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गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

यह "एंटीक्लाकवाइज" और "क्लाकवाइज" का चक्कर!

                मैं सुबह-सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे स्टेडियम तक टहलने चला जाता हूँ। इस स्टेडियम में चारों ओर किनारे पर लगभग साढ़े चार फीट की चौड़ी कंक्रीट की पटरी बनी हुई है, लोग इसी पर चलते हुए स्टेडियम का चक्कर भी लगाते हैं।
              यहाँ टहलने के लिए सुबह पाँच या साढ़े पाँच बजे के बीच मेरी भी नींद अपने आप ही खुल जाती है और अलसाए हुए होने पर भी खुद ब खुद मेरे कदम स्टेडियम की ओर चल पड़ते हैं। सुबह-सुबह प्रतिदिन उठने और टहलने की मेरी यह आदत इधर कुछ ही महीनों में पड़ी है, इसके पहले इतनी सुबह उठने की आदत नहीं थी, तब मैंने अपने सैमसंग वाले मोबाइल में प्रतिदिन सुबह सात बजे उठने के लिए एलार्म लगा रखा था। एलार्म क्या यह एक तरह से अलग-अलग दिनों के लिए भजनों का सेट है। हालाँकि अब सुबह उठने के लिए इस एलार्म की जरूरत नहीं होती लेकिन इसके बजने के टाइमिंग में मैंने कोई परिवर्तन नहीं किया और यह भजनों वाला एलार्म उसी तरह से सुबह सात बजे ही बजता है। इसे सुनना मुझे अच्छा लगता है। मेरे लिए इस मोबाइल की उपयोगिता भी इन्हीं भजनों के कारण है।
            आज स्टेडियम से टहलकर आने के बाद चाय पीते हुए जब मैं इसे लिख रहा हूँ तो "गोबिन्दा ते गोबिन्दा, तिरूपति बाला गोबिन्दा" का भजनरूपी एलार्म बजने लगा है!
           चूँकि आज वृहस्पतिवार है पत्नी भी पहले प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत रहते हुए भगवान् विष्णु की पूजा करती थी इसी से प्रेरित होकर मैंने भी आज के दिन के लिए इसी भजन को एलार्म के रूप में चुना था। इसी तरह अन्य दिनों के लिए भी अलग-अलग भजन सेट कर रखे हैं, जैसे मंगलवार और शनिवार के दिन अपने हनुमान जी का। वैसे पत्नी अब वृहस्पतिवार वाला व्रत नहीं रहती, हाँ हम देवताओं के प्रति कोई कट्टर भी नहीं है, लेकिन न जाने क्यों, हम अपने इस सुबह-सुबह टहलने जाने के प्रति कट्टर हो गए हैं?
           वैसे यहाँ स्टेडियम में लोग उसी संकरी पटरी पर टहलते हैं और जिसको दौड़ना होता है वह स्टेडियम में बीच के कच्चे ट्रैक पर दौड़ता है। हाँ मैं भी पटरी पर चलते हुए स्टेडियम का दो-तीन चक्कर लगा लेता हूँ। इस तरह स्टेडियम का चक्कर लगाते समय सूर्योदय के पहले क्षितिज पर छायी मनमोहक अरुणिमा और शीतल मंद-मंद बहती पवन, मन में प्रकृति का एक अद्भुत एहसास करा जाती है। हाँ, इसी एहसास के लिए सूर्योदय के पहले ही कदम खुद ब खुद स्टेडियम की ओर उठ जाते हैं।
टहलते वक्त मैंने कुछ और बातों पर भी गौर किया है जैसे इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर अधिकांश लोग एंटीक्लाकवाइज माने घड़ी की सूईयों के विपरीत दिशा में ही पटरी पर चलते हैं और स्टेडियम का चक्कर लगाते दिखाई देते हैं। जबकि क्लाकवाइज चक्कर वाले अल्पसंख्या में ही होते हैं बस इक्का-दुक्का! चक्कर लगाते समय अधिसंख्य लोगों का दक्षिणावर्त (एंटीक्लाकवाइज) चलने के पीछे के कारण का मनोविज्ञान मेरे समझ में नहीं आया। इसके साथ ही स्टेडियम के इस संकरे walking Street पर चलते हुए मैंने लोगों के बीच एक दूसरे का ख्याल रखने वाली गजब की सहिष्णुता देखता हूँ। जैसे, पीछे से आने वाले की तेज गति का आहट पाते ही आगे चलने वाला व्यक्ति पीछे से आने वाले को रास्ता देने के लिए पहले से ही किनारे होने लगता है। और एक-दूसरे के बगल से गुजरते समय ये लोग अपने हाथों के झटकने का अंदाज बदलकर एक-दूसरे को चोट से भी बचाते हैं। यही नही एक बात और है एंटीक्लाकवाइज घूमते बहुसंख्या वाले लोग सामने से आ रहे इक्का-दुक्का क्लाकवाइज लोगों के लिए आमना-सामना होने पर सम्मानपूर्वक किनारे होते हुए उन्हें निकल जाने के लिए रास्ता छोड़ देते हैं।
           यहाँ इस मैदान के पटरी पर एंटीक्लाकवाइज या क्लाकवाइज टहलते हुए लोगों को अपने समान उद्देश्यों का ज्ञान होता है और वे एक ही जगह पहुँचते भी हैं। एक बात और है, पटरी पर चक्कर लगाते समय प्रतिदिन विपरीत दिशा से आते एक व्यक्ति से मेरा सामना होता है, और टहलते हुए मेरी निगाहें उसे खोजने भी लगती हैं। यहाँ आने पर मुझ पर कट्टरता-विहीन सह-अस्तित्व की भावना तारी हो जाती है। खैर...
             आज देश में सहिष्णुता-असहिष्णुता, देशभक्ति-देशद्रोह, दक्षिणपंथ-वामपंथ जैसे तमाम विवाद दिखाई पड़ रहे हैं, इन विवादों का उत्तर स्त्री-पुरुष के संबंधों को परिभाषित करती "मुझे चाँद चाहिए" की इन पंक्तियों में मुझे मिलता दिखाई देने लगता है। आखिर देश के परस्पर विरोधी विचार वाले लोगों का भी उद्देश्य होता तो समान ही है चाहे वे "क्लाकवाइज" हों या "एंटीक्लाकवाइज" इसका एहसास होना जरूरी है -
              "हर स्त्री-पुरुष के बीच में किसी न किसी तरह का तनाव आता है। इस रिश्ते की प्रकृति ही ऐसी है।....लेकिन आपसी मतभेदों को सुलझाते हुए जिंदगी भी गुजारनी होती है। तुम्हारे मंडी हाउस की तरह जे.एन.यू. भी लिबरेशन का बड़ा अड्डा है। अगर तुम्हारी तरह हर कोई सौ फीसदी अंडरस्टैंडिंग की दलील लेकर अड़ जाए, तो यहाँ कोई घर ही न बसे। अंडरस्टैंडिंग एक प्रक्रिया है, जो एक अवस्था के बाद साथ-साथ धूप-छाँव झेलने से ही अपना स्वरूप लेती है। इसमें दोनों ही पक्षों को एडजस्ट करना होता है। क्या तुम यह कहना चाहती हो कि तुम्हारे और हर्ष के बीच में कोई बुनियादी मतभेद है?" 
वर्षा चुप रही। जवाब देने से पहले 'बुनियाद' की परिभाषा देनी होती, जिससे नयी बहस छिड़ सकती थी। "

               हो सकता है देश में वैचारिक स्तर पर छिड़े सारे विवाद एक-दूसरे के प्रति सामंजस्य बनने की प्रक्रिया के हिस्से हों।

               अंत में चलते-चलते इस पोस्ट के संबंध में एक तथ्य और उद्घाटित करना है, एक बार सुबह मैं इसे पोस्ट कर चुका था लेकिन edit करने के चक्कर में यह post delete हो गयी, जिसकी पुनर्प्राप्ति में मुझे फिर से प्रयास करना पड़ा। शायद इस पोस्ट में पुराने सैमसंग मोबाइल की चर्चा कर देने से सोनी का यह मोबाइल अपनी तौहीन समझ असहिष्णु हो गया था और उस पोस्ट को डिलीट कर मुझसे अपना बदला चुकाया। लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी और इस पोस्ट के प्रति इसे सहिष्णु बना कर ही माना।

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