...ट्रेन से उतरते
ही पिताजी का फोन आ गया..घर से किसी को स्टेशन मुझे लेने के लिए भेजना चाहते
थे...वैसे कोई सामान तो था नहीं मेरे पास...और मैं भी इस समय तक कूल माइंड का हो
चला था मतलब दिमाग पर कोई रूटीन कामवाला तनाव भी नहीं था...सोचा...आज पैदल ही
पुरानी यादों को ताजा करता हुआ गाँव चलूँगा... ।
हाँ.., ट्रेन के जाने के बाद ही मैं प्लेटफार्म
से नीचे आया..तमाम मोटरसाइकिल...ऑटो-टैम्पो वहाँ खड़े थे..और..रिक्शे वाले तो
इक्के-दुक्के ही दिखाई दिए...इनमें से कुछ तो अपने परिचितों को लेने आए रहे
होंगे....लेकिन ज्यादातर सवारियाँ ढूंढ रहे थे...अचानक मेरे दिमाग में कौंधा...अब यहाँ
इन वाहनों की इतनी भीड़...! पन्द्रह वर्षों पहले की बात याद आ गयी...तब...इस स्टेशन
पर किसी ट्रेन के आने पर छह-सात रिक्शे-वाले ही खड़े रहते थे...लेकिन अब काफी कुछ
बदल गया है...बदला नहीं तो वह पाकड़ का पेड़ और उसकी घनी छाया...उसकी घनी छाया में
गोमती में चलने वाली वह चाय की दूकान...! मैंने देखा उस चाय की दूकान पर भीड़ लगी
थी... ।
पुरानी यादों में खोया
सा मैं कुछ क्षणों तक वहीँ खड़ा रहा...फिर धीरे-धीरे कर गाँव की ओर चल
पड़ा...प्लेटफार्म के नीचे-नीचे पगडण्डी पकड़ मैं चलने लगा...कुछ कदम चलने के बाद
प्लेटफार्म पर के उस इमली के पेड़ को मैं खोजने लगा... “अरे..! यह तो वही इमली का
पेड़ है...लेकिन इसकी यह दुर्दशा...! इसकी तो कई डालें अब गिर चुकी हैं...यह पेड़ तो
अब किसी खण्डहर जैसा हो गया है...” असल में गाँव के प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई के बाद
मैं अपने इस कस्बे के इण्टर कालेज में उच्च प्राथमिक स्तर के साथ इण्टर तक की
शिक्षा पूरी की थी...और गाँव से उस कालेज तक आने-जाने के लिए इस प्लेटफार्म को ही
पैदल रास्ते के रूप में प्रतिदिन प्रयोग करते थे...क्योंकि...सड़क मार्ग से बाजार
का भी चक्कर लगाना पड़ता, उसकी अपेक्षा इस प्लेटफार्म से होते हुए गाँव से स्कूल की
दूरी कम हो जाती थी... “इस पेड़ के पास प्लेटफार्म के किनारे के रेलिंग के चौड़ी
पट्टी वाले दो छड़ अभी भी वैसे ही टूटे हैं....और...रेलिंग के नीचे की मिट्टी वैसे
ही है...बल्कि अब नीचे की मिट्टी कुछ अधिक ही कट-बह गयी है...आराम से इस रास्ते से
प्लेटफार्म पर चढ़ा जा सकता है..” सोचते-सोचते मैं थोड़ा झुकते हुए रेलिंग के नीचे
से आराम से प्लेटफार्म पर चढ़ गया...इमली के उस पेड़ को ध्यान से देखने लगा..।
बचपन में स्कूल
से लौटते समय इसी इमली के पेड़ पर चढ़ हम अपने साथियों के साथ इमली तोड़ने या खाने का
मजा लिया करते थे...हाँ तब यह पेड़ इतना घना हुआ करता था कि इसकी पत्तियों के बीच
हम बच्चे स्टेशन मास्टर से छिप कर इमलियाँ तोड़ते थे...और यदि हमारे ऊपर उनकी नजर
भी पड़ जाती तो इसके पहले कि वे हम तक पहुँचते हम उसी रेलिंग के कटे रास्ते से धीरे
से सरक लेते...लेकिन..अब कोई चिड़िया भी इस पेड़ पर बैठी हो तो वह दूर से दिख
जाएगी... ।
उस पेड़ को देखते ही
अचानक मोहन की छवि स्मृतियों में उभर आई...मोहन को हम लोग पागल मानते थे...शायद वह
पागल ही रहा होगा...चिथड़ों में लिपटा मोहन अकसर वहीँ इमली के पेड़ के तने के सहारे
बैठा मिल जाता...कोई कभी कुछ दे देता तो वह खा लेता...स्कूल से लौटते समय जब वह
दिखाई देता तो हम उससे पूंछते, “मोहन..वह जाता है..” मोहन झट से बोल देते “ही गोज..”
“मोहन..वह स्कूल जा रहा है” तो मोहन कहता “ही इज गोइंग टू स्कूल” यानी इसी प्रकार
वह हमारे द्वारा बोले गए वाक्यों का अंग्रेजी में अनुवाद करता जाता..हाँ कोई वाक्य
बोलने के पहले उसका नाम भी पुकारना अनिवार्य होता अन्यथा वह उत्तर नहीं देता था...स्कूल
से दिए गए ट्रांसलेशन के होमवर्क को वहीँ मोहन से पूँछ लेते और बदले में उसे इमली
तोड़ कर खिला देते..!
...मुझे याद
आया...उन दिनों पंजाब मेल और काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस में ही डीजल-इंजन लगता था
शेष सभी गाड़ियों में भाप के इंजन हुआ करते थे..इसी इमली के पास ही इंजन रुकता...कई
मैले-कुचैले कपड़े पहने लड़के उस भाप-इंजन से गिरे हुए जलते कोयले को एक लोहे की छड़
जिसका एक सिरा मुड़ा होता उससे उलट-पुलट कर बुझाते..और उन कोयले के टुकड़ों को अपने
झोले में रखते जाते..बाद में इसे बाजार में बेंच दिया करते थे..हम स्कूल जाते-आते
बच्चे अकसर जब कोई गाड़ी आकर खडी होती तो उसके भाप के इंजन को बड़े ध्यान से देखते
थे...ट्रेन-ड्राइवर गाड़ी के रुके होने पर भाप-इंजन के भट्ठी में जल रहे कोयले को
उलटता-पलटता था..इसी प्रक्रिया में इंजन से जलते कोयले पटरियों के बीच गिर पड़ते थे
या ड्राईवर अतिरिक्त जलते कोयले को गिरा देते रहे होंगे..।
...ट्रेन जाने के
बाद पटरियों के बीच से कोयला बीनते बच्चों के बीच हम एक विशेष बात देखते थे..। उन
बच्चों के साथ कोयला बीनने में वह कमली भी शामिल रहती थी जो कोयला बीन कर उन
बच्चों को ही दे दिया करती थी और वह एक पागल सी औरत थी...मैले कुचैले फटे-चिथड़े
धोती पहने हुए अकसर प्लेटफार्म के किसी न किसी छोर पर स्कूल जाते समय हमें दिखाई
दे जाती थी, हाँ..जब वह कोयला बीन रही होती तो कोयला बीनते बच्चों में से कोई बच्चा
जब उसे चिढ़ाता तो इमली के तने के सहारे बैठा मोहन भड़क उठता और कंकड़ उठाकर कुछ बड़बड़ाते
हुए कोयला बीनते बच्चों पर फेंकने लगता...! जब इस क्रिया को देखते तो हम भी
कभी-कभी कमली को चिढ़ाने की कोशिश मोहन की प्रतिक्रिया जानने के खेल में करते, तब मोहन
हमसे नाराज हो जाता और या तो वह हमें दौड़ा लेता या फिर हमारे कहे वाक्यों का
अंग्रेजी में अनुवाद करने की जगह मौन ही रहता..फिर तो हमें उसे मनाना पड़ता..। हम बच्चे कमली को मोहन की ‘मेहरारू’ कहते थे...लेकिन कभी भी हमने मोहन को कमली से बात
करते हुए नहीं देखा था...!
यह सिलसिला कुछ
वर्षों तक चलता रहा...धीरे-धीरे कर भाप के इंजन की जगह सभी गाड़ियों में डीजल इंजन
लग गए थे...एक दिन स्कूल जाते समय हमने देखा कि मोहन इसी इमली के पेड़ के नीचे बैठा
था, उसने अपने पास काफी मात्रा में ईंट के टुकड़े और कंकड़ जमा कर रखे थे और इन्हें
उठा-उठा कर देखता भी जा रहा था..! हमें कुछ अजीब सा लगा था, मैं उसके पास जाना ही
चाहता था कि किसी ने कहा वह ढेले फेंक कर मार देगा...फिर मैं दूर से ही जोर से
बोला था.. “मोहन...मैं स्कूल जा रहा हूँ..” मोहन ने बस मेरी ओर देखा लेकिन उसने
कोई उत्तर नहीं दिया तब हम कुछ समझ नहीं पाए थे और स्कूल की ओर चल पड़े थे...! इसके
बाद हमने ध्यान दिया कि मोहन जब भी किसी अनजाने से व्यक्ति को देखता तो उसे दौड़ा
लेता....और अकसर रोता रहता...! पता चला कि कमली कई दिन से गायब है...उसके साथ कोई
अनहोनी घट गई थी..., कुछ समय बाद किसी ने हमें बताया था कि कमली की मृत्यु भी हो
गई है..! ...अब मोहन हमारी बातों का कोई उत्तर नहीं देता था....! इस घटना के तीन
या चार वर्षों बाद मोहन भी इस दुनियाँ में नहीं रहा था, ...तब-तक हम कालेज भी छोड़
चुके थे....न जाने क्यों उस
इमली के पेड़ को देखते-देखते स्मृतियों के मानस-पटल पर क्षण भर में ये सारी बातें
सजीव हो उठी थी।
* * *
मैंने निगाह प्लेटफार्म पर दौड़ाई तथा दोनों प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले ओवरब्रिज की ओर देखा, ‘यह तो अभी हाल ही के वर्षों में बना है’ यह सोचते हुए मेरा इस बात पर ध्यान गया कि दो भिन्न किनारों को मिलाने वाला कोई पुल तो होना ही चाहिए जिससे सुरक्षित होते हुए बिना किसी बाधा के लोग अपने-अपने गन्तव्यों के अनुसार किनारों को चुन सकें...ऐसे किनारों को जोड़ने वाले पुलों की आवश्यकता भी है क्योंकि अब यात्री और ट्रेन दोनों की भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गई है या अनजाने में लोग किसी टकराहट से भी बच जाएँ..। ‘पहले दोनों प्लेटफार्म के सिरों पर रेलवे लाइन को क्रास करने के लिए मुश्किल से तीन या चार फीट की चौड़ाई में क्रासिंग-पथ बनाया गया था, इसी का प्रयोग लोग कभी-कभी प्लेटफार्म बदलने के लिए करते थे...इसके साथ ही ग्रामीण भी इसी रास्ते से रेलवे-लाइन को क्रास करते..हम भी प्रतिदिन स्कूल जाते समय इसी रास्ते का प्रयोग करते..।
* * *
मैंने निगाह प्लेटफार्म पर दौड़ाई तथा दोनों प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले ओवरब्रिज की ओर देखा, ‘यह तो अभी हाल ही के वर्षों में बना है’ यह सोचते हुए मेरा इस बात पर ध्यान गया कि दो भिन्न किनारों को मिलाने वाला कोई पुल तो होना ही चाहिए जिससे सुरक्षित होते हुए बिना किसी बाधा के लोग अपने-अपने गन्तव्यों के अनुसार किनारों को चुन सकें...ऐसे किनारों को जोड़ने वाले पुलों की आवश्यकता भी है क्योंकि अब यात्री और ट्रेन दोनों की भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गई है या अनजाने में लोग किसी टकराहट से भी बच जाएँ..। ‘पहले दोनों प्लेटफार्म के सिरों पर रेलवे लाइन को क्रास करने के लिए मुश्किल से तीन या चार फीट की चौड़ाई में क्रासिंग-पथ बनाया गया था, इसी का प्रयोग लोग कभी-कभी प्लेटफार्म बदलने के लिए करते थे...इसके साथ ही ग्रामीण भी इसी रास्ते से रेलवे-लाइन को क्रास करते..हम भी प्रतिदिन स्कूल जाते समय इसी रास्ते का प्रयोग करते..।
...ऐसे ही एक दिन मैं
इस रास्ते से लाइन को क्रास कर रहा था..शायद तब मैं आठवीं में था...अकस्मात् मुझे
सामने से एक लड़की आते हुए दिखाई पड़ी, वह उम्र में मुझसे थोड़ी बड़ी ही रही होगी, मैं
उसे रास्ता देने के लिए इस क्रासिंग-पथ से बायीं तरफ उतर गया ठीक उसी समय वह लड़की
भी मेरी ही ओर क्रासिंग पथ से नीचे उतर गयी...यह देख फिर से मैं उस क्रासिंग-पथ पर
आ गया इसी समय वह भी ऊपर आ गयी..अब मैं उसे रास्ता देने के लिए दायीं ओर हुआ तो वह
फिर मेरे सामने आ गयी..इस समय हम दोनों एक दूसरे के आमने-सामने खड़े थे..। अचानक मुझे
अपनी गाल पर एक जोरदार तमाचे का एहसास हुआ...मैं अपना गाल सहलाने लगा था...पीछे
मुड़कर देखा वह लड़की चली जा रही थी...हमें तब बहुत गुस्सा आया था...सोचा अभी दौड़कर
उसके पास जाऊं और उसे झिंझोड़ कर कहूँ तुम्हें ग़लतफ़हमी हुई है..लेकिन मेरे साथी आते
हुए मुझे दिखाई दिए थे...मुझे लगा वे मुझपर हँस रहे हैं...मैं भी शर्मा सा गया था
और गाल सहलाते स्कूल की ओर बढ़ चला..’ इस स्मृति के साथ ही मेरा हाथ मेरे गाल पर
चला गया जैसे अभी-अभी चाँटा पड़ा हो..,मेरा ध्यान भंग हुआ...मन ही मन मुस्कुराने
लगा..अब-तक प्लेटफार्म यात्रियों से खाली हो गया था।
* * *
मैं प्लेटफार्म के पूर्व दिशा में स्थित अपने गाँव की ओर मुड़ा और धीरे-धीरे अपने कदम घर की तरफ बढ़ाने लगा... “अरे..यह क्या..! प्लेटफार्म को इतना लम्बा किया जा रहा है..” घर की तरफ आगे कदम बढ़ाते हुए प्लेटफार्म की लगभग बढ़ाई गई लम्बाई को देखकर मैंने यही सोचा..। पहले इमली के पेड़ के पास ही प्लेटफार्म की सीमा समाप्त होती थी तथा हिंदी और उर्दू में ‘बादशाहपुर’ का बोर्ड लगा होता था...तब इस नाम को उर्दू में लिखने का अभ्यास मैं इसी बोर्ड को देखकर किया करता था...लेकिन सीख नहीं पाया भूल भी जाता था...! अब यही बोर्ड पूर्वी छोर पर स्थित केबिन के पास लग गया है अर्थात प्लेटफार्म की लम्बाई वहां तक बढ़ा दी गयी है, केबिन का अस्तित्व तो कब का समाप्त हो चुका था..। हाँ..उस नवनिर्मित प्लेटफार्म पर चलते हुए मेरा ध्यान रेल की पटरियों की ओर चला गया, तब स्कूल से आते समय जैसे ही हम प्लेटफार्म से नीचे उतरते हम बच्चों में आपस में इस पटरी के ऊपर बैलेंस बनाकर चलने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती और जिसका पैर पटरी से नीचे पहले पड़ता उसकी हार मान ली जाती..। इन्ही स्मृतियों के सहारे मैं अब उस स्थान पर पहुँच गया था जहाँ रेलवे लाइन को छोड़ अपने गाँव की ओर जाने वाली पगडण्डी को पकड़ना था...उस पगडण्डी को पहचानने की कोशिश की लेकिन वह पगडण्डी अब मिट चुकी थी...!
...किसी तरह पुरानी यादों के सहारे मैं रास्ता तलाश कर कुछ आगे बढ़ा तो मुझे सी.सी. रोड दिखाई दिया... ‘यहाँ तो अब सी.सी. रोड बन गयी है..’ इसे देख मैं अपने गाँव की दिशा की ओर इसी मार्ग पर चलने लगा| इस मार्ग के किनारे एक-दो पक्के घर भी बने हुए थे...! हाँ..पहले यहाँ ऊसरीली रेह से भरी पगडंडी हुआ करती थी, कभी-कभी मैंने धोबियों को इस पर से कपड़े धोने के लिए रेह इकठ्ठा करते हुए देखा था.. । खैर आगे करीब दो-सौ मीटर जाने के बाद इस रास्ते का अंत हो गया था, इसके किनारे पर पहुँच कर मैं खड़ा हो गया, अब आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था क्योंकि पुरानी उस पगडण्डी का कोई चिह्न भी अवशेष नहीं था, वहाँ खेत बनाए जा चुके थे और उन खेत की मेड़ों को देखकर ऐसा लगा जैसे अब कोई इस रास्ते से नहीं आता...! ‘मुझे कोई बाहरी न समझ ले और एक अजनबी सा कहीं मैं टोका-टाकी का शिकार न हो जाऊं..’ मेड़ों के बीच रास्ता खोजते एक क्षण तो मैंने यही सोच लिया था..।
मैं प्लेटफार्म के पूर्व दिशा में स्थित अपने गाँव की ओर मुड़ा और धीरे-धीरे अपने कदम घर की तरफ बढ़ाने लगा... “अरे..यह क्या..! प्लेटफार्म को इतना लम्बा किया जा रहा है..” घर की तरफ आगे कदम बढ़ाते हुए प्लेटफार्म की लगभग बढ़ाई गई लम्बाई को देखकर मैंने यही सोचा..। पहले इमली के पेड़ के पास ही प्लेटफार्म की सीमा समाप्त होती थी तथा हिंदी और उर्दू में ‘बादशाहपुर’ का बोर्ड लगा होता था...तब इस नाम को उर्दू में लिखने का अभ्यास मैं इसी बोर्ड को देखकर किया करता था...लेकिन सीख नहीं पाया भूल भी जाता था...! अब यही बोर्ड पूर्वी छोर पर स्थित केबिन के पास लग गया है अर्थात प्लेटफार्म की लम्बाई वहां तक बढ़ा दी गयी है, केबिन का अस्तित्व तो कब का समाप्त हो चुका था..। हाँ..उस नवनिर्मित प्लेटफार्म पर चलते हुए मेरा ध्यान रेल की पटरियों की ओर चला गया, तब स्कूल से आते समय जैसे ही हम प्लेटफार्म से नीचे उतरते हम बच्चों में आपस में इस पटरी के ऊपर बैलेंस बनाकर चलने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती और जिसका पैर पटरी से नीचे पहले पड़ता उसकी हार मान ली जाती..। इन्ही स्मृतियों के सहारे मैं अब उस स्थान पर पहुँच गया था जहाँ रेलवे लाइन को छोड़ अपने गाँव की ओर जाने वाली पगडण्डी को पकड़ना था...उस पगडण्डी को पहचानने की कोशिश की लेकिन वह पगडण्डी अब मिट चुकी थी...!
...किसी तरह पुरानी यादों के सहारे मैं रास्ता तलाश कर कुछ आगे बढ़ा तो मुझे सी.सी. रोड दिखाई दिया... ‘यहाँ तो अब सी.सी. रोड बन गयी है..’ इसे देख मैं अपने गाँव की दिशा की ओर इसी मार्ग पर चलने लगा| इस मार्ग के किनारे एक-दो पक्के घर भी बने हुए थे...! हाँ..पहले यहाँ ऊसरीली रेह से भरी पगडंडी हुआ करती थी, कभी-कभी मैंने धोबियों को इस पर से कपड़े धोने के लिए रेह इकठ्ठा करते हुए देखा था.. । खैर आगे करीब दो-सौ मीटर जाने के बाद इस रास्ते का अंत हो गया था, इसके किनारे पर पहुँच कर मैं खड़ा हो गया, अब आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था क्योंकि पुरानी उस पगडण्डी का कोई चिह्न भी अवशेष नहीं था, वहाँ खेत बनाए जा चुके थे और उन खेत की मेड़ों को देखकर ऐसा लगा जैसे अब कोई इस रास्ते से नहीं आता...! ‘मुझे कोई बाहरी न समझ ले और एक अजनबी सा कहीं मैं टोका-टाकी का शिकार न हो जाऊं..’ मेड़ों के बीच रास्ता खोजते एक क्षण तो मैंने यही सोच लिया था..।
मैंने अपने बाएँ देखा..
‘अरे मंडी की चहारदीवारी यहाँ तक पहुँच गई है..’ हाँ उस चहारदीवारी के उस पार मंडी
के कई भवन और शेड बन चुके थे, बचपन में इस रास्ते से स्कूल जाते समय यह मंडी नहीं
बनी थी लेकिन अपना यह क़स्बा छोड़ने के कुछ वर्षों बाद ही इस ‘मंडी-समिति’ का निर्माण
कराया गया था..। अब तो यहाँ काफी चहल-पहल रहती है, पहले इस क्षेत्र में सिंचाई की
सुविधा न होने से लोग अधिकांशतया अरहर की ही खेती करते थे और वे अरहर के खेत बहुत
हरे-भरे दिखाई देते..| ‘लेकिन जब खेत ही नहीं बचेंगे तो फिर मंडी का क्या काम..’ सोचते
हुए मैंने देखा कि बाजार से आनेवाली सड़क जो मंडी और मेरे गाँव से होकर आगे जाती है
उसके किनारे-किनारे अब लोगों ने मकान और दूकान बना लिए हैं, जो मेरे घर तक फैलते
चले गए है..! फिर भी मैं आज खेतों के बीच से गाँव जाने का अपने स्कूली दिनों का
वही पुराना रास्ता तलाशने लगा, लेकिन..! अब वह रास्ता कहाँ मिलता..., शायद वह कब
का मिटा दिया गया है क्योंकि स्टेशन से गाँव के बीच लोगों की आवाजाही अब सड़क से ही
होने लगा है...पता नहीं क्यों मुझे इन पगडंडियों के मिटने का दुःख भी हुआ..! ‘बचपन
में इन पगडंडियों से न जाने क्यों मुझे प्रेम था...घासों के बीच में पतली सी पगडंडियाँ
मुझे सदैव आकर्षित किया करती थी...इन पर मैं खूब दौड़ लगाया करता था...!’ अपने इन्हीं
विचारों में खोया-खोया सा मैं खेतों के टेढ़े-मेढ़े मेड़ों को ही रास्ते के रूप में
प्रयोग करना आरम्भ कर दिया.।
मेड़ों के बीच आड़े-तिरछे
चलने की आदत कब की छूट चुकी है, किसी तरह सँभलता हुआ मैंने अपने दायीं ओर देखा, हाँ..वहाँ
से थोड़ी दूर ‘ठाकुर की चक्की’ अब नहीं है..! तब वहाँ एक पम्पसेट भी हुआ करता था, उसके
चारों तरफ गर्मी के दिनों में भी गजब की हरियाली रहा करती थी...! पपीता, शहतूत,
आम, अमरुद, नीम आदि तरह-तरह के पेड़ों से घिरा हुआ पंचवटी जैसा वह स्थान हुआ करता..। कई बार हम वहाँ ‘आटा पिसाने’ या शहतूत खाने गए हैं, शहतूत जैसे पेड़ों से प्रथम परिचय
मैंने वहीँ प्राप्त किया और डीजल इंजन की ‘पुक-पुक’ की मधुर आवाज दूर से कानों को
बड़ी सुहावनी लगती थी...! हालांकि वहाँ की एक दुखद स्मृति भी उभर आई, उस परिवार का
एक होनहार युवा, चक्की के मशीन के पट्टों में फँस कर अपनी जान गँवा बैठा था..! लेकिन
आज वहाँ इन सब का कोई निशान अवशेष दिखाई नहीं दे रहा है, मैंने उस स्थान को
पहचानने की कोशिश की ‘अरे वह छोटा सा मंदिर तो ठीक चक्की के बगल वाला ही हैं’
हाँ..इसी मंदिर से मैंने उस चक्की वाले स्थान को दूर से पहचाना, अब वही अकेला
मंदिर बचा है...!
चलते
हुए ही मैंने उन आम के पेड़ों को तलाशना शुरू किया जो हमारे स्कूल आने-जाने के रास्ते
के ही बीच में पड़ता, ‘लेकिन अब यहाँ दो पेड़ ही बचे हैं वे भी जैसे लकड़ा गए हों; अब
इनमें फल भी क्या लगते होंगे’ मन में यही विचार उठे उन दो आमों के पेड़ों को
देखकर...! असल में स्कूली दिनों में वहां कई पेड़ हुआ करते थे उनमें से एक पेड़ का
आम अपने कच्चेपन में भी बहुत मीठा हुआ करता...अकसर ‘टिकोरा’ लगने पर स्कूल
आते-जाते हम, लोगों की आँखों से बच-बचा कर उन्हें तोड़ने का प्रयास करते थे, एक बार
तो गर्मियों की छुट्टियों में अपने खानदानी चचेरे भाई के साथ भरी दोपहरी में झोले
लेकर चोरी से उन कच्चे ही मीठे आमों को तोड़ने आया था..! हाँ, तब मैं कई दिनों तक
इस बात से डरता रहा था कहीं मेरे बाबू यानी दादा जी को पता न चल जाए...! हालांकि
दादा जी के डर के कारण ही मैं उन तोड़े गए आमों को घर नहीं ले जा सका था...इन यादों
के ताजा होने पर मेरे होठों पर पुनः मुस्कान तैर गयी..।
इन्हीं यादों में
खोया हुआ मैं अपने घर की ओर आगे बढ़ चला... ‘अरे यह क्या यहाँ जो मैदान जैसा स्थान
था...वह क्या हुआ...और तो और...इसी स्थान पर बहुत पहले ईंट का भट्ठा हुआ करता
था... ‘एक बार जब यह भट्ठा चल रहा था, मैं बहुत छोटा था, तो ऊपर पकती ईंटों पर चढ़
गया तब मेरा पाँव जलने लगा था...’ इस स्मृति के साथ उस भट्ठे का अवशेष खोजने
लगा...जिसका अब कोई नामोनिशान नहीं बचा है..! इन स्थानों की मिट्टियाँ खोद कर उन
स्थलों को गड्ढे में बदल दिया गया है, शायद मिट्टी-माफिया ने यहाँ से मिटटी खोद कर
बेच डाली है..| पास में थोड़ी दूर पर प्लाटिंग का भी कार्य चल रहा है..? तो क्या अब
बड़े शहरों का रोग यहाँ भी लगने वाला है’ चलते-चलते अपने अगल-बगल के स्थानों को देख
कर मैं यही सोचने लगा और आगे बढ़ चला....,
‘यहाँ की झाड़ियाँ
कहाँ चली गई...वे बेचारे खरगोश अब कहाँ छिपते होंगे..’ मैंने चलते ही उन झाड़ियों
को खोजने का प्रयास किया जिसमें से स्कूल आते-जाते समय कई बार खरगोश को उनमें से
निकल कर भागते हुए देखा था..., कई बार तो ऐसा भी हुआ कि जैसे ही झाड़ियों से निकल
कर खरगोश भागता हम भी अपना बस्ता वहीँ पास में ही किसी पेड़ की डाली पर लटका उस
खरगोश को पकड़ने उसके पीछे भाग लेते, लेकिन कुलाँचे भरता खरगोश इधर-उधर भागता हुआ आँखों
से ओझल हो जाता, फिर हम लौट बस्ते ले घर की ओर चल पड़ते..। अब तो उनमें से वहां उन
झाड़ियों के ही साथ कोई पेड़ भी नहीं बचा है, हाँ..वहाँ उस निर्जन स्थान पर के नीम
या महुआ के पेड़ों की एक विशेष बात देखी थी..! उन पेड़ों पर अकसर कौओं के ही घोसले
हुआ करते थे, लेकिन खरगोश, झाड़ियाँ और पेड़ अब इन पगडंडियों के साथ ही ओझल हो चुके
हैं..!
अब यहाँ से मेरे खेत दिखाई देने लगे थे, दूर से
ही मैंने देखा, पकी गेहूँ की फसलें वहाँ खड़ी थी, मेरे खेतों के उस पार बगीचे पर
मेरी निगाह पड़ी.. ‘पहले आम और महुआ के कितने बड़े-बड़े पेड़ थे...! अब तो आम के पेड़ों
का तो अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है और ले दे के दो ही महुआ के पेड़ दिखाई दे रहे
हैं और इनकी भी इतनी दूर से डालियाँ भी गिनी जा सकती हैं...! मतलब वे कभी हरियाली
से झूमने वाले पेड़, अब मात्र पेड़ होने के अवशेष में बदल चुके हैं..!’ सोचते हुए
मैंने देखा कि दूर से ही पूरे बाग़ में विलायती बबूल के हरे-भरे पेड़ ही अब दिखाई दे
रहे हैं.., ‘तो क्या अब बच्चे यहाँ नहीं घूमते होंगे..’ बात यह है कि बचपन में हम
बच्चे अकसर गर्मियों में इन्हीं आमों या महुआ के पेड़ों के नीचे भरी दोपहरी में खेलते
रहते थे..| इन्हीं सब में खोया-खोया मैं अपने खेतों के बीच आ गया था, देखा, गेहूँ
की पकी बालियाँ हाल ही की बेमौसम की बरसात के कारण कुछ-कुछ काली सी दिखाई दे रही
थी तो कुछ गेहूं की फसल गिरी पड़ी थी, ‘प्रकृति ने भी अब अपने रंग-ढंग बदल लिए हैं,
इस मौसम में बारिश..!’ मन में यही विचार कौंधा।
अपनी स्मृतियों को
टटोलते-टटोलते अब मैं वहाँ पहुँच चुका था जहाँ से मेरे खेत की सीमा समाप्त हो कर
बाग़ की सीमा शुरू होती है... “बचपन में यहाँ से सीधे घर तक पगडंडी लगी होती थी..और
तो और...कई दिशाओं की ओर तमाम पगडंडी भी फूटती थी यहाँ से..! लेकिन अब उनमें से
किसी एक का भी अस्तित्व शेष नहीं, हाँ...मन को एक अजीब से उल्लास में भर देने वाली
वे पगडंडियां अब नहीं हैं, इन्हीं पगडंडियों पर बचपन के कोमल नंगे पैरों से पतझड़
में गिरे सूखे पत्तों को रौंदते हुए इसकी आवाजों में मगन, पैरों में गड़े देशी बबूल
के काँटों को निकालते हुए ‘बित्ती रैया बनगो रैया..रैया..रैया..’ कहते हुए दौड़
लगाया करते थे..!” इन यादों के साथ ही मैंने देखा कि बाग़ भर में वही विलायती बबूल
के पेड़ बिखरे पड़े हैं और उनके काँटे भी इस जमीन पर भरे पड़े हैं, इनके बीच से जाना
भी मुश्किल है...! ‘अब सड़क से ही मुड़ कर घर तक पहुँचना होगा..’ फिर मैं पास से ही
गुजरती सड़क पर हो लिया.. ।
* * *
घर पहुँचा तो देखा, माँ
और पिता मेरा इंतजार कर रहे थे..., उनके चेहरों पर वृद्धावस्था का प्रकोप कुछ
ज्यादा ही बढ़ता दिखाई दे रहा था...| मुझे देखते ही माँ बोली, ‘अरे..स्टेशन से आने
में इतनी देर लग गई...’ मैंने कहा, ‘बस कुछ घूमते हुए से आ रहा था...’ अब माँ ने
फिर कहा, ‘बहुत अच्छा किए इस बार अपनी गाड़ी से नहीं आए..., हम लोगों का जी डरा
रहता है...’ फिर माँ मेरे लिए पानी लाने चली गयीं... ।
दोपहर का हम खाना खा
चुके थे, पिता से इधर-उधर की चर्चा चल रही थी..। उन्होंने कहा, ‘अब सबेरे भी एक
गाड़ी जाने लगी है, उससे जाने की सुविधा हो गयी है..’ यह कहते हुए जैसे मुझे सबेरे
तक रुकने की बात वह कहना चाह रहे हों, मैं कुछ नहीं बोला था...! फिर कुछ देर बाद
पिता जी किसी काम से कहीं चले गए थे, मुझ पर भी थकान अपना असर दिखाने लगा और मुझे
झपकी सी आ गई। कुछ देर बाद आँखें खुली तो देखा माँ पास में ही बैठी थी, वह बच्चों
का हाल-चाल पूंछने लगी थी, मैं भी ‘हाँ..हूँ..’ में ही जबाव देता रहा...मुझे शाम
को फिर वापस जाना था...एक अजीब सी उदासी मन में घेरे हुए थी...मन को निर्दय बनाना
था...इसीलिए तो माँ से बातों में नहीं उलझना चाहता था...बार-बार मन पिता जी के
वापस आने का इंतज़ार करने लगा था..क्योंकि धीरे-धीरे ट्रेन का समय हो रहा था...पिता
जी कहीं मोटर साइकिल से गए थे| वह वापस आ रहे थे, उन्हें मोटर साइकिल चलाते देख
मैंने सोचा, ‘अब इस उम्र में इनसे मोटरसाइकिल सँभलना मुश्किल हो रहा होगा..’ अब तक
वे मोटर साइकिल खड़ी कर चुके थे, उन्होंने मुझे कपड़े पहने कहीं जाने के लिए तैयार जैसा
देखा, उनकी निगाहें जैसे कुछ पूँछना चाह रही थी...मैं ही बोल पड़ा, “वो क्या है कल
ही एक बहुत जरुरी काम है इसीलिए आज ही शाम वाली गाड़ी से जाना पड़ रहा है..’ इसे सुन
वह कुछ नहीं बोले, मुझे देखते रहे, जैसे कहना चाह रहे हों सबेरे की गाड़ी से जाते
तो क्या ठीक न होता...लेकिन वे कुछ नहीं बोले...तब-तक माँ की आवाज हमें सुनाई
दी.., ‘घर में इस समय कोई लड़का नहीं हैं..बाबा..को आप ही स्टेशन छोड़ देते...’ पिता
ने हामी भर दी..।
...पिता मुझे स्टेशन
छोड़ने के लिए मोटरसाइकिल की किक मार रहे थे कई बार की किक के बाद यह स्टार्ट
हुई...‘सत्तर के ऊपर के हो चुके हैं पापा, इनसे यह मोटरसाईकिल सँभलने में अब
कठिनाई हो रही है’ हाँ यही सोचते हुए मेरे मन में एक क्षण के लिए विचार आया कि
मोटरसाइकिल हम उनसे ले और चलाते हुए स्टेशन तक उन्हें पीछे बैठा कर ले चलें और
वहां से ये फिर वापस आ जाएँगे...लेकिन...यह मन न जाने क्यों वर्षों पुराने निहायत
बचपन के दिनों में चला गया, तब स्कूटर हुआ करती थी और ऐसे ही पिता के पीछे बैठा
मैं चला करता था, न जाने क्यों आज उसी बचपन को एक बार फिर जीने का मन कर गया...एक
छोटे बच्चे सा पिता के साए में निश्चिन्त हो जाने का एहसास लिए मैं क्षण भर के लिए
इस कठोर वर्तमान को विस्मृत कर गया और उनके पीछे मोटरसाइकिल पर उझक कर बैठ गया
था...!
हाँ वह मोटरसाइकिल
चलाते हुए ही बोले थे, ‘अब यह बहुत भारी लगने लगी है, मुझसे संभलती नहीं...’ मैं
भी बोल उठा, ‘हाँ यह तो सही है..’ फिर पिता बोले, ‘अरे एक दिन तो यह गिर पड़ी
थी..संयोग था..बच गए नहीं तो पैरों पर चोट लग जाती....’ इसी तरह बात करते-करते
स्टेशन आ गया था, उन्होंने मोटरसाइकिल रोकी शायद किसी ने उन्हें नमस्कार किया
था..हाँ वह पाकड़ के नीचेवाला चायवाला ही था...मैं मोटरसाइकिल से उतर कर उन्हें
देखा...फिर मैंने प्लेटफार्म की ओर देखा, मैंने कहा, ‘लगता है अभी गाड़ी आने में
देर है...घर चले जाइए नहीं तो अँधेरा गहरा जाएगा...” यह सुन उन्होंने मेरी ओर देखा
जैसे कहना चाह रहे हों कि अँधेरा तो गहरा ही गया है..., इस समय मैं उनसे आँखें
नहीं मिलाना चाहता था और प्लेटफार्म की ओर ही देखे जा रहा था...! अब वह मोटरसाइकिल
पर बैठ उसे स्टार्ट कर चुके थे मैं भी प्लेटफार्म की सीढ़ियों की ओर बढ़ चला, अचानक
मैंने अपना चेहरा पिता को देखने के लिए उनकी ओर घुमाया, देखा..! वह धीरे-धीरे चले
जा रहे थे...मैं वहीँ स्थिर हो गया जैसे उन्हें भर-पूर आँखों से देख लेना चाहता
था...मैं...ऐसे ही जब तक वे ओझल नहीं हो गए तब तक उन्हें देखता रहा....असहाय सा जैसे
समय को क्षण-क्षण मुट्ठी से फिसलते हुए देख रहा था...अब वास्तव में अँधेरा काफी गहरा
गया था...!
-----------------------------------विनय