने एक बड़ा कैनवास उभर आया हो.. और आप उस पर उकेरे हुए कोई चित्र बन गए हों और मुझे देख लगातार मुस्कुराए भी जा रहे थे......
           खैर भाई विनीत..! जब कभी हम आप से मिलें तो बस इतना ही कह दीजिएगा कि.....भाई विनय, मैं आपकी सारी पोस्टों को पढ़ता रहा हूँ...हाँ भाई विनीत! यह दुनियाँ वास्तव में आभासी ही है..
            भाई विनीत (गहरे नीले शर्ट में) के साथ 1997 FATI में - स्मृति:शेष 

           

''सब प्रकृति का खेल है...!"

           सुबह का समय था...मोबाइल फोन की रिंगटोन बज रही थी, देखा तो पत्नी का फोन था। बिना देरी किए झट से फोन उठाकर कान से लगा लिया। उधर से आवाज आई-
          "इतनी देर से फोन कर रही हूँ, कहाँ थे?"
          "अरे भाई, जैसे ही मैंने रिंगटोन की आवाज सुनी तुरन्त फोन उठाया।" मैं बोला।
          "अरे नहीं...इसके पहले एक पूरी घंटी निकल गई..! फोन नहीं उठाए.." दूसरी तरफ से पत्नी की आवाज थी।
         "बाहर पौधों को पानी दे रहा था।" जैसे सफाई में मैंने कहा हो।
        "हूँ..अच्छा..! हाँ तो...मैं बताना चाह रही थीं...जो किचन की खिड़की के पास मैंने पौधे लगाए हैं न...अब वे कुछ बड़े चुके हैं..?" पत्नी ने फोन पर कहा।
        "हाँ..रोज सींचती भी तो हो..!" मैंने कहा।
       "आज न..वहीं पर मैंने एक बुलबुल के जोड़े को देखा..! वे उस पौंधे में अपना घोसला बना रहे थे..!" पत्नी जैसे अपनी किसी सफलता से उत्साहित होते हुए बोली।
       "अच्छा! पिछली बार भी तो एक बुलबुल के जोड़े ने ऐसे ही घोसला बनाया था.." मैंने फोन पर ही कहा।
      "लेकिन एक बात है...आदमी हो, पशु-पक्षी हो या जानवर हो सभी के मेल, फीमेल पर हावी होते हैं..." पत्नी का यह कथन थोड़ी मायूसी लिए हुई थी।
       यह सुन मैं जैसे चौंक पड़ा कि आखिर बात क्या हुई..! फिर मैंने पूँछा - "कैसे..?"
       "अरे, कैसे क्या..मैंने देखा जब वह मादा बुलबुल बेचारी किसी तरह बहुत मुश्किल से एक छोटे से पॉलिथिन के टुकड़े को उस पौंधे की छोटी-छोटी डालियों के बीच के झुरमुट में फैला कर उसमें तिनका रख घोसला बनाने में व्यस्त थी तो नर बुलबुल दूसरी डाली पर बैठकर इस काम में मादा बुलबुल की मदद करने के बजाय उसे केवल देख भर रहा था..! और वह बेचारी घोसला बनाने का सारा काम अकेले कर रही थी.. " यह कहते हुए पत्नी पर मायूसी अब भी तारी थी।
        मैंने मोबाइल फोन पर यह सुनते हुए धीरे से कहा, "देखो यह सब प्रकृति का खेल है...!"
        "हाँ.. यही तो मैं सोच रही हूँ क्या आदमी..क्या जानवर..! चारों तरफ एक ही कहानी है..!! हर जगह फीमेल पर मेल हावी है।" पत्नी की इस आवाज में थोड़ी और मायूसी आ गई थी।
        इस मोबाईल-फोनिक वार्ता के बाद मैंने सोचा, शायद पत्नी यह सब बताते हुए इस बात से मायूस थी कि दुनिया भर के पुरूष-वादी समाज के लोग स्त्रियों पर अपने "हावीपने" को इसी प्रकृति से जस्टीफाई कर लेते होंगे।

अपने देश का टूल-किट ही चोरी हो जाता

            उस दिन रात लगभग एक बजे कानपुर बस अड्डे पर पहुँचा तो मन ही मन यही सोच रहा था कि महोबा जाने वाली बस चली गई होगी क्योंकि इसे अकसर मैंने रात के साढ़े बारह बजे चलते देखा है। लेकिन उसी बस को अपने स्थान पर अब तक खड़े देख मन चहक उठा कि चलो अगली बस की प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ेगी जो शायद दो ढाई बजे के आसपास जाती है। झटपट मैं बस पर चढ़ गया बस बेतरतीब से यात्रियों से लगभग भर चुकी थी। मैंने मरियल सी श्रमिक जैसी एक औरत को एक सीट पर बैठे देखा और उसके तीन बच्चे जो मुझे एक-डेढ़ साल के आसपास प्रतीत हुए उसी सीट पर बेतरतीब ढंग से लेटे हुए थे, इन बच्चों की उम्र से मैं मन ही मन इनके जुड़वा होने का अनुमान लगाने लगा और पता नहीं क्यों मुझे ये तीनों बच्चे उस औरत का दुर्भाग्य बन नजर आए! इसके बाद दूसरी सीट पर बैठे शख्स से उसके बगल की खाली सीट से मुतमईन हो उस पर अपनी अटैची रख बस के चलने में देरी का अहसान कर मैं नीचे उतर आया क्योंकि बाहर की हवा में गर्मी से कुछ राहत मिलती दिखी।
           बस के नीचे तीन-चार लोग इकट्ठे हो बतिया रहे थे उन्हीं में से एक की ओर मुखातिब होते हुए मैंने पूँछा, "भाई, बस कब चलेगी?" उसने उत्तर में कहा, "अरे, इसे तो एक घंटा पहले ही चले जाना चाहिए था लेकिन पंचर होने के कारण अभी चली नहीं.." यह सुन जैसे मुझे कोई फर्क ही न पड़ा हो और मैं वहीं पास में ही जाकर लैम्प-पोस्ट के चबूतरे के किनारे की धूल झाड़ते हुए उस पर बैठ गया। इस चबूतरे पर दो-तीन लोग पहले से ही सोए हुए थे। बैठने के कुछ क्षणों बाद ही हमें किसी के फोन की घंटी बजती सुनाई पड़ी पूरी काल आने के बाद रिंग टोन बंद हुई..।इसके बाद रह-रहकर उसकी रिंगटोन बजती रही.. रिंगटोन सुन कर मैं कुछ बेचैन हो उठा मुड़ कर देखा तो वह व्यक्ति बनियान और पैंट पहने चबूतरे के नंगे फर्श पर सुख की नींद में अभी भी खोया था और उसके पैंट की जेब से मोबाईल की स्क्रीन रोशनी फेंक रही थी। मैंने सोचा इसके घर वाले होंगे जो इतनी गई रात में फोन कर पूँछना चाहते होंगे कि पहुँचे या नहीं पहुँचे। लेकिन ये तो इस खुरदरे फर्श पर भी जैसे घोड़ा बेंच कर सो रहे थे! मैंने सोचा, घोड़ा और इसे खरीदने-बेचने वाले अब तो रहे नहीं लेकिन मुहावरा अभी भी चल रहा है और पता नहीं उस समय घोड़ा बेचने वाले को इतना सुकूँ क्यों मिल गया था कि घोड़ा बेचते ही वह सो गया था! मन में आया हो सकता है घोड़े को चना खिलाने से फुर्सत पाकर ही वह सोया रहा हो। खैर, घंटी उसकी बज रही थी और इधर बेचैनी मेरी बढ़ रही थी वह तो नहीं हाँ, मैं ही उठ गया और चार-पांच लोगों को किसी विचार-विमर्श में लगे देख अब तक बस का पहिया न बदले जाने का कारण पूँछने उनके पास पहुँचा, यहाँ पता चला कि पहिया बदलने के लिए बस-ड्राइवर के पास टूल-किट ही नहीं है! और वहाँ आसपास खड़ी तमाम बसों की ओर इशारा कर कोई बता रहा था कि "इनमें किसी के पास टूल-किट नहीं है, मैं सबसे पूँछ चुका हूँ" शायद यह हमारे बस का ड्राइवर था। तभी किसी के यह कहने पर कि "ड्राइवर साहब आपको टूल-किट रखना चाहिए" बस-ड्राइवर ने उत्तर में कहा, "का रखें टूल-किट! बस के टूल-बाक्स के ताले को तोड़कर लोग टूल-किट भी चुरा ले जाएंगे और फिर चलें अपने बेतन से भरपाई करें !
          कुछ यात्री हलके-फुलके आक्रोश में आ गए थे, किसी ने कहा कि पहिया पंचर होने पर बस को यहाँ नहीं लगाना चाहिए था, मैंने भी इस बात का समर्थन किया लेकिन सोचा बस को यहाँ लगाने या न लगाने से क्या फर्क पड़ता यात्रियों को तो बस का इन्तजार करना ही होता और वापस आ कर पुनः चबूतरे पर बैठ गया और उधर कुछ यात्री बस स्टेशन इंचार्ज से शिकायत या टूल-किट का प्रबंध करने की बात करने निकल गए। कुछ देर बाद ये लोग वापस आ गए और इनमें कोई एक को मैंने कहते सुना, "ये नेता-फेता, अफसर-फपसर बस फर्जी बातें ही करते हैं, किसी काम के नहीं होते, न टूल-किट का या न अन्य बस का प्रबंध ही कर पा रहे हैं" सुनकर मैंने दूसरी ओर मुँह फेर लिया था।
          खैर, अब बस-ड्राइवर कहीं फोन से बात कर रहा था, बात कर लेने के बाद बोला, "अभी पन्द्रह मिनट में हमारे डिपो की इतने बजे चलने वाली बस आ रही है उसके पास टूल-किट रहता है उसी से पहिया बदलेंगे तब तक आप सब इन्तजार करें" इसके बाद वह बस आई उसके टूल-किट से मेरे बस का पहिया बदला गया फिर अपना टूल-किट लेकर वह बस चली और इधर हमारी बस भी चली। इस पूरी प्रक्रिया में हमारी बस अपने चलने से ढाई घंटा लेट थी।
          बस में बैठे-बैठे यात्रियों और बस की दशा देखकर अपने देश के बेतरतीबीपने पर हमारा ध्यान चला गया। मुझे लगा ऐसा ही तो हमारा यह देश भी है जिसके पास अपना कोई टूल-किट ही नहीं है और यदि टूल-किट होता भी है तो वह चोरी चला जाता है, इस चक्कर में हमारा बेचारा यह देश अपने समय से काफी पीछे चल रहा है!!
                                                                                                              ---vinay