उस दिन किसी टी. वी. समाचार चैनल पर प्रसारित हो रहे एक समाचार पर मेरा ध्यान चला गया था। किसी जिलास्तरीय न्यायालय ने पति-पत्नी के आपसी विवाद के बीच पत्नी के पास रह रहे दो छोटे-छोटे बच्चों को पति को सौंपने का निर्णय सुनाया था। इस निर्णय के क्रम में किसी तरह माँ से बच्चों को अलग किया गया था। टी.वी. चैनल, माँ से बच्चों को अलग करते हुए उस भाव पूर्ण दृश्य को ही बार-बार दिखा रहा था।
इसके बाद इस चैनल के न्यूज-ऐंकर ने उनके आपसी पारिवारिक विवाद के बीच बच्चों के हित को लेकर माँ से प्रश्न करता है -
"अगर आपके पति आपको फिर से अपने पास रखने के लिए तैयार हो जाएं तो क्या आप अपने बच्चों की खातिर इसके लिए तैयार होंगी?"
महिला ने इसका उत्तर "हाँ" में दिया था।
फिर ऐंकर ने उसके पति से पूँछा था -
"आप, अपनी पत्नी को फिर से अपने पास रखोगे?" पति का उत्तर "न" में था।
इस "न्यूज" का यही विषय था।
यहाँ पर उल्लेखनीय है, पति-पत्नी के इस झगड़े या उनके बीच बच्चों की छीना-झपटी जैसे भाव पूर्ण दृश्य के कारण मेरा ध्यान इस न्यूज पर नहीं गया था, और न ही इस समाचार के उल्लेख का उद्देश्य इस घटना के उचित-अनुचित पहलू तथा पति-पत्नी में से किसी एक को सही या गलत ठहराने सम्बन्धी किसी नैतिक निर्णय पर पहुँचने का है।
मेरा ध्यान न्यूज-ऐंकर द्वारा पति-पत्नी से पूँछे गए उस प्रश्न की शब्दावली पर चला गया था जो उसने पति-पत्नी के बीच के इस झगड़े को सुलझाने के लिए पूँछा था।
पति-पत्नी दोनों से पूँछे गए इन प्रश्नों की शब्दावली में "रखने" और "रखोगे" शब्द आए हैं। बस मेरा ध्यान इन्हीं दो शब्दों पर अटक गया था। इस शब्द पर ध्यान जाते ही मैने अपनी पत्नी से मुस्कुराते हुए पूँछा था -
"क्या मैं तुम्हें रखे हुए हूँ?"
उनके उल्टे प्रश्न से मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। फिर मुझे उन्हें अपने प्रश्न पूँछने का कारण समझाना पड़ा तब जाकर जान छूटी।
वास्तव में "रखना" जैसे शब्द का प्रयोग किसी निर्जीव से वस्तु या पदार्थ के लिए ही हो सकता है। या फिर एक मालिक होने के भावग्रस्त वाला व्यक्ति ही किसी नौकर को "रखता" होगा। जहाँ नौकर का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, वह तो अपने मालिक के निर्देशों का गुलाम और "मालिक के लिए ही रखा" हुआ होता है। यहाँ मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के लिए "रखना" जैसे शब्द का प्रयोग उसकी मानवीय गरिमा के विरुद्ध है। किसी व्यक्ति के लिए प्रयोग किए गए इस शब्द में उस व्यक्ति की मानवीय गरिमा के साथ ही उसकी स्वतंत्रता और निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित होती परिलक्षित होती है और चाहे वह पत्नी ही क्यों न हो।
विचारणीय है कि क्या इस "रखे" हुए भाव में आपसी प्रेम और समझ का भाव पैदा हो सकता है? क्योंकि कोई किसी को "रखे" या "रखने" में एक विलगाव जैसे संबंध का भाव छिपा होता है जो एक शक्तिशाली और एक निर्बल के बीच में ही हो सकता है।
दुख है, एक समाचार ऐंकर मानवीय रिश्तों की गरिमा के विरुद्ध उसी शब्द; जिसमें निहित मानसिकता, जो ऐसे रिश्तों में दरार का कारण बनती है, को माध्यम बनाकर पति-पत्नी के टूटते उस रिश्ते के बीच में पुनः लाना चाहता था। उस ऐंकर द्वारा प्रयुक्त ये शब्द दरकते मानवीय रिश्तों के पीछे की मानसिकता और कारण को अनजाने में ही अभिव्यक्त कर रहे थे।
सच में हमारे शिक्षित समाज में भी अभी सोचने का नजरिया नहीं बदला है। हम शक्तिशाली और सक्षम है तो हमारे पास सब कुछ "रखा" हुआ है और यदि हम कमजोर तथा निर्बल हैं तो हम स्वयं किसी के यहाँ "रखे" हुए हैं! ऐसे में मानवीय गरिमा का कोई भी मूल्य नहीं रह जाता क्योंकि, तब व्यक्ति किसी के हाथों गिरवी ही "रखा" होता है।
यहाँ नैतिकता, संविधान और कानून सब कहीं न कहीं इसी प्रकार से किसी न किसी के पास "रखे" हुए तो नहीं हैं? और लोग इनका "साथ" पाने से वंचित हो रहे हैं?
ईश्वर करे हम एक दूसरे के लिए एक दूसरे का साथ दें।
----- जय हिंद।
(26.1.16 के दिन की फेसबुक पर हमारी एक पोस्ट)