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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

प्रेम; एक अनकहा अहसास

             भरी दोपहरी में टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर वह चला जा रहा था...सूर्य की तीखी किरणें उसके शरीर को बेधती जा रही थी...उसका विश्रांत-क्लांत मन छाया की तलाश करने लगा...जहाँ..वह दो पल ठहर विश्राम कर ले...और...फिर अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले...लेकिन दूर-दूर तक उसे कोई ऐसा आश्रय-स्थल नहीं दिखाई दे रहा था....आखिर वह चला ही जा रहा था...!
             यकायक..! दूर क्षितिज में उसे एक दृश्यावली उभरती हुई सी दिखाई पड़ी...कहीं कोई यह मृग मरीचिका तो नहीं...! यह पथ...! हाँ इस भरी दुपहरी में वह ऐसी ही तमाम मृग-मरीचिकाओं का ही तो सामना करते हुए चला जा रहा है...दूर की यह दृश्यावली भी कहीं इन्हीं मरीचिकाओं का हिस्सा तो नहीं...? उसने अपनी आँखों को दोनों हाथों से मला...अरे..! नहीं दूर यह पेड़ों के समूह ही हैं...शायद कोई जंगल हो..उसे एक आस बंधी...कुछ क्षण वह किसी पेड़ के नीचे सुस्ता लेगा...
         अब यह पगडंडी उस जंगल में प्रवेश कर रही थी...ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की सघन छाया उसे अब भाने लगी थी...ये विशाल और ऊँचे-ऊँचे पेड़ और इनकी छायाओं में उसका मन विश्राम की तलाश करने लगा...ऐसे ही एक विशाल पेड़ को उसने अपना विश्राम-स्थल चुन लिया...तने की टेक लिए बैठे हुए उसके थके मन और शरीर को उस वृक्ष की सघन छाया माँ की गोंद का अहसास देने लगे थे...यह सोचते हुए धीरे-धीरे उसकी आँखें बंद हो रही थी...काश, इस वृक्ष की ये डालियाँ अपने कोमल पत्तों से उसे तनिक सहला देती...थपकी भरा प्रेम का एक अहसास मिलता..! धीरे-धीरे उसकी आँखें बंद होने लगी...वह सपनों में खो गया था...
        ....नहीं-नहीं वह निर्दयी नहीं है...हाँ वह किसी को सहलाता नहीं..किसी को थपकी नहीं दे पाता..किसी के सिर पर हाथ नहीं रखता...वह भी तो तन कर खड़ा रहता है...अरे हाँ...! ये उसके हाथ...! नहीं-नहीं ये उसके हाथ नहीं...ये..! ये..!! ये तो डालियाँ हैं..! रोयें नहीं पत्तों से भरी डालियाँ...! हाँ उसके शरीर पर डालियाँ उग रही हैं...पत्तियों से भरी तमाम डालियाँ..! वह कितना प्रसन्न है...!! लेकिन वह निर्दय है...? तना है...खड़ा है...वह कैसा वृक्ष है...? वह अपनी डालियों को झुका नहीं पा रहा है...अपने कोमल पत्तों से देखो न वह किसी को प्रेम की थपकी भी नहीं दे पा रहा है..! लेकिन...लेकिन...तुम्हें धूप नहीं लगने देगा...दो शब्द तुम्हारे लिए बोल नहीं पाएगा...लेकिन...! निश्चिन्त सा तुम शरीर पर उगी इन डालियों और इसके पत्तों की छाया में विश्राम कर लो...वह तना रहेगा, बस उसके शरीर पर ये डालियाँ ऐसे ही उगी रहें...! अपनी इन डालियों और पत्तों में तो वह सूरज की गर्मी को तो स्वयं सोख लेगा...! लेकिन...एक अनकहा अहसास लिए तुम्हें धूप और गर्मी से बचाते तुम्हारे लिए इसी तरह छाया देता रहेगा...!!

         अरे...! ये चेहरे पर गर्मी कैसी..! धीरे-धीरे आँखें खुली... ओह..! ऊँचे तने की टहनी की कोई पत्ती हिली थी...क्षण भर के लिए पत्तियों के झुरमुट से दोपहर के सूरज की तीखी किरणें चेहरे पर आ पड़ी थी...उसने देखा..यह तो धनेश है...! डालियों के फुनगियों पर जो धीरे-धीरे सरक रहा है...शायद इसी कारण पत्तियाँ हिली थीं...हाँ उस धनेश को भी तो अपने हिस्से के आश्रय स्थल की तलाश थी...और...वृक्ष निश्चित ही तुम निर्दय नहीं हो...सबके हिस्से का अनकहा अहसास बाँटते जा रहे हो..! जागते ही उसने सोचा.....!!

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

ये नुकीली सींग वाली काली भैंसें...!

           बाने...! हाँ..शायद यही नाम था उनका...हम बच्चे उन्हें कभी-कभी ‘बाने बबा’ कह कर संबोधित कर लेते..।एक दम आम आदमी जैसा रूप रंग...और..उसी तरह के हाव-भाव...! हाव-भाव तो छोड़िये लोगों का उनके प्रति यही नजरिया भी था...नजरिया माने..वे शक्तिहीन...अधिकार विहीन...दूसरों की दया पर निर्भर रहने वाले जीव थे। जिस तरह इस सिस्टम में एक आम व्यक्ति उपेक्षित होता है ठीक उसी प्रकार से थे वे...! उपेक्षित से ही तो थे वे..!! घर पर पशुओं को चारा देना..., उन्हें इस नाद से उस नाद बाँधना.., या फिर बैलों के काधें जुआ चढ़ा और हल अपने काधें रख खेतों की और निकल जाना...फिर..शाम ढले खेत की जुताई कर घर वापस आना...! यदि इन सब से फुरसत मिलती तो शाम को हमारे घर आना...और...बाबा, दादा जो भी होता उनकी ओर यह कहते हुए हाथ बढ़ाना कि “भईया रचि के सुरतिया खियऊता..” फिर सुरती लेते और उसे हथेली पर ले अंगूठे से मलते, दो-चार गप्पे लड़ाते कुछ क्षण बिताते..! इसी बीच उनके घर से आवाज हमारे घर तक पहुँचने लगती... “अरे..बाने...हे..बाने..! ई कहाँ गवा...देखा..अ..ई बनवा..निकलि लेहसि...” फिर सुरती मुँह में रख यह कहते हुए अपने घर वापस होते “देखी भईया का बात हवई...अबई त बरधन (बैलों) क सानी पानी दई क आये ह..” हाँ तो.…लगभग यही दिनचर्या थी उनकी...! जो कई वर्षों तक हमारी आँखों से गुजरती रही..। 
         गाहे-बगाहे बाने को परिवार का विशिष्ट सदस्य होने का सम्मान भी मिल जाता जैसे हमारे भारतीय लोकतन्त्र में चुनाव के समय जनता को मिलता है...! अकसर शादी-विवाह या फिर किसी अन्य पारिवारिक उत्सव जैसे अवसर पर वे भी नए धोती कुरते में दिखाई दे जाते...! इस क्षण उनके परिवार वाले बाने को बड़े भाई, दादा या चाचा होने का गौरव भी प्रदान कर देते...! लेकिन हम बच्चे उनके इस नए रूप को देख कर उनसे चुहल करने लगते...! कभी उनके पहने कुरते के बारे में उनसे पूँछते तो कभी उनकी नई धोती के बारे में पूंछते...और...वे भी अपने इस नए रूप से उपजी प्रसन्नता को दबा न पाते..! इनका बखान करते जाते...हाँ हमारी उनसे यह चुहल भी ठीक उसी तरह की होती जैसे आज के चुनाव के अवसर पर आम जनता को उसकी स्थिति का भान कराते हुए नेता अपने नए-नए वादों के साथ आम जन से चुहलबाजी करते हैं...!! लेकिन इतना तो तय था बाने बबा की अपने परिवार में कोई औकात नहीं थी...जैसा कि आम आदमी का इस सिस्टम के आगे...!
         धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य के द्वंद्व से परे अविवाहित बाने किसी भी आशा आकांक्षा से शून्य जैसे आज के उस मेहनत-कश आम आदमी की ही तरह थे जिसके लिए ये व्यर्थ के सरोकार होते हैं...और इन झमेलों से जैसे उसे कोई मतलब नहीं...! और बाने भी इन सभी झमेलों से मुक्त आस-पास से बेखबर सुरती खाने की एक तुच्छ सी तलब लिए अपने काम से फुरसत पा टहल लेते थे...! हाँ तो...बाने बबा अपने सुरती खाने की तलब को दबा नहीं पाते थे...और जब यह तलब जोर मारती तो वे हमारे घर का रुख कर लेते...हमारे यहाँ भी तो इसके तलबगार होते...! बाने की यह तलब आम आदमी की रोजमर्रा की रोटी दाल चलती रहे जैसी जरूरतों के समान ही होती...एक तुच्छ सी जरुरत...! इसी के पूरा होने में पूर्ण संतुष्टि का भाव...!! उनके इस तलब को हम-उम्र बच्चे भी इसी तुच्छ भाव से लेते और उन्हें आते हुए देख हम आपस में कह उठते, “देख..अ...बाने सुरती खाई आवत अहैंन..” और सुरती बनाते ठोंकते बाने की ओर हाथ बढ़ाते ददा..बबा..चचा..जो भी होते कहते जाते, “बाने क परिवार वाले सुरतियौ नाईं खरीदी कै इन्हईं दई सकतेन..” और बाने इन सब से बेखबर...सुरती पा गर्वित हो जाते...!
        ऐसे ही एक दिन बाने हमारे घर की ओर आते हुए दिखाई दिए...उन दिनों किशोरावस्था के अंतिम पायदान पर हम पहुँच रहे थे....हमारे एक दम पड़ोस के चाचा के यहाँ एक नुकीली सींगों वाली काली भैंस हुआ करती थी...उसे हम मरकहिया भैंस कहते थे...वह भी कम नहीं थी...! आए दिन पता नहीं कैसे खूंटे से पगहा निकाल इधर-उधर झौंकारती-फुफकारती निकल पड़ती और हमारे चचा को हाथ में लट्ठ लिए पीछे-पीछे पूरे गाँव का चक्कर लगवाती, तब कहीं जाकर वापस अपने खूंटे पर आ खड़ी होती..। उस दिन संयोग से बाने को सुरती खिलाने वाला हमारे घर पर कोई नहीं मिला। मुझे अकेला देख हाल-चाल पूँछ आगे अपनी चिर-परिचित तलब मिटाने चचा के घर की ओर चल पड़े, ठीक उसी समय मरकहिया भैस खूँटा तुड़ा चुकी थी...लेकिन बाने आम आदमी की तरह इस संभावित खतरे से अनजान अपनी तलब की रौ में ही थे...इस बीच उस भैस से मेरा भी ध्यान हट चुका था...तभी बाने का आर्त्र स्वर “अरे ई मारेसि...बचावा भईया...!” सुनते ही मैंने बाने की ओर देखा, अरे..! बाने तो पीठ के बल जमीन पर गिरे थे...और नुकीली सींगों वाली मरकहिया भैस अपनी सींगों के साथ सिर को बाने के पेट पर गड़ाए हुए थी....बाने छटपटा से रहे थे...मैं अपनी औकात की चिंता न कर अगले ही पल उस भैस की सींगों को पकड़ अपनी पूरी ताकत से बाने के पेट से उसे उठा कर झटकने की कोशिश करते हुए उससे भिड़ सा गया...! मेरे इस अप्रत्याशित हमले से घबड़ा कर अपने सींगों को मेरे हाथ से झटक वह मरकहिया भैंस भाग खड़ी हुई...! फिर किसी तरह झाड़ पोंछ कर बाने को सहारा देते हुए मैने उन्हें खड़ा किया...बाने के मुँह से बस इतना ही निकला, “अरे बाबा...अबहीं ई त हमईं मारि डालेसि रही..” और मैं किसी के जीवन की रक्षा करने के गर्व से भर गया था...! हालांकि मेरे लिए गर्व करने लायक यह कोई विषय नहीं था...क्योंकि...किसी की सहायता करना भी जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति या जैविक गुण होता है...और तत्क्षण की मेरी प्रतिक्रिया जीवों की इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति का प्रगटीकरण था...इसमें गर्व कैसा...?
       इस घटना के घटित होने को आज कई वर्ष हो आया है...यहाँ तक कि बाने को भी गुजरे कई वर्ष बीत चुका है...हाँ इस घटना का स्मरण मुझे उस समय हो आया था...जब कार्यस्थल पर ‘बाने’ जैसे एक सहकर्मी को ‘नुकीली सींगों वाली काली भैसों’ से उलझते पाया...और ताकतवर लोग उस ‘बाने’ को अपनी ताकत का अहसास इस आशय से करा रहे थे कि वे स्वयं सभी खतरों से बचने में सक्षम हैं...और तुम ‘बाने’ हो..! इन नुकीली सींगों वाली भैसे अपनी ताकत का भ्रम फैला 'बाने' को डराती रहती हैं.…, तब उस ‘बाने’ ने मेरी और आर्त्र भाव से देखा था...तभी अपनी यह भैंस वाली कहानी मुझे याद आई.…मैंने अपनी यह कहानी उसे सुनाई...तो उस बाने ने मुझसे पूँछा था, “तो क्या मैं भैस की नुकीली सींगों से निश्चिन्त रहूँ...?” मैंने भी कुछ ऐसा ही आश्वासन दिया था...यह वैसा ही था जैसे एक ‘बाने’ दूसरे ‘बाने’ को आश्वासन दे रहा हो...!
        और हाँ इस कहानी के याद आने का एक और दूसरा कारण भी है...एक तो ये ‘नुकीली सींगों वाली काली भैसे’ हमेशा आम आदमी के पेट पर ही हमला करती हैं...और उन्हें बचाने वाला कोई ताकतवर नहीं होता बल्कि वह भी उन्हीं जैसा एक आम आदमी ही होता है...लेकिन जब यह पूरी शिद्दत से इन ‘सींगों वाली भैसों’ से भिड़ता है तो ये ‘भैंसें’ भाग खड़ी होती हैं, और पूरा मैदान इन्हीं के हाथ में आ जाता है...लेकिन बाने को कोई विजयोत्सव भी नहीं मनाना चाहिए यह तो उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है...चलो इतना ख़ुशी तो मना ही सकते हैं कि एक ‘बाने’ भी इन ‘नुकीली सींगों वाली काली भैसों’ के सामने विजयी हो सकता है...जैसे उस मरकहिया भैंस के सामने मेरी कोई औकात नहीं थी फिर भी मैं बाने को बचाने में कामयाब हुआ था...। हस्तिनापुर नामक राज्य का चुनाव भी इसका प्रमाण है... 

         हर सिस्टम के अपने-अपने ‘बाने’ हैं और ‘नुकीली सींगों वाली काली भैंसें’ हैं...और ये नुकीली सींगों वाली काली भैंसें बाने जैसों का शिकार कर ही ताकतवर होने का भ्रम पाले रहती हैं.…यदि इसकी सींगों से कोई बचाएगा तो वह भी ‘बाने’ ही होगा क्योंकि उसे ‘बाने’ होने की पीड़ा का भान रहता है...बाकी सब नुकीली सींग लिए फिर रहे है....     

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

एक महीन सी सीमा रेखा...!

           हाँ..अलसाए हुए से थे वह..! लेकिन मुझे देख चहकते हुए बोले, “आइए..आइए..! यार..मैं इधर कई दिनों से आपकी ही प्रतीक्षा में था...” मैं थोड़ा सा विस्मित होते हुए उनसे पूँछा, “अरे..क्या बात हैं..यह चहकना कैसा..?” मित्र ने कहा, “भइये..तुम तो जानते ही हो...जब मैं किसी उलझन में या प्रश्नों के चक्रव्यूह में होता हूँ तो तुम ही याद आते हो..! तुमसे दो-चार बातें कर मन को थोड़ा शान्त कर लेता हूँ..!” “भाई मेरे..! बड़े मतलबी हों..मैं आपका मित्र न होकर गोया कोई instrument हूँ..जिससे खेल कर तुम अपना मन बहला लेते हो...” मैंने अपना यह वाक्य अभी पूरा ही किया था कि मित्र ने मेरी बाँह पकड़ सोफे पर अपने पास ही बैठा लिया तथा कुछ क्षणों का विराम ले, यह कहते हुए कि “नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं, अपने लंगोटिया यार पर इतना अधिकार तो होना ही चाहिए..” एक पुराने अखबार का पेंज मेरे सामने कर दिया| जब मैं कुछ समझ नहीं पाया तो मित्र ने अखबार की एक हेडलाइन पर अपनी ऊँगली रखा और उसे पढ़ने के लिए मुझसे कहा, वह पन्ना कुछ दिनों पुराना हो चला था...! मैंने सोचा, “तो इस पन्ने को मुझे पढ़ाने के लिए ही कुछ दिनों से संरक्षित कर रखा है इन्होंने..!” खैर..मैंने खबर पढ़ी |
        अखबार में छपी खबर कुछ इस प्रकार की थी... ‘एक व्यक्ति चोरी करने की नियत से रात में बैंक में घुसा लेकिन चोरी नहीं कर पाया फिर वह बैंक शाखा प्रबंधक के नाम एक मार्मिक सा पत्र लिख चोरी किये बिना वापस चला आया | उस पत्र में उसने अपनी कुछ मजबूरियों के कारण बैंक में चोरी करने की कोशिश करने का उल्लेख किया था...!’ इसे पढ़ने के बाद मित्र के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कराहट उभरते मैंने देखा और उनसे कहा, “इसमें मुस्कुराने की क्या बात है...वह चोरी नहीं कर पाया...बैंक में चोरी करने का निर्णय उसने मज़बूरीवश लिया...बेचारा...!” अकस्मात मित्र थोड़ा गंभीर हो कर बोले, “यदि बैंक में ही वह उस रात पकड़ लिया जाता तो उसके साथ क्या होता...? शायद जीवन भर के लिए उसे अपराधी घोषित कर दिया जाता...! या वह चोरी करने में सफल हो जाता तो शायद इससे प्रोत्साहित हो और चोरियां करता..!” एक गहरी स्वांस लेते हुए मित्र ने फिर कहा, “उसके द्वारा चोरी के प्रयास की सफलता या पकड़े जाने पर क्षण मात्र में उसकी दुनियाँ बदल जाती...और...अभी भी यदि वह पकड़ा जाता है तो बैंक में चोरी करने के प्रयास में उसे गिरफ्तार किया जा सकता है..! पल भर में एक चोर का तमगा पा लेगा...लेकिन...हो सकता है इस समय अपने घर में बैठा वह पश्चात्ताप की आग में जलते हुए भविष्य में फिर ऐसा काम न करने की मन ही मन कसमें खा रहा हो...!”
        मैंने मित्र की बातें सुनी...इस समय हमारे बीच सन्नाटा पसर गया था...मित्र ने मेरी ओर देखा, “बताओ...क्या उसे सजा मिलनी चाहिए..?” मेरे कुछ समझ में नहीं आया और मैं चुप ही रहा| मित्र महोदय को मुस्कुराते देख मैं कुछ खीझते हुए बोला, “यार इसमें मुस्कुराने की कौन सी बात आ गयी...!” लेकिन मेरी इस बात से बेपरवाह वह बोले, “याद है...!” मैंने उनकी तरफ जिज्ञासु आँखों से देखा...मुस्कुराते हुए मित्र मेरे इस जिज्ञासु भाव से जैसे उत्साहित हो गए तथा अपनी बातों को थोड़ा रहस्यात्मक आवरण में लपेटते हुए बोले, “जब हम दोनों शहर में पढ़ते थे...!” लेकिन मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था...मित्र ने याद दिलाने की कोशिश की, “अरे भाई...जब हम दोनों किसी काम से शहर के ही एक कालेज में गए थे...उस समय हम दोनों के बीच में एक ही साइकिल हुआ करती थी....” मित्र के इतना कहते ही मुझे वह पूरी घटना याद आ गई..! जो इस प्रकार थी...
        ....हम दोनों उन दिनों पढ़ाई के लिए शहर में एक साथ रहते थे...हमारे बीच वही एक साइकिल थी जिसे हम बारी-बारी से इस्तेमाल कर करते थे..! हाँ वह साइकिल मित्र की ही थी...उस दिन कालेज के बाहर साइकिल खड़ी कर हम कालेज-कैम्पस में चले गए थे...कुछ देर बाद वापस आने पर हमें अपनी साइकिल नहीं मिली...! हम परेशान हो उठे...हमारी साइकिल को कोई उठा ले गया था...! हाँ...साइकिल चोरी हो चुकी थी...हमें गुस्सा भी बहुत आया था...! फिर वहीँ कालेज के बाहर हम दोनों एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ आपस में बातें करते जा रहे थे...कि...अचानक हम दोनों को वहीँ से एक साइकिल चुराने की बात सूझ गई...! फिर हमने तय करना शुरू कर दिया कि कौन सी साइकिल उठाई जाए...! अकस्मात् मेरी निगाह एक पुरानी सी साइकिल पर...जो कालेज की बाउंड्रीवाल के सहारे उपेक्षित सी खड़ी थी...पड़ी...! हम दोनों ने उसी साइकिल को उठाने का निश्चय किया...! हममें अब इस बात पर उधेड़बुन मची थी कि कैसे उस साइकिल को ले आएं..! यह सोचते-सोचते काफी देर तक उस साइकिल को देखते हुए हम यूँ ही बैठे रहे...|
        ...तभी हमने देखा...! बेहद गरीब सा दिखाई देने वाला एक विकलांग लड़का उस साइकिल के पास आया और उस साइकिल को ले चल पड़ा...! हाँ...यह साइकिल उसी की थी, ध्यान से उसे जाते हम देखते रहे..! हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और अपनी मद्धिम हँसी को दबा दिए लेकिन अगले ही पल हम सिर नीचा कर जमीन की और देखने लगे थे...! फिर...हम अपने-अपने चेहरे उठा एक दूसरे को देखते हुए खिलखिला कर हँस पड़े थे...! उस समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हम किसी अप्रत्याशित सी मिली ख़ुशी की अनुभूति पा हँस पड़े हों...!
      इतने वर्षों पूर्व की वह घटना मेरे स्मृति-पटल पर पूरी तरह जीवंत हो उठी थी...! तभी मित्र की आवाज सुनाई पड़ी, “बताओं...उस दिन एक पल में हम चोर बन गए होते..! साइकिल चोर..!! फिर तो...हम आज यहाँ न होते...”  “हाँ यार..पल भर में हम क्या से क्या बन गए होते...” मेरे मुँह से निकला| मित्र ने कहा, “देखो...मैंने कहीं पढ़ा था कि हमारे व्यवहार में परिवर्तन लाने वाली एक बहुत ही महीन सीमा रेखा होती है...अर्थात् हमारे द्वारा कोई अपराध कारित होने या न होने के बीच एक बहुत ही महीन विभाजक रेखा होती है, यदि इसे हम पहचान न पाए तो क्षण भर में हम अपराधी बन जाते हैं तथा हमारा व्यवहार क्या से क्या हो जाता है!” “इसका मतलब उस दिन हम इस सीमा रेखा को पहचान गए थे...!” मैंने थोड़ा विनोद भाव से कहा| “नहीं यार..अपनी बात छोड़ों..मैंने तो इसलिए उस घटना को याद दिलाया कि हो सकता है यही बातें उस बैंक में चोरी की नियत से घुसे उस व्यक्ति पर भी लागू हों...”
        मित्र के इतना कहते ही मैं कह उठा, “हाँ यार..! एक-दम सही कहा...हो सकता है कि वह व्यक्ति बैंक वाली घटना के बाद अपने मानस-पटल के उस महीन झीने से विभाजक आवरण को पहचान जाए जो पल भर में हमारे व्यवहार को बदल हमें अपराधी बना देते हैं..!” मैंने एक गहरी स्वांस भरते हुए पुनः कहा, “फिर तो उसे उस दिन की सजा नहीं मिलनी चाहिए बल्कि उसे समझने और समझाने का अवसर मिलना चाहिए...|”
         मेरी यह बात सुनते ही मित्र महोदय उछलते हुए से बोल पड़े, “आपने तो मेरे मुँह की बात एकदम से छीन ली...! यही तो मैं कहना चाहता था...इसीलिए मैंने तुम्हें हमारी वाली घटना की याद दिलाई...हाँ सजगता पूर्वक हमें अपने हर उस पल का पहचान करते रहना चाहिए जब हम किसी निर्णय प्रक्रिया से गुजर रहे हों क्योंकि उस बेहद झीनी सी सीमा रेखा के इस पार से उस पार जाने पर क्षण भर में हमारे व्यवहार की परिभाषा बदल जाती है..! और क्या कहा था..? हाँ.....यदि संभव हो तो किसी को अपने व्यवहार को समझने और समझाने का अवसर दे देना चाहिए..!”
        अंत में मित्र फिर बोले, “बस यही सब उलझन था मेरे मन में, जो अब दूर हो गया है, उस बेचारे को भी यह अवसर मिलना चाहिए, अब तुम जा सकते हो..” मैं भी थोड़ा बनावटी क्रोध दिखाते हुए बोला, “अच्छा..! instrument का काम अब खतम...! लेकिन यार पहले चाय-वाय पिलाओ तब मैं जाऊँगा..” दोनों एक साथ हँस पड़े..|
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