मैं बस पर बैठ चुका था। हाँ, बस में यात्रा करते समय मेरे अन्दर का "मैं" मर गया होता है! लेकिन ऐसा क्यों? जहाँ तक मेरी समझ में इसका कारण यही है कि बस में सभी यात्री बिना भेदभाव के अपने अहं के समान धरातल पर यात्रा कर रहे होते हैं। तब यह "मैं" का एहसास व्यर्थ प्रतीत होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में इसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और हमें स्वयं के साथ ही दूसरों के होने का भी एहसास होता रहता है। इस स्थिति में हम एक-दूसरे की संवेदनाओं में गहराई से उतर सकते हैं। अब जो चालाक हैं ऐसी स्थिति का फायदा उठा लेते हैं, जैसे कोई आम आदमी बनकर बिजली के खम्भे पर चढ़ और आम आदमी से जुड़ाव दिखा कर सत्ता हाँसिल कर लेता है, और मुझ जैसे लोग यहाँ अपनी कहानी तलाश लेते हैं। एक बात है ; निहायत आम आदमी की संवेदनाओं से हम जैसे लोग अपने-अपने तरीके से खेलते हैं, और वही दुर्दशा का शिकार भी होता है। खैर..
जब आप आम आदमी होते हैं तो बेवकूफियाँ भी कुछ ज्यादा ही करते हैं। मैं तो मानता हूँ, जो जितना बड़ा आम आदमी होगा वह उतनी ही बड़ी बेवकूफियाँ करता है।
जैसे, एक बार ट्रेन के स्लीपर क्लास में आम आदमी वाले अन्दाज में यात्रा करते समय मैं स्वयं खुद की ही बेवकूफियों का शिकार हुआ था। तब रात के आठ बज रहे होंगे गाड़ी भागी जा रही थी, लघुशंका के बाद पता नहीं क्या सोचकर मैं निरूद्देश्य शौचालय के फ्लश की गोल घुंडी घुमाता रहा और तब तक घुमाता रहा जब तक वह निकल नहीं गया..फिर क्या था पानी का फव्वारा फूट पड़ा.. इधर इसे फिर से कसने के बार-बार के अपने प्रयास में मैं असफल हो जाता। तभी वह घुंडी हाथ से छूटकर शौचालय-सीट से होते हुए रेल की पटरियों के बीच जारी गिरा...अब तक मैं पूरी तरह भींग चुका थ। गनीमत यह कि मौसम गर्मी का ही था। इधर घुंडी के गिरते ही मैं अपनी इस बेवकूफी को तहेदिल से कोस रहा था। मैं ट्रेन की इस बोगी के पानी का टैंक खाली हो जाने और इससे रात में यात्रियों को होने वाली परेशानी को सोचकर चिन्तित हो उठा था। इसी बेचैनी में मैं बोगी के किसी कोच अटेंडेंट को खोजने लगा था। कुछ ही क्षणों बाद संयोग से वह मुझे दिखाई पड़ा, मैंने अपनी बेवकूफी छिपाते हुए उसे फ्लश की खराबी के बारे में बताया। उस कोच अटेंडेंट ने फ्लश से बहते पानी को बंद किया तब जाकर मुझे चैन आया। निरूद्देश्य की गई इस बेवकूफी को मैं अपनी कुछ बड़ी बेवकूफियों में से एक मानता हूँ।
यहाँ ध्यातव्य है कि बेवकूफियाँ निरूद्देश्य ही होती हैं, बाकी जो उद्देश्यपरक होती हैं उन्हें हम मूर्खता की श्रेणी में रख सकते हैं। बेवकूफियाँ अपने में मासूम होती हैं जब कि मूर्खता रणनीतिक होती है, या फिर मूर्खता को रणनीतिक विफलता में खोजा जा सकता है। यहाँ हमें मूर्खता के पचड़े में नहीं पड़ना है।
हाँ तो, इस बस में चढ़ते ही सोचने लगा था कि आगे बैठूँ या पीछे वाली सीट पर बैठूँ, दो वाली पर या तीन वाली सीट पर या कहाँ बैठूँ? कुछ देर तो यही सोचने में लगा दिया और जब एक तीन वाली खाली सीट पर बैठा तो किसी ने यह कहते हुए उठाया कि "अरे, यहाँ लोग बैठे हुए हैं।" तो आगे की एक खाली सीट को ग्रहण किया। बस चल दी। इधर बस में उझक-उझक कर मैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ पता नहीं क्या देखने लगा था।
बस में भीड़ थी। सीट न मिलने के कारण कुछ यात्री खड़े थे। मैंने देखा, मेरे ठीक बगल में एक महिला अपने बच्चे को गोंदी में लिए हुए आकर खड़ी हो गई थी। बच्चे को लिए हुए बस की भीड़ में उससे ठीक से खड़े होते नहीं बन रहा था। इधर आम आदमी बनते ही मेरी संवेदनशीलता कुलबुलाने लगी, मन में आया कि इसे अपनी सीट देकर मैं खड़ा हो जाऊँ, लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने समझाया कि ऐसी मूर्खता करने के साथ अब इतना भी संवेदनशील बनने की जरूरत नहीं है। कविता या साहित्य रचने का यह मतलब नहीं होता कि इस संवेदनशीलता को ही ओढ़ा या बिछाया जाए। इसी बीच किसी ने उस महिला को आगे की तीन वाली सीट के एक खाली सीट पर बैठने के लिए कहा। लेकिन थोड़े प्रयास के बाद वह वैसे ही खड़ी रही। उसका इस तरह खड़े रहना नैतिकता ओढ़े मेरी उस सोच से जिससे साहित्य उपजने की सम्भावना रहती है, उस पर प्रहार सा प्रतीत हुआ। मैंने महिला को वहाँ बैठने के लिए कहते हुए कंडक्टर से भी खाली दिखाई दे रही उस सीट पर उसे बैठाने के लिए कहा। उस खाली सीट पर रखी रजाई को कंडक्टर ने हटवाते हुए बच्चे लिए उस औरत को वहाँ बैठाया। खैर, मैंने अनुभव किया कि यह रजाई रखने वाले की बेवकूफी थी या मूर्खता कि वह स्वयं बिना किसी के कहे ही सीट पर से रजाई हटाने के लिए तैयार क्यों नहीं हुआ?
बस चली जा रही थी, पीछे बैठे एक व्यक्ति की आवाजें मेरे कानों में पड़ रही थी "सिंचाई के चार हजार लग जाएंगे और दस-बारह बोरी खाद के, आगे पता नहीं क्या होगा?" मैं पूरी बात नहीं सुन सका लेकिन सूखे में खेती की समस्या पर कोई किसान ही चर्चा कर रहा है।
बस को चलते हुए करीब चालीस मिनट से अधिक हो गया था। अचानक मुझे बस में एकदम आगे बैठे कुछ लोगों के चीखने की आवाज के साथ यकायक बस के दायीं ओर मुड़ने और जोरदार ब्रेक लगने की आवाज के साथ ही बस से किसी के टकराने की आवाज भी सुनाई पड़ी। हम भी आगे वाली सीट से टकराते-टकराते बचे थे। बस रूक चुकी थी। कुछ यात्री धड़ाधड़ नीचे उतर रहे थे। धीरे-धीरे कर अधिकांश लोग बस से नीचे उतर चुके थे, लेकिन पता नहीं मैं अपनी किस बेवकूफी में बस में यूँ ही अकेले बैठा रहा।
हाँ, मेरी इस बस से किसी का एक्सीडेंट हो गया है, इसका एहसास मुझे हो चुका था। अन्त में मैं भी बस से उतरा। जाकर बस के सामने देखा तो मेरा होश उड़ गया। एक मजदूर जैसा आदमी बस के धक्के से इसके ठीक सामने ही सड़क की दायीं पटरी पर गिरा पड़ा था। उसके सिर से बहता हुआ खून जमीन की ढलान पर लुढ़क रहा था। हम सब किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े केवल उस व्यक्ति को ही देखे जा रहे थे। उसकी मोटरसाइकिल ठीक बस के सामने लगभग उसके नीचे पड़ी थी।
हममें से कोई पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था तो कोई डाक्टर को, तो कोई कह रहा था अभी इसकी साँसें चल रही हैं। लेकिन मुझे तो लगा जैसे यह मर गया हो। किसी ने उस मरणासन्न व्यक्ति के मुँह से शराब की बहुत दुर्गन्ध आने की बात कही तो कोई दुर्घटना स्थल के आधार पर बस ड्राइवर की गलती निकालने का प्रयास करने लगा था। तभी एक व्यक्ति ने कहा, जो शायद बस के एकदम आगे बैठा था, "नहीं, इसमें बस ड्राइवर की कोई गलती नहीं है, यह आदमी उधर से बिना बस को देखे ही अचानक सड़क क्रास करने लगा था.. ड्राइवर ने तो बहुत जोरदार ब्रेक लगाया और इसे बचाने के चक्कर में बस को इधर मोड़ दिया था..बस-ड्राइवर ने तो बहुत सारे यात्रियों की जान भी बचाई अन्यथा बस पलट सकती थी " मैंने ध्यान दिया पटरी से आगे गहरी ढलान थी।
फिर, मैंने उधर देखा जिधर से मोटरसाइकिल चलाते अचानक वह सड़क पार करने की कोशिश कर रहा था। वहाँ एक गोमती में "अंग्रेजी शराब की दुकान" लिखा दिखाई दिया। मैं कुछ-कुछ माजरा समझ गया था। सोचा, शायद यह वहीं से नशे में चला होगा। मैंने गौर किया उस "अंग्रेजी शराब की दुकान" का दुकानदार इस घटना से बेपरवाह, जो ठीक उसके दूकान के सामने ही घटी थी, अभी भी अपना दूकान खोले वहीं बैठा था! दुर्घटना का शिकार वह व्यक्ति बेहद आम आदमी जैसा दिखाई पड़ा। किसी ने उसे मजदूर बताया जो किसी दूसरे की मोटरसाइकिल लेकर यहाँ तक आया था। जैसे कुछ सोचते हुए मेरे मुँह से निकला, "लगता है यह वहाँ से अंग्रेजी शराब पीकर चला था" इसे सुन कुछ लोग मुस्कुराते हुए हँस से दिए। लेकिन अगले ही पल मैं मन ही मन अपने इस कथन में छिपे अमानवीयता को कोसने लगा था। हम न तो सौ नम्बर डायल किए
और न ही एक सौ आठ नम्बर, क्योंकि हम भी निकलने की जल्दी में थे। एक बार तो मैंने उस हादसे के शिकार व्यक्ति के स्थान पर स्वयं को रख कर देखा तो मुझे नियति का किया धरा प्रतीत होने लगा जो मेरे मन में उपजने वाली संवेदनाओं पर भारी पड़ा और मैं घटनास्थल से दूर निकलने की सोचने लगा था।
इसके बाद मैं बस में आया, देखा पूरी बस खाली हो चुकी थी, मैंने भी अपना सामान लिया और उस बस से उतर गया क्योंकि अब आगे उसे नहीं जाना था। इसके ड्राइवर और कंडक्टर दोनों उस घटनास्थल से भाग चुके थे। वहाँ हम जैसे बचे-खुचे बस-यात्री अब शेष काम पुलिस का मान अपनी आगे की यात्रा के बारे में सोचने लगे थे। तभी किसी ने कहा "अरे, उस कंडक्टर ने हमारे पैसे भी नहीं लौटाए थे मेरा हजार रूपए का नोट था!" उसकी बात सुन मुझे अपने भी पाँच सौ के नोट की याद आई। फिर किसी ने कहा, वह कंडक्टर इस तरह कई यात्रियों के पैसे नहीं लौटाए थे, कंडक्टर और ड्राइवर दोनों अपनी जान बचाने के चक्कर में वहाँ से भाग चुके थे।
रात गहरा गई थी। हम आगे जाने के लिए साधन का इन्तजार कर रहे थे। कुछ लोग इधर-उधर के साधनों से निकल भी चुके थे। करीब चालीस मिनट के बाद हमने देखा वहाँ पुलिस आई थी। दुर्घटना में घायल या मृत उस व्यक्ति को अस्पताल ले जाया गया था और हम दूर से ही देख रहे थे कि उस दुर्घटनाग्रस्त बस को भी किनारे किया जा रहा था।
कुछ देर बाद एक सरकारी बस आई हम लोग उसमें सवार हुए। उस बस का कंडक्टर टिकट बनवाने की शर्त पर हमें ले चलने के लिए तैयार हुआ। टिकट लेने के बाद हममें से एक व्यक्ति इस बस कंडक्टर से यह कहते हुए उलझ गया था कि हमें दुर्घटनाग्रस्त बस के ट्रांसफर यात्री के रूप में वह क्यों नहीं लेकर चला? और यदि हमारे पास टिकट के पैसे न बचे होते तो हम क्या करते? लेकिन इस बस का कंडक्टर इन बातों को सुनने के लिए तैयार नहीं था। उसने कहा कि मुझे इस सम्बन्ध में किसी नियम की जानकारी नहीं है। हालांकि, उस व्यक्ति ने अपने को वकील बताते हुए रोडवेज विभाग के साथ ही इस कंडक्टर पर भी मुकदमा कर देने की धमकी दी। और मैंने बेवकूफाना अन्दाज में दुर्घटनाग्रस्त बस के कंडक्टर पर बाकी के पैसे न लौटाने को लेकर चोरी का मुकदमा दर्ज करा देने की बात कही। यहाँ तक कि उस दुर्घटनाग्रस्त बस का नम्बर भी मैंने नोट नहीं किया था कि कम से कम इससे उसके कंडक्टर का पता कर अपने बकाए पैसे ही उससे ले लेता।
हम सब की इस व्यर्थ जैसी बहसबाजी को सुनकर एक व्यक्ति ने कहा, "भाई साहब आप लोग कल सारी बात भूल जाओगे और कुछ नहीं करोगे।" उसकी बात सही भी थी। अन्त में अपने को वकील बताने वाला व्यक्ति पूरी व्यवस्था को कोसते हुए परिवहन विभाग से लेकर सरकार में बैठे सभी लोगों को बारी-बारी से ऊँचे शब्दों में गालियाँ देते हुए कहा, "जिस दिन एक सौ पच्चीस करोड़ जाग जाएंगे उस दिन तुम्हें अपनी औकात पता चल जाएगी..तुम सब हो तो हमारे नौकर ही लेकिन अपने को मालिक समझ बैठे हो...ऐश कर रहे हो...हम सब को जाति -धर्म में बाँटकर! हमारी समस्याओं की कोई परवाह नहीं? "
उसकी पीड़ा यही थी कि ऐसी परिस्थितियों में फँसे बस के यात्रियों की मदद के लिए कोई व्यवस्था आगे क्यों नहीं आई? क्या सरकार ने इस तरह की परिस्थितियों के दृष्टिगत कोई नियम नहीं बना रखे हैं या कर्मचारियों को इन नियमों की जानकारी ही नहीं दी जाती? उस वकील का आक्रोश इन्हीं बातों को लेकर था। वैसे अन्दर से आक्रोशित तो हम भी थे। मैंने कहा, "इस बस में हमें टिकट नहीं बनवाना चाहिए था इस कंडक्टर को अपने विभाग से स्थिति स्पष्ट कर लेने के लिए बाध्य कर देना चाहिए था।"
हम आम आदमी बन, कर भी क्या सकते हैं? उस पर यह कि आम आदमी बनते ही हम बेवकूफियों पर अपना जन्मसिद्ध आधिकार बना लेते हैं। फिर दूसरे, ये तमाम तरह के नशे के कारोबारी हमें किसी न किसी नशे का शिकार भी देते हैं। और हमारे दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के बाद भी ये सौदागर इसे ही हमारी नियति मानते हुए आपनी दूकान खोले वहीं से बैठकर तमाशा देखते रहते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो!
हमें पता नहीं कि वह मासूम सा आम आदमी अपनी बेवकूफी का या नशे के कारोबारियों का या फिर इन सब से बढ़कर उसके प्रति हमारी अमानवीयता भरी उदासीनता का या फिर इन सब के बीच किस बात का शिकार हुआ? इसका हमें तो कुछ भी पता नहीं..!
और, जब हम बेवकूफ बनकर नशे के गिरफ्त में होते हुए किसी व्यवस्था का निर्माण करते हैं तो शायद ऐसा ही होता है। हमारी मासूम सी ये बेवकूफियाँ अकसर हम पर ही भारी पड़ जाती हैं और फिर किसी का आगे बढ़ कर हमारी मदद करना हमें एक दूसरे तरह के नशे का शिकार बना जाता है जिससे ऐसी ही व्यवस्थाएं आगे बढ़ती रहती है।
हाँ! आप सब से इस बात के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ कि कुछ कहने के लिए किसी दुर्घटना से पीड़ित व्यक्ति का सहारा लिया। क्या करें? मैं यह मानता आया हूँ कि व्यवस्था में स्वयं गड़बड़ियाँ पैदा कर फिर राबिनहुडीय तरीके से मदद पहुँचाने की अपेक्षा इन गड़बड़ियों को न होने देना ही अधिक श्रेयस्कर है।