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सोमवार, 26 दिसंबर 2022

भारत महोत्सव और भेलपुरी!

उस दिन लखनऊ में एलडीए के गोल मार्केट से पत्नी को खरीददारी कराकर वापस आ रहा था। मैंने लाल रंग का एक काफी पुराना लोअर जिसपर लिखावट वाला प्रिंट था, के साथ एक पुरानी सफेद रंग की टीशर्ट के ऊपर पूरी बाह  का स्वेटर पहने हुए था। यह स्वेटर भी तेइस साल पुराना है, जिसे कभी मैंने हरदोई में खरीदा था। ठंड रोकने में इसकी कामयाबी देख, यह स्वेटर आज भी मुझे बहुत प्रिय है। कुलमिलाकर इस पहनावे में मैं अपने वाह्य हुलिए से सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ फटीचर गरीब-मजदूर जैसा था। लेकिन मेरे अन्तर्मन में मेरा बुर्जुवापन सांस्कारिक रूप से विद्यमान तो था ही, इसलिए पत्नी जब दुकान में थीं तो मैं कार में ड्राइवर सीट पर बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। 


      खैर, लौटते समय रास्ते में स्मृति उपवन पड़ा जिसमें लखनऊ महोत्सव चल रहा था। पत्नी ने यह कहते हुए कि इस वर्ष महोत्सव आना नहीं हुआ है, मेले में चलने के लिए कहा‌। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैं कार पार्क करने की जगह देखने लगा। लेकिन बिजली पासी किला और स्मृति उपवन के बीच से गुजरती सड़क की दोनों पटरियों पर कारें खड़ी थी, यहाँ गाड़ी खड़ी करने की कोई जगह न दिखाई पड़ने पर मैंने कार पार्किंग की समस्या की बात कहकर घर चलने के लिए कहा। लेकिन मार्निंगवाक पर आज न जाने का हवाला देकर मेले में घूमकर इसका कोटा पूरा करने की उनकी सलाह मुझे जँच गई। उन्होंने मुझे इन खड़ी कारों के बीच कहीं जगह खोजकर कार खड़ी कर देने का भी सुझाव दिया। 


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       उनके कहीं भी कार खड़ी करने के इस सुझाव पर मैंने अपने इस अनुभव को खंगाला कि हर चीज के लिए नियम-कानून बना होता है और इसके पालन का दारोमदार साधारण कॉमनमैनों पर ही होता है, इन्हीं बेचारों से नियमों कानूनों का पालन भी कराया जाता है। ताकि पता चल सके कुछ नियम या कानून भी हैं। यही गुड गवर्नेंस का मूल मंत्र भी है। इस अनुभव को उनसे साझा करने की गरज से मैंने एक घटना की उन्हें याद दिलाई कि "पुलिसवाले हमारी कार यहाँ से उठा सकते हैं जैसे एक बार यहाँ से उठाया था, उस दिन अनायास एक हजार रुपए की चपत पड़ी थी, इसलिए कार पार्किंग की जगह ढूँढ़ लेते हैं।" लेकिन इसपर उनका यह भी तर्क आया कि "फिर तो आज यहाँ सैकड़ों कारें खड़ी हैं, अपनी ही कार क्यों उठाएंगे?" अब मैंने अपनी बात उदाहरण देकर पत्नी को समझाना शुरु किया कि "देखो हमारी यह अट्ठारह साल पुरानी बेचारी सी जेन कार है, जो यहाँ खड़ी न‌ए माडल की लक्जरी जेंटलमैन कारों के बीच कॉमनमैन जैसी अनकॉमन सी दिखाई पड़ेगी, और ट्रैफिक पुलिस की निगाह में हमारी यह कार आसानी से आएगी, फिर तो इसे उठने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा‌ और दूसरे आज मैं जेंटलमैनों जैसी वेशभूषा में भी नहीं हूँ कि कोई मेरी सिफारिश मानेगा! देखो, लग्जरी गाड़ियों को नो पार्किंग जोन से नहीं उठाया जाता! इसे तुमने भी देखा है। क्योंकि कानून का पालन कराने वालों के लिए नरम चारे की जरूरत होती है, इसके लिए हम जैसे और हमारी यह बेचारी सी कार ही मुफीद पड़ेगी, इसलिए आओ पार्किंग ढूँढ़ लेते हैं।" इस बात को वे सही तरीके से समझ जाएं इसके लिए मैंने उन्हें एक और घटना की  याद दिलाई, "एक बार देखा नहीं था उस ट्रैफिक सिग्नल पर कैसे एक सिपाही हमारी इस कार के सामने आकर खड़ा हो गया था और गाड़ी किनारे लगाने के लिए कहने लगा! वह तो तुम्हारे हड़काने पर पीछे हटा था। उस दिन तुमने ही कहा था कि यदि हमारी भी गाड़ी बड़ी सी लक्जरी टाइप की होती तो यह पुलिस वाला सामने आने की हिम्मत न करता।" यह सब बताने से मुझे लगा कि मेरी बात उनकी समझ में आ ग‌ई है। इधर यह बतियाते-समझाते हम पार्किंग एरिया में भी आ चुके थे। चालीस रूपए शुल्क देकर यहाँ मैंने कार पार्क कर दिया। 


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       आज रिक्शेवाला या मजदूर जैसी मेरी वेशभूषा पर मेरे अंदर का बुर्जुवापन मुझसे असंतुष्ट था। इसे मनाने के चक्कर में कार से उतरने मैं थोड़ा समय ले रहा था, इसपर पत्नी ने मुझे टोका भी। खैर कार से मैं बाहर आया। महोत्सव के मुख्य प्रवेश द्वार जिसे लखनऊ के रूमी गेट जैसा आकार देने की कोशिश की गई थी, वहाँ तक हम आए। आज मेरा हुलिया मजदूरों जैसा था, एक लोककल्याणकारी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में मजदूरो-श्रमिकों का बहुत महत्व है बल्कि इनके नाम पर सत्ता परिवर्तन तक हो जाता है, एक क्षण के लिए मुझे अपने इस हुलिए पर गर्व हुआ और मैं सीना ताने उस गेट से महोत्सव में जाने की सोचने लगा। लेकिन महोत्सव में जाने के लिए टिकट लेने की व्यवस्था थी। बेमन से मैं टिकट खिड़की की ओर मुड़ा। इसके साथ ही मुझे गाँव के मेले की याद आई, जिसमें चाहे घूरेलाल हों या बाँकेलाल! नि:शुल्क मेले का भ्रमण करते हैं। गाँव का वह मेला शहरों में महोत्सव के रूप में अपग्रेड हो जाता है। गाँव और शहर के समाजवाद में अंतर आना लाजिमी तो है ही! मैंने टिकट खिड़की से चालीस दूंनी अस्सी रुपए के दो टिकट लिए। टिकट के पैसे चुकाकर मुझे इस बात से संतोष हुआ कि एक दिहाड़ी गरीब मजदूर भी चालीस रूपए खर्च कर महोत्सव मना सकता है, यहाँ आकर वह भी अपग्रेटानुभूति प्राप्त कर सकता है और उसे इस बात से प्रसन्नता हो सकती है कि इस मेले में कोई उसे देखकर उसकी औकात चालीस रुपए से कम तो नहीं ही आंकेगा!


       महोत्सव परिसर में प्रवेश करते ही मैं भेलपुरी का स्टाल खोजने लगा। बचपन में बंबई की चौपाटी पर भेलपुरी खाया था। ऐसे किसी महोत्सव या मेले में आने पर उसकी याद अवश्य ताजा करता हूँ। इसके लिए खासकर मैंने इसी महोत्सव को ही फिक्स किया है। लेकिन पत्नी जी मुझे शॉल, स्वेटर, कंबल और रजाइयों वाले स्टॉल की ओर ले चलीं! वे यहाँ चीजों को उलटती-पुलटती दाम पूँछती और फिर आगे बढ़ जाती। एक स्टाल पर जब ज्यादा समय लगा तो मैंने यह कहकर टोंका भी कि जब लेना-देना कुछ नहीं तो इतना समय क्या लगाना। इसपर उनका तर्क पेश ह‌आ कि तुम क्या जानों! चीजों के बारे में जानकारी तो होनी चाहिए। खैर हम आपस में यह तय करके ही महोत्सव में आए थे कि यहाँ से कुछ खरीदना-वरीदना नहीं है, इसका वे पालन कर रहीं थीं।


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         हम दूसरे साइड में आए तो वहाँ के स्टॉलों पर भीड़ कुछ ज्यादा मिली। अचानक एक आवाज मेरे कानों में पड़ी कोई कह रहा था "अरे! बहन नमस्ते, कहाँ जा रही हैं।" मैंने पीछे मुड़कर देखा‌। यह आवाज एक शॉल-स्वेटर की दूकान से आई थी। उस स्टॉल वाले ने श्रीमती जी को ही संबोधित किया था। उस समय उस दूकान से हम थोड़ा आगे बढ़ आए थे। श्रीमती जी पीछे मुड़कर तुरंत बोली थी, "अरे तुम यहाँ!" आवाज देने वाले ने बताया कि आजकल वह भी इस महोत्सव में अपना स्टाॅल लगाए हुए है। इसके बाद उलाहना भरे स्वर में उसने कहा, "बहन, मैं आपके घर गया था लेकिन आप घर में से निकलीं हीं नहीं, मैंने काफी आवाज भी लगाई।" "अरे नहीं भाई! ऐसा नहीं हो सकता, इन दिनों मै घर पर नहीं थी। इसके बाद मेरी ओर इशारा करते हुए पत्नी ने उससे कहा, "मैं तो इनके साथ नोएडा में थी, अभी वहीं से आई हूँ।" फिर उसने मेरी ओर देखा और मुझसे नमस्ते किया। उसके गोरे चेहरे पर दाढ़ी भी थी‌। उसके बोलने का लहजा कश्मीरी था। मैंने झट से अनुमान लगाया कि "तो यही रियाज कश्मीरी है!" पत्नी ने अपने व्हाट्सएप पर इसी नाम से इसका नंबर फीड किया है। एक दिन मैंने इसके बारे में पूँछा था। उन्होंने बताया था कि "यह हर साल जाड़े में आता है। इच्छा न होते हुए भी मुझे इससे कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ता है क्योंकि बहन-बहन करके यह पीछे पड़ जाता है। क‌ई बार कश्मीर से चलने के पहले ही व्हाट्सऐप पर यह वैरायटी की फोटो भेज देता है कि बहन इसे आपको लेना है।" मैं उसी रियाज कश्मीरी को आज यहाँ महोत्सव में स्टाल सजाए देख रहा था। उसकी कुछ खरीद लेने की बात पर पत्नी ने घर आने पर वहीं खरीदने की बात कही।। पत्नी की बातों से वह संतुष्ट दिखाई पड़ा‌।


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         यहां से हम स्टालों के सामने की भीड़ से बचते हुए आगे बढ़े ही थे कि मैंने किसी को कहते सुना, यार तुम इतनी देर से क्या कर रही हो? लेना है क्या? उधर से आवाज आई, नहीं। तो फिर चलो। मैंने उसे मुड़कर देखा। अपनी बेटी को गोद में उठाए एक पति की यह आवाज थी। इस बात पर हम पति-पत्नी एक दूसरे की ओर मुस्कराकर देखे, जैसे कि हम इस बात पर सहमति जता रहे हों कि, इस मामले में सब स्त्रियाँ एक जैसी होती है। यहां से हम दूसरे ब्लाक में पहुँचे। 


       मैंने एक स्टाॅल की ओर संकेत किया। यहाँ पुरुषों के लिए जैकेट, सदरी वगैरह बिक रहा था। हम दोनों स्टाॅल पर ग‌ए। वे जैकेट देखने लगीं। दुकानदार ने उन्हें एक से एक जैकेट दिखाया। मैं उनके पीछे खड़ा था‌, लेकिन उसने मुझे तवज्जो नहीं दिया, शायद मुझे उनका ड्राइवर समझ लिया होगा। उनके वहाँ से हटने पर मैंने उन जैकेटों को देखना शुरू किया। लेकिन इसपर भी उस स्टॉल वाले ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। यह मुझे बड़ा अजीब लगा। क्योंकि सेल्समैन येनकेनप्रकारेण ग्राहक को सामान लेने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। आज मेरे पहनावे और बढ़ी दाढ़ी से मेरा हुलिया वाकई में एक दिहाड़ी श्रमिक से भी गया बीता दिखाई पड़ रहा था‌। इसीलिए कपड़ों को पहनकर ट्राई करते देखकर उसने जैसे मुँह बिचकाया था जैसे वह कहना चाहता था कि बेटा ये जैकेट लेना तुम्हारे वश की बात नहीं, इसे धर दो।" मेरे अंदर छिपा बैठा जेन्टलमैन इससे अपमानित हुआ था। दरअसल यह जेन्टलमैंनी ही एक तरह का बुर्जुआवाद है। यह शक्ति के विभाजन और उसके स्तर को शिद्दत से महसूस करता है।  


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       इस मेले में मेरा नेतृत्व पत्नी के हाथ में था। यहाँ उन्हें फॉलो करना भी स्वाभाविक ही था। अचानक मुझे एक भेलपुरी का स्टाल दिखाई पड़ गया। इसे देख मैंने चहककर बोला, "वो देखो! चलो पहले वहाँ भेलपुरी खाते हैं।" उन्होंने मुझे घूरा और कहा, "तुम्हें तो भेलपुरी की ही पड़ी है, लौटते समय खाना।" मैंने मन मसोसा और उन्हें फालो करता रहा। हम एक ऐसे स्टॉल पर ग‌ए जहाँ सब धान बाइस पसेरी था और यहाँ हर आइटम सौ रूपए में मिल रहा था। लेडीज हो या जेंट्स दोनों के कपड़े, शॉल, सूट कोट, ब्लेजर, जैकेट सभी। यहाँ भी पत्नी को वह माल छाँट-छाँटकर दिखाया। लेकिन जब मैंने देखना शुरू किया तो वह दूकानदाल सूटेड-बूटेड ग्राहक के पास चला गया और उसे पहनाकर कपड़े ट्राई कराया। कुलमिलाकर उसकी नजरों में मेरी औकात सौ रूपए के बराबर भी नहीं थी। दरअसल एक काॅमन-मैन की यही स्थिति होती है वह पूरी व्यवस्था में उपेक्षित होता है। लेकिन उसके नाम पर ही सारी चीजें होती हैं, फिर भी उसके लिए कोई चीज नहीं होती। लेकिन अब मैं अपने इस कामनमैनशिप का मजा लेने लगा था और इस स्टॉल से निकलकर हम लोग आगे बढ़ ग‌ए।



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        मैंने देखा, एक इनोवा कार इसी भीड़भाड़ के बीच आ‌ई थी। मैं जानता था कि महोत्सव में कार को यहाँ तक ले आने की इजाजत नहीं होगी। मैंने देखा इस कार के पीछे एक राजनैतिक दल का स्टीकर चिपका था! यह सत्ता विरोधी दल का स्टीकर नहीं था। इसे देखते हुए मुझे अपने अंदर दोनों व्यक्तित्व की अनुभूति हुई। मेरे अंदर का सर्वहारा इस नियम तोड़ू व्यवस्था को देखकर उदासीन था उसने इसे मात्र एक दर्शक की तरह देखा! लेकिन इस कार का मेले में इस तरह घुसना मेरे बुर्जुआपन या जेंण्टलमैनशिप को मुँह चिढ़ाती हुई सी प्रतीत हुई, एक बार फिर उसे अपमान बोध हुआ था। उसके बुर्जुआपन को लगा कि यह नियम-तोड़क शक्ति उसके पास क्यों नहीं है! इसीलिए उसने, जो इन दोनों से निरपेक्ष अर्थात जो न तो कॉमन मैन था और न ही जेंटलमैन था, ने निष्कर्ष निकाला कि यह जेंटलमैनशिप समाज देश और व्यवस्था के हित में नहीं होता, और यही बुर्जुआपन है जिसे हमेशा शक्ति की ही चाह होती है और वह भी इसी नियम-तोड़क शक्ति की! बस ये इतना करते हैं कि अपनी जेंन्टलमैनशिप प्रमाणित करने के लिए आपस में ही एक दूसरे से सुरीली आवाज में एक्सक्यूज भी कह उठते हैं! दूसरी ओर कॉमनमैनशिप इस सिस्टम में उदासीन इसलिए है कि वह सदैव अपने कर्तव्य बंधन में ही बंधा रहता है और चालीस रुपए में ही सही, महोत्सव मना लेने में खुश हो लेता है।  


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      खैर, इस बीच पत्नी अब मेले के अंतिम छोर की ओर बढ़ रहीं थीं। मुझे उन्होंने बताया कि यह लखन‌ऊ महोत्सव नहीं, भारत महोत्सव है। मेरे "नहीं तो!" कहने पर उन्होंने इशारा करते हुए मुझसे कहा, उसे पढ़ो। मैंने पढ़ा। वहाँ भारत महोत्सव ही लिखा था। ठीक इसी समय मुझे फिर भेलपुरी वाला स्टाल दिखाई पड़ा। मैंने लगभग जिद में कहा, अब चलो भेलपुरी खाया जाए। मेरी जिद पूरी हुई। हम स्टाल के पास ग‌ए। यहां चार महिलाएं खड़ी थीं। भेलपुरीवाला भेलपुरी तैयार कर रहा था।‌ मैने चारों महिलाओं को निहारते हुए सोचा, मेरा नंबर देर से आएगा। तब तक भेलपुरी वाले ने एक दोना भेलपुरी तैयार कर एक महिला की ओर बढ़ा दिया। उस महिला ने दोने को पकड़ते हुए एक खाली प्लेट और चार चम्मच मांगे। मतलब इसी एक प्लेट में ये चारों हिस्सा बनाएंगी। इसी में से एक दूसरी महिला ने जब एक और खाली अतिरिक्त प्लेट की माँग की तो मैंने भेलपुरवाले को कहते सुना कि मैडम एक-एक दोने का हिसाब मालिक लेता है, यह हमें गिनकर मिलता है, एक अतिरिक्त प्लेट मैंने आपको पहले ही दे दिया है, उसी का हिसाब मुझे अपने घर से करना होगा। यह देख और सुनकर मैंने सोचा कि प्राइवेट कंपनियाँ ऐसे ही अपने कामगार से उसके काम का हिसाब लेती होंगी। 


       पचास रूप‌ए में मैने भी एक प्लेट भेलपुरी लिया। पत्नी जी ने यह कहकर अपने लिए बनवाने से मना कर दिया था कि कौन इस कूड़ा-करकट को खाए! फिर भी मैंने लकड़ी के दो चम्मच लिए। एक चम्मच उन्हें दिया और इसी प्लेट से भेलपुरी खाने का आफर दिया, लेकिन एक-दो चम्मच लेने के बाद अपना चम्मच फेंककर मुझे थोड़ी दूर लगे स्टालों की ओर चलने का संकेत किया। मैं लकड़ी के चम्मच से प्लेट में से भेलपुरी उठाते मुँह में डालते उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। वे स्टॉल-स्टॉल घूमती रहीं और मैं उनके पीछे भेलपुरी खाता टहलता रहा। उधर जैसे ही दूकानों की कतार खतम हुई, इधर मेरे प्लेट की भेलपुरी भी समाप्त हो चुकी थी। मैंने प्लेट फेंकते हुए उनसे वापस चलने की गुजारिश की और हम वापस मुड़ ग‌ए थे। कुल जमा एक सौ अस्सी रूप‌ए में मैंने महोत्सव मना लिया था, ऐसा इसलिए कर पाया कि मैं वह कॉमन मैन नहीं था, जिसके लिए महोत्सव के प्रवेशद्वार से ठीक बाहर पटरी पर टीन के कनस्टर में आग जलाए इसपर छोटी सी कढ़ाई में छोटे-छोटे समोसे सिंक रहे थे, इन्हें खरीदने वाले महोत्सव में नहीं घूमते होंगे! 

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सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

हवाई सभ्यता

मेरे बगल में बैठे व्यक्ति ने जब "एक्सक्यूज मी" कहा तो उसे देखते हुए मैं सोचने लगा कि यह व्यक्ति किससे क्षमा प्रार्थी है! उसकी यह क्षमा प्रार्थना ब्रेकफास्ट की ट्राली ले जाती विमान परिचारिकाओं को लक्षित था। सुबह का समय था। लखनऊ से अहमदाबाद की उड़ान थी यह। जहाज ऊपर आसमान में बत्तीस हजार फीट की ऊंचाई पर पहुंचकर स्थिर हो चुका था। सोचा, इस उड़ान को पकड़ने के लिए लोग भोर में हीं घर से निकले होंगे बेचारों को चाय-वाय पीने का भी समय नहीं मिला होगा! एयर होस्टेस ने उस व्यक्ति को कोई पेय पदार्थ दिया। अभी उसने ट्राली खिसकाया ही था कि मेरे पीछे वाली सीट से भी वैसू ही "एक्सक्यूज मी" वाली आवाज आई। खैर इसी टोन की मैंने कुछ अन्य आवाजें सुनी। वाकई में, नफासत से कहा जा रहा 'एक्सक्यूज मी' सुनकर मुझे तत्काल अहसास हुआ, नहीं, हम जमीन पर नहीं हैं बल्कि सभ्यता की बुलंदियों पर ऊपर आसमान में 11 किलोमीटर की ऊँचाई पर हैं। 

      

        मुझे देश में पैर पसारती इस सलीके वाली सभ्यता पर नाज हुआ, जो जहाज में बैठे लोगों में मूर्तिमान होती दिखाई पड़ी। इसी के साथ एक पुरानी बात याद आई, वह मेरी पहली हवाई यात्रा थी और वह भी आधे घंटे की। ऐसी ही ट्राली खींचती विमान परिचारिका से चाय और कुछ स्नेक्स लिए थे और ऐसे ही सभ्य अंदाज में इसकी कीमत ढाई सौ रुपए चुकाया था। इसके बाद की दो-दो घंटे की यात्राओं में भी मुझे कभी वैसी चाय की तलब नहीं लगी। दरअसल ऐसी सभ्यता बहुत कीमती होती है। खैर, इस उड़ान में कुछ लोगों को 'एक्सक्यूज मी' के साथ इन चीजों को लेते हुए देखा तो नुक्कड़ की चाय वाले की दूकान याद आ‌‌ई जहां 'अबे छोटू' या 'ऐ लड़के' सुनते हुए एक लड़का कभी इस टेबल पर तो कभी उस टेबल पर कुल्हड़ में चाय देने दौड़ पड़ता। 


        इस पर तो सोचा ही जा सकता है कि प्योर दूध की चाय और वह भी पाँच रूपए में देने वाले लड़के को "अबे छोटू" सुनना पड़ता है और वहीं आसमान में ढाई सौ रूपए में मिलने वाली पनघोघ्घो टाइप की चाय के लिए एयर होस्टेस "एक्सक्यूज मी" जैसी मधुर आवाज सुनती है। आजकल हवाई कल्चर परवान चढ़ रहा है आम आदमी भी हवा में रहने लगा है। हवा में रहने पर यह बेचारा सभ्य होने लगा है। वैसे जमाना कारपोरेट कल्चर का भी है, यह सलीके से आम आदमी की जेब खाली करा लेता है!! यही नहीं, इसके लिए वातावरण भी सृजित करता है। एक बात और, इस कल्चर में ऊँची दूकान का पकवान महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण हो जाता है ऐसी ऊँची दूकान में होना, जो खामखां आदमी को सभ्य बना देती है। मेरे समझ से यह दिखावे की सभ्यता है।

शनिवार, 9 जुलाई 2022

आपका ईनाम निकला है

          प्रिया के सामने सर्वे सूची थी और उसका कम्प्यूटर भी ऑन था। उसने अनमने ढंग से एक सरसरी दृष्टि सूची पर डाली। एक नाम पर उसकी नज़र ठिठक ग‌ई। उसे प्रार्थनेय कुमार नाम कुछ अजीब लगा लेकिन यही नाम लिखा था और उम्र के कालम में पचपन साल भरा था। इसके बाद उसने सर्वे फार्म में भरे ग‌ए इस व्यक्ति से संबंधित अन्य जानकारियां भी पढ़ी। 'तो ये गवर्नमेंट जाब में है और यदि इनने कंपनी के कूपन में रूचि दिखाई है तो फोन काल पर टर्न‌अप भी हो सकते हैं..वैसे भी नाम प्रार्थनेय कुमार है, शायद प्रार्थना सुन ही लें..कूपन पर ईनाम निकलने की बात जानेंगे तो लेने यहां आएंगे ही' सर्वे फार्म में जॉब वाले कालम को पढ़कर प्रिया ने सोचा था। दरअसल वह एक लिमिटेड कंपनी में कस्टमर केयर ऑफीसर के पद पर काम करती है, और अभी तीन महीने की प्रोबेशन अवधि में है। जिसे पूरा करने पर उसकी नौकरी पक्की होगी। दो माह पहले कंपनी ज्वाइन करते समय वह काफी उत्साहित थी। लेकिन अब कंपनी का टास्क पूरा कर पाना असंभव सा जान पड़ रहा है। 

       पहले वह सर्वे सूची के ग्राहकों के नाम, उम्र और व्यवसाय पर ध्यान नहीं देती थी। सूची के क्रमानुसार ही उन्हें फोन करती और कूपन पर ईनाम निकलना बताकर इसे लेने एरिया आफिस आने के लिए कहती। इस चक्कर में उसे लोगों से डिफरेंट टाइप के प्रश्नों का सामना भी करना होता है। कुछ तो द्विअर्थी अश्लील बातें करने लगते हैं और कुछ हिसाबी प्रश्नों में उलझाते हैं।जैसे कि ईनाम में क्या निकला है, कितने का है, या जितने का ईनाम नहीं होगा, उससे ज्यादा इसे लेने में खर्च हो जाएगा, इसे घर भी तो भेजा जा सकता है, वहां आने की क्या जरूरत। ऐसे लोगों को ईनाम लेने के लिए मोटीवेट करना असंभव होता है। वह अभी तक भावी ग्राहकों को बुलाने के अपने लक्ष्य का मात्र बीस-पच्चीस प्रतिशत ही कर पाई है। जबकि दो महीने का समय निकल चुका है। पता नहीं शेष एक महीने के प्रोबेशन पीरियड में लक्ष्य पूरा कर पाएगी या नहीं। उसके लिए यह चिंता की बात है। इन दिनों उसे नौकरी जाने का भय भी सता रहा है। एरिया मैनेजर से भी दो बार उसे चेतावनी मिल चुकी है और उसके कम्युनिकेशन स्किल पर प्रश्न उठाया गया। इसीलिए अब फोन करने से पहले वह अपने ऑडियंस के मनोविज्ञान का अनुमान लगाती है। अब उनके नाम, उम्र और व्यवसाय पर गौर करती है तभी उन्हें फोन मिलाती है।  

       दरअसल कूपन वाली इस गतिविधि से कंपनी अपनी एक बीमा पॉलिसी का प्रचार कर रही है और ईनाम लेने के बहाने भावी ग्राहकों को अपने ब्रांच आफिसों में बुलाकर इसके लिए परसुएट करती है। प्रार्थनेय कुमार के नाम, उम्र और व्यवसाय से प्रिया का अनुमान था कि "इस उम्र में आकर लोग परिवार और अपने स्वास्थ्य के प्रति फिक्रमंद हो उठते हैं। ये या तो रिस्पांसिबिलिटी निभाते-निभाते इकोनॉमिकली वीक हुए रहते हैं या इसे पूरा कर लेने के बाद इनकी सेविंग बढ़ी हुई होती है, इन्हें इस प्लान के लिए आसानी से मोटीवेट किया जा सकता है। और यदि ये महाशय सरकारी नौकरी में हैं, तो हो सकता है ऊपरी कमाई भी है, इन्हें ही क्यों न फोन किया जाए" सोचकर प्रिया ने प्रार्थनेय कुमार का नंबर डायल कर दिया था। पूरी रिंगटोन जाने के बाद भी उनका फोन नहीं उठा। वह दुबारा नंबर डायल करने जा रही थी कि एरिया मैनेजर रिचा का बुलावा आ गया। वह अचानक कुर्सी से उठी और बगल के कमरे की ओर चल पड़ी। एरिया मैनेजर ने उसे सामने कुर्सी पर बैठने के लिए इशारा किया। वह थोड़ी नर्वस थी लेकिन ऊपर से शांत दिखाई पड़ रही थी। 
       
       "प्रिया इट इज माई लास्ट वार्निंग, योर सक्सेज रेट इज बिलो दैन फोर्टी परशेंट.. नाउ यू हैव टू इम्प्रूव वेरी फास्ट..डु यू अन्डरस्टैंड? इट्स वेरी इम्पोर्टेंट दैट यू शुड थिंक.. व्हाइ योर टारगेटेड आडियंस डज नॉट टर्न‌अप!"
     
        "ज..जी मैम..ब..बट…" प्रिया हकलाई। ब्रांच मैनेजर रिचा की आयु बत्तीस-पैंतीस वर्ष के बीच होगी। उनके पसीनाए चेहरे पर जबर्दस्ती का मेकअप झलक रहा था और आंखों में लगाया हलका धारीदार काजल पसीने के कारण कुछ फैल सा गया था। कमरे में एसी चल रहा था। लेकिन बगल के बड़े रूम में, जिसमें एसी नहीं था, वहां ग्राहकों से कंपनी के बंदों का कन्वर्सेशन चल रहा था, जो ग्राहकों को कंपनी के प्लान के बारे में समझाइश दे रहे थे। मैडम को बार-बार वहां आना-जाना पड़ रहा था, शायद इसीलिए उनके चेहरे पर पसीना था। इस ब्रांच में अधिकतर बंदे चौबीस-पचीस से लेकर चालीस साल की आयु के बीच के थे। स्वयं प्रिया पच्चीस वर्ष की थी। वह साधारण नैन-नक्श वाली और हलके सांवले रंग की थी। आफिस वह बिना मेकअप के ही आती है। जबकि कार्पोरेट कल्चर में व्यक्तित्व को आकर्षक बनाए रखने का भी चलन होता है।
     
       "तुम कुछ बोल रही थी प्रिया..?" प्रिया के अचानक चुप हो जाने पर रिचा मैडम ने पूंछा। 
     
    "मैडम मैं पूरा एफर्ट कर रही हूं..लेकिन मैम…" बोलते-बोलते प्रिया रुक गई।

       "लेकिन क्या.." प्रिया को बात पूरी न करते देख रिचा बोली। 

      "मैम.. मैं कहना चाह रही थी..कूपन बांटने वाले बंदे ग्राहकों को समझे बिना इसे उन्हें देते चले जाते हैं..इसीलिए अधिकांश ऑडियंस टर्न‌अप नहीं होते… इस पर भी सोचना चाहिए.." प्रिया ने कहा। 

      "ओके..बट यार..तुम इस पर नहीं…अच्छा जाओ..अपने काम पर फोकस करो.. अदरवाइज.." रिचा की बोली थोड़ी तल्ख़ थी। 

      "ओ के मैडम.." प्रिया ने कहा। 

    अपने टेबल पर आते ही प्रार्थनेय कुमार का मोबाइल नंबर डायल कर दिया। 
       
                           
       ‌ * * *

        प्रार्थनेय कुमार के पैंट की जेब में रखा फोन बजा। उन्होंने फोन निकाला। मोबाइल में नंबर फीड न होने से इस नंबर की काल को पहले उन्होंने रिसीव नहीं किया था। लेकिन किसी जरूरी बात सोचकर फोन उठा लिया। लेकिन बिजनेस काॅल समझते ही स्वयं को व्यस्त बताकर फोन काट दिया। प्रिया ने इस अनुमान से फोन किया था कि यह व्यक्ति समझाने बुझाने से कंपनी का उपभोक्ता बन सकता है। एम बी ए में पर्सुएशन और अनुनयन का महत्त्व उसे पता था। इसलिए डेढ़ घंटे बीतते ही उसने फिर प्रार्थनेय कुमार को फोन किया। उन्होंने फोन उठाया तो उसने अपना परिचय दिया "जी सर.. मैं प्रिया बोल रही हूं..कंपनी से।" 'कंपनी' की बात पर प्रार्थनेय कुमार ने रूखेपन से बोला, "हां कहिए.." लेकिन प्रिया को इसकी परवाह नहीं हुई। उसे विश्वास था कि वह जो कहने जा रही है, उसे सुनकर वे उसकी बातों में रुचि लेंगे, उसने कहा,
    
     "सर आपका ईनाम निकला है।" 

      लेकिन प्रार्थनेय कुमार की "हूं..तो.?" जैसी उपेक्षात्मक प्रतिक्रिया से उसे विस्मय हुआ। उसने पूंछा, "अरे सर..! ईनाम निकलने पर आप खुश नहीं हुए क्या!" लेकिन उनकी आवाज वैसी ही रही, "भला मेरा ईनाम क्यों निकलने लगा.."‌। प्रिया ने उन्हें बताया कि लखनऊ के एक पेट्रोल पंप पर उसकी कंपनी का कूपन लिया था और ईनाम उसी कूपन पर निकला है। एक लड़के ने कूपन देते समय किसी सर्वे की बात कहकर उनसे नाम, मोबाइल नंबर और पेशा भी पूंछा था। इसे याद करते हुए प्रार्थनेय कुमार ने कहा, "कंपनियों का कूपन-सूपन पर ईनाम-फिनाम निकालना उनके विज्ञापन का तरीका है, और इस बहाने ये पैसा भी वसूलती हैं।" यह सुनकर प्रिया को चिंता हुई कि कहीं यह भावी उपभोक्ता हाथ से न निकल जा‌ए। उसने मनाने के स्वर में प्रतिवाद किया, "नहीं सर..आप आइए केवल अपना ईनाम लेकर जाइ‌ए..आपको कुछ भी नहीं देना है।" उसने उनकी रुचि ईनाम में मिलने वाली चीज के बारे में बताया और इसे लेने के लिए अगले दिन लखन‌ऊ में हजरतगंज स्थित आफिस आने के लिए कहा। इसमें किचेन में डेली यूज होने वाले कुछ सामान थे।

        प्रार्थनेय कुमार की ईनाम लेने में रुचि नहीं थी। सोचा, नाहक ही इस लड़की से बात की, उसे टालने के अंदाज में कहा कि वे लखन‌ऊ में नहीं हैं। लेकिन प्रिया भी उनके जैसे ऑडियंस को छोड़ने वाली नहीं थी और उसने पूंछ लिया कि वे लखनऊ कब आएंगे। उनके यह कहने पर कि "कोई निश्चित नहीं है..हो सकता है संडे-वंडे को आना हो.." उसने भी कह दिया था "ओके सर, हम आपको काल करेंगे..।" प्रिया का मन कह रहा था कि यह व्यक्ति फोन करने पर टर्न‌अप हो सकता है इसलिए नेक्स्ट संडे को फिर फोन करने का निश्चय कर फोन काट दिया।
                               ****
      
        रविवार का दिन था। आज हजरतगंज स्थित कंपनी के आफिस में भावी ग्राहकों के साथ मोटीवेशल कांफ्रेंस होना था। इसके लिए ग्राहकों को बुलाने की जिम्मेदारी प्रिया की थी। उसने सर्वे सूची से क‌ई नाम छांटे और उन सब को फोन कर उनके कूपन पर ईनाम निकलना बताया तथा इसे लेने कंपनी के ऑफिस में आने के लिए कहा। लेकिन उसके बहुत प्रयास करने पर भी बमुश्किल तीन लोग ही ब्रांच ऑफिस में आने के लिए तैयार हुए थे। इधर अब तक इग्यारह बज चुका था और मीटिंग भी एक बजे से शुरू होनी थी। अब उसे चौथे टेबल के खाली रहने की चिंता सता रही थी। इसके लिए एरिया मैनेजर ने उसे अल्टीमेटम भी दिया था। अचानक उसे प्रार्थनेय कुमार से हुई पिछली बातचीत ध्यान में आया! शायद वे लखनऊ आ ग‌ए हों, सोचते हुए उन्हें फोन कर दिया। 

       मोबाईल की रिंग टोन बजी तो प्रार्थनेय कुमार ने फ़्लैश हो रहा नंबर देखा। यह नंबर उन्हें कुछ जाना पहचाना लगा। शायद इस पर किसी से उनकी बातचीत हो चुकी है, सोचकर फोन उठा लिया। उनका अनुमान सही था। यह एक लड़की का फोन था। जिसने चार पांच दिन पहले हुई बातचीत याद कराया और उन्हें ईनाम लेने के लिए कंपनी के आफिस हजरतगंज आने के लिए कहा। 

      लेकिन वे इस बात से परिचित थे कि कंपनियों की कूपन पर ईनाम निकालने की गतिविधि उनके प्रोडक्ट या सेवा के विज्ञापन का तरीका है। इसलिए आधा घंटा बाद लखनऊ पहुंचने और फिर लखनऊ से बाहर जाने की बात कहा तथा ईनाम लेने आने में असमर्थता जताई। यह सुनते ही प्रिया नर्वस हो गई थी। उसे अपने एम बी ए की डिग्री पर खीझ भी हु‌ई। क्योंकि उसे जैसे अब सम‌झ में आया हो कि 'अनुनयन' या 'परसुएशन' जैसी किताबी बातों से बेवकूफ या अज्ञानी लोग ही प्रभावित होते हैं। फिर भी, क्यों न प्रार्थनेय कुमार से थोड़ी प्रार्थना ही कर ली जाए, सोचकर उसने उनका मोबाइल नंबर डायल कर दिया।
       
       इधर मोबाईल फोन की रिंगटोन सुनते ही प्रार्थनेय कुमार समझ ग‌ए कि यह उसी लड़की का फोन है। उन्होंने खीझते हुए कहा 

       "मैंने कह दिया है न…मेरा आना संभव नहीं है, आज लखनऊ से बाहर जाना है मुझे।" 

        लेकिन प्रिया ने घिघियाकर बोला, 

     "अरे सर…मैं आपकी बेटी समान हूं..प्लीज सर…बस आपको आना है, एक घंटे में हम आपको फ्री कर देंगे..यहां कांफ्रेंस हॉल में कुछ लोगों के साथ केवल एक छोटा सा प्रोग्राम है..आप से रिक्वेस्ट है सर..पत्नी को भी साथ में ले आएं..हम आपका ईनाम भी पैक करा दे रहे हैं सर।" 

        जैसे प्रार्थनेय कुमार धर्मसंकट में पड़ ग‌ए हों और जब उनसे कुछ कहते नहीं बना तो केवल यह बोलकर चुप हो ग‌ए कि "अच्छा..लखनऊ पहुंचकर देखते हैं..।" इसपर प्रिया भी चहकी, 

      "ठीक सर, थोड़ी देर बाद मैं फिर फोन करती हूं" उसे जैसे संजीवनी मिली।            
      
       अभी आधा घंटा भी नहीं बीता कि प्रिया का फिर फोन आया और उनसे लखनऊ पहुंचने के बारे में पूछा। लेकिन उनके कुछ बोलने के पहले ही उसने कहा, 

      "प्लीज सर मुझे अपनी बेटी समान ही समझना, ब्रांच आफिस जरूर आइए, आपका ईनाम भी पैक हो गया है अब मना मत करिएगा।" 

       वैसे प्रिया के बोलने का यह अंदाज और उसके शब्द उसके प्रोफेशनल उद्देश्य के लिए थे, लेकिन प्रार्थनेय कुमार ने इसे भावनात्मक रूप से ग्रहण कर लिया। वह कह बैठे,

        "अच्छा ठीक है आते हैं।" 

      इस बातचीत के बाद किसी ने कॉल करके उन्हें ईनाम का कोड नोट कराया गया। उन्हें कोड देने की यह ऐक्टिविटी कंपनी का ग्राहकों के हित की चिंता किए जाने का दिखावा लगा।
                          *****

         दोपहर के पौने एक बजा था। कांफ्रेंस हाल की चार में से तीन मेज पर 'टारगेट ऑडियंस' विराजमान थे। वे लोग अपनी पत्नी के साथ आए थे। उनके साथ कंपनी के सेल्स रिप्रेजेंटेटिव इंट्रैक्ट थे। प्रार्थनेय कुमार घर से चले या नहीं, यह जानने के लिए प्रिया ने उन्हें फोन किया। पता चला कि वे यहां आने के लिए घर से निकल चुके हैं और पत्नी भी उनके साथ हैं। प्रिया के लिए यह एक बड़ी सफलता थी, उसका खुश होना लाजिमी था, इस खुशी में उसने फोन पर ही उनसे कहा कि वह उनकी प्रतीक्षा करती मिलेगी।  
         
          प्रार्थनेय कुमार गाड़ी पार्क कर कंपनी का आफिस खोजते हुए गली में आ गए थे। इसी बीच प्रिया की कॉल आई। कान के पास फोन ले जाते ही प्रिया ने उन्हें देख लिया था। उसने पीछे मुड़ने के लिए कहा। उन्होंने मुड़कर देखा। सामने की बिल्डिंग की पहली मंजिल पर एक लड़की रेलिंग के पास खड़ी थी। वह कान पर मोबाईल लगा‌ए हुए थी। उनके देखते ही उसने हाथ के इशारे से उन्हें वहां आने के लिए कहा। उस बिल्डिंग में ही कंपनी का आफिस था। वे पहली मंजिल पर पहुंचे। लड़की उन्हें अपने सहायक मैनेजर के पास ले ग‌ई और उनसे यह कहकर कि अब ये आपको अटेंड करेंगी, चली गई। उनको जैसे किसी की सुपुर्दगी में दे दिया गया हो। ईनाम का कोड नंबर भी उनसे नहीं पूंछा गया। सामने पानी का गिलास रखा गया, लेकिन उसे पीकर कंपनी का ऋणी नहीं होना चहते थे, इसलिए प्यास न लगने का बहाना बनाया। वैसे भी कार्पोरेट कल्चर में कुछ भी मुफ्त नहीं होता और यह ईनाम भी नहीं। यहां सब चीजों के लिए कीमत चुकानी होती है। मस्तिष्क में चल रहे इन विचारों के बीच वे यह भी निश्चय कर चुके थे कि यहां आ ही ग‌ए हैं तो देखा जा‌एगा और इनके झांसे में नहीं आना है। खैर, उन्हें कांफ्रेंस हाल में ले जाया गया। जहां एक बड़े कमरे में चार अलग-अलग टेबल के साथ स्टूलनुमा ऊँची कुर्सियां रखी थी। जहां तीन पर बैठे लोगों से कंपनी के कर्मचारी वार्ता करने में मशगूल थे। उन्हें चौथे टेबल पर बैठाया गया।

      कुछ क्षण बाद छब्बीस-सत्ताईस साल का एक लड़का उन्हें अटेंड करने आया। गर्मी के मौसम में टाई पहने हुए वह स्वयं को कार्पोरेट आफिशियल्स दिखाने की भावभंगिमा में था। उसने उन पति-पत्नी को मुआयना करने के अंदाज में देखा! उनके साधारणपन से उसने सोचा पता नहीं ये कंपनी का प्लान ले पाएंगे भी या नहीं! उसके चेहरे पर हलका सा तनाव झलका उठा। दरअसल वह इस कंपनी में सेल्स रिप्रेजेंटेटिव है पिछले बीस दिनों से वह भावी उपभोक्ताओं के साथ अपने "परसुएशन" कला का प्रयोग कर इस 'प्लान' के लिए उन्हें रिझाने और मनाने का काम कर रहा है, लेकिन अभी तक किसी को भी इसका ग्राहक नहीं बना पाया है। जबकि महीने में एक ग्राहक तैयार करने का उसका लक्ष्य है। कुर्सी पर बैठते ही स्वयं को सँभालते हुए उनकी ओर देखकर वह अपने तरीके से मुस्कुराया और कहा, 

        "देखिए मैं आपके बारे में कुछ पूंछता हूं और आप भी मेरे बारे में जो मन में आए वह पूंछिए।' 
                    
                       *****
          
        लड़के ने प्रश्न पूंछने की बात मुस्कुराते हुए कही थी, इस पर प्रार्थनेय कुमार ने सोचा कि जो दूसरे का मनोभाव न ताड़ पाए, वह मासूम होता है। वे कहना चाहते थे "बेटा, मुस्कुराते हुए तुम बहुत मासूम लगते हो और हाँ, तुम्हारे बारे में क्या पूंछना, तुम नौकरी कर रहे हो वही करो, तुमसे मै कुछ नहीं पूछुंगा..अन्यथा यही होगा कि तुम्हारी बात मैं गंभीरता से ले रहा हूं जबकि ऐसा है नहीं..हां तुम जो भी मेरे बारे में जानना चाहोगे, मैं बताऊंगा.." लेकिन संकोचवश बोले नहीं मौन ही रहे।
       
        उनकी चुप्पी देख लड़के ने अपनी एम बी ए की डिग्री खंगाला। सेल्स रिप्रेजेंटेटिव को उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए उनसे अंतरंग लगाव स्थापित करना चाहिए। इससे ग्राहक पर मनोवैज्ञानिक असर होता है, इससे वह वह उन्हें आसानी से समझा और मना लेता है। इसे याद कर लड़के ने कहा , 

        "अच्छा चलिए अंकल.. मैं ही आपके बारे में पूंछता हूं.."
    
       उसने पहले जॉब के बारे में पूँछा। उत्तर मिला तो वह चमका उठा। सोचा, इनकी नौकरी ऊपर की कमाई वाली है, तब तो ये आसानी से कंपनी का यह प्लान ले सकते हैं। और इस खुशी में चहकते हुए प्रार्थनेय कुमार के बगल में बैठी उनकी पत्नी से नाम पूँछ लिया, 

        "मूर्ति देवी.." सुनकर लड़के की हँसी छूट गई। उसने कहा "आप दोनों को नहीं लगता कि आपका नाम यूनीक और मैचिंग टाइप का है?" प्रार्थनेय कुमार भी थोड़ा हँसे और कहा, "नाम ही नहीं, पर्सनली भी हम दोनों मैच करते हैं।" इसे सुनते ही लड़का सहज हो गया। उसने खुलकर प्रार्थनेय कुमार से पूँछताछ शुरू कर दी। साथ में उनका आइडेंटीफिकेशन फार्म भी फिल‌अप करता रहा। इस बातचीत से उत्साहित हुआ उसने कहा, 

       "इतनी देर से हम आपके बारे में पूँछे जा रहे हैं, आपने तो हमारे बारे में कुछ पूंछा ही नहीं, अब आप भी पूंछि‌ए..अच्छा चलिए मैं ही अपने बारे में बताए देता हूं।"  

       लड़के ने भी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताया। वह इससे प्रसन्न था कि प्रार्थनेय कुमार उसकी बातों में खूब रुचि ले रहे थे। उसने कहा, 

      "देखिए इस फार्म पर मैंने आपकी कुछ जानकारियां ली है, यदि हमारी एरिया मैनेजर मैम इसे अप्रूव कर देती हैं तो हम कंपनी के प्लान के बारे में आपसे बात करेंगे, अब आगे यह सेशन बहुत महत्वपूर्ण होगा।" 
     
        लड़के ने 'अप्रूव' शब्द ऐसे बोला जैसे उसकी एरिया मैनेजर किसी महत्वपूर्ण एक्जाम का रिजल्ट डिक्लेयर कराने जा रहीं हों। दर‌असल 'अप्रूव' कराने का दिखावा उपभोक्ता को उसके विशेष होने की अनुभूति कराने की कवायद थी। जिसके प्रभाव में सामने बैठा व्यक्ति कंपनी का उपभोक्ता बनने के लिए तैयार हो जा‌ए। दूसरी बात यह कि इस तरह कंपनियां अपने उत्पाद को प्रामाणिक और महत्वपूर्ण दिखाती हैं। उस फार्म पर एरिया मैनेजर द्वारा बिना कुछ जाने समझे और लापरवाही से कलम चलाते देख प्रार्थनेय कुमार ने यही अनुमान लगाया। 

        एरिया मैनेजर के जाने के बाद सेल्स रिप्रेजेंटेटिव बना वह लड़का उनसे बोला, "सर, मैडम ने अप्रूव कर दिया, अब आप कंपनी के प्लान के लिए एलिजिबल हैं, आइए हम आपको पूरा प्लान समझाते हैं, इसे ध्यान से सुनिएगा.." 

                  ******

            लड़के ने ध्यान से सुनने के लिए कहा तो प्रार्थनेय कुमार का ध्यान टाइम पर गया। प्रिया ने एक घंटे का समय मांगा था। लेकिन अभी तो आधा घंटा ही हुआ है। उन्हें स्वयं से चिढ़ सी हुई कि नाहक ही यहां आकर फंसे। अब बीच में उठना भी अच्छा नहीं। उन्होंने लड़के की ओर देखा। सेल्समैन की भूमिका में मुस्तैद उन्हें वह आशा भरी निगाह से देख रहा था। वे उसे निराश नहीं करना चाहते थे, उनके मुंह से निकला, अच्छा समझाओ।  

       "तो फिर हम शुरू करते हैं.." कहकर लड़के ने इंश्योरेंस पॉलिसी की किश्तें और मेच्योरिटी की धनराशि समझाने लगा। इसी बीच एक स्वर सुनाई पड़ा। हाथ में गुलदस्ता लिए एरिया मैनेजर बोल रहीं थी। वे उस उपभोक्ता जोड़े का ताली बजाकर स्वागत करने के लिए कह रहीं थीं जिसने अभी-अभी कंपनी का इंश्योरेंस प्लान लिया था। सब की तरह प्रार्थनेय कुमार ने भी खड़े होकर ताली बजाया। युवा जोड़ा स्वागत से अभिभूत स्वयं को स्पेशल समझते हुए गर्वित भाव से गुलदस्ता ग्रहण करता दिखाई पड़ा। शायद कंपनी के एडवर्टाइजिंग का यह भी एक तरीका हो, अन्यथा मँहगे प्रीमियम वाली यह पॉलिसी कौन लेता है या फिर कंपनी के सेल्स मैनेजर की बातों में आकर ही ये मुर्गा बने हों! वेलकम सेरेमनी के बाद प्रार्थनेय कुमार अपने इस निष्कर्ष के साथ बैठ ग‌ए। वे सेल्स रिप्रेजेंटेटिव उस लड़के से एक बार फिर मुखातिब हुए।

         लड़के ने उनके उपभोक्ता मन को टटोला। 'प्रॉमिस' वाली मार्केटिंग स्किल की थीम पर कि लोग साबुन नहीं खरीदते हैं, वे सुन्दरता की उम्मीद खरीदते हैं, उसने प्रार्थनेय कुमार से 'प्रॉमिस' किया कि इस इंश्योरेंस पॉलिसी को लेने का अर्थ है कि आप अपनी और परिवार के सुरक्षा की गारंटी खरीद रहे हैं। लेकिन सुरक्षा गारंटी वाली बात पर न जाने क्यों प्रार्थनेए कुमार गंभीर होने का दिखावा कर ग‌ए। इससे उत्साहित हुआ लड़का उनकी पत्नी मूर्ति देवी की ओर देखते हुए अपनी सेल्समैनी वाली स्किल का छक्का जड़ दिया,

       "यदि पॉलिसी लेने के बाद आप मर जाते हैं तो कंपनी सारी किश्तें स्वयं जमा करेगी और अवधि पूर्ण होने पर आपके परिवार को पैंतीस लाख रूपए मिल जाएगा।" 

                 ******

      बीमाधारक के मरने पर परिवार को पैंतीस लाख रुपए मिलने की बात लड़के ने ऐसे कहा था जैसे कंपनी अपने इंश्योरेंस पॉलिसी में मरने का भी ऑफर दे रही हो! मतलब पॉलिसी लेने के बाद बीमाधारक का मरना ही उसके लिए बेहतर लाभ है। प्रार्थनेय कुमार ने अभी 'हां..हूं' ही किया था कि मूर्ति देवी की कड़क आवाज सुनाई पड़ी, वे जैसे लड़के को झिड़कते हुए कह रहीं थी,
      
         "अच्छा तुम ये बताओ! तुमने हमें बुलाया क्यों है? इतनी देर से मैं देख रहीं हूं तुम फालतू की बात किए जा रहे हो। क्या इसीलिए बुलाए हो?"
     
      "मैडम मैं पालिसी के बारे में ही तो बता रहा हूं, और ईनाम भी तो लेना था आपको…" मूर्ति देवी की बात से भौंचक्का हुआ लड़के ने कहा।

        "सुनो! भाड़ में जाए तुम्हारी पॉलिसी और ईनाम.. हमारे पास समय नहीं है यह सब सुनने के लिए.." 
      
       मूर्ति देवी शांत नहीं हुई, पति की ओर मुखातिब हुई, 
     
        "और तुम! वैसे तो तुम्हारे पास समय नहीं रहता लेकिन यहां बैठने के लिए समय ही समय है! तुम्हें दोपहर बाद कहीं जाना भी तो था..चलो उठो यहां से.."
        
         पत्नी के इस रुख से लड़के के सामने प्रार्थनेय कुमार असहज हो गए। उन्होंने लड़के की ओर देखा। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थी।

     "अरे सर! प्लान मत लीजिए..पंद्रह मिनट और बैठ लीजिए, कम से कम मेरी बात तो पूरी हो जाए..आप से एक घंटे का समय देने के लिए कहा गया था.." लड़के ने मायूसी से कहा जैसे छक्का मारने के चक्कर में उसे बाउंड्री पर लपक लिया गया हो। 

      मूर्ति देवी के चेहरे पर गुस्से का भाव था! फिर भी प्रार्थनेय कुमार ने हिम्मत बटोर कर उनसे कहा,
      
        "हां अभी पंद्रह मिनट बाकी है, बस ये अपनी बात पूरी कर लें तो चल देते हैं.."
    
       "सुनो! तुमको सुनना है तो सुनो..मुझे अब नहीं बैठना.. मैं चलती हूं" कहते हुए मूर्तिदेवी उठने को हुई। तभी स्थिति भांपकर एरिया मैनेजर वहां आई। सेल्समैन लड़के से उसने कहा, "ये नहीं सुनना चाहते तो जाने दो इन्हें।" मूर्ति देवी को उठते देख प्रार्थनेय कुमार भी खड़े हो गए और दोनों बाहर की ओर चल दिए।

      इधर लड़के को समझ में नहीं आया कि ऐसी क्या बात हो गई कि मूर्ति देवी अचानक भड़क उठी और ईनाम लिए बिना ही दोनों जा रहे हैं! उसे अपने मार्केटिंग स्किल पर भी झल्लाहट हुई। उसके आत्मविश्वास को चोट पहुंची थी। अब वह किंकर्तव्यविमूढ़ था। इसी समय एरिया मैनेजर उसके पास आई और बोली, "देखो! वे लोग जा रहे हैं..उनका ईनाम तो उन्हें दे दो।"

      लड़का एक पैकेट उठाकर उनके पीछे भागा, वे अभी आफिस के कोरीडोर से गुजर रहे थे। न चाहते हुए भी उन्हें वह पैकट लेना पड़ा।
     
       दोनों नीचे आ गए थे। प्रार्थनेय कुमार से उनकी पत्नी ने कहा "वैसे तो तुम बहुत समझदार बनते हो, लेकिन यहां बेवकूफ बनने चले आए!"

      देखो तुम भी तो हज़रत गंज चलने की बात पर पहले से ही तैयार होकर बैठ गई थी..और बात बेवकूफ बनने की नहीं, उस लड़की प्रिया ने यहां आने के लिए इस तरह रिक्वेस्ट किया कि टाल नहीं पाया..आना पड़ा..हो सकता है.. मेरे आने से उसे जाब में कुछ सहायता हुई हो..

       "लेकिन तुमने लड़के की आँखों में नहीं देखा! उसकी आँखों में बेबसी झलक रही थी, जैसे अपने अंदर कोई पीड़ा छिपाए हो! आज के दौर में प्राइवेट कंपनियों में भी नौकरी करना आसान नहीं है..और हां कितनी बार मैं बाहर निकलती हूं..?" मूर्ति देवी ने शांत भाव से लेकिन पति की ओर आँखे तरेरते हुए कहा। शायद हजरतगंज आने के लिए तैयार होकर बैठने की बात उन्हें बुरी लगी थी।
       
        देखो वह बच्चा है फिर भी कुछ करने की उसके अंदर इच्छा शक्ति भी है। लेकिन तुमने तो उस बेचारे को झिड़क दिया.. प्रार्थनेय कुमार ने मुस्कुरा कर पत्नी से कहा।
   
        "यह तो दूसरी बात है, उसने कुछ ऐसा कह दिया था, और देखो! मैं कोई बात बनाकर नहीं कह पाती" मूर्ति देवी ने कहा।

          दोनों पैदल चलते हुए हजरतगंज के मुख्य स्ट्रीट पर आ ग‌ए थे। अचानक प्रार्थनेय कुमार ने कहा, "आओ मोतीमहल में चलकर कुछ खाते हैं।" दोनों रेस्टोरेंट में चले ग‌ए थे। 

        रेस्टोरेंट से निकलने पर मूर्ति देवी ने पति से कहा "देखो तुम्हारे पास कोई ढंग का कुर्ता नहीं है, चलकर ले लेते हैं। रविवार का दिन था ज्यादातर दुकानें बंद थी। वे दोनों दुकान खोजते हुए आगे बढ़ ग‌ए। 

                         **********    

        

        



         

       

        

         

 

शनिवार, 28 मई 2022

किसी को जिंदा कर देना

           सच तो यह है, मैं यह बातें लिखने के मूड में नहीं था। लेकिन हमारे जिले के जिला अस्पताल के डिप्टी सीएमओ श्री मातनहेलिया जी ने मुझसे कहा आपको यह बात अधिक से अधिक लोगों को अवश्य बताना चाहिए। लोगों के लिए यह प्रेरणादायी है इससे समाज को लाभ मिल सकता है। तो, इस बात को लिखना या इस घटना को सब के बीच में ले आना स्वयं के लिए वाहवाही कराना या आत्मप्रचार का हिस्सा नहीं है। बल्कि जो कर पाया, उसे करने की जानकारी किसी का लिखा पढ़कर ही हुई थी। अचानक किसी की कुछ पलों के अंदर हुई मौत और वह भी एक अच्छे-भले स्वस्थ इंसान का, बहुत झकझोरने वाली होती है क्योंकि मेरा मानना है जीवन इतना अनिश्चित भी नहीं होता। प्रकृति ने किसी भी जीव के शरीर को इस तरह नहीं गढ़ा है कि उसके जीवन धारण की क्षमता अनिश्चित हो! यदि जीवन ऐसा ही होता तो सदियों से मानव सभ्यता अपने भविष्य की चिन्ता करते हुए दिखाई न देती! प्रकृति की चीजों में देखिए तो इसमें एक अद्भुत सिमेट्री दिखाई पड़ती है!! माने यह सृष्टि में व्याप्त एक निश्चित नियम की ही ओर इशारा है। तो फिर ऐसी मौतों के पीछे कौन से कारण हैं और क्या ऐसे व्यक्ति को नहीं बचाया जा सकता? यह प्रश्न मन को बेचैन करता है। इसके लिए इस विषय पर सोशल मीडिया या इंटरनेट आदि पर यदि  कोई लेख मिलता है तो उसे मैं जरूर पढ़ता हूँ।
        
        ऐसे ही फेसबुक पर एक प्रसिद्ध पत्रकार संजय सिन्हा जी हैं, एक बार उन्होंने अपने भाई की अचानक हुई ऐसी ही मृत्यु की कहानी लिखी थी। उन्होंने लिखा था, काश! मेरे भाई के पास उस समय कोई होता तो वह आज जिंदा होता। खैर, मैं आज बताता हूं कि उन्होंने अपनी उस कहानी में क्या लिखा था, और कैसे उनके भाई की जान बचती।
       
          उस दिन मेरे ड्राइवर की तबियत थोड़ी सी नासाज थी। एक तो वह बहुत संवेदनशील है, दूसरे समस्याओं को लेकर गहरी चिंता कर बैठता है। सुबह इग्यारह बजे के आसपास मुझसे अपनी तबियत खराब बताकर वह जिला चिकित्सालय  दवाई लेने गया था। वहां से वापस आकर उसने मुझे दवा लेने के बारे में बताया भी। मैंने सोचा शायद बहुत अधिक चिंता करने आदि के कारण इसकी तबियत खराब हुई होगी। उसे देखने से मुझे ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि आज इसके जीवन पर कोई गंभीर संकट मँडरा रहा है। इस समय दोपहर बाद के ढाई बज रहे होंगे, मेरे आफिस के ज्यादातर लोग लंच पर चले ग‌ए थे। मैं विकास भवन की पहली मंजिल पर अपने कक्ष में बैठा अपने कार्यालय सहायक के साथ किसी बात पर विमर्श कर रहा था।
         
          अचानक मेरे कक्ष के सामने की गैलरी में किसी भारी चीज के गिरने जैसी धम्म की जोर की आवाज सुनाई पड़ी! हम दोनों चौंक ग‌ए थे। मुझे लगा जैसे किसी ने भरा बोरा फर्श पर पटक दिया हो। अपनी कुर्सी पर बैठे हुए मैंने उस गैलरी की ओर खुल रहे अपने कक्ष के दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे के आधे भाग तक पर्दा फैला था। मैंने फर्श पर मोजा देखा, बावजूद इसके मुझे एक क्षण तक कुछ समझ में नहीं आया यह पैर में पहना हुआ मोजा है क्योंकि उसके  शरीर का बाकी भाग पर्दे और दीवाल की ओट में था!! अब तक धम्म की आवाज आए छह-सात सेकेंड भी हो चुका था। मैंने अपने कार्यालय सहायक से बाहर चलकर देखने के लिए कहा। हम दोनों जैसे ही अपने कक्ष से निकले, बाहर का दृश्य देखकर हम आवाक थे! अरे!! यह तो मेरा वही ड्राइवर था जो कुछ देर पहले अस्पताल से दवा लेकर आया था! वह  फर्श पर चित पड़ा था!! तो इसी के गिरने की आवाज आई थी। मेरे समझ में यह बात आ गई। हम झपटकर उसके पास पहुंचे। उसके चेहरे को देखा, उसकी दोनों आँखें खुली हुई और पुतलियां ठस स्थिर एकटक शून्य की ओर निहारती प्रतीत हुई। उसके चेहरे पर पानी की छींटें मारी गई, लेकिन इसका कोई असर होता नहीं दिखाई पड़ा। मैंने उसका सिर अपनी बाहों में लेकर उसे उठाने का प्रयास किया। लेकिन उसका शरीर एकदम से झूल रहा था। मैंने ध्यान दिया, उसकी सांसें थम चुकी थी और उसके हृदय की धड़कन बंद थी! मुझे उसके 'डेडबाडी' हो जाने का अहसास हुआ। यही वह क्षण था जब मुझे संजय सिन्हा की पढ़ी उनके भाई की कहानी याद आई। उनका भाई अपने ऐसे ही दुखद क्षण में अकेला था, लेकिन यहां मैं अपने ड्राइवर के साथ था।
         
        मैं समझ गया था, मेरे ड्राइवर को सडेन कार्डियक अरेस्ट हुआ है, और इनका हार्ट फेल हो गया है अर्थात हृदय ने काम करना बंद कर दिया है। मैं जानता था कि हार्ट अटैक में मरीज को बचने की उम्मीद अधिक रहती है लेकिन कार्डियक अरेस्ट में यदि तत्काल उपचार न मिले तो मरीजों की जान चली जाती है। ऐसी स्थितियों में मरीजों को सीपीआर (Cardiopulmonary Resuscitation) देकर बचाया जा सकता है। सोचा, अब तो जो होना था हो चुका है, एक आखिरी प्रयास मैं सी पी आर दे कर लेता हूं, शायद हृदय फिर से धड़कना शुरू कर दें! हालांकि सी पी आर के बारे में मैं पूरी तरह भिज्ञ नहीं था मुझे बस इतना ही पता था कि इसमें हथेलियों से मरीज की छाती को दबाया जाता है और दबाने की गति एक मिनट में कम से कम सौ बार की होनी चाहिए। और ऐसे मामले में इसे दो मिनट के अंदर शुरू कर देना चाहिए!  अब बिना समय गंवाए मैंने सी पी आर देना शुरू कर दिया था। 
       
          हथेलियों से ड्राइवर के सीने को बिना रुके लगातार पंच करते हुए सात-आठ मिनट हुए होंगे, जब मैंने उसके बाएं हाथ की दो अंगुलियों में तनिक सी हरकत देखी! इसे देखकर सोचा  शायद इसके पीछे सी पी आर देते समय शरीर का हिलना कारण हो, लेकिन दूसरे ही क्षण मुझे आभास हुआ, नहीं  शायद यह जीवन लौटने का लक्षण है! मैंने वैसे ही उसके हृदय को पंच दिए जा रहा था। मुझे उसके हाथ में बल आता जान पड़ा। मैं सी पी आर दिए जा रहा था। अचानक मुझे उसकी खुली ठस आंखों की पलकों में थोड़ी सी हलचल होती जान पड़ी! लगा जैसे उसकी पलकें झपकाने की कोशिश में हों! मुझे उसका जीवन लौटता जान पड़ा! अभी भी मेरी हथेलियां उसके सीने को पंच कर रही थी। मुझे लगा जैसे वह अपना हाथ मोड़ना चाहता हो! ठीक यही क्षण था जब उसके मुंह से आवाज भी आई! इसके बाद भी मैं पंच देता रहा, अब हर पंच के साथ उसके मुंह से यह आवाज आने लगी थी! और मुझे उसकी चेतना भी लौटती जान पड़ी। उसका जीवन लौट आया, मुझे यह विश्वास हो गया! अब तक मेरे हाथ भी बेतरह थक चुके थे, मैं पसीने से तरबतर लगभग निढाल पड़ चुका था! लेकिन उसे पूरी तरह होश में लाने तक मैं सी पी आर देते रहना चहता था। मैंने किसी दूसरे से पंच देने के लिए कहा। अभी उसने कुछ पंच दिए ही थे कि मैंने ड्राइवर को कुछ इशारा करते हुए देखा न। अब मैंने सी पी आर की प्रक्रिया को रोकने के लिए कहा। मेरे ड्राइवर का जीवन लौट आया था, किसी फिल्म की कहानी जैसे!! और मेरे लिए यह वैसे ही था जैसे मृत्यु के बाद किसी का जिंदा हो जाना!!
      
       ईश्वर से हम सब प्रार्थना करें कि मेरे ड्राइवर को शीघ्र स्वस्थ कर दें, हां  जीवन इतना अनिश्चित भी नहीं होता। ऐसी स्थिति आए तो हम अवश्य किसी का जीवन बचा सकते हैं!!!

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी तेरे ही नाल सरोवर पानी!


      धरती के पास सब कुछ होते हुए भी यह धरती अब कुम्हलाने लगी है....सुहृद मित्रों! आज मेरा मन जंगल में एकांतवास करने का हो रहा था। संयोग से आज पंचायत दिवस भी मनाया जा रहा था, इसके लिए श्रावस्ती जनपद में सिरसिया ब्लाक की एक ग्राम पंचायत में भी जाना हुआ। तो आज एक पंथ दो काज हुआ, क्योंकि यहां श्रावस्ती में जो जंगल है अर्थात सुहेलवा रेंज, इसी विकास खंड के नेपाल बार्डर की सीमा पर अवस्थित है, मानिए कि यह जंगल ठीक हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत श्रेणी के पैर पर है, जो यहां से शुरू होकर नेपाल में पर्वत श्रृंखलाओं की ऊँचाइयों तक चला जाता है। जंगल के मामले में श्रावस्ती जनपद भी तराई के अन्य जनपदों की तरह ही महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका प्रचार-प्रसार कम हुआ है। सुहेलवा जंगल के आसपास के गांवों में जंगल के बीच से बहकर आते नालों के कटान एक दर्शनीय स्थल का निर्माण करते हैं और जंगल के किनारे के गाँव भी दर्शनीय बन पड़ते हैं। हलांकि यह अप्रैल का महीना है, अभी पतझड़ का मौसम चल रहा था इसलिए यहां जंगल में हरीतिमा की कोंपल अभी बस फूटने ही वाली हैं, इसके बाद इस जंगल की हरियाली देखते ही बनेगी। 
         तो, आज मैंने तय किया था कि मुझे इस जंगल के उस भाग में जाना है, जहां दो पैरों वाले जीवों की आवाजाही कम होती हो, क्योंकि वही स्थान अपने मूल प्राकृतिक स्वरूप मे हो सकता है। सुहेलवा रेंज में एक रजिया ताल का नाम मैंने सुन रखा था, वहीं जाने का फैंसला किया। यहां लोगों की आवाजाही कम या लगभग नहीं के बराबर होती है। वैसे इसी क्षेत्र में सोनपथरी नामक एक दर्शनीय प्राकृतिक स्थल भी है लेकिन यहां एक धार्मिक आश्रम होने के कारण इसकी एकांतिकता भंग हुई सी रहती है। इसलिए मैंने आज रजिया ताल को चुना। यहां पहुंचने के लिए गाँव छोड़ने के बाद जंगल में छह-सात किमी अंदर कच्चे रास्ते पर चलना होता है। यह रास्ता एस‌एसबी जवानों के वाहनों एवं वन विभाग के वाहनों के आवाजाही और उन वाहनों के पहियों से निर्मित लीक से बना है, जिस पर बारिश के दिनों में नहीं चला जा सकता। खैर मौसम सूखा होने से हम लोग वहां आसानी से पहुंच ग‌ए। आगे जाकर यह रास्ता नेपाल की सीमा में प्रवेश कर जाता है, जहां से ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं का प्रारंभ है।

           रजिया ताल पर पहुंचने पर मैंने देखा कि दो लोग इस ताल में मछली के कांटे लगाए बैठे थे, लेकिन हमें देखते ही डर के मारे खिसक लिए, वे इतना डरे थे कि अपना जूता भी नहीं पहन पाए। शायद वे पास में नेपाल के गांव से आए थे। यहां तालाब के किनारे चार-पांच सीमेंट के बेंच और तीन मंजिला एक वाच टावर बना है, बाकी जंगल के बीच यह ताल शांत सुरम्य वातावरण के बीच मानव हलचल से कोसों दूर पुराणों में वर्णित सरोवर जान पड़ा। कमल के पत्तों से भरे तालाब के किनारे रमण करते हुए मन यहां के प्राकृतिक सौंदर्य में खो जाना चाह रहा था! यहां बहुतायत में उड़ती हुई रंग-बिरंगी तितलियां यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य को अद्भुत जीवंतता प्रदान करती हुई जान पड़ रही थी।

       लेकिन मन ही मन मैंने अपने इस मन को समझाया कि हम मानव इतने जंजाल पाले हुए हैं कि अब जंगली बन पाना असंभव है..!

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

छुट्टा सांड़

उस दिन मैं सुबह टहलने नहीं गया, क्योंकि शहर में था। पत्नी ने टहलने के लिए जाते समय इसके लिए मुझसे पूंछा भी था। होता क्या है कि जब मैं अपने होम सिटी में होता हूं तो सुबह टहलने के लिए नहीं निकलता। इसके पीछे मेरा अपना तर्क यह होता है कि अपने जाॅब प्लेस पर निवास करते हुए वहां रोज सुबह तो टहलता ही हूं। अब एक दिन न टहलने से क्या हो जाएगा! खैर, टहल कर पत्नी वापस आईं और मुझे बताया कि अब तो सुबह में सड़क टहलने वालों से भरी होती है। इसे सुनकर मैंने जैसे अपने सुबहचर्या पर इतराते हुए कहा, "हां मार्निंग वाक का अब काफी प्रचार हो चला है जैसे कि मैं स्वयं अपनी #सुबहचर्या के माध्यम से इसका प्रचार कर देता हूं!" जब मेरी इस बात पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं किया तो मैंने सुबह वाली चाय बनाने के लिए कहा। इस पर वे पहले चिड़ियों के चुगने के लिए बाहर बिस्कुट का चूरा डालने और वहां रखे मिट्टी के कटोरे में पानी भरने की बात कहकर चली गई। खैर चाय भी बनी और इसे पीते-पियाते आठ बज ग‌ए। चाय पीते हुए मैंने खिड़की से बाहर झांका, तो मुझे पेड़ की डाली पर एक बुलबुल फुदकती हुई दिखाई पड़ी, उसे देखते हुए मैंने पत्नी से कहा, यहां हमें और झुरमुटदार पौधे  लगाने चाहिए, जिससे बुलबुल के छिपने और उनके घोंसले के लिए सुरक्षित स्थान मिल सके। उन्होंने बाहर फाइकस के पेड़ों की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा, बहुत पौधे लगाएं हैं इनके लिए यहां पर्याप्त पौधे हैं। अभी मैंने बाहर जो मिट्टी के छिछले कटोरे में पानी भरा है इसमें बैठकर ये पंख को फड़फड़ा कर खूब नहाएंगी! और ऐसे ही ये रोज नहाती हैं और दिन भर यहां फुदकती हैं।" मैंने मन ही मन सोचा पक्षी भी नियमित नहाते हैं, मतलब नहाना भी एक प्राकृतिक क्रिया है और महत्वपूर्ण भी है। खैर अब मैं गौरैयों के बारे में सोचकर कहा, अपने यहां गौरैया के तीन घोंसले भी तो लगे हैं!" पत्नी ने कहा, देखते नहीं इसीलिए तो दिनभर ये भी यहां फुदकती रहती हैं। इसके साथ ही बढ़‌ई को बुलाकर ऐसे ही और घोंसले बनवाने की बात कही। 

            चाय पीकर मैं बाहर बरामदे में आया, वहां पानी भरे उस पकी मिट्टी के कटोरे के चारों ओर पानी की छींटें पड़ा दिखाई दिया। मैं समझ गया कि बुलबुल ने इस कटोरे में बैठकर खूब नहाया होगा और इसमें बैठकर पंख फड़फड़ाया होगा! इसी बीच मेरी दृष्टि एक गौरैया पर पड़ी वह एक उड़ते हुए कीड़े को पकड़ने के लिए उसके पीछे-पीछे फुदक रही थी, कीड़ा ऊपर की ओर उड़ा तो वह भी उसके पीछे उसे पकड़ने के लिए उड़ चली।

            इसे देखकर मैंने पत्नी को पुकार कर कहा, देखो, तुम्हारे बिस्कुट के चूरे गौरैया नहीं खाती, इसीलिए यह कीड़ा पकड़ने के लिए उसके पीछे उड़ रही है। इससे तो ये गौरैया भी मांसाहारी बन जाएंगी। थोड़ा इधर-उ़धर चावल के किनके भी बिखेर दिया करो। पत्नी ने कहा, गौरैया कीड़े तो खाती ही हैं, और चावल का किनका ये नहीं चुग पाती। पड़ोसी इनके लिए दाना डालती हैं, ये वहां भी चुगते हैं। और यहां बिस्किट के चूरे भी चुगते हैं। इन गौरैयों की यह आदत बन चुकी है। यदि कहीं किसी और स्थान पर कुछ डाल दें तो ये वहां नहीं जातीं। 

             खैर मैं फिर कमरे में लौट आया था। अखबार के किसी पन्ने पर पर्यावरण से संबंधित समाचार पढ़कर यकायक मेरा ध्यान बीती सांझ लखनऊ के शहीद पथ पर मिले एक आटो ड्राइवर की ओर चला गया। दरअसल घर आने के लिए मैं बस से उतरकर आँटो की तलाश में था। एक आटो वाला दो महिला सवारी बैठाए हुए मेरे बगल में आकर रुका। उसने मुझसे मेरा गंतव्य पूँछा और मुझे बैठाना चाहा लेकिन मैं आटो रिजर्व करके जाना चाहता था। उसने कहा कि इन महिलाओं को उनकी मंजिल पर छोड़ते हुए मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचा देगा। लेकिन घर पहुंचने में बिलंब होने की बात कहकर मैंने उसके आटो में बैठने से इनकार कर दिया। इसके बाद उसने किराया बढ़ाते हुए यह भी कहा कि इन महिला सवारियों को उतारकर मुझे अकेले ले चलेगा। लेकिन आटो में बैठी हुई महिला सवारियों को देखते हुए मैंने उसके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और वहीं पास में खड़े एक दूसरे आटो वाले की ओर मुखातिब हुआ। इसने भी वही किराया बताया जो पहले वाले ने बताया था। मैं इसमें बैठ गया। लेकिन किराया समान होने पर भी पहले वाले आटो में मेरे न बैठने का कारण जानकर उसने मुझसे कहा , "किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए" और उसने पहले वाले आटो की ओर अपना आटो बढ़ा दिया। जो अभी भी तीसरी सवारी की प्रतीक्षा में था। उसके पास ले उसने सवारियों की अदला-बदली कर उसने उन महिलाओं को अपने आटो में बैठाया और मुझसे उसमें बैठने के लिए कहा। मैं भी यंत्रचालित सा बिना किसी प्रतिक्रिया के उसी पहले वाले आटो में बैठ गया। 

          शहीद पथ पर चलते समय आटोड्राइवर मुझसे बात भी किए जा रहा था। बिना किसी लाग लपेट के वह बातें कर रहा था। उसकी बातें दिलचस्प भी थी। लेकिन बात-बात में उसके मुंह से गाली भी निकल जाती। खैर इसी बीच एक टैम्पो काला धुँआ फेंकते हुए आगे बढ़ा तो आटो ड्राइवर ने उसे भद्दी गाली देते हुए मुझसे कहा, देखिए यह डीजल फेंक रहा है, पर्यावरण की ऐसी की तैसी किए दे रहा है.." जब मैंने उससे कहा, इसे कोई रोकता क्यों नहीं, तो उसने एक बार फिर भद्दी गाली देकर कहा कि जब ले रहे हैं तो कौन रोकेगा!" मैं एकदम चुप था, शायद उसके गुस्से और गाली देने के अंदाज से भी मैं सहम गया था। सोचा, जो चीज इसके मन की नहीं, यह उसे गाली से नवाज़ता होगा। वह अपने मन में मुझे भी गाली न दे, मैंने उसे सफाई दिया कि मैं पहले क्यों नहीं उसके आटो में बैठा था। क्योंकि इससे उसके आटो में बैठी महिलाएं परेशान होती। 

        अब मैंने शहीद पथ पर निगाह दौड़ाया, गजब का ट्रैफिक था ! इसे देखते हुए सोचा, हमारी सारी सम्पन्नता और अर्थव्यवस्था इस धरती की कीमत पर ही है। पर्यावरण की दृष्टि से कोरोना काल कुछ सुकूंनभरा था, लेकिन अब तो जैसे सब छुट्टा सांड हुए पगलाए भागे जा रहे हैं। मैं भी तो ऐसे ही भाग रहा हूं।

         इस संसार में हर एक चीज के नष्ट होने की एक अवधि तय है, और धरती के नष्ट होने की अपनी एक अवधि तय है! लेकिन दुनियां में अर्थव्यवस्था बढ़ाने की ललक इस धरती को उसकी इस तय अवधि से पहले ही नष्ट कर देगी। 

         मैंने अखबार मोड़कर रख दिया, क्योंकि इसमें और कुछ खास पढ़ने को नहीं था।