लोकप्रिय पोस्ट

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

शायद दीपक जल चुका था....!

       
         “क्या बात है भाई जी.. ऐसे उदास क्यों बैठे हो...?”

         “उदास कहाँ हैं...!”

         “अच्छा ठीक है..! उदास नहीं हैं तो सोचनीय सी मुद्रा में क्यों बैठे हैं...?” मित्र की ओर कौतूहल से देखते हुए मैंने पूँछा। 

         “क्या बताएं यार..जानते ही हो दिपावली आ गयी है..” मित्र ने मायूसी के अंदाज में कहा। 

         “तो...फिर धूम-धड़का जैसे पटाखे का अंदाज होना चाहिए..! इस तरह शान्त हो मुँह लटका कर तो नहीं बैठना चाहिए..” कहते हुए मैंने प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता में एक तिरछी दृष्टि उन पर डाली। 

           “कौन सा पटाखे का अंदाज बनाएं...बाद में जो गोला-बारूद झेलना होगा उसका क्या होगा..?” कुछ सोचते हुए  ने फिर कहा, “हाँ...! सच कह रहे हो...यही सोचकर उदास हूँ..!” मित्र जी एकदम जैसे पटाखे की तरह फटे हों। 

         “ऐसे बोल रहे हो जैसे आपको भारत-पाकिस्तान के बार्डर पर जाना हो..! और फिर...जाना भी पड़े तो ख़ुशी-ख़ुशी जाना चाहिए...इसमें भी लोग उदास नहीं होते..यही तो देश-भक्ति है..! लेकिन..यह गोले-बारूद का डर कहाँ से आ गया है कि दीपावली की फुलझड़ियाँ भी फुस्स किए दे रहे हो....!” मैं माहौल को कुछ हलका करने की प्रत्याशा में अपनी बात पूरी की। 

           “भईया मेरे..! भारत-पाकिस्तान के बार्डर पर जाना...गोला-बारूद खाना तो बहुत आसान लग रहा है चाहे कोई इसे देश-भक्ति माने या न माने..! लेकिन...मैं उस...गोले-बारूद की बात नहीं कर रहा हूँ...फिर मैं कौन सा बार्डर सिक्योरिटी फोर्स का जवान हूँ कि बार्डर पर जाना है..” मित्र महोदय ने कुछ व्यंग्यात्मक लहज़े में यह बात कही। 

          “वो तो मैं जानता हूँ कि तुम कौन से बी.एस.यफ. के जवान हो...लेकिन यह दिवाली बाद गोला-बारूद झेलने की बात कहाँ से आयी..!” दोस्ताना अंदाज में बात की तह में पहुँचने की मैंने कोशिश की। 

          “बी.एस.यफ. के जवान ही गोला-बारूद नहीं झेलते...हम सब भी अपने-अपने तरीके से इसे झेलते है...” मित्र ने कुछ रहस्यात्मक ढंग से कहा। 

           “यार...! मैं समझा नहीं...!” मेरे आवाज में उत्सुकता थी। 

          “देखो..दीपावली है..कर्ट्सी में अपने बड़ों से मिलना होता है कि नहीं...? कुछ गिफ्ट-विफ्ट का पैक तो ले जाना ही पड़ता है...क्योंकि बड़ों की अपेक्षा कुछ ऐसी होती भी है..|” मित्र नें मेरी आँखों में झाँकते हुए ‘बड़ों’ शब्द पर कुछ व्यंग्यात्मक बल देते हुए से कहा। 

          “हाँ..हाँ..भाई...! जब दीपावली जैसे त्यौहार पर किसी अपने बड़े से मिलना होता है तो खाली हाथ थोड़े ही न मिला जाता है...और किसको मिलना अच्छा नहीं लगता..!” किसी विषय-विशेषज्ञ की भांति मैंने कहा। 

           “भाई मेरे..! यहीं से तो मेरी प्रॉब्लम शुरू होती है....!” कुछ परेशान सी मित्र की आवाज थी। 

           “इसमें प्रॉब्लम...?” मैंने पूँछा

           “भाई..क्यों मिलूँ...और क्या सोचकर मिलूँ...? रही बात गिफ्ट की..तो जैसे-तैसे गिफ्ट भी दे सकता हूँ...लेकिन..आखिर ऐसा क्यों किया जाए..यही सोच-सोच कर मेरा टेंशन बढ़ जाता है...क्या यह सोचकर किया जाए कि अगला मुझसे खुश रहे...? या यह वास्तव में उसके प्रति मेरी शुभकामनाओं की अभिव्यक्ति हैं..! या..कि अपना वह बड़ा..! हमारे प्रति शुभकामनाएँ रखे इसलिए उससे शुभकामनाओं का यह लेन-देन रखा जाए...और..यही मेरी समस्या है...अंतरात्मा यहीं पर मुझे ऐसा करने से रोकती है..!” मित्र बोलते समय थोड़ा चिन्तित लग रहे थे। 

            “अरे..भाई..! जरा सोचो...जब कोई हमसे मिलने आता है तो हमें अच्छा लगता है कि नहीं...? वैसे ही जब हम अपने बड़ों से मिलेंगे तो उन्हें भी तो अच्छा लगता होगा...फिर..अनजाने भी तो उलटे-सीधे काम हमसे हो जाते हैं...कोई दूध के धुले हम थोड़े ही हैं...कम से कम मिलने-जुलने से नाहक परेशानी तो दूर रहेगी...” मैंने यह कहते हुए जैसे इस संबंध में अपना व्यावहारिक ज्ञान बघारा..!

           “हाँ..हम अपने को दूध के धुले तो नहीं कह सकते...इसके लिए हम तमाम स्थितियों-परिस्थितियों को भी जिम्मेदार मान सकते हैं...लेकिन...कम से कम ऐसी स्थितियाँ बनती रहें इसके लिए तो हम प्रयास नहीं कर सकते..! रही बात कोई हमसे मिले यह हमें अच्छा लगता है...लेकिन...कोई हमसे क्यों मिलने आ रहा है यह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बिना मतलब के कोई मिलने से रहा...! ..मिलकर वह हमें मिलने के अहसान से कर्जदार भी बना देता है..और..चलो फिर उसका कर्ज उतारो..! ऐसा मिलना क्या मिलना...समझे...!” मित्र महोदय ने ऐसा उड़ेल दिया कि एक बारगी मेरे पल्ले ही नही पड़ा


           “इसका मतलब तुममे एक मानवीय और सामाजिक दृष्टिकोण नहीं है तभी इसको इस नजरिए से देखते हो...” मैंने कुछ तीखे होते स्वर में बोला.

           “अच्छा....! अब तुम इस मिलने-जुलने के कार्यक्रम को सामाजिकता और मानवीयता से भी जोड़ दिए हो...! वाह मेरे भाई..वाह..! इसी मानवीयता और सामाजिकता में तुम्हारा वह भाव...! क्या कहा था...? हाँ...दूध का धुला...उलटे सीधे काम हो जाना..इस डर से ही तुम्हारी यह सामाजिकता और मानवीयता यहाँ जीवित हुई है..! अरे भाई...तुम्हारी यह गिरोहबंदी वाली सामाजिकता और इसे फलने-फूलने देने वाली मानवीयता मेरे समझ में नहीं आती...!” 

           मित्र ने मेरी किसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं की..और पुनः कहना प्रारंभ कर दिए.... 

          “जानते हो ऐसे रिश्तों को निभाने के लिए हमें कितना असामाजिक और अमानवीय होना पड़ता है...कुछ अनुमान है...? हाँ ऐसे रिश्तों के लिए गरीब की थाली की रोटी छीनना ही नहीं उस पर डकैती डालनी होती है...उसे झोपड़ी में ही रहने के लिए मजबूर किये रहना पड़ता है...और...जिस समाज के लिए हमारा यह समाज मतलब गिरोह बना है, उस समाज को भगवान् के रहमों-करम पर उसे उसी के हाल पर ही छोड़ देना पड़ता है....और..न जाने क्या...क्या करना पड़ता है...तुम्हारी इस सामाजिकता और मानवीयता के लिए...तभी तुम्हारी यह सामाजिकता जश्न मना पाती है!” अब मित्र का स्वर तीखा हो चला था…। 

          “यार..! तुमसे बात करना मतलब दिवार पर सिर मारने जैसा ही है...तुमसे दोस्ती भी खतरनाक है...! खैर...ये बताओ ये गोला-बारूद से डरने की बात कहाँ से आ गयी..!” मैंने मित्र को लगभग कुरेदा..!

        “अच्छा...! मेरी दोस्ती खतरनाक है....वाह..! सही कहा तुम्हारे लिए मेरी यह दोस्ती खतरनाक तो होगी ही...! मैं आसामाजिक जो ठहरा...!” उन्होंने जैसे मुझ पर कटाक्ष करते हुए कहा हो..!

        “नहीं भाई मेरे कहने का वह अर्थ नहीं...” मैंने सफाई देने के प्रयास में कहा..|

        “नहीं सफाई देने की आवश्यकता नहीं..ये जो तुम्हारा नव वर्ष..होली..दीपावली जैसे त्यौहार हैं और इसे मनाने के लिए हमारे गिरोह के लिए जो पैमाने नियत हैं वही मेरे लिए गोला-बारूद हैं और इसे झेलते हुए मैं तुम्हारे लिए वास्तव में खतरनाक सिद्ध हो सकता हूँ...!” मित्र का स्वर पता नहीं क्यों थोड़ा रोषयुक्त था..!

         “मैं समझा नहीं..!” आकस्मात मेरे मुँह से निकला। 

         “समझाता हूँ...” कहते हुए मित्र ने आगे कहना प्रारंभ किया....

         “अपने ऐसे ही विचारों के कारण मैंने तुम्हारे इस गिरोह की रीति-नीति का पालन नहीं किया था..! उस ‘बड़े’ की दीपावली और नववर्ष तथा होली बिना मेरी शुभकामनाओं के ही बीत रही थी...बस फिर क्या था..! उसने मुझे सबक सिखाने की ठान ली..औंर..मन भर गोला-बारूद मुझ पर चलाया...तरह-तरह के आरोपों..अपशब्दों..प्रताड़नाओं...जांचों..परीक्षणों से गुजरता रहा...लेकिन मैं भी ठहरा हेहर..! तनिक भी उफ़ तक नही किया...! फिर तुम जैसे साथियों के लिए भी मैं खतरनाक हो गया था...कुछ तो मुझ पर हँसते भी थे...! मेरे साथ वे उस बड़े की नजर में न आएं इसलिए तुम जैसे मित्र मुझसे कन्नी काटने लगे थे...! क्योंकि उन्हें भी नुकसान उठाने का भय हो जाता था..और गिरोह से बहिष्कृत कर दिए जाने का भी भय सताता था !”
         
         फिर उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा,
         
         “यही कारण है कि मुझे प्रत्येक वर्ष आने वाले इस होली, दीपावली और नववर्ष के बाद गोला-बारूद झेलने का भय सताने लगता है..और...तुम जैसों के लिए असामाजिक हो जाने का भय भी...और आज के दिन की उदासी का कारण भी यही है...लेकिन क्या करूँ अन्तरात्मा की आवाज को ज्यादा दबा नहीं पाता..और..इसी कारण तुम्हारे इन त्योहारों पर मैं हर वर्ष उदास हो जाता हूँ!”

          मित्र ने यह कहते हुए जैसे मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए मुझ पर निगाह डाली..!

         “तुम्हारे इस अंतरात्मा की आवाज की ऐसी की तैसी...इसे इतना अपने सिर न चढाओ...! नहीं तो ऐसे ही भोगोगे...!”

           मैंने अपना यह वाक्य पूरा ही किया था कि आकस्मात अपने स्थान से खड़े हो मित्र ने लगभग मेरी ओर झपटते हुए से अपने दोनों हाथों से मेरा कॉलर पकड़ कर झकझोरने लगे और बहुत ही तल्ख़ स्वरों में बोले। 

         “क्या कहा अंतरात्मा की ऐसी की तैसी...? .....लेकिन...तुम मुरदे लोग क्या सुनोगे इस आवाज को...!” कहते हुए मित्र ने धीरे-धीरे मेरे कॉलर की पकड़ को ढीली कर दी और अंत में उसे छोड़ अपनी कुर्सी पर पुनः शांत भाव से बैठ गए। 

          इधर मैं हक्का-बक्का सा कुछ समझ ही नहीं पाया कि क्या हो गया...फिर..मित्र ने धीरे से मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया और मेरे बेतरतीब हुए शर्ट और इसके कॉलर को अपने दोनों हाँथों ठीक करने लगे...मैं थोड़ा संयत हो चुका था...पता नहीं क्यों मित्र अब बहुत ही शांत हो चुके थे...इधर मैंने अपना दाहिना हाथ उनके कंधे पर रख दूसरी ओर खिड़की की तरफ मुँह फेर लगभग डूब रहे सूरज को देखने लगा था...!
        
        आचानक मैं मित्र से बोल पड़ा,

        “यार कमरे में अँधेरा छा गया है बिजली भी अभी नहीं आई है कैंडिल तो जला दो...!”

        “मेरा मन उठने का नहीं है...तुम्हीं जला दो...” कंधे पर रखे मेरे हाथों को अपने हाथों से धीरे से दबाते हुए शांत भाव से मित्र ने कहा। 

        “नहीं मुझसे नहीं होगा...माचिस तुम्हीं ढूंढ पाओगे...!” मैंने भी उसी शांत भाव से उत्तर दिया। 

          अब वे उठ चुके थे..शायद माचिस खोज लिए थे..सर्र की आवाज हुई...इधर मैंने अपनी आखें बंद कर ली थी..लेकिन मेरे पलकों के भीतर एक रोशनी का अहसास हो रहा था...शायद दीपक जल चुका था...!

                       ----------------------------------------

मेरे और मेरी पत्नी के बीच का संवाद.....


“हलो..हलो...हलो...”

“हाँ...हाँ...बोल तो रही हूँ...बोलो क्या बात है...?”

“अरे..! तुम तो करवां-चौथ नहीं रहती हो...?”

“कहाँ से यह ध्यान आ गया कि मैं करवां-चौथ नहीं रहती हूँ...! क्या कोई नई बात है क्या..?”

“नहीं मैं इसलिए पूँछ रहा था कि आज करवां-चौथ के ब्रत की बड़ी चर्चा हो रही है...! और...अखबारों, टी.वी. और..और..मेरा मतलब..हर जगह करवां-चौथ मनाती सजे-धजे वस्त्रों में लोगों की तस्वीरें दिखाई दे रही है...!”

“अच्छा तो ये बात है...! फिर ये बताओ इस ब्रत को रहने के लिए गहनों की तो बात छोडिए कम से कम एक नई साड़ी की आवश्यकता पड़ेगी...क्योंकि नई साड़ी पहन कर ही छलनी से तुम्हें देखूंगी....मतलब चाँद को भी..! और..हर साल यह ब्रत रहूंगी तो हर साल एक नई साड़ी लानी पड़ेगी...! फिर, एक बात और है...तुम अपने काम में इतना व्यस्त रहते हो कि तुम्हें इस दिन भी छुट्टी नहीं मिलेगी जबकि..पति ही पानी पिला कर ब्रत समाप्त कराता है..!”

“इसका मतलब तुमको पति से प्रेम नहीं साड़ी से ही प्रेम है...सज-धज कर ही ब्रत रहोगी तो रहोगी नहीं तो नही...?”

“सुनो..! हमको ज्यादा प्रेम-व्रेम न सिखाओ..! याद है...! कुछ याद है कि...हमारी शादी कब हुई थी...? मैं चौदह वर्ष की रही होउंगी...हाँ...तब मेरा गौना भी नहीं आया था..और..मैंने तुमको देखा भी नहीं था..! हाँ.., तब से मैं तीज का ब्रत रहती आई हूँ...और आज भी रहती हूँ...! वह भी तो पति के लिए ही रहा जाता है...!”

“हाँ हम लोगों की तरफ तीज ही रहा जाता है...लेकिन..यार ये बताओ इस ब्रत में नयी साड़ी नहीं पहना जाता क्या..?”

“क्यों नहीं पहना जाता..?”

“लेकिन मुझे ध्यान आता है..कभी मैं ब्रत के लिए तुम्हें साड़ी नहीं ले आया..!”
“अरे..! तुम साड़ी लाओ तभी मैं ब्रत रहूँगी...? भईया आते-जाते नयी साड़ी दिए रहते है...तीज ब्रत में वही साड़ी पहन लेती हूँ...वैसे तुम तो जानते ही हो मेरी साड़ियों में रूचि नहीं रहती..!”

“लेकिन यार मुझे तो पता ही नहीं चलता...”
“तो क्या यह बताने की चीज है..? या..कि कोई प्रदर्शन करना है...?”
 
 करवां-चौथ के दिन का यह संवाद मेरे और मेरी पत्नी के बीच का है...!
               --------------------------