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रविवार, 20 नवंबर 2016

दरकाए जाते पुल

            पुल का बहुत महत्व होता है। पुल जोड़ते हैं। एक दूसरे को समझने का अवसर देते हैं। लोगों के बीच के आपसी शक-शुबहा, भ्रम को ये पुल ही दूर करते हैं। किसी पुल से आर-पार जाकर हम तमाम विभाजक रेखाओं को धता बता सकते हैं। मैं तो यह भी मानता हूँ, पुल लोगों को ठगे जाने से भी बचाते हैं। पुल संभावनाओं के द्वार भी खोलते हैं। यही नहीं अपने होने के क्रम में यही पुल अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक महत्व भी निभाते चलते हैं। इसीलिए पुल तोड़े नहीं जाते, बल्कि इन्हें विस्तार दे कर और सुगम भी बनाया जाता है, जिससे आसानी से लोग आर-पार हो सकें। ये पुल जब कभी छीज कर अदृश्य हो जाते हैं, तो धार्मिक मिथक बन जाते हैं। तब ऐसे ही किसी छीजे पुल को लोग, किसी रावण को मारने के लिए बना रामसेतु पुकारते हैं। शायद इन्हीं कारणों से सीधे-सादे लोगों को ये पुल रहस्यात्मक भी प्रतीत होते हैं। 
           बचपन में अकसर पुलों को लेकर रहस्यात्मक किवदंन्तियाँ भी सुनी है। पुलों पर पहलवान वीर बाबा या ब्रह्मवीर बाबा का वास बताया जाना देखा और सुना है। एकाध पुल की तो घंटे-घड़ियाल से पूजा होते हुए भी देखा है। मतलब ये पुल अदृश्य रूप से हमें लाभ या हानि भी पहुँचा सकते हैं। कभी- कभी बचपन में, किसी अज्ञात भय से, शाम के समय किसी पुल को तेजी से साइकिल चलाते हुए पार करते थे। मतलब बचपन में पुल से डर भी लगता था। 
            उस दिन पता चला कि वह पुल फिर टूट गया है। वाहनों का  उस पुल से गुजरना बंद है। यह पुल अकसर टूटता ही रहता है। मन में, इस पुल के टूटने को लेकर बहुत गुस्सा उठता है। पता नहीं हम कैसे पुल बनाते हैं, जो टूट जाते है।  लेकिन यह पुल किसी खास अवधि में ही टूटता दिखाई देता है। 
           एक बार, इस पुल से गुजरते हुए, मेरी गाड़ी में लिफ्ट लिए हुए एक सिपाही से मैंने पुल के टूटने की चर्चा की तो, उस सिपाही ने मुझे बताया था "यह पुल अपने आप नहीं टूटता इसे तोड़ा जाता है।" उस सिपाही की बात सुन मैं अचंभित हुआ था। उसने इस पुल के तोड़े जाने की आर्थिक व्याख्या भी की थी। 
             वाकई! पुल भी किसी बने रिश्ते सरीखे ही होते हैं। पुल और रिश्ते दोनों के बनने के पीछे ढेर सारे कारण होते होंगे। हालाँकि, इन पुलों के नींव में जब स्वार्थ छिपा हो तो किसी रिश्ते की ही भाँति ये भी कमजोर होते हैं, दरक जाते हैं। इन पुलों में मजबूती सीमेंट, बजरी और लोहे के मिल जाने से ही आती है, जैसे रिश्ते में, मजबूती वाले तत्व, त्याग और प्रेम, मिला होता है। स्वार्थ वाले रिश्ते तनाव नहीं झेल पाते और ये भी दरक जाते हैं। 
         
            इस पुल को मैंने विशेष स्थानों पर ही टूटते हुए देखा है, यह पुल अपने पायों से तो टूटता नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन पुल पर का रास्ता जरूर दरक जाता है और फिर इसपर आवाजाही बन्द। इस पुल को फिर से दरका जान सिपाही की बात पर ध्यान चला गया। उसने पुल तोड़ने की आर्थिक व्याख्या की थी। माल के ठेकेदार अपने डम्प माल को बेचने के लिए पुल तोड़ देते हैं। अपना माल बेंच दो..! क्यों..क्योंकि, तब अपनी-अपनी ओर वाले, अपनी-अपनी तरफ ही माल बेंच पाएँगे..! री होता है कि इसपर इतना बोझ लादा जाय कि यह दरक जाए..वाकई! सब की हर चीज सहने की सीमा होती है। पुल को दरकाकर, कुछ लोगों द्वारा चाँदी काटी जाती है। पुलों में दरार पैदा करने का काम ठेकेदार टाइप के लोग ही करते हैं। पुल इनकी आँख में खटकते हैं। 
            ये ठेकेदार बहुत चालू चीज होते हैं। वैसे तो इनका किसी पुल से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन ये पुल की महत्ता को समझते हैं। किसी चीज की माँग और आपूर्ति पर विशेष रूप से नजरें गड़ाए रहते हैं। अगर किसी "चीज" की आपूर्ति बाधित कर दी जाए तो उसकी माँग बेतहाशा बढ़ जाती है, यह उस "चीज" का ठेकेदार बखूबी जानता है। भविष्य के फायदे की सोच कर वह मार्केट की ओर अपना माल डम्प करता रहता है। चूँकि पुल चालू रहने से दोनों ओर के माल बिकने की पूरी सम्भावना बनी रहती है इसलिए अपने डम्प माल को बिकवाने के लिए वह पुल को दरकाने की सोचने लगता है। 
             अब देखा जाय तो विचारों के ठेकेदार भी यही करते हैं। क्योंकि "विचार" भी "रा-मटेरियल" की तरह ही इस्तेमाल होते हैं। तो, "विचार" भी एक तरह का माल हुआ, जो किसी आदिम टाइप की किताब से निकाल-निकाल कर दूसरी ओर के लोगों के लिए डम्प किया जाता है। अब ऐसे "रा-मटेरियल" का ठेकेदार, अपने इन विचारों के समर्थन में कसीदे गढ़-गढ़ कर माल तैयार करता है। चूँकि ऐसे कई ठेकेदार होते हैं और सबके अपने-अपने डम्प माल होते हैं। लेकिन जनता के बीच पुल होता है, इस पुल के कारण ही ठेकेदारों की योजना सफल नहीं हो पाती और डम्प माल धरा का धरा रह जाता है। जनता के बीच के ये पुल जनता को एक दूसरे से मिलाकर ऐसे माल की असलियत से भी पहचान करा देते हैं।
          लेकिन जैसा कि, मैंने ऊपर ही कहा है कि ठेकेदार बहुत चालू चीज होते हैं! ये अपना तैयार डम्प माल जनता को लेने के लिए मजबूर कर देने की जुगत में पड़ जाते हैं और इनका खेल आरंभ होता है। तो ये, करते क्या हैं? ये पुल पर आवाजाही रोकना चाहते हैं। ये ठेकेदार लोग पुल तोड़ने की ठान लेते हैं। क्योंकि जब पुल टूटेगा तो मजबूरी में ही सही इनका माल चल निकलेगा! इनके माल लेने की मजबूरी हो जाएगी।
         हाँ तो,ये ठेकेदार अपने डम्प माल को एक ट्रक में ओवरलोड कर इस ट्रक को पुल के ऊपर ले जाकर खड़ा कर देते हैं। और फिर ट्रक की खराबी के बहाने से वहीं पुल पर ही ट्रक को जैक पर उठाकर छोड़ देते हैं। किसी को कानों-कान इस बात की भनक नहीं होती कि पुल तोड़ने की साजिश चल रही है। इधर लोगों को यह भ्रम रहता है कि एक खराब ट्रक पुल पर खड़ा है।
         अब आप ही बताइए! किसी ओवरलोडेड ट्रक का पूरा भार जब केवल एक छोटे से जैक पर टिकेगा तो पुल को दरकना ही है। आखिर किसी दो स्थानों को जोडते पुल की भी सहने की सीमा होती है; पुल को क्रेक हो ही जाना है। लोगों की अज्ञानता और नासमझी का फायदा उठाकर कर ओवरलोडेड यह ट्रक ठेकेदारों के हित में, पुल तोड़ते हुए इसे नुकसान पहुँचाकर गायब हो जाता है। कहने का आशय यही है कि, ऐसे ठेकेदारों का काम पुल तोड़ना ही है, यह उनके फायदे की चीज है। जिससे उस ओर का उसनका डम्प माल बिक जाए। ऐसा ही तमाम वैचारिक समूहों के ठेकेदार भी करते हैं। वे भी जनता के बीच के पुल को तोड़कर अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होते रहते हैं। 
            अब पुल के दोनों ओर सुरक्षा की दृष्टि से "मरम्मत चालू आहे" का बोर्ड लगा कर प्रशासन अवरोध खड़ा कर देता है, मतलब मरम्मत होने तक पुल पर आवाजाही बन्द रहता है। ठेकेदार को इस टूटे पुल का लाभ मिल जाता है और उसका सारा डम्प माल बिक जाता है।..ठेकेदारों की चाँदी!! क्योकि, तब लोग मजबूरी में इन्हीं का माल लेने लगते हैं, पुल तोड़ने वाले ठेकेदारों की चल निकलती है।
          आप समझ लीजिए, जब कोई चीज ठेकेदार बेंचता है तो, कोई न कोई पुल टूटता ही है। बाजार में, किसी विशेष जगह का या कोई विशेष माल ज्यादा बिक रहा हो या किसी चीज की अचानक माँग बढ़ी हो तो, यह कहीं न कहीं किसी पुल को दरकाए जाने की निशानी है।
          हाँ.. उस दिन, उस सिपाही ने एक महत्वपूर्ण बात और बताई थी, यह कि पुल के मरम्मत करने वाले लोग भी, पुल को पुनः चालू करने के लिए ठेकेदारों से सौदेबाजी करने पर उतर आते हैं। ठेकेदार अपना काम निकाल, फिर से पुल पर आवाजाही शुरू करा देते हैं। यह चक्रानुक्रम क्रिया बेहद चालाकी के साथ चलती रहती है, ये आम जन को कुछ भी समझ में आने नहीं देते। मतलब, आज के जमाने में पुल अपने आप नहीं टूटता इन्हें तोड़ा जाता है। पुल को तोड़ने और मरम्मत का काम ऐसे ही चलता रहता है। किसी पुल का टूटना आर्थिक गतिविधि का एक हिस्सा होता है। 
         लेकिन, पुल तोड़ने के इस खेल में हानि आम आदमी का ही होता है। जैसे उस दिन चार घंटे की यात्रा दस घंटे में पूरी हुई थी, वह भी बढ़े हुए किराए के साथ।
         हाँ, पुलों के प्रति हमारी श्रद्धा होती है। रामसेतु की तरह पुल कल्याणकारी भी होते हैं, जो खूबसूरत सभ्यताओं को जन्म देकर किसी राष्ट्र की एकता में अतुलनीय योगदान देते हैं। तमाम तरह के रावणों का संहार पुलों के कारण ही संभव हो पाता है। लेकिन हमें इस तथ्य से सावधान रहना होगा कि जब हम "धार्मिक" होते दिखाई देते हैं तो "रा-मटेरियल" बन जाते हैं, तब कोई ठेकेदार हमें डम्प करने लगता है, फिर यही ठेकेदार किसी पुल को तोड़कर हमारा इस्तेमाल करा देता है।
                     

                                                 -Vinay

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

अच्छे उद्देश्यों को प्रोत्साहित कीजिए

           अभी कल की बात है कई दिनों बाद स्टेडियम की ओर टहलने निकला था। आजकल सुबह-सुबह टहलने में मन आनाकानी करने लगा है। शायद बढ़ते शीत के प्रकोप को एडजस्ट करने में इसे समय लगेगा। खैर, मन का क्या, धीरे-धीरे परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल ही लेता है।
             जब स्टेडियम पहुँचा तो मुँह-अँधेरा था। ग्रुप वालों की कार खड़ी थी, इस कार से चार लोग प्रतिदिन टहलने आते हैं ये एक साथ ग्रुप में ही टहलते है, बल्कि यहाँ स्टेडियम में इनके साथ एक-दो लोग और हो लेते हैं। ये लोग बड़े आराम से गपियाते-बतियाते हुए खरामा-खरामा स्टेडियम के चार-पाँच चक्कर पूरे करते हैं। इन ग्रुप वालों की खड़ी कार देख मैंने सोचा, "ये बिना नागा यहाँ रोज आते हैं, जबकि हम तो बीच-बीच में गैप भी मार देते हैं।" एक बात है, इन्हीं की बातों को सुनकर कुछ लिखने की प्रेरणा भी मिल जाती है और लिखकर फेसबुक पर आपसे साझा कर लेता हूँ। इधर स्टेडियम की पट्टी पर टहलते हुए मैं अपने रौ में यहाँ रोज आने वालों को अकनते भी जा रहा था कि रोज आने वालों में कौन-कौन आए हैं..ऐसे कई लोग टहलते हुए मिले। इन्हें टहलते देख अपन भी टहलने के लिए उत्साहित हो उठते हैं।  खैर.. 
      
             चलते-चलते, ग्रुप के बगल से गुजरते हुए इनसे आगे बढ़ रहा था। इन लोगों की एक-दो जुमले जैसी बातें सुनने के लिए मैं लालायित रहता हूँ क्योंकि इन जुमलों की मदद से फेसबुक पर अपनी कुछ "बेवकूफियाँ" बघारने का मौका मिल जाता है। कई फेसबुक-पुरोधाओं के अनुसार लिखने के लिए बेवकूफी जैसे अनिवार्य तत्व की आवश्यकता होती है। इस सम्बन्ध में, मैं भी उनका अनुयायी ही हूँ। स्टेडियम की वाकिंग पट्टी पर एक धीर-गंभीर सीरियस टाइप के टहलगार की तरह मैं अकसर ग्रुप से आगे निकल जाता हूँ, लेकिन इस बीच मेरा मन इनके जुमलों को सुनने के लिए कुलबुलाता रहता है, सो इनकी बातों की ओर कान भी घुमाए रहता हूँ ।
          खैर.. आज भी इन लोगों का एक ऐसा ही जुमला कान से टकराया तो मेरी भी बेवकूफियों की तंन्द्रा जागृत हो उठी थी। मैंने उन्हें आपस में चहकते-गपियाते यह सुना, "बहुत बढ़िया! यह जो दो हजार का नोट निकला है न, यह लोगों के पास  आएगा तो अब इसे लोग बाहर भी निकालते रहेंगे...कोई अपनी आलमारी में गड्डियायेगा नहीं...कि पता नहीं कब यह भी बेकार घोषित कर दिया जाए.." हाँ, आज का यही जुमला मैं सुन पाया था और उनसे आगे निकल आया...चहकते बतियाते उनकी बात से मुझे एहसास हुआ कि ये नोट वापसी पर आपस में खूब मजे ले रहे हैं...इनकी बात से ऐसा लगा जैसे बैंक में लाईन लगाने इन्हें नहीं जाना है और निर्द्वन्द्व टाइप की अपनी बतकही में मस्त थे। 
           अब तक इनसे थोड़ा आगे निकल आया था..आगे तीन-चार महिलाओं में से एक, आपस में बतियाते हुए कह रही थी, "मेरी सास ने कहा..." आगे पूरी बात मैं स्पष्ट रूप से तो नहीं सुन पाया लेकिन कुछ-कुछ वह महिला अपनी सास की अधिनायकवादी बातों के सम्बन्ध में ही बतिया रही थी...इसे मैं बहुओं और सास के बीच की एक मनोवैज्ञानिक समस्या मानता हूँ और इससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन कभी-कभी तीसरा इसका बेजा फायदा उठा लेता है। खैर, यह कोई राष्ट्रीय समस्या नहीं है..इस समस्या को भुनाते हुए ये टीवी सीरियल वाले टैक्स चोरी कर जरूर अपनी कमाई बढ़ा लेते होंगे इसी मायने में यह राष्ट्रीय समस्या है। 
         स्टेडियम से लौटते समय कुछ लड़के टाइप के लोग मिले.. वे भी आपस में बतिया रहे थे, जो नोट वापसी की चिन्ता से परे दूसरे मुद्दे पर बात कर रहे थे। उनमें से एक को कहते सुना, "वो नेहरू ही भारत के बँटवारे की जड़ है..." तपाक से दूसरा बोला उठा था "अरे नहीं यार...ऐसा नहीं है..."  मुझे संतोष हुआ कि यहाँ हर बात को काटती बात और बातों के परे की बात भी मौजूद है..फिर कोई चिन्ता नहीं...कोई अपनी मनवा नहीं सकता...जैसे आजकल हमारी सोशल मीडिया पर का चक्कलस है!
           दरअसल आजकल, बात दर बात, बातों का जनतंत्र है, और बातों में नेता बनाने का दम होता है। आजकल बात में भी संख्याबल से ही शक्ति आती है बिना संख्या बल के बातों में दम नहीं आता। इसीलिए अपनी-अपनी बात को लेकर उछल-कूद मची रहती है। कोई बात न अच्छी होती है न बुरी..एकदम किसी नेता के अन्दाज में..! मतलब बातों में नेतागीरी के गुण भी होते हैं..कोई बात जब अपने समय, देश-काल में व्यावहारिक होते हैं तो वह बात चल निकलती है।जैसे कोई नेता चल निकलता है। दुनियाँ भर में आजकल दक्षिणपंथी बातें ट्रम्फ साबित हो रही हैं या अति आदर्शवादी बातों की जगह दो-टूक व्यावहारिक बातें जगह लेती जा रही हैं।
          खैर, सब कुछ बिजनेस टाइप भी है..इसमें भी कोई चिन्ता की बात नहीं क्योंकि हर बात बिजनेस करती है, ऐसे में किसी बात के ट्रम्फ हो जाने पर भी खुश होने की जरूरत नहीं है..इसके पीछे बाजार का भी माहौल होता है। बाकी सब समझदार हैं और बातों पर बारीकी से नजर तो रखते ही हैं...मतलब किसी बात की चिन्ता नहीं। हाँ अपनी-अपनी नजर की जरूर चिन्ता होनी चाहिए, नहीं तो बात फिसलती रहेगी। 
             टहलकर अपने आवास पर आया..रोज की भाँति चाय पीने की तलब लगी..इस तलब का नोट वापसी से कोई मतलब नहीं। किचेन में जाकर चाय बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी.. दूध में कुछ पानी मिलाकर गैस पर रखा...अदरक कूँचने लगा कि निगाह चाय के डिब्बे पर पड़ी..."अरे! इसमें तो चाय की पत्ती ही नहीं..वही ताजमहल वाली चाय अपने लिए स्पेशल रूप से रखता हूँ...डब्बे में इसके आधा चम्मच चूरे के तलछट के सिवा कुछ नहीं बचा था" अब बढ़िया चाय कैसे बनेगी?  इस समस्या के हल के लिए मैंने तुलसी की हरी पत्तियों का सहारा लिया और चाय का वह चूरा, तुलसी की पत्ती, अदरक मिलाकर चाय तैयार कर मजे से पीने लगा था.! असल में चाय की पत्ती न खरीद पाने के लिए प्रधानमंत्री ही दोषी हैं, न पाँच सौ, हजार के नोट बन्द किए होते और न चाय की पत्ती खरीदने में मेरे समक्ष समस्या खड़ी होती..मतलब यही नोट बंदी का भी मतलब..ताजमहल चाय के बिना तुलसी की चाय पी रहा था.. प्रधानमंत्री ने इस हालत में हमें लाकर छोड़ दिया है कि ताजमहल चाय की पत्ती नहीं खरीद पा रहे हैं! 
      
              समस्या! हाँ, आज ये 1000 और 500 के नोट ही समस्या बनकर खड़े हो गए हैं.. जबकि कभी यही नोट जेब की गर्मी बढा़ते चेहरे को, इन नोटों की गर्मी के गर्वोन्मत्त मुस्कान से भर देते थे..लेकिन आज चाय की पत्ती खरीदने के लिए तरस रहे हैं..! भरे रहे जेबों में ये नोट अब क्या फर्क पड़ता है.. बल्कि, अब इन्हें ही ठिकाने लगाने की चिन्ता सवार हो गई है। यही तो जीवन और मृत्यु का भी फलसफा है।इसी चिन्ता से सराबोर चाय पीते हुए मैंने घर फोन लगाया...
          हाँ, घर की चिन्ता हो आई थी.. घर में के नोटों की चिन्ता हो आई। असल में पिछले दिनों बैंक खातों पर हैकिंग की समस्या हुई थी। खासकर एसबीआई ने अपने एटीएम के पिन अचानक ब्लॉक कर दिए थे, मेरा एटीएम कार्ड घर पर होता है और जरूरत पर घर वाले ही यूज करते हैं...उस दिन रात नौ के आसपास श्रीमती जी बेहद झल्लाहट भरे आवाज में फोन पर कहा था, "अरे तुम्हारे एटीएम का पिन लाक हो गया है..बिल पेमेंट नहीं हो रहा है.." मैंने फोन पर ही कहा था, "तो नगद पेमेंट कर दो..."  "नगद लेकर नहीं आए हैं..." श्रीमती जी का उत्तर था। अब नाराज होने की बारी मेरी थी, "तुम्हारी यही लापरवाही ठीक नहीं..खरीदारी पर नगद भी ले जाया करो..वैसे भी आजकल हैकिंग-फैकिंग का चक्कर चल रहा है.." "अरे घर में कितना नगद पड़ा है कि नगद लेकर जाएँ..?" "तो पहले एटीएम से निकाल लेती...अब मैं सबेरे देखुंगा" मेरा इतना कहना था कि उन्होंने यह कहते हुए बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए फोन काट दिया, "सुनो, मैं स्पेंसर में हूँ और सामान छोड़कर जा रही हूँ...तुम अपने में मस्त रहो..." 
           वाकई!  उस समय मैं अपने में ही मस्त था, फेसबुक पर किसी पोस्ट को लिखते हुए..तत्काल तो बात आई-गई हो गई और मैं भी घर की परेशानी भूल फेसबुक पर अपने को पोस्टिया कर इत्मीनान से अपनी बीती दिनचर्या पर साँस लिया ही था कि, रात दस बजे छोटे सुपुत्र जी का फोन आ गया, "मम्मी बहुत नाराज हैं..." मैं डरा हुआ सा तत्काल सुपुत्र जी से एसबीआई का टोल नम्बर माँगा। खैर किसी तरह से OTP प्राप्त कर उन्हें निकट के एटीएम केंद्र से पिन जनरेट कर लेने के लिए कहा, इस तरह नया पिन मिला। फिर हमें पाँच हजार रूपए निकाले जाने की सूचना मिली, लेकिन तब तक रात के ग्यारह बज चुके थे। बाद में इसी गुस्से में, इमरजेंसी के लिए रखने के नाम पर श्रीमती जी ने एटीएम से पच्चीस हजार रूपए निकाले थे..।
          दुर्भाग्य से, इसी बीच प्रधानमंत्री ने आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया.. इन्हीं नोटों की चिन्ता में अदरक, तुलसी की हरी पत्तियों की चाय पीते हुए मेरी घर से बात होने लगी थी... उन्होंने बताया कि पाँच सौ नोटों में कुल दस हजार रूपए मेरे पास बचे हैं..." खैर इस ओर की चिंता से मैं मुक्त हुआ..लेकिन इधर सोशल मीडिया पर पत्नियों के काले धन की चर्चा पर ध्यान आते ही बिना कुछ सोचे विचारे मैं श्रीमती जी से पूँछ बैठा,  "अरे, कहीं कुछ हमारी बिना जानकारी के हो तो उसे भी...!" बस मेरा इतना बोलना था कि उधर से मेरी औकात बताते हुए मुझे जलील करती हुई सी उनकी आवाज सुनाई पड़ी, "कुछ सोच समझ कर बोला करो..तुमने मुझे यह अवसर दिया ही कहाँ" मैं चुप हो गया था... फिर उन्होंने ही बातचीत जारी रखते हुए कहा, "आज घर के कबाड़ के चक्कर में मैंने एक कबाड़ीवाले को बुला लिया था...वह तो बहुत खुश था...कह रहा था कि मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है... हम लोगों का क्या...हमारे जैसे लोगों के पास जो दो चार नोट हैं हम उसे बदल लेंगे...लेकिन कुछ लोग चिन्ता के मारे खाना ही नहीं खा रहे हैं...उसने बताया कि एक जन के घर गए तो देखा वह चिन्ता में भूँखे पड़े हैं..हम लोग तो बहुत खुश हैं!" हालाँकि मुझे आभास हुआ श्रीमती जी भी, इस नए-नए आए समाजवाद से खुश हैं, अब मैं भी चिन्तामुक्त हुआ था।
            हमारी बातचीत समाप्त हुई तो सोचा, "सोचा..ससुरा यह कबाड़ीवाला सबेरे-सबेरे ताजमहल वाली चाय नहीं पीता होगा नहीं तो मोदी की कारस्तानी इसे भी पता होती...!" 
           हाँ उस दिन श्रीमती जी किसी शादी में जाने और इस पर आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक के पड़े प्रभाव की भी चर्चा कर रही थी..अब शादी विवाह वाले भी परेशान तो होंगे ही!  जब एक लाख की लँहगा-चुनरी पहनकर ताजमहल जैसे होटल में ही वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न होंगे तो चिन्ता वाजिब ही है..अगर ये सब चेक से नहीं हो रहा होगा तो यह सर्जिकल स्ट्राइक इसीलिए हुआ है...मैंने यही तो कहा था। अब विवाह सम्पन्न करने के लिए दहेज की रकम और खर्चे कम करने ही होंगे! 
         भई! हम अपने शौक कम करें...ताजमहल जैसे शौक को कम करना होगा..!! इसी शौक के कारण ही तो बाकी लोग कबाड़ीवाले बन गए हैं...अपने बीच हमें भी पाकर ये खुश हैं..इनकी खुशी में पलीता मत लगाईए..! हम सब ने इसके सिवा कोई चारा भी नहीं छोड़ा था...कितने लोगों की हम भक्त कह कर खिल्ली उड़ाएंगे? नब्बे प्रतिशत आम सामान्य तबके के लोग इस आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक से बेहद खुश हैं...इनके बीच जाने पर हमें इस बात का अहसास होता है। इस खुशी में वे परेशानी भी झेलने के लिए तैयार बैठे हैं...आपसे क्या इनकी खुशी देखी नहीं जाती..? धत् तेरे की! कम से कम और कुछ नहीं तो इसके पीछे के छिपे उद्देश्य को ही प्रोत्साहित कीजिए..

बुधवार, 9 नवंबर 2016

ऐसे परिवर्तन?

          बात उन दिनों की है तब मुझे बालक या बच्चा कुछ भी कह कर संम्बोधित किया जा सकता था। घर के सामने दो अमरूद के पुराने पेड़ थे। एक पेड़ का अमरूद अधपके में ही मीठा लगता तो दूसरे का पक जाने पर। हमें जब भी मौका मिलता, जैसे घर पर जब कोई बड़ा नहीं होता तो इन पेड़ों पर चढ़कर मीठे टाइप के अमरूद के फलों को खोजकर तोड़ लाते, दिन में एक दो बार अकसर हम ऐसा करते। यही नहीं स्कूल से आने पर एक बार इन पेड़ों पर नजर मार आते। ऐसे ही अन्य बच्चे भी करते थे। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक इन पेड़ों पर एक भी फल बचा होता। कभी-कभी ऐसा भी होता किसी एक फल पर पर जब दो बच्चों की निगाह पड़ती तो उनमें से जो पहले उसे तोड़ लेता उसका ही अधिकार उस अमरूद पर होता। कई बार किसी पके अमरूद को देख उसे तोड़ने के फिराक में जब कोई बच्चा पेड़ पर चढ़ता तो दूसरा बच्चा नीचे से लग्गी लगाकर उस अमरूद को तोड़ लेता, फिर विवाद से बचने में उन दो प्रतिद्वन्द्वी बच्चों में वह अमरूद आधा-आधा बंटता। खैर... 
            उन्हीं दिनों मेरे दिमाग में अमरूद का पेड़ लगाने की बात सूझी। तब मैं छोटा था, अपनी इस इच्छा को मैं किसी से व्यक्त नहीं किया लेकिन खेलते-कूदते यदि कहीं कोई छोटा पौधा दिखाई पड़ता तो मैं अमरूद का पौधा होने के सम्बन्ध में उसकी पूरी तरह पड़ताल करता। उस पौधे को अपने दादाजी को दिखाता तब वह किसी घास का पौधा निकलता और फिर मैं अमरूद के पौधे की खोज में लग जाता। 
         ऐसे ही एक बार, जब हम अपने हम-उम्र बच्चों के साथ खेलने में मगन थे तो, अचानक बड़ी-बड़ी सी घासों के बीच चार-पाँच इंच के एक नन्हें से पौधे पर मेरी निगाह पड़ गई थी। उत्सुकतावश वहीं पर बैठकर, मैं उस पौधे ध्यान से देखने लगा था। इस पौधे की छोटी-छोटी गाढ़ी कत्थई रंग की चमकीली-चमकीली सी पत्तियाँ मुझे बहुत खुबसूरत लगी थी। जैसे, मुझे यह विश्वास हो चला था कि हो न हो यह अमरूद का ही पेड़ होगा। फिर दौड़ कर मैं खुरपी लाया और इसकी सहायता से सावधानी पूर्वक मिट्टी सहित इस पौधे को वहाँ से निकाल लिया था। मेरे दादा जी ने भी इसके अमरूद का पौधा होने की पुष्टि कर दिया था। 
           फिर, बहुत जतन के साथ मैंने इस पौधे को रोप दिया था। धीरे-धीरे यह बड़ा होता रहा। गर्मियों में, प्रतिदिन मैं इसे सींचता था। मुझे आज भी याद है, जब मई-जून के महीने में इसमें नई-नई कोंपलें निकल आया करती तब मैं बहुत खुश हुआ करता। धीरे-धीरे अमरूद का यह पौधा इतना बड़ा होने लगा था कि इस पौधे का तना दो टहनियों में विभक्त हो चुका था। एक दिन अचानक जब इस पौधे पर मेरी निगाह पड़ी तो देखा, इसकी एक टहनी तने से फटी हुई सी जमीन की ओर झुकी हुई थी। फिर मैंने रस्सियों से इस टहनी को तने के साथ बाँध दिया था। संयोग से कहीं से मुझे हाथ में पहना जाने वाला एक स्टील का कड़ा मिल गया था, जिसके बीच दोनों टहनियों को डालकर एक दूसरे को सहारा दे दिया था। वह पेड़ ऐसे ही बड़ा होता रहा, मैंने फिर उस कड़े नहीं निकाला। बाद में अमरूद के पौधे का वह तना इतना मोटा होता गया कि स्टील का वह कड़ा उस तने के बीच में ही खो गया था। अब वह अमरूद का पौधा पेड़ बन चुका था उसमें फल आने लगे थे, जो बेहद मीठे होते। समय बीत रहा था, मैं भी पढ़ने शहर चला गया था। फिर मुझे नौकरी मिली। अब घर जाना थोड़ा कम हो चुका था। लेकिन जब भी घर जाता इस पेड़ की पत्तियों को छूकर, जैसे सहलाते हुए अमरूद के इस पेड़ से अपने लगाव का अहसास करता। जैसे इस पेड़ से मेरा कोई रिश्ता सा बन चुका था। 
           ऐसे ही उस दिन भी मैं घर पहुँचा था। मेरी निगाह उस अमरूद के पेड़ को तलाश रही थी। मैं भौंचक देखता रह गया था। अमरूद के उस पेड़ को जड़ के पास से कटवा दिया गया था। मैं जैसे सन्नाटे में आ गया था। मैंने कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया कि घर के विस्तार में इस पेड़ से अड़चन पड़ने के कारण उस अमरूद के पेड़ को कटवा दिया गया था। मैंने अनुभव किया कि, फिर भी, उस पेड़ को बचाया जा सकता था। मेरी आँखें पसीज सी गई थी। मैंने अपनी भावनाओं को जज्ब कर लिया था। किसी को कुछ भी अहसास नहीं होने दिया। बस मुझे ऐसा अहसास हुआ जैसे किसी रिश्ते पर कुल्हाड़ी चलाई गई हो। आखिर यह अमरूद का पेड़ पिछले तीस वर्षों से मेरे साथ था, जिसे मैंने रोपा था..मैंने सींचा था...लेकिन जो सबका भी था। 
          मैं जानता हूँ..परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, लेकिन यह परिवर्तन किसी रिश्ते की कीमत पर नहीं होना चाहिए। चाहे वह किसी पेड़ से ही क्यों न हो..... 

अपने-अपने आभामंडल

        अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग होते हैं। कुछ लोग अपने आभामंडल के प्रति बड़े जागरूक होते हैं। वैसे भी इस सम्बन्ध में हम अपने देवताओं से ही सीख लेते पाए गए हैं। जिस देवता का जितना बढ़िया आभामंडल होता है हम उस देवता की उतनी ही पूजा करते हैं। उतना ही चढ़ावा मिलता है। अभी आप फेसबुक पर देखिए तो हम जैसे लोग यहाँ भी आकर अपने-अपने आभामंडल को बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते समझे जा सकते हैं। 

           कोई कुछ समझा जाए! इस चक्कर में, कोई शूर-वीर, तो कोई आदरणीय-सम्माननीय, तो कोई स्वघोषित दानवीर, तो कोई स्वनामधन्य ख्यातिलब्ध टाइप हरकतें करते हुए पाया जाता है। हाँ, कुछ-कुछ इसी टाइप से लोग सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और जैसे अपने हाथ में कोई कटोरा लिए हुए दाता के नाम पर देने की प्रार्थना करते हुए दिखाई देते हैं। 

             वाकई! हम बड़े प्रतिभाशाली हैं, हमारी प्रतिभा का सम्मान तो होना ही चाहिए। लेकिन कुछ लोगों की महानता और अच्छाई को देखकर मुझे अपने ऊपर कोफ्त सी होती है कि आखिर मैं ऐसा क्यों न हो सका? किसी की दरियादिली देख-सुनकर मुझे अपनी बेदरियादिली कचोटने लगती है। 

               अब यही बात ले लीजिए, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, और भीख देना लगभग पसंद ही नहीं है। ऐसे में कई बार जेब में सिक्के न होने की सोचकर भी मन को, भीख न दे पाने के पापबोध से बचा लेता हूँ। अभी एक सुदूर धार्मिक यात्रा पर निकला था, वहाँ एक महिला अपने छोटे बच्चे का हाथ पकड़े हुए जब अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास करते हुए भीख देने की गुहार की तो मैंने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की थी। फिर भी वह मानी नहीं थी और बोली, "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर जब उसकी ओर मुड़कर देखते हुए मैंने कहा, "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़ते हुए से वह यह कहते हुए कि "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी।

              हाँ, ऐसे ही मैं अपनी पूरी यात्रा में भीख माँगने वालों को नजरअंदाज करता रहा था। ट्रेन में एकाध अंधे पर अनमने ही सही कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरे दयालु होने के उत्साह पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे,ये सब बने होते हैं, ऐसे ही जब मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी तो ट्रेन रूकने पर वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था...पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" इस बात पर मैं बोला तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन मुस्कुराते यह अवश्य सोचा था कि "यदि ऐसे भिखमंगे को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक तो जीत ही लें! खैर...

               ट्रेन में ही मेरे जैसे एक अन्य सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात को समझने का प्रयास किया और ट्रेन की खिड़कियों से पीछे भागते जमीन और पेड़ आदि को देखते हुए यह सोचते जा रहा था कि जब हम कैसे चीजों को पीछे छोड़ते हुए चलते हैं और इसी गति में खो गया था। 

              थोड़ी देर बाद सही में, ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." सुन मैंने ध्यान से उस ओर देखा तो एक शख्स को उन तालीबाजों को नोट देते हुए देखा।इधर मैं मन में निश्चय करने लगा था कि इन्हें एक पैसा नहीं देना है...जब भिखमंगों बेचारों को नहीं दिया तब इन्हें देना तो एकदम ऊसूलों के खिलाफ होगा..और एकदम कायराना..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही देना उचित मानने लगने लगा..! हालाँकि इनकी अश्लीलता भरी छेड़खानी से भी डर लग रहा था.. इसी डर से वे जिसकी ओर हाथ बढ़ाते वही दस का नोट निकाल कर दे देता। यात्रियों से उन्हें इस तरह ताली बजाते, पैसे लेते देख, इसे एक तरह की गुंडागीरी समझ मैं रेलवे की व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, मेरे पास से गुजरते हुए, इनने साथी कश्मीरी यात्री की ओर हाथ बढ़ा कर दस का नोट ले लिया। इसी तरह से दो-तीन बार हुआ वही बेचारे कश्मीरी सहयात्री ही इन्हें दस का नोट देते रहे। हाँ, एक बात थी इन लोगों ने मेरी ओर एक बार भी हाथ नहीं बढ़ाया था। और इस प्रकार मैं अपने धर्मसंकट को बचा गया था लेकिन भिखमंगे को दुत्कारने वाले यात्री को दस का नोट देना ही पड़ गया था। 

               एक बात है भिखमंगई भी एक प्रकार की हिजड़ागीरी ही है। जो जितना बड़ा हिजड़ा वह उतना बड़ा भिखमंगा..! और, एक तथ्य और...ये ताली बजा-बजाकर भीख ले लेते हैं। यह सब अपने-अपने तरीके के आभामंडल का भी कमाल है।    

हमारा कश्मीर

            जम्मू में उस सरकारी खादी-भंडार के दुकानदार ने बताया कि जम्मू-कश्मीर का हैंडीक्राफ्ट्स जब देश के अन्य हिस्सों में बिकने जाता है तो उसपर टैक्स लगता है और वही माल देश के अन्य भागों में डेढ़ से दो गुने मँहगे दाम पर बिकता है। इस स्थिति में कश्मीर का व्यापार प्रभावित होता है। दुकानदार ने धारा तीन सौ सत्तर को इस टैक्स का कारण बताया। दुकानदार ने धारा तीन सौ सत्तर को कश्मीर का अन्य भारतीय राज्यों के साथ होने वाले व्यापार में बाधक के रूप में भी उल्लेख किया। वह भारतीय संविधान में प्राप्त कश्मीर के विशेष दर्जे को हटाए जाने के पक्ष में था। यहाँ एक बात और बताना चाहते हैं वैसे जो यहाँ की यात्रा कर चुके होंगे उन्हें पता ही होगा, वह यह कि यहाँ बीएसएनएल या अन्य कम्पनियों के प्रीपेड सिम रोमिंग पर भी काम नहीं करते, जबकि यही सिम भारत के किसी भी क्षेत्र में जाइए रोमिंग के साथ काम करते रहेंगे। एक तरह से यह हमें गलत प्रतीत हुआ था। कुछ लोगों ने इसके पीछे भी धारा तीन सौ सत्तर का कारण बताया। 

              ट्रेन में छह-सात कश्मीरियों का एक दल भी मिला, जो कश्मीर से कोलकाता जा रहा था। वैसे तो वे आपस में कश्मीरी में ही बात करते थे लेकिन अन्य लोगों से बातचीत में हिंदी का ही प्रयोग करते थे। एक बात है, वाकई! आज हिन्दी देश के आमजनों को जोड़ने वाली भाषा बन चुकी है। विशाखापट्टनम आन्ध्रप्रदेश का वह सैनिक भी हिन्दी में बखूबी बोल ले रहा था जो विशाखापट्टनम से जम्मू अपने तैनाती स्थल पर जा रहा था। पूँछने पर उसने बताया था कि पाँच वर्षों से वह यहाँ तैनात है तो हिन्दी सीखनी ही है। मतलब कोई चाहे या न चाहे हिन्दी सही मायने में राष्ट्रभाषा का स्थान लेती जा रही है। हाँ तो, उन कश्मीरियों ने भी जब अपने मोबाइल से गाना सुनने शुरू किए तो वह भी हिन्दी फिल्म का ही गीत था। बातों-बातों में उन कश्मीरियों ने बताया कि वे श्रीनगर के लाल चौक के निवासी हैं और व्यापार के सिलसिले में कोलकाता जा रहे हैं, जहाँ उन्हें लगभग छह माह तक रहना है। उनमें, कुछ के साथ उनका परिवार भी था। हालाँकि वे अपने खाने-पीने से लेकर बड़े मस्त अंदाज में अपनी इस यात्रा पर थे। 

       

             हमारी उनसे बातचीत बढ़ी। तो उन लोगों ने हमसे श्रीनगर जाने के बारे में पूँछा तो पत्नी ने आतंकवादियों का डर बताया। इसपर उन कश्मीरियों ने कहा ऐसी कोई बात नहीं है। हाँ, डलझील के हाउसबोट जरूर मँहगे हैं। फिर एक बुजुर्ग कश्मीरी ने पहलगाम और बाबा अमरनाथ की और मुबारक छड़ी की चर्चा श्रद्धा भाव से करते हुए मुझसे कहा वहाँ अवश्य जाना चाहिए। पत्नी के वहाँ के सेब के बागानों का जिक्र करने पर उनने हमें एक कश्मीरी सेब खाने के लिए दिया। उनके साथ एक अट्ठारह-बीस वर्ष के नौजवान को देखकर पत्नी ने उसकी पढ़ाई के बारे में पूँछा तो उन लोगों ने उसके हाईस्कूल पढ़े होने और बिजनेस सीखने के लिए साथ चलने की बात कही। हाँ, इन दिनों कश्मीर घाटी में हड़ताल होने के कारण स्कूल बंद होने की टीस बातों-बातों में दबे स्वर में भी उनसे व्यक्त हुआ। ट्रेन से उतरते समय उन लोगों ने बड़े जोशो-खरोश और आत्मीयता के साथ हमसे हाथ भी मिलाए थे। 

              मैं मानता हूँ, हमारे अपने देश में चाहे कोई किसी धर्म का माननेवाला क्यों न हो, जब हम कहीं आपस में मिलते हैं तो, किसी परिवार के सदस्यों की ही तरह आत्मीयता लिए हुए! देश के आम लोगों के बीच कहीं कोई कटुता नहीं है। मुझे आश्चर्य होता है कैसे कुछ लोग धर्म की आड़ लेकर दिलों में दरार डालने में कामयाब होते दिखाई देते हैं? 

        एक बात है, यदि इस देश में जीवन की सहजता बनाए रखने दिया जाए तो शायद साम्प्रदायिकता जैसी समस्याएं जन्म ही न लें। मैंने अनुभव किया है कि, यह दिखाने के लिए कि हम आपके साथ हैं किसी अल्पसंख्यक समुदाय को किसी अतिरिक्त सिम्पेथी की भी जरूरत नहीं है। यह दिखावे की प्रवृत्ति भी हम भारतीयों की सहज जीवनशैली को प्रभावित करती है तथा एक तरह की साम्प्रदायिकता को ही जन्म देती है। हम जहाँ मिले एक दूसरे का सम्मान करते हुए आत्मीयता के साथ। मेरा अपना अनुभव है कि, देश में आम लोग साम्प्रदायिक समस्या की चर्चा करने में भी शर्म महसूस करते हैं। वाकई! हमें इसकी चर्चा भी नहीं करनी चाहिए।हम जहाँ मिले एक दूसरे का सम्मान करते हुए आत्मीयता के साथ। समस्याएँ स्वत: हल हो जाएंगी। आखिर, ऐसे ही नहीं हम हजारों साल से साथ रहते आए हैं, हम एक-दूसरे के अंग ही हैं। 

                एक अन्तिम बात, पूरा भारत एक ही तरह का है, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिए। कोई विभिन्नता समझाए तो तत्काल समझ जाइए कि कोई नेता बनने की कोशिश में है। 

यूनियनबाजी

                आजकल नास्तिक लोग भी यूनियनबाजी पर उतर आए हैं। मेरा भी मन करता है कि स्वयं को नास्तिक घोषित कर नास्तिकों की यूनियन में सम्मिलित हो जाएँ। इधर नास्तिकों की एक बैठक की चर्चा जोरों से चल भी रही थी। वैसे भी, भगवान जी के सामने हाथ जोड़कर जब भी खड़ा होता हूँ, तो लगता है जैसे किसी नाटक में भाग ले रहा होऊँ..! भगवान जी हैं भी या नहीं, और अगर हैं भी तो मेरी विनती सुन रहे होंगे या नहीं..हाथ जोड़े-जोड़े, इन्हीं प्रश्नों से दो-चार होता रहता हूँ...सोचता हूँ, नास्तिक हो जाने पर हाथ जोड़ने या भगवान बेचारे के होने न होने की सोच से मुक्ति मिल जाएगी और सबसे बड़ी बात तो स्वयं भगवान जी के लिए होगी.. हमारे जैसे अन्य नास्तिकों की बढ़ती संख्या से भगवान को भक्तों की अर्जियों के ढेर से मुक्ति भी मिलेगी...इन अर्जियों को पढ़ने और इसपर कार्यवाही हेतु अन्य देवताओं को मार्क करने में भगवान जी को काफी जहमत उठानी पड़ती होगी... मतलब, हमारे नास्तिक हो जाने का सबसे बड़ा लाभ स्वयं भगवान को ही मिलेगा...

            एक बात है नास्तिक होना कोई हँसी-ठट्टा जैसा खेल नहीं है.. इसके लिए बकायदा दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, फिर किसी बात की परवाह न करते हुए "इनकारी-स्वभाव" बनाना पड़ता है। हाँ.. जैसे "भई मैं इसमें विश्वास नहीं करता.." उसे तर्क पर तर्क करने में महारत हासिल होना चाहिए। मतलब नास्तिक अपनी बुद्धि का जबर्दस्त उपयोगकर्ता होता है। सभी चीजों का खंडन करता है। मंडन तो जैसे उसे आता ही नहीं। तो क्या नास्तिक अपनी बुद्धि में ही जीता है..? हाँ, नास्तिक अपनी बुद्धि में जीता हो या न जीता हो, लेकिन अपने में ही अवश्य जीता है। तर्कबुद्धि वाला अवश्य नास्तिक हो जाता है क्योंकि नास्तिक संसार को छील-छील कर देखता है। नास्तिक बाल की खाल निकाल-निकाल कर नास्तिक होते रहते हैं।

           इधर आस्तिक चीजों को छीलकर देखने का आदी नहीं होता। वह भी छीलने वालों से चिढ़ता है इसीलिए वह सभी चीजों को स्वीकार करनेवाला होता है। उसकी अर्जी भगवान से लेकर हर उस जगह लगी होती है जहाँ से भी उसे कुछ मिलने की उम्मीद रहती है। अभी आप देखो, सत्तापक्ष के लोग आस्तिक होते हैं.. उनमें आशा की किरण छिपी होती है, वे नास्तिक नहीं होते। नास्तिक तो वही होता है जिसकी कहीं सुनी नहीं जाती, और इसी खिसियाहट में ऐसे लोग नास्तिक हो जाते हैं। मतलब नास्तिक होना एक प्रकार की खिसियाहट ही है।

            एक हमारे बाबा थे, एक बार किसी बात पर अपने भगवान से गुसाए तो भगवान को ही कुएँ में फेंक दिए.. एकदम से नास्तिक होने के खिसियाहट भरे अंदाज में..! हालाँकि बाद में वे अपने भगवान के बिना परेशान भी हो उठे थे और अपने भगवान को खोजने के लिए कुँए में भी कूदने के लिए तत्पर हो उठे थे। वे मेरे बाबा बहुत साधारण सपनों वाले इंसान थे इसीलिए अपने भगवान के बिना बेचैन हो उठे थे। मतलब बड़े सपनों वाले लोग काम बनता न देख भी नास्तिक हो जाते हैं..और यही लोग काम की चिन्ता से मुक्त हुए तो, इसी अपने नास्तिकता के कुँए से भी अपना भगवान खोज लाते हैं।..

           कभी-कभी आस्तिकों की मौज देख लोग नास्तिक बन जाते हैं..! मैंने एक व्यक्ति को पूजा-पाठ करने वालों से बहुत चिढ़ते हुए देखा था, वे आस्तिकों के बारे में कहते थे कि , "ये खाए-पिए अघाए लोग हैं।" बात सही भी है, ये  चिढ़ने वाले तो दिनभर अपनी आइडियाबाजी से फुर्सत ही नहीं पाते कि कुछ करके आस्तिकों जैसा सुख लूटें..सो दिन भर आस्तिकों से ही खुन्नस निकालते रहते हैं। और इसी खुन्नस में अपनी नास्तिकता भी प्रदर्शित करते हैं और पीठ पीछे दिन रात माला भी जपते रहते हैं कि हे भगवान हमारे दुख-दलिद्दर काटो। खैर...

          कुछ लोग मानते हैं कि, जो काम करने में ही विश्वास करता है वही नास्तिक होता है..। ये ल्लो,  मैं तो यही मानता आया हूँ, जिसके अन्दर किसी भी तरह का विश्वास का कीड़ा होगा वह आस्तिक ही होगा... नास्तिक तो, विश्वास विहीन जीव होते हैं, ये किसी बात पर विश्वास नहीं करते। फिर ये कर्म पर कैसे विश्वास करेंगे? चार्वाकी तो नास्तिकों के मसीहा माने जा सकते हैं! अगर ये कर्म पर विश्वास कर रहे होते तो "ॠणं कृत्वा घृतम् पीवेत" का उपदेश न दिए होते। नास्तिक कुल मिलाकर मौज करने वाले लोग ही होते हैं, और दूसरे के फटी में अपनी टाँग अड़ाकर मौज लेते रहना, कर्ज लेकर घी पीना इनकी आदत में शुमार होता जाता है। मतलब कर्जदारी में होना भी नास्तिक होने का एक लक्षण ही है।

         लेकिन आप मानो या न मानो यह आपकी मर्जी, नास्तिक होता है बहुत भावुक इंसान..! इसे बात-बात पर रोना आता है..लेकिन ये दूसरों को रुला नहीं पाते..दूसरों को रुला न पाने की अक्षमता के कारण अकसर ये अपने को उपेक्षित ही समझते हैं.. अब यह इनकी अपनी समझ है, इसपर हम क्या कहें..। खैर, ये अकसर आस्तिक या कहें भगत विरादरी से परेशान होकर रोते रहते हैं.. यहाँ भगत विरादरी भी कम चालू नहीं है...यह बिरादरी अपनी आस्तिकता खूब पहचानती हैं.. ये लोग अपनी आस्तिकता के बल पर जब चाहें जिसको रुला देते हैं, हाँ केवल पहले रोना शुरू करके..!

         ये आस्तिक या कहें भगत, अपनी भावना रूपी पतवार को थाम कर भवसागर में उतरते हैं और और बाद में किसी चट्टान जैसे टापू की त्वरित पहचान कर उसपर शरण ले वहीं से भवसागर में तिरते लोगों को भक्ति-भावित कर भवसागर पार कर लेने का सब्जबाग दिखा दिखाकर इस सागर में उनसे हाथ पैर चलावाते रहते हैं..ये हाथ-पैर चलाने वाले इसके सिवा कुछ कर भी नहीं सकते क्योंकि भगत की वंशी की धुन जो बड़ी प्यारी होती है...! हाँ, एक बात है ये भगत और कोई नहीं स्वनामधन्य घोषित आस्तिक ही होते हैं, जिनके आनंदित हो कर बंशी बजाने के सुख से कोई असुखी अपने को नास्तिक घोषित कर लेता है। और ये नास्तिक लोग भवसागर में जाने से कतराते भी हैं तथा घोषित आस्तिकों की, किनारे बैठे लानत-मलामत करते रहते हैं। मतलब यहाँ एक बात और स्पष्ट होती है, वह यह कि, नास्तिक होना या आस्तिक होना केवल कुछ लोगों का ही काम है, हम यह भी कह सकते हैं, जिसका काम बन जाए वह आस्तिक और जिसका काम न बन पाए वह नास्तिक..! यही है नास्तिक-आस्तिक का खेल..बाकी तो सब अपने-अपने तईं, भवसागर में ही डूबते उतराते रहते हैं।

             मैंने शुरू में कहा था न कि मैं भी थोड़ा-बहुत अपने को नास्तिकता की श्रेणी में डाल दूँ..! लेकिन मुझ पर तब कुछ ज्यादई दिमागदार होने का आरोप चस्पा होगा या फिर मेरा कोई काम गड़बड़ा गया है बताया जाएगा। लेकिन, यहाँ मैं अपनी सफाई में कहना चाहता हूँ कि भइए! ऐसा कुछ नहीं है..हाँ, रोज-रोज की चिक-चिक से मुक्ति पाना चाहता हूँ कि लो अब सारा टंटा खतम, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी..कहो अब सेकुलर-सेकुलर..! मैं तो बन गया नास्तिक..तो..अब सेकुलर काहे का...?.. अब मैं कहाँ धर्मनिरपेक्ष रहा..? मैं तो अब नास्तिक-धर्मी हुआ..! तुम तो अपने ईश्वर, गाड, भगवान, अल्ला..को पकड़े रहो.. मैं तो सब छोड़कर नास्तिक बनने चला..! सेकुलरता के दिखावे से पिंड भी छूट जाएगा।

           अब मैं भगवान को ही नहीं मानता उन बेचारे को तो मैं नास्तिकता के कुँए में फेंक आया..अब न तुम्हारी ईद की सिवईया खाऊँगा और न रोजा-इफ्तार में जाऊँगा और न ही तिलक लगाकर किसी गंगाघाट या मूर्ति के आगे शीश झुकाउंगा..इस नास्तिकता से सेकुलर दिखने का सारा झगड़ा-टंटा खतम..देख लेना एक दिन सभी सेकुलर खेमे के लोग ऐसेई अपने को नास्तिक घोषित कर देंगे..! और तो और..नास्तिक घोषित हो जाने से भगत होने जैसे आरोप से भी मुक्ति पा जाएंगे..बाम-दक्षिण का भी विवाद खतम..। यहाँ एक बात और है, भगवान को कुएँ में फेंक देना ही नास्तिकता नहीं है, किसी खाते-पीते को देखकर चिढ़ जाना भी नास्तिकता ही है, लगे हाथ इसी के साथ गरीबों के मसीहा भी सिद्ध मान लिए जाएंगे। बहुत फायदेमंद है नास्तिक होना।

        लेकिन नास्तिकों को यूनियनबाजी की क्या जरूरत...? अरे भाई! बिना यूनियनबाजी के कोई जान नहीं पाएगा कि हम भी नास्तिक हैं..या नास्तिक होने का कोई लाभ समझ में भी नहीं आएगा। अकेले में बने रहिए नास्तिक...किसी का क्या जाता है..! वैसे भी, आजकल संघ का जमाना है..दल का जमाना है... संघ बनाकर लोग मौज तो कर ही सकते हैं, तो नास्तिकों को इकट्ठा होना ही पड़ेगा, यूनियनबाजी करनी ही होगी।

            वाकई! यह एक दिव्य सोच है...अपने को नास्तिक घोषित कर देना...आखिर, है कोई माई का लाल जो अपने को आस्तिक घोषित कर दे? आस्तिकता कोई घोषित करने वाली चीज नहीं है जैसे प्रकृति कुछ भी घोषित नहीं करती। घोषित तो रेयर वाली चीज होती है आस्तिकता रेयर वाली चीज नहीं है, रेयर तो नास्तिकता ही है! इसीलिए जब घोषित होगी तो नास्तिकता ही। हाँ, नास्तिक घोषित कर देने का यही उचित मौसम भी है और नास्तिकों के यूनियनबाजी का भी। यह जरूरी है ; मान लो, गलती से किसी सम्प्रदाय के चेले-चपाटों के बीच उनसे पाला पड़ गया और गलती से उन्हें नास्तिकता की झाड़ पिलाई तो फिर बड़ी पल्लई होगी..! फिर तो वहाँ साम्प्रदायिक ही घोषित करा दिए जाएँगे, दंगा हो जाएगा..! तब क्या होगा..?  तब यही नास्तिकों की यूनियन हमारे काम काम आएगी, तब सभी नास्तिक मिलकर हमें आरोपमुक्त कराएंगे, दंगाइयों से बचाएंगे। इसीलिए नास्तिकों के यूनियन की जरूरत है, इस यूनियन की बैठक होनी भी जरूरी है। भाई! नास्तिक होने की यही राजनीति है.. हम तो नास्तिकता की राजनीति करेंगे।

         लेकिन हम तो ठहरे साधारण लोग...हम कोई आइडियाबाज भी नहीं है.. और न ही किसी ऊँचे ख्वाब में जीने वाले लोग, तो क्यों अपने को आस्तिक या नास्तिक घोषित कर यूनियनबाजी का चक्कर पालें? यूनियनबाज ही घोषणाएँ करते हैं और किसी घोषणा की सफलता के लिए यूनियनबाजी की दरकार होती है। मतलब यूनियनबाजी का चक्कर हर जगह है... सोच रहा हूँ इस पचड़े में पड़ने से बेहतर सलाहियत मेरे लिए यही होगी कि...जब यूनियनबाजी ही करनी है तो नास्तिक होने से बेहतर "सेकुलर" ही बने रहना है..और सेकुलरों का बना बनाया यूनियन भी मिल जाता है..! ...इसमें साम्प्रदायिक होने का कम से कम कोई खतरा भी नहीं होता। तो भाई लोग, "सेकुलर" होने का विकल्प "नास्तिक" होने में मत तलाशो यह ठीक नहीं आज की राजनीति में "सेकुलरता" ही उम्दा माल है..! नहीं तो, जिसके लिए तुम नास्तिक बन रहे हो वही तुम्हें साम्प्रदायिक घोषित करा देगा।

           इधर नास्तिक के कुँए में फेंके गए मेरे भगवान जी मुझे याद आने लगे हैं. मुझे उनकी कमी अखर रही है...मिल जाएँ तो कम से कम उन्हें पकड़ कर दो बूँद आँसू ही गिरा लूँ...मन बड़ा भावुक-भावुक सा हो रहा है इतनी राजनीति मैं संभाल नहीं पाउँगा...मेरे ख्वाब बड़े नहीं हैं। मुझे नास्तिक या आस्तिक होने में कोई दिलचस्पी नहीं है क्योंकि मैं यूनियनबाज भी नहीं हूँ....