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शनिवार, 28 मार्च 2020

साम्यवाद का 'कोरोना-मिशन'

         इस साम्यवाद में बहुत धोखेदारी है, जब साम्यवाद विस्तारवादी राष्ट्रवाद में परिणत हो जाता है तो दुनियाँ को कोरोनामय कर देता है! हाँ साम्यवादी बुद्धि बहुत विचित्र तरीके से काम करती है| किसी जमाने में पूँजीवाद का विरोध इसका हथियार था और आज पूँजीवाद में छिपे लालच को इसने अपना हथियार बनाया हुआ है| इसके बल पर ही अब यह दुनिया पर कब्जे के लिए रणभेरी बजा रहा है, और दुनियां है कि सहमी हुई इसे देख रही है| इसे देखने के सिवा शेष विश्व के पास और कोई चारा भी तो नही! आज चीन की इसी साम्यवादी-विस्तारवादी प्रवृत्तियों ने दुनियाँ को डस लिया है| 
        
          अमेरिका हो या यूरोप, साम्यवादी-बुद्धि के खेल को समझ नहीं पाए! दरअसल इसमें अमेरिका, युरोप या भारत जैसे देशों का दोष नहीं है, लोकतंत्र में निहित उस खामी का दोष है, जिसे अभी तक पूँजीवाद को साधना नहीं आ पाया| लोकतंत्र ने इसे (पूँजीवाद) ही लक्ष्य मान लिया और इसी लक्ष्य ने साम्राज्यवादी-साम्यवाद को अवसर प्रदान किया| परिणामस्वरूप आज दुनियाँ कोरोना के डंक से कराह रही है, तथा लोकतंत्र किंकर्तव्यविमूढ़ है, आखिर ऐसा क्यों हुआ? 
          
          दरअसल पूँजीवाद में लोकतंत्रात्मक नहीं बल्कि अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ होती हैं और जो अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में लोकतंत्र की आत्मा का शिकार करती है| इस पूँजीवादी व्यवस्था के लिए समाज का वर्ग-चरित्र एक आवश्यक बुराई की तरह है, और जिस तरह से साम्यवाद वर्ग-चरित्र को नष्ट करने का ढोंग करता है उसी तरह से लोकतंत्र में भी यह ढोंग होता है| विशुद्ध पूँजीवादी देश अपने संसाधनों और अपनी बौद्धिक पूँजी के बल पर इस आवश्यक बुराई पर विजय पाने में कुछ हद तक सफल हुए हैं लेकिन इसके सफल होने की भी एक सीमा है और यहीं पर चीन जैसे देश को अवसर मिलता है| यदि विकसित यूरोप और अमरीका अपने नागरिकों के आर्थिक-जीवन में उपभोग के स्तर को कमतर नहीं देखना चाहते, तो चीन भी पूँजीवाद की चकाचौंध से अपने नागरिकों के बीच साम्यवाद की सफलता की कहानी लिखना चाहता है, यह बिना साम्राज्यवादी हुए संभव नहीं| इसीलिए चीन  दुनियां भर में बाजार खोजकर इनपर कब्जा जमाना चाहता है और फिर उसकी साम्यवादी सत्ता-व्यवस्थाएँ क्रूर से क्रूरतम होकर कोरोना जैसे वायरस को जन्म दे देती हैं| सच तो यह है कि यह चीन की साम्यवादी-साम्राज्यवादी कोरोना-मिशन है, क्योंकि समय रहते उसने शेष विश्व को इसके बारे में आगाह नहीं किया| 
       
        वाकई! लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ जहाँ पूँजीवाद के मकड़जाल में उलझकर, अर्थव्यवस्था, जीडीपी और आर्थिक-प्रगति की चिंता में इस 'कोरोना-मिशन' के सामने किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ी असहाय हैं वहीं स्वयं चीन के साम्यवाद के लिए भी एक घातक परिस्थिति बन रही है, क्योंकि शेष विश्व को कोरोना से यह भी सीख मिल रही है कि पूँजीवाद से आया शहरीकरण और उपभोक्तावाद तथा विभिन्न विचारों-मतों और धर्म की साम्राज्यवादी मनोवृत्तियाँ समग्र मानवता के लिए ख़तरनाक है; परिणामस्वरूप एक दिन सारा विश्व एकजुट होकर मानवता-विरोधी' कोरोना-मिशन' जैसी इन प्रवृत्तियों से लड़ रहा होगा और इस चीनी साम्राज्यवाद को खाद-पानी मिलना बंद हो जाएगा| इस नए विश्व में भारत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होने जा रही है|

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

'मरे' हुए 'विवेक' का कोरोना

          सुबह साढ़े पांच बजे नींद टूटी, लेकिन उस वक्त उठने का मन नहीं हुआ, मन जैसे प्रमादग्रस्त था। इस प्रकार मिनट दर मिनट गुजरते हुए सवा छह हो गए। कंबल झटक कर उठ खड़ा हुआ। फिर तय किया कि चलकर थोड़ा टहलकदमी किया जाए। आवास से बाहर निकला, लेकिन सड़क पर बढ़ती आवाजाही देखकर, उस पर जाने का मन नहीं हुआ। आवास के छोटे से कैम्पस से सड़क तक चहलकदमी करता रहा। एक चक्कर में सौ कदम होते हैं। खैर मन के कोने में थोड़ा पश्चाताप भी हुआ कि यदि और पहले टहलने निकल लेते तो सुबह के सौन्दर्य को ताक लेते! कभी-कभी सुबह इतनी खूबसूरत लगती है कि जैसे यह ठहर जाए। दरअसल सुबहें बिना लाग-लपेट की होती है और मन भी इस वातावरण में बिना लाग-लपेट के हो जाता है। ऐसे समय मन का सौन्दर्य भी निखर आता है और इसका आनंद ही कुछ और होता है, हाँ यही सुबह-ए-आनंद है! लेकिन सुबह ही क्यों, मन तो कभी भी बिना लाग-लपेट वाला हो सकता है।
          उस दिन घर की लाबी में बैठे हम पति-पत्नी आपस में कुछ बातें कर रहे थे, यही कोई दोपहर का वक्त था। अचानक बाहर से आता चिड़ियों की चहचहाहट का शोर सुनाई पड़ा। यह आवाज़ तेज हो रहा था। पत्नी किचेन में चली गई। वापस आकर रहस्यात्मक अंदाज में मुझे किचेन की खिड़की तक ले आईं और मुझे बाहर देखने के लिए इशारा किया। देखा! बाउंड्री वॉल के लोहे वाले ग्रिल पर गौरैयों का झुंड चीं-चीं करते हुए उड़-बैठ रहा था। दरअसल पत्नी ने खिड़की के ऊपर गौरैयों के लिए लकड़ी का एक घोंसला बनवा कर रखा है। गौरैयों को अपना चोंच उस घोंसले की ओर कर उन्हें चींचियाते देख मैंने पत्नी से कहा कि ये इस घोंसले पर कब्जे को लेकर आपस में झगड़ रही हैं। पत्नी अपनी इस सफलता पर प्रसन्न हो रहीं थीं कि उनका रखवाया यह घोंसला गौरैया चिड़ियों के काम आने वाला था। 
        हम दोनों कुछ क्षण तक इन गौरैयों के इस झगड़े को निहारते रहे। अचानक! पत्नी ने किचेन की खिड़की से घोंसले के ओर झाँका और मुझसे बोल पड़ी, "अरे! बात यह नहीं है, इस घोंसले पर बुलबुल बैठा है, यह भी शायद इस पर कब्ज़ा जमाने की ताक में है और गौरैयों को यह नागवर गुजरा है, इसीलिए इस बुलबुल को भगाने के लिए इकट्ठे होकर प्रयास कर रही हैं।"
       वाकई! यह सब देखकर मुझे भी आश्चर्य हुआ कि गौरैयों को यह ज्ञान है कि यह घोंसला उन्हीं के लिए है और बुलबुल इस पर अनधिकृत कब्ज़ा करना चाहता है! इसीलिए इसपर बुलबुल का बैठना इन्हें बर्दाश्त नहीं है। इधर बुलबुल ने भी गौरैयों के झगड़े से परेशान होकर वहाँ से उड़ने में ही अपनी भलाई समझा। इधर इस घटना में खोए हुए ही मैं चार हजार कदम मने तीन किलोमीटर चल चुका था। 
          इसके बाद चाय पीते समय पत्नी का फोन आया। उन्होंने भी अपने सुबह के टहलने की कहानी सुनाई। एक जगह कुछ क्यूट टाइप के पिल्ले खेल रहे थे, उनमें से एक छोटे पिल्ले को सहलाते हुए वे उससे खेलने लगीं, जिसकी उम्र ढाई-तीन महीने के बीच थी। एक काला बड़ा पिल्ला, जो पाँच-छह महीने का था, उन्हें उस छोटे पिल्ले को छूने से बार-बार रोक रहा था और उनके हाथ को पकड़ लेता कि इसे मत छुओ या मत पकड़ो ! और जब एक अन्य छोटा पिल्ला पत्नी को देख-देख भूंकने लगा तो उस काले बड़े पिल्ले ने उस छोटे पिल्ले पर गुर्राते हुए उसे भूंकने से रोकने की कोशिश की। जैसे वह उसे समझाना चाहा हो कि इनसे खतरा नहीं, इनपर मत भूंको!
       जरा सोचिए, पशु-पक्षियों के इस विवेकपूर्ण व्यवहार को हम केवल उनकी सहजवृत्ति कहकर उनके 'विवेक' को खारिज़ कर देते हैं। और इस 'सहजवृत्ति' को जड़वत व्यवहार मान उनकी संवेदना और पीड़ा को भी नजरंदाज कर देते हैं। इनके प्रति हमारे क्रूरतापूर्ण व्यवहार के पीछे यही भावना काम करती है। हाँ 'विवेक' केवल मनुष्यों की ही बपौती नहीं है, पशु-पक्षियों के साथ यह पूरी कायनात ही विवेकवान है, हम अपने 'विवेक' के अहंकार में इस तथ्य को विस्मृत किए रहते हैं।
       सच बात तो यह हमारे पास वह 'क्षण' ही नहीं है जिसमें प्रकृति में व्याप्त 'विवेक' को हम समझ सकें! दरअसल हम अपने 'मरे' हुए 'विवेक' के साथ जीते हैं। यह हमारा मरा हुआ 'विवेक' ही कोरोना बनकर हमें डराता है।
        आखिर, हमारा 'विवेक' क्यों 'मरा' हुआ होता है!! शायद इसलिए कि हम 'लाग' और 'लपेट' में जीते हैं।
(17.03.2020)

रविवार, 15 मार्च 2020

साँप का चिड़िया में बदल जाना (लघु कथा)

        उसका वह बचपन ! खूब उछलता कूदता एकदम उन्मुक्त! किसी बंधन में रहना उसके लिए जैसे पिजड़े में फँसी चिड़िया के समान होता! उसे कोई न रोके और टोके! वाह, ऐसी चीजें ही तो सुंदर होती हैं!! जो जितना स्वतंत्र, वह उतना ही सुंदर और उसमें वैसे ही चमक लिए उन्मुक्तता की चाहत! लेकिन, नहीं-नहीं सुंदर चीजें धोखेबाज नहीं होती, बस पिंजड़े में जाकर असुंदर होने से बचना चाहती हैं| लोग न जाने क्यों खूबसूरत सी चीजों से खेलना चाहते हैं| सच बताएँ, खूबसूरत चीजों से खेलने वाले, होते हैं बहुत बदसूरत! खूबसूरत चीजों से खेलकर ये केवल अपनी कुंठा या भड़ास निकालते हैं| हाँ, सच तो यह है इन्हें परवाज की उड़ान से भी चिढ़ होती है! इनका वश चले तो परिंदे खुले आसमान में तैर ही न पाएँ!
         यह ऊलजुलूल बात नहीं,  बचपन में वह भी सुंदर सी चीजों के लिए बेचैन हो उठता था! उसकी निगाहें जैसे इसकी खोज में लगी रहती| एक बार मित्रों के साथ वह खेल रहा था| उसका खेलना भी क्या खेलना ! बस इधर-उधर निरुद्देश्य घूमना, लेकिन इसमें भी उसे खूब मज़ा आता| वह प्रत्येक चीज को जैसे निरखता हुआ चलता! हाँ उसने तो केवल निरखना ही सीखा है, इसीलिए मौन रहने की उसे आदत पड़ चुकी है!! उस दिन वह ऐसे ही घुमंतू बना हुआ मित्रों संग आवारगी कर रहा था, मौन आवारगी! यह उसकी आवारगी ही होती!! उसकी इस घुमंतू वाली खेल प्रवृत्ति के कारण उसे घर से डाट में उसे आवारा की उपाधि मिलती! 
         हाँ उस दिन खेलते-खेलते उसके दोस्त नाले के उस पार जा चुके थे| लेकिन वह नाले के उस मूक सौंदर्य में खो गया था!! उसके किनारे-किनारे दूर तक चली गई वृक्षावलियों की पंक्तियाँ और उन पर खिले रंग-बिरंगे और लाल-लाल टेसू जैसे फूल! उनकी झड़ती पंखुड़ियाँ..यह सब कितना खूबसूरत लग रहा था उसे!! जैसे हरे वस्त्र वाली धरती ने कोई माणिक्य-जड़ित सुंदर नीला हार धारण किया हो! हरियाले वृक्षों पर लदे फूलों की पंखुड़ियां झरती हुई कल-कल बहती इस नदी के नीले जल में प्रवाहमान थी| वह इस प्राकृतिक सौंदर्य को सब कुछ भूलकर मंत्रमुग्ध सा निहारने लगा था! इस सौंदर्य ने उसे अभिभूत कर दिया, मित्र कब दूर दूर निकल गए उसे इसका ध्यान ही न रहा|!
        लेकिन इस सौंदर्य में खोया हुआ उसने देखा, इस छोटी सी नदी के नीले साफ जल में बही जा रही रंग-बिरंगे फूलों की पंखुड़ियों के बीच छोटी-छोटी मछलियाँ अठखेलियाँ करती हुई आड़े-तिरछे तैरती जा रही थीं| अचानक उसे एक बेहद खूबसूरत रंगीन साँप नदी की तलहटी में तैरता दिखाई दिया!! ईल मछली की तरह उसका तैरना देख वह आत्मविभोर हो चुका था| इस खूबसूरत साँप को पकड़ने की उसमें चाहत जाग उठी, लेकिन इसमें विष हो सकता है, एक पल के लिए वह डर सा गया था| लेकिन सुन्दर चीजें विषैली नहीं होती और यह सुंदर साँप विषैला नहीं है, सोचते हुए उसने पानी में तैरते उस खूबसूरत साँप को अपलक निहारने लगा था!!
         तभी उस रंगीले साँप को पकड़ने के लिए उसने अपना हाथ पानी में बढ़ा दिया| लेकिन यह क्या !! वह साँप उछलकर पानी से बाहर नदी के किनारे सूखी जमीन पर आ गिरा!! वह उस ओर दौड़ा, उसे पकड़ना चाहा| लेकिन !!! लेकिन साँप अब एक रंग-बिरंगी खूबसूरत छोटी चिड़िया में बदल गया था !! एकदम सोन चिरैया की तरह!! वह उसे पकड़ पाता, तब तक चिड़िया बना वह साँप आकाश में फुर्र से उड़ चला! हाँ वह सोन चिड़िया उसके पकड़ में नहीं आई| काश ! वह उस साँप को पकड़ने की कोशिश ही न करता !!