"अरे सर..आप आफिस में हैं...कहाँ मिलेंगे...?.. एक कार्ड है...आपको देना था.." मोबाइल फोन पर आती यह आवाज एक परिचित की लगी..। "इस समय तो, मैं किसी गाँव में हूँ...हो सकता है..आने में देर लगे.." मैंने फोन पर कहा। असल में मैं भी सरकारी आदमी हूँ, सरकारी काम से ही गाँव में था। "फिर तो..मैं आपके आवास पर यह कार्ड भेज देता हूँ.. कोई तो होगा न आवास पर..?" उधर से आवाज आई। "नहीं..दरवाजे के नीचे से कार्ड डाल दीजिएगा...मुझे मिल जाएगा.." मैंने बोला। "ठीक है..लेकिन कल आइएगा जरूर..हमारे भाई का सम्मान-समारोह है।" "कार्ड मिले या न मिले आपका फोन आ गया यही बहुत है..हम अवश्य आएंगे।" फोन करने वाले व्यक्ति से मेरा कोई प्रगाढ़ परिचय तो नहीं था, लेकिन जैसे मैंने चाटुकारिता में यह वाक्य बोला हो। इसके साथ हमारी वार्ता भी समाप्त हो गई थी। यह गाँव एक कम ऊँचाई वाले पहाड़ी चट्टान पर बसा हुआ है। गाँव से लौटते समय वातावरण में धीरे-धीरे काला रंग भरने लगा था।
इस इलाके में पहाड़ तोड़कर निकले पत्थर से गिट्टी बनाई जाती है। यहाँ पहाड़ को उसकी ऊँचाई से अधिक की गहराई तक खोदकर उसे गिट्टियों में बदल गायब कर दिया जाता है। इसलिए इस क्षेत्र में पत्थर तोड़ने वाले क्रेशर-मशीनों का उद्योग पनप आया है। कहते हैं, यहाँ के गरीब-मजदूर इसमें रोजगार पाते हैं। लेकिन, एक-एक कर गायब होते पहाड़ों के बाद फिर यहाँ क्या बचेगा? और तब इस क्षेत्र में मजदूरों के लिए कौन सा रोजगार पनपेगा? फिर तो, पत्थर उद्योग में मजदूरों के लिए रोजगार तलाशना यहाँ के लिए दीर्घकालिक रूप से घाटे का सौदा ही सिद्ध होगा, क्यों! क्योंकि, ये पहाड़ मुझे वनस्पतियों और नमी का संरक्षण करते दिखाई देते हैं, या कम से कम जैव-संवर्धन के लिए ये पहाड़ यहाँ होने ही चाहिए। लेकिन एक कम वर्षा वाले सूखे क्षेत्र में ऐसा पहाड़-तोड़ पत्थर-खनन हृदय-विदारक और व्यवस्था के प्रति मन विचलित करने वाला है। या तो, शायद हम सोच बैठे हैं; भविष्य में मानव सभ्यता इतनी विकसित होगी कि उसके अस्तित्व के लिए धरती की भी आवश्यकता न हो!
यहाँ खदान-क्षेत्र में गाँव की सड़कें, ट्रकों से पत्थर-ढुलाई के चलते बारहों महीने खास्ताहाल रहती हैं, जिस पर चलना दूभर होता है। इस क्षेत्र की सड़कों का मरम्मत सीमित सरकारी बजट में नहीं हो पाता। जब-तब क्रेशर-यूनियन वाले अपने व्यावसायिक हित में ट्रकों के चलने लायक सड़कों की मरम्मत कराते हैं, लेकिन बरसात के दिनों में स्थिति बेहद खराब हो जाती है। सड़कों पर बन आए गड्ढों में भरे पानी में ट्रक छपकोरिया खेलते हुए निकलते हैं, और गड्ढों में उठे सुनामी से किनारे के कच्चे घरों की दिवालें छीज कर भरभरा जाती हैं। इन बेचारों बुन्देलखण्डियों के लिए गड्ढे में उठी सुनामी ही बहुत कुछ है, चाहे इससे भला हो या बुरा! वैसे यहाँ के ये लोग इसे ही अपनी नियति मान बैठे हैं, लेकिन कभी-कभी इनका विरोध तूती की आवाज जैसे सुनाई दे जाती है।
उस दिन गाँव वाले बहुत आक्रोशित थे, खासकर औरतें। और, विरोध का नेतृत्व भी औरते ही कर रहीं थीं। एक औरत जबर्दस्ती मुझे अपने घर के अन्दर ले गई। आँगन को दिखाते हुए उसने कहा, "देख रहे हैं न साहब, इस पानी को हमें उलचना पड़ता है..लेकिन कहाँ उलचे..? इनके ट्रकों ने रास्ता-नाली सब बर्बाद कर दिया है" मैं आँगन में पानी भरा देख बाहर आ गया। मैंने देखा, गाँव के बाहर उस रास्ते पर सैकड़ों ट्रक खड़े थे और ग्रामीणों ने सड़क पर अवरोध खड़ा कर रखा था। "साहब समस्या सुलझने तक इस रास्ते से ट्रकों को नहीं जाने देंगे" आवाज एक औरत की थी जो एक घर की कच्ची दीवाल के पास सड़क के गड्ढे में जमें पानी की ओर इशारा कर कह रही थी।
ठीक उसी समय नेता के लिबास में एक व्यक्ति नमूदार हुआ। जो उस औरत से कहने लगा, "बनवाता नहीं हूँ क्या इस सड़क को..जो किचिर-पिचिर किए जा रही हो..अभी पिछली बार ही तो बनवाया था इसे।" फिर उसने अपना परिचय क्रेशर-यूनियन के प्रतिनिधि के रूप में देते हुए मुझसे कहा कि क्रेशर-मालिकों के चन्दे से वह सड़क ठीक कराता रहता है। "तो ये हैं प्रतिनिधि जी, आला अफसर ने इन्हीं को लेकर समस्या हल करने के लिए कहा था!" उन्हें देखकर मैंने सोचा। "का ठीक कराए थे? सब पैसा खा जाते हैं .." वह औरत बोली थी। "अरे! ये गाँव के लोग ऐसे ही झूठ बोलते हैं..इसीलिए इनकी ऐसी दशा है..हाँ, तुम लोग दिवाल हटाने के लिए पैसा भी तो ले चुके हो..लेकिन अभी तक नहीं हटाए..सड़क छेंक कर घर बनाए हो!" प्रतिनिधि ने कहा था। "का हटाएं..अभी पूरा पैसा भी तो नहीं दिए...बारिश में कहाँ जाएँ! फिर हमारा घर तो यहाँ पर पहले से बना है..तब तुम क्रेशर-वेशर वाले भी नहीं थे" महिला ने तीखे शब्दों में कहा था। मैंने देखा यहाँ की समस्या पर पुरुषों द्वारा विरोध नगण्य था। शायद मजदूर टाइप के पुरुष अपनी गरीबी, बेकारी और नशाखोरी जैसी आदतों के कारण क्रेशर मालिकों के साथ समझौता-परस्ती के लिए मजबूर होंगे। मैनें गाँव वालों को किसी तरह समझा-बुझा कर रास्ता खुलवाया।
इसके बाद, एक दिन क्रेशर-यूनियन के वही प्रतिनिधि मेरे कार्यालय में मुझसे मिलने आए। उनका नाम रामनयन था। कहते हैं, रामनयन पहले साइकिल से चलने वाले अति साधारण आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति थे। लेकिन आज क्रेशर-मशीनों के मालिक हैं तथा लग्जरी वाहनों में चलते हैं। इस क्षेत्र में ज्यादातर क्रेशर-मशीनें नेता-अफसर-ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और उनकी काली कमाई से अस्तित्व में हैं। हाँ तो, आते ही रामनयन ने जिले के आला अफसर से अपने परिचय की चर्चा किए। चर्चा का विषय था कि कैसे वे दलितों से एक भूमि-विवाद के मामले में उस आला अफसर से तहसीलदार को डटवाते हुए अपने पक्ष में जमीन की पैमाइश करा लिए थे। बस यही, इतना परिचय था उस व्यक्ति से ! या फिर, आला अफसर को देने के लिए लाये एक तोहफे के साथ, उस व्यक्ति को मैंने एक समारोह में देखा था।
हाँ, फोन रामनयन का ही था। आवास पर लौटते-लौटते अँधेरा हो गया था। दरवाजा खोला तो सामने फर्श पर एक कार्ड पड़ा मिला..मैंने कार्ड उठाया। यह एक आमंत्रण-पत्र था। "तो, रामनयन ने उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने अपने भाई के स्वागत-समारोह में मुझे आमंत्रित किया है।" लेकिन मेरा मन अगले दिन होने वाले उस स्वागत-समारोह में सम्मिलित होने को लेकर एक अजीब से ऊहापोह में फंस गया। मैंने निस्पृह-भाव से उस आमंत्रण-पत्र को मेज के एक किनारे रख दिया। न जाने क्यों, मेरा अन्तर्मन मुझे वहाँ जाने से रोक रहा था। इसे लेकर मैं किंचित तनाव में आ गया। उस स्वागत-समारोह में जाकर मैं साधन नहीं बनना चाहता था। लेकिन मन को समझाया, "बाबू, यह लेन-देन का खेल है, यही सामाजिकता है!" मन अब वहाँ जाने के लिए तैयार हो चुका था।
समारोह-स्थल काफी कुछ बेहतर ढंग से सजाया गया था।सम्मान-मंच भी किसी नाट्य-मंच की तरह सजा था। विवाह-मंडप की सी रौनक वहाँ छायी हुई थी। चकर-पकर मैं उस स्थान को निहार रहा था कि तभी रामनयन की निगाह मुझ पर पड़ी। वे मेरे पास आए और मुझसे हाथ मिलाकर अन्य अतिथियों की ओर मुड़ गए। मैं यूँ ही खड़ा रहा और एक-एक कर वहाँ आए अतिथियों को निरखने लगा था। क्षेत्रीय विधायक, स्थानीय छुटभैये नेता, ठेकेदार, अफसर, क्रेशर मालिक ही तो वहाँ दिखाई पड़ रहे थे! मामला उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के स्वागत का था, सो जनपद के न्यायाधीशों की भी आमद हो चुकी थी। मतलब तंन्त्र के सभी विशिष्ट-जन वहाँ उपस्थित थे। अब तक मैंने भी दर्शक-दीर्घा में स्थान ग्रहण कर लिया था। अनमने से, बैठे-बैठे मैं न जाने किस बात की टोह में था कि उद्घोषक की आवाज पर कान दे दिया "माननीय न्यायमूर्ति बस आने ही वाले हैं।" कुछ ही क्षणों बाद न्यायमूर्ति जी की कार समारोह-स्थल पर प्रवेश कर रही थी। सभी अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर उनका स्वागत करने लगे थे। आयोजकों ने मंच पर ले जाकर उन्हें आसन ग्रहण कराया।
करतल-ध्वनि के स्वागत के बीच उद्घोषक ने बारी-बारी से विशिष्ट-जनों को न्यायमूर्ति के स्वागत के लिए मंच पर आने का आह्वान किया। सबसे पहले प्रशासन और पुलिस विभाग के अधिकारियों और तत्पश्चात अन्य विशिष्ट-जनों से न्यायमूर्ति का स्वागत कराया गया। वाकई! आयोजकों का प्रशासनिक अधिकारियों पर अच्छा प्रभाव दिखाई दे रहा था और स्वागत-समारोह का यह आयोजन न्यायमूर्ति के लिए कम, आयोजकों के लिए ज्यादा लगा, जो रामनयन की विशिष्टता में वृद्धि करने वाली थी। इस बीच बैठे-बैठे रामनयन की मुझसे कही एक बात याद आ गई। रामनयन ने कहा था, "हम आपस के हैं.. वह मेरी नहीं सुनता, मैं उसकी शिकायत करवा देता हूँ...जरा आप उसकी कस कर जाँच करा दीजिएगा..उसे सबक मिल जाएगा।" खैर, मेरे हाँ-हूँ के बाद वह बात आई-गई हो गई थी। मात्र कुछ क्षणों के परिचय से रामनयन के लिए मैं "आपस का" हो गया था। यह परिचय भी क्या बला है, जो कभी-कभी घोर धर्म-संकट में डाल देता है। ऐसे कई अवसर आए जब इस धर्म-संकट से उबरने के चक्कर में मेरे परिचित धीरे-धीरे अपरिचित होते गए। परिचय का यह खेल मेरे समझ में कभी नहीं आया।
इन्हीं बातों में खोई मेरी तन्द्रा को मंच के उद्घोषक ने तोड़ा। बात कोई विशेष तो नहीं, लेकिन न जाने क्यों मैं इस पर कान दे गया। उद्घोषक जी मंच से कह रहे थे, "देखिए! ऐसे होते हैं संस्कारी...न्यायमूर्ति जी के बगल में नहीं बैठना चाहते..आखिर कैसे बैठेंगे.. प्रोटोकॉल एलाउ नहीं करता बगल में बैठना..! इसे कहते हैं संस्कार!!" मंच पर न्यायमूर्ति जी अकेले बैठे थे उनके अगल-बगल की कुर्सियाँ खाली थी। आयोजक ने जनपद के किसी अधिकारी को उनके बगल की कुर्सी पर बैठने के लिए कहा होगा तो उन अधिकारी जी का संस्कार जाग उठा था। वाकई! यह देश ऐसा ही है ; छोटे-बड़े का देश! इस देश में किसी बड़े के सामने कोई छोटा ऊँची आवाज में नहीं बोल सकता..ऊँची आवाज में बोलने का अधिकार तो यहाँ केवल बड़ों को ही प्राप्त है। सदियों से यही संस्कार मिला है यहाँ के लोगों को।
इसके बाद उद्घोषक ने न्यायमूर्ति की सहृदयता का उल्लेख किया, "माननीय जज महोदय इस क्षेत्र के बारे में बेहद संवेदनशील हैं...रास्ते में आते समय क्रेशर-मशीनों से उठते धूल पर इन्होंने चिंता जताई..इस धूल से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे दुष्प्रभाव पर चिन्तित थे...! लेकिन हम माननीय न्यायमूर्ति जी से यह भी कहना चाहते हैं कि यहाँ के गरीबों-मजदूरों-बेरोजगारों के लिए यह पत्थर-उद्योग रोजगार मुहैया कराता है।" यह कहते हुए उद्घोषक जी ने न्यायमूर्ति की ओर ऐसे देखा, जैसे लगे हाथ वे उनसे यहाँ के पत्थर-खनन और क्रेशर-उद्योग से संबंधित किसी याचिका पर अभयदान मांग रहे हों। ऐसे विशिष्ट-जनों के बीच गरीब-मजदूर-बेरोजगार जैसे अविशिष्ट जन इस स्वागत-समारोह में आमंत्रित नहीं थे। आखिर ये बेचारे दिखाई भी कैसे देंगे, विशिष्ट-जनों के गठजोड़ के हिस्से जो नहीं हैं!
मेरा मन उद्विग्न हो उठा! यहाँ मुझे एक अजीब सा घुटन हो रहा था। अचानक मैं उठा, और समारोह-स्थल से बाहर निकल आया। बाहर आते ही मुझे सुकून का एहसास हुआ और मैं विशिष्ट-जनों के अभयदाता-तंन्त्र से आजाद था। अब मैं अविशिष्ट और मुझे भय के साथ जीना था। फिर भी न जाने क्यों, मैं अपनी अविशिष्टता के एहसास के साथ खुश था, जिसमें गजब की स्वातंत्र्यतानुभूति थी।