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शनिवार, 4 मई 2024

सिंहोरा

      मुख्य सड़क से गाँव जाने वाली सड़क पर कार मुड़ी। पहले खेत शुरू हुए। इनमें लहलहाती गेहूँ की बालियाँ बस जैसे पकने को तैयार हों। बचपन में दादी के साथ इन खेतों में काम करते मजदूरों के लिए पानी चबैना लेकर आई हूँ। तब यह पक्की सड़क नहीं सूनसान खोरी हुआ करती थी। जिसके दोनों ओर सरपत खड़े होते। इसके बीच से गुजरते हुए मुझे भय लगता। बरसात के दिनों में इस खोरी में पानी इकट्ठा हो जाता तो किसान इसे दुबले से उलचकर धान की सिंचाई कर लेते थे। लेकिन आज खोरी और सरपत का नामोनिशान मिट चुका है बल्कि उसकी जगह बनी यह सड़क हमारे गाँव से आगे एक दूसरे गाँव को भी जोड़ती है। घर-घर मोटरसाइकिल और चारपहिया होने तथा स्कूली बच्चों की आवाजाही से सुबह-शाम यह सड़क गुलजार हो उठती है। अचानक ज़ेहन में कुछ यादें उभर आई। मैं मुस्कुरा उठी। मुझे मुस्कुराते पाकर कार चला रहे बेटे ने पूँछा, मम्मी तुम मुस्कुरा क्यों रही हो? मैंने कहा, कुछ नहीं, बस ऐसी ही कोई बात याद आ गई। उस धूलभरी खोरी में दादी के साथ चलते हुए मैं किसी बड़े आदमी के पैरों के निशान के ऊपर पैर रखती और उससे अपने पैर की तुलना करती या बैलगाड़ी के पहिए से बने लीक पर मैं पैर धरते चलती। अपने पैरों की छाप देखकर मुझे मजा आता। लेकिन मुझे कूदते-फाँदते चलते देख दादी डांटने लगती तो उन्हें मैं अपने पैरों के निशान दिखाने लगती। दादी मुझे नसीहत देती, बिटिया सीधे अपनी राह चलो, किसी की बनाई लीक पर नहीं चलते। इस बात के साथ कहीं पढ़ी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की यह कविता किलीक पर वे चलें/ जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं” याद आ गई थी इसीलिए मैं मुस्कुराई थी। यह दादी की ही सीख थी कि मैं जैसी हूँ वैसी ही बनी रही किसी की लीक पर नहीं चली। लेकिन यदि जमाने से पूँछो तो उत्तर मिलता है तुम वैसी नहीं तो ऐसी नहीं हो! यहाँ लोग स्वयं की राह पर चलने की नहीं, किसी न किसी की लीक पर चलने की ही सलाह देते हैं। इसीलिए तो मेरे ‘वो’ भी कभी-कभी मुझे ‘पगली’ कह बैठते हैं। इसपर मैं उनसे यही कहती हूँ, ‘हाँ जो अपनी राह चलते हैं उन्हें लोग पागल कह देते हैं।’ 

          खेतों की सीमा समाप्त हुई तो बाग शुरू हुए। मेरी आँखें चुरैलिया वाले बरा के उस विशाल वृक्ष को खोजने लगी, जो इस खोरी से गाँव की ओर जाते समय बाग से पहले पड़ता है। लेकिन उसे ठूँठ जैसी हालत में देख मैं चकरा ग‌ई। बाग के छोर पर खड़ा मेरे बचपन का विशाल बरा का वह वृक्ष पेड़ों के सरदार जैसा तब बाग की रखवाली करते हुए दिखाई देता। किसानों ने अपने खेत उसके तने के पास तक फैला लिए हैं। शायद इसकी दूर तक फैली शाखाओं को सहारा देने वाली जड़ें नष्ट हो गई होंगी या उन्हें जमीन से महरूम कर दिया गया होगा, फिर बिन सहारे के बरा की वे शाखाएं टूटकर गिर पड़ी होंगी। मेरे बचपन के बरा के उस पेड़ पर रहने वाली चुड़ैलिया का क्या हुआ अब वह कहाँ रहती होगी! शाम गहराने पर जिसके डर से बच्चे इस बरा के आसपास नहीं जाते थे! उन दिनों दादी भी हमें डराती, कहती, बरा के पेड़ के पास जाने वाले अकेले बच्चे को चुरैलिया पकड़ लेती है। लेकिन दिन-दोपहरी में चरवाहे हों या किसान उस बरा के नीचे बैठे सुस्ताते दिखाई पड़ते, और तो और, गर्मियों के दिनों में इसके नीचे पशुओं का भी जमावड़ा होता। यह देखकर मैं दादी से पूँछती, इन्हें चुड़ैलिया क्यों नहीं पकड़ती, तो वह कोई उत्तर न देकर केवल मुस्कुरा देती।

       और यह बाग जिसके बीच से मैं गुजर रही हूँ तब कितना डेंस था! आम और महुआ के वे दरख्त नहीं रह ग‌ए, जिनके इर्द-गिर्द हम-उम्र सहेलियों के साथ मैं खेला करती। वही बाग अब खंडहर सा उजाड़ दिखाई दिया। लेकिन मेरी बचपन की यादों को सँजोए भीटे वाला तालाब और वहां बना शिवाला दूर से अभी भी वैसे ही दिखाई दिया जैसे मेरे बचपन में था। तीज पर गाँव की महिलाएं यहाँ ऐसे जुटती जैसे कोई मेला लगा हो! लेकिन सुनती हूँ कि तीज-त्यौहारों पर अब महिलाओं का यहाँ वैसा जमावड़ा नहीं होता।

        बेटे ने कार में ब्रेक लगाया तो देखा, हम गाँव की गली में थे। ये दुल्ली काका थे। साइकिल के कैरियर पर हरा चारा बाँधकर खेत से लौट रहे हैं। कार के सामने आ ग‌ए थे। किनारे हुए तो बेटे ने उनके बगल से धीरे-धीरे कार निकाला। कितने बूढ़े हो ग‌ए हैं कक्कू! मुझे नहीं देखा, नहीं तो मेरा हालचाल जरूर पूँछते। गाँव की यह गली सँकरी थी। मैंने बेटे को सावधानी से कार चलाने के लिए कहा। गाँव भी कितना बदल गया है, अब कच्चे घर नहीं रह ग‌ए, छोटे-बड़े सभी घर पक्के हो चुके हैं। 

        एक मोड़ आया। जैसे घर की गौरैया घर के आँगन के प्रत्येक कोने से परिचित होती है वैसे ही मैं इस मोड़ से परिचित थी। नजर घुमाई। मेरा हृदय धक से रह गया। यह सिंहोरा थी। मेरी बचपन की सहेली‌। दीन-हीन सी मैली-कुचैली साड़ी में लिपटी अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी! वह मुझे ही देख रही थी। उसके चेहरे का निर्विकार भाव सुख-दुख से विरक्ति वाला नहीं, बल्कि बेबसी का था। वैसे ही जैसे किसी मजबूत बाँध के पीछे कोई उफनाई नदी आकर ठहर जाए! मैं विस्फारित आँखों से उसे देखने लगी। हम दोनों एक दूसरे को तब तक देखती रही जब तक कार मुड़कर आगे नहीं निकल आई। मन में आया, गाड़ी रुकवाकर बचपन की इस सहेली से मिल लूँ, लेकिन बेटे से कार रोकने के लिए नहीं कह सकी। सिंहोरा से मैं कब मिली थी, याद नहीं। यह तो सुना था कि वह विधवा हो गई है और उसे कोई बच्चा नहीं है। विवाह के कुछ बरस बाद एक बेटा हुआ था उसे, लेकिन सौर में ही उसके नवजात की मौत हो गई थी। उस बच्चे को जन्मते ही ठंडे पानी से नहला दिया गया जिससे उसे निमोनिया हो गया था। इसके आठ-दस साल बाद बीमारी से उसके पति की मृत्यु हुई। बेचारी सिंहोरा आज कैसी हालत में है!

         ..अरे! इस मोटर में फूटो बैठी है? हाँ फुटेरा ही तो है! बहुत साल हो गए थे इसे देखे..गौना था जब फुटोरा से मिलने ग‌ई थी। सुना था, बाद में इस फूटो का आदमी अफसर हो गया था। और जो मोटर चला रहा है…वह फुटेरा का बेटा होगा…यदि उसका भी बेटा जिया होता तो ऐसे ही होता…

         सिंहोरा के हृदय में एक टीस सी उठी और उसकी आँखें डबडबा आईं। 

        “सिंहोरिया…हे सिंहोरिया..कहाँ मर गई रे..” यह बिब्बो की आवाज थी। चिल्लाती काहे हो..आती हूँ, बोलकर सिंहोरा ने अपनी डबडबाई आँखों को अपने मैले-कुचैले आँचल से पोंछ लिया। वह मुड़ी तो सामने माँ बिब्बो थी जो पचहत्तर साल के वय से ऊपर थी। बिब्बो फिर बोली थी, चिल्लाऊँ न तो क्या पूजा करूँ…तेरा भाई आता होगा उसके लिए कुछ बना दे, नहीं तो चार गारी देगा तुझे। सिंहोरा कुछ न बोली, घर के अंदर चली गई। 

       भाई तो भाई, बिब्बो भी न जाने क्यों हर वक्त उससे चिढ़ी रहती है, बात-बात पर उसे झिड़कना-दुत्कारना जैसे उसकी आदत बन गई है..यही बिब्बो पहले उसकी खूब मया करती, यहाँ तक कि विवाह के बाद ससुराल में उसे ज्यादा दिन न रहने देती। महीना-दो-महीना बीता नहीं कि बुला लेती। विवाहित होने के बावजूद घूम-फिरकर उसका समय मायके में ही बीतता। 

       सिंहोरा अपनी माँ को ‘बिब्बो’ ही बोलती है। बुआ माँ को ‘भाबो’ कहती थी,  यह ‘भाबो’ उसकी जुबान में ‘बिब्बो’ हो गया। धीरे-धीरे पूरा गाँव उसकी माँ को ‘बिब्बो’ के नाम से जानने लगा। उसके नाम ‘सिंहोरा’  के पीछे भी एक कहानी है। साधारण नैन-नक्श वाली सिंहोरा अपने छुटपन में गोल-मटोल हुआ करती थी। बिब्बो के पास एक खूबसूरत सिंदूरदानी थी। जिसे वह जतन से बक्से में छिपा कर रखती। माँ प्यार से कहती, तू मेरी सिंदूरदानी जैसी सुंदर गोल-मटोल सिंहोरा है और उसे ‘सिंहोरा’ कहकर बुलाती।

         सुबह-शाम दोनों टैम की रसोईं की जिम्मेदारी उसी की है‌। माँ की झिड़की खाकर वह रसोईं में आ ग‌ई थी। उसकी आँखें फिर भर आई। जीवन के पन्ने पर हँसने और रोने में अन्योन्याश्रित संबंध लिखा होता है! जो हँस सकता है वही रो भी सकता है। लेकिन इसी पन्ने पर सिंहोरा के लिए जैसे हँसना लिखा ही नहीं था, इसीलिए उसे कभी ठीक से रोना भी नहीं आया‌। वह जी रही या जीयाई जा रही, उसे नहीं पता। पति को मरे एक माह भी नहीं हुए थे कि बिब्बो ने उसे ससुराल से बुला लिया था। तब बिब्बो बहुत दुखी दिखाई देती! यहाँ तक कि खाना-पीना तक भूल ग‌ई थी वह। विधवा के रूप में उसे देख जब-तब वह रो भी पड़ती। तब चुपचाप वह बिब्बो को निहारती। धीरे-धीरे बिब्बो का यह रोना-धोना बंद हो गया था। कुछ महीने बाद जब देवर उसे लेने आया तो बिब्बो ने उसको यह कहकर लौटा दिया था कि दुख भूलने के लिए सिंहोरा अभी नैहर में ही रहेगी। 

      उसने याद किया। इसके साल भर बाद उसकी देवरानी आई थी, साथ में वह देवर भी था। उसे ससुराल लिवा जाने के लिए देवरानी ने बिब्बो से खूब मिन्नतें की थी। “अम्मा जिज्जी हमारी बड़ी हैं वे घर की मालकिन बनकर रहेंगी.. इन्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने देंगे हम लोग..इन्हें जाने दें..।” लेकिन तब बिब्बो को उसकी कितनी फ़िक्र करती थी! तभी तो देवरानी से उसने कहा था, “यह सिंहोरा के मान-अपमान का सवाल है..देखो, जब पति ही नहीं रहा तो ससुराल जाकर वह क्या करेगी.. अब उसका वहां कौन है जो उसके मान की परवाह करेगा? वहाँ जाकर उसे अपमान नहीं सहना..यहाँ वह न‌इहर में अपने माँ-बाप-भाई के घर रहेगी तो कम से कम इज्जत से तो जियेगी!”  

       “नहीं अम्मा..उनका घर तो ससुराल ही है..आखिर जिज्जी हमारी भी तो कुछ हैं...और ये..ये भी तो यही कहते हैं कि माँ नहीं है तो क्या हुआ, भाभी तो हैं! अम्मा ये जिज्जी को माँ की ही तरह इज्जत देंगे..” देवर की ओर इशारा कर उसकी देवरानी ने जैसे गिड़गिड़ाते हुए कहा था। फिर बिब्बो को मनाने के लिए उसके पैर भी पकड़े थे। उस दिन वह इसी बिब्बो के पीछे खड़ी एक हाथ से आँचल मुँह में ठूँसे चुपचाप यह सब देख रही थी। फिर देवरानी ने रोते हुए उसके भी तो पैर पकड़ लिए थे, उससे कह रही थी, जिज्जी, अम्मा को तुमही समझाओ..क्या वह आपका घर नहीं और हम लोग आपके कुछ नहीं..बोलो जिज्जी..कुछ बोलती क्यों नहीं…” लेकिन काठ की बनी वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी।  

        कैसे फूटते उसके मुँह से बोल? बिब्बो आदर्श मां जो थी, बचपन से ही उसे सिखाती आई थी, यह न करो वह न करो, ऐसे नहीं वैसे करो। एक-एक कहा माना था उसने बिब्बो का। कंडा सीला था लकड़ी भी नहीं जल रही थी। फुंकनी काम नहीं आ रही। धुएं की घुटन से निकल कुछ पल के लिए खुली हवा में साँस लेने का उसका मन हुआ। लेकिन बिब्बो देखेगी तो दस बात बोलेगी और भाई भी चिल्लाएगा। वैसे भी जब जीवन ही धुँआसे में डूब जाए तो क्या खुली हवा और क्या बंद! वह चूल्हे में पड़ा कंडा फिर सुलगाने लगी। यह बिब्बो ही थी जो उसकी देवरानी से उस दिन यह भी कह रही थी कि हमारी बेटी किसी दूसरे की सेवा-टहल करने नहीं जाएगी। लेकिन एक नौकरानी से भी बदतर आज की उसकी यह हालत उसे नहीं दिखाई देती। घर में गैस चूल्हा है, पहले उसके विधवा पेंशन से सिलेंडर भराया जाता लेकिन अब वह भी खाली पड़ा रहता है। रसोईं में चूल्हे से उठते धुँएं के बीच वह उस वक्त को कोस रही थी जब एक बार फिर बिब्बो के सामने वह मूक बनी रही। इस बार ससुराल के रिश्ते से मिला उसका अधिकार बेंचा गया था। आठ लाख रुप‌ए में सब बिक गया। बिब्बो ने यह पैसा उसके बैंक खाते में जमा कराया था। 

       अचानक एक दिन भाई का व्यवहार बदल गया था। ‘बहिनो-बहिनो’ कहते न थकने वाला भाई उस दिन अनायास ही उससे झगड़ पड़ा था। उसके कटु शब्दों से सहम गई थी वह। बिब्बो ने इसे ऐसे अनदेखा कर दिया था जैसे वह भी बदल गई हो! भाई को मोटरसाइकिल का शौक पूरा करना था। इसके लिए उसे पचास हजार रुपए चाहिए था। पैसा निकालने वह बैंक नहीं जाना चाहती थी। उसके टालमटोल से भाई चिढ़ गया था। बिब्बो भी भाई की तरफदारी कर रही थी। अंततः मजबूर होकर उसे बैंक जाना पड़ा‌। 

        भाई की नजर अब जैसे उसके पैसों पर ही गड़ी थी। आए दिन वह कोई न कोई फरमाइश करता। बिब्बो भी उसके ही पक्ष में बोलती। वह यह भी फ़िक्र न करती कि सिंहोरा का जीवन लंबा है ये पैसे हारे-गाढ़े उसके काम आएंगे। जबकि यही कहकर तो उसने ससुराल में उसके हिस्से की जमीन बिकवायी थी। आखिर एक दिन बिब्बो की ही शह से भाई ने किसी कागज पर उसका अँगूंठा लगवाया और बैंक से एटीएम कार्ड लाकर उसे दे दिया था। अब वह बैंक चलने के लिए उसकी चिरौरी भी न करता। बस यह कार्ड मांग लेता। कभी वह विरोध करती भी तो बिब्बो यही कहती कि सिंहोरा तेरे आगे-पीछे कोई नहीं है मेरे बाद तेरे भाई ही तेरी सेवा-सहाय करेंगे..भाइयों को नाराज करना ठीक नहीं। यह बिब्बो की सलाह थी या चेतावनी, इसे न समझ पाने पर वह चुप रह जाती। पता नहीं क्या हो गया है बिब्बो को? क्यों बदल गई है वह? इन बातों को सोचकर सिंहोरा तड़प उठी!!

      केवल हाड़-मांस की नहीं बनी वह, सब समझती है! उसके खाते में पैसा जमा होते ही भाई ने बिब्बो का खूब ख़्याल करने लगा था। इधर भाभी भी बिब्बो की तीमारदारी में जुट गई थी। दोनों बिब्बो की मया करने का खूब दिखावा करते और बिब्बो के मन में उसके प्रति द्वेष बढ़ाने के लिए उसके सामने घर के कामों में उसकी खूब कमियाँ निकालते। बिब्बो भी इसे चुपचाप सुनती। धीरे-धीरे बिब्बो उससे चिढ़ी सी रहने लगी थी! तभी तो इस विधवा बेटी से ज्यादा अब उसे अपने बेरोजगार बेटे की चिंता सताने लगी है, नहीं तो उससे एटीएम कार्ड मांगकर वह भाई को न देती! अपनी विवशता और असहायता को समझ यह जानने की अब उसकी इच्छा भी नहीं होती कि खाते में उसके कोई पैसा बचा भी है या नहीं। लेकिन बिब्बो तो उसकी भी माँ है वह ऐसे बदल जाएगी! यह सोचकर उसकी आँखें छलछला आई।

     किस मुँह से अब वह देवर-देवरानी से नाता जोड़े, चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती। चूल्हे में आग भभक उठी, इसके ताप में उसके गाल पर ढुलक आए आँसू लकीर बनकर सूख गए। तवे पर चढ़ी रोटी जलने न पाए उसे अंगुलियों से ही वह पलटने लगी। जबकि उसके बगल में चिमटा अभी भी अनछुआ पड़ा था।  

         मेरे मायके का घर नदी के किनारे गाँव के छोर पर है। बेटे ने कार उसी ओर मोड़ लिया था। लेकिन मुझे मेरे बचपन की सिंहोरा याद आ रही थी। वैसे तो मेरा नाम श्यामला है लेकिन बचपन में सिंहोरा मुझे फूटो या फुटोरा ही बुलाती थी। ककड़ी की एक प्रजाति फूट है वह कहती तेरा नाम इसी फूट पर पड़ा है। बचपन में हम दोनों मक‌ई के खेतों में फूट ढूंढ़ती फिरती, कोई फूट मिलता तो वह मुझे चिढ़ाती, देख फुटोरा फूट.. मैं भी यह सुनकर पहले चिढ़ने का नाटक करती फिर दोनों मिलकर हँस पड़ती।     

       मुझे याद है, हम बच्चियां बाग में साथ मिलकर खेलती। किसी दरख़्त का कोटर हमारे गुड्डे-गुड़ियों का घर बनता। लेकिन सिंहोरा की दिलचस्पी इस खेल में न होती। उसे चिबिद्दी खेलना पसंद था। मेरा मनुहार कर वह मुझे अपने साथ इस खेल में शामिल कर लेती। मैं भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल छोड़ उसके साथ चिबिद्दी खेलने लगती। हम जमीन पर लाईनें खींचकर आठ-नौ आयताकार खाने बनाती। जिसे घर कहतीं। इस घर में खपरैले की एक छोटी चिप्पी फेंककर लंगड़ी टांग से चलकर इसे उठाती। एक घर खाली छोड़ती जिसे लंगड़ी टांग से कूदकर पार करती। सिंहोरा की फेंकी चिप्पी खाने में ही जाकर गिरती‌‌ या उसकी पहुँच में होती और बिना डगमगाए वह चिप्पी उठा लेती‌। इस खेल में संतुलन साध लेने में वह पारंगत थी। कहते हैं जीवन भी एक खेल है, जिसमें संतुलन और नियंत्रण की जरूरत है। लेकिन बेचारी सिंहोरा की भाग्य रेखा में उसकी इस कला के उपयोग की इबारत ही नहीं लिखी थी। लेकिन भाग्य रेखा की कौन कहे वह बेचारी तो किसी पन्ने की इबारत भी नहीं पढ़ सकती थी। बिब्बो भी कहती लड़कियां पढ़-लिखकर चौका-बेलना ही तो करती हैं और हमारी सिंहोरा इसमें होशियार है, घर के सारे काम वह जिम्मेदारी से कर लेती है। शायद यही बात थी कि बिब्बो ने उसे कभी स्कूल जाने के लिए नहीं कहा। 

      लेकिन अनपढ़ होकर भी सिंहोरा गहरे एहसास  वाली थी! वैसे थी तो वह सीधी-सपाट, लेकिन किसी से दबना नहीं जानती थी वह। कोई उस पर हावी हो जाए यह भी उसे पसंद नहीं था! मुझे आज भी याद है एक दिन हम बच्चियाँ पति-पत्नी बनकर नाटक कर रही थी। मैं पति बनी थी और वह पत्नी। मुझे उसपर गुस्सा होना था। लेकिन जैसे ही मैं बनावटी क्रोध कर उस पर चिल्लाई पैर पटकती वह उस खांचे से बाहर आ ग‌ई थी जिसे हमने कोठरी का नाम दिया था। एकदम से वह बोल पड़ी थी,  

       “नहीं खेलना मुझे यह खेल..।” 

      मैं कुछ समझती तब तक वह अपने घर की ओर चल पड़ी थी। वह नाराज है, भान होते ही मैं उसके पीछे भागी थी। और यह बोलते हुए कि “सिंहोरा खेल छोड़कर क्यों जा रही हो? यह सच्ची का डांटना नहीं, खेल है, खेल में क्यों गुस्सा होना? ऐसे में तो खेल बिगड़ जाता है, यह खेल तो हमें ऐसे ही तो खेलना था” मैं दौड़कर उसके आगे जाकर खड़ी हो गई थी‌ और उसके कंधे पकड़कर उसे रोका था। उससे लौटने की खूब मिन्नतें की लेकिन उसकी एक ही रट थी, “नहीं फूटो नहीं.. मुझे नहीं खेलना यह खेल।” मुझे याद है उसके चेहरे पर उस समय न गुस्से वाला भाव था और न ही नाराजगी का। फिर यह सोचकर कि यह खेल उसे पसंद नहीं, मैंने उससे चलकर चिबिद्दी खेलने के लिए कहा था। लेकिन उसने अपने कंधों से मेरे हाथ झटक दिए थे, फिर मैं रुआंसी होकर कान पकड़कर उससे बोली थी, “देख सिंहोरा मैं कान पकड़ती हूँ! सच्ची में तुझे नहीं डाटी थी..मैं भी अब यह खेल नहीं खेलुँगी..तू लौट चल।” लेकिन इस पर भी वह नहीं मानी थी और घर चली गई। फिर कभी वह उस बाग में खेलने आई हो, मुझे याद नहीं।

          सिंहोरा के अन्तर्मन से जैसे मेरे मन का जुड़ाव था तभी तो उसके बिना बाग में खेलना मुझे अच्छा न लगता। वहाँ जाने पर मुझे उदासी घेर लेती। उसे बुलाने उसके घर पहुँच जाती। लेकिन कभी वह रसोईं में तो कभी सिर पर गोबर की टोकरी उठाए घूरे की ओर जाती मिलती और कभी तो भाइयों के साथ खेत में काम कर रही होती। मुझे देखते ही बिब्बो समझ जाती कि मैं सिंहोरा को बुलाने आई हूँ। फिर वह मुझे झिड़कती, तुम्हारी तरह मेरी बेटी नहीं कि दिन भर बस खेलना ही खेलना! मेरी बेटी तो शऊरदार है घर के काम कर रही है..भागो यहां से। बिब्बो मुझे तब बहुत घमंडी लगती। लेकिन सिंहोरा जब कभी रसोईं में रोटी सेंकती मिल जाती तो बिब्बो से नजरें बचाकर मैं रसोईं की पटनी के सहारे खड़ी होकर उससे बतिया लेती। पूँछती, 

       “सिंहोरा, तू खेलने क्यों नहीं चलती?”

      पहले तो वह चुप रहती फिर कुरेदने पर ठेपवा की तरह सयानी बनकर बोलती, “देख फूटो, तू नहीं समझेगी..मुझे घर पर बहुत काम है” फिर वह घर के काम गिनाने लगती। उसकी बातों से लगता जैसे बिब्बो ने ही उसे यह सब सिखाया पढ़ाया है और उसके ही डर से वह खेलने नहीं जाती। 

     धीरे-धीरे अब मैंने भी उस बाग में जाना छोड़ दिया था‌। लेकिन सिंहोरा से मिलने का कोई न कोई बहाना जरूर ढूँढ़ती। उन दिनों गाँव में केवल सिंहोरा के घर ही टीवी था। उसके घर पर लोग ‘रामायण’ देखने इकट्ठा होते‌। मैं भी जाती। वहां सिंहोरा शांत और अलग-थलग सी दिखाई पड़ती। जैसे किसी से घुलना-मिलना उसे अच्छा न लगता हो। मेरे बचपन वाली यह सिंहोरा इस तरह बेजान और असहाय दिखाई पड़ेगी मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

             अचानक “मम्मी अब उतरो भी” सुनकर मैं चौंक पड़ी। बेटे ने कार रोकते हुए बोला था। कार से मैं उतरी। बुआ आयी, बुआ आयी कहकर भतीजे, भतीजियां दौड़ पड़े थे। किसी ने बैग उठाया तो किसी ने झोला‌। उनकी खुशी इस बात में थी कि बुआ आयी है तो मिठाई जरूर लाई होगी। मैं घर में चली गई। 

        दिन ढलने को हो आया था। सिंहोरा को लेकर मैं अनमनी थी, सोच रही थी अगले दिन लौटना है तो सिंहोरा से मिलती चलूँ लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रही थी उससे मिलने की! आज देखी उसकी विरूपता को अब फिर दुबारा नहीं देखना चाहती थी। 

        घर के बाहर पेड़ो के बीच पड़े तखत पर आकर मैं बैठ गई। मार्च बीतने को है इन वृक्षों की सिंदूरी कोंपलें धीरे-धीरे हरी हो रहीं हैं। नजर घुमायी तो घर के बगल रास्ते से थोड़ी दूर बहने वाली नदी के दूसरे किनारे पर ध्यान गया‌। वहाँ नदी के करार पर खड़े बड़े-बड़े पेड़ों के पीछे सिंदूरी होते गोल सूरज अपनी दिनभर की थकान मिटाने क्षितिजगामी दिखाई दिए। शहरी जीवन से दूर इस दृश्य में मैं खोई थी कि उस रास्ते से गुजरते ब‌ऊआ ने मुझे देख लिया। सोलह-सतरह साल का यह लड़का गाँव के रिश्ते से भतीजा लगता है। वह मेरे पास आया और पांव छूकर बोला “फुआ पाँव लागी।” आशिर्वाद देते हुए उसे मैंने अपने पास तखत पर बैठा लिया। इधर-उधर गाँव का हाल-चाल पूँछने लगी थी। फिर अचानक से मैंने सिंहोरा के बारे में उससे पूँछ लिया। ब‌ऊआ ने छूटते ही कहा, 

        “अरे फुआ कुछ मत पूँछ...वह बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है..बताने लगूं तो उसकी एक-एक बात कहानी बन जाए…इससे अच्छा था कि अपने ससुराल ही चली गई होती वह…” 

      ब‌ऊआ ने एक सांस में कह दिया। सोलह-सतरह साल के बच्चे के अंतस में सिंहोरा के लिए करुणा की भावना से उपजी पीड़ा थी। उसके अंतस की इस अनुभूति को समझ मैं उसका मुंह ताकने लगी। सोच रही थी, किसी इंसान में प्रेम या ममत्व जैसी भावना होना उतनी बड़ी बात नहीं जितनी बड़ी बात इंसान का कारुणिक होना! बचपन वाली सिंहोरा की बिब्बो खूब मया करती। लेकिन उस बेटी का जब कोई भविष्य न रहा तो वह अपने बेरोजगार बेटे के भविष्य की चिन्ता में पड़ ग‌ई। उसकी यह चिंता बेटी से उसके प्रेम पर भारी पड़ा। बेटी के दुख से अब वह द्रवित नहीं होती। क्योंकि बिब्बो जैसी स्त्रियां प्रेम और ममत्व जैसे भाव उन्हीं के लिए उड़ेलती हैं जिन्हें वे अपने लिए सुपात्र समझती हैं। उनके अंदर की करुणा भी केवल उन्हीं के लिए उमड़ती है। बाकी के लिए ये क्रूर और संवेदनाविहीन बनी रहती हैं। बिब्बो भी कुछ ऐसी ही एक स्त्री थी। लेकिन क्या पता सिंहोरा ससुराल जाती तो वहाँ भी उसकी ऐसी ही हालत होती। मैं जानती हूँ, अधिकार लेने के पीछे जब लालच का भाव हो तो ऐसी ही परिस्थितियां बनती हैं! वैसे तो सिंहोरा इस बात में निर्दोष ही थी लेकिन इन परिस्थितियों में किसी की निर्दोषिता भी उसके अपने पक्ष में वातावरण सृजित नहीं कर पाती और तब यह बात सच हो उठती है कि दुःख उन्हीं के हिस्से में आता है जो निर्दोष होते हैं!

       “अच्छा फुआ मैं चलता हूँ..” मेरी लंबी चुप्पी देख तखत से उठते हुए ब‌उआ ने मेरे पाँव छूकर कहा। ब‌उआ चला गया था। 

       सूरज धरती की आड़ में समाने जा रहे थे। इधर वातावरण के रंग में भी साँझ की कालिख घुलने लगी थी। यकबयक मेरे कदम सिंहोरा के घर की ओर बढ़ ग‌ए। इन कदमों को उधर जाने से मैं रोक नहीं पाई। उसके घर के सामने सन्नाटा पसरा था। दरवाजे पर कम रोशनी का एक छोटा बल्ब टिमटिमा रहा था। रात घनेरी होने पर यह छोटा बल्ब इस दरवाजे से कितना अँधेरा काट पाता होगा? बल्ब को देखकर मैं सोच रही थी। मुझे घर के अंदर जाने में संकोच हुआ। दरवाजे पर ही खड़ी-खड़ी मैं आहट लेने लगी थी‌। वहां छाए सन्नाटे को टूटता न देख मैं मद्धिम आवाज में पुकार बैठी, सिंहोरा….!!!

       फिर कुछ पल बाद दरवाजे से सटी कोठरी से किसी के पदचाप की आवाज आई। उस अँधेरी कोठरी से एक आकृति निकली, जो धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर लगे बल्ब की रोशनी में आकर खड़ी हो गई! मेरे सामने यह सिंहोरा ही थी!! उसके क्लांत और मलिन चेहरे को देखकर मेरे हृदय में फिर एक हूक उठी! सोचा, आगे बढ़कर इसे अँकवार में भर लूँ। लेकिन उसे निश्चल और भावहीन देख मैं ठहर गई! केवल इतना ही पूँछ सकी मैं, ‘मुझे पहचानी नहीं सिंहोरा..?’  

     “फूटो…!” यह आवाज मूर्तिवत खड़ी सिंहोरा की ही थी..हाँ पहचाना था मुझे!! मेरी दृष्टि उसके चेहरे पर स्थिर हो गई। उसके चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि बचपन में उसके अन्तर्मन के जिन गहरे एहसासों का मैंने अनुभव किया था उसकी वह संवेदनशीलता ही आज उसे प्राणांतक कष्ट का अनुभव करा रही है! मुझे ब‌ऊआ का कहा याद आया कि ‘बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है‌।” एकदम सच कहा था ब‌उआ ने। सामने खड़ी सिंहोरा को देखकर मुझे भी लगा जैसे इस घर में अब उसके जीवन से प्रेम करने वाला कोई नहीं रह गया है उसकी माँ बिब्बो भी नहीं!!

         “फूटो…तू..अब जा…बिब्बो..तुझे..यहाँ देख लेगी..तो..मुझसे झगड़ा..करेगी..भाई..भी” सिंहोरा की कांपती इस मार्मिक आवाज पर मैंने उसकी आँखों में झाँका! वहाँ अथाह समुंदर की लहरें थी!! वेगवती ये लहरें जैसे मेरी ही ओर बढ़ी आ रही थी। एक पल के लिए मैं स्वयं को सिंहोरा समझ बैठी! मुझे सारे दुनियावी रिश्ते-नाते इन लहरों में डूबते-उतराते दिखाई दिए! सहम ग‌ई थी मैं!! लेकिन इन पलों में ही जैसे हम दोनों ने एक-दूसरे से सब कुछ कह-सुन लिया था। मैं अनबोली उल्टे पाँव वहाँ से लौट पड़ी। 

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गुरुवार, 2 मई 2024

चिल रहिए यार...साँच को आँच कहाँ..

            प्लेटफार्म पर पहुंचते ही ट्रेन भी आ गई। मेरा रिज़र्वेशन फर्स्ट एसी में था। यह बोगी इंजन के पास लगी थी। बिहार जाने वाली ट्रेनों में खूब भीड़ होती है, इसीलिए प्लेटफार्म पर भी भीड़ थी। ट्रेन में चढ़ने की जद्दोजहद में पड़ी इस भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए मैं अपने डिब्बे तक पहुँचा। इसमें दाखिल हुआ और एसी जोन का डोर खोलकर आगे बढ़ा। सामने दूसरा डोर देख मैं थोड़ा ठिठका। संयोग से वहां एक टीटी साहब मिल ग‌ए, पूँछने पर ‘उधर सेकेंड एसी है’ कहकर पीछे केबिन में जाने का इशारा किया। दरअसल यह बोगी सेकेंड एसी की थी, जिसमें फर्स्ट एसी के भी दो केबिन थे। स्लाइडर-दरवाजा खिसकाकर मैं केबिन में दाखिल हुआ। ऊपर का बर्थ मेरा था। इससे जुड़ा एक सीढ़ीनुमा ढांचा वाकई में ऊपरवाले बर्थ के लिए सीढ़ी है, यह समझने में मुझे कुछ पल लगे। बर्थ पर चादर का लिफाफा न देख नीचे निहारा‌। नीचे की एक बर्थ पर कोई व्यक्ति सोने की मुद्रा में था तो दूसरे पर एक लड़की अपने मोबाइल में खोई थी। उसे यह भान हुआ कि मैं अपना बिछौना खोज रहा हूं, लेकिन उसकी कोई प्रतिक्रिया न पाकर मैं ऊपर बर्थ पर चढ़ गया।

       ट्रेन के फर्स्ट एसी और सेकेंड एसी के बीच केवल ‘सीढ़ी’ और ‘प्राइवेसी’ का अंतर है। फिर भी अपने बर्थ पर आकर मुझे श्रेष्ठता-बोध हुआ कि हमसे नीचे की जो भी श्रेणी है उसमें सफर करने वाला मेरे से कमतर है। ट्रेन ही नहीं, किसी भी व्यवस्था में यह श्रेणीकरण बहुत जरूरी है अन्यथा बेचारा यह श्रेष्ठता का बोध जीते जी मर जाए‌! पता नहीं मनुष्य स्वयं को क्यों सामाजिक प्राणी कहता है जबकि पद-पैसा-अहंकार के कॉकटेल से अर्जित ‘श्रेष्ठता-बोध’ में वह ‘प्राइवेसी’ को ‘सुविधा’ की तरह चाहने लगता है।

        अचानक “अंकल लीजिए…” सुनकर मैं चौंक पड़ा जैसे सोते से जागा। यह वही नीचे बर्थ वाली लड़की थी जो मुझे एक पैकेट दे रही थी जिसमें बिछौना था। “तो लड़की कांशस थी” सोचते हुए मैंने उससे पैकेट ले लिया। उसका यह संवेदनशील व्यवहार मुझे अच्छा लगा।

        बर्थ पर अब मैंने चादर बिछाया। ट्रेन गाजियाबाद स्टेशन छोड़ चुकी थी। मैं यहीं से ट्रेन में सवार हुआ था।

        “कल ही मुझे स्कूल ज्वाइन करना है,  नहीं तो इसके बाद दो दिन की छुट्टी रहेगी..” उसी लड़की की आवाज थी‌। वह मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी।

       दूसरों के बीच में हो रही बातचीत नहीं सुनना चाहिए, लेकिन ऐसी बात निहितार्थ से जब अपनी बात लगे तो सुनने में रुचि होना स्वाभाविक है। मैंने उसकी बातचीत पर कान लगा दिया, 

       “दो कमरे का फ्लैट है, मेरा उसमें जैसे दम घुटता है। मैं बहुत दिनों तक तो दूसरे कमरे तक भी नहीं जाती थी..अब दूसरे कमरे में भी जाने लगी हूं…मैं तो लखनऊ में बड़े घर में रहती आई हूँ। वहां तो छत पर धूप लेने की मेरी आदत है। लेकिन नोएडा की इस सोसायटी में यह संभव ही नहीं। वहां तो कभी धूप मिलती ही नहीं। और सोसायटी में फ्लैट से बाहर निकल कर लोगों के साथ बैठने की भी मेरी आदत नहीं..नोएडा बकवास जगह हम वहां नहीं रहना चाहते।”

       नोएडा में सोसायटी कल्चर पर मैं भी यही सोचता हूं।

       लड़की लखनऊ के किसी सरकारी स्कूल में टीचर है उसके विवाह के तीन माह हुए हैं और उसकी ससुराल नोएडा में है। वहां दो कमरे के फ्लैट में वह संयुक्त परिवार के साथ रहती है। उसका पति दिल्ली में भारत सरकार के किसी मंत्रालय में नौकरी करता है। लड़की को खाना बनाना नहीं आता। इसके लिए उसकी सास टोकती है। ससुराल में वह डरी-सहमी रहती है। लेकिन वह सास की शिकायत नहीं करती। उस लड़की से कोई बदजुबानी करे यह उसे उतना बुरा नहीं लगता जितना कि कहने का अंदाज। वह अंग्रेजी में बोलती है “The problem is not abusing. Problem is tone of talking” इसी में वह जोड़ती है “ये लोग ‘करिए’ की जगह ‘कर’ बोलते हैं।”

        तो पूरब की यह लड़की पश्चिम में ब्याही है, उसकी ‘Tone of talking’ और ‘करिए’ की जगह ‘कर’ वाली बात पर मैंने अनुमान लगाया। मुझे खांटी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बुजुर्ग नेता याद आए। जब उन्होंने मुझसे कहा था, “आप रामायणी हो हम लोग महाभारती…आगरे से पूरब के लोग रामायणी होते हैं जबकि इससे पश्चिम के लोग महाभारती हैं।” इस बात का निहितार्थ भी उन्होंने समझाया था, “रामायण में राजपाट का त्याग कर राम वनवास को स्वीकार करते हैं वहीं महाभारत में सूई की नोक के बराबर भूमि भी देने के लिए तैयार नहीं है।” उनकी इस बात पर मैं मुस्कुरा उठा था। दरअसल उनके कहने का आशय था कि पश्चिम के लोगों की भाषा में अक्खड़पन और उनमें जुझारूपन होता है। मैंने भी उनसे कहा था, “लेकिन यहाँ पश्चिम के लोग गन्ने के जैसे होते हैं ऊपर से कठोर और अंदर से मीठे।” मेरी बात सुन वे बुजुर्ग नेता हँसने लगे थे।

       गाड़ी की रफ्तार धीमी हो रही थी। मुझे पानी का बोतल लेना था। गाड़ी रुकी तो पानी तलाशने मैं नीचे उतरा, लेकिन मेरा डिब्बा प्लेटफार्म के छोर पर था, जहां न कोई बूथ था और न ही वेंडर आता दिखाई पड़ा। उस लड़की ने इस बीच कोच के अटेंडेंट लड़के को पानी का बोतल लाने के लिए पैसे दिए। वह लड़का दौड़ते हुए बूथ तक गया और वहां से पानी का बोतल लाया और लड़की को दिया‌। मैं देखता रह गया। इधर गाड़ी छूटने को हुई तो मैं डिब्बे में चढ़ आया। मैंने उस लड़के से पानी के बोतल के बारे में पूँछा। उसने बताया कि अभी कोई आएगा‌। मैं बर्थ पर चला आया। कुछ देर बाद एक लड़का पानी का बोतल बेचते हुए आया। मैंने उससे एक बोतल लिया।  मैं ईयर बड कान में लगाने जा रहा था कि लड़की फिर मोबाईल पर बात करते सुनाई पड़ी। मैंने उसकी बातों पर कान लगा दिया।

       “नहीं मम्मी जी मेरे खाने की चिंता मत करिए तब तक मैं पहुँच जाउंगी..हाँ, भाई मुझे लेने चारबाग आएगा..आप समय पर खाना खा लिया करिएगा और समय पर दवा भी लेते रहिए…हाँ मैं पहुँचकर बात करुंगी।“ लड़की अपनी सास से बात कर रही थी। 

       इसके बाद उसकी बातचीत उससे फिर होने लगी जिससे पहले हो रही थी, शायद वह बातचीत अधूरी रह गई थी,

     “.. हमें थोड़ा समय का मार्जिन लेकर घर से निकलना चाहिए था..पहली बार था हम अंदाज नहीं लगा सके..जब स्टेशन पर पहुँचे तो गाड़ी छूट रही थी हम दोनों खूब दौड़े..ये हमें तेज दौड़ने के लिए कह रहे थे..मैं हिम्मत भर दौड़ी.. मैंने दौड़ा कि फेफड़े बाहर आ ग‌ए.. लेकिन ट्रेन सामने से निकल गई, बहुत खराब लगा..बस एक मिनट की देर हुई थी… हम हाँफते हुए बैठ ग‌ए..दोनों कुछ देर वहीं सुस्ताए…डेढ़ घंटे बाद यह ट्रेन थी.. इनके रेल विभाग में कोई परिचित थे, उनके प्रयास से इस ट्रेन का रिजर्वेशन मिल गया…अभी मम्मी जी का फोन आया था..नहीं यार..गलती सुधारी जाती है..मेरे लिए फैमिली फर्स्ट..हाँ बढ़िया हैं, हैं तो अच्छे इंसान लेकिन सब को अलग-अलग ढंग से हैंडल करना पड़ता है।” 

          कुछ क्षण तक उसके बतियाने की आवज नहीं सुनाई पड़ी तो मैं समझ गया कि उसकी बातचीत अब खतम हो चुकी है। इधर ट्रेन अपने फुल स्पीड में थी। लेकिन थोड़ी ही देर में उसकी बातचीत फिर सुनाई पड़ी। इस बार उसके आवाज की टोन बता रही थी कि वह अपने पति से बात कर रही थी। उसकी इस बातचीत से मैंने अब अपना ध्यान हटा लिया था। फिर भी उसकी कुछ बातें बरबस मेरे कान में पड़ी जैसे कि, "चिल रहिए यार, सांच को आंच कहां” और मजाक में कही गई  बात ‘I got married to a liar.’  तथा “Don't focus be a negative” 

       वाकई वह लड़की समझदारी भरी बातें कर रही थी। हमारे सोचने का तरीका हमारे जीवन को प्रभावित करता है।

नौकर और मजदूर

       "वे तो उसी पर निर्भर हैं, इसलिए उसने उनको पींज लिया है.. उसे पता है कि उसके बिना उनका काम नहीं चलने वाला…” पत्नी ने कहा‌।

    “अरे, तो इसमें क्या है..उसकी तनख्वाह कम है इसे और बढ़ा दें..अभी काम के हिसाब से उसे पैसा नहीं मिल रहा है…” मैंने बोला।

    “आप नहीं समझते..बात पैसा बढ़ाने की नहीं, पैसा बढ़ा दें लेकिन मजदूर फ्री भी रहना चाहते हैं..उन्हें छुट्टी तो चाहिए ही..और.. उन्हें छुट्टी भी देनी चाहिए…” पत्नी ने कहा।

“हाँ..ये बात तो है…” मेरी स्वीकारोक्ति।

        दरअसल यह बातचीत एक घरेलू कामवाली के संबंध में थी। जिसे कुछ दिन के लिए काम से छुट्टी चाहिए लेकिन उसे छुट्टी देने में इसलिए आनाकानी हो रही थी कि घर का काम कैसे होगा।

       पत्नी से हुई इस वार्तालाप के बाद मुझे ध्यान आया कि ‘नौकर’ होने और ‘मजदूर’ होने में बड़ा फर्क होता है। ऊपर की बातचीत जिस कामवाली के संदर्भ में रही थी उसे मैं ‘नौकर’ समझ रहा था लेकिन  पत्नी की बात से मुझे अहसास हुआ कि वह ‘नौकर’ नहीं ‘मजदूर’ हैं। नौकर तो अपने मालिक के इशारों पर नाचता है, लेकिन मजदूर नहीं!!

   यहां मुझे विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास “नौकर की कमीज” की याद आई। वैसे तो इस उपन्यास में लेखक ने “ब्यूरोक्रेसी” पर जबरदस्त प्रहार किया है जिसकी चर्चा फिर कभी करेंगे लेकिन आज इसमें लेखक ने जिस मनोवैज्ञानिक और व्यंग्यात्मक लहजे में ‘नौकर’ और ‘मजदूर’ के बीच के अंतर को बताया है, उसकी चर्चा कर लेते हैं।

       इस उपन्यास का मुख्य पात्र संतू जो किसी आफिस में एक क्लर्क है, अपने बारे में सोचता है,  “मैं शान्त होता था तो उसी आदमी की तरह, जिसकी एक शेर की देख-रेख करने की नौकरी थी।...शेर की नौकरी के डर से उसे रात-भर नींद नहीं आती थी।... शेर से ज्यादा वह मालिक से डरता था।” तात्पर्य यह कि कठिन से कठिन काम नौकर को नहीं डराता, उसे ‘मालिक’ डराता है।

    "नौकरी में समझने के लिए कुछ रहता नहीं है। कुछ लोग इसलिए नहीं समझते कि उनके लिए कठिन है और कुछ लोगों के लिए समझने के लिए कुछ है ही नहीं।”  दर‌असल यहां नौकरी में जरूरी गुलामी की मानसिकता को इंगित किया गया है।  

     ‘नौकर’ होने की स्थिति में और ‘’मजदूर’ होने की स्थिति में दोनों की मानसिकता में अंतर को उपन्यास में आए इन कथनों से समझा जा सकता है, एक जगह संतू जब स्वयं को नौकर मानकर सोचता है,"

           "मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था। सूर्य का भी यही हाल था। फर्क सिर्फ दिन और रात का था" तो वह यहां इस आकाश की आड़ में छुपे दुनिया के उजाले को पाना चाहता है - 

     लेकिन मजदूर की दृष्टि से उसका नजरिया बदल जाता है। अब वह इस आकाश को फाड़कर पूरे आकाश जितना बड़ा सूरज या चंद्रमा  को नहीं पाना चाहता बल्कि सूरज रोजी का दिन और चंद्रमा रात को नींद लाने का जरिया बन जाते हैं - 

    “जिस प्रकाश की झलक फटे हुए गोल छेद से, सूर्य और चन्द्रमा जानकर वे देखते हैं, उनसे कहा जाए कि सूर्य और चंद्रमा की खिड़की से कूदकर चोर की तरह वहां जाने की बात सोचने के बदले यदि पूरे आकाश को फाड़ दिया जाए तो पूरे आकाश जितना बड़ा सूर्य होगा और चंद्रमा होगा‌। यह बात सोची जाए, तब वे कहेंगे - ऐसे ही रहने दो! सूर्य कभी-कभी हमारे लिए रोजी का दिन भी ले आता है। और चन्द्रमा कभी-कभी नींद की रात। कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो हम मिलनेवाले काम के दिन और नींद की रात को भी खो बैठेंगे।” 

           एक ‘मजदूर’ की लालसा उतनी बड़ी या व्यापक नहीं होती जितनी कि एक ‘नौकर’ की। मजदूर में संवेदना और संतोष की वृत्ति हो सकता है, वह काम के घंटों के बाद चैन की नींद सोना चाहता है। जबकि नौकर इस हद तक मालिक की अपेक्षाओं का गुलाम हो चलता है कि संतू के शब्दों में - 

    “ छुट्टी से मुझे घबराहट होती है। छुट्टी मुझे एक ऐसी फुर्सत लगती है जिसमें एक आदमी अपना ही तमाशा देखता है।”

        स्पष्ट है मजदूर लोकतांत्रिक परिस्थिति में ही मजदूर होता है, अन्यथा गुलामी की परिस्थिति में वह नौकर हो जाता है। एक मजदूर काम के प्रति ईमानदार हो सकता है लेकिन नौकर काम की अपेक्षा मालिक के प्रति ईमानदार होता है। इसलिए शेर की सेवा की नौकरी में उसे शेर से नहीं मालिक से डर लगता है।

          जिस कामवाली के संबंध में पत्नी से मेरी बात हुई थी। दरअसल वह नौकर नहीं मजदूर थी, उसे सारा आकाश नहीं बल्कि उसे काम से कुछ पल की छुट्टी चाहिए। मजदूर को जीवन में सुकूँन की तलाश होती है। नौकर की अपेक्षा मजदूर होना कहीं ज्यादा अच्छा है।

बढ़िया सी धूप

         इस वक्त बढ़िया सी धूप खिली हुई है। मैं इस धूप में बैठा शरीर सेंक रहा हूं, हलाकि मेरे शरीर पर कुर्ता पायजामा है,सूरज के धूप की गर्मी इन कपड़ों से छनकर शरीर को गर्मी पहुंचा रही है। शायद बहुत दिनों बाद इत्मीनान से आज धूप में बैठा था।  वैसे महीने के इस द्वितीय शनिवार को अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ जल्दी नहाया, जबकि प्रतिदिन की तरह आज कहीं जाना भी नहीं था। दरअसल सुबह मुझे नाश्ते के रूप में पराठा खाने की इच्छा हो आई थी। वैसे नाश्ता लेने की मेरी आदत नही है लेकिन आज दिन का भोजन देर से लेने का मन था इसलिए सुबह कुछ खाने की सोच लिया। इसी चक्कर में नहाने की जल्दी भी किया। क्योंकि बिना नहाए अन्न खाने की मेरी इच्छा नहीं होती। इसके पीछे कोई धार्मिक मान्यता नहीं बस ऐसे ही मैं इस नियम को अपने लिए बनाया हूं। नहा कर आया तो धूप में बैठने की इच्छा हुई थी। अभी मैं धूप में बैठा ही था कि मेरी रसोई बनाने वाले ने मुझसे पराठा खाने के बारे में पूंछा तो समय देखकर मैंने पंद्रह मिनट बाद लेने के लिए कहा और इस धूप में बैठे हुए यू ट्यूब पर पाकिस्तान के चुनाव परिणाम की चर्चा सुनने लगा। तभी गाँव से पिता जी का फोन आया। वे गाँव के घर का बिजली का बिल भरने के लिए कह रहे थे। मुझे याद आया लगभग दो साल पहले मैं गांव वाले घर के बिजली के बिल का भुगतान अपने आटोमेटिक भुगतान मोड में सेट कर दिया था। तब मैं गांव आया था। पिता जी बिजली का बिल भरने के लिए घर के पास स्थित “पावर हाउस” जाने की बात कह रहे थे। हम गाँव वाले उस 33 के वी के विद्युत सब स्टेशन को “पावर हाउस” ही कहते आए हैं। मैंने पिता जी को पावर हाउस जाने से मना किया था और अपने मोबाइल से उसी समय बिजली का बिल आनलाईन भुगतान कर दिया था। और भविष्य के बिल के आनलाईन भुगतान हेतु उस कनेक्शन को  अपने मोबाइल में आटोमेटिक मोड में सेट कर लिया था तथा निश्चित हो गया था कि अब गाँव का बिल भुगतान होता रहेगा और पिता जी को पावर हाउस जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

        लेकिन पिता जी ने आज जब बिल का भुगतान करने की बात कहते हुए यह कहा कि मुझे अब “पावर हाउस” जाने की इच्छा नहीं होती तो मैंने सोचा उनकी यह ‘इच्छा’ निश्चित ही उनकी उम्र से जुड़ी हुई है। और इस उम्र में पावर हाउस का चक्कर लगाना उनके लिए उचित भी नहीं। यहां मुझे दादा जी की याद आई। वे इस बिल को जमा करने पावर हाउस जाने की चर्चा एक दिन पहले करते थे कि कल बिजली का बिल भरने ‘पावर हाउस’ जाना है। वे भी उस समय अस्सी की उम्र के रहे होंगे। खैर आज पिता जी की बात से मैं थोड़ा हैरान हुआ कि आनलाईन पेमेंट का आटोमेटिक मोड फेल हो गया और मुझे इसकी जानकारी नहीं हुई! ऐप खोला तो पता चला कि कनेक्शन नंबर बदल गया है तथा विद्युत वितरण खंड यूपीपीसीएल की जगह अब पूर्वांचल विद्युत वितरण खंड हो गया है क्योंकि मेरा कस्बा मुंगराबादशाहपुर जौनपुर जनपद में है। खैर पिता जी को फोनकर मैंने संशोधित हुए कनेक्शन नंबर की जानकारी लिया और बिल का पेमेंट कर दिया तथा आटोमेटिक भुगतान मोड में इस कनेक्शन को सेट भी कर लिया। इसी बीच पराठा आ गया था। मैंने इसके साथ गुड़ भी मंगवाया। पराठे के साथ मुझे गुड़ अच्छा लगता है। वैसे पश्चिम में भोजन के साथ गुड़ खाने का खूब चलन है।

        मैं अभी भी धूप में बैठा हुआ हूँ। कौव्वों की काँव-कांव भी खूब सुनाई पड़ रहा है। मेरे अगल-बगल कुछ बड़े पेड़ हैं। इनमें एक बरगद और कुछ अशोक के पेड़ हैं। शेष पेड़ों का नाम मुझे याद नहीं आ रहा। शायद इसके पीछे पेड़ों से संगत छूटना या फिर किसी चीज का नाम जानने में मेरी रूचि कम होना भी हो सकता है। जबकि नाम जानना और इसे याद रखना एक अच्छा गुण है। लेकिन अपनी ही लापरवाही से मैं इस अच्छे गुण से वंचित रहता आया हूं। इस धूप में बैठे हुए यूँ ही मेरी निगाह  दूर स्थित हैंडपंप पर ग‌ई जिसमें समरसेबल लगा हुआ है, अभी कुछ देर पहले यह समरसेबल चालू था। अब इसे बंद कर दिया गया है। लेकिन इसकी टोंटी से पानी की बूँदें रह-रहकर टपक पड़ती हैं एक कौव्वा इस हैंडपंप पर बैठ इस टोंटी में बार-बार अपना चोंच डाल रहा है। मैं इसी कौव्वे को ध्यान से देखने लगा। इधर कौव्वों के कांव-कांव का शोर कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इसे सुनते हुए बचपन याद आने लगा है तब गाँव में ऐसे ही कौव्वों के काँव-काँव का शोर सुनाई पड़ता था। लेकिन वहाँ तो अब इक्का-दुक्का कौव्वे ही दिखाई पड़ते। गाँव में बहुत सी चीजें बदल चुकी है। ये कौव्वै भी लगता है गाँव छोड़कर शहरों की ओर चले ग‌ए हैं। ऐसा हो भी क्यों न, गाँवों में जीव-जन्तु, पालव-पल्लव के प्रति पहले वाली वह उदारता अब नहीं बची। खैर आज इस काँव-काँव को सुनकर मैं किसी अनजाने सुखद अहसास में खो गया। 

वो क्या है…

       शाम गहराने को थी मैं शहर के रास्ते पर था। दूर क्षितिज के ऊपर चमक रहे सूर्य पर मेरी दृष्टि  चली गई। धरती से आसमान तक छाए कुहासे के धुंध में सूरज एक चमकीले गोले जैसे दिखाई पड़े और धरती पर वृक्ष स्याह-सफेद रंग में रंगे जान पड़े। उधर आसमान में दूर सूरज के नीचे एक पंक्षी अपने पंख फड़फड़ाते उड़ा जा रहा था। इस दृश्य के फ्रेम में इंसानी हस्तक्षेप की कोई भी चीज नजर नहीं आई। प्रकृति अपने सहज रूप में दिखाई पड़ी! मन में आया कि चित्रकार होता तो इस नजारे को कैनवास पर उतार लेता। ठीक इसी समय गाड़ी में बज रहा गीत का बोल सुनाई दिया .. इस गाने को सुनते हुए मेरी गाड़ी शहर के छोर पर पहुँच गई थी, अब तक दृश्यावलि बदल चुकी थी। शहर का विकास देखकर मैं खुश हो रहा था। लेकिन वो क्या है…गाना सुनते हुए मैं समयानुभूति में खो गया….अनुराग फिल्म जिसे अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर मैंने देखा था लगभग चालीस वर्ष पहले! यह गीत उसी फिल्म से था। तब से धरती के कितने रंग बदले कहना कठिन है! पता नहीं यह उम्र का बढ़ना है या फिर धरती पर बदलाव, यह धरती ही अब बेगानी सी होने लगी है, सोचकर मन सिहर उठा, खैर।

      रंग-बिरंगी धरती और इसके सुन्दर नजारे, जिसकी हमारी चेतना साक्षी रही है एक ब्रह्मांडीय परिघटना है! यह सोचना भी स्वयं में अद्भुत है। वैसे तो धरती अपने जन्म से ही बदलती रही है, लेकिन यह बदलाव प्राकृतिक रहा है, इसीलिए परिवर्तन को प्राकृतिक नियम कहा गया। प्राकृतिक नियम गणितीय सूत्र पर आधारित है बल्कि उन रासायनिक संयोजनों में, जिनसे धरती पर जैविक विकास का क्रम आगे बढ़ा, उनमें भी प्रकृति ने इस गणितीय सूत्र का अनुगमन किया। इससे धरती पर हुआ जैविक विकास सिमेट्रिक ही रहा, चाहे यह सरल से जटिल की ओर ही क्यों न हुआ हो! इसमें मनमानापन नहीं आया। 

        आज आदमी स्वार्थ-लिप्सा में प्रकृति में अन्तर्भुक्त इस गणितीय सूत्र के बदले उस रसायनिक-सूत्र का इस्तेमाल कर रहा है जिससे धरती के बदलावों में अब विकृति और सूनापन नजर आने लगा है। यह विकास के लिए ‘परिवर्तन’ नहीं ‘उत्परिवर्तन’ है, जिसमें व्यवस्था की जगह अव्यवस्था, जोड़ की जगह घटाव और विलोपन है। इसका परिणाम इंसान को भयभीत करता है। क्योंकि यह उत्परिवर्तन धरती के ‘स्वधर्म’ को क्षति पहुँचा रहा है। वैसे भी यदि कोई वस्तु ‘स्वधर्म’ त्याग कर दूसरा ‘धर्म’ ग्रहण कर ले तो परिणाम भयावह होता है, उस वस्तु का अस्तित्व विनष्ट हो सकता है। गीता में भी कहा गया है, स्वधर्म निधनं श्रेय परधर्मो भयावत:। प्रकृति हो या व्यक्ति सभी का अपना स्वधर्म है। मानव के स्वार्थ-लिप्सा के इस काल-खंड में व्यक्ति की मन:स्थिति भी प्रभावित हुई है। उसकी सारी संवेदनाएं इस लिप्सा के इर्द-गिर्द सिमट चुकी है। उसका स्वभाव अब इस सीमा तक जटिल हो चुका है कि उसे अपने ‘स्वधर्म’ की ही समझ नहीं। इसलिए आज उसका मानवीय स्वभाव संकट में है।

          जब गीता ‘स्वधर्म’ की बात करती है तो इसका आशय जाति, पंथ, मजहब या धर्म से नहीं, बल्कि चेतना के उस गुण-धर्म से है, जिसे वह किसी देश-काल, परिस्थिति में विकसित होते हुए अर्जित करती है। गीता चेतना के इसी गुण-धर्म को पहचान कर व्यक्ति को कर्तव्य-कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। गौतम बुद्ध भी इसके पहचान के लिए “आत्मदीपो भव” का उपदेश देते हैं। वे मानते थे कि इस स्थिति में ही हम दुखों से मुक्ति पा सकते हैं। यह दुख और कुछ नहीं व्यक्ति के स्वभाव की वह जटिलता है जिसके कारण क्षरित होते इस पर्यावरणीय परिस्थिति में उसके पास तमाम प्रश्नों का उत्तर होते हुए भी वह जीवन के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा है जहाँ खुशी के सारे इंतजामात कर लेने के बाद भी वह दुखी है। दरअसल गीता हो या बुद्ध, दोनों का आशय जीवन के इस जटिलता को समझाना और इससे उपजे दुख से मुक्ति का मार्ग बताना है।

         ‘वो क्या है…’  गाने में नायिका की आँखों में अंधेरा है..इस गाने के प्रारंभ में नायक नायिका की अनुभूतियों को जगाता है..फिर नायिका आँखों में अँधेरा लेकर भी सागर, लहरें और नाव देख लेती है! इन्हें वह कैसे देख लेती है, नायक के यह पूँछने पर वह कहती है, मन से आँखों का काम लिया। बस।

हित अनहित पशु पक्षिउ जाना

         यह आज की बात नहीं है। उस दिन लखनऊ वाली सुबह की बात है। कुछ दिनों से मैंने सुबह टहलना लगभग छोड़ ही दिया है। जब बहुत मन होता तो घर की बाउंड्री के अंदर ही चहलकदमी वाली टहलाई कर लेता। लेकिन सुबह बाहर खुली हवा में टहलने का आनंद कुछ दूसरा ही होता है। फिर भी मैं यह जरुर सोचता कि मनमाफिक समय और स्थान मिलने पर सुबह आउटडोर वाली टहलाई जरुर होगी! हाँ उस दिन सुबह की बात है। घर की चहारदीवारी में टहलते-टहलते अनायास ही एक बात याद आई कि क्या बुलबुल पक्षी डेली स्नान करते हैं? यहां बात यह थी कि उस चहारदीवारी में टहलते हुए मिट्टी के कठौते में भरे पानी को मैंने यह सोचकर गिरा दिया था कि इसमें मच्छर पल सकते हैं। पत्नी जी ने इसे देखा तो मुझे बताने लगीं कि इस कठौते में पानी इसलिए भर कर रखती हूँ कि अकसर सुबह-सुबह बुलबुल पक्षी इसमें नहाने आते हैं। फिर उन्होंने कहा कि ये सुबह सात साढ़े सात के बीच आते हैं। चूँकि उस दिन में उनके आने के समय वहाँ टहल रहा था इसलिए बुलबुल उस दिन वहाँ नहाने नहीं आए। अब मैंने तय किया कि कम से कम इनके नहाने के समय इस स्थान पर मेरी टहलाई स्थगित रहेगी। खैर जब अगले दिन मैं देर से उठा तो श्रीमती जी ने उस पानी भरे कठौते की ओर इशारा करके मुझे बताया कि इसमें बुलबुल के जोड़े अभी स्नान करके ग‌ए हैं। मैंने देखा कठौते में बुलबुल के नहाने और पंख फड़फड़ाने के कारण कठौते के चारों ओर पानी छलका पड़ा था। इसे देखकर मुझे कंपकंपी भी आई कि कठौते के ठंडे पानी में नहाते समय क्या बुलबुल को ठंड नहीं लगी होगी? जबकि हमेंं इस जाड़े में नहाने के लिए पानी गरम करना पड़ता है। खैर।

              उसी दिन की बात है शाम को मैं चक्की से आटा पिसवाकर आया था। गेट खुला हुआ था और एक जाना-पहचाना कुत्ता पत्नी के पास बैठा दुलरा रहा था और वे भी उसे दुलार रहीं थी! उन्होंने मुझे बताया कि यह आज मुझसे मिलने आया है। मैं भी इस कुत्ते को कम से कम दस वर्ष से जानता हूं जब यह एक छोटा पिल्ला था। इसे पाला भी नहीं गया था लेकिन श्रीमती जी इसे तब से कभी बिस्कुट तो कभी दूध या रोटी देती आई हैं। यह मेरे घर के सामने और आसपास की सड़कों पर खेलते-कूदते ही बड़ा हुआ। इसे हम सभ्यों की भाषा में स्ट्रीट डॉग भी कह सकते हैं क्योंकि इसका कभी कोई घर नहीं रहा। इधर पाँच-छह वर्षों से यह कहीं किसी और गली में रहने लगा है लेकिन यह श्रीमती जी को भूला नहीं है अकसर सात-आठ दिन पर यह इनसे मिलने ऐसे ही चला आता दुलराता है और फिर वापस चला जाता है।

      इस घटना को याद कर आज यहां शामली में अपने आवास में टहलते हुए मुझे रामचरित मानस की यह चौपाई बरबस ही याद आ गई -

मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥

हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥

         वाकई में! यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि पशु और पक्षी किसी इंसान की भावना या उसके अंदर की संवेदना को कितनी आसानी से पहचान जाते हैं लेकिन वहीं पर स्वार्थ और अहंकार में डूबा इंसान इसे पहचान नहीं पाता!! तो क्या ऐसे इंसान पशु और पक्षियों से भी ग‌ए गुजरे होते हैं….

अपना-अपना नाभि और अपने-अपने विषकुंड

          मैं मोबाईल हाथ में लिए अपना चश्मा खोज रहा था..कभी सोफासेट पर ढूंढ़ता तो कभी खाने वाली टेबल पर..बिस्तर पर भी इसे खोजा…दर‌असल असत्य पर सत्य के विजय पर्व पर मन में यह आह्लाद उमड़ आया था कि हे असत्य बच्चू!! इस लड़ाई में जीतेगा सत्य ही..चाहे तुम कुछ भी कर लो!!! सत्य के जीतने की इसी खुशी में मुझे कुछ बधाई संदेश लिखने थे, लेकिन मेरा चश्मा ना मिल रहा था…अचानक जैसे कानों में हँसी गूँजी हो!!! जिस चश्मे को मैं खोज रहा था उसे तो मैं पहने था वह मेरे आँखों पर ही था!!!! फिर भी पगलाया सा मैं उसे ढूंढ़ रहा…
          
        जब मुझे मेरा चश्मा मेरे ही आँखों पर विराजमान मिला तो जैसे असत्य ने मुझसे हँसकर कहा हो…दो खूब बधाई दो..मनाते रहो विजय पर्व! लेकिन मुझे पराजित नहीं होना…चाहे तुम जितना ज्ञानधारी बन लो! उड़ाते रहो यह सत्यमेव जयते वाला शिगूफा!!! 
       
         वाकई…न जाने कब से हम असत्य को मारते आ रहे हैं लेकिन….लेकिन क्या??? यही न कि असत्य मरता क्यों नहीं? त्रेता युग के बाद सदियां गुजर ग‌ई.. लेकिन साल बीतते न बीतते…असत्य फिर खड़ा होकर अट्टहास करते हुए कहने लगता है कि लो एक बार फिर मार कर देख लो!!  और इधर सत्य के लिए भी एक अजीब सी मुसीबत आकर खड़ी हो जाती है उसे फिर मैदान में आकर शर संधान करना पड़ता है…आखिर कितनी बार वह मैदान में आए?? लेकिन… लेकिन क्या? लेकिन यही कि सत्य अब दिग्भ्रमित है! इस मैदान में उसे कोई यह बताने वाला नहीं कि विषकुंड कहाँ और किस नाभि में है कि उस पर निशाना साधकर वाण मारे और यह कुंड सूखे?? दरअसल विभीषण भी यह बताने अब नहीं आएंगे..आखिर कोई विभीषण क्यों बने? बेचारा सत्य को विजयी बनाने में सहयोग भी करे और अपने नाम को गाली बनता देखे! वैसे भी अब विभीषण वाला जमाना नहीं रहा..यह विकेंद्रीकरण का युग है!!!! अब तो सारे लोग अपना-अपना नाभि और अपना-अपना विषकुंड लिए फिरते हैं…!!! खैर…
     
          असत्य अब सुरक्षित है..निधड़क है!!! आखिर यह असत्य निधड़क क्यों न हो! बहुत ही चालाकी से इसने अपनी रणनीति बदल लिया है और किसी नाभिकुंड में रहना छोड़ दिया! क्योंकि इस नए युग में..न‌ए काल में अब कोई जरूरत नहीं इसे छिपकर रहने की!!! इसे पता है कि अपने इस बदले रूप में यदि वह सत्य के साथ खड़ा हो जाए तो पहचानना मुश्किल होगा कि सत्य कौन और असत्य कौन! और हाँ, राम की कौन कहे विभीषण भी फेल हो जाएंगे यह पहचानने में! इधर सत्य भी अपने अकेलेपन से जैसे हताश हो उठता है, यह स्थिति असत्य के लिए मुफीद है इसे समझकर ही असत्य ने सत्य का साथ पकड़ा! तो यह असत्य अब बेहद सुरक्षित जोन में है और दशहरा जैसे पर्व पर अपने मारे जाने का तमाशा यह खुशी-खुशी मजे ले-लेकर देखता है। अब तो, धीरे-धीरे इसे यह भी पता चल गया है कि सत्य के जीतने की अभिलाषा पालने वाले ये सत्यप्रेमी लोग आँख होते हुए भी उसे नहीं पहचान पाएंगे चाहे चश्मा पहनकर जितना ज्ञानधारी बन लें क्योंकि इनमें मन की आँखें नहीं हैं…ये सब अंधे ही हैं…मन के अंधे!!!