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शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

आदमी के चंगुल में कानून

          आज रविवार है। इधर सुबह का टहलना उतने प्राॅपर तरीके से नहीं हो पाता। इसमें कुछ आलस का भी योगदान है। फिर भी दिनचर्या में इस कमी को पूरा करने की कोशिश कर लेता हूँ। मेरे अंदर का यह आलस केवल सुबह की टहलाई पर ही असर नहीं डाल रहा, इसका प्रभाव मेरे लिखने पर भी पड़ रहा है। लिखने की कोशिश करता हूँ तो लिख नहीं पाता। दरअसल लिखने में मेरी एक कमजोरी है इसमें मैं बुद्धि और कल्पना का इस्तेमाल कर कृत्रिम लेखन से बचता हूँ। लेखन कार्य के लिए भावभूमि चाहिए और भावभूमि तभी मिलता है जब हृदयतल आलोड़ित होता है इस हलचल से भाव जागते हैं। इधर आज बहुत लिखा जा रहा है मैं छिटपुट पढ़ता रहता हूँ लेकिन आज के लेखन में लेखक की आत्मा दिखाई नहीं पड़ती, इससे लिखे में पठनीयता का तत्व जैसे गायब सा रहता है। परिणामस्वरूप पाठन से मन उचट जाता है। लेकिन  यह भी हो सकता है कि इन बातों को लेकर स्वयं मेरा ही नज़रिया गलत हो। मुझे ही कुछ समझ में न आता हो। लेकिन इतना तो मैं कह ही सकता हूँ जो भी महाकाव्य रचे ग‌ए और जिन लेखकों को हम बार-बार पढ़ते हैं या उन्हें पढ़ना चाहते हैं उनका लेखन अनायास या कृत्रिम नहीं है। उनके अंदर की भावभूमि ने उन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया होगा। खैर अब इस बात को विस्तार नहीं देना चाहता‌।

        मैं कहना यह चाहता हूँ कि आज मैं सुबह छह बजे टहलने निकल गया था। मेरा सुबह बाहर निकलना क‌ई दिन बाद हुआ था। बाहर की चीजें कुछ भी नहीं बदली थीं। सब वैसे ही था। जैसे शहर, सड़कें और इसपर चलती मोटरें। यहाँ तक कि सोसायटी के पास चाय की दुकान सजाने के लिए वह टपरा भी। वहाँ वह तिरंगा भी वैसे ही साल भर से आज भी वैसे ही लहरा रहा है, हाँ इतना जरूर हुआ है कि तिरंगे का रंग कुछ धुंधला सा गया है। बस यूँ ही मैं चला जा रहा था अचानक मन में कुछ दिन पहले पढ़ी एक खबर की हेडलाइन कौंध गई! यह लाइन कुछ ऐसी थी कि कोई अधिकार सम्पन्न शख्स किसी को धमका रहा था कि कुछ गलत करने पर "हम तुमको जेल भेज देंगे/देंगी।" उस दिन जब इसे पढ़ा था तो मेरे हृदय में थोड़ी हलचल सी हुई। थी। उस दिन इसे पढ़कर मैंने यही सोचा था कि इस देश में किसी को जेल कोई 'आदमी' भेजता है या 'कानून'? यहाँ 'आदमी' का आशय किसी पद को सुशोभित करने वाला। माना कि इस 'आदमी' 'में अथारिटी' है, लेकिन किसी को जेल तो 'कानून' ही भेज सकता है। यहाँ मेरा आशय बस यही है कि उस जेल भेजने वाले कथन में 'कानून' जैसे किसी के हाथ का खिलौना बना दिखाई दिया। कि यह उस आदमी की मर्जी पर निर्भर है कि वह चाहे तो किसी को जेल भेजे या चाहे तो न भेजे। कुल मिलाकर मेरे कहने का लब्बोलुआब यही है कि यहां कानून का पालन होना या न होना किसी 'व्यक्ति' पर और उसकी मर्जी पर निर्भर करता है। यदि ऐसा ही है तो व्यवस्थाएं व्यक्ति भरोसे ही चलती हैं, फिर तो देश का मालिक ऊपरवाला ही है। कानून में वह कुव्वत नहीं कि किसी को जेल भेज पाए इसीलिए आज कानून की बजाय "व्यक्ति" पर भरोसा करने का चलन बढ़ा है! और यह 'व्यक्ति' अपनी मर्जी का मालिक होता है‌। 

    टहलने वाले अंतिम प्वाइंट पर पहुँच कर जब वापस मुड़ा तो अथारिटी के तीन कर्मचारी घास कटिंग वाली मशीन से घास काटते दिखाई पड़े। वे अपना काम कर रहे थे‌। दरअसल यह काम ही महत्वपूर्ण है। यदि इसी तरह प्रत्येक अथारिटी वाले अपना काम करने लगें तो कानून भी अपना काम करने लगेगा। और यदि कानून अपना काम करने लगे तो यह आदमी यह कहकर कि 'वह कानून का सम्मान करता है' अपनी डींग नहीं हांकेगा बल्कि कानून से डरेगा‌।

#चलते_चलते

       'कानून' जब 'आदमी' के चंगुल में फंसा होता है तो अपना काम नहीं कर पाता। आदमी का चंगुल भयावह होता है।

#सुबहचर्या

(23.07.2023)

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

जमानतदार

          उसने अपना नाम हलकाई और स्वयं को भूमिहीन बताया। इस क्षेत्र में कुछ ऐसे ही नाम होते हैं..हल्कू..हलकाई..बारेलाल जैसा। नामों में ही जैसे गरीबी झलक उठती है। उसकी कहानी सुन लेने के बाद मैं हैरानी के साथ उसे देखने लगा था ! और वह भी कपाल में गहरी धँसी अपनी मिचमिचाती आँखों से मुझ पर नजरें गड़ाए था। मेरे मन-मस्तिष्क में एक अजीब सी संज्ञाशून्यता उभर आई ! आसपास का शोर भी मुझे सुनाई नहीं पड़ रहा था।
           
           उसने मुझसे गरीबी का राशनकार्ड ही मांगा था, उसे देखते हुए मैंने भी यही सोचा था कि यह कार्ड इसे मिलना चाहिए। लेकिन जब उसने कहा कि पहले उसके पास यह कार्ड था, जिसे उसके जेल जाने पर काट दिया गया और वह तीन साल जेल में रह कर आया है, तो मेरे कान खड़े हो गए थे। मैं सोचा रहा था कि मरियल सा दिखने वाला यह बूढ़ा व्यक्ति क्या कोई अपराध कर सकता है ? और क्या ऐसा करना इसके बूते में है? 

            वैसे मेरा अपना अनुभव रहा है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा और रूढ़िवादिता के कारण गरीबी सिर चढ़कर बोलती है। छोटी-छोटी बातों में भी लोग अपना विवेक खो देते हैैं, ऐसा हो भी क्यों न, गरीबी में उलझी जिन्दगी लोगों को परिणामों से बेपरवाह बना देती है! और गाहे-बगाहे खून के रिश्तों में भी हत्या जैसा अपराध घटित हो जाता है। तो, उसकी जेल जाने वाली बात पर मैंने यह सोचकर कि "हो न हो इसने भी कोई अपराध कारित किया हो!" उससे पूँछ बैठा था, "तुम जेल क्यों गए थे?" फिर उसने अपनी कहानी सुनाई थी।
     
            *                                *                                 *

               दरअसल भूमिहीन नहीं था वह, तीन-चार बीघे की खेती थी उसके पास। वैसे जो बुंदेलखंड को जानते हैं, वहां पड़ने वाले सूखे को भी जानते होंगे। जब दस-दस बीघे वाला किसान दाने-दाने को मोहताज हो रहा होता है, तो तीन-चार बीघा वाले किसान की स्थिति समझी जा सकती है, इनमें सूखा झेलने की कुव्वत नहीं होती, इन्हें तो वैसे ही गरीब माना जाता है। लेकिन सूखे में यही मजे में भी रहते हैं, क्योंकि तब बुंदेलखंड की समस्याओं पर राजनीति भी होने लगती है ! और खाद्य-सुरक्षा जैसी योजनाओं के पालन में तत्परता आ जाती है। इधर इज्जतदार बनने के चक्कर में दस बीघे वाला किसान न मजदूरी करता है और न ही राहत ले पाता है और सूखे की मार सबसे ज्यादा इसी पर पड़ती है, जिसके घरों से चूहे भी विदायी मांग रहे होते हैं।

             हलकाई को खाद्य-सुरक्षा वाला कार्ड मिला था जिसके बलबूते उसकी गरीबी और सूखे की समस्या हल हो जाती। लेकिन उम्र के इस तीसरे पड़ाव में भी उसके मन के किसी कोने में विवाह की इच्छा राख में दबी तिनगी की तरह अब भी सुलगती रहती। गाँव का नत्थू, जो थोड़ा अकड़ूँ और चालू स्वभाव का था और उम्र के लिहाज़ से उससे छोटा भी था, अकसर अपनी चुहलबाजी से इस आग को हवा दे देता और हलकाई के मन में विवाह के लड्डू फूटने लगते। इस चक्कर में ही उसने नत्थू से अपने संबंध प्रगाढ़ कर लिए थे।

          एक दिन अलसुबह ही नत्थू उसके पास आकर जेल में बंद अपने रिश्तेदार की जमानत लेने की उससे चिरौरी करने लगा था। हालांकि हलकाई ने अपनी गरीबी का हवाला जरूर दिया लेकिन समझाने पर वह नत्थू की बातों में आ गया था और अपनी तीन-चार बीघे की जमीन बंधक रख उसके रिश्तेदार की जमानत ले ली थी। जमानत वाले दिन जेल में बंद नत्थू के रिश्तेदार के बारे में जज ने हलकाई से पूँछा भी था कि "क्या तुम इसे जानते हो" लेकिन उसने बेखटके "हाँ" में सिर हिला दिया था। नत्थू के रिश्तेदार की जमानत हो गई। उस दिन शहर के एक होटल में नत्थू ने हलकाई को छक कर भोजन कराया था, पूँछ-पूँछकर उसे मनपसंद की चीजें खिलाई गई थी। फिर तीनों खुशी-खुशी गाँव लौट आए थे।
        
            धीरे-धीरे जमानत लिए हुए पाँच-छह महीने खिसक गये थे, इस बीच हलकाई को देखकर भी नत्थू उसे अनदेखा करने लगा था। यही नहीं हलकाई के साथ हंसी-मजाक करना भी उसने बंद कर दिया। जबकि पहले वह हलकाई से घंटों चिपका रहता और जब-तब घर ले जाकर उसे खाना भी खिलाता। हलकाई को नत्थू का यह बदला व्यवहार कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यदि वह नत्थू से मुखातिब होना चाहता भी तो वह हाँ-हूँ करके नत्थू उससे मुँह मोड़ लेता।

              एक दिन गाँव के कोटेदार के यहाँ से हलकाई अनाज लेकर आ रहा था। रास्ते में पड़ोसी बुधुवा का बेटा रमइया, जो कक्षा सात में पढ़ता था, दौड़ते हुए आते हुए दिखाई पड़ा था। पास आकर वह हांफते हुए बोला था, "दादू..आपके घर पुलिस आई है..आपको पूंछ रहे हैं.."
          
            हलकाई को पुलिस वाली बात कुछ समझ में नहीं आई और वह डर भी गया था। उस दिन घबड़ाहट में वह हाँफते-कांपते घर पहुँचा था। घर के दरवाजे पर खड़े दो पुलिस वालों को देख उसके मुंह से कोई बोल नहीं फूट पाया था। वह अनाज का झोला पास की झिंलगी चारपाई पर रखकर पुलिस वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था। उसके कानों में एक पुलिस वाले की कड़कती आवाज गूँज उठी थी, "क्यों रे, तेरा ही नाम हलकाई है न?" काँपती आवाज में उसके द्वारा "हाँ" कहने पर पुलिस वालों ने कहा था, "हम कोर्ट की नोटिस तामील कराने आए हैं, सात दिन बाद तारीख है, मुल्जिम को कोर्ट में हाजिर करा देना..नहीं तो तुमको ही अन्दर कर दिया जाएगा।" उसे कुछ समझ में नहीं आया था कि वह किसे वह हाजिर कराए। क्योंकि उसे तो अब यह भी याद नहीं रहा कि कभी उसने किसी की जमानत भी ली थी। पुलिस वालों ने उसे जैसे याद दिलाते हुए कहा, "तुम इसकी जमानत लिए थे..कहाँ मर गया यह साला ? दो तारीखों से कोर्ट में हाजिर नहीं हुआ है।" उस दिन हलकाई पुलिस वालों के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा और पुलिस वाले एक कागज उसे पकड़ा कर अँगूठे का निशान लेकर चले गए थे। 

          पुलिस वालों के चले जाने के बाद हलकाई को अचानक नत्थू याद आया। साथ में उसके रिश्तेदार की जमानत लेने वाली बात भी याद आई। अब उसे पछतावा भी हो रहा था कि उसने नत्थू से उसके रिश्तेदार का नाम क्यों नहीं पूँछा था। बात समझ में आते ही उसका दिल धड़क उठा था और वह भागते हुए नत्थू के घर पहुँचा था। उस दिन नत्थू अपने घर नहीं मिला। घर वालों के अनुसार नत्थू बिना बताए घर छोड़कर कहीं चला गया है। यह सुनकर हलकाई को जैसे काठ मार गया था। तय तारीख पर वह मुलजिम को कोर्ट में हाजिर नहीं करा पाया था। कोर्ट द्वारा उसकी जमानत जब्त करने के आदेश पारित हो गए थे। बाद में, जमानत की धनराशि न जमा कर पाने के कारण न्यायालय ने हलकाई को जेल भेज दिया था।

          अपनी कहानी के अंत में हलकाई ने अपनी मिचमिचाती आँखों से मुझे देखते हुए यही कहा था, "हाँ  साहब, पैरवी में हमारी जमीन दूसरे ने लिखा लिया अब हमारे पास कोई खेती नहीं है।" 

           *                            *                             *

          धीरे-धीरे मेरे आसपास का शोर मुझे सुनाई देने लगा। मैंने हलकाई की मुलमुलाती आँखों में झाँकने की कोशिश की और उससे पूँछा,  

           "जिसे तुम ठीक से जानते भी नहीं थे, फिर उसकी जमानत क्यों लिए..?"

           "साहब, मैं ठहरा सीधा-सादा आदमी, मैंने नत्थू पर विश्वास कर लिया था और जमानत ले ली।" हलकाई ने कहा।

            "फिर तो, नत्थू..." मैं पूरी बात कह पाता बीच में ही वह फिर बोल उठा,  

            "साहब तभी से उसका भी तो पता नहीं चला है, और साहब अगर वह मिल भी जाए तो यहाँ मेरी कौन सुनता है!"
   
            मैं उससे कहने वाला था, "ऐसा कैसे? हम सब सुनने के लिए ही तो बैठे हैं यहाँ।" लेकिन बोल नहीं पाया, क्योंकि हमें लगा हम सिस्टम के प्यादे हैं और प्यादे बोलते नहीं! हाँ मैं उसे उसका राशनकार्ड दिलवाकर जैसे उसकी सुन लिया था! वह भी खुश हो रहा होगा कि आखिर उसकी सुनवाई जो हुई! ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में सिस्टम का उद्देश्य पूरा हो जाता है। 
         
            लेकिन उसके जाते ही मेरे मन में यही खयाल उठा,

            "यदि मैं न्यायाधीश होता तो क्या इस कपाल में धँसी मिचमिचाती आँखों वाले जमानतदार के जमानत-पत्र को अस्वीकार कर देता? और अभियुक्त के वकील को दूसरा जमानतदार ढूँढ़ने का आदेश देता? लेकिन कानून के साथ हम भी तो अंधे ही होते.!!"  

चायवाला

         आज सुबह छह बजे टहलने निकला। सोसायटी से बाहर सर्विस रोड पर कुछ दूर चला होगा कि उस स्थान की ओर नजर गई जहाँ आठ नौ फीट ऊँचे बांस के एक पतले डंडे में राष्ट्रीय झंडा हमेशा फहरता रहता है। आज यहाँ बरसाती का टपरा भी लगा दिखाई दिया। ऐसे ही एक दिन सुबह पहली बार जब इस तिरंगे पर मेरी नजर पड़ी थी तो अकेले इस झंडे को यहाँ फहरते देख मुझे तनिक आश्चर्य हुआ था कि आखिर कौन इसे यहाँ फहराकर गया है क्योंकि उस दिन यह बरसाती यहाँ नहीं लगी थी कि अनुमान लगाता। अकसर यहाँ से गुजरते हुए मैं इस ओर निहार लेता हूँ। ऐसे ही एक दिन मैंने पाया था कि एक व्यक्ति प्रतिदिन सुबह आठ बजे के आसपास यहाँ आकर अपनी चाय की दुकान सजाता है। जो तेज धूप या मौसम के खराब होने पर इस बरसाती को तान लेता है। आजकल मौसम खराब चल रहा है इसलिए दुकान समेटने के बाद भी वैसे ही तनी बरसाती छोड़ गया है। वही चायवाला इस तिरंगे झंडे को यहाँ फहराए रखता है। जो मेरे यहाँ आने से भी क‌ई महीने पहले से अनवरत फहरता चला आ रहा है।
      
       यह स्थान हमारी सोसायटी के पास में है, बल्कि इस स्थान के पीछे एक अन्य बहुमंजिली सोसायटी की इमारत भी है। जहाँ तक मैं समझता हूं सोसायटी में रहने वालों से इसकी दुकानदारी नहीं चलती है और न ही उस पेट्रोल पंप के कर्मियों से चलती है जो इसके नजदीक ही स्थित है। तो चायवाले की यह दुकान किनसे चलती है? इस स्थान से ठीक सामने गोल चौराहा है जिससे होकर कामगार निकलते रहते हैं। इनमें से कोई पैदल, कोई साइकिल से और कोई स्कूटी से भी होता है। सुबह और शाम इनकी आवाजाही बढ़ जाती है। अकसर इन्हीं लोगों से इस दुकानवाले की दुकानदारी चलती है। आज इस स्थान को देखकर मुझे उस दिन की बात याद आई।    
       
           उस दिन छुट्टी का दिन था। घर की दीवारों के बीच लगातार रहने से मन कभी-कभी अनमना हो उठता है। तब घर की ये दीवारें भी मन को नहीं मना पाती। ऐसे में मन को किसी भुलावे में डाल देना चाहिए क्योंकि इससे मिले समयान्तराल से मनोदशा बदल सकती है। इसी को शायद रिफ्रेश होना भी कह सकते हैं। आखिर मन को भी स्पेस चाहिए और यह मौका मन को मिलना चाहिए। तो, उस दिन अपने अनमने मन को लेकर मैं घर से बाहर आया था कि थोड़ी देर के लिए खुली हवा में सांस लेगा। यह दोपहर बाद ढाई बजे का समय था। बाहर आने पर संझलौके का अहसास हुआ। इस मार्च के महीने में आसमान में घने काले बादल छाये थे। बिजली की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें इन बादलों के बीच कौंध रही थी फिर गड़गड़ाहट की आवज उठती। प्रकृति जैसे किसी बात पर गुस्साई हो! इस दृश्य के बीच मन में आया कि वापस घर की ओर कदम खींच लें, लेकिन सुरसुराती हवा और मौसम के इस मिजाज में एक गजब का आकर्षण था इसलिए सोसायटी के बाहर निकल आया।

        यूँ ही कुछ देर सर्विस रोड पर टहलता रहा। इस रोड पर भी इक्का-दुक्का कारें आ जा रही थी। लेकिन मेन स्ट्रीट पर वाहनों की चिल्ल-पों थी। धीरे-धीरे मौसम का मिजाज कुछ करवट लेता दिखाई पड़ा। अब हवाएं वेगवान हो चली थीं। घने काले बादल भूरे हो चुके थे और गर्जन-तर्जन भी थम गया था। बूँदाबांदी शुरू हुई तो मैं छाँव तलाशने पेड़ की छाँव में चला आया। यहाँ एक बेंचनुमा दीवाल पर बैठकर गोल चौराहे पर दृष्टि जमा दिया। चौराहे को हरियाली से सजाया गया था। वहां के पेड़ पौधों को कुछ देर निहारने के बाद इस चौराहे का चक्कर लेती कारों को देखने लगा। चौराहे की यह कृत्रिम हरियाली आदमी के स्वयं के कुकृत्य को ढँकने का प्रयास जान पड़ा। अब इसे देखने से मन का उचाट हो गया। मैं उठ खड़ा हुआ। लेकिन अभी भी बूँदाबादी हो रही थी। उस ओर आया जिधर फलूदा आइस्क्रीम, मोमोज और ठंडे पेयपदार्थ बेचने वाले ठेले लगे थे। एक ठेले की सजावट पर मैं आकर्षित भी हुआ था। लेकिन बूंदाबादी बारिश में बदलने को बेताब जान पड़ी तो छाँव तलाशने के लिए फिर इधर-उधर देखने लगा था। सहसा मेरी दृष्टि इसी बरसाती की ओर ग‌ई थी। उस दिन भी यह बरसाती ऐसे ही बंधी थी जिसके दो कोने बाउंड्री के कटीले तार से और तीसरा कोना बिजली के खंभे वाले सपोर्टिंग वायर से बांधकर चौथे कोने को एक पतले बांस के डंडे से बंधा गया था। एक व्यक्ति जो साठ की वय से ऊपर का था इसके नीचे अपनी दुकान लगाकर बैठा था। उसके सामने एक छोटा स्टोव, इसके ऊपर भगोना और एक केतली रखा था। इसके बगल में ही बिस्कुट और नमकीन के कुछ डिब्बे भी रखे थे तथा पाउच की कुछ झालरें लटक रही थी। ग्राहकों के बैठने के लिए दुकानदार के पीछे सीमेंट के दो-तीन पटिए रखकर उसपर बोरे बिछाए गए थे। उस दिन बरसाती के सामने लगा यह राष्ट्रीय ध्वज तेज हवा में फड़-फड़कर फहरा रहा था। 

       तेज हो रही बूंदाबांदी से बचने के लिए मैं इसी बरसाती के नीचे चला आया था और ग्राहकों वाले आसन पर आलथी-पालथी मारकर बैठा। यहाँ पहले से एक आदमी बैठा चाय सुड़क रहा था। उस दिन का मौसम ही कुछ ऐसा हो चला था कि मेरी भी इच्छा चाय पीने की हुई थी। लेकिन पास में कोई नगदी न होने से इस इच्छा को दुकानवाले से व्यक्त नहीं कर पा रहा था। वैसे भी आजकल मैं नकदी कम ही रखता हूं, आवश्यकता पड़ने पर पेटीएम वगैरह की सुविधा का उपयोग कर लेता हूँ। बरसाती में जाने से पहले मैंने देखा था कि दुकानदार ने यहाँ कोई क्यूआर कोड नहीं लगाया है। फिर भी चाय पीने की अपनी इच्छा जताने के लिए मैंने दुकानदार से पूँछा था कि चाय बनाते हो। उसके 'हाँ' कहने के बाद मैंने फिर पूँछा कि क्या पेटीएम से भुगतान लेते हो। इसके उत्तर में उसने अबोले ही सिर हिलाया था कि नहीं। मतलब ऐसी व्यवस्था उसके पास नहीं है। मेरे बगल बैठा व्यक्ति उसके इस 'नहीं' की व्याख्या करते हुए बोला था, अरे! इतनी बड़ी कौन सी इनकी दुकानदरी है कि बैंक में पेमेंट लेंगे, इन्हें तो रोज कमाना रोज खाना है, कौन सी बचत है कि बैंक की जरूरत पड़े।"  मैं चुप ही रहा क्योंकि मैं भी यह समझता था। मैंने तो पेटीएम वाली बात इसलिए पूँछा था कि चायवाले को यह पता चल जाए कि मैं चाय पीना चाहता हूं लेकिन मेरे पास नगदी नहीं है। 
       
        वह आदमी चाय पीकर उठ गया था। इधर यहाँ बैठे-बैठे मैं सोच रहा था कि यदि चायवाला मुझे चाय देता है तो घर से पैसे लाकर दे देंगे और फुटकर न होने का बहाना कर कोई बड़ा नोट इसे पकड़ाएंगे। मैंने कुछ देर तक उसकी प्रतिक्रिया का इन्तजार किया। लेकिन मुझ पर ध्यान न देकर उसने एक डिब्बे से बिस्कुट के बचे टुकड़े निकाले। इसे अपनी हथेलियों में लेकर उसे मसला। फिर बिस्कुट के इस भूरे को बरसाती के बाहर के एक साफ-सुथरी जगह पर फेंक दिया था। ये भूरे वहाँ छितराए हुए स्पष्ट दिख‌ई पड़ रहे थे। एक नन्हीं सी खूबसूरत चिड़िया वहाँ आई और निर्भय होकर इसे चुगने लगी थी। जैसे उस चिड़िया को यह पता हो कि दुकानदार ने उसी के लिए ये भूरे छितराए हैं। शायद वह पहले से ही इसके ताक में थी!! इसे चुग कर चिड़िया उड़ गई थी‌। मैं अभी भी वहां बैठा था‌। अब चाय वाले ने मेरी ओर देखे बिना मुझसे चाय के लिए पूँछा था। मैंने उसे बताया था कि मेरे पास नगद पैसे नहीं हैं। उसने चाय बनाने की कोई कवायद शुरू नहीं की‌। इससे मैंने यह समझ लिया था कि इस चायवले के लिए पाँच या दस रूपए भी बहुत मायने रखते हैं। कुछ क्षण और बिताने के बाद मैं इस बरसाती से बाहर निकल आया था। अब तक मैं अपना अनमनापन भी भूल चुका था।     
       
       आज अभी दुकानवाला यहाँ नहीं आया है लेकिन झंडे को फहरते देख मैंने सोचा कि यह चायवाला भी न, पता नहीं किस मिट्टी का बना है जो अपनी दयनीय आर्थिक स्थिति के बावजूद भी तिरंगे से इतना प्रेम कर सकता है! उसकी खुद्दारी पर मुझे आश्चर्य हो रहा था। 

#सुबहचर्या
(04.04.2023)

अम्मा

      "अम्मा! पहचानूं हम‌इ?" 
       "अरे बिटिया भला तोह‌इं न पहिचानब!" यह कहकर उन्होंने नाम लेकर बताया कि वह कौन है। 
       पिचासी वर्ष से कुछ अधिक ही आयु होगी उन वृद्धा की, जो अभी-अभी व्हील चेयर से यहाँ आई हैं। आज उनके पौत्र का व्रतबंध संस्कार का कार्यक्रम है। उनके चेहरे पर की झुर्रियां और उनके सिर के सफेद बाल उनकी गरिमा को बढ़ाता हुआ प्रतीत हो रहा था। वे अम्मा क‌ई साल बाद देख रहीं थी। कुछ साल पहले बाबूजी अर्थात अम्मा के पति का देहांत हो गया था। उनके पति कोई सरकारी मुलाजिम थे और रिटायर होने के बाद पेंशन मिल रहा था उन्हें। बाबूजी के जाने के बाद अम्मा भी बीच में गंभीर रूप से बीमार पड़ी थीं। इसीलिए आज जब अम्मा को उन्होंने देखा तो वे काफी कमजोर दिखाई पड़ीं थी। उम्र और बीमारी का प्रभाव उनके शरीर पर साफ दिखाई पड़ रहा था। अभी वे अम्मा को ध्यान से देख ही रहीं थी कि अचानक अम्मा बोलीं, "बिटिया हमार चोटी थोड़ा गुहि द्यौ।" अम्मा ने उनसे चोटी बनाने के लिए कहा था। 
        वे अम्मा की चोटी ठीक करने लगी थीं। इसे ठीक कर वे अम्मा से बोली, "ल्यौ अम्मा तोहार चोटी ठीक हुइ ग्यौ।" 
       "अरे वाह बिटिया बहुत बढ़िया!" अम्मा ने पीछे चोटी पर हाथ फिराते हुए कहा। 
     इसके बाद अम्मा ने वहीं पास में एक साड़ी के पैकेट को दिखाते हुए कहा, देखो बिटिया, एह साड़ी में फाल-वाल लगा है कि नहीं। वे उस पैकेट को खोलकर देखने लगी। उसमें साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज सभी तहियाया हुआ रखा था। साड़ी को देखकर अम्मा को बताया कि इसमें फाल लगा है। इसके बाद अम्मा की निगाह इस कमरे में महिलाओं पर चली गई। यहाँ अम्मा की बहुओं के अलावा नाते- रिस्तेदार से आई महिलाएं जुटी पड़ी थीं। अम्मा एक एक कर सबको ध्यान से देख रहीं थी, जैसे वह चाह रहीं थी कि इनमें से कोई आकर उन्हें साड़ी पहना दें। लेकिन यहां महिलाएं ज्यादातर अपनी तैयारी या सँजने-सँवरने में व्यस्त दिखाई पड़ी। और अम्मा भी चाहकर भी किसी से कुछ नहीं बोल पा रहीं थीं।
      इसी समय उनके बड़े बेटे इस कमरे में किसी काम से आए। इनके बेटे अर्थात अम्मा के पोते का यह ब्रतबंध कार्यक्रम था। अपने बेटे को देखते ही अम्मा बोली, "अरे बेटवा, ज‌उन सड़िया लियाइ रह्यो हमका द‌इ द्यौ.. ओका हमहूँ पहिन लेई!" बेटे से पहनने के लिए उन्होंने साड़ी मांगा था। यह कहते हुए उनकी यह भी इच्छा थी कि बेटा किसी से कहकर उन्हें साड़ी पहनवा दे।
       बेटे ने अम्मा और साड़ी वाले थैले की ओर देखा। इधर पूजा कार्यक्रम में भी विलंब हो रहा था। उन्हें तुरंत ही मंडप में जाना था। कमरे में भीड़ और यहाँ सबको तैयारियों में व्यस्त देखकर उनके बेटे ने अम्मा से कहा, "अरे अम्मा! तू वैसे ही ठीक लागत ह‌ऊ, ई साड़ी पहनै का तोहका कौन‌ऊ जरूरत नाहीं है, अम्मा अब पूजा में देर हो रही है।" इस बीच मंडप से बेटे को बुलावा भी आ गया था।
      बेटे के जाते ही अम्मा बोली, "देखत अहू बिटिया.. कौन‌उ हमको ई साड़ी नहीं पहिना रहा !" साड़ी के थैले की ओर टकटकी लगाए हुए अम्मा बोली थी।
       इधर कमरे से अब सभी औरतें मंडप में जाने की तैयारी में लगी थीं। कोई किसी पर ध्यान नहीं दे रहा था । अम्मा की ओर एक भरपूर निगाह डालकर वे सोचने लगीं थीं कि अम्मा यह साड़ी कैसे पहनेंगी, उम्र के इस पड़ाव में अम्मा झुककर छोटी भी हो गई हैं, यह नई साड़ी उनसे ठीक से पहना भी नहीं जाएगा, और तो और पहनकर इसे संभाल भी नहीं पाएंगी। इसे पहनने से उनकी परेशानी ही बढ़ेगी! इससे अच्छा है कि अम्मा यह साड़ी न पहनें। इसीलिए अम्मा की ओर देखकर उनसे बोलीं, "नाहीं अम्मा, तू जो साड़ी पहनी हो, उसमें एकदम फिट हो अच्छी लागत हो।" यह सुनते ही अम्मा ने भी कह दिया, "अच्छा ठीक है बिटिया हम अब न‌ई साड़ी न पहनब।" 
      पूजा का कार्यक्रम शुरू हो गया था। इसी समय मँझली बहू अम्मा के पास आई और अम्मा से बोली, "अम्मा पूजा शुरू हो गया है, पूजा में अपनी ओर से कुछ चढ़ावै के द‌इ द्यौ।"
       अम्मा ने बहू की ओर देखा फिर अपने थैले में से पाँच-पाँच सौ के दो नोट निकालकर बहू को देते हुए कहा, "ई ल्यौ, हमरी ओर से चढ़ाई दो जाकर।" बहू ने उन नोटों को अपने हाथ में लिया और मुस्कुराकर अम्मा से फिर बोली, "अम्मा कुछ हमहूँ के लिए चढ़ावै बदे द‌इ द्यौ।" मतलब हमें भी तो पूजा में चढ़ाने के लिए कुछ दे दो।
         अम्मा ने बहू के चेहरे की ओर देखा, फिर अपने उसी थैले में से एक सौ रूपए का नोट निकाल कर बहू को दे दिया। अम्मा के हाथ से उसे लेते हुए बहू बोलीं, "अरे ई का अम्मा! बस इह‌ई सौ रूपया हम चढ़ाइब! अरे कम से कम पाँच सौ रुपए होई के चाही।!" बहू ने पूजा में चढ़ाने के लिए अम्मा से पाँच सौ रूपए मांगा‌।
     अम्मा भी बहू से बोली, "बहू..ई सौ रूपया बहुत है पूजा में चढ़ावै के लिए तोहका,बस..!" इसके साथ ही अम्मा ने यह भी कहा कि इधर बहुत खर्च हो रहा है अब और हम नहीं देंगे।
       अम्मा की बात सुनकर बहू ने भी थोड़ा नाटकीय अंदाज में जैसे मायूस होकर कहा, "अच्छा अम्मा, इसे ही चढ़ा देंगे।" और वहाँ से जाने को हुई थीं। इसी समय अम्मा ने अचानक अपने थैले में फिर हाथ डाल दिया था और थैले में से पांच सौ का एक नोट निकाल कर बहू को देते हुए कहा कि अच्छा जाओ खुश रहो, इसे चढ़ा दो। बहू हँसते हुए पूजा मंडप की ओर चली गई थी।
       बहू के जाते ही अम्मा एक बार फिर उनकी ओर फिर मुखातिब हुई। वे बोली थी। देख्यौ बिटिया! तोहरे बाबू के जाने के बाद ई पैंतीस हजार पेंशन हमका मिलत है, तोहार बाबू बहुत पुण्यात्मा थे बहुत अच्छा काम किए थे, हमारे लिए बहुत कुछ करके ग‌ए हैं, अऊर एक बात है बिटिया..आखिर हम क‌उन बहुत काम किहे हैं..सरकार बेचारी जैसे ई मुफ्त में हमको पेंशन देत है, हम भी इसको ऐसेई खर्च क‌इ देइत है!" इस समय अम्मा के चेहरे पर एक गंभीर प्रकृति वाला संतोष का भाव था। वे देश दुनियां से बेपरवाह जैसे अपनी इस अवस्था को क्षण-क्षण जी लेना चाहती थीं। अम्मा को देखकर वे बहुत देर तक यही सोचती रहीं कि इस अवस्था में इनके मन की यह निर्लिप्त चाह कितनी प्यारी और प्राणवान है!
                            *******

वह मनभावन नोकझोंक

     अभी उस दिन की बात है, मैं लखनऊ से अपने गृह कस्बे मुंगराबादशाहपुर के रास्ते पर था। रायबरेली के आगे एक स्थान पर कार रोककर मुँह धोते हुए जब ड्राइवर ने कहा कि नींद आ रही थी तो मैंने अनुमान लगा लिया था कि रात की नींद पूरी नहीं हुई है। इसलिए मैंने उसे चाय पीने के लिए कहा। लेकिन चाय की दुकानें अभी या तो खुली नहीं थीं या या खुलने की तैयारी में थी। इधर समय पर घर भी पहुँचना था इस फेर में ड्राइवर से यह भी कह दिया था कि जहाँ चाय बनती दिखाई पड़े वहीं गाड़ी रोकना। इसके बाद वह काफी देर तक गाड़ी चलाता रहा। जब एक स्थान पर अचानक कार रोकते हुए उसने कहा कि चाय पी लें तो चलें तो मेरी नज़र सड़क के दाहिने पटरी की ओर ग‌ई। वहां चाय की एक दूकान थी जहां चार-पांच लोग थे। दुकानदार चाय छान रहा था। ड्राइवर ने इसी दूकान को देखकर गाड़ी रोका था। मैं गाड़ी में ही बैठा रहा क्योंकि चाय पीने का मेरा मन नहीं था। इस समय हम निहायत एक ग्रामीण क्षेत्र में थे। जहाँ एक पतली सड़क गाँवों से आकर हाईवे से जुड़ रही थी। 
          मैंने दुकान की ओर देखा कि ड्राइवर जल्दी चाय पीकर आए और हम चलें। दुकान के सामने खड़ा वह कुल्हड़ में चाय उड़ेले जाने का इंतजार कर रहा था। इसी समय किसी व्यक्ति की तेज आवाज सुनाई पड़ी। वह किसी से बिगड़ैल अंदाज में कह रहा था, 
         'एक घंटे से देख रहा हूँ अखबार लिए बैठे हो।'
       मैंने ध्यान दिया, यह आवाज एक लम्बी सफेद दाढ़ी वाले मुस्लिम व्यक्ति की थी जिसकी उम्र साठ-पैंसठ की रही होगी। ये महाशय एक आदमी के हाथ से अखबार खींचते दिखाई पड़े जो पचास-पचपन के वय का था। सफारी सूट वाला वह व्यक्ति कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। हाथ से अखबार छीने जाने से ये महोदय भुनभुना लगे थे। दोनों के बीच नोक-झोंक शुरू हो गई। इसे सुनने के लिए मैं उत्सुक हो उठा। अखबार अब उन चाचा जी के कब्जे में था।
          "हाँ कब से मैं इंतजार में था कि अब खतम करो तब खतम करो, लेकिन जैसे पढ़ नहीं अख़बार को चाट रहे थे.." दाढ़ी वाले चचा की आवाज थी।
            "तो का इसका सूरत देखकर दे देते!" सफारी सूट वाले की आवाज थी।
             "नहीं तो क्या एक घंटा लगता है पढ़ने में? चचा फिर बोले थे।
             इसके बाद सफारी सूट वाला आदमी कुछ भुनभुनाया था लेकिन ठीक से सुनाई नहीं पड़ा।
            "इसे एक घंटा से पढ़ रहे हो। मैं अभी दस मिनट में पढ़कर रख देता हूँ!" चचा ने कुछ ताव में आकर कहा था।
              "हूँ..बड़े आए दस मिनट में पढ़ लेने वाले..ऐसे ही पढ़ना हो तो मैं पाँच ही मिनट में पढ़ डालूँ.." अबकी बार सफारी सूट वाले की आवाज कुछ तेज थी।
             "नहीं…परीक्षा पास करनी है कि रटने के लिए घंटा भर समय चाहिए।" यह बोलकर दाढ़ी वाले चचा अखबार लेकर बेंच पर पढ़ने बैठ ग‌ए थे।
              इसके बाद सफारी सूट वाला आदमी कुछ बड़बड़ा रहा था जो सुनाई नहीं पड़ा। मैंने देखा इन दोनों के इस नोक-झोंक को सुनकर दुकान पर बैठे बाकी सभी चुपचाप मुस्कुराए जा रहे थे। उस दुकान की एक बेंच पर एक और लम्बी दाढ़ी वाले बुजुर्ग बैठे थे, वे भी मुस्कुरा रहे थे, वहीं दूसरी ओर एक अन्य शख्स इन दोनों के नोक-झोंक पर हँसने लगा था। एक और व्यक्ति था जो इन दोनों को देखते हुए मुस्कुराए जा रहा था। इधर कार में बैठे-बैठे मुझे भी इस दृश्य को देखकर मजा आने लगा और मैं भी मुस्कुरा दिया। मैं दुकान के पास जाकर इस दृश्य को मोबाइल में कैद करना चाहा। लेकिन डर लगा कि मुझे फोटो खींचते देख कोई इस निर्दोष नोकझोंक की राजनीतिक व्याख्या न करने लगे। फिर तो यहाँ उपस्थित लोग दो मुस्लिम और तीन हिंदू में बंट जाएंगे। इसलिए कार में बैठे-बैठे चुपके से मैंने उस दुकान की एक तस्वीर अपने मोबाइल में कैद कर लिया। इसी समय मेरा ड्राईवर भी चाय पीकर वापस आ गया था। हम वहाँ से चल दिए थे। 

सोमवार, 27 मार्च 2023

एक कैंम्पस

सायं सात हो चुका था जब मैं ऑफिस से घर पहुँचा‌। पत्नी ने मुझे देखकर भी अनदेखी किया। उनके चेहरे के भाव से लगा कि वे कुछ खिन्न मन:स्थिति में हैं। व्यंग्यात्मक अंदाज में वे मुझसे बोली थी, "ऑफिस के सब निपटाकर चले होंगे, है न?" यह उनकी भड़ास थी। मैं समझ गया कि जरूर कोई बात है। मैंने जब उन्हें बताया कि आफिस के बाद एक कार्यक्रम में जाना पड़ा तो उनके भाव नार्मल हुए। श्रीमती जी ने मुझे बताया कि, कल राजेश के यहाँ चलना है मैंने कह दिया है कि हम लोग बारह बजे के बाद आएंगे‌।" तो यह बात थी जिसे बताने के लिए वे बेचैन हो रही थी। मैंने उत्साहित होकर कहा, ठीक है कल रविवार है छुट्टी के दिन का सदुपयोग भी होगा और जे एन यू कैम्पस भी देख लेंगे। राजेश इनके छोटे भाई मेरे साले साहब हैं। ये जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी विभाग में प्रोफेसर हैं।  


       हम ग्रेटर नोएडा-नोएडा एक्सप्रेसवे से लोग निकले। डीएनडी फ्लाईवे और फिर बन्दा सिंह सेतु से शुरू होने वाला जाम महात्मा गांधी रोड और विवेकानन्द रोड पर भी मिलता गया। रविवार और वह भी दोपहर का समय, मतलब कोई पीक आवर्स नहीं। फिर भी यह भीड़। इसमें रोज चलता किसी मानसिक संत्रास से कम नहीं होगा‌। ट्रेफिक और जाम को देखकर मैंने सोचा था। इसी रास्ते से हम लोग जेएनयू पहुँचे थे।


        जेएनयू कैंपस में प्रवेश करते ही दृश्य बदला हुआ मिला। भीड़भाड़ से दूर जैसे प्रकृति के बीच में आ गए थे। टीचर्स आवास की ओर मुड़े‌। एक गार्ड दिखाई पड़ा। गाड़ी से उतरने को हुआ कि राजेश अपने आवास से बाहर आते दिखाई पड़ ग‌ए। पीछे आरती भी थीं। आरती राजेश की पत्नी। राजेश जब जर्मनी, अमेरिका और स्वीडन में अपने रिसर्च कार्य में थे तो आरती भी उनके साथ थीं। यहीं से आरती ने भी अपना एम एस सी पूरा किया था। राजेश ने उन्हें भी पढ़ने के लिए खूब प्रोत्साहित किया था। इसी का परिणाम है कि आज आरती दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। अध्यापन कार्य में वे भी बहुत मेहनत करती हैं। इन दोनों का एक बेटा अरू है वह भी सौम्य और सुशील है।


         चाय पीने के बीच अचानक राजेश ने मुझसे कहा, जीजाजी, अभी हम आपको जेएनयू कैंपस दिखाएंगे। देखिएगा, क्या यह यूनिवर्सिटी बदनाम होने लायक है? इस बात में उनकी वेदना छिपी थी। इधर वर्षा भी शुरू हो चुकी थी। बेमौसम के इस बारिश में भी यहाँ का वातावरण सुहावना हो उठा था‌। चाय पीने के बाद मैं दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया था। चारो तरफ बिखरी हरियाली और पेड़ पौधों के पत्तों से होकर गिरती टपटप बूँदें! इस दृश्य और टपटपाहट की आवाज में मैं जैसे कुछ पल के लिए खो गया था। इस बीच राजेश भी मेरे साथ आकर खड़े हो गए थे।

        

         बारिश रुकी तो भोजन करने के बाद हम यूनिवर्सिटी कैंपस देखने निकले। जो लंबाई और चौड़ाई में लगभग तीन किलोमीटर में फैला है। अरावली पर्वत श्रृंखला की शुरुआत यहीं से है। विश्वविद्यालय का पूरा कैंपस इस पर्वत श्रृंखला पर ही अवस्थित है। यहाँ पत्थर की बड़ी-बड़ी चट्टानें और जंगल किसी हिल स्टेशन पर होने का आभास दे रहा था। दूर तक फैला एक घाटी जैसा स्थान दिखाकर राजेश ने बताया कि कभी यहाँ झील हुआ करती थी। मैंने देखा वहाँ आज घना जंगल है। यहाँ परिसर के जंगल में नीलगाय, सियार और साही जैसे जंतु भी शरण पाते हैं। नीलगाय और सियार को तो मैंने विचरण करते हुए देखा भी। इसी बीच इन वन्य जीवों के लिए खाद्य पदार्थ रखते हुए एक ऑटो वाला दिखाई पड़ा। पता चला कि कुछ प्राध्यापक ही यहाँ वन्य जीवों के लिए खाद्य पदार्थ रखने की व्यवस्था करते हैं। इन प्राध्यापकों में वे होते हैं जो पढ़ने-पढ़ाने के चक्कर में विवाह की उम्र निकल जाने से अविवाहित रह जाते हैं। कोई अन्य पारिवारिक जिम्मेदारी न होने से ये अपने अच्छे खासे वेतन से ऐसे लोकोपकारी कार्यों पर भी खर्च करते हैं।   


      कैंपस भ्रमण में मैंने अनुभव किया कि यहाँ के भौगोलिक पारिस्थितिकीय तंत्र से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। पेड़-पौधे और झाड़ियां तथा तमाम भू-आकृतियां सभी अपने प्राकृतिक मूल अवस्था में ही दिखाई पड़े। इससे पता चलता है कि विश्वविद्यालय के निर्माण में प्रकृति के साथ संवेदनशीलता बरती गई है। यहाँ तक कि भवनों के नीँव से सटे वृक्ष भी जस के तस अपने पुराने रूप में आज भी खड़े हैं। 

        

       राजेश ने मुझे भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान, पर्यावरण विज्ञान संस्थान, स्कूल आफ सोशल साइंसेज, स्कूल आफ इन्टरनेशनल स्टडीज जैसे अध्ययन केन्द्रों को भी दिखाया। जगह-जगह इनके दीवारों पर पोस्टर और श्लोगन लिखे दिखाई पड़े। डा बी आर अम्बेडकर सेंट्रल लाइब्रेरी में तो इस रविवार के दिन भी सैकड़ों की संख्या में छात्र अध्ययनरत मिले। विश्वविद्यालय के इस परिवेश में पढ़ने और न‌ई बातों को सीखने और इन पर बहस का जूनून हवा में तैरता जान पड़ा। मैंने अनुभव किया कि दीवारों पर लगे पोस्टर इसी जूनून का हिस्सा है। लेकिन मीडिया संस्थान और बाहरी तत्व इन पोस्टरों और नारों में रुचि लेकर विश्वविद्यालय को विवाद का हिस्सा बना देते है। यही बात विश्वविद्यालय के उस गार्ड से मैंने पूँछा था। जब बोगनबेलिया के खूबसूरत फूलों के मध्य गुजरते विश्वविद्यालय के एक रास्ते की तस्वीर मैं लेने लगा था। वह गार्ड मेरे पास आया और फोटो लेने का तरीका बताया जिससे तस्वीर सुंदर आए। तब मैंने उससे पूँछा था कि क्या आपको नहीं लगता कि इस विश्वविद्यालय को नाहक ही बदनाम किया जाता है? गार्ड को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी और किसी ने उससे ऐसा प्रश्न भी नहीं किया होगा। इसलिए उसने विस्मित होकर मुझे निहारा और फिर बोला था, हाँ यह तो है, बस बाहरी लोगों को यहाँ नहीं आने देना चाहिए, इन्हें (छात्र) आपस में ही निपटने देना चाहिए। गार्ड ने सच बोला था। इस मामले में मेरी भी राय यही है। उसके साथ मैंने एक सेल्फी भी ली। सेल्फी में मेरी मुस्कुराहट बनावटी नहीं स्वाभाविक थी‌।


        विचार से लड़ने के लिए विचार ही चहिए। विश्वविद्यालय में वैचारिक अभिव्यक्ति वाले पोस्टर की लड़ाई पोस्टर से ही लड़ी जानी चाहिए, और छात्र ही इसे लड़ सकते हैं। वैसे ये पोस्टर किसी वैचारिक क्रांति के अगुआ नहीं जान पड़े। मेरी समझ से नेता और मीडिया केवल अपने टीआरपी के लिए बीच में कूदकर वितंडावाद खड़ा करते हैं। मैं अभी इन बातों में खोया था कि फोन की घंटी भी बजी थी। फोन एक सहपाठी का था। मैंने उन्हें बताया कि जेएनयू कैंपस में हूँ तो राज्य के प्रति मेरी निष्ठा पर वे संदेह कर बैठे। उनकी बात पर मेरी हँसी छूट गई थी। मेरे मत में, बातों के पीछे इस तरह क्रोनोलॉजी खोजना निरर्थक है, और ये बातें हैं इन बातों का क्या! 


       यहाँ से चलकर विवेकानंद की मूर्ति भी देखी। जिसे नेहरू की मूर्ति के सामने कुछ दूर लगाया गया है। बहुत दिनों से नेहरू के मूर्ति की सफाई न होने से इसपर काई जमी थी। मुझे यह सोचकर अजीब लगा कि क्या किसी क्रोनोलॉजी के डर से इस मूर्ति की सफाई नहीं हुई है? मैंने नेहरू की मूर्ति के चबूतरे पर लगे पत्थर में खुदे अक्षरों को पढ़ा जिसमें इस विश्वविद्यालय के स्थापना के पीछे के उद्देश्य को व्यक्त किया गया है। 'एडवेंचर ऑफ आइडियाज' के लिए 'सर्च ऑफ ट्रुथ' शब्द पर मेरा ध्यान गया। इसे पढ़कर मैंने सोचा काश कि कोई एडवेंचर दिखाए और कम से कम मुँह अँधेरे ही नेहरू जी के मूर्ति की सफाई का नेक काम कर जाता! वैसे तो विचार शाश्वत होते हैं लेकिन समय के साथ इनके मूल्य बदलते रहते हैं और जो विचार उपयोग में नहीं होते उनपर इसी तरह काई जमती चली जाती है और धीरे-धीरे ये ओझल हो जाते हैं। हालांकि वैचारिक मूल्यों के उतार-चढ़ाव और क्रोनोलॉजी खोजे जाने के इस युग में, इससे बेपरवाह राष्ट्रीय ध्वज यहाँ निडरता से लहराता दिखाई दिया। 


      फिर मैं उस स्थान को देखकर मुस्कुरा उठा जहाँ तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग ने कभी नारा लगाया था। यहाँ खड़े होकर मैंने सोचा, राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आज भारत 1947 से ज्यादा मजबूत और एक है। 1947 के आगे-पीछे के वर्षों में हम आजादी के आदर्शवादी विचारों में ही खोए थे। इस कारण तब हमारे पास तर्क के अवसर भी कम होते। क्योंकि आदर्शवाद में एकरसता होती है और जिसमें बहस की गुंजाइश न के बराबर होती है अन्यथा उस समय "पाकिस्तान" के विचार पर व्यापक बहस होता और शायद यह विचार अस्तित्व में ही न आ आता। इसीलिए मेरा मानना है कि विचारों के विविध रंगों पर बहस भी होनी चाहिए। भारतीयता और भारतीय एकता का यही मूलाधार है। 


       यहाँ से राजेश मुझे अपने डिपार्टमेंट स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी में ले ग‌ए। छुट्टी के दिन भी एक शोधार्थी छात्र को लैब में काम करते देख मुझे आश्चर्य हुआ। राजेश ने बताया कि इसके पहले उनका एक छात्र शोधकार्य पूरा करके

अमेरिका जा चुका है। वैसे जहाँ तक मुझे पता चला है आजकल विश्व के कुल शोधकार्य में भारत के योगदान के प्रतिशत में वृद्धि हुई है।   


       अंत में मेरा मानना है कि अपने विशुद्ध रूप में प्रकृति कभी भी विभाजन को स्वीकार नहीं करती बल्कि समग्रता के साथ सह‌अस्तित्व में विश्वास करती है। भारत को प्रकृति ने बनाया है। और यहाँ विश्वविद्यालय के कैंपस में विचरण करते हुए मैं कह सकता हूँ कि विश्वविद्यालय के इस प्राकृतिक मनोरम परिवेश से कभी भी विभाजन के विचार नहीं निकल सकते।   

शनिवार, 14 जनवरी 2023

नेऊरा भ‌इया!

मै नोयडा में हूं। नोयडा, विकास के पैमाने पर विकसित है, यह पैमाना पश्चिम का है। मैं इस विकास को महसूसने का प्रयास कर रहा हूं। यहाँ सड़कें चमचमाती और गुलजार रहती हैं, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे इस विकासवादी ढांचे में एक अजीब सी उदासी भरी रुग्णता पसरी हुई है। मेरी निगाह अकसर सोसायटियों की ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों की ओर उठ जाती है। इन सड़कों से गाड़ियां इन्हीं सोसायटियों की ओर मुड़ती दिखाई पड़ती है और इनसे उतरते तमाम चेहरों से वह चमक गायब दिखाई देती है जिनसे वे सड़कें गुलजार दिखाई देती हैं। इन चेहरों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे जिजिविषा और उत्साह की जगह ये जीवन से उदास और इस जीवन को ढो रहे हों। न जाने क्यों मैं स्वयं को विकास के इस चौखाने में अनफिट पाता हूँ! रोज-रोज वही चीजें और वही बातें! वही विकास..विकास और विकास..! यह विकास मुझे जैसे मेरी आत्मा पर हमलावर प्रतीत होता है और मुझे बरबस गाँव की याद आती है! उसे याद करता हूँ याद करना चाहता हूँ और इन यादों को बाँटने का भी मन करता है। 


       गाँव में तालाब के किनारे का वह जामुन का पेड़ आज भी वहाँ खड़ा है! बचपन के दिन थे इस तालाब की जब गहराई बढ़ती तो न जाने क्यों मैं आनंद से भर उठता! इसकी गहराई में कूदता उछलता और फिर इसमें से निकलता! गहराई में जाना मेरे लिए किसी रहस्यबोध सा लगता! हाँ गाँव के कच्चे घर इसी तालाब की मिट्टी से सँवरते थे! उन दिनों इसी जामुन के पेड़ के तने से सटा हुआ इमली का एक विशाल वृक्ष भी हुआ करता था। बचपन में इसी इमली के पेड़ से झ‌ऊआ (सन‌ई के ढंठल से बनी एक बड़ी सी टोकरी) भर-भरकर पकी इमली उससे तोड़ी जाती थी‌। मैंने देखा था जामुन और इमली का वह वृक्ष आपस में मिलकर हवाओं के सहारे इस तरह झूमते थे, दोनों वृक्ष जुड़वां भाई हों। और हो भी क्यों न, इनकी जड़े और डालियाँ भी तो आपस में उलझी हुई थीं। ये दोनों वृक्ष आपस में उलझे हुए कितने प्रसन्न रहते थे, यह हरियर पत्तियों के बीच खोए इनकी डालियों की सघनता से पता चलता था! यही नहीं अपनी इस प्रसन्नता का इजहार ये मौसम में इमली और जामुन के फलों से लदकर करते थे!

       

        ये दोनों वृक्ष तालाब के एकदम किनारे पर थे। इनके जड़ो की मिट्टी तालाब के पानी से छीजते-छीजते बह सी गई थी। मिट्टी के छीजने से इन दोनों दोनों वृक्षों की कुछ मोटी जड़ें छत्ते की तरह उभर आई थीं। इन्हीं जड़ों पर मैं तालाब की गीली मिट्टी से घरौंदे और मंदिर बनाता और देवताओं की मूर्तियां बनाकर उसे चमकीली पन्नियों से सजाता था। स्कूल में छुट्टी रहने पर अकसर मैं इन पेड़ों के नीचे पहुंचकर अपने इस खेल में मगन हो जाता था। जैसे यह स्थान मेरा कोई रहस्यलोक होता!


         बचपन में इस स्थान से लगाव का एक दूसरा कारण भी था। वह यह कि, तालाब के किनारे के जामुन के इस पेड़ की जड़ों पर बैठे हुए मै उन दिनों पिता जी द्वारा सुनाई हुई बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती वाली कहानी को साकार होने की कल्पना करता। कहानी का वह बंदर जैसे इसी जामुन के पेड़ पर रहता हो और मगरमच्छ इस तालाब में। फिर एक लोक कथा, जिसे मेरी दादी बुआ ने सुनाया था, उस कहानी को भी मैं इसी जामुन के पेड़ से जोड लेता था। आज जामुन के इस पेड़ की क‌ई डालें गिर चुकी हैं, जैसे केवल तना ही शेष रह गया है। लेकिन उन दिनों इसकी लटकती डालियों को लग्गी से झुकाकर जामुन तोड़ लेते थे और जब नीचे की शाखाओं में ये न बचते तो ऊपर की डालियों पर पके जामुन देख मन ललचाता। फिर तो दादी बुआ से सुनी वही कहानी याद आती, जिसमें ऐसे ही पेड़़ पर पके जामुन देखकर एक लड़का ललचा उठता है और अपने नेवले भाई को याद कर बोलता है, "नेऊरा भ‌इया होत‌इ त‌अ जमुनिय‌इ खियउत‌इ।" वह नेवला भी, जो लड़के के पीछे चुपचाप चल रहा होता, तुरंत बोलता "भाइ-भाइ पिछव‌ई ह‌ई"।  फिर पेड़ पर चढ़कर नेवला पके जामुन तोड़ कर नीचे गिराने लगता। उस कहानी में नेवले और लड़के में भाई जैसा प्रेम है, क्योंकि लड़के के माता-पिता ने उस नेवले को पाला हुआ है। ये माता-पिता जब घर से बाहर जाते हैं तो दोनों से घर की रखवाली करने के लिए कहकर जाते हैं। इधर माता-पिता के जाते ही नेवले को घर की रखवालई सौंपकर लड़का भी घूमने निकल जाता है। लेकिन नेवला भी कहाँ मानने वाला था वह भी चुपके से लड़के के पीछे हो लेता है।

         

           अभी कुछ दिन पहले मैं गांव गया था। इमली का वह विशाल वृक्ष अब वहाँ नहीं है। और जामुन का पेड़ क‌ई वर्ष से वहाँ अकेला खड़ा है। इसी अकेले खड़े इस जामुन के पेड़ पर मेरी निगाह पड़ी थी। इस बार न जाने क्यों इसे देखते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह वृक्ष एक गहरी उदासी में डूबकर किसी बात पर शोक मना रहा है! इस शोक से मुझे इसकी चेतना के छीजने का भान हुआ! आखिर ये पेड़-पौधे इस चेतन संसार के ही तो अंग हैं, और चेतना जब छीजती है तो उदासी घेरती ही है! पार्क चाहे जितने भी खूबसूरत पेड़-पौधों से सजाए ग‌ए हों लेकिन किसी बच्चे में शायद ही वह नैसर्गिक अनुभूति जगा पाने में सक्षम हों जिसे मैंने बचपन में इन पेड़ों से पाया था।   

         यहाँ इस चमकते-दमकते शहर में रहते हुए मुझे यह एहसास सा हो रहा है कि आज जामुन के उस पेड़ के उदासी का एक कारण यह भी हो सकता है कि अब कोई बच्चा उसकी जड़ों पर बैठकर नहीं खेलता!  


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