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रविवार, 29 जनवरी 2017

हम एक दूसरे के लिए एक दूसरे का साथ दें

           उस दिन किसी टी. वी. समाचार चैनल पर प्रसारित हो रहे एक समाचार पर मेरा ध्यान चला गया था। किसी जिलास्तरीय न्यायालय ने पति-पत्नी के आपसी विवाद के बीच पत्नी के पास रह रहे दो छोटे-छोटे बच्चों को पति को सौंपने का निर्णय सुनाया था। इस निर्णय के क्रम में किसी तरह माँ से बच्चों को अलग किया गया था। टी.वी. चैनल, माँ से बच्चों को अलग करते हुए उस भाव पूर्ण दृश्य को ही बार-बार दिखा रहा था।
        इसके बाद इस चैनल के न्यूज-ऐंकर ने उनके आपसी पारिवारिक विवाद के बीच बच्चों के हित को लेकर माँ से प्रश्न करता है -
          "अगर आपके पति आपको फिर से अपने पास रखने के लिए तैयार हो जाएं तो क्या आप अपने बच्चों की खातिर इसके लिए तैयार होंगी?"
         महिला ने इसका उत्तर "हाँ" में दिया था।
         फिर ऐंकर ने उसके पति से पूँछा था -
        "आप, अपनी पत्नी को फिर से अपने पास रखोगे?" पति का उत्तर "न" में था। 
          
         इस "न्यूज" का यही विषय था।

         यहाँ पर उल्लेखनीय है, पति-पत्नी के इस झगड़े या उनके बीच बच्चों की छीना-झपटी जैसे भाव पूर्ण दृश्य के कारण मेरा ध्यान इस न्यूज पर नहीं गया था, और न ही इस समाचार के उल्लेख का उद्देश्य इस घटना के उचित-अनुचित पहलू तथा पति-पत्नी में से किसी एक को सही या गलत ठहराने सम्बन्धी किसी नैतिक निर्णय पर पहुँचने का है। 
       
        मेरा ध्यान न्यूज-ऐंकर द्वारा पति-पत्नी से पूँछे गए उस प्रश्न की शब्दावली पर चला गया था जो उसने पति-पत्नी के बीच के इस झगड़े को सुलझाने के लिए पूँछा था।

       पति-पत्नी दोनों से पूँछे गए इन प्रश्नों की शब्दावली में "रखने" और "रखोगे" शब्द आए हैं। बस मेरा ध्यान इन्हीं दो शब्दों पर अटक गया था। इस शब्द पर ध्यान जाते ही मैने अपनी पत्नी से मुस्कुराते हुए पूँछा था -
       "क्या मैं तुम्हें रखे हुए हूँ?"
       
        उनके उल्टे प्रश्न से मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। फिर मुझे उन्हें अपने प्रश्न पूँछने का कारण समझाना पड़ा तब जाकर जान छूटी।

         वास्तव में "रखना" जैसे शब्द का प्रयोग किसी निर्जीव से वस्तु या पदार्थ के लिए ही हो सकता है। या फिर एक मालिक होने के भावग्रस्त वाला व्यक्ति ही किसी नौकर को "रखता" होगा। जहाँ नौकर का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, वह तो अपने मालिक के निर्देशों का गुलाम और "मालिक के लिए ही रखा" हुआ होता है। यहाँ मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के लिए "रखना" जैसे शब्द का प्रयोग उसकी मानवीय गरिमा के विरुद्ध है। किसी व्यक्ति के लिए प्रयोग किए गए इस शब्द में उस व्यक्ति की मानवीय गरिमा के साथ ही उसकी स्वतंत्रता और निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित होती परिलक्षित होती है और चाहे वह पत्नी ही क्यों न हो।
          विचारणीय है कि क्या इस "रखे" हुए भाव में आपसी प्रेम और समझ का भाव पैदा हो सकता है? क्योंकि कोई किसी को "रखे" या "रखने" में एक विलगाव जैसे संबंध का भाव छिपा होता है जो एक शक्तिशाली और एक निर्बल के बीच में ही हो सकता है।
         दुख है, एक समाचार ऐंकर मानवीय रिश्तों की गरिमा के विरुद्ध उसी शब्द; जिसमें निहित मानसिकता, जो ऐसे रिश्तों में दरार का कारण बनती है, को माध्यम बनाकर पति-पत्नी के टूटते उस रिश्ते के बीच में पुनः लाना चाहता था। उस ऐंकर द्वारा प्रयुक्त ये शब्द दरकते मानवीय रिश्तों के पीछे की मानसिकता और कारण को अनजाने में ही अभिव्यक्त कर रहे थे। 
            
         सच में हमारे शिक्षित समाज में भी अभी सोचने का नजरिया नहीं बदला है। हम शक्तिशाली और सक्षम है तो हमारे पास सब कुछ "रखा" हुआ है और यदि हम कमजोर तथा निर्बल हैं तो हम स्वयं किसी के यहाँ "रखे" हुए हैं! ऐसे में मानवीय गरिमा का कोई भी मूल्य नहीं रह जाता क्योंकि, तब व्यक्ति किसी के हाथों गिरवी ही "रखा" होता है।

         यहाँ नैतिकता, संविधान और कानून सब कहीं न कहीं इसी प्रकार से किसी न किसी के पास "रखे" हुए तो नहीं हैं? और लोग इनका "साथ" पाने से वंचित हो रहे हैं?
          ईश्वर करे हम एक दूसरे के लिए एक दूसरे का साथ दें।
          
                             ----- जय हिंद।
   

                               (26.1.16 के दिन की फेसबुक पर हमारी एक पोस्ट)

रविवार, 22 जनवरी 2017

हवा का सुरसुरापन

               स्टेडियम के सिमेंटेड पट्टी पर तेज कदमों से चलते हुए ग्रुपबाजों (पहले की #दिनचर्या में ग्रुपबाजों का परिचय दिया हुआ है) के बीच के आपसी वार्तालाप को सुनते हुए आगे निकल गया था...उनकी बात कोई खास तो नहीं थी लेकिन मेरा ध्यान उनकी बातों पर अवश्य चला गया... "घर में जब दो साथी लड़ने लगते हैं तो गुस्से मे सामानों को नुकसान पहुंचाने लगते हैं" यहाँ "साथी" का मतलब मैं नहीं समझ पाया था...लेकिन कुछ कामनसेंस लगा कर पति-पत्नी के बीच के विवाद को लगाया.... फिर उनकी बात सुनी "लेकिन सामानों को नुकसान पहुँचाना ठीक नहीं... आदमी कैसे-कैसे करके सामान बनाता है.." 
         इसी कड़ी में इनकी बात चल रही थी..."किस तरह हम दूर स्कूल कभी पैदल कभी साइकिल से जाकर पढ़े तब यहाँ पहुँचे हैं...तब बिजली भी नहीं होती थी...ढिबरी की रोशनी में पढ़े हैं...यहाँ तक कि लालटेन होना भी बड़ी बात होती थी...किसी-किसी घर अगर लालटेन होती भी थी तो एकाध ही...टार्च होना भी बड़ी बात होती...अब टार्च की जरूरत ही नहीं रह गई है...बच्चे कहते हैं टार्च की क्या जरूरत...."
             हाँ, आज बहुत दिनों बाद मैं साढ़े पांच बजे मैं स्टेडियम में टहलने पहुँचा था.. स्टेडियम में अँधेरा था...इधर महोबा में एक-दो दिन से ठंडी थोड़ी कम हुई है तभी स्टेडियम की ओर टहलने का मन किया था... वैसे भी महोबा में कुल मिलाकर छह-सात दिन ही तगड़ी ठंडी पड़ती है..अन्यथा जाड़े की धूप भी यहाँ कड़ी ही लगती है..स्टेडियम में टहलते हुए आज सुरसुरी हवा बह रही थी...यह हमारे पूर्वांचल जौनपुर या कहें लखनऊ की हिमालयी हवा जैसी हांड कंपाने वाली हवा नहीं होती ...कुल मिलाकर टहलते हुए यह हवा सुखद एहसास भर रही थी...स्टेडियम की उस सिमेंटेड पट्टी पर एक बेहद छोटा पिल्ला सिकुड़ा-सिकुड़ा सा कूँ-कूँ करता हुआ भागा जा रहा था...शायद उस पिल्ले को ठंड लग रही थी... उसकी माँ यानी कुतिया उससे काफी पीछे रह गई थी...मैंने झुककर उस पिल्ले को सहलाया और आगे बढ़ गया...कुछ दूर आगे जाने पर पीछे मुड़कर मैंने देखा तो वह पिल्ला जैसे मेरा पीछा करते हुए मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा है...हलाँकि मेरी चाल तेज थी फिर वह मेरा पीछा नहीं कर पाया था...
           इधर ग्रुपबाजों की बातें सुनते हुए मैं उनसे आगे निकल आया था...उनकी बातें सुनकर मुझे याद आया....मैं भी बचपन में ढिबरी या लालटेन की रोशनी में पढ़ता था...मेरे पास एक लालटेन थी...शाम होते ही पहले उसका शीशा साफ करता था...कभी-कभी लालटेन की बाती यदि जली हुई होती तो जलते हुए लालटेन की बाती से धुँआ उठता और उसकी रोशनी भी तेज नहीं होती, तब उसकी बाती के जले भाग को काट कर फिर जलाता, अब लालटेन की उसी बाती से धुँआ रहित स्थिर लौ निकलने लगती और लालटेन की रोशनी भी तेज हो जाती....फिर लालटेन को अपने दालान के सामने टाँग देता...उसकी रोशनी देख मगन हो जाता...कभी-कभी हम-उम्र बच्चों के बीच लालटेन की रोशनी  को लेकर प्रतियोगिता भी हो जाती...मतलब मेरे लालटेन की रोशनी तुम्हारे लालटेन की रोशनी से तेज है टाइप का...
          वाकई, अब समय बहुत बदल गया है...ढिबरी और लालटेन का युग बहुत पीछे छूट गया है...तब का समय और परिस्थिति वैसी ही थी..आज के दौर में हो सकता है वही पुराना युग किन्हीं खास कारणों या परिस्थितियों वश कुछ खास लोगों या क्षेत्रों में देखने को मिल जाए लेकिन चीजें अब काफी हद तक बदल चुकी हैं..
             इस बदलाव में एक चीज बदलती हुई दिखाई नहीं देती, वह है... गरीब और गरीबी की बात करना..बल्कि आज भी यह उतनी ही शिद्दत के साथ राजनीति करने का हथियार बनी हुई है...यही नहीं, पेट्रोल खरीदते-खरीदते सात रूपए प्रति लीटर से सत्तर रूपए प्रति लीटर तक आ पहुँचा हूँ और आज हम एक बार में पहले से दस गुना ज्यादा पेट्रोल भरवाते हैं...लेकिन फिर भी हम गरीब की राजनीति के प्रति कुछ अधिक ही आकर्षित होते हैं...
          वैसे भी आजकल राजनीति की हवा बहुत तेज बह रही है..यह हमें और आपको अपने-अपने तरीके से आकर्षित करती है.. हम इस राजनीति के आकर्षण में खो जाते हैं.. आइए! राजनीति की हवा के सुरसुरे-पन का मजा लीजिए.. गरीबी-वरीबी तो आती-जाती रहती है..राजनीति में बहुत गर्मी होती है..चलिए हम राजनीति तापें...