यह अकथ-मन ! यहाँ प्रश्नों और उत्तरों की टकराहटों में एक सार्थक दुनियाँ तलाशनें की आकुलता है...
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रविवार, 20 नवंबर 2016
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मंगलवार, 15 नवंबर 2016
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बुधवार, 9 नवंबर 2016
ऐसे परिवर्तन?
अपने-अपने आभामंडल
अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग होते हैं। कुछ लोग अपने आभामंडल के प्रति बड़े जागरूक होते हैं। वैसे भी इस सम्बन्ध में हम अपने देवताओं से ही सीख लेते पाए गए हैं। जिस देवता का जितना बढ़िया आभामंडल होता है हम उस देवता की उतनी ही पूजा करते हैं। उतना ही चढ़ावा मिलता है। अभी आप फेसबुक पर देखिए तो हम जैसे लोग यहाँ भी आकर अपने-अपने आभामंडल को बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते समझे जा सकते हैं।
कोई कुछ समझा जाए! इस चक्कर में, कोई शूर-वीर, तो कोई आदरणीय-सम्माननीय, तो कोई स्वघोषित दानवीर, तो कोई स्वनामधन्य ख्यातिलब्ध टाइप हरकतें करते हुए पाया जाता है। हाँ, कुछ-कुछ इसी टाइप से लोग सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और जैसे अपने हाथ में कोई कटोरा लिए हुए दाता के नाम पर देने की प्रार्थना करते हुए दिखाई देते हैं।
वाकई! हम बड़े प्रतिभाशाली हैं, हमारी प्रतिभा का सम्मान तो होना ही चाहिए। लेकिन कुछ लोगों की महानता और अच्छाई को देखकर मुझे अपने ऊपर कोफ्त सी होती है कि आखिर मैं ऐसा क्यों न हो सका? किसी की दरियादिली देख-सुनकर मुझे अपनी बेदरियादिली कचोटने लगती है।
अब यही बात ले लीजिए, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, और भीख देना लगभग पसंद ही नहीं है। ऐसे में कई बार जेब में सिक्के न होने की सोचकर भी मन को, भीख न दे पाने के पापबोध से बचा लेता हूँ। अभी एक सुदूर धार्मिक यात्रा पर निकला था, वहाँ एक महिला अपने छोटे बच्चे का हाथ पकड़े हुए जब अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास करते हुए भीख देने की गुहार की तो मैंने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की थी। फिर भी वह मानी नहीं थी और बोली, "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर जब उसकी ओर मुड़कर देखते हुए मैंने कहा, "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़ते हुए से वह यह कहते हुए कि "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी।
हाँ, ऐसे ही मैं अपनी पूरी यात्रा में भीख माँगने वालों को नजरअंदाज करता रहा था। ट्रेन में एकाध अंधे पर अनमने ही सही कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरे दयालु होने के उत्साह पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे,ये सब बने होते हैं, ऐसे ही जब मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी तो ट्रेन रूकने पर वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था...पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" इस बात पर मैं बोला तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन मुस्कुराते यह अवश्य सोचा था कि "यदि ऐसे भिखमंगे को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक तो जीत ही लें! खैर...
ट्रेन में ही मेरे जैसे एक अन्य सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात को समझने का प्रयास किया और ट्रेन की खिड़कियों से पीछे भागते जमीन और पेड़ आदि को देखते हुए यह सोचते जा रहा था कि जब हम कैसे चीजों को पीछे छोड़ते हुए चलते हैं और इसी गति में खो गया था।
थोड़ी देर बाद सही में, ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." सुन मैंने ध्यान से उस ओर देखा तो एक शख्स को उन तालीबाजों को नोट देते हुए देखा।इधर मैं मन में निश्चय करने लगा था कि इन्हें एक पैसा नहीं देना है...जब भिखमंगों बेचारों को नहीं दिया तब इन्हें देना तो एकदम ऊसूलों के खिलाफ होगा..और एकदम कायराना..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही देना उचित मानने लगने लगा..! हालाँकि इनकी अश्लीलता भरी छेड़खानी से भी डर लग रहा था.. इसी डर से वे जिसकी ओर हाथ बढ़ाते वही दस का नोट निकाल कर दे देता। यात्रियों से उन्हें इस तरह ताली बजाते, पैसे लेते देख, इसे एक तरह की गुंडागीरी समझ मैं रेलवे की व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, मेरे पास से गुजरते हुए, इनने साथी कश्मीरी यात्री की ओर हाथ बढ़ा कर दस का नोट ले लिया। इसी तरह से दो-तीन बार हुआ वही बेचारे कश्मीरी सहयात्री ही इन्हें दस का नोट देते रहे। हाँ, एक बात थी इन लोगों ने मेरी ओर एक बार भी हाथ नहीं बढ़ाया था। और इस प्रकार मैं अपने धर्मसंकट को बचा गया था लेकिन भिखमंगे को दुत्कारने वाले यात्री को दस का नोट देना ही पड़ गया था।
एक बात है भिखमंगई भी एक प्रकार की हिजड़ागीरी ही है। जो जितना बड़ा हिजड़ा वह उतना बड़ा भिखमंगा..! और, एक तथ्य और...ये ताली बजा-बजाकर भीख ले लेते हैं। यह सब अपने-अपने तरीके के आभामंडल का भी कमाल है।
हमारा कश्मीर
जम्मू में उस सरकारी खादी-भंडार के दुकानदार ने बताया कि जम्मू-कश्मीर का हैंडीक्राफ्ट्स जब देश के अन्य हिस्सों में बिकने जाता है तो उसपर टैक्स लगता है और वही माल देश के अन्य भागों में डेढ़ से दो गुने मँहगे दाम पर बिकता है। इस स्थिति में कश्मीर का व्यापार प्रभावित होता है। दुकानदार ने धारा तीन सौ सत्तर को इस टैक्स का कारण बताया। दुकानदार ने धारा तीन सौ सत्तर को कश्मीर का अन्य भारतीय राज्यों के साथ होने वाले व्यापार में बाधक के रूप में भी उल्लेख किया। वह भारतीय संविधान में प्राप्त कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाए जाने के पक्ष में था। यहाँ एक बात और बताना चाहते हैं वैसे जो यहाँ की यात्रा कर चुके होंगे उन्हें पता ही होगा, वह यह कि यहाँ बीएसएनएल या अन्य कम्पनियों के प्रीपेड सिम रोमिंग पर भी काम नहीं करते, जबकि यही सिम भारत के किसी भी क्षेत्र में जाइए रोमिंग के साथ काम करते रहेंगे। एक तरह से यह हमें गलत प्रतीत हुआ था। कुछ लोगों ने इसके पीछे भी धारा तीन सौ सत्तर का कारण बताया।
ट्रेन में छह-सात कश्मीरियों का एक दल भी मिला, जो कश्मीर से कोलकाता जा रहा था। वैसे तो वे आपस में कश्मीरी में ही बात करते थे लेकिन अन्य लोगों से बातचीत में हिंदी का ही प्रयोग करते थे। एक बात है, वाकई! आज हिन्दी देश के आमजनों को जोड़ने वाली भाषा बन चुकी है। विशाखापट्टनम आन्ध्रप्रदेश का वह सैनिक भी हिन्दी में बखूबी बोल ले रहा था जो विशाखापट्टनम से जम्मू अपने तैनाती स्थल पर जा रहा था। पूँछने पर उसने बताया था कि पाँच वर्षों से वह यहाँ तैनात है तो हिन्दी सीखनी ही है। मतलब कोई चाहे या न चाहे हिन्दी सही मायने में राष्ट्रभाषा का स्थान लेती जा रही है। हाँ तो, उन कश्मीरियों ने भी जब अपने मोबाइल से गाना सुनने शुरू किए तो वह भी हिन्दी फिल्म का ही गीत था। बातों-बातों में उन कश्मीरियों ने बताया कि वे श्रीनगर के लाल चौक के निवासी हैं और व्यापार के सिलसिले में कोलकाता जा रहे हैं, जहाँ उन्हें लगभग छह माह तक रहना है। उनमें, कुछ के साथ उनका परिवार भी था। हालाँकि वे अपने खाने-पीने से लेकर बड़े मस्त अंदाज में अपनी इस यात्रा पर थे।
हमारी उनसे बातचीत बढ़ी। तो उन लोगों ने हमसे श्रीनगर जाने के बारे में पूँछा तो पत्नी ने आतंकवादियों का डर बताया। इसपर उन कश्मीरियों ने कहा ऐसी कोई बात नहीं है। हाँ, डलझील के हाउसबोट जरूर मँहगे हैं। फिर एक बुजुर्ग कश्मीरी ने पहलगाम और बाबा अमरनाथ की और मुबारक छड़ी की चर्चा श्रद्धा भाव से करते हुए मुझसे कहा वहाँ अवश्य जाना चाहिए। पत्नी के वहाँ के सेब के बागानों का जिक्र करने पर उनने हमें एक कश्मीरी सेब खाने के लिए दिया। उनके साथ एक अट्ठारह-बीस वर्ष के नौजवान को देखकर पत्नी ने उसकी पढ़ाई के बारे में पूँछा तो उन लोगों ने उसके हाईस्कूल पढ़े होने और बिजनेस सीखने के लिए साथ चलने की बात कही। हाँ, इन दिनों कश्मीर घाटी में हड़ताल होने के कारण स्कूल बंद होने की टीस बातों-बातों में दबे स्वर में भी उनसे व्यक्त हुआ। ट्रेन से उतरते समय उन लोगों ने बड़े जोशो-खरोश और आत्मीयता के साथ हमसे हाथ भी मिलाए थे।
मैं मानता हूँ, हमारे अपने देश में चाहे कोई किसी धर्म का माननेवाला क्यों न हो, जब हम कहीं आपस में मिलते हैं तो, किसी परिवार के सदस्यों की ही तरह आत्मीयता लिए हुए! देश के आम लोगों के बीच कहीं कोई कटुता नहीं है। मुझे आश्चर्य होता है कैसे कुछ लोग धर्म की आड़ लेकर दिलों में दरार डालने में कामयाब होते दिखाई देते हैं?
एक बात है, यदि इस देश में जीवन की सहजता बनाए रखने दिया जाए तो शायद साम्प्रदायिकता जैसी समस्याएं जन्म ही न लें। मैंने अनुभव किया है कि, यह दिखाने के लिए कि हम आपके साथ हैं किसी अल्पसंख्यक समुदाय को किसी अतिरिक्त सिम्पेथी की भी जरूरत नहीं है। यह दिखावे की प्रवृत्ति भी हम भारतीयों की सहज जीवनशैली को प्रभावित करती है तथा एक तरह की साम्प्रदायिकता को ही जन्म देती है। हम जहाँ मिले एक दूसरे का सम्मान करते हुए आत्मीयता के साथ। मेरा अपना अनुभव है कि, देश में आम लोग साम्प्रदायिक समस्या की चर्चा करने में भी शर्म महसूस करते हैं। वाकई! हमें इसकी चर्चा भी नहीं करनी चाहिए।हम जहाँ मिले एक दूसरे का सम्मान करते हुए आत्मीयता के साथ। समस्याएँ स्वत: हल हो जाएंगी। आखिर, ऐसे ही नहीं हम हजारों साल से साथ रहते आए हैं, हम एक-दूसरे के अंग ही हैं।
एक अन्तिम बात, पूरा भारत एक ही तरह का है, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिए। कोई विभिन्नता समझाए तो तत्काल समझ जाइए कि कोई नेता बनने की कोशिश में है।
यूनियनबाजी
आजकल नास्तिक लोग भी यूनियनबाजी पर उतर आए हैं। मेरा भी मन करता है कि स्वयं को नास्तिक घोषित कर नास्तिकों की यूनियन में सम्मिलित हो जाएँ। इधर नास्तिकों की एक बैठक की चर्चा जोरों से चल भी रही थी। वैसे भी, भगवान जी के सामने हाथ जोड़कर जब भी खड़ा होता हूँ, तो लगता है जैसे किसी नाटक में भाग ले रहा होऊँ..! भगवान जी हैं भी या नहीं, और अगर हैं भी तो मेरी विनती सुन रहे होंगे या नहीं..हाथ जोड़े-जोड़े, इन्हीं प्रश्नों से दो-चार होता रहता हूँ...सोचता हूँ, नास्तिक हो जाने पर हाथ जोड़ने या भगवान बेचारे के होने न होने की सोच से मुक्ति मिल जाएगी और सबसे बड़ी बात तो स्वयं भगवान जी के लिए होगी.. हमारे जैसे अन्य नास्तिकों की बढ़ती संख्या से भगवान को भक्तों की अर्जियों के ढेर से मुक्ति भी मिलेगी...इन अर्जियों को पढ़ने और इसपर कार्यवाही हेतु अन्य देवताओं को मार्क करने में भगवान जी को काफी जहमत उठानी पड़ती होगी... मतलब, हमारे नास्तिक हो जाने का सबसे बड़ा लाभ स्वयं भगवान को ही मिलेगा...
एक बात है नास्तिक होना कोई हँसी-ठट्टा जैसा खेल नहीं है.. इसके लिए बकायदा दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, फिर किसी बात की परवाह न करते हुए "इनकारी-स्वभाव" बनाना पड़ता है। हाँ.. जैसे "भई मैं इसमें विश्वास नहीं करता.." उसे तर्क पर तर्क करने में महारत हासिल होना चाहिए। मतलब नास्तिक अपनी बुद्धि का जबर्दस्त उपयोगकर्ता होता है। सभी चीजों का खंडन करता है। मंडन तो जैसे उसे आता ही नहीं। तो क्या नास्तिक अपनी बुद्धि में ही जीता है..? हाँ, नास्तिक अपनी बुद्धि में जीता हो या न जीता हो, लेकिन अपने में ही अवश्य जीता है। तर्कबुद्धि वाला अवश्य नास्तिक हो जाता है क्योंकि नास्तिक संसार को छील-छील कर देखता है। नास्तिक बाल की खाल निकाल-निकाल कर नास्तिक होते रहते हैं।
इधर आस्तिक चीजों को छीलकर देखने का आदी नहीं होता। वह भी छीलने वालों से चिढ़ता है इसीलिए वह सभी चीजों को स्वीकार करनेवाला होता है। उसकी अर्जी भगवान से लेकर हर उस जगह लगी होती है जहाँ से भी उसे कुछ मिलने की उम्मीद रहती है। अभी आप देखो, सत्तापक्ष के लोग आस्तिक होते हैं.. उनमें आशा की किरण छिपी होती है, वे नास्तिक नहीं होते। नास्तिक तो वही होता है जिसकी कहीं सुनी नहीं जाती, और इसी खिसियाहट में ऐसे लोग नास्तिक हो जाते हैं। मतलब नास्तिक होना एक प्रकार की खिसियाहट ही है।
एक हमारे बाबा थे, एक बार किसी बात पर अपने भगवान से गुसाए तो भगवान को ही कुएँ में फेंक दिए.. एकदम से नास्तिक होने के खिसियाहट भरे अंदाज में..! हालाँकि बाद में वे अपने भगवान के बिना परेशान भी हो उठे थे और अपने भगवान को खोजने के लिए कुँए में भी कूदने के लिए तत्पर हो उठे थे। वे मेरे बाबा बहुत साधारण सपनों वाले इंसान थे इसीलिए अपने भगवान के बिना बेचैन हो उठे थे। मतलब बड़े सपनों वाले लोग काम बनता न देख भी नास्तिक हो जाते हैं..और यही लोग काम की चिन्ता से मुक्त हुए तो, इसी अपने नास्तिकता के कुँए से भी अपना भगवान खोज लाते हैं।..
कभी-कभी आस्तिकों की मौज देख लोग नास्तिक बन जाते हैं..! मैंने एक व्यक्ति को पूजा-पाठ करने वालों से बहुत चिढ़ते हुए देखा था, वे आस्तिकों के बारे में कहते थे कि , "ये खाए-पिए अघाए लोग हैं।" बात सही भी है, ये चिढ़ने वाले तो दिनभर अपनी आइडियाबाजी से फुर्सत ही नहीं पाते कि कुछ करके आस्तिकों जैसा सुख लूटें..सो दिन भर आस्तिकों से ही खुन्नस निकालते रहते हैं। और इसी खुन्नस में अपनी नास्तिकता भी प्रदर्शित करते हैं और पीठ पीछे दिन रात माला भी जपते रहते हैं कि हे भगवान हमारे दुख-दलिद्दर काटो। खैर...
कुछ लोग मानते हैं कि, जो काम करने में ही विश्वास करता है वही नास्तिक होता है..। ये ल्लो, मैं तो यही मानता आया हूँ, जिसके अन्दर किसी भी तरह का विश्वास का कीड़ा होगा वह आस्तिक ही होगा... नास्तिक तो, विश्वास विहीन जीव होते हैं, ये किसी बात पर विश्वास नहीं करते। फिर ये कर्म पर कैसे विश्वास करेंगे? चार्वाकी तो नास्तिकों के मसीहा माने जा सकते हैं! अगर ये कर्म पर विश्वास कर रहे होते तो "ॠणं कृत्वा घृतम् पीवेत" का उपदेश न दिए होते। नास्तिक कुल मिलाकर मौज करने वाले लोग ही होते हैं, और दूसरे के फटी में अपनी टाँग अड़ाकर मौज लेते रहना, कर्ज लेकर घी पीना इनकी आदत में शुमार होता जाता है। मतलब कर्जदारी में होना भी नास्तिक होने का एक लक्षण ही है।
लेकिन आप मानो या न मानो यह आपकी मर्जी, नास्तिक होता है बहुत भावुक इंसान..! इसे बात-बात पर रोना आता है..लेकिन ये दूसरों को रुला नहीं पाते..दूसरों को रुला न पाने की अक्षमता के कारण अकसर ये अपने को उपेक्षित ही समझते हैं.. अब यह इनकी अपनी समझ है, इसपर हम क्या कहें..। खैर, ये अकसर आस्तिक या कहें भगत विरादरी से परेशान होकर रोते रहते हैं.. यहाँ भगत विरादरी भी कम चालू नहीं है...यह बिरादरी अपनी आस्तिकता खूब पहचानती हैं.. ये लोग अपनी आस्तिकता के बल पर जब चाहें जिसको रुला देते हैं, हाँ केवल पहले रोना शुरू करके..!
ये आस्तिक या कहें भगत, अपनी भावना रूपी पतवार को थाम कर भवसागर में उतरते हैं और और बाद में किसी चट्टान जैसे टापू की त्वरित पहचान कर उसपर शरण ले वहीं से भवसागर में तिरते लोगों को भक्ति-भावित कर भवसागर पार कर लेने का सब्जबाग दिखा दिखाकर इस सागर में उनसे हाथ पैर चलावाते रहते हैं..ये हाथ-पैर चलाने वाले इसके सिवा कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि भगत की वंशी की धुन जो बड़ी प्यारी होती है...! हाँ, एक बात है ये भगत और कोई नहीं स्वनामधन्य घोषित आस्तिक ही होते हैं, जिनके आनंदित हो कर बंशी बजाने के सुख से कोई असुखी अपने को नास्तिक घोषित कर लेता है। और ये नास्तिक लोग भवसागर में जाने से कतराते भी हैं तथा घोषित आस्तिकों की, किनारे बैठे लानत-मलामत करते रहते हैं। मतलब यहाँ एक बात और स्पष्ट होती है, वह यह कि, नास्तिक होना या आस्तिक होना केवल कुछ लोगों का ही काम है, हम यह भी कह सकते हैं, जिसका काम बन जाए वह आस्तिक और जिसका काम न बन पाए वह नास्तिक..! यही है नास्तिक-आस्तिक का खेल..बाकी तो सब अपने-अपने तईं, भवसागर में ही डूबते उतराते रहते हैं।
मैंने शुरू में कहा था न कि मैं भी थोड़ा-बहुत अपने को नास्तिकता की श्रेणी में डाल दूँ..! लेकिन मुझ पर तब कुछ ज्यादई दिमागदार होने का आरोप चस्पा होगा या फिर मेरा कोई काम गड़बड़ा गया है बताया जाएगा। लेकिन, यहाँ मैं अपनी सफाई में कहना चाहता हूँ कि भइए! ऐसा कुछ नहीं है..हाँ, रोज-रोज की चिक-चिक से मुक्ति पाना चाहता हूँ कि लो अब सारा टंटा खतम, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी..कहो अब सेकुलर-सेकुलर..! मैं तो बन गया नास्तिक..तो..अब सेकुलर काहे का...?.. अब मैं कहाँ धर्मनिरपेक्ष रहा..? मैं तो अब नास्तिक-धर्मी हुआ..! तुम तो अपने ईश्वर, गाड, भगवान, अल्ला..को पकड़े रहो.. मैं तो सब छोड़कर नास्तिक बनने चला..! सेकुलरता के दिखावे से पिंड भी छूट जाएगा।
अब मैं भगवान को ही नहीं मानता उन बेचारे को तो मैं नास्तिकता के कुँए में फेंक आया..अब न तुम्हारी ईद की सिवईया खाऊँगा और न रोजा-इफ्तार में जाऊँगा और न ही तिलक लगाकर किसी गंगाघाट या मूर्ति के आगे शीश झुकाउंगा..इस नास्तिकता से सेकुलर दिखने का सारा झगड़ा-टंटा खतम..देख लेना एक दिन सभी सेकुलर खेमे के लोग ऐसेई अपने को नास्तिक घोषित कर देंगे..! और तो और..नास्तिक घोषित हो जाने से भगत होने जैसे आरोप से भी मुक्ति पा जाएंगे..बाम-दक्षिण का भी विवाद खतम..। यहाँ एक बात और है, भगवान को कुएँ में फेंक देना ही नास्तिकता नहीं है, किसी खाते-पीते को देखकर चिढ़ जाना भी नास्तिकता ही है, लगे हाथ इसी के साथ गरीबों के मसीहा भी सिद्ध मान लिए जाएंगे। बहुत फायदेमंद है नास्तिक होना।
लेकिन नास्तिकों को यूनियनबाजी की क्या जरूरत...? अरे भाई! बिना यूनियनबाजी के कोई जान नहीं पाएगा कि हम भी नास्तिक हैं..या नास्तिक होने का कोई लाभ समझ में भी नहीं आएगा। अकेले में बने रहिए नास्तिक...किसी का क्या जाता है..! वैसे भी, आजकल संघ का जमाना है..दल का जमाना है... संघ बनाकर लोग मौज तो कर ही सकते हैं, तो नास्तिकों को इकट्ठा होना ही पड़ेगा, यूनियनबाजी करनी ही होगी।
वाकई! यह एक दिव्य सोच है...अपने को नास्तिक घोषित कर देना...आखिर, है कोई माई का लाल जो अपने को आस्तिक घोषित कर दे? आस्तिकता कोई घोषित करने वाली चीज नहीं है जैसे प्रकृति कुछ भी घोषित नहीं करती। घोषित तो रेयर वाली चीज होती है आस्तिकता रेयर वाली चीज नहीं है, रेयर तो नास्तिकता ही है! इसीलिए जब घोषित होगी तो नास्तिकता ही। हाँ, नास्तिक घोषित कर देने का यही उचित मौसम भी है और नास्तिकों के यूनियनबाजी का भी। यह जरूरी है ; मान लो, गलती से किसी सम्प्रदाय के चेले-चपाटों के बीच उनसे पाला पड़ गया और गलती से उन्हें नास्तिकता की झाड़ पिलाई तो फिर बड़ी पल्लई होगी..! फिर तो वहाँ साम्प्रदायिक ही घोषित करा दिए जाएँगे, दंगा हो जाएगा..! तब क्या होगा..? तब यही नास्तिकों की यूनियन हमारे काम काम आएगी, तब सभी नास्तिक मिलकर हमें आरोपमुक्त कराएंगे, दंगाइयों से बचाएंगे। इसीलिए नास्तिकों के यूनियन की जरूरत है, इस यूनियन की बैठक होनी भी जरूरी है। भाई! नास्तिक होने की यही राजनीति है.. हम तो नास्तिकता की राजनीति करेंगे।
लेकिन हम तो ठहरे साधारण लोग...हम कोई आइडियाबाज भी नहीं है.. और न ही किसी ऊँचे ख्वाब में जीने वाले लोग, तो क्यों अपने को आस्तिक या नास्तिक घोषित कर यूनियनबाजी का चक्कर पालें? यूनियनबाज ही घोषणाएँ करते हैं और किसी घोषणा की सफलता के लिए यूनियनबाजी की दरकार होती है। मतलब यूनियनबाजी का चक्कर हर जगह है... सोच रहा हूँ इस पचड़े में पड़ने से बेहतर सलाहियत मेरे लिए यही होगी कि...जब यूनियनबाजी ही करनी है तो नास्तिक होने से बेहतर "सेकुलर" ही बने रहना है..और सेकुलरों का बना बनाया यूनियन भी मिल जाता है..! ...इसमें साम्प्रदायिक होने का कम से कम कोई खतरा भी नहीं होता। तो भाई लोग, "सेकुलर" होने का विकल्प "नास्तिक" होने में मत तलाशो यह ठीक नहीं आज की राजनीति में "सेकुलरता" ही उम्दा माल है..! नहीं तो, जिसके लिए तुम नास्तिक बन रहे हो वही तुम्हें साम्प्रदायिक घोषित करा देगा।
इधर नास्तिक के कुँए में फेंके गए मेरे भगवान जी मुझे याद आने लगे हैं. मुझे उनकी कमी अखर रही है...मिल जाएँ तो कम से कम उन्हें पकड़ कर दो बूँद आँसू ही गिरा लूँ...मन बड़ा भावुक-भावुक सा हो रहा है इतनी राजनीति मैं संभाल नहीं पाउँगा...मेरे ख्वाब बड़े नहीं हैं। मुझे नास्तिक या आस्तिक होने में कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि मैं यूनियनबाज भी नहीं हूँ....