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सोमवार, 28 दिसंबर 2015

कोमा में

                                                                   
            ( "कोमा में" - हाँ पिछले दिनों समाचारों में 'कोमा' के सम्बन्ध में एक तथ्य सामने आया था| प्रयोगों में यह सिद्ध हुआ है कि कोमा की एक ऐसी परिस्थिति भी होती है जिसमें व्यक्ति कोमा में तो रहता है लेकिन उसका मस्तिष्क एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह ही चीजों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहता है..जबकि उसका शरीर निष्क्रिय और प्रतिक्रिया विहीन ही रहता है...जरा सोचिए कोमा में ऐसे व्यक्ति की क्या स्थिति होती होगी...

        इसी तथ्य को आधार बनाकर कोमा की इस स्थिति में गुजर रहे एक व्यक्ति के मस्तिष्क में झाँकने का प्रयास प्रस्तुत इस काल्पनिक कहानी के माध्यम से किया गया है|

         यदि आप की भी मर्जी हो तो आप भी मेरे साथ ऐसी स्थितियों में गुजर रहे व्यक्ति के मस्तिष्क में झाँकने का प्रयास करना चाहें तो प्रस्तुत इस कल्पना में गोता लगा सकते हैं)

                                                                 1

             “अरे! ये लोग मुझे कहाँ लिए जा रहे हैं..? ये तो मेरे बाबा और चचेरा भाई हैं...माँ भी तो साथ में हैं और सुमि..! हाँ, सुमि तो आगे-आगे चली जा रही है...गुड़िया के नाना भी साथ में हैं...शायद ये लोग मुझे उठाए हैं...मेरे हाथों और टाँगों को ही पकड़ कर उठाया गया है...कैसे मुझे टाँगे लिए जा रहे हैं..जैसे कोई जानवर...ये मैं घर से बाहर आ गया..! यह ऑटो क्यों खड़ा है..? हाँ..मुझे इसी पर बैठाया जा रहा है...यह मेरे बगल में शायद सुमि ही है...थोड़ा सिर घूम जाता तो सुमि का चेहरा दिख जाता..माँ..दूसरी ओर आकर बैठ गई है...माँ के चेहरे पर अब काफी झुर्रियां उभर आई हैं..मेरी इस हालत से माँ भी दुखी होती होंगी...यह सुमि ही है...वही वाली साड़ी पहने हुए है, जो मैंने तब लाकर दी थी जब गुड़िया पैदा हुयी थी...तो अब इतनी पुरानी साडी सुमि पहनने लगी है..! ये बाबा और चचेरे भाई भी आकर बैठ गए..अब टैम्पो चलने लगी है...
                  ..हम कहाँ जा रहे है...हाँ, जरा सुनूँ तो सुमि क्या कह रही है...किस आफिस जाने की बात कह रही है...यह आफिस क्यों लेकर मुझे जा रही है..? साहब से मिलने..? मुझे लेकर ये लोग साहब से मिलने क्यों जा रहे हैं..? शायद सुमि मुझे पकड़े हुए है..मेरा सिर बहुत झूल रहा है..तभी तो जैसे सब चक्कर काट रहा है...ठीक से देख ही नहीं पा रहा हूँ... ! अब शायद सुमि ने मेरे सिर को अपने कंधे पर टिका लिया है...यह हम जिला कार्यालय की ओर जा रहे है...हाँ टैम्पो उधर ही घूम गया है...यह तो हमारे जिला मुख्यालय का कार्यालय भवन ही है...ये लोग मुझे यहाँ क्यों लाए है..? कल ही तो सुमि बाबा से कह रही थी कि साहब के सामने इनको भी ले चलेंगे...पता नहीं क्यों..आगे मैं नहीं सुन पाया था...
              ...सुमि टैम्पो से उतर गई..अब शायद माँ मुझे पकडे हुए है...सभी टैम्पो से उतर गए..मुझे ये लो खींच रहे हैं...बाप रे..कैसे खींच रहे हैं...जैसे मुझसे किसी को प्रेम ही नहीं है...मैं बोझ बन गया होऊँ ...बोझ ही तो हूँ...लेकिन क्या सुमि भी मुझे बोझ ही मानती होगी..? नहीं..नहीं..यह मैं सुमि के बारे में क्या सोच रहा हूँ...वह तो मेरा कितना देखभाल करती है...! यह क्या..? चचेरे भाई ने मुझे अपने पीठ पर लाद लिया...हाँ बेटू जब छोटा था तो उसे भी हम अपने पीठ पर ऐसे ही लेकर घूमते थे...अरे..! ये मुझे कहाँ लिए जा रहे हैं..? हाँ ये तो बड़े साहब का चैंबर है...साहब भी तो बैठे है..मुझे यहाँ क्यों लाया गया है..?”
               उस समय जिला मुख्यालय के बड़े साहब वहाँ अन्य अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे और अकस्मात उठे हलचल पर उन सभी की निगाहें कमरे में प्रवेश करते अपने चचेरे भाई की पीठ पर लदे अनुज पर पड़ी...अप्रत्याशित से इस दृश्य को देख जैसे सभी हैरान से हो गए लोग कुछ समझ पाते तभी बड़े साहब के मुँह से निकला,
         “यह सब क्या है..?”
           इस बीच पीठ पर से उतार कर अनुज को वहीँ साहब के सामने एक खाली कुर्सी पर उसके चचेरे भाई ने बैठा दिया था...एक क्षण के लिए उस कमरे में जैसे सन्नाटा छा गया और सभी उत्सुकता से अनुज की ओर देखे जा रहे थे..                                                       
                                                              2
           “अरे...सुमि रो रही है..! हाँ माँ भी तो यहीं है..लेकिन रूवांसी क्यों है? अरे बाबा भी यहाँ खड़े हैं...दुखी क्यों हैं..? ये रिश्तेदार..! ये यहाँ क्यों? मुझे देखते हुए ये सब चिंतित क्यों दिखाई दे रहे हैं...? मैं कहाँ हूँ...अरे..! मैं कहाँ हूँ...मेरे हाथ पैर कहाँ गए...? अरे..! पैर के ये पंजे तो हमारे ही हैं...मेरे हाथ...? मेरे हाथ तो झलक रहे...लेकिन ये ठीक से दिखाई क्यों नहीं दे रहे हैं..? पैरों के सामने यह तो नर्स..! हाँ नर्स ही तो है...तो क्या मैं अस्पताल में हूँ...? यह नर्स मेरी ओर आ रही है..! इसने मेरा सिर क्यों घुमा दिया...पत्नी के साथ बच्चे क्यों नहीं हैं क्या वे स्कूल गए हैं...? अरे मैं अपना सिर उस ओर क्यों नहीं घुमा पा रहा हूँ ..? उससे मैं कैसे बातें करूँ...? हे भगवान..! यह सब मेरे साथ क्या हो रहा है...? वो कौन आ रहा है..? सब को यहाँ से हटने के लिए इशारा क्यों कर रहा है...? इसके गले में आला...! यह तो मेरे ही सामने आ कर खड़ा हो गया...ये कुछ कह रहे हैं....इनकी आवाज धीमी क्यों है...? सुनाई पड़ा..! ये सब को यहाँ से जाने के लिए कह रहे हैं....क्या ये डाक्टर हैं..? अरे यह क्या हो गया मुझे....? डाक्टर कुछ कह रहे हैं..
                 ...तो क्या मैं अस्पताल में हूँ..? अजीब मजाक है...मैं होश में नहीं हूँ...तो..तो..बेहोश ही कहाँ हूँ...? मेरा इलाज लम्बा चलेगा...? ठीक तो हूँ मैं..! फिर किस बात का इलाज चलेगा...? लेकिन यह डाक्टर मेरे पास क्यों आया है..? यह अस्पताल..! मैं यहाँ कब से हूँ..क्यों हूँ? आखिर मेरे साथ हुआ क्या था..?
                 हाँ...हाँ..! कुछ याद आ रहा है...उस दिन..! हाँ याद आया...बहुत नाराज थे वे तुरंत पहुँचने के लिए मुझसे कहा था...मोटर साइकिल से ही जा रहा था...अरे..हाँ ठीक याद आया...उस समय मैं बहुत तेज़ था..वह ट्रक..! बाप रे..!! वह तो ठीक सामने आ गया था ...!! मैंने तो तुरंत ब्रेक लगाईं थी...इसके बाद क्या हुआ...इसके बाद क्या हुआ..क्या..आ..अ..हुआ...पता नहीं क्या हुआ था...आखिर मैं कहाँ हूँ? क्या मैं जिन्दा हूँ...! ट्रक से बच गया...? वाह रे भगवान्...तूने बचा दिया...कहीं दर्द भी तो नहीं हो रहा है...क्या चोट नहीं लगी...? डाक्टर साहब से पूँछना पड़ेगा...
              ...डाक्टर साहब..डाक्टर साहब...अरे यह डाक्टर तो जैसे सुन ही नहीं रहे हैं...मैं इतनी तेज़ चिल्ला रहा हूँ फिर भी...लेकिन नहीं...मुझे भी तो अपनी आवाज नहीं सुनाई दी...तो..तो क्या..मैं बोल नहीं पा रहा...? अरे..यह क्या..मेरे होठ भी नहीं हिल रहे! मैं अपने हाथ-पाँव और शरीर को भी तो नहीं हिला पा रहा...! यह नर्स और डाक्टर मिलकर मुझे ठेल क्यों रहे हैं...मुझे पलटा जा रहा...हे भगवन यह सब क्या हो रहा..? हाँ यह तो अस्पताल ही है...इस ओर इतने सारे बेड....सब भरे पड़े हैं...तो मैं अस्पताल में ही हूँ..!”
           “अरे भाई आप लोग मरीज को ऐसे ही घेरे रहेंगे तो फिर मरीज का इलाज हम नहीं कर सकते...इन्हें होश में लाने के लिए अभी बहुत इंतज़ार करना होगा...इलाज लम्बा भी चल सकता है..वार्ड में इतनी भीड़ लगाने के लिए किसने कह दिया...चलिए हटिये आप लोग...” डाक्टर ने अनुज के आस-पास खड़े लोगों से उस समय यही कहा था जिसे अनुज ने भी सुन लिया था| इसके बाद डाक्टर और नर्स ने अनुज को करवट के बल लिटा दिया था|
              उसी समय अनुज की पत्नी सुमि डाक्टर के पास पहुँची..डाक्टर ने बताया कि वे मरीज को अभी-अभी इंजेक्शन दे दिए हैं और मरीज होश में नहीं है| अनुज की पत्नी के यह पूँछने पर कि आखिर इन्हें होश कब आएगा..तब डाक्टर ने कहा-
                “देखिये कोमा के मरीज के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता...हप्तों, महीनों, साल या हो सकता है होश आए भी न...लेकिन हमें आशा नहीं छोडनी होगी...हम अपना पूरा प्रयास कर रहे हैं...देखिये आप रोइए न...मैंने आपको इसलिए यह सब बताया कि यह एक दिन का मामला नहीं है...” डाक्टर ने कहा|
              “लेकिन डाक्टर साहब ऐसा क्या हो गया इनको..शारीर से तो ये ठीक हैं कहीं चोट के निशान भी नहीं बस माथे पर थोडा खरोंच जैसा है...” कहते हुए सुमि सिसक रही थी |
              डाक्टर ने फिर कहा.. “देखिए ट्रक से बचने के लिए जब इन्होंने ब्रेक लगाया होगा तो सिर के बल जमीन पर गिरे होंगे..और इनके सिर के अंदरूनी हिस्से पर गहरी चोट लगी इसी कारण ये कोमा में चले गए...अब आप को धैर्य रखते हुए इंतज़ार करना होगा...” यह कहते हुए डाक्टर वहाँ से चले दिए|
          और इधर इलाज के कारण अनुज का दिमाग सो गया...लेकिन उसकी आँखे खुली हुई थी...उसकी पत्नी सुमि पास जाकर ध्यान से अनुज की आँखों को देखने लगी..जैसे अनुज की आँखों में झाँकने का प्रयास कर रही हो..अनुज की पुतलियाँ स्थिर थी..लेकिन  अनुज का दिमाग दवाओं के प्रभाव के कारण इस समय निद्रा की स्थिति में आ गया था...उसके मस्तिष्क में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई|
            अनुज कोमा में था..कोमा की यह भी एक स्थिति होती है...यह वह स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति का मस्तिष्क तो काम करता रहता है लेकिन शरीर में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती यहाँ तक कि दर्द का भी अनुभव नहीं होता...लेकिन व्यक्ति का दिमाग चैतन्य रहता है...व्यक्ति अपने आस-पास को देखता रहता है और मरीज को सुनाई भी देता है, चीजों के प्रति दिमाग प्रतिक्रिया करता रहता है...अनुज की यही स्थिति थी...! दुर्घटना के लगभग एक माह बाद अनुज का दिमाग चेतन हुआ था...लेकिन शरीर वैसे ही निष्क्रिय था...उसकी पत्नी सुमि के जैसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था...
             सुमि सोच रही थी-
           “आखिर यह सब क्या हो गया..अगर ये ऐसे ही रहे तो आगे का जीवन कैसे चलेगा...इन्होंने कोई बहुत पैसा भी तो नहीं जमा करके रखा है कि जीवन कटेगा...फिर इलाज कितना मँहगा है..! जो कुछ बचत है वह तो इलाज में ही खर्च हो जाएगा...बच्चों की पढ़ाई लिखाई सब कैसे चलेगा...! आगे सब कैसे होगा...हे भगवान! इन्हें होश आ जाए..|”
              धीरे-धीरे चार महीने हो चुके हैं अनुज का अस्पताल में इलाज होते हुए| दवाईयाँ बहुत मँहगी हैं, अब तक इलाज में बहुत पैसा खर्च हो चुका है| लगभग सारी जमा-पूँजी अनुज के इलाज में खर्च हो चुकी है| अब तक अनुज की पत्नी ने अनुज के इलाज के लिए अपने सारे गहने भी बेंच चुकी है...गाँव में बहुत खेती-बाड़ी नहीं थी जो थी भी उसे भी अनुज के इलाज के चक्कर में गिरवी रखा जा चुका था|
         
             पति के इस अवस्था में पहुँच जाने के कारण सुमि जैसे अंतहीन समस्याओं के बोझ तले दब गयी थी..आज वह बहुत चिंतित थी....आखिर कब तक अनुज को इस अस्पताल में रहना पड़ेगा...अब तो पैसे भी ख़तम हो रहे हैं...वह आज डाक्टर से इस सम्बन्ध में बात जरुर करेगी...यही सोचते हुए वह अस्पताल की ओर चल पड़ी थी|
        
             “ये खिड़की पर धूप पड़ने लगी..तो दिन निकल आया है...कब तक मैं अस्पताल में रहुँगा? मेरी कोमा की स्थिति कब ठीक होगी...ठीक होगी भी या नहीं...उस दिन..उस दिन..! गाँव से चाची आई थी...सुमि से कैसे बाते कर रही थी...? कह रही थी कि मैं जिन्दा लाश हूँ...तब कैसे गुड़िया की मम्मी रोने लगी थी...वैसे चाची को गुड़िया की मम्मी से ऐसा नहीं कहना चाहिए था...तो क्या मैं सही में जिन्दा लाश हूँ? हाँ कोमा में हूँ...डाक्टर भी कह रहे थे...लेकिन मैं कोमा में कहाँ हूँ...मुझे तो नहीं लगता...! मेरी गुड़िया कैसी होगी..? अभी तक सुमि नहीं आई है...बेचारी..! सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल भेजने में व्यस्त जो रहती है”
          
         अनुज को इतने दिनों में अहसास हो गया था कि वह कोमा की स्थिति में है...और अस्पताल में भरती है..उसका इलाज चल रहा है...अनुज को इस समय बाएँ करवट लिटाया गया था...उसका चेहरा अस्पताल के इस वार्ड के दरवाजे के सीध में उसी ओर ही था...वह दरवाजे से इस वार्ड में आने-जाने वाले किसी भी व्यक्ति को देख सकता था...उसी समय अनुज को पत्नी आती हुई दिखाई दी...
         
        “ओ...आ गई...मेरी गुड़िया की मम्मी आ गई...मैं कितनी देर से इंतज़ार कर रहा था...तब से जब खिड़कियों पर धूप नहीं आई थी...काश! सुमि हमारे पास ही रहती...अरे साथ में गुड़िया भी है..! क्या गुड़िया स्कूल नहीं गई? साथ में बेटू नहीं हैं...हो सकता है बेटू स्कूल गए हो...” पत्नी और बेटी को देख अनुज का दिमाग सक्रिय हो गया...
         
        “अरे गुड़िया के बाल इतने उलझे क्यों हैं...? सुमि को कम से कम गुड़िया के बाल में कंघी तो कर देना था..कभी-कभी सुमि भी लापरवाही कर जाती है...देखो बिटिया के बाल कितने बेतरतीब ढंग से उलझे हैं...महीनों से तेल कंघी ही न किया गया हो...सुमि! तुम तो ऐसे नहीं थी..बच्चों का कितना ख़याल रखती थी”
          
         लेकिन अनुज के मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी, हाँ, उसके बोल नहीं फूट पाए...होठ तक नहीं फड़फड़ाए..! बस अपनी ठस सी आँखे लिए स्थिर पुतलियों से पत्नी और बेटी को अपनी ओर आते देखता रहा..उसे अपनी स्थिति का आभास हो गया...वह रोने लगा..लेकिन उसके आँसू भी नहीं निकल रहे थे...बाहर से उसका चेहरा भावहीन और निर्विकार सा सपाट ही था..! पत्नी आकर बेड के एक किनारे बैठ गई थी जबकि बेटी पापा अनुज के आँखों के सामने खड़ीं हो उनके चेहरे पर अपनी निगाहें टिका दी...
        
         “मेरी बिटिया...मेरी प्यारी बिटिया...! आओ..मेरी गोंदी में बैठ जाओ...अरे..! तुम ऐसे खडी देखती रहोगी...अपने पापा से ऐसी दूरी...पहले तो आफिस से आते ही गोंदी में चढ़ जाती...गले में बाहें डाल लटक जाती...अब क्या हो गया...मैं अजनबी नहीं हूँ..तुम्हारा पापा हूँ..वही पापा...! देखो...मेरी ओर देखो...दूसरी ओर नहीं..देखो न तुम्हें कितने दिन बाद देख रहा हूँ...आओ मैं तुम्हें अपने गले लगा लूँ...लेकिन नहीं..नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता...मैं कोमा में हूँ...हे भगवन यह सब क्या है....यह कैसी घुटन...मेरा तो दम घुटा जा रहा है..! हे भगवान्...इस घुटन से तो मौत ही अच्छी..!!” अनुज का मस्तिष्क चैतन्य था!
        
        इधर सुमि पति के पास बेड पर ही बैठी थी...उसकी निगाह अनुज के चेहरे पर थी..लेकिन अनुज पत्नी के चेहरे को नहीं देख सकता था क्योंकि न तो वह सिर घुमा सकता था और न ही आँखों की पुतलियों को..! अचानक सुमि ने देखा कि पति के मुँह से लार बह रहा था जो बिस्तर को गीला करता जा रहा था...वह धीरे से बेड से उतर अनुज के सामने फर्श पर बैठ गई और रुमाल से अनुज का मुँह साफ़ करने लगी,
       
        “सुमि क्या कर रही है...शायद मेरे चेहरे पर रुमाल घुमा रही है...हाँ कुछ लग गया होगा उसी को साफ़ कर रही होगी...अरे..सुमि तो मेरे सामने ही बैठ गई...हाँ सुमि...ऐसे ही तुम मेरे सामने बैठी रहो...अरे यह क्या...! कान के बाली कहाँ गए...गले में जंजीर भी तो नहीं पहना है..दीपावली पर ही तो बनवाकर दिया था...! अरे माथे पर बिंदी भी नहीं लगाया..सिन्दूर भी नहीं..हे भगवान् यह क्या...यह कैसी सूरत बना रखी है सुमि ने..! अभी तो मैं जिन्दा हूँ...सुमि! बताओ न ऐसी सूरत क्यों बना लिया है?”
          
       अनुज रोने लगा था...पति की दिमागी चेतना से अनभिज्ञ सुमि पति के चेहरे पर नजर गड़ाए हुए थी...सुमि ने धीरे-धीरे कर अपने को कठोर कर लिया था...लेकिन पता नहीं क्यों आज पति की ओर देखते उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े...जैसे पति के ही आँखों के आँसू उसकी आँखों से बह निकले हों..!
         
        “सुमि भी रोने लगी...! नहीं..नहीं सुमि तुम तो मत रोओ...तुम्हारे रोने से मैं दहल जाता हूँ.....देखो..! देखो मैं..मैं अन्दर से कितना ठीक हूँ...हाँ अन्दर से कितना ठीक हूँ..मत रोना सुमि...ये शायद डाक्टर आ गए..! सुमि खड़ी हो गई...डाक्टर से बात करना चाह रही हो...लेकिन ये डाक्टर क्या कर रहे हैं...इनका हाथ मेरे चेहरे पर क्यों पड़ रहा है...शायद मेरे गालों पर थपकी दे रहे हैं...अरे..जैसे सब घूम रहा हो..”
       
        डाक्टर ने अनुज के गालों को थपथपाते हुए चेहरे को दो तीन बार घुमाया फिर अनुज की पत्नी सुमि से बातें करने लगे....
        
       “देखिए वैसे हम अभी निराश नहीं हैं...इनका हम जो उपचार कर रहे हैं अभी इसी को चलाना होगा...इनके शरीर में अभी तो वैसे कोई हरकत नहीं है...लेकिन जीवन आशा पर ही टिका है..”
        डाक्टर की बीच में आवाज काटती हुई सुमि ने पूँछा-
       
      “डाक्टर साहब इतने दिन हो गए अभी इनमें कोई सुधार का लक्षण भी नहीं दिखाई दिया....ऐसे कब तक चलेगा...?”
        
       “देखिये अभी तो हम भी कुछ नहीं कह सकते लेकिन कम से कम साल भर तक यह इलाज चलाना चाहते हैं, तभी फाइनली हम कुछ कह पाएंगे..” डाक्टर ने कहा था|
       
        “क्या..? सालभर! अरे डाक्टर साहब लगभग चार महीने होने आ रहे हैं हमारे सारे पैसे ख़तम हो गए...यहाँ तक कि हमने अपने सारे गहने भी बेंच दिए हैं...अब तो पैसा भी नहीं बचा है..कैसे हम साल भर इलाज करा पायेंगे...अब तो खाने के भी लाले भी पड़ने लगे हैं..” सुमि ने बेहद दुखी भाव से कहा|
       
       “देखिए यह क्रुसिअल समय है...मेरी राय है इसी तरह यह इलाज साल भर चलना चाहिए..और हाँ ये सरकारी आदमी हैं...मैं इनके इलाज में अब तक हुए खर्च की रसीदें दिला देता हूँ आप इनके विभाग से क्लेम कर लीजिए जिससे आगे भी इलाज चलता रहे..” कहते हुए डाक्टर दूसरे रोगी के बेड की ओर मुड़ गए|
        
        “तो सुमि ने अपने गहने भी बेंच दिए मेरे इलाज के लिए...मुझमें सुधार भी नहीं हुआ..! हे भगवान् यह कौन सा तमाशा मेरे साथ कर रहे हो...अरे डाक्टर तुम मन में क्या सोच रहे हो मैं यह भी बता सकता हूँ..और कहते हो कि मुझमें कोई हरकत नहीं...हाय मेरी सुमि तुम्हें यह कौन सा दिन देखना पड़ रहा है...मेरी गुडिया बेचारी..बेसहारे बच्चे की तरह अब मुझे देख रही है...अब मुझसे नहीं देखा जाएगा...मैं मरते हुए जिन्दा हूँ...भगवान मुझे मार ही डालो...”
        
        ऐसी प्रतिक्रिया देते हुए इस समय अनुज का मस्तिष्क सक्रिय था कि ठीक उसी समय एक नर्स ने अनुज को कोई इंजेक्शन लगाया और अनुज की चेतना धीरे-धीरे सुषुप्तावस्था में पहुँच गई|
                                       3
         
        डाक्टर ने सुमि को अनुज का मेडिकल क्लेम ले लेने के लिए सलाह दिया था जिससे अनुज का आगे भी अस्पताल में ही इलाज चलता रहे| यही सोचकर मेडिकल क्लेम के कागजों के साथ सुमि उस दिन उस क्षेत्रीय कार्यालय गई थी जहाँ उसके पति काम करते थे| पति के चिकित्सा प्रतिपूर्ति के लिए एक फ़ाइल में रखे कागजों को सम्बंधित लिपिक को देते हुए वह उससे बोली-
        
        “इसे जल्दी से बड़े साहब के पास भेज दीजिए...पैसा मिल जाएगा तो इनका इलाज चलता रहेगा..डाक्टर ने भी यही कहा है कि यह इलाज चलना अभी जरुरी है...शायद होश आ जाए..”
       
        पहले तो वह लिपिक कुछ क्षणों तक सुमि को सिर से पाँव तक ध्यान से देखता रहा फिर फ़ाइल में रखे पन्नों को देखना शुरू किया और सभी पन्नों को उलट लेने के बाद उसने सुमि से कहा,
       
         “देखिए ये तो हैवी अमाउंट के बिल हैं..इन्हें पास करवाना तो मुश्किल होगा...”
         
                 “मुश्किल क्यों..?” सुमि ने हैरानी जताते हुए पूँछा|
      
        “नहीं..बात यह है कि ये लगभग दो लाख के बिल हैं...वो समझेंगे कि इसमें कुछ फर्जी होंगे...पास होने में आनाकानी करेंगे..” सुमी की ओर देखते हुए लिपिक ने ये बाते कही|
      
        “फर्जी..! फर्जी कहाँ से..? ये सब डाक्टर साहब ने ही दिया है...चार महीने से तो अस्पताल में ही भर्ती हैं..सारा पैसा खर्च हो चुका है...अगर यह पैसा मिल जाएगा तो आगे इलाज चलता रहेगा...अभी पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े..वहाँ तो सब पैसे का ही खेला है और...?” कहते हुए सुमी अपने आँसू पोछने लगी और पुनः बोली,
      
        “वे यहीं पर तो काम करते थे...आप ऐसा बोलते हो कि फर्जी बिल है..! आप लोग जैसे कुछ जानते ही नहीं...”
      
       “हाँ, सब पैसे का ही तो खेला है...हम सब जानते हैं..हमें क्या..लाइए! हम कागज़ को ऊपर भेज देते हैं..वो भी आपत्ति लगा कर वापस करते रहेंगे...पता नहीं कितना दिन लगे..पैसा मिले या न भी मिले” लिपिक ने कहा|
        
        “तो हम क्या करें..? आप ही बताओ...किसी तरह जल्दी पैसा मिल जाए तो उनका इलाज चलता रहेगा...नहीं तो अस्पताल से निकाल कर फिर घर लाना पड़ेगा...” सुमी की सिसकियाँ तेज़ हो गई थी|
        
        “देखो ऊपर बिना लिए-दिए कोई काम नहीं होता..इसे ऐसे ही भेज देंगे लेकिन वे तो समझेंगे ही कि मैंने जरुर कुछ लिया होगा...और फिर जब तक वे पायेंगे नहीं तब तक काम भी नहीं करेंगे...वैसे जितने का बिल है इसे पास कराने का बीस हजार होता है लेकिन किसी तरह पंद्रह हजार में करा देंगे...” कहते हुए लिपिक ने सुमि की ओर देख मनोभाव पढ़ने लगा|
        
         सुमि सरकारी कार्यालयों का हाल जानती थी और उसका पति अनुज कभी-कभी इन बातों की उससे चर्चा भी करता रहता था| सुमि ने तत्काल लिपिक के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया वैसे भी मरता क्या न करता जैसी स्थिति उसकी थी| दूसरे दिन सुमि पति के इलाज के लिए बेंचे गए अपने गहनों के मिले रुपयों में से पंद्रह हजार लाकर उस लिपिक को दे दिया| रुपये देते हुए सुमि ने उस लिपिक से कहा-
        
         “देखिए किसी तरह एक महीने भर में पैसा मिल जाए...नहीं तो उनका इलाज..!” सुमि की इस बात को लिपिक ने बीच में ही काटते हुए कहा,
         
         “अरे नहीं आप चिंता न करो...इस काम को मैं करा दूंगा..” और नोटों को धीरे से अपनी जेब में खिसका लिया|
         
         सुमि को धीरे-धीरे कर लिपिक को पैसा दिए हुए एक माह से अधिक हो चुका था लेकिन अभी तक मेडिकल क्लेम की स्वीकृति के सम्बन्ध में उसे कुछ पता नहीं चल पाया था| इस सम्बन्ध में जब सुमि ने पति के कार्यालय जाकर पता किया तो लिपिक ने बस कुछ ही दिनों में पैसों के मिल जाने की बात बताई| लेकिन इधर अब अस्पताल में पति के इलाज का खर्च वहन करना उसके वश में नहीं था| उसने पति को हास्पिटल से निकालने का फैसला कर लिया था| इस निश्चय के साथ ही वह डाक्टर से मिलने पहुँची थी...
         
         “मुझे लगता है कि यदि इन्हें हॉस्पिटल में ही रहने दिया जाता तो इलाज और बेहतर ढंग से चल सकता था..” डाक्टर ने कहा|
        
        “देखिए डाक्टर साहब...अब हमारे पास पैसा ही नहीं बचा है..सरकार से भी अभी नहीं मिला..अब तो बच्चों के लिए खाना जुटाने में भी समस्या हो गई है...इनका वेतन भी नहीं मिल रहा है...ऐसे में अस्पताल में रह कर इलाज कराना...कैसे हम इलाज कराएँ?” सुमि ने डाक्टर से जैसे कुछ सोचते हुए कहा था| अंत में सुमि ने अनुज को अस्पताल से निकाल लिया था|
         
                                                                               4
         
          “यह मैं कहाँ हूँ...? जैसे अपना घर हो...हाँ अपना ही तो घर है..! कब आया यहाँ...? तो क्या सुमि ने मुझे अस्पताल से निकाल लिया..? मैं ठीक..! लेकिन नहीं...अभी भी उस ओर देख नहीं पा रहा..वैसे ही तो हूँ...अभी तो ठीक नहीं हुआ..! फिर क्यों सुमि ने मुझे अस्पताल से निकाल लिया...? हाँ..आँगन वाले बरामदे में ही तो लेटा हूँ...इसके पीछे वाला कमरा हमारा ही होगा...आँगन की दीवालों पर धूप इतना चढ़ गया है..! इस समय जरुर दिन के इग्यारह बज रहे होंगे...!! बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं....शायद स्कूल गए होंगे...और सुमि कहाँ है...? भगवान्..! यह घुटन कैसी..जैसे मेरा सांस फूल रहा हो...सुमि..हाँ सुमि..! तुम्ही आ जाओ मेरे सामने..तुम्हें देखता रहूँगा तो कम से कम यह घुटन नहीं होगी...अरे..वाह..! सुमि आ रही है...शायद मेरे ही पास आ रही है...!! बिलकुल वैसे ही...देखो न मेरी सुमि का चेहरा कितना उलझा है..? आओ...आओ सुमि...मेरे पास आओ...यह...यह..सुमि के पीछे कौन..निलेश..? अरे..? सुमि मेरे पास ही खड़ी सिसक रही है..! सुमि...मैंने कहा न मैं ठीक हूँ...रोती क्यों है..? अरे.! यह निलेश सुमि के एकदम करीब क्यों खड़ा है...? सुमि से कुछ कह रहा है...”
        
      “देखो सुमि मैंने तुमसे पहले ही कहा था...लेकिन..तुम तो कुछ मुँह खोलती ही नहीं...चलो..तुम न कहो सही...लेकिन...मैं इलाज में कुछ पैसों से तुम्हारी मदद कर दुँगा....चिंता मत करो...वैसे कोमा की स्थिति जिन्दा लाश के ही समान होती हैं...न कुछ सुनना..न समझना..केवल जिन्दा होने का धोका..”
         
         और यह कहते हुए सुमि के बेहद ही करीब खड़े निलेश ने धीरे से सुमि के कंधे पर अपने हाथ रख दिए..! सुमि चौंक उठी...उसने झटके से निलेश के हाथों को अपने कंधे पर से हटा दिया और उससे थोड़ी दूरी बनाते हुए खड़ी हो गई...|
        
         “देखो...देखो...यह निलेश.. सुमि से क्या कह रहा है...मैं जिन्दा लाश हूँ..? यह तुमने कैसे कह दिया निलेश..! हाँ...जिन्दा लाशें भी सोचती हैं...जिन्दा लाशों में भी जान होती है निलेश..! इसे तुम जैसे लोग न समझ पाओ तो यह तुम्हारा ही दोष है, इन जिन्दा लाशों का नहीं..! और यह तुमने क्या कहा..? सुमि मुँह खोलती तो तुम अहसान कर देते...! मेरी सुमि ने एक बार मुझसे कहा था...हाँ, मुझे याद आ रहा है, सुमि ने यही कहा था, ‘देखिए, ये जो निलेश है न, इनकी नीयत ठीक नहीं...’ वाकई तुम्हारी नीयत ठीक नहीं निलेश..!! सुमि तो आत्मसम्मानी है...हाँ सुमि तुमने ठीक किया....निलेश के हाथ को अपने कंधे से हटाकर..! ऐसे लोग जिन्दा लाशों की मदद नहीं करते...मदद का धोखा ही पैदा करते हैं...और ये जिन्दा लाशों को ही नोचते रहते हैं...इन्हें जिन्दा लाशों को देख ख़ुशी होती है...दुगुनी ख़ुशी..! साथ में किसी की बेबसी की भी..!”
        
         इस बीच निलेश वहाँ से चला गया था... सुमि ने आँचल से अपने आँसू पोंछे और इसी आँचल के कोने से पति अनुज के मुँह से बह आए लार को पोंछते हुए अपने आँचल से ही अनुज के चेहरे को भी जैसे साफ़ किया...तभी अनुज के दोनों बच्चे वहाँ पर आ गए दोनों ने अपने पिता को बड़े ध्यान से देखा....दोनों वहीँ अनुज की चारपाई पर ही बैठ गए थे...उनमें से कोई कभी अनुज का हाथ छूता तो कभी माथा, जैसे दोनों बच्चे अनुज से बात करना चाह रहे हों...बेटी गुड़िया तो पिता के सिर के बालों में अपने हाथ फेरने लगी थी...लेकिन अनुज कोमा में था...वह स्पर्श का अनुभव नहीं कर पा रहा था...वह अपनी मानसिक भावनाओं का प्रकटीकरण शब्द और शारीरिक प्रतिक्रिया के माध्यम से नहीं कर पा रहा था...फिर भी उसका मस्तिष्क चैतन्य था...वह अन्दर ही अन्दर जैसे एक भयानक मानसिक तूफ़ान का सामना करता जा रहा था और उसके ये असहनीय से तीक्ष्ण मानसिक आवेग तेज हवाओं के थपेड़ों के समान उसे बेबस कर रहे थे जैसे कोई तेज हवा के झोंकों में भी स्वाँस न ले पा रहा हो और इन हवाओं के बावजूद उसका दम घुटा जा रहा हो...कुछ ऐसी ही अपनी चेतना के भँवरजाल में अनुज फँसा था..!
        
         “निलेश चला गया... सुमि अपनी साड़ी से ही शायद मेरा चेहरा साफ़ कर रही है..अरे ये क्या मेरे बच्चे भी आ गए..? आज स्कूल नहीं गए होंगे...हाँ..मैं देख पा रहा हूँ...मेरे बच्चे मुझे ध्यान से देख रहे है...अपने पापा को इस हालत में देख इनपर क्या बीतती होगी..? मेरे दोनों बच्चे...मेरी चारपाई पर ही बैठ गए...काश ! मेरे हाथ उठते तो इनके सिर पर रख देता...मेरे बच्चों मैं बेबस हूँ...अरे मेरी बच्ची गुड़िया..यह तुम क्या कर रही हो..शायद तुम अपनी हथेलियाँ मेरे सिर के बालों में फिरा रही हो..तुम अपने पापा से इतना प्यार करती हो...हे भगवान् मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ...हाय मेरे बच्चे...नहीं..नहीं...तुम लोग पापा की चिंता न करो...तुम्हारा पापा ठीक हो जाएगा...इन्हें कैसे सांत्वना दूँ... सुमि कहाँ हो...बच्चों को समझाओ...इन्हें खूब प्यार करना...इतना कि मुझे भी भूल जाएँ...अरे सुमि  यह तुम्हारे ही हाथ है...शायद मेरे मुंह में..शायद दावा पिला रही है...”
        
        अनुज का अंतर्मन जार-जार रोए जा रहा था...लेकिन ऊपर से वही भावहीन ठस सा सपाट उसका चेहरा ! दवा के प्रभाव से धीरे-धीरे उसकी चेतना सुषुप्तावस्था में पहुँचने लगी|  
        
          हालाँकि अब अनुज का जैसे-तैसे कर इलाज घर पर ही चल रहा था...दवाओं के प्रभाव में अनुज की चेतना अकसर सुषुप्तावस्था में ही रहती| लेकिन दवाओं का प्रभाव कम होते ही उसका मस्तिष्क पुनः चैतन्य हो उठता था| अनुज के दोनों बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे, लेकिन आजकल फीस न जमा हो पाने के कारण स्कूल से उनका नाम काटा जा चुका था इसलिए वे घर पर ही रह रहे थे| कुछ इसी तरह की दिनचर्या इस परिवार की गुजर रही थी, हाँ कभी-कभी जान-पहचान या रिश्तेदार इनकी खोज खबर लेने के लिए आ जाते थे|
         
           पति को करवट के बल लिटाकर और पीठ के पीछे तकिया का सहारा दे आज पति के पास ही जमीन पर ही सुमि कुछ उदास सी बैठी हुयी थी, उसे आगे पति के इलाज और बच्चों को स्कूल भेजनें की चिंता सताये जा रही थी| हाँ, बच्चे भी गाहे बगाहे उससे पूँछ लेते मम्मी हम स्कूल कब जायेंगे? लेकिन सुमी अधिकतर मौन ही रहती कुछ बोल न पाती, फिर भी बच्चे माँ के आँसू देख समझ जाते| कभी-कभी वह बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने की बात सोचती लेकिन उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि वह ऐसा कर सके| क्योंकि जो बच्चे इतने अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ते आ रहे हों वे साधारण से सरकारी स्कूल में पढ़ने जायेंगे तो बच्चों के मन पर क्या बीतेगी और फिर यह समाज क्या सोचेगा? ऐसी ही बातों को  सोच वह मन मसोस कर रह जाती और जैसे समय का इंतज़ार करने लगती...|
         
        सुमि कुछ अपने इन्हीं विचारों में खोई पति के पास ही गुमसुम सी बैठी हुई थी| तभी सुमि का बेटा जो गुड़िया से बड़ा था माँ के पास आया और एक नजर पिता के ऊपर डालते हुए माँ के गले में बाँहे डाल झूलते हुए सा बोला, “मम्मी..हम स्कूल कब जायेंगे...? फीस जमा कर दो न...कई दिन हो गए हैं स्कूल गए..!”     
         
         एक पल सुमि ने पुत्र के चेहरे को देखा, फिर अगले ही पल..! पुत्र को अपने से परे हटाते हुए और जैसे चीखती सी आवाज में झिड़कते हुए बोली,
        
       “कितनी बार कह चुकी हूँ कि घर पर ही रह कर पढ़ा करो...लेकिन मेरी तो सुनते ही नहीं...कहाँ से फीस जमा करें..इलाज करायें कि फीस जमा करें...”
         
         इस आवाज को सुन गुड़िया भी दौड़कर माँ के पास आ गई और माँ के पीछे ही खड़ी होकर सहमे हुए भाई को देखने लगी थी...हाँ उसने भी भैया की बात सुन ली थी उसका भी तो मन स्कूल जाने का होता था..लेकिन माँ बात सुन वह भी सहम गयी थी, इधर सुमी की सिसकियाँ सुनाई पड़ने लगी थी|
       
        जब सुमि अनुज को करवट के बल लिटा रही थी तभी अनुज की मस्तिष्कीय तन्द्रा जाग्रत हो चुकी थी,
              
         “अरे सुमि क्या कर रही है...अच्छा...हाँ सुमि मेरे पास ही बैठ गयी है...देखो यह कितनी उदास है..ये..ये...मेरे बेटू...देखों न माँ के गले में कैसे हाथ डाले झूम रहे है...शायद कुछ कह रहे हैं...अरे सुमि बेटू को धकेल सी क्यों रही है..? अरे..सुमि बेटू से गुस्से में है..? हे भगवान्..!! यह क्या बच्चों का नाम स्कूल से कट गया है...फीस के पैसे नहीं...मेरा इलाज....यह सब मैं क्या सुन रहा हूँ...सुमि रो रही है...देखो...देखो..गुड़िया भी अपने माँ के पीछे कैसे सहमी खड़ी है...मेरे परिवार का अब क्या होगा...मेरे बच्चे...!!”
         
        अनुज अपने परिवार की यह दशा बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था| उसकी इस मानसिक चेतना ने उसके ह्रदय की बढ़ती धड़कनों को भी जैसे एहसास कर लिया था| इन क्षणों में वह अपने सीने को अपने हाथों से दबा लेना चाहता था लेकिन चेतना को छोड़कर शरीर तो उसका निष्क्रिय ही था! मन ही मन घुटने के सिवा उसके पास कोई विकल्प ही नहीं था| तभी दरवाजे से जो उसके ठीक चेहरे के सामने ही था, चाची आते दिखाई पड़ी!
       
         “हाँ..चाची के सारे बाल सफ़ेद हो चुके हैं...बुढ़ापा उनके चेहरे पर पसर चुका है...जब चाची आई थी तब वह छोटा ही था...एक बार माँ ने बताया था कि बिना चाची को देखे वह दूध नहीं पीता था...चाची सुमि के पास बैठ गयीं...सुमि को कुछ देर के लिए ही सहीं कुछ सांत्वना तो मिल जायेगी...चाची मेरी ओर देख रही हैं...” चाची को देख अनुज अपने त्रासद मानसिक आवेगों को कुछ क्षणों के लिए जैसे भूल गया...
         
        चाची ने एक उड़ती हुई सी निगाहें अनुज पर डाली...अपने प्रियजन को ऐसी स्थिति में किसी को देखने की इच्छा नहीं होती...क्योंकि देखने से जो तड़प उठती है लोग उससे बचना चाहते है...सुमि के पास बैठते हुए चाची ने हाल-चाल पूँछा...इस बातचीत में चाची को एहसास हुआ कि सुमि इन दिनों आर्थिक समस्या से भी घिरी हुई है...बातों ही बातों में चाची ने सुमि से कहा, “बिटिया...अनुज के चाचा तो कह रहे थे कि इलाज का खर्चा सरकार देती है..?” फिर सुमि ने चाची को सभी बातें बताते हुए बोली, “लेकिन चाची अभी सरकार से पैसा नहीं मिला है..”, “तो जा एक बार पता तो कर ले..” चाची ने कहा|
       
          सुमि ने अगले दिन अनुज के कार्यालय जाने का निश्चय किया| इधर अनुज की दिमागी तन्द्रा दवाओं के असर से शांत हो चुकी थी|
                                      
                                                                          5
          
         सुमि अकसर दिन में अनुज का बिस्तर कमरे के बाहर बरामदे में लगा देती और यदि उस समय दवाओं के प्रभाव से मुक्त अनुज का मस्तिष्क चैतन्य रहता तो वह बाहर की दुनियाँ देखते हुए अपने मानसिक तुफानों और आवेगों से भी मुक्त हो जाता था| बाहर की चीजों को देखते हुए जैसे वह उसी में खो जाता और ऐसे समय उसकी मानसिक चेतना वाह्य दुनियाँ की चीजों की उसे बहुत गहराई से प्रतीति कराती और साथ ही उसे अच्छा भी प्रतीत होने लगता जैसे उसके मस्तिष्क की संवेदनशीलता इस समय वाह्य चीजों के प्रभाव से बढ़ जाती रही हो| वैसे अधिकाँश समय दवाओं के असर से उसका मस्तिष्क सुषुप्तावस्था में ही रहता था|
           
         वैसे अनुज जब कभी पत्नी और बच्चों को अपने पास हँसते-खेलता देखता तो भी वह अपनी स्थिति भूल जाता, अकसर ऐसा तब होता जब बच्चे टी.वी. पर आ रहे कार्यक्रमों को देख रहे होते| सायं को कभी-कभी जब बच्चों के साथ ही उसकी पत्नी भी टी.वी. देखते हुए उसे दिखाई देती तो भी वह अपने मानसिक आवेगों से जैसे कुछ क्षणों के लिए दूर सा हो जाता था| हालाँकि परिवार को उसकी इस स्थिति का भान नहीं होता था|
          
         इधर सुमि को धीरे-धीरे लगभग तीन माह बीत गया था पति के क्षेत्रीय कार्यालय में क्लेम का कागज़ दिए हुए..! और अभी तक उसके भुगतान के सम्बन्ध में उसे कोई जानकारी नहीं दी गयी थी| उसी के बारे में पता करने उसे जिले वाले बड़े साहब के आफिस जाना था इसीलिए उसने अनुज का बिस्तर उस दिन बरामदे में नहीं लगाया था|
          
         सुमि चली गई थी...उस समय दिन के लगभग इग्यारह बज रहे होंगे...अनुज अपने कमरे में ही था...उसका चेहरा कमरे के उस हिस्से की ओर घूमा हुआ था जिधर टेलीविजन रखा हुआ था..सुमि के जाने के बाद उसका मस्तिष्क चैतन्य हो गया था, शायद दवाओं का प्रभाव कम हो चला था...   
        
         “टी.वी. चल रहा है..! कौन देख रहा है..? बेटू..कहाँ बैठा है..? बात कर रहा है..शायद उसका कोई दोस्त होगा...वे दोनों उधर बैठे होंगे इसीलिए मैं उन्हें नहीं देख पा रहा हूँ...काश..! पुतलियाँ भी घूम रही होती तो भी मैं इन्हें देख पाता...! हे भगवान्...!! अरे टी.वी.तो मैं देख पा रहा हूँ..ये..ये इस पर क्या आ रहा है...हाँ क्रिकेट मैच है...भारत और शायद पाकिस्तान...नहीं-नहीं शायद दक्षिण अफ्रीका के बीच..! ये बैटिंग कौन कर रहा है..? अरे ! ये कैच उठा....ओह..स्लिप में कोई एक और फील्डर होता तो कैच जरुर लपक लेता...हाँ इंडिया वाले ही फील्डिंग कर रहे हैं...अरे यह किसने टी.वी. बंद कर दिया...हे भगवान् कैसे कहूँ...टी.वी. चला दो...! इनको नहीं पता है...मैं देख पा रहा हूँ...कैसे बताएं...? हे भगवान्..! बच्चे शायद चले गए...हाँ ये बाहर खेलने गए होंगे...शायद इण्डिया मैच हार रहा होगा...इसीलिए टी.वी. बंद कर दिए होंगे...”
           
         हाँ, अनुज का बेटा अपने दोस्त के साथ कमरे से बाहर जा चुका था...कमरे में अनुज अब अकेले ही था..एक अजीब से घुटन का सामना करते-करते उसकी मस्तिष्कीय तन्द्रा कभी-कभी शिथिल सी हो जाती...और बेबस सा मात्र अपने ह्रदय की धड़कनों का ही एहसास करता रहता..
         
         इधर सुमि पति के कार्यालय पहुँच चुकी थी| कार्यालय के लिपिक द्वारा सुमि को अवगत कराया गया कि मुख्यालय से चिकित्सा प्रतिपूर्ति की स्वीकृति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है इसलिए भुगतान नहीं किया जा सकता| सुमि के काफी अनुनय-विनय करने के बाद भी लिपिकों द्वारा कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया गया तो सुमि ने इस कार्यालय के अफसर से मिलने का निश्चय किया और धड़धड़ाती हुई अधिकारी के कमरे में प्रवेश कर गई| सुमि अफसर के सामने जाकर कुछ क्षणों तक मौन ही खड़ी रही| उसके मुँह से कोई शब्द ही नहीं फूट पा रहा था| उसकी आँखें डबडबा आई थी| आकस्मात अफसर की निगाहें सुमि के चेहरे पर पड़ी| सुमि के चेहरे पर क्षोभ और एक गहरे दुःख की छाया अफसर को स्पष्ट रूप झलक रही थी| जिसे उस अधिकारी ने भी अनुभव किया और सुमि अपनी स्थितियों को बताने में जैसे अक्षम सी हो गई उसके मुँह से जैसे कोई बोल ही नहीं निकल पा रहा था..वह डबडबाई आँख लिए मौन ही खडी रही...साहब ने घंटी बजाई..और कमरे में प्रवेश करता लिपिक सुमि को देखते ही बोल पड़ा-
        
        “सर, यह तो हमारे क्षेत्रीय कार्यालय के अनुज की पत्नी है, दुर्घटना के कारण वह कई माह से आज भी कोमा में हैं..उन्हीं के चिकित्सा प्रतिपूर्ति के दावे के भुगतान के सम्बन्ध में आई हैं..”
        
          लिपिक के मुँह से यह बात अभी पूरी ही हुई थी कि सुमि जैसे फट सी पड़ी,
        
          “हाँ, साहब इतने दिन हो गए आज तक पैसा हमें नहीं मिला है..घर का खर्च..दवाओं का खर्च कैसे चले..कोई वेतन भी तो नहीं मिल रहा है..और साहब..इस भुगतान के लिए मैंने तो.....”
        
        इसके बाद सुमि ने उस अफसर से पंद्रह हजार देने से लेकर सारी बातें बताई..फिर उस अफसर ने गुस्से से लिपिक को देखा जो फिर सफाई में बोल पड़ा,
        
         “सर, इस सम्बन्ध में हमें कुछ भी नहीं पता है...वैसे मैं पता करता हूँ...”
        
         फिर दूसरे लिपिक ने अवगत कराया कि चिकित्सा प्रतिपूर्ति के बिलों को स्वीकृति हेतु मुख्यालय भेजा गया है जिसकी स्वीकृति अभी तक नहीं मिली है| बातों ही बातों में अफसर के सामने पंद्रह हजार रुपयों की भी बात सामने आई और वहाँ उपस्थित कार्यालय के लिपिकों में इस बात की भी चर्चा होने लगी थी कि शायद बिल की स्वीकृति हेतु ऊपर भेजा गया पैसा वहाँ न पहुँचा हो इसीलिए स्वीकृति अभी नहीं मिली है|
        
         इन्हीं चर्चाओं के बीच उस अफसर ने क्रोध में उन लिपिकों से कहा,
       
        “अरे भाई आपके ही एक साथी की ऐसी हालत है..! और आप लोग हो कि उसे भी नहीं छोड़ते..?” 
         फिर एक लिपिक को डाटते हुए कहा,
        
        “मैं कुछ भी नहीं जानता..पैसा भी लिया गया और इसका काम भी नहीं हुआ....आप लोगों को शर्म नहीं आती...यदि स्वीकृति प्राप्त नहीं होती है तो मैं सभी को देख लुँगा...और पैसा भी लौटाना होगा...”
        
         इसके बाद लिपिकों के बीच मुख्यालय को रिमाइन्डर दर रिमाइन्डर भेजने की बात तय हुई और सुमि को कुछ दिन बाद आ कर फिर पता करने के लिए कहा गया| उसी समय उस अफसर ने सुमि से बोला,
        
          “देखिये हम भी चिंतित हैं..अब तक बिल की स्वीकृति प्राप्त हो जानी चाहिए थी...बिल तो यहाँ से भेजा गया है..भेजने की रसीदें भी हैं...पैसा तो मिलेगा ही...बस थोड़ा बिलम्ब और होगा...अब कंप्यूटर का ज़माना है...थोड़ा डिले हो सकता है..लेकिन उस बिल को कोई दबा नहीं सकता...मैं देखता हूँ..”
        
         सुमि लगातार सिसक रही थी..उसने बस इतना ही कहा, “साहब, मैंने पैसा भी दे दिया था तो मेरा काम हो जाना चाहिए था...और पैसा लेते समय मुझसे यही कहा था कि काम हो जाएगा...” सुमि ने बहते आँसुओं को आँचल से पोंछते हुए कहा|
        
        अफसर से आश्वासन पाकर सुमि घर वापस लौट गयी थी| इधर अफसर ने भी इस सम्बन्ध में मुख्यालय को रिमाइंडर लिखने के निर्देश दे दिए थे|
                                         
                                                                     6
         आज दो दिन हो गए थे अनुज को बिना दवाई के..! सुमि कुछ दिनों से किसी तरह परिचितों और रिश्तेदारों से पैसों की व्यवस्था कर अनुज की दवाएँ चलाए जा रही थी| लेकिन वही परिचित और रिश्तेदार अब सुमि से कन्नी काटने लगे थे| यहाँ तक कि अनुज को देखने की सामान्य औपचारिकता से भी लोग दूरी बना लिए थे, कारण यही था कि कहीं इलाज के पैसे न देने पड़ जाएं क्योंकि सुमि की स्थिति अब पैसों को लौटने की नहीं रह गई थी| सुमि इन समस्याओं के कारण बीमार जैसी दिखाई देने लगी थी| उसके मन में कभी-कभी नकारात्मक ख़याल भी आ जाते थे| ऐसे ही एक बार तो उसके मन में आत्महत्या कर लेने का भी विचार आया था, लेकिन तब बच्चों और बीमार पति का चेहरा उसके सामने घूम गया था| पति और बच्चों के चेहरों में ही उसे अपने जीवन का सम्बल मिलने लगा था| बहुत पढ़ी-लिखी न होने के बाद भी चीजों को वह अब बहुत गहराई से समझने लगी थी| वास्तव में मनुष्य जब तमाम समस्याओं के बीच स्वयं को घिरा हुआ पाता है तो साथ में ही उसे जीने की अंतर्दृष्टि भी मिल जाती है जिससे वह चीजों और अपने परिवेश को और बेहतर ढंग से समझने लगता है| सृष्टि के विकास क्रम का शायद यह भी एक रहस्य है..अन्यथा इस सृष्टि में नीरवता ही छाई रहती|
         
          आज सुबह से सुमि ऐसे ही विचारों में खोई हुई थी, उसे सारे रिश्ते पैसों की आड़ में ही उलझते दिखाई दे रहे थे। उसे अपने विवाह की परिस्थितियाँ भी याद आ रही थी-
        
        “विवाह ! उसका अनुज से विवाह...!! तब अनुज की नई-नई नौकरी लगी थी। पिता जी अनुज के घर जा कर विवाह तय कर आये थे...बाद में अनुज की माँ ने ही तो खबर भिजवाया था कि वहाँ विवाह नहीं करना है...उस समय तो पिता बहुत चिंतित हुए थे। हाँ, उन्हें तो जैसे लकवा मार गया था...तब घर में जैसे कोहराम ही मच गया था..! माँ तो दिन भर लेटी ही रहती और तो और घर से बाहर ही नहीं निकलती थी...विवाह का कार्ड भी तो छपाकर बाँटा जा चुका था..! पिता तय समय तक विवाह पूर्व कुछ हजार रूपया दहेज़ में नहीं दे पाए थे...पैसा ही नहीं जुटा पाए थे..! तीन बहनों की शादी करनी थी...दहेज़ भी जुटाना मुश्किल था...वह तो अनुज ही थे जो विवाह के लिए अडिग हो गए ! उन्हें हमारे घर के बारे में कुछ पता चल गया था...हाँ, तभी से अनुज की माँ भी हम दोनों से नाराज रहने लगी थी...मुझे तो खूब झिड़कियाँ मिली...सहने की तो जैसे आदत हो गई थी...फिर अनुज यहाँ अपने साथ लेकर रहने लगे थे...यदि उसका विवाह अनुज के साथ न हो पाया होता तो...! पता नहीं आज अनुज की देखभाल कौन कर रहा होता...हाय मेरे अनुज..! मुझे कुछ भी करना है..जब तक साँसे रहेंगी...साए की तरह हर पल साथ ही जीऊँगी..” 

             आगे सुमि का विचार प्रवाह कुछ इस तरह जारी था...
         
          “देखो न, पैसे रिश्तों को बहुत ही बेदर्दी से प्रभावित करते हैं...जीवन भर का साथ निभाने वालों के लिए रिश्ता बनाते समय भी इन बनते रिश्तों को लोग पैसों से ही तोलते हैं..! पति के लिए जी जान लगाए हुए है..बेजान से अपने पति के शरीर में फिर से जान डाल देने के प्रयास में अब वही एकमात्र सहारा है..! जबकि उसका यही रिश्ता दहेज़ के चन्द पैसों के खातिर उस समय कैसे टूटते-टूटते रह गया था..!”
        
           इन बातों को सोचते-सोचते सुमि की आँखों की कोरों से आँसू की बूँदें ढुलक पड़ी...तभी आहट हुई, जैसे दरवाजे पर कोई आया है। सुमि ने जाकर दरवाजा खोला तो देखा उसके पिता खड़े हैं और साथ में अनुज के बाबा और उनका चचेरा भाई भी है, टैम्पो भी लाए हैं। 
          
            जिला मुख्यालय के अफसर से आश्वासन पाए लगभग एक माह से अधिक हो गया था लेकिन अभी भी चिकित्सा प्रतिपूर्ति की धनराशि मिलने की कोई सूचना सुमि को नहीं मिली थी। और इधर अब अनुज की दवाओं के लिए पैसों के भी अब लाले पड़ गए थे, वहीँ फीस न भर पाने के कारण बच्चों का स्कूल जाना तो पहले ही छूट चुका था। इन्हीं बातो से बेहद परेशान सुमि ने अपने पिता को बुलाया था और यह सोचकर आज अनुज को अधिकारियों के सामने ले जाने का निश्चय किया था कि कम से कम अनुज की इस स्थिति को देख उन अधिकारियों के दिल पसीज जाएंगे और मेडिकल क्लेम का पैसा जल्दी से जल्दी मिल जाए! वह अनुज को स्वयं अकेले नहीं ले जा सकती थी इसीलिए पिता के साथ परिवार के अन्य लोगों भी साथ आए थे। 
         
         टैम्पो में माँ और पत्नी के सहारे अनुज को बैठाया गया। उसका शरीर जैसे शव के समान झूल सा रहा था फिर टैम्पो चल पड़ा। 
         
         जिला मुख्यालय के ठीक सामने पहुँचकर टैम्पो रुक गया। टैम्पो से उतार कर अनुज को  उसके चचेरे भाई ने अपनी पीठ पर लाद लिया और अनुज को पीठ पर लिए हुए ही उसने बड़े साहब के चैंबर में प्रवेश किया। पीठ पर लदा अनुज..! इस दृश्य को देख उस बड़े से कक्ष में जैसे सभी लोग सहम से गए तथा वहाँ सन्नाटा छा गया..! अनुज को एक खाली पड़ी कुर्सी पर बैठाने का प्रयास किया गया। लुंगी बनियान पहने अनुज शव के ही समान दिखाई पड़ रहा था!
        
      “यह सब क्या है..?” बड़े साहब के इस वाक्य के साथ वहाँ कक्ष में उपस्थित अन्य सभी की जिज्ञासु निगाहें अनुज पर ही टिक गई थी। 
               
      “अरे सर! ये अपने उस क्षेत्रीय कार्यालय में तैनात अनुज है। इनका मेडिकल क्लेम स्वीकृति हेतु मुख्यालय भेजा गया है...अभी स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई है...शायद इसीलिए ये सब यहाँ आए हैं..” कार्यालय के प्रधान लिपिक ने कहा जो इन सब को देख इनके पीछे-पीछे ही चैंबर में प्रवेश किया था। 
       
           “हाँ सर..! ये एक माह पहले भी आई थी..,मैंने शीघ्र स्वीकृति हेतु रिमाइंडर भी मुख्यालय प्रेषित करा दिया था..शायद स्वीकृति अभी तक नहीं मिली है...” बड़े साहब के सामने ही बैठे हुए जिला मुख्यालय के छोटे साहब ने सुमि की ओर इशारा करते हुए बड़े कहा। 
       
     “अरे भाई..आप लोग क्या शायद-शायद लगा रखे हैं..स्पष्ट जानकारी रखा करिए..पता करके बताइए..क्यों नहीं हुआ..?” बड़े साहब ने मुख्यालय के छोटे साहब की ओर देखते हुए कहा। 
       
        “नहीं सर..! अभी स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई है, इस बीच हम लोग मुख्यालय को भी दो बार रिमाइंडर भी भेज चुके हैं।” दुबारा जिले के छोटे साहब ने कहा। 
       
         “तो फिर अभी इनकी तत्काल कैसे मदद हो सकती है?” बड़े साहब ने प्रधान लिपिक की ओर देखते हुए पूँछा। 
        
       “सर, ऐसा कोई शासनादेश तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है, जिससे इनकी तत्काल मदद की जा सके !वही मेडिकल क्लेम की स्वीकृति प्राप्त हो जाती तो।” प्रधान लिपिक ने कहा। 
       
       “उसके लिए एक तगड़ा अनुस्मारक-पत्र हमारी ओर से भी मुख्यालय को फिर प्रेषित करिए और जरा शासनादेशों को फिर से कायदे से एक बार पढ़ लीजिये यदि कोई मेडिकल अवकाश वगैरह बाकी हो तो सोचिये इस पर भी क्या किया जा सकता है।” बड़े साहब ने सलाह देने के अंदाज में जैसे कहा हो। 
        
       सुमि वहाँ मौन खड़ी होकर यह सब देखे जा रही थी।      
       
      “अरे ये तो कोमा में हैं..इन्हें यहाँ लाने की क्या जरुरत थी ?” सुमि की ओर देखते हुए बड़े साहब का यह स्वर कुछ झल्लाहट भरा था। 
         
       सुमि जो अब तक मौन ही खड़ी थी थोड़े तल्ख़ स्वर में बोल पड़ी-
        
       “साहब ! ये तो वास्तव में कोमा में हैं...वो भी इक्सिडेंट के कारण..! लेकिन, यहीं पर लोग कौन से होश में हैं..? इन लोगों का तो कोई इक्सिडेंट भी नहीं हुआ है ! फिर भी यहाँ का आफिस, वहाँ का आफिस सबे कोमा में तो हैं जेसे सबे बेहोश पड़े हैं..नहीं तो इतने दिन इलाज के कागज़ दिए हो गए पेसा न मिल गया होता..!”
         
        कहते हुए सुमि के मन में यह भी आया कि इन बड़े साहब से उन पंद्रह हजार रुपयों के बारे में भी बता दे जो उसने उस क्षेत्रीय कार्यालय के बाबू को दिए थे। लेकिन वह समझ रही थी कि यहाँ किसी की शिकायत करने नहीं बल्कि पति को साथ में लेकर इसलिए आई है कि इन्हें देख इन लोगों में कम से कम संवेदना जाग जाए और मुसीबत की इस घड़ी में उसे क्लेम जल्दी से मिल जाए। फिर आगे वह कुछ नहीं बोली और चुप हो गई। 
         
       “अरे! मेरी सुमि इतना बोलना कैसे सीख गई..! कहीं साहब लोग नाराज न हो जाएं..हे भगवान् इसको कैसे समझाएँ कि साहब लोगों से ऐसे नहीं बोला जाता...” सुमि की बातों को सुन अनुज के मस्तिष्क ने प्रतिक्रिया की। 
       
         फिर वहीँ पर साहबों के बीच इस सम्बन्ध में भी परिचर्चा सी होने लगी कि इनके मदद के और तरीके क्या हो सकते हैं ? प्रधान लिपिक ने बताया कि ऐसी स्थिति में गुजारा-भत्ता या पेंशन देने का कोई प्रावधान नहीं है, केवल मृतक होने की स्थिति में ही आश्रित को नौकरी मिल सकती है। यदि ऐसी स्थिति में रोगी जीवित रहता है तो किसी आश्रित को नौकरी भी नहीं मिल सकती। कोमा के मरीज तो तीसेक साल तक भी जीवित रह सकते है ऐसी स्थिति में इस परिवार की आजीविका कैसे चलेगी?- परिचर्चा के बिंदु यही थे। 
         अनुज ने भी जैसे इस परिचर्चा को सुन लिया था, उसके मस्तिष्क में यह प्रतिक्रिया हुई-
       
      “हे भगवान् अगर मैं ऐसे ही रहा तो...मेरे परिवार पर क्या बीतेगी...मुझे मेरे परिवार के लिए मार ही डालो...सच में अब मैं मुर्दा ही तो हूँ..ये मुझे ढो रहे हैं..किसी काम का मैं नहीं सुमि..! अब तुम मेरे लिए इतना परेशान न हो सुमि...मुझे मरने दो...हो सकता है तुम्हें मेरी जगह नौकरी मिल जाए..! बच्चों की परिवरिश हो जाए..!”
       
         इस वार्ता का कोई सार्थक निष्कर्ष न निकलते देख बड़े साहब ने छोटे साहब की ओर देखते हुए कहा-
       
        “इनके क्लेम को गंभीरता से लेते हुए निस्तारित कराएं।”
        
        और फिर पंद्रह-बीस दिनों के भीतर कुछ करने का आश्वासन देते हुए उन लोगों को घर वापस लौट जाने के लिए कहा गया। वे सभी अनुज को लेकर वापस चले गए थे। 
         
         बड़े साहब से आश्वासन मिलने के दस दिन बाद ही उस क्लेम की स्वीकृति मिल जाने के साथ बकाए मेडिकल अवकाश की धनराशि के भुगतान की सूचना सुमि दे दी गयी थी। 

           उस दिन-
        
       “अरे! आज सुमि मुझे इस तरह ध्यान से क्यों देखे जा रही है...वह कितना दुःख झेल रही है...मेरे परिवार से भी तो उसे उपेक्षा ही मिली...! माँ ने तो बेचारी सुमि से आज तक जैसे कभी ढंग से बात ही नहीं किया...हाँ उस दहेज़ को ले माँ सुमि से सदैव ही असंतुष्ट रही...ओ मैं न होता तो..? लेकिन अब क्या होगा...? मेरे दोनों बच्चे इस समय कहाँ हैं...इस तरह ध्यान से मुझे क्यों देख रही हो सुमि..?
       
         ...अरे.! आज कितने दिन बाद मैंने बच्चों को स्कूल ड्रेस में देख रहा हूँ...यह मैं क्या देख रहा हूँ..मेरे बच्चे स्कूल जा रहे हैं...दोनों बच्चे स्कूल जाते हुए बाय भी कर रहे हैं...! दोनों चले गए...सुमि मेरे पास आ रही है...यह तो मेरी चारपाई पर बैठ गई...कितने दिनों बाद सुमि मेरे बेहद करीब है..! सुमि के हाथ मेरे चेहरे पर फिसल रहे हैं...शायद सुमि मेरे सिर के बाल सहला रही है...सुमि आज ऐसा क्यों कर रही है...? सुमि मेरे ऊपर झुक रही है...मेरे बेहद करीब सुमि..! सुमि की आँखों में आँसू ? सुमि ने मेरे चेहरे को अपनी बाहों में भर लिया है..ओह ! सुमि...सुमि...ओह..सुमि तुम रो भी रही हो..अरे! यह क्या..!! अरे यह क्या...गर्माहट? मेरे चेहरे पर !! यह तो साँसों की गर्माहट है..? इस गर्माहट का एहसास भी मैं कर पा रहा हूँ !! पहले तो ऐसा नहीं हुआ था..सुमि...सुमि...हे भगवान् मेरी सुमि...! सुमि तुमने मुझे छोड़ क्यों दिया...इतने ध्यान से फिर क्या देखने लगी? देखो..देखो..सुमि देखो..!! पहली बार मैंने भी जैसे कुछ अनुभव किया...मेरी सुमि तुमने यह क्या कर दिया...सुमि मेरे आँसुओं को...ओह..सुमि..!!”
         
          बिस्तर पर पड़े निःशक्त पति को देख सुमि के ह्रदय में जैसे अथाह प्रेम उमड़ आया था...! पति की यह निःशक्तता भी परिवार को पोष रही थी..! वह प्रेम-विह्वल पति से लिपट पड़ी थी! पति के चेहरे को बाहों में भर लिया था.... उसकी गर्म साँसें पति के चेहरे से टकरा रही थी..... अचानक..पति के शरीर में उसे कुछ हरकत महसूस हुई..वह चौंक पड़ी...फिर पति को अपने से अलग करते हुए उन्हें ध्यान से देखने लगी...पति की आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे..! इतने दिन बाद सुमि को पति की आँखों में आँसू दिखाई पड़े...!! उसे तो जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था...फिर...उसने झुक कर पति के आँखों की कोरों से अपने होठ लगा दिए थे। जैसे...वह इन आँसुओं को भी पी लेना चाहती हो...! हाँ..ये पति के ही आँसू है...पति के आँसुओं की बूँदों को पी वह इसके खारेपन से इन अनमोल आँसुओं का जैसे एहसास कर लेना चाहती हो..!! उसे तो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था...! वह पति जो न जाने कहाँ खो गया था आज फिर से उसे वापस मिलने वाला हो...!!! उसने पति को पुनः अपनी बाहों में भर लिया था। सुमि के भी हर्ष-विगलित-अश्रु जार-जार बह निकले थे..! –विनय (महोबा)  

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