बाने...! हाँ..शायद
यही नाम था उनका...हम बच्चे उन्हें कभी-कभी ‘बाने बबा’ कह कर संबोधित कर लेते..।एक दम आम आदमी जैसा रूप रंग...और..उसी तरह के हाव-भाव...! हाव-भाव तो छोड़िये लोगों
का उनके प्रति यही नजरिया भी था...नजरिया माने..वे शक्तिहीन...अधिकार विहीन...दूसरों की दया पर निर्भर रहने वाले
जीव थे। जिस तरह इस सिस्टम में एक आम व्यक्ति
उपेक्षित होता है ठीक उसी प्रकार से थे वे...! उपेक्षित से ही तो थे वे..!! घर पर
पशुओं को चारा देना..., उन्हें इस नाद से उस नाद बाँधना.., या फिर बैलों के काधें
जुआ चढ़ा और हल अपने काधें रख खेतों की और निकल जाना...फिर..शाम ढले खेत की
जुताई कर घर वापस आना...! यदि इन सब से फुरसत मिलती तो शाम को हमारे घर
आना...और...बाबा, दादा जो भी होता उनकी ओर यह कहते हुए हाथ बढ़ाना कि “भईया रचि के
सुरतिया खियऊता..” फिर सुरती लेते और उसे हथेली पर ले अंगूठे से मलते, दो-चार गप्पे
लड़ाते कुछ क्षण बिताते..! इसी बीच उनके घर से आवाज हमारे घर तक पहुँचने लगती...
“अरे..बाने...हे..बाने..! ई कहाँ गवा...देखा..अ..ई बनवा..निकलि लेहसि...” फिर
सुरती मुँह में रख यह कहते हुए अपने घर वापस होते “देखी भईया का बात हवई...अबई त
बरधन (बैलों) क सानी पानी दई क आये ह..” हाँ तो.…लगभग यही दिनचर्या थी उनकी...! जो
कई वर्षों तक हमारी आँखों से गुजरती रही..।
गाहे-बगाहे
बाने को परिवार का विशिष्ट सदस्य होने का सम्मान भी मिल जाता जैसे हमारे भारतीय
लोकतन्त्र में चुनाव के समय जनता को मिलता है...! अकसर शादी-विवाह या फिर किसी
अन्य पारिवारिक उत्सव जैसे अवसर पर वे भी नए धोती कुरते में दिखाई दे जाते...! इस क्षण उनके परिवार वाले बाने को बड़े भाई, दादा या चाचा होने का गौरव भी प्रदान कर
देते...! लेकिन हम बच्चे उनके इस नए रूप को देख कर उनसे चुहल करने लगते...! कभी उनके
पहने कुरते के बारे में उनसे पूँछते तो कभी उनकी नई धोती के बारे में पूंछते...और...वे
भी अपने इस नए रूप से उपजी प्रसन्नता को दबा न पाते..! इनका बखान करते जाते...हाँ
हमारी उनसे यह चुहल भी ठीक उसी तरह की होती जैसे आज के चुनाव के अवसर पर आम जनता
को उसकी स्थिति का भान कराते हुए नेता अपने नए-नए वादों के साथ आम जन से चुहलबाजी
करते हैं...!! लेकिन इतना तो तय था बाने बबा की अपने परिवार में कोई औकात नहीं
थी...जैसा कि आम आदमी का इस सिस्टम के आगे...!
धर्म-अधर्म,
सत्य-असत्य के द्वंद्व से परे अविवाहित बाने किसी भी आशा आकांक्षा से शून्य जैसे
आज के उस मेहनत-कश आम आदमी की ही तरह थे जिसके लिए ये व्यर्थ के सरोकार होते
हैं...और इन झमेलों से जैसे उसे कोई मतलब नहीं...! और बाने भी इन सभी झमेलों से
मुक्त आस-पास से बेखबर सुरती खाने की एक तुच्छ सी तलब लिए अपने काम से फुरसत पा
टहल लेते थे...! हाँ तो...बाने बबा अपने सुरती खाने की तलब को दबा नहीं पाते
थे...और जब यह तलब जोर मारती तो वे हमारे घर का रुख कर लेते...हमारे यहाँ भी तो
इसके तलबगार होते...! बाने की यह तलब आम आदमी की रोजमर्रा की रोटी दाल चलती रहे
जैसी जरूरतों के समान ही होती...एक तुच्छ सी जरुरत...! इसी के पूरा होने में पूर्ण
संतुष्टि का भाव...!! उनके इस तलब को हम-उम्र बच्चे भी इसी तुच्छ भाव से लेते और
उन्हें आते हुए देख हम आपस में कह उठते, “देख..अ...बाने सुरती खाई आवत अहैंन..” और
सुरती बनाते ठोंकते बाने की ओर हाथ बढ़ाते ददा..बबा..चचा..जो भी होते कहते जाते,
“बाने क परिवार वाले सुरतियौ नाईं खरीदी कै इन्हईं दई सकतेन..” और बाने इन सब से
बेखबर...सुरती पा गर्वित हो जाते...!
ऐसे
ही एक दिन बाने हमारे घर की ओर आते हुए दिखाई दिए...उन दिनों किशोरावस्था के अंतिम
पायदान पर हम पहुँच रहे थे....हमारे एक दम पड़ोस के चाचा के यहाँ एक नुकीली सींगों
वाली काली भैंस हुआ करती थी...उसे हम मरकहिया भैंस कहते थे...वह भी कम नहीं थी...!
आए दिन पता नहीं कैसे खूंटे से पगहा निकाल इधर-उधर झौंकारती-फुफकारती निकल पड़ती और
हमारे चचा को हाथ में लट्ठ लिए पीछे-पीछे पूरे गाँव का चक्कर लगवाती, तब कहीं जाकर
वापस अपने खूंटे पर आ खड़ी होती..। उस दिन संयोग से बाने को सुरती खिलाने वाला
हमारे घर पर कोई नहीं मिला। मुझे अकेला देख हाल-चाल पूँछ आगे अपनी चिर-परिचित तलब
मिटाने चचा के घर की ओर चल पड़े, ठीक उसी समय मरकहिया भैस खूँटा तुड़ा चुकी
थी...लेकिन बाने आम आदमी की तरह इस संभावित खतरे से अनजान अपनी तलब की रौ में ही
थे...इस बीच उस भैस से मेरा भी ध्यान हट चुका था...तभी बाने का आर्त्र स्वर “अरे ई
मारेसि...बचावा भईया...!” सुनते ही मैंने बाने की ओर देखा, अरे..! बाने तो पीठ के
बल जमीन पर गिरे थे...और नुकीली सींगों वाली मरकहिया भैस अपनी सींगों के साथ सिर
को बाने के पेट पर गड़ाए हुए थी....बाने छटपटा से रहे थे...मैं अपनी औकात की चिंता
न कर अगले ही पल उस भैस की सींगों को पकड़ अपनी पूरी ताकत से बाने के पेट से उसे
उठा कर झटकने की कोशिश करते हुए उससे भिड़ सा गया...! मेरे इस अप्रत्याशित हमले से
घबड़ा कर अपने सींगों को मेरे हाथ से झटक वह मरकहिया भैंस भाग खड़ी हुई...! फिर किसी
तरह झाड़ पोंछ कर बाने को सहारा देते हुए मैने उन्हें खड़ा किया...बाने के मुँह से
बस इतना ही निकला, “अरे बाबा...अबहीं ई त हमईं मारि डालेसि रही..” और मैं किसी के
जीवन की रक्षा करने के गर्व से भर गया था...! हालांकि मेरे लिए गर्व करने लायक
यह कोई विषय नहीं था...क्योंकि...किसी की सहायता करना भी जीवों की स्वाभाविक
प्रवृत्ति या जैविक गुण होता है...और तत्क्षण की मेरी प्रतिक्रिया जीवों की इसी
स्वाभाविक प्रवृत्ति का प्रगटीकरण था...इसमें गर्व कैसा...?
इस घटना के घटित होने को आज कई वर्ष हो
आया है...यहाँ तक कि बाने को भी गुजरे कई वर्ष बीत चुका है...हाँ इस घटना का स्मरण
मुझे उस समय हो आया था...जब कार्यस्थल पर ‘बाने’ जैसे एक सहकर्मी को ‘नुकीली
सींगों वाली काली भैसों’ से उलझते पाया...और ताकतवर लोग उस ‘बाने’ को अपनी ताकत का
अहसास इस आशय से करा रहे थे कि वे स्वयं सभी खतरों से बचने में सक्षम हैं...और तुम
‘बाने’ हो..! इन नुकीली सींगों वाली भैसे अपनी ताकत का भ्रम फैला 'बाने' को डराती रहती हैं.…, तब उस ‘बाने’ ने मेरी और आर्त्र भाव से देखा था...तभी अपनी यह भैंस वाली कहानी मुझे याद आई.…मैंने अपनी यह कहानी उसे सुनाई...तो उस बाने ने मुझसे पूँछा
था, “तो क्या मैं भैस की नुकीली सींगों से निश्चिन्त रहूँ...?” मैंने भी कुछ ऐसा
ही आश्वासन दिया था...यह वैसा ही था जैसे एक ‘बाने’ दूसरे ‘बाने’ को आश्वासन दे
रहा हो...!
और हाँ इस कहानी के याद आने का एक और दूसरा
कारण भी है...एक तो ये ‘नुकीली सींगों वाली काली भैसे’ हमेशा आम आदमी के पेट पर ही
हमला करती हैं...और उन्हें बचाने वाला कोई ताकतवर नहीं होता बल्कि वह भी उन्हीं
जैसा एक आम आदमी ही होता है...लेकिन जब यह पूरी शिद्दत से इन ‘सींगों वाली भैसों’
से भिड़ता है तो ये ‘भैंसें’ भाग खड़ी होती हैं, और पूरा मैदान इन्हीं के हाथ में आ
जाता है...लेकिन बाने को कोई विजयोत्सव भी नहीं मनाना चाहिए यह तो उसकी स्वाभाविक
प्रवृत्ति है...चलो इतना ख़ुशी तो मना ही सकते हैं कि एक ‘बाने’ भी इन ‘नुकीली
सींगों वाली काली भैसों’ के सामने विजयी हो सकता है...जैसे उस मरकहिया भैंस के
सामने मेरी कोई औकात नहीं थी फिर भी मैं बाने को बचाने में कामयाब हुआ था...। हस्तिनापुर
नामक राज्य का चुनाव भी इसका प्रमाण है...
हर सिस्टम के अपने-अपने ‘बाने’ हैं और
‘नुकीली सींगों वाली काली भैंसें’ हैं...और ये नुकीली सींगों वाली काली भैंसें बाने जैसों का शिकार कर ही ताकतवर होने का भ्रम पाले रहती हैं.…यदि इसकी सींगों से कोई बचाएगा तो वह भी
‘बाने’ ही होगा क्योंकि उसे ‘बाने’ होने की पीड़ा का भान रहता है...बाकी सब नुकीली
सींग लिए फिर रहे है....