सुखई को बीडीओ साहब से कई बार बुलावा आ चुका था.…! आज हरखू परधान बीडीओ का सन्देश लेकर स्वयं उसे बुलाने आए थे.…!
लेकिन…! सुखई को किसी चीज से जैसे कोई मतलब ही न हो..! उसके लिए यह दुनिया जैसे शून्य हो चुकी थी..!
अरे.…! यह क्या.…! धुरिया उसे देख हँस क्यों रही.…! अरे.… देखो-देखो.....! धुरिया उसे डाट भी रही है.… मैं निठल्ला… नहीं धुरिया....ऐसा न कह.… अरे..! धुरिया छटपटा रही...मुझे चिढ़ाते हुए..! यह कहाँ चली जा रही…यह आग.…! इतनी ऊँची लपटें…इन लपटों के बीच कौन.… चित्तू तू....! बड़ा फरेबी है रे तू.…लपटें तुझे जला क्यों नहीं रही.…अरे तू हँस रहा है.…लपटों के बीच.… नहीं अपनी धुरी हँस रही.…नहीं यह चित्तू हँस रहा.…लपटें…! लपटें कहाँ गयीं..! लपटों के बीच चित्तू… नही-नहीं लपटें नहीं… यह तो.…दरोगा जी.…अरे देखो-देखो ओ अपने नेता जी.…बीडीओ साहब…अरे..! बड़का साहब भी..सभी गोल-गोल चित्तू को घेरे घूम रहे...उनके बीच चित्तू...! सब हँस रहे.…सभी के घेरे में खड़ा वह चित्तू.....सबसे ऊपर.…! वह भी हँस रहा.....हे धुरी.…तू तो बड़ी बेदर्द निकली रे.…! देख कैसे सब हँस रहे.…और तू भी हँस रही.…मुझे रोने भी नहीं देती.…!
तभी हरखू की आवाज उसे सुनाई दी,
"पराना बिटिया ! पास-बुकवा मिला…।"
"हाँ चाचा ये लो…।" कहते हुए पराना ने उस बैंक पास-बुक को खटोले पर बैठे अपने पिता सुखई के सामने रख दिया।
पास-बुक का पहला पन्ना खुल गया…! आचानक… सुखई की निगाह पास-बुक में अंकित नाम 'धुरिया पत्नी सुखई' पर टिक गई.… एक-टक.…! हाँ एक-टक.…!! वह उस पर लिखे नाम को देखे जा रहा था...! आकस्मात दो बूंद आँसू उसकी आँखों ढुलकी और...टप...टप...'धुरिया' पर गिर पड़ी…! लिखी धुरिया मिट गयी.…लेकिन उसकी यादों से भी क्या वह मिट पाएगी.....
‘अरे धुरिया...! अरे भाई...! सुनती हो...!
लेकिन…! सुखई को किसी चीज से जैसे कोई मतलब ही न हो..! उसके लिए यह दुनिया जैसे शून्य हो चुकी थी..!
अरे.…! यह क्या.…! धुरिया उसे देख हँस क्यों रही.…! अरे.… देखो-देखो.....! धुरिया उसे डाट भी रही है.… मैं निठल्ला… नहीं धुरिया....ऐसा न कह.… अरे..! धुरिया छटपटा रही...मुझे चिढ़ाते हुए..! यह कहाँ चली जा रही…यह आग.…! इतनी ऊँची लपटें…इन लपटों के बीच कौन.… चित्तू तू....! बड़ा फरेबी है रे तू.…लपटें तुझे जला क्यों नहीं रही.…अरे तू हँस रहा है.…लपटों के बीच.… नहीं अपनी धुरी हँस रही.…नहीं यह चित्तू हँस रहा.…लपटें…! लपटें कहाँ गयीं..! लपटों के बीच चित्तू… नही-नहीं लपटें नहीं… यह तो.…दरोगा जी.…अरे देखो-देखो ओ अपने नेता जी.…बीडीओ साहब…अरे..! बड़का साहब भी..सभी गोल-गोल चित्तू को घेरे घूम रहे...उनके बीच चित्तू...! सब हँस रहे.…सभी के घेरे में खड़ा वह चित्तू.....सबसे ऊपर.…! वह भी हँस रहा.....हे धुरी.…तू तो बड़ी बेदर्द निकली रे.…! देख कैसे सब हँस रहे.…और तू भी हँस रही.…मुझे रोने भी नहीं देती.…!
तभी हरखू की आवाज उसे सुनाई दी,
"पराना बिटिया ! पास-बुकवा मिला…।"
"हाँ चाचा ये लो…।" कहते हुए पराना ने उस बैंक पास-बुक को खटोले पर बैठे अपने पिता सुखई के सामने रख दिया।
पास-बुक का पहला पन्ना खुल गया…! आचानक… सुखई की निगाह पास-बुक में अंकित नाम 'धुरिया पत्नी सुखई' पर टिक गई.… एक-टक.…! हाँ एक-टक.…!! वह उस पर लिखे नाम को देखे जा रहा था...! आकस्मात दो बूंद आँसू उसकी आँखों ढुलकी और...टप...टप...'धुरिया' पर गिर पड़ी…! लिखी धुरिया मिट गयी.…लेकिन उसकी यादों से भी क्या वह मिट पाएगी.....
‘अरे धुरिया...! अरे भाई...! सुनती हो...!
तब-तक धुरिया मिट्टी-सने हाथ ले कर सुखई के सामने हाजिर हो गयी, सुखई
उसका पति है उम्र लगभग यही कोई पैंतीस-चालीस के बीच होगी लेकिन चेहरे और शरीर से लगता
है कि जैसे वृद्धावस्था झलकने लगी हो...! धुरिया जो उसकी पत्नी है, उसकी उम्र भी
यही कोई पैंतीस वर्ष के आस-पास होगी लेकिन चेहरे पर परिश्रम जनित ढुलकी पसीनें की
बूदें एक अजीब सा आकर्षण पैदा कर रही थी.…शायद इसी परिश्रम के कारण उसके सुगठित देह
के आगे उसका पति बूढ़ा नजर आता था।
थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए वह अपने पति से बोली,
थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए वह अपने पति से बोली,
“हाँ...तो...बोलो क्या
बात है...इतना जोर-जोर से चिल्ला रहे हो...।”
“अरे...नाराज क्यों
होती हो...मैं तुम्हें एक बात बताने के लिए बुला रहा था...” सुखई जैसे पत्नी से
चापलूसी के अंदाज में बोला।
“अरे..सुनूँ तो...अब
कौन सा जग जीते हो....?” धुरिया माथे पर ढुलक आई पसीने की बूंदों को मिट्टी सने अपने
दाहिने बाँह से पोंछते हुए पूँछा।
लेकिन सुखई इस बीच खैनी मलने में मशगूल हो चुका था..इधर धुरिया को पति से अपना उत्तर पाने में कुछ क्षण का बिलम्ब लगा तो वह पुनः बोली,
“जल्दी बोलो...झोपड़ी
में मिट्टी लगा रही हूँ..ठीक से टाटी भी तो नहीं बांधे हो...बाहर से सब दिखाई देता
है...उसी टाटी पर अब मिट्टी लीप रही हूँ..।”
धुरिया ने जैसे एक ही सांस में सारी बातें कह डाली।
धुरिया ने जैसे एक ही सांस में सारी बातें कह डाली।
खैनी को अपने होठों और दाँतों के बीच दबा कर हाथ झाड़ते हुए सुखई थोड़ा गर्वित भाव से बोला,
“अरे..मेरी मालकिन...!
अब हाथ धो लो...मिट्टी नहीं पोतना पड़ेगा..।”
“ऊ काहे...! का कोनऊ महल
बनवा दिहे हो का...जो इतना इतराई के बोल रहे हो..!”
वहीँ पास पड़ी बाल्टी में हाथ धोते धुरिया ने कहा।
वहीँ पास पड़ी बाल्टी में हाथ धोते धुरिया ने कहा।
“हां..समझो महलई बनवाय दिहे...” सुखई ने चेहरे पर थोड़ा मुस्कान लाते हुए कहा।
“अच्छा सुनो...बुझाओ
मति...हम तुम्हारी तरह निठल्ली नहीं हैं...हमें काम पूरा करना है..।” यह कहते हुए
धुरिया दिखावटी ही सही लेकिन जाने के लिए मुड़ी।
तभी सुखई झिंलगे से
खटोले पर बैठे हुए ही घुरिया की कलाई को पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए बोला,
“पूरी बात तो सुनती
नहीं..! पहले ही हमको निठल्ला बना दिया...!” धुरिया को खटोले के पायताने पर बैठाने
का असफल प्रयास करते हुए सुखई ने कहा।
“छोड़ो मेरा हाथ..मैं
बैठती हूँ...सुनाओ पूरी बात...” इधर-उधर देखते हुए वहीँ खटोले के पास ही जमीन पर
बैठते हुए धुरिया ने कहा।
“खटोलवा पर तो
बैठो..काहे भूँयी बैठ गयी...”
“बड़े आए पलंग पर
बैठाने वाले...! तीन महीने से इसकी पाटी टूटी रही तब नाहीं बनवाई दिहा..कैसौ हम पाटी
बदलवाए..! और हाँ...अभी तक मूँज खरीद के नाहीं लाए कि ठीक से बिनि उठै..।”
धुरिया जब अपनी यह बात
पूरी कर रही थी तो सुखई उसको घूरे जा रहा था...फिर बोल उठी,
“जल्दी बताओ का बतावत रहा...आज
कलेवा भी नहीं बचा था..और दिन चढ़ा आवत हैं..चूल्हा भी जलाना है।"
सुखई ने जमीन पर बैठी धुरिया के और करीब अपने खटोले को खींच लिया..फिर बात करने का ऐसा अंदाज बनाया जैसे पत्नी से किसी गंभीर मंत्रणा में लीन हो गया हो...! और उधर उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी के सामने वह छोटा सा नीम का पेड़ और उसकी छाया में बैठे वे दोनों... उस नीम के पेड़ से झरती सूर्य की किरणे उन दोनों पर पड़ रही थी...मानो वह नीम का पेड़ उन दोनों को छाया देने के अपने भरसक प्रयास में हो.…लेकिन असफल..! ...वहीँ पास में ही खूंटे से बधी गाय सामने पड़ी हरी घास को चबाये जा रही थी.... दूर से उन सब को देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई चित्र खिंचा हो और किसी ने उस चित्र को एक फ्रेम में जड़ दिया हो..! दोनों आपस में बातें करते जा रहे थे..।
“हे धुरी, सुनो तो...,
अबकी बार आपन कालोनी पक्की होई गई..”
सुखई ने जैसे पत्नी के
कान में कहा हो..जब सुखई को पत्नी के प्रति प्यार उमड़ता था तो वह उसे ‘धुरी’ कह कर
सम्बोधित करता था।
पति-पत्नी के इस
वार्तालाप में कालोनी शब्द का प्रयोग सरकारी योजना में गरीबों को मिलने वाले
इंदिरा आवास के लिए किया जा रहा था...
“देखो हमका भरमाओ
मत..कई बार कह चुके हो ई बात..लेकिन अभी तक कुछ पता नाहीं चला..और हाँ.…अब अपनी पराना
भी सयान हो रही है।" धुरिया ने धीमे स्वर में थोड़ा गंभीर होते हुए कहा।
“देख धुरी...हमको भी
यही चिंता है..अपनी पराना की शादी तक कम से कम हमारी कालोनी बन जाय..दुवरा के समय
शोभा बन जाई..! हाँ अपने टीन्कुआ का चिंता नहीं है...बड़ा होई त कमाई खा लेई...।”
मुँह में लिए खैनी को थूकते हुए सुखई ने कहा।
“लेकिन ई बताओ कहाँ
हमरे सब के पास पांच हजार रुपिया है कि कालोनी मिलि जाई..!और हाँ..उस चित्तू परधान
के धोखे में मत पड़ा...वह बड़ा फरेबी है.…रजनी और कैलासी हमसे बतावत रही कि परु के अषाढ़ में ऊ चित्तू परधान
उनसे पांच-पांच हजार रुपिया कालोनी बदे लेहे रहा लेकिन आज तक उनका कालोनी नाहीं
मिली...।” धुरिया ने पति को सलाह देने के अंदाज में अपनी बात पूरी की।
“देख...! सब बात झूठ है...! परधान के चचेरे भाई इसकी शिकायत बीडीओ साहब से तो केहे रहे..! मुला जाँच के समय सब
एफैडेविट भी तो दिहिन कि परधान हमसे पईसा नाहीं लिए हैं...शिकायत झूँठ है और...सब
राजनीति है..., चुनाव हारे क शिकायत है..।” सुखई ने धुरिया की ओर देखते हुए कहा।
“सुना...कौन आपन सिर
फोड़ाई..! अच्छा ई..बताओ कैसे कहते हो कि कालोनी पक्की हो गयी..।” धुरिया ने पति
के हाथों पर अपने हाथ रखते हुए बोली।
* * * *
हाँ.. सुखई एक मजदूर ही तो था... लेकिन परिश्रम वाले काम से भागने की कोशिश करता था...उससे कोई भी लगातार दो घंटे फावड़े चलाने का काम नहीं ले सकता.. और वह करता भी नहीं था..! गाँव के कुछ बड़े लोगों के यहाँ वह अकसर ही पहुँच जाया करता था और उनके छोटे-बड़े काम जिसमें शारीरिक श्रम की आवश्यकता कम होती थी, कर दिया करता था...बदले में उसे कुछ मिल भी जाता था। इसी से उसका जेब खर्च चलता रहता था..., इधर धुरिया खेतों में मजदूरी कर घर का खर्च चलाती थी.., और उधर सुखई को पीने की आदत भी लग चुकी थी इसके लिए वह धुरिया से कभी-कभी पैसे माँगता था।
....लेकिन आजकल उसे
परिवार की ज़िम्मेदारी का अहसास हो रहा था.., क्योंकि जब से उसने चित्तू परधान के मुँह से
गाँव में कालोनी आने की बात सुनी थी तबसे वह इसी उधेड़बुन में पड़ा रहता कि कैसे
कालोनी की चयन-सूची में उसका नाम सम्मिलित हो जाय...
....अकसर सबेरे-सबेरे
ही वह चित्तू प्रधान के घर पहुँचने लगा था...उनके छोटे-मोटे काम करता और उनका मुँह ताकते
इस इन्तजार में उनके घर दिन चढ़े तक बैठा रहता कि कब चित्तू प्रधान उससे कोई काम के लिए
कहें और वह दौड़ कर उसे करे....खैर वह अपनी कालोनी के लिए किसी तरह से चित्तू प्रधान को
प्रभावित करना चाहता था...चित्तू वास्तव में प्रधान तो नहीं थे लेकिन आज भी इस गाँव की प्रधानी वही करते हैं.…प्रधान तो उनका पुराना हलवाहा हैं.…हाँ.…कई वर्षों बाद अबकी बार वह प्रधानी का चुनाव आरक्षण की वजह से नहीं लड़ पाए थे.…! खैर इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता...प्रधानी तो अब भी वही कर रहे थे...! शायद इसी कारण गाँव वाले उन्हें परधान कह कर अब भी पुकारते हैं.…।
.....अभी हाल ही में चित्तू प्रधान के लड़के का तिलक था...बहुत बड़े भोज का आयोजन किया गया था...कैसे सुखई ने दौड़-दौड़ कर जूठे पत्तलों को उठाया था..और तो और उसने अपने टिंकू को भी इस काम में
लगा लिया था..और पत्तलों को उठाते समय अपने टिंकू पर इसलिए चिल्ला पड़ता था कि यह
सब काम करते समय चित्तू प्रधान की नजर उस पर पड़ जाए....एक इंदिरा आवास के लिए वह प्रधान
को हर तरीके से प्रभावित करना चाहता था...!
......दो दिन पहले ही चित्तू प्रधान के लड़के की शादी हुई थी.. उस शादी में भी तो उसने खूब काम किया था..!
आज प्रधान ने सुखई को
अपने घर बुलाया था..! सुखई मुँह अँधेरे ही उनके घर पहूँच गया था..जानवरों को
चारा-पानी देने के बाद वह वहीँ चबूतरे पर बैठ कर चित्तू प्रधान का इंतजार करने लगा
था...वह अपने कालोनी के सपनों में खोया हुआ था...तभी उसके कानों में चित्तू की आवाज पड़ी,
“क्यों रे सुखइया.. इतना
तिलक-बियाह हुआ लेकिन तुम्हारी लुगाई नहीं दिखाई पड़ी...तुम भी बड़े आदमी बन रहे
हो का.…!” चित्तू प्रधान वहीँ बड़ी सी चारपाई पर बैठ सरौते से सोपाड़ी कतरते हुए बोले।
“नाहीं परधान जी...अइसन बात
नाही है.. बात ई है कि धुरिया बिमार पड़ गयी थी...” अचानक इस अप्रत्याशित प्रश्न पर
सुखई चबूतरे पर से उतर कर एक ईंट ले चित्तू परधान की चारपाई के पास जमीन पर बैठते हुए
बोला।
“अभी तो चार दिन पहले
मैंने उसे विक्रम के खेत में गेहूं काटते हुए देखा था..! तुम कहते हो बिमार हो गयी
थी..! तुम ससुरों को हर बात में झूठ बोलने की आदत होती है..!” प्रधान ने स्वर में
बनावटी तल्खी लाते हुए कहा।
“अरे...नाहीं परधान
जी..घर में उस दिन कुछ नहीं था..इसीलिए मजदूरी करने चली गयी थी..।” इतना कह वह
चुप हो गया और चित्तू परधान का मुँह देखने लगा।
“त का हम बेगार कराते
हैं...? हम तो इसलिए पूँछ रहे हैं कि वह आती तो परजौटी धोती-वोती पा जाती...उस दिन
खेत में हमने उसे काम करते हुए देखा था..! पीठ पर उसकी धोती फटी थी...मैं तो इसीलिए
कह रहा था..।”
इस वाक्य को पूरा करते
ही चित्तू प्रधान सुखई की ओर देखने लगे जैसे सुखई के चेहरे का भाव पढ़ रहे हों..और इधर
सुखई चित्तू प्रधान की बात सुन अपने निचले होठ को दांतों से दबाने लगा.. ‘पीठ पर उसकी धोती
फटी थी..’ यह वाक्य उसके कानों में गरम शीशे की तरह पिघल रहा था...! लेकिन वह मौन
था कुछ बोला नहीं।
“अरे..! क्या सोच रहे हो सुखई...!” चित्तू की आवाज उसके कानों में पड़ी.…।
“आज आप बुलाए रहे परधान
जी..?” उसने धीमें और दबे स्वर में पूँछा।
“हाँ..अच्छा याद
दिलाया..बात यह है कि तुम कई दिन से कालोनी के लिए कह रहे थे न! उसी के लिए तुमसे
बात करनी थी।” चित्तू प्रधान ने उससे कहा।
वह आशंकित मनोभाव से
प्रधान की ओर देख रहा था...
“तुम तो जानते हो ऊपर
कुछ लिए-दिए बिना काम नहीं होता...! कम से कम पाँच हजार तो देना ही होगा..” “और हमीं
को ऊपर जाकर कालोनी-फालोनी पास कराना पड़ता है, बीडीओ बिना कुछ लिए तुम्हारी कालोनी
पास ही नहीं करेंगे...!” चित्तू प्रधान इतना कह कर चुप हो गए।
इधर सुखई सोच में पड़
गया...वह पाँच हजार कहाँ से लाए...! वह एक अजीब उधेड़बुन में फंस सा गया था...बाप
रे..! पाँच हजार..!! उसके आँखों के सामने जैसा अँधेरा छाने लगा था...तभी उसे हरखू
परधान दिखाई दिए...
हाँ...वह हरखू को हरखू
परधान ही कहता है...हरखू वास्तव में इस गाँव का प्रधान है...लेकिन गाँव वाले उसे
केवल हरखू के नाम से पुकारते हैं...सुखई ही केवल ऐसा है कि उसे ‘हरखू परधान’ कह कर
सम्बोधित करता है...कारण सुखई की हरखू से छनती खूब है..! दोनों अकसर शाम को ठेके
पर भी चले जाते हैं...और पिनक में हरखू अकसर सुखई से यह जताना नहीं भूलता कि वह इस
गाँव का परधान है....शायद इसी कारण सुखई उसे ‘हरखू परधान’ कह कर ही बुलाता
है..बाकी गाँव के लोग ‘हरखू’ या फिर ‘हरखुआ’ ही पुकारते हैं..
हरखू को देखते ही सुखई ने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा,
“राम-राम हरखू
परधान...” कहते हुए उसकी निगाह चित्तू प्रधान की ओर घूम गयी...इधर चित्तू उसे
आग्नेय नेत्रों से घूरे जा रहे थे...हरखू भी सुखई के द्वारा किए गए इस आकस्मिक
अभिवादन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न कर सका..! सुखई को अब तक अपनी गलती का अहसास
हो चुका था...उसने अपना सिर झुका लिया...तभी कानों में उसे चित्तू की आवाज सुनाई
पड़ी,
“अरे...हरखुआ..!
तू..त..हरखू परधान हो गया है रे..! ई सुखइया को एक ठो कालोनी चाहे तो दे दो...!”
चित्तू प्रधान ने
तीव्र व्यंग्यात्मक लहज़े से कहा।
“अरे मालिक काहे हमका
शर्मिंदा कर रहे हैं..” हरखू ने दोनों हाथ जोड़ा और लगभग मिमियाते हुए कहा।
“नाहीं...ई सुखइया आज
कल राजनीति कुछ ज्यादै सीखि गवा है।” चित्तू अब भी सुखई को घूरे जा रहे थे।
सुखई को वहाँ का
वातावरण अब बोझिल सा प्रतीत होने लगा था...इतनी समझ उसमें थी ही...लेकिन एक बार
अपनी आशा को पुनर्जीवन देते हुए उसने कहा,
“परधान पाँच हजार हमसे
बाद में ले लिहा...हमार कालोनिया पास कराय दो..हम आप का बहुत सेवा करेंगे।” कातर
भाव ले सुखई ने कहा।
चित्तू ने एक बार फिर सुखई को घूरते हुए देखा...सुखई अपनी नजरे नीची
किए रहा...जैसे उसने कोई अपराध किया हो...
“ऊहीं नलवा पर पलटू क मेहरारू मिलि गई रहिन..और ऊहई कालोनी क बात करइ लागिन...|” धुरिया ने पसीने से तर-बतर अपने चेहरे को आँचल से पोंछते हुए कहा “बतावत रहिन कि..." हाँ आँचल से चेहरा पोंछते समय..पसीने से भीगे उसके कपड़े उसके शरीर से चिपके हुए थे... इसी समय सुखई की निगाह उसपर पड़ी...सुखई अपनी पत्नी को ध्यान से देखने लगा..
वास्तव में मानव प्रकृति प्रदत्त भावनाओं को कभी भी अपने से परे नहीं कर सकता चाहे वह किसी भी सामाजिक, आर्थिक या बौद्धिक स्तर का क्यों न हो...! आदिम इच्छाएं शायद ही ऐसे किसी प्रतिबन्ध को मानने के लिए तैयार हों..? हाँ हम अपने बौद्धिक और नैतिक संचेतना से अपनी आदिम इच्छाओं को एक सीमा तक नियंत्रित कर सकते हैं....!
“पाँच हजार बाद में ले
लिहा...! का कहूँ सेंध फोरबे का..कि बाद में ले लिहा...!!” इधर सुखई के लटके चेहरे
को देख कर चित्तू फिर बोला,
“अच्छा चलो..तुम्हारे
लिए इतनी छूट मैं दे देता हूँ....बताओ मानोगे...?” कहते हुए गूढ़ निगाहों से चित्तू
ने सुखई की ओर देखा...|
“अरे परधान...! बतावा
काहे नहीं मानेंगे..! आज तक आपने जो कहा..का..नहीं माना...!” मरता क्या न करता
वाली स्थिति में चित्तू को ज़बानी ही सही पालिश लगाते हुए सुखई ने कहा..| ..उसके
चेहरे पर थोड़ी चमक अवश्य लौट आई थी...!
वास्तव में जो काम-चोर
और परिश्रम से भागने वाले मुफ्तखोर होते हैं उनकी मानसिक स्थिति ऐसी ही होती है वे
शायद इन्हीं मनःस्थितियों में ही अपना विजयोल्लास मना लेते हैं...
“चल बड़ा आया मानने
वाला...ऊ तुम्हार घरवाली हरदम ऐंठी ही रहती है...” कहते हुए चित्तू की रहस्यमयी
निगाहें जैसे सुखई के चेहरे को टटोल रही हो।
सुखई चित्तू के कहे इस अप्रत्याशित
वाक्य के लिए तैयार नहीं था...सुखई की असहजता उसके चेहरे से झलक रही थी...
चित्तू खिलाडी था...सुखई
की असहजता को भांपते हुए बोला,
“तिलकिया के पहले गेहूं
झारइ के लिए तुम्हरे लुगाई के बुलवावा रहा...बहाना बनाइ के कहा दिया कि हम खाली
नहीं हैं...तुम अहसान करने लायक मनई तो हो नहीं..! लेकिन चलो तुम बहुत मेहनत किए
रहे तिलक में! इसलिए तुम्हारे लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा..” चित्तू ने सुखई को जैसे
अपने अहसान के बोझ तले दबा दिया हो।
“अरे परधान आपका ई
किरपा हम कभी न भूलेंगे...” सुखई ने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि चित्तू ने
कहा,
“किरपा-उरपा नहीं...तुम्हारे लिए बस हम इतनी छूट
दे रहे हैं कि...” कहते हुए चित्तू अचानक चुप हो गया...और हरखू.., जो उन दोनों की
बाते चुपचाप बैठे हुए सुन रहा था उसकी ओर मुखातिब होते हुए बोला,
“का..हरखुआ..! यहाँ
बैठे का राजनीति बूझ रहे हो...! जाव नहरा आई गया है..बेहन के लिए खेत तैयार
कर...बैठे-बैठे बात सुन रहा है...!” कतरे हुए सुपाड़ी को मूँह में डालते हुए चित्तू
ने कहा|
“सुनो सुखई..!
तुम्हारे लिए छूट ई है कि तुमसे पांच हजार रुपिया कालोनी का पैसा आ जाए के बाद
लेंगे...और हाँ...वहीँ बैंकई में ले लेब...तब आनाकानी तो नहीं करोगे..”
और चित्तू ने अपने इस
वाक्य को पूरा करने के साथ ही हरखू को पुकारा जो अब-तक उन दोनों से कुछ दूर जा
चुका था..
“हे हरखू..इधर लौट
आव..याद आई गा..पतरौल बताए थे..नहरा तो काल्हि आए..”
इधर सुखई चित्तू की
बात पूरी होता इसके पूर्व ही अपने दोनों हाथ चित्तू की जाँघों पर रख उसे दबाते हुए
बोला,
“अरे परधान...! ई कौन
बड़ी बात..हम तुरंत निकालि के दे देब..”
“चलो-चलो हटो ज्यादा
चापलूसी मत करो...हम समझते हैं..!” चित्तू ने सुखई को अपने से परे हटाते हुए कहा|
इस बीच वहां हरखू लौट
आया था...उससे मुखातिब होते हुए चित्तू परधन बोले, “हरखू पिंकू की अम्मा से एक-ठो
परजौटी जनानी धोती त माँग लियावा..” पिंकू की अम्मा शायद चित्तू की पत्नी थी..|
“सुनो सुखई..तुम्हार
नाम.. हम कालोनी के लिस्ट में डलवाई दिए हैं..और बीडीओ साहब के यहाँ से मंजूर भी
होई गया है..बस..ऊ अपने लुगाई के नाम से एक-ठो खाता खुलवाय लो और हाँ..एक-दो दिन
में ई खाता जरूर खुलि जाय..” चित्तू सुखई को जैसे समझा रहा हो और सुखई सिर
हिला-हिला कर अपनी मौन स्वीकृतियाँ देता जा रहा था..
वास्तव में व्यक्ति जब
परिश्रमी नहीं होता तो उसकी संवेदनशीलता की शक्ति सीमित हो जाती है... और... चीजों
को वह ठीक से समझ ही नहीं पाता... ऐसा व्यक्ति यदि स्वार्थी भी हो तो उसकी सीमित-बुद्धि
सामने वाले व्यक्ति को ही मूर्ख समझने लगती है...और सामने खड़े व्यक्ति को वह पहचानने
में भूल कर बैठता है...यहाँ सुखई की मनोदशा कुछ ऐसी ही है...उसकी सीमित-बुद्धि
चित्तू को नहीं समझ पा रही है...!
हरखू अब तक परजौटी धोती
लेकर आ चुका था.. “ई लेव मालिक...” कहते हुए हरखू ने थैले को चित्तू के सामने रख
दिया..और तखत पर जाकर बैठ गया...कभी-कभी उसे अपने असली परधान होने का बोध भी हो
जाता है...हालाँकि चित्तू के सामने वह तखत पर नहीं बैठता...चित्तू ने उसे घूरा...बोला
कुछ नहीं...! सुखई अब भी वहीँ भूमि पर ईट पर ही बैठा था...उसकी नज़र थैले पर जम गयी
थी...! तभी उसके कानों में चित्तू परधान की आवाज सुनायी पड़ी..
“देखो तुम्हारी घरवाली
पर यह साड़ी खूबे जंचेगी...लई जाव...कह देना यही पहन कर पास-बुक में लागै वाली फोटू
खिंचाने जायेगी...समझे...!” चित्तू ने जैसे ‘समझे’ शब्द पर अधिक बल देते हुए कहा
हो..|
आदमी की आँखों पर चाहे
जिस चीज का पर्दा पड़ा हो..और चीजों को देखने का उसका जो भी नजरिया हो लेकिन उसकी अंतरात्मा
एक क्षण के लिए ही सही उसे सही पक्ष दिखाने का प्रयास अवश्य करती है...बस..! उसे
हम समझ नहीं पाते..और...वह पल गुजर जाता है..!
सुखई के लिए वैसे तो
यह पल खुश होने के लिए था...क्योंकि उसकी कालोनी मंजूर हो गयी है...लेकिन यह साड़ी
ले या न ले यह सोचते हुए वह पशोपेश में पड़ गया...क्योंकि..धुरिया ने एक बार बातों
ही बातों में उससे कहा था,
“हमैं किहू का अहसान न
चाहे...और फिर ये बड़े लोगों के अहसान के पीछे बड़इ राज रहता है...जानते हो...ये
अहसानइ इसीलिए करते हैं कि हम इनके चंगुल में फसे रहे और ए आपन मनमानी कर सकें..”
“अरे..,का सोच रहे हो
सुखई...!” कहते हुए चित्तू ने जैसे सुखई को झिझोड़ा..!
“कुछ नहीं परधान...!”
सुखई ने कहा...और यह सोचते हुए साड़ी लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया कहीं साड़ी न लेने से
चित्तू नाराज न हो जाए और उसे कालोनी मिलना फिर से खटाई में पड़ जाए..!
* *
* *
“देख धुरी..! चित्तू
परधान कहत रहे कि बीडीओ साहब ने आपन कालोनी पक्की कर दी है..” सुखई ने पत्नी के
चेहरे पर गंभीर दृष्टि डालते हुए कहा..जैसे पत्नी की प्रतिक्रिया पढ़ने की कोशिश कर
रहा हो..|
“हूँ...तो तुम चित्तू परधान के घर से आई रहे हो...!” जैसे कुछ सोचते
हुए धुरिया बोली..
“हाँ उनहिं के इहाँ
से आ रहे हैं..” सुखई को अपनी पत्नी की प्रतिक्रिया का कोई डर रहा हो इसी से उसने
धीमी आवाज में कहा
“लेकिन एक बात
है...एहमें चित्तू परधान के एहसान मत मानों..कालोनी बीडीओ साहब मंजूर किए हैं...
और याद है...? हमहूँ तो..बड़के साहब से कहे रहे...!” धुरिया ने जैसे पति को समझाया
हो|
फिर सुखई धुरिया को
समझाने का प्रयास करने लगा कि कैसे चित्तू परधान के प्रयासों से ही बीडीओ ने
कालोनी मंजूर की है..और वह पाँच हजार चित्तू परधान को कब देगा इस बात को भी उसने
धुरिया को बताई...लेकिन इन सब बातों को सुनने के बाद भी धुरिया ने सुखई से कहा,
“अरे.. एक बार बीडीओ
साहब से जाई के मिलि लो न..और पूँछ लो कि कालोनी कैसे मंजूर हुआ है...तुमको कहीं
चित्तू भरमा रहा हो तो....? नाहक ही पाँच हजार देना न पड़े..!”
“देख धुरी..तू समझती
नहीं...! चित्तू परधान इतने छोट आदमी नहीं हैं...की हमसे पांच हजार के लिए झूठ
बोलेंगे...! तिलकवा में उनके यहाँ बड़े-बड़े लोग आई रहेन..अरे..ऊ दरोगा जी तो वहाँ
पूरे समय खड़े ही रहे..और अपने बीडीओ साहब त उहाँ एक कोने में बैठे रहे और ऊ पलटुआ
उन्हई घेरे रहा...उसे भी कालोनी चाहे..! और हाँ तहसीलदार साहब और डिप्टी साहब भी
थे मुला वे जल्दी चले गए...बड़का साहब भी तो हाऊँ-हाऊँ करते आये थे...और ऊ आपन
नेताजी भी तो आए रहेन जिनका हम सब ओटवा दिए थे...उनके दुआरे गाड़ी पर गाड़ी ताँता
लगा रहा..! अब तू ही बता...! का मामूली आदमी हैं चित्तू परधान..! साहबन का भी
बड़ा-बड़ा खेल होत है..बिन पैसा लिए कालोनी पास न हुआ होए..!”
सुखई द्वारा चित्तू के
इस बड़ेपन के वर्णन से धुरिया निरुत्तर सी सोच में पड़ गयी..लेकिन उसका मन पति की इस
बात को मानने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था कि उसे कालोनी चित्तू के प्रयास से ही
मिल रही है...उसने जैसे अंतिम प्रयास करते हुए चित्तू से कहा,
“एक बार बीडीओ साहब से
मिलई में का बुराई है..पता तो चल जाएगा कि कालोनी कैसे मिली है...?”
पत्नी की इस बात को
सुनकर सुखई कुछ क्षण के लिए चुप हो गया जैसे वह कुछ सोचने लगा हो..लेकिन अगले पल
ही पत्नी धुरिया से झल्लाते हुए बोला,
“देख धुरिया तू बात
समझती नहीं...बीडीओ साहब से मिलई में का बुराई है...! समझती तो यह न
कहती...अरे..चित्तू परधान को पता चल जाए कि हम बीडीओ साहब से मिलई गए थे..तो
कालोनी मिलना तो दूर घर से निकलब-बैठब अपाढ़ हो जाई...वैसे भी ओ तुमको नेताइन मानत
हैं...तुम्हई कुछ याद भी रहता है..? बड़के साहब के सामने तनिक बोल दिहे रहू..तो
उसके बाद का हुआ था...? याद करो तीनई दिन बाद जब गईया के लिए परधान के खेतवा के मेंड़
से घास छीलत रहू तो ओकर ऊ दुनौऊ भतीजे आ गए थे...! ऊ छोटकी खाँची और खुरपिया दूनौ
छीन लिए थे..और गरियाए ऊपर से रहे थे...कह रहे थे कि तुम मेंड़ ओदारत रहू...ऊ तो हम
मिन्नत करके चित्तू परधान से खाँची-खुरपी फिर से कैसौ माँगे थे...!”
सुखई ने अपनी बात पूरी
की...और पत्नी के चेहरे पर नजरें गड़ा दी...दोनों के बीच एक प्रकार से सन्नाटा जैसा
छा गया...अब वातावरण थोड़ा बोझिल हो गया था...आकस्मात धुरिया की आँखों से दो बूँद आंसू
आँसू टपक गए..शायद उसकी आँखें भर आई थी..! पता नहीं यह पति की डाट का असर था या उस
दिन की घटना का फिर से याद होना...हाँ उस दिन भी तो वह रोई थी..उसने क्या गलती की
थी..फिर क्यों चित्तू परधान के भतीजों ने उसे गाली दिया था..? गाली ही नहीं दिया
बल्कि कितने भद्दे तरीके से खुरपी छीनते समय छूने की कोशिश भी की थी उन दोनों
ने...! इस बात को तो उसने पति से भी छिपा दिया था.. फिर उसने अपना आँचल उठाया और
अपनी आँखें पोंछ ली..उसे अहसास हुआ कि सुखई उसके थोड़ा और करीब आ गया था..और सुखई
की एक बाँह ने उसके कन्धों को घेर लिया था..और दूसरा हाँथ पत्नी के सिर पर पहूँच
गया..जैसे उसके सिर को वह प्यार से सहला रहा हो...उसी प्यार भरे अंदाज में पत्नी
के चेहरे पर आँखे गड़ाए सुखई बोला,
“देख धुरी...हम सब
समझते हैं...उस दिन मेरा खून खौल गया था..लेकिन हम का करते..? सोच कर मन मसोस रह
गए थे..फिर आपन ऊ पराना बिटिया और टिंकू का खियाल मन में आय ग..फिर हमहू चुप लगाय
गए...आखिर इनहीं कैन में तो निकरई-बैठई की मजबूरी है..बस चिंता इतनी जरूर अहै कि
कैसौऊ इज्जत-मरजाद बची रहै!”
“हमका भी सबसे अधिक
चिंता पराना और टिंकू का हैं..बाकी हमका आपन भी चिंता नहीं है..वइसे जैसे तुम उचित
समझौ..|” धुरिया ने पति के हाथों को अपने से परे करते हुए कहा..|
पति-पत्नी के बीच यह
वार्तालाप चल ही रहा था कि गाय का पगहा पता नहीं कैसे खूँटे से निकल गया और गाय
वहीँ पास ही में हरी घास चरने के लिए लपकी...उसके आगे गाँव के बड़े जमींदारों के
खेत भी थे जिसमें फसलें खड़ी थी..! एक अज्ञात भय से दोनों गाय पकड़ने के लिए
भागे...गाय घास चरते-चरते कुछ दूर आगे बढ़ी....तब-तक सुखई ने उसका पगहा थाम
लिया...इधर धुरिया पुनः खटोले के पास लौट आई...अकस्मात् उसकी निगाह वहीँ खटोले के
पास जमीन पर पड़े पोलिथीन के थैले पर पड़ी..धुरिया ने उसे झट से उठा लिया और ध्यान
से देखने लगी...शायद उसमें कोई छापेदार साड़ी थी..! उसी समय सुखई गाय को पुनः खूँटे
से बाँध धुरिया के पास लौट आया..धुरिया के हाथों में उस थैले को देख वह थोड़ा सा
अचकचा सा गया...तभी धुरिया पति से पूँछ बैठी,
“एहमें का है... कहाँ
पाए..!”
साड़ी को चित्तू परधान
ने दिया था...यह बात बताने पर कहीं धुरिया भड़क न उठे इसीलिए अब-तक उसने साड़ी वाले
थैले को धुरिया से छिपाए रखा था... ई..तो इस गाय के चक्कर में सब गुड़-गोबर हो गया
नहीं तो देखा जाता..या जरुरत पड़ने पर बता देता...! अपनी यह धुरी भी तो गजब की है
किसी का अहसान लेना पसंद नहीं करती..चाहे दुई घंटा अधिक ही खटना पड़े...और किसी की
मुफ्त में दी गयी चीजों को लेने से हमेशा बचती रही है...उस पर यदि उसे पता चल जाए
कि इस धोती को चित्तू परधान ने दिया है..तो गजब न ढा दे..! हाँ..यही कुछ सुखई के
मन में चल रहा था..तभी..धुरिया की आवाज उसे फिर सुनाई दी,
“अरे..हम पूँछत हैं कि
इसे कौउन दिहेस..?”
“चित्तू परधान के इहाँ
से मिला है..उहई..परजौटी धोती है...जब ख्याल आई त आज दिए..जबकि उनके तिलके और
बियाहे में हम कितना मेहनत किए रहे..!” सुखई ने बात को घुमाते हुए दूसरे अंदाज में
कहा...और धुरिया की नाराजगी से बचने की कोशिश की..और इधर धुरिया कभी साड़ी तो कभी
सुखई के चेहरे को देख रही थी..लेकिन वह कुछ बोली नही...फिर कुछ सोचकर शांतभाव से
सुखई से बोली,
“देखऊ..! तुम भी अपने
को थोड़ा सा बचाया करो...कुछ काम-धाम करके अपने कमाई से अगर यह धोती लाए होते तो आज
हम बहुतई खुश होती...ई परजौटी-सरजौटी का होत है...कौउन राजा कौउन परजा...! अबई भी
तुम इस चक्कर में पड़े रहत हो...खैर...इसे धैदो उस कोने में...|”
इस बीच बात करते-करते
दोनों झोपड़ी में आ गए थे क्योंकि उनके झोपड़ी के सामने का वह छोटा सा नीम का पेड़ उन्हें
छाया देने में अपने को असमर्थ पा रहा था..! और इधर दिन भी चढ़ आया था...सूरज का ताप
भी जैसे उनके जीवन के ताप को बढ़ाने का मन बना रहा था..! अब इससे बचने के लिए उनकी
यह टूटी-फूटी झोपड़ी ही एकमात्र सहारा थी...!
जैसे सुखई के जान में जान आई...! उसने उस धोती
के थैले को झोपड़ी के कोने में पड़ी एक छोटी सी बोरी के ऊपर रख दिया...इस बीच खटोले
को धुरिया ने झोपड़ी में खींच लिया था...सुखई मुड़ा और आकर उस झिंलगे खटोले पर पुनः
पसर गया..खटोले के पास ही खड़ी धुरिया से कहा,
“अरे..इतनी बेर चढ़ आई
कुछ दाना-पानी भी पूँछोगी या राजनीति ही बूझती रहोगी..”
“हे..! टिंकू के
बाबा...! राजनीति तो तुम सबेरे से ही बूझ रहे हो चित्तू परधान के घर से लईके इहाँ
तक... औउर हमसे कहते हो कि हम राजनीति बूझ रहे हैं..! तुम्हरे राजनीति के चक्कर
में चूल्हा तक नहीं जला...समझे..!” कहती हुई धुरिया कुछ दूर स्थित सरकारी
हैण्डपम्प से पानी लेने चली गयी..
कल ही पास-बुक में
लागई वाली धुरिया की फोटो भी खीचाना है...पता नहीं धुरिया ई..चित्तू परधान की दी
वाली धोती पहन कर फोटो खीचाने और बैंक में जायेगी या नहीं...यदि यह चित्तू की दी
धोती न पहनी तो...? चित्तू वैसे भी पता नहीं क्यों धुरिया से चिढ़ता है..? कहीं और
न बुरा मान जाए..? कहीं कालोनी मिलने में ही अड़ंगेबाजी न कर दे? वैसे भी बिना
चित्तू के चाहे ई कालोनी मिल भी नहीं सकती..| ई..! चित्तुआ..स्सा....है बड़ा
बदमाश...! मेरी धुरिया सही कहती है...फरेबी..कहीं का..! चुनाव में कितना बिरोध किए
रहा अपने नेता जी का..! लेकिन नेतऊ जी ओकरे दुआरे तिलक में पहूँच गए थे..! लागत है
सबई एकै थैले के चट्टे-बट्टे हैं...तबई हमार सबै का कोनौउ सुनवाई नही है...देखो
तो...उस दिन तिलक में हम कितना मेहनत किए रहे...आटा मरदई से लेकर दोना पत्तल उठावै
तक सभी काम तो किए रहे...लेकिन....
लगभग रात के दस बज चुके थे...लेकिन इस
तिलक समारोह में आनेवालों की भीड़ अभी कम नहीं हुई है...पाँत पर पाँत उठ और बैठ रही
है..दोना-पत्तल उठाते-उठाते कमर दर्द करने लगा है..और हां भूख भी लग रही है...देखो
टिंकू को भी अब नींद आ रही है...इस पाँत के उठाने के बाद अगली पाँत में वह भी बैठ
कर खा लेगा...हालाँकि यहाँ बफर सिस्टम की भी व्यवस्था थी...वह पाँत में बैठ कर खाए
या फिर..सुखई के मन में विचारों का ऐसा ही प्रवाह चल रहा था..
उसे याद आया अपने
बचपन का ऐसा ही एक दिन...! वह टिंकूआ से थोड़ा ही बड़ा रहा होगा...जब अपने पिता के
साथ यहाँ आया था..तब इस आलीशान पक्की हवेली के स्थान पर एक कच्ची बखरी थी...! उसके
पिता उसे लेकर ऐसी ही एक पाँत में खाने के लिए बैठ गए थे...उसे थोड़ा-थोड़ा याद है....लोगों के साथ पंक्ति में बैठ कर खाने की जिद उसी ने की थी...! शायद उसका मन रखने के
लिए ही उसके पिता सबके साथ खाने के लिए ही पंक्ति में बैठ गए थे...
हाँ... उसे अब भी अच्छी तरह याद है...! शायद वह चित्तू परधान के दादा ही थे...! चिल्ला कर बोले थे..अरे ओ..कतवरूआ..! ऊहाँ कहाँ बैठ गए रे..! चल उठ...! देख ऊ तोहन क पाँति बैठी बा..जे ऊहाँ बैठ...! उसके पिता और उसे वहाँ से उठा दिया गया था..! तब लोगों ने कैसे घूर-घूर कर उन्हें देखा था..कुछ तो हँस भी रहे थे..! उसके पिता को इस बात से बहुत अपमान पहुँचा था...कई दिनों तक तो वह घर से निकले भी नहीं...! वह बीमार से हो गए थे..! हाँ एक बात थी फिर कभी वह इस दरवाजे पर नहीं आए..!
हाँ... उसे अब भी अच्छी तरह याद है...! शायद वह चित्तू परधान के दादा ही थे...! चिल्ला कर बोले थे..अरे ओ..कतवरूआ..! ऊहाँ कहाँ बैठ गए रे..! चल उठ...! देख ऊ तोहन क पाँति बैठी बा..जे ऊहाँ बैठ...! उसके पिता और उसे वहाँ से उठा दिया गया था..! तब लोगों ने कैसे घूर-घूर कर उन्हें देखा था..कुछ तो हँस भी रहे थे..! उसके पिता को इस बात से बहुत अपमान पहुँचा था...कई दिनों तक तो वह घर से निकले भी नहीं...! वह बीमार से हो गए थे..! हाँ एक बात थी फिर कभी वह इस दरवाजे पर नहीं आए..!
अब पुनः अगली पंक्ति खाने के लिए बैठ रही
थी..लोग बैठ चुके थे..सुखई ने सब के सामने दोना पत्तल रख दिया था...पलटुआ अलग से
अपने विरादरी के साथ वाली लाइन में बैठा था...वहां भी उसने सबके सामने दोना पत्तल
रखा..
अरे..ई पलटुआ से
तो वह ज्यादा ही साफ़ सुथरा रहता है..! हालाँकि यह पलटुआ भी उसी की विरादरी का
है... हाँ...यह भी धुरिया का ही कमाल है..! साबुन तो घर में अकसर नहीं रहता फिर भी
उसकी धुरिया... उसके कपड़े रेह से ही सही हमेशा साफ़ रखती है..! कुछ ऐसा ही सोचते
हुए वह टिंकू को लेकर सब के साथ वाली पंक्ति के बीच के खाली स्थान पर जाकर बैठने
की बात सोचने लगा था..अचानक पिता के साथ वाली घटना उसे याद आ गई...उसने धीरे से
टिंकू की बाँह पकड़ी और पलटुआ के बगल में जाकर उसकी पाँत में बैठ गया...
तभी कुछ खटका हुआ शायद
पानी लेकर धुरिया आ चुकी थी... “इतनी देर कर दी पानी लाने में..?” सुखई ने पूछा|
“ऊहीं नलवा पर पलटू क मेहरारू मिलि गई रहिन..और ऊहई कालोनी क बात करइ लागिन...|” धुरिया ने पसीने से तर-बतर अपने चेहरे को आँचल से पोंछते हुए कहा “बतावत रहिन कि..." हाँ आँचल से चेहरा पोंछते समय..पसीने से भीगे उसके कपड़े उसके शरीर से चिपके हुए थे... इसी समय सुखई की निगाह उसपर पड़ी...सुखई अपनी पत्नी को ध्यान से देखने लगा..
वास्तव में मानव प्रकृति प्रदत्त भावनाओं को कभी भी अपने से परे नहीं कर सकता चाहे वह किसी भी सामाजिक, आर्थिक या बौद्धिक स्तर का क्यों न हो...! आदिम इच्छाएं शायद ही ऐसे किसी प्रतिबन्ध को मानने के लिए तैयार हों..? हाँ हम अपने बौद्धिक और नैतिक संचेतना से अपनी आदिम इच्छाओं को एक सीमा तक नियंत्रित कर सकते हैं....!
फिर धुरिया तो सुखई की
पत्नी ही थी...पत्नी के इस रूप को देखकर धुरिया में प्राकृतिक आदिम इच्छा जागने
लगी..धुरिया एकटक पत्नी के ऊपर नजरें गड़ाए हुए था...पति को इस तरह देखकर धुरिया
शरमा सी गयी और अपने आँचल को ठीक करते हुए बोली, “हटऊ..का देख रहे हो...” सुखई
पत्नी के इस वाक्य को जैसे सुना ही नही...खटोले से उठते हुए पत्नी के सामने खड़ा हो
गया..और पत्नी के चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए बोला... “धुरी.. तुम्हें
देख रहा हूँ..रे..! हमार धुरी कितनी सुन्नर है..!”
(कहानी अगले भाग में समाप्य)