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शनिवार, 4 मई 2024

सिंहोरा

      मुख्य सड़क से गाँव जाने वाली सड़क पर कार मुड़ी। पहले खेत शुरू हुए। इनमें लहलहाती गेहूँ की बालियाँ बस जैसे पकने को तैयार हों। बचपन में दादी के साथ इन खेतों में काम करते मजदूरों के लिए पानी चबैना लेकर आई हूँ। तब यह पक्की सड़क नहीं सूनसान खोरी हुआ करती थी। जिसके दोनों ओर सरपत खड़े होते। इसके बीच से गुजरते हुए मुझे भय लगता। बरसात के दिनों में इस खोरी में पानी इकट्ठा हो जाता तो किसान इसे दुबले से उलचकर धान की सिंचाई कर लेते थे। लेकिन आज खोरी और सरपत का नामोनिशान मिट चुका है बल्कि उसकी जगह बनी यह सड़क हमारे गाँव से आगे एक दूसरे गाँव को भी जोड़ती है। घर-घर मोटरसाइकिल और चारपहिया होने तथा स्कूली बच्चों की आवाजाही से सुबह-शाम यह सड़क गुलजार हो उठती है। अचानक ज़ेहन में कुछ यादें उभर आई। मैं मुस्कुरा उठी। मुझे मुस्कुराते पाकर कार चला रहे बेटे ने पूँछा, मम्मी तुम मुस्कुरा क्यों रही हो? मैंने कहा, कुछ नहीं, बस ऐसी ही कोई बात याद आ गई। उस धूलभरी खोरी में दादी के साथ चलते हुए मैं किसी बड़े आदमी के पैरों के निशान के ऊपर पैर रखती और उससे अपने पैर की तुलना करती या बैलगाड़ी के पहिए से बने लीक पर मैं पैर धरते चलती। अपने पैरों की छाप देखकर मुझे मजा आता। लेकिन मुझे कूदते-फाँदते चलते देख दादी डांटने लगती तो उन्हें मैं अपने पैरों के निशान दिखाने लगती। दादी मुझे नसीहत देती, बिटिया सीधे अपनी राह चलो, किसी की बनाई लीक पर नहीं चलते। इस बात के साथ कहीं पढ़ी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की यह कविता किलीक पर वे चलें/ जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं” याद आ गई थी इसीलिए मैं मुस्कुराई थी। यह दादी की ही सीख थी कि मैं जैसी हूँ वैसी ही बनी रही किसी की लीक पर नहीं चली। लेकिन यदि जमाने से पूँछो तो उत्तर मिलता है तुम वैसी नहीं तो ऐसी नहीं हो! यहाँ लोग स्वयं की राह पर चलने की नहीं, किसी न किसी की लीक पर चलने की ही सलाह देते हैं। इसीलिए तो मेरे ‘वो’ भी कभी-कभी मुझे ‘पगली’ कह बैठते हैं। इसपर मैं उनसे यही कहती हूँ, ‘हाँ जो अपनी राह चलते हैं उन्हें लोग पागल कह देते हैं।’ 

          खेतों की सीमा समाप्त हुई तो बाग शुरू हुए। मेरी आँखें चुरैलिया वाले बरा के उस विशाल वृक्ष को खोजने लगी, जो इस खोरी से गाँव की ओर जाते समय बाग से पहले पड़ता है। लेकिन उसे ठूँठ जैसी हालत में देख मैं चकरा ग‌ई। बाग के छोर पर खड़ा मेरे बचपन का विशाल बरा का वह वृक्ष पेड़ों के सरदार जैसा तब बाग की रखवाली करते हुए दिखाई देता। किसानों ने अपने खेत उसके तने के पास तक फैला लिए हैं। शायद इसकी दूर तक फैली शाखाओं को सहारा देने वाली जड़ें नष्ट हो गई होंगी या उन्हें जमीन से महरूम कर दिया गया होगा, फिर बिन सहारे के बरा की वे शाखाएं टूटकर गिर पड़ी होंगी। मेरे बचपन के बरा के उस पेड़ पर रहने वाली चुड़ैलिया का क्या हुआ अब वह कहाँ रहती होगी! शाम गहराने पर जिसके डर से बच्चे इस बरा के आसपास नहीं जाते थे! उन दिनों दादी भी हमें डराती, कहती, बरा के पेड़ के पास जाने वाले अकेले बच्चे को चुरैलिया पकड़ लेती है। लेकिन दिन-दोपहरी में चरवाहे हों या किसान उस बरा के नीचे बैठे सुस्ताते दिखाई पड़ते, और तो और, गर्मियों के दिनों में इसके नीचे पशुओं का भी जमावड़ा होता। यह देखकर मैं दादी से पूँछती, इन्हें चुड़ैलिया क्यों नहीं पकड़ती, तो वह कोई उत्तर न देकर केवल मुस्कुरा देती।

       और यह बाग जिसके बीच से मैं गुजर रही हूँ तब कितना डेंस था! आम और महुआ के वे दरख्त नहीं रह ग‌ए, जिनके इर्द-गिर्द हम-उम्र सहेलियों के साथ मैं खेला करती। वही बाग अब खंडहर सा उजाड़ दिखाई दिया। लेकिन मेरी बचपन की यादों को सँजोए भीटे वाला तालाब और वहां बना शिवाला दूर से अभी भी वैसे ही दिखाई दिया जैसे मेरे बचपन में था। तीज पर गाँव की महिलाएं यहाँ ऐसे जुटती जैसे कोई मेला लगा हो! लेकिन सुनती हूँ कि तीज-त्यौहारों पर अब महिलाओं का यहाँ वैसा जमावड़ा नहीं होता।

        बेटे ने कार में ब्रेक लगाया तो देखा, हम गाँव की गली में थे। ये दुल्ली काका थे। साइकिल के कैरियर पर हरा चारा बाँधकर खेत से लौट रहे हैं। कार के सामने आ ग‌ए थे। किनारे हुए तो बेटे ने उनके बगल से धीरे-धीरे कार निकाला। कितने बूढ़े हो ग‌ए हैं कक्कू! मुझे नहीं देखा, नहीं तो मेरा हालचाल जरूर पूँछते। गाँव की यह गली सँकरी थी। मैंने बेटे को सावधानी से कार चलाने के लिए कहा। गाँव भी कितना बदल गया है, अब कच्चे घर नहीं रह ग‌ए, छोटे-बड़े सभी घर पक्के हो चुके हैं। 

        एक मोड़ आया। जैसे घर की गौरैया घर के आँगन के प्रत्येक कोने से परिचित होती है वैसे ही मैं इस मोड़ से परिचित थी। नजर घुमाई। मेरा हृदय धक से रह गया। यह सिंहोरा थी। मेरी बचपन की सहेली‌। दीन-हीन सी मैली-कुचैली साड़ी में लिपटी अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी! वह मुझे ही देख रही थी। उसके चेहरे का निर्विकार भाव सुख-दुख से विरक्ति वाला नहीं, बल्कि बेबसी का था। वैसे ही जैसे किसी मजबूत बाँध के पीछे कोई उफनाई नदी आकर ठहर जाए! मैं विस्फारित आँखों से उसे देखने लगी। हम दोनों एक दूसरे को तब तक देखती रही जब तक कार मुड़कर आगे नहीं निकल आई। मन में आया, गाड़ी रुकवाकर बचपन की इस सहेली से मिल लूँ, लेकिन बेटे से कार रोकने के लिए नहीं कह सकी। सिंहोरा से मैं कब मिली थी, याद नहीं। यह तो सुना था कि वह विधवा हो गई है और उसे कोई बच्चा नहीं है। विवाह के कुछ बरस बाद एक बेटा हुआ था उसे, लेकिन सौर में ही उसके नवजात की मौत हो गई थी। उस बच्चे को जन्मते ही ठंडे पानी से नहला दिया गया जिससे उसे निमोनिया हो गया था। इसके आठ-दस साल बाद बीमारी से उसके पति की मृत्यु हुई। बेचारी सिंहोरा आज कैसी हालत में है!

         ..अरे! इस मोटर में फूटो बैठी है? हाँ फुटेरा ही तो है! बहुत साल हो गए थे इसे देखे..गौना था जब फुटोरा से मिलने ग‌ई थी। सुना था, बाद में इस फूटो का आदमी अफसर हो गया था। और जो मोटर चला रहा है…वह फुटेरा का बेटा होगा…यदि उसका भी बेटा जिया होता तो ऐसे ही होता…

         सिंहोरा के हृदय में एक टीस सी उठी और उसकी आँखें डबडबा आईं। 

        “सिंहोरिया…हे सिंहोरिया..कहाँ मर गई रे..” यह बिब्बो की आवाज थी। चिल्लाती काहे हो..आती हूँ, बोलकर सिंहोरा ने अपनी डबडबाई आँखों को अपने मैले-कुचैले आँचल से पोंछ लिया। वह मुड़ी तो सामने माँ बिब्बो थी जो पचहत्तर साल के वय से ऊपर थी। बिब्बो फिर बोली थी, चिल्लाऊँ न तो क्या पूजा करूँ…तेरा भाई आता होगा उसके लिए कुछ बना दे, नहीं तो चार गारी देगा तुझे। सिंहोरा कुछ न बोली, घर के अंदर चली गई। 

       भाई तो भाई, बिब्बो भी न जाने क्यों हर वक्त उससे चिढ़ी रहती है, बात-बात पर उसे झिड़कना-दुत्कारना जैसे उसकी आदत बन गई है..यही बिब्बो पहले उसकी खूब मया करती, यहाँ तक कि विवाह के बाद ससुराल में उसे ज्यादा दिन न रहने देती। महीना-दो-महीना बीता नहीं कि बुला लेती। विवाहित होने के बावजूद घूम-फिरकर उसका समय मायके में ही बीतता। 

       सिंहोरा अपनी माँ को ‘बिब्बो’ ही बोलती है। बुआ माँ को ‘भाबो’ कहती थी,  यह ‘भाबो’ उसकी जुबान में ‘बिब्बो’ हो गया। धीरे-धीरे पूरा गाँव उसकी माँ को ‘बिब्बो’ के नाम से जानने लगा। उसके नाम ‘सिंहोरा’  के पीछे भी एक कहानी है। साधारण नैन-नक्श वाली सिंहोरा अपने छुटपन में गोल-मटोल हुआ करती थी। बिब्बो के पास एक खूबसूरत सिंदूरदानी थी। जिसे वह जतन से बक्से में छिपा कर रखती। माँ प्यार से कहती, तू मेरी सिंदूरदानी जैसी सुंदर गोल-मटोल सिंहोरा है और उसे ‘सिंहोरा’ कहकर बुलाती।

         सुबह-शाम दोनों टैम की रसोईं की जिम्मेदारी उसी की है‌। माँ की झिड़की खाकर वह रसोईं में आ ग‌ई थी। उसकी आँखें फिर भर आई। जीवन के पन्ने पर हँसने और रोने में अन्योन्याश्रित संबंध लिखा होता है! जो हँस सकता है वही रो भी सकता है। लेकिन इसी पन्ने पर सिंहोरा के लिए जैसे हँसना लिखा ही नहीं था, इसीलिए उसे कभी ठीक से रोना भी नहीं आया‌। वह जी रही या जीयाई जा रही, उसे नहीं पता। पति को मरे एक माह भी नहीं हुए थे कि बिब्बो ने उसे ससुराल से बुला लिया था। तब बिब्बो बहुत दुखी दिखाई देती! यहाँ तक कि खाना-पीना तक भूल ग‌ई थी वह। विधवा के रूप में उसे देख जब-तब वह रो भी पड़ती। तब चुपचाप वह बिब्बो को निहारती। धीरे-धीरे बिब्बो का यह रोना-धोना बंद हो गया था। कुछ महीने बाद जब देवर उसे लेने आया तो बिब्बो ने उसको यह कहकर लौटा दिया था कि दुख भूलने के लिए सिंहोरा अभी नैहर में ही रहेगी। 

      उसने याद किया। इसके साल भर बाद उसकी देवरानी आई थी, साथ में वह देवर भी था। उसे ससुराल लिवा जाने के लिए देवरानी ने बिब्बो से खूब मिन्नतें की थी। “अम्मा जिज्जी हमारी बड़ी हैं वे घर की मालकिन बनकर रहेंगी.. इन्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने देंगे हम लोग..इन्हें जाने दें..।” लेकिन तब बिब्बो को उसकी कितनी फ़िक्र करती थी! तभी तो देवरानी से उसने कहा था, “यह सिंहोरा के मान-अपमान का सवाल है..देखो, जब पति ही नहीं रहा तो ससुराल जाकर वह क्या करेगी.. अब उसका वहां कौन है जो उसके मान की परवाह करेगा? वहाँ जाकर उसे अपमान नहीं सहना..यहाँ वह न‌इहर में अपने माँ-बाप-भाई के घर रहेगी तो कम से कम इज्जत से तो जियेगी!”  

       “नहीं अम्मा..उनका घर तो ससुराल ही है..आखिर जिज्जी हमारी भी तो कुछ हैं...और ये..ये भी तो यही कहते हैं कि माँ नहीं है तो क्या हुआ, भाभी तो हैं! अम्मा ये जिज्जी को माँ की ही तरह इज्जत देंगे..” देवर की ओर इशारा कर उसकी देवरानी ने जैसे गिड़गिड़ाते हुए कहा था। फिर बिब्बो को मनाने के लिए उसके पैर भी पकड़े थे। उस दिन वह इसी बिब्बो के पीछे खड़ी एक हाथ से आँचल मुँह में ठूँसे चुपचाप यह सब देख रही थी। फिर देवरानी ने रोते हुए उसके भी तो पैर पकड़ लिए थे, उससे कह रही थी, जिज्जी, अम्मा को तुमही समझाओ..क्या वह आपका घर नहीं और हम लोग आपके कुछ नहीं..बोलो जिज्जी..कुछ बोलती क्यों नहीं…” लेकिन काठ की बनी वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी।  

        कैसे फूटते उसके मुँह से बोल? बिब्बो आदर्श मां जो थी, बचपन से ही उसे सिखाती आई थी, यह न करो वह न करो, ऐसे नहीं वैसे करो। एक-एक कहा माना था उसने बिब्बो का। कंडा सीला था लकड़ी भी नहीं जल रही थी। फुंकनी काम नहीं आ रही। धुएं की घुटन से निकल कुछ पल के लिए खुली हवा में साँस लेने का उसका मन हुआ। लेकिन बिब्बो देखेगी तो दस बात बोलेगी और भाई भी चिल्लाएगा। वैसे भी जब जीवन ही धुँआसे में डूब जाए तो क्या खुली हवा और क्या बंद! वह चूल्हे में पड़ा कंडा फिर सुलगाने लगी। यह बिब्बो ही थी जो उसकी देवरानी से उस दिन यह भी कह रही थी कि हमारी बेटी किसी दूसरे की सेवा-टहल करने नहीं जाएगी। लेकिन एक नौकरानी से भी बदतर आज की उसकी यह हालत उसे नहीं दिखाई देती। घर में गैस चूल्हा है, पहले उसके विधवा पेंशन से सिलेंडर भराया जाता लेकिन अब वह भी खाली पड़ा रहता है। रसोईं में चूल्हे से उठते धुँएं के बीच वह उस वक्त को कोस रही थी जब एक बार फिर बिब्बो के सामने वह मूक बनी रही। इस बार ससुराल के रिश्ते से मिला उसका अधिकार बेंचा गया था। आठ लाख रुप‌ए में सब बिक गया। बिब्बो ने यह पैसा उसके बैंक खाते में जमा कराया था। 

       अचानक एक दिन भाई का व्यवहार बदल गया था। ‘बहिनो-बहिनो’ कहते न थकने वाला भाई उस दिन अनायास ही उससे झगड़ पड़ा था। उसके कटु शब्दों से सहम गई थी वह। बिब्बो ने इसे ऐसे अनदेखा कर दिया था जैसे वह भी बदल गई हो! भाई को मोटरसाइकिल का शौक पूरा करना था। इसके लिए उसे पचास हजार रुपए चाहिए था। पैसा निकालने वह बैंक नहीं जाना चाहती थी। उसके टालमटोल से भाई चिढ़ गया था। बिब्बो भी भाई की तरफदारी कर रही थी। अंततः मजबूर होकर उसे बैंक जाना पड़ा‌। 

        भाई की नजर अब जैसे उसके पैसों पर ही गड़ी थी। आए दिन वह कोई न कोई फरमाइश करता। बिब्बो भी उसके ही पक्ष में बोलती। वह यह भी फ़िक्र न करती कि सिंहोरा का जीवन लंबा है ये पैसे हारे-गाढ़े उसके काम आएंगे। जबकि यही कहकर तो उसने ससुराल में उसके हिस्से की जमीन बिकवायी थी। आखिर एक दिन बिब्बो की ही शह से भाई ने किसी कागज पर उसका अँगूंठा लगवाया और बैंक से एटीएम कार्ड लाकर उसे दे दिया था। अब वह बैंक चलने के लिए उसकी चिरौरी भी न करता। बस यह कार्ड मांग लेता। कभी वह विरोध करती भी तो बिब्बो यही कहती कि सिंहोरा तेरे आगे-पीछे कोई नहीं है मेरे बाद तेरे भाई ही तेरी सेवा-सहाय करेंगे..भाइयों को नाराज करना ठीक नहीं। यह बिब्बो की सलाह थी या चेतावनी, इसे न समझ पाने पर वह चुप रह जाती। पता नहीं क्या हो गया है बिब्बो को? क्यों बदल गई है वह? इन बातों को सोचकर सिंहोरा तड़प उठी!!

      केवल हाड़-मांस की नहीं बनी वह, सब समझती है! उसके खाते में पैसा जमा होते ही भाई ने बिब्बो का खूब ख़्याल करने लगा था। इधर भाभी भी बिब्बो की तीमारदारी में जुट गई थी। दोनों बिब्बो की मया करने का खूब दिखावा करते और बिब्बो के मन में उसके प्रति द्वेष बढ़ाने के लिए उसके सामने घर के कामों में उसकी खूब कमियाँ निकालते। बिब्बो भी इसे चुपचाप सुनती। धीरे-धीरे बिब्बो उससे चिढ़ी सी रहने लगी थी! तभी तो इस विधवा बेटी से ज्यादा अब उसे अपने बेरोजगार बेटे की चिंता सताने लगी है, नहीं तो उससे एटीएम कार्ड मांगकर वह भाई को न देती! अपनी विवशता और असहायता को समझ यह जानने की अब उसकी इच्छा भी नहीं होती कि खाते में उसके कोई पैसा बचा भी है या नहीं। लेकिन बिब्बो तो उसकी भी माँ है वह ऐसे बदल जाएगी! यह सोचकर उसकी आँखें छलछला आई।

     किस मुँह से अब वह देवर-देवरानी से नाता जोड़े, चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती। चूल्हे में आग भभक उठी, इसके ताप में उसके गाल पर ढुलक आए आँसू लकीर बनकर सूख गए। तवे पर चढ़ी रोटी जलने न पाए उसे अंगुलियों से ही वह पलटने लगी। जबकि उसके बगल में चिमटा अभी भी अनछुआ पड़ा था।  

         मेरे मायके का घर नदी के किनारे गाँव के छोर पर है। बेटे ने कार उसी ओर मोड़ लिया था। लेकिन मुझे मेरे बचपन की सिंहोरा याद आ रही थी। वैसे तो मेरा नाम श्यामला है लेकिन बचपन में सिंहोरा मुझे फूटो या फुटोरा ही बुलाती थी। ककड़ी की एक प्रजाति फूट है वह कहती तेरा नाम इसी फूट पर पड़ा है। बचपन में हम दोनों मक‌ई के खेतों में फूट ढूंढ़ती फिरती, कोई फूट मिलता तो वह मुझे चिढ़ाती, देख फुटोरा फूट.. मैं भी यह सुनकर पहले चिढ़ने का नाटक करती फिर दोनों मिलकर हँस पड़ती।     

       मुझे याद है, हम बच्चियां बाग में साथ मिलकर खेलती। किसी दरख़्त का कोटर हमारे गुड्डे-गुड़ियों का घर बनता। लेकिन सिंहोरा की दिलचस्पी इस खेल में न होती। उसे चिबिद्दी खेलना पसंद था। मेरा मनुहार कर वह मुझे अपने साथ इस खेल में शामिल कर लेती। मैं भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल छोड़ उसके साथ चिबिद्दी खेलने लगती। हम जमीन पर लाईनें खींचकर आठ-नौ आयताकार खाने बनाती। जिसे घर कहतीं। इस घर में खपरैले की एक छोटी चिप्पी फेंककर लंगड़ी टांग से चलकर इसे उठाती। एक घर खाली छोड़ती जिसे लंगड़ी टांग से कूदकर पार करती। सिंहोरा की फेंकी चिप्पी खाने में ही जाकर गिरती‌‌ या उसकी पहुँच में होती और बिना डगमगाए वह चिप्पी उठा लेती‌। इस खेल में संतुलन साध लेने में वह पारंगत थी। कहते हैं जीवन भी एक खेल है, जिसमें संतुलन और नियंत्रण की जरूरत है। लेकिन बेचारी सिंहोरा की भाग्य रेखा में उसकी इस कला के उपयोग की इबारत ही नहीं लिखी थी। लेकिन भाग्य रेखा की कौन कहे वह बेचारी तो किसी पन्ने की इबारत भी नहीं पढ़ सकती थी। बिब्बो भी कहती लड़कियां पढ़-लिखकर चौका-बेलना ही तो करती हैं और हमारी सिंहोरा इसमें होशियार है, घर के सारे काम वह जिम्मेदारी से कर लेती है। शायद यही बात थी कि बिब्बो ने उसे कभी स्कूल जाने के लिए नहीं कहा। 

      लेकिन अनपढ़ होकर भी सिंहोरा गहरे एहसास  वाली थी! वैसे थी तो वह सीधी-सपाट, लेकिन किसी से दबना नहीं जानती थी वह। कोई उस पर हावी हो जाए यह भी उसे पसंद नहीं था! मुझे आज भी याद है एक दिन हम बच्चियाँ पति-पत्नी बनकर नाटक कर रही थी। मैं पति बनी थी और वह पत्नी। मुझे उसपर गुस्सा होना था। लेकिन जैसे ही मैं बनावटी क्रोध कर उस पर चिल्लाई पैर पटकती वह उस खांचे से बाहर आ ग‌ई थी जिसे हमने कोठरी का नाम दिया था। एकदम से वह बोल पड़ी थी,  

       “नहीं खेलना मुझे यह खेल..।” 

      मैं कुछ समझती तब तक वह अपने घर की ओर चल पड़ी थी। वह नाराज है, भान होते ही मैं उसके पीछे भागी थी। और यह बोलते हुए कि “सिंहोरा खेल छोड़कर क्यों जा रही हो? यह सच्ची का डांटना नहीं, खेल है, खेल में क्यों गुस्सा होना? ऐसे में तो खेल बिगड़ जाता है, यह खेल तो हमें ऐसे ही तो खेलना था” मैं दौड़कर उसके आगे जाकर खड़ी हो गई थी‌ और उसके कंधे पकड़कर उसे रोका था। उससे लौटने की खूब मिन्नतें की लेकिन उसकी एक ही रट थी, “नहीं फूटो नहीं.. मुझे नहीं खेलना यह खेल।” मुझे याद है उसके चेहरे पर उस समय न गुस्से वाला भाव था और न ही नाराजगी का। फिर यह सोचकर कि यह खेल उसे पसंद नहीं, मैंने उससे चलकर चिबिद्दी खेलने के लिए कहा था। लेकिन उसने अपने कंधों से मेरे हाथ झटक दिए थे, फिर मैं रुआंसी होकर कान पकड़कर उससे बोली थी, “देख सिंहोरा मैं कान पकड़ती हूँ! सच्ची में तुझे नहीं डाटी थी..मैं भी अब यह खेल नहीं खेलुँगी..तू लौट चल।” लेकिन इस पर भी वह नहीं मानी थी और घर चली गई। फिर कभी वह उस बाग में खेलने आई हो, मुझे याद नहीं।

          सिंहोरा के अन्तर्मन से जैसे मेरे मन का जुड़ाव था तभी तो उसके बिना बाग में खेलना मुझे अच्छा न लगता। वहाँ जाने पर मुझे उदासी घेर लेती। उसे बुलाने उसके घर पहुँच जाती। लेकिन कभी वह रसोईं में तो कभी सिर पर गोबर की टोकरी उठाए घूरे की ओर जाती मिलती और कभी तो भाइयों के साथ खेत में काम कर रही होती। मुझे देखते ही बिब्बो समझ जाती कि मैं सिंहोरा को बुलाने आई हूँ। फिर वह मुझे झिड़कती, तुम्हारी तरह मेरी बेटी नहीं कि दिन भर बस खेलना ही खेलना! मेरी बेटी तो शऊरदार है घर के काम कर रही है..भागो यहां से। बिब्बो मुझे तब बहुत घमंडी लगती। लेकिन सिंहोरा जब कभी रसोईं में रोटी सेंकती मिल जाती तो बिब्बो से नजरें बचाकर मैं रसोईं की पटनी के सहारे खड़ी होकर उससे बतिया लेती। पूँछती, 

       “सिंहोरा, तू खेलने क्यों नहीं चलती?”

      पहले तो वह चुप रहती फिर कुरेदने पर ठेपवा की तरह सयानी बनकर बोलती, “देख फूटो, तू नहीं समझेगी..मुझे घर पर बहुत काम है” फिर वह घर के काम गिनाने लगती। उसकी बातों से लगता जैसे बिब्बो ने ही उसे यह सब सिखाया पढ़ाया है और उसके ही डर से वह खेलने नहीं जाती। 

     धीरे-धीरे अब मैंने भी उस बाग में जाना छोड़ दिया था‌। लेकिन सिंहोरा से मिलने का कोई न कोई बहाना जरूर ढूँढ़ती। उन दिनों गाँव में केवल सिंहोरा के घर ही टीवी था। उसके घर पर लोग ‘रामायण’ देखने इकट्ठा होते‌। मैं भी जाती। वहां सिंहोरा शांत और अलग-थलग सी दिखाई पड़ती। जैसे किसी से घुलना-मिलना उसे अच्छा न लगता हो। मेरे बचपन वाली यह सिंहोरा इस तरह बेजान और असहाय दिखाई पड़ेगी मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

             अचानक “मम्मी अब उतरो भी” सुनकर मैं चौंक पड़ी। बेटे ने कार रोकते हुए बोला था। कार से मैं उतरी। बुआ आयी, बुआ आयी कहकर भतीजे, भतीजियां दौड़ पड़े थे। किसी ने बैग उठाया तो किसी ने झोला‌। उनकी खुशी इस बात में थी कि बुआ आयी है तो मिठाई जरूर लाई होगी। मैं घर में चली गई। 

        दिन ढलने को हो आया था। सिंहोरा को लेकर मैं अनमनी थी, सोच रही थी अगले दिन लौटना है तो सिंहोरा से मिलती चलूँ लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रही थी उससे मिलने की! आज देखी उसकी विरूपता को अब फिर दुबारा नहीं देखना चाहती थी। 

        घर के बाहर पेड़ो के बीच पड़े तखत पर आकर मैं बैठ गई। मार्च बीतने को है इन वृक्षों की सिंदूरी कोंपलें धीरे-धीरे हरी हो रहीं हैं। नजर घुमायी तो घर के बगल रास्ते से थोड़ी दूर बहने वाली नदी के दूसरे किनारे पर ध्यान गया‌। वहाँ नदी के करार पर खड़े बड़े-बड़े पेड़ों के पीछे सिंदूरी होते गोल सूरज अपनी दिनभर की थकान मिटाने क्षितिजगामी दिखाई दिए। शहरी जीवन से दूर इस दृश्य में मैं खोई थी कि उस रास्ते से गुजरते ब‌ऊआ ने मुझे देख लिया। सोलह-सतरह साल का यह लड़का गाँव के रिश्ते से भतीजा लगता है। वह मेरे पास आया और पांव छूकर बोला “फुआ पाँव लागी।” आशिर्वाद देते हुए उसे मैंने अपने पास तखत पर बैठा लिया। इधर-उधर गाँव का हाल-चाल पूँछने लगी थी। फिर अचानक से मैंने सिंहोरा के बारे में उससे पूँछ लिया। ब‌ऊआ ने छूटते ही कहा, 

        “अरे फुआ कुछ मत पूँछ...वह बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है..बताने लगूं तो उसकी एक-एक बात कहानी बन जाए…इससे अच्छा था कि अपने ससुराल ही चली गई होती वह…” 

      ब‌ऊआ ने एक सांस में कह दिया। सोलह-सतरह साल के बच्चे के अंतस में सिंहोरा के लिए करुणा की भावना से उपजी पीड़ा थी। उसके अंतस की इस अनुभूति को समझ मैं उसका मुंह ताकने लगी। सोच रही थी, किसी इंसान में प्रेम या ममत्व जैसी भावना होना उतनी बड़ी बात नहीं जितनी बड़ी बात इंसान का कारुणिक होना! बचपन वाली सिंहोरा की बिब्बो खूब मया करती। लेकिन उस बेटी का जब कोई भविष्य न रहा तो वह अपने बेरोजगार बेटे के भविष्य की चिन्ता में पड़ ग‌ई। उसकी यह चिंता बेटी से उसके प्रेम पर भारी पड़ा। बेटी के दुख से अब वह द्रवित नहीं होती। क्योंकि बिब्बो जैसी स्त्रियां प्रेम और ममत्व जैसे भाव उन्हीं के लिए उड़ेलती हैं जिन्हें वे अपने लिए सुपात्र समझती हैं। उनके अंदर की करुणा भी केवल उन्हीं के लिए उमड़ती है। बाकी के लिए ये क्रूर और संवेदनाविहीन बनी रहती हैं। बिब्बो भी कुछ ऐसी ही एक स्त्री थी। लेकिन क्या पता सिंहोरा ससुराल जाती तो वहाँ भी उसकी ऐसी ही हालत होती। मैं जानती हूँ, अधिकार लेने के पीछे जब लालच का भाव हो तो ऐसी ही परिस्थितियां बनती हैं! वैसे तो सिंहोरा इस बात में निर्दोष ही थी लेकिन इन परिस्थितियों में किसी की निर्दोषिता भी उसके अपने पक्ष में वातावरण सृजित नहीं कर पाती और तब यह बात सच हो उठती है कि दुःख उन्हीं के हिस्से में आता है जो निर्दोष होते हैं!

       “अच्छा फुआ मैं चलता हूँ..” मेरी लंबी चुप्पी देख तखत से उठते हुए ब‌उआ ने मेरे पाँव छूकर कहा। ब‌उआ चला गया था। 

       सूरज धरती की आड़ में समाने जा रहे थे। इधर वातावरण के रंग में भी साँझ की कालिख घुलने लगी थी। यकबयक मेरे कदम सिंहोरा के घर की ओर बढ़ ग‌ए। इन कदमों को उधर जाने से मैं रोक नहीं पाई। उसके घर के सामने सन्नाटा पसरा था। दरवाजे पर कम रोशनी का एक छोटा बल्ब टिमटिमा रहा था। रात घनेरी होने पर यह छोटा बल्ब इस दरवाजे से कितना अँधेरा काट पाता होगा? बल्ब को देखकर मैं सोच रही थी। मुझे घर के अंदर जाने में संकोच हुआ। दरवाजे पर ही खड़ी-खड़ी मैं आहट लेने लगी थी‌। वहां छाए सन्नाटे को टूटता न देख मैं मद्धिम आवाज में पुकार बैठी, सिंहोरा….!!!

       फिर कुछ पल बाद दरवाजे से सटी कोठरी से किसी के पदचाप की आवाज आई। उस अँधेरी कोठरी से एक आकृति निकली, जो धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर लगे बल्ब की रोशनी में आकर खड़ी हो गई! मेरे सामने यह सिंहोरा ही थी!! उसके क्लांत और मलिन चेहरे को देखकर मेरे हृदय में फिर एक हूक उठी! सोचा, आगे बढ़कर इसे अँकवार में भर लूँ। लेकिन उसे निश्चल और भावहीन देख मैं ठहर गई! केवल इतना ही पूँछ सकी मैं, ‘मुझे पहचानी नहीं सिंहोरा..?’  

     “फूटो…!” यह आवाज मूर्तिवत खड़ी सिंहोरा की ही थी..हाँ पहचाना था मुझे!! मेरी दृष्टि उसके चेहरे पर स्थिर हो गई। उसके चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि बचपन में उसके अन्तर्मन के जिन गहरे एहसासों का मैंने अनुभव किया था उसकी वह संवेदनशीलता ही आज उसे प्राणांतक कष्ट का अनुभव करा रही है! मुझे ब‌ऊआ का कहा याद आया कि ‘बेचारी तो जैसे अब अपने दिन गिन रही है‌।” एकदम सच कहा था ब‌उआ ने। सामने खड़ी सिंहोरा को देखकर मुझे भी लगा जैसे इस घर में अब उसके जीवन से प्रेम करने वाला कोई नहीं रह गया है उसकी माँ बिब्बो भी नहीं!!

         “फूटो…तू..अब जा…बिब्बो..तुझे..यहाँ देख लेगी..तो..मुझसे झगड़ा..करेगी..भाई..भी” सिंहोरा की कांपती इस मार्मिक आवाज पर मैंने उसकी आँखों में झाँका! वहाँ अथाह समुंदर की लहरें थी!! वेगवती ये लहरें जैसे मेरी ही ओर बढ़ी आ रही थी। एक पल के लिए मैं स्वयं को सिंहोरा समझ बैठी! मुझे सारे दुनियावी रिश्ते-नाते इन लहरों में डूबते-उतराते दिखाई दिए! सहम ग‌ई थी मैं!! लेकिन इन पलों में ही जैसे हम दोनों ने एक-दूसरे से सब कुछ कह-सुन लिया था। मैं अनबोली उल्टे पाँव वहाँ से लौट पड़ी। 

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