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रविवार, 20 मार्च 2016

आज के ये बुद्धिराजा...

          हाँ मुझे अपने बचपन के वे दिन आज भी याद हैं, उन दिनों हम अपने तीन-चार पारिवारिक हम-उम्र बच्चों के साथ कक्षा छह या सात में पढ़ रहे होंगे। तब हमारे घर पर परिवार के किसी वैवाहिक कार्यक्रम या अन्य अवसरों पर काफी रिश्तेदार जुटते और उनके साथ हमारी ही उम्र के कुछ बच्चे भी होते थे। उन्हीं में से एक बच्चे से अकसर हम चिढ़ने-चिढ़ाने का खेल खेलने लग जाते थे। वह सुबह चार बजे उठकर पढ़ने की अपनी आदत के साथ अंग्रेजी ग्यान का भी हम पर रौब झाड़ता रहता और हम साथी अन्य बच्चों को बुद्धू भी कह देता था, तब हमें लगता वह हमारी खिल्ली उड़ा कर हमें नीचा दिखा रहा है और हमारी बातों का बौद्धिक विश्लेषण भी करने लगता। उस समय हमें बहुत बुरा लगता फिर हम भी अन्य साथी बच्चों के साथ उसे "बुद्धिराजा" कह कर चिढ़ाते। ऐसा कई बार होता और एक तरह से उस बच्चे को "बुद्धिराजा" कह कर हम अपनी भड़ास भी निकाल लेते थे। तब यह सम्बोधन उसकी बुद्धि और हमारे बीच ढाल का काम करती। अंत में इस सम्बोधन से चिढ़ते हुए वह बच्चा चुप हो जाता।
           यहाँ आशय उस हम-उम्र बच्चे को गलत ठहराना नहीं है। यह घटना हमें इसलिए याद आई कि हम "बुद्धिजीवियों" द्वारा दूसरों के कार्यों के छिद्रान्वेषण में ग्यान बघारने की आदत से आहत हो उठते हैं। आज यह सोचकर हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि इस शब्द "बुद्धिजीवी" के समानार्थी "बुद्धिराजा" जैसे शब्द का ईजाद फुफेरे भाई के लिए हम बच्चों ने तब कैसे खोज लिया था? उस समय तो हम प्राइमरी कक्षा में ही पढ़ते थे और 'इन्नोसेंट' जैसे ही थे! मतलब साफ है सामाजिक जीवन में किसी व्यक्ति के कार्यों का मात्र बुद्धिवादी नजरिए से विश्लेषण सही नहीं होता बल्कि यह चिढ़ाने और उत्तेजित करने वाला होता है और उसके कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं होता। समाज या व्यक्ति के साथ हमारी अन्तर्क्रिया केवल बुद्धि आधारित ही नहीं होती बल्कि इसके पीछे परिस्थितियाँ, भावनाएँ और तमाम तरह के हमारे अनुभव भी उत्तरदायी होते हैं।
           वास्तव में हमारा बुद्धि आधारित व्यवहार हमें केवल औपचारिक ही बनाता है जबकि हम एक अनौपचारिक दुनियाँ में रह रहे हैं। यदि हम यह मानते हैं कि भावनाएँ चीजों के प्रति हमें पूर्वाग्रही बनाती हैं तो उसी प्रकार यह भी तय है कि बुद्धिवादी दृष्टिकोंण भी पूर्वाग्रही होता है क्योंकि हमारे सारे तर्क अपनी ही बात को सही ठहराने के लिए होते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से यह स्थिति स्वयं के विचारों के प्रति अंध-श्रद्धा है और यह भी भक्ति हुई।
         अन्त में यदि हम अपने किसी विरोधी की आलोचना में मात्र कोरे तर्क-बुद्धि का सहारा लेते हैं तो उस विरोधी को ही ताकतवर बनाते जाते हैं। "बुद्धिराजा" बन ऐसे ही कुछ बुद्धिजीवी आज अपने विचारों की अंध-श्रद्धा पर सवार हो पक्ष प्रतिपक्ष बनकर मात्र एक-दूसरे को ही नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता इसके क्या परिणाम होते हैं? आप अपने उद्देश्य में सफल नहीं होते और आपका प्रतिपक्ष शक्तिशाली होता जाता है क्योंकि एक तीसरी दृष्टि भी होती है जिसे "बुद्धिराजा" लोग नजरअंदाज करते हैं।

शनिवार, 19 मार्च 2016

सत्य का उद्घाटन..!

             उस दिन मेरे एक साथी महोदय ने कहा- "सत्य को उभारना नहीं चाहिए" हालाँकि इसके आगे उन्होंने कहा था कि "इससे सत्य को उद्घाटित करने वाला स्वयं संकट में पड़ जाता है।" फिर उन्होंने अपनी इस बात में और जोड़ा था "आखिर किसी के आम को इमली कह देने से वह इमली थोड़ी न हो जाएगा.." उनके कहने का आशय यह भी था "सत्य तो सत्य ही रहता है चाहे आप इसे उभारें या न उभारें।"

               फिर उन महोदय ने कुछ ऐसे उदाहरण भी बताए जहाँ सत्य को देखने और समझने वाला व्यक्ति भी इसे सहन नहीं कर पाया और उसने अपने जीवनलीला पर ही संकट खड़ा कर लिया। इसी से उन्होंने यह निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि "यदि हम सत्य न जाने तो जीवन सहज गति से चलता रहता है और इस गति पर कोई फर्क नहीं पड़ता।"
             उनकी बातें मुझे बहुत अच्छी लगी सोचा बैठे-बैठाए व्यवहारिक जीवन के लिए मुफ्त में मार्गदर्शन प्राप्त हो गया नहीं तो कहीं इसके लिए किसी बड़े नामी टीवी बाबा का प्रवचन सुनना पड़ता और वह भी शायद इस सत्य का साक्षात्कार न करा पाते....खैर..
            जब मैंने उन साथी महोदय की इन बातों को सुना था तो उसी समय आपको भी इस सत्य से साक्षात्कार कराने की सोच लिया था.. लेकिन तब कैसे अपने इस साक्षात्कारित सत्य से आप सबको परिचित कराऊँ इसका तरीका नहीं मिल पाया था....
             लेकिन आज जब फेसबुक पर नामी कुछ बौद्धिकों, टीवी चैनल वालों के कंटेंट पर ध्यान गया और मुझे यह बताने का तरीका मिल गया...
             हाँ, एक बात है उन महोदय की बातों से यह तो मैं भी मान गया था कि सत्य को उजागिर करने वाला या सत्य को जाननेवाला स्वयं परेशानी में पड़ सकता है लेकिन यह तो एक बात है! दूसरी महत्वपूर्ण बात का ज्ञान मुझे इसी सोशल मीडिया और टीवी चैनलों को देख कर प्राप्त हुआ...
           वह यह कि चैनलों और मीडिया का अपना-अपना सत्य देख अब शायद ही कोई सत्य उद्घाटित होने की सोचे ? आखिर ऐसा क्यों? भाई आप जरा समझिए! सत्य तो सत्य ही होता है इसमें कोई दो राय नहीं... लेकिन जब लोग इसे ऊभारते हैं तो यह सत्य स्वयं अपने को एक अजीब स्थिति में पाता है, उभरते समय ये सत्य महोदय बहुत खुश रहते हैं..सोचते होंगे कि देखो मैं सत्य हूँ...और तुम सबका हूँ !! लेकिन ढोल नगाड़े के साथ सत्य महोदय का यह प्रकटीकरण का गर्व क्षणभंगुर ही होता है। सत्य का यह गुमान कि सत्य सत्य होता और मैं सबका हूँ, चकनाचूर हो उठता है...!
            यह सत्य बेचारा अपने प्रकटीकरण के बाद ऐसे खींच-तान का शिकार होता है कि चीथड़ों में बंट जाता है.. पहले तो यह होता है कि इसे यानी सत्य को अपने हाथों में थामें कुछ लोग सत्य के वाहक बन खुशी में जोर-जोर से डंका बजाकर नाचते हैं गोया बाकी सब यहाँ असत्यवादी पसरे हों और सत्य भी इसे देखकर खूब खुश होता रहता है। लेकिन जब लोगों के हाथों-हाथ लिया गया और उछलता यह सत्य दूसरी ओर निगाह डालता है तो अचक जाता है! वहाँ दूसरी तरफ तो उसे मातम पसरा हुआ सा दिखाई देता है..! यही नहीं उस दूसरी ओर के लोग इस सत्य को विरोधी के हाथों में खुशी से उछलते देख मुँह बिचका इसमें मीन-मेख निकाल इसे सत्य मानने से ही इनकार कर रहे होते हैं..
            हाँ सत्य अपनी इस स्थिति से, और कुछ के हाथों उछलते तथा दूसरों को अपनी ओर से मुँह मोड़ते देख अपना अपमान समझ व्याकुल हो उठता है! वह सोचता है, कहाँ वह सबका सत्य बनने निकला था और कहाँ अब वह मात्र कुछ ही हाथों का वह खिलौना बन गया है.. यही सोचते-सोचते सत्य बेचारा अपने को ठहरा हुआ पाता है।
               और इसके बाद सत्य के साथ एक दुर्घटना और शुरू हो जाती है! कुछ की खुशी भरे हाथों उछलते सत्य की यहीं से दुर्दशा भी प्रारम्भ हो चुकी होती है। अब यह अपने को नुचता हुआ पाता है! सत्य की इस नोंच-नोचाई में उसको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है..! इस बेचारे सत्य का जिसके जो हाँथ लगा उसे ही नोच लोग फरार होने लगते हैं। अपनी इस दुर्दशा से हो सकता है सत्य निकलना चाहता हो लेकिन निकलना अब इसके वश में भी नहीं होता। क्योंकि तब-तक यह दूसरों के हाथों खिलौना बन चुका होता है और अब तक चिंदियों में बँट चुका यह सत्य बेचारा असत्य में रूपांतरित हो चुका होता है, जहाँ इसे रोना भी अब मुअस्सर नहीं...! यहाँ तक तो जय हिंद!!
               हाँ भाई तटस्थ लोग, इस सत्य का खूब मजा लेते हैं.. जैसे हमारे देश की राजधानी वाले मुख्यमंत्री जी हैं इनके हाथों सत्य भी खूब उछला था। मीडिया ने भी सत्य के इस उछल-कूद में उनका खूब साथ दिया था..! लेकिन अब पता नहीं क्या हुआ? हमें लगता है अब उनका वह सत्य, सत्ता पर सवार है या सत्ता स्वयं उस सत्य पर ही सवारी गाँठ रही हो? यह आप लोग ही तय करिए....या इस सवार-सवारी पर निगाह डालिए तथा कौन कितना झलक रहा है इससे तय कर लीजिए।
              अब आते हैं बेचारे रोहित बेमुला पर, उसने जब सत्य को जाना तो वह आत्महत्या कर चुका होता है....! यह सत्य तो वाकई खतरनाक निकला! क्योंकि यहाँ यह सत्य रोहित बेमुला की आत्मा के साथ ही भूत बन सब पर मँडराने लगा है और भाई लोगों की ओझाई-सोखाई चालू है! यहाँ भूत बना यह सत्य या तो प्रकट ही होगा या इस ओझाई-सोखाई से डर ससुरा भाग ही जाएगा..? क्योंकि भूतों का हश्र हम सब जानते हैं!
             हाँ अब आते हैं वो क्या नाम है..? अरे हाँ कन्हैया..! इस समय उसे देख ऐसा लगा जैसे यह सत्य भी कल रात ही जेल से ही छूटा हो, और इसके कंधों पर सवार यह सत्य इसके भाषणों में गौरवान्वित हो खूब इठला रहा हो...सत्य तुमसे खूब रश्क हो रहा है! बस चूँ-चूँ का मुरब्बा मत बनना।
            मैं भी यहाँ बैठे-बैठे यही सोच रहा हूँ उछलो भाई खूब उछलो..! ये मीडिया और टीवी वाले भी कन्हैया के हाथों में अपना हाथ लगा तुम्हें खूब उछाल रहे हैं! कुछ लोग तुम्हें कन्हैया के हाथों उछलते देख हो सकता है मायूस भी हों और तुमसे मुँह चुराना चाहते हों...क्योंकि उनका भी कोई सत्य हो जो कहीं इस खेल में दुबककर तिरोहित न हो जाए..?
             लेकिन भाई मेरे सत्य! यह तो मैं जानता हूँ कि तुम इस समय बहुत परेशान और घबड़ाहट में होगे और वह भी अपने अस्तित्व को लेकर...! मैं तुम्हारी इस सोच और डर से भी वाकिफ हूँ कि कहीं तुम्हें मात्र कन्हैया का ही सत्य न ठहरा दिया जाए...! कुछ लोग इसमें लग भी चुके हैं, और तुम्हें! सत्यों के गुत्थम-गुत्थाई के इस खेल में अपने चिंदी-चिंदी हो जाने का खतरा भी महसूस हो रहा होगा...लेकिन तुम कर भी क्या सकते हो..? ये मीडिया और टीवी वाले तुमको बाँटकर तुम्हें चिंदी बनाने पर ही जो तुले हुए हैं, तुम असहाय से कुछ कर भी नहीं सकते..!
              अंत में कन्हैया के हाथों उछलते या उछलाते जाते हे सत्य महोदय...! बस तुमसे मेरी यही एक विनती है "यदि तुम बचते हो तो इस बेचारे कन्हैया की गरीबी अवश्य दूर करना, जैसे उस बेचारे दिल्ली वाले को मुख्यमंत्री बनाकर किया है...! इतना तुम्हें कन्हैया का एहसान मानना ही होगा आखिर उसके हाथों उछल-उछल अपने होने का मजा जो ले रहे हो! बाकी हम तो आजादी के बाद से गाहे-बगाहे तुम्हारे इस उछल-कुदाई का खेल देखते ही आ रहे हैं..!" एक बार और जोर से बोलो जय हिन्द...!
              वैसे आप बोले नहीं होगे इससे तो कुछ मिलना नहीं... तो क्यों न आप भी इस उछल-कूद में शामिल हो जाते.......

उसे तो एक डर विहीन दिवस ही दे दो!

              उस दिन रात गहरा रही थी और हमारी बस चली जा रही थी। मैं बस की खिड़की से बाहर पसरे अँधेरे को निहारे जा रहा था और रह-रह कर कोई प्रकाश श्रोत इस पसरे अँधेरे से जैसे लड़ते हुए आँखों के सामने गुजर जाता। इस प्रकाश श्रोत के गुजरने की आवृत्ति थोड़ी बढ़ने लगी थी लेकिन ऐसा नहीं कि बस की गति तेज हो गई थी बल्कि राजमार्ग के किनारे कोई बस्ती गुजरने वाली थी
           बस की खिड़की से देखते हुए सहसा आँखों के सामने से एक मंजर गुजरा। उस मंजर में, एक छोटे से मैदान में चकाचौंध करती लाइटों के बीच सजे मंच पर एक बारबाला नाचती हुई दिखाई दी थी। इसके साथ ही मेरी निगाहें उस मंच को घेरे हुए सैकड़ों पुरूषों के समूह पर भी चली गई थी। उन पुरूषों के बीच से तमाम हाथ उस नाचती बारबाला की ओर उठे हुए देखा। वह पुरूष समुदाय उस नाचती बारबाला का जैसे उत्साहवर्धन करता दिखाई दे रहा था।
            अब तक आँखों के सामने से वह मंजर गुजर चुका था। फिर मैं अपनी स्मृतियों में खो गया था। उस समय हम यही स्नातक के दौर से गुजर रहे थे। एक रिश्तेदार की शादी में गए थे। वहाँ भी ऐसे ही बारात में नाचने के लिए एक औरत को बुलाया गया था जिसका नाचना ही पेशा होता था। जनवासे में बारात की महफिल सजी हुई थी और बारातियों के बीच वह नर्तकी नाच रही थी। कुछ अधेड़ किस्म के बाराती अपनी जगह पर ही बैठे-बैठे खुशी से उछल रहे थे तथा एकाध तो खुशी से हवाई फायर भी करने लगे थे। उस समय हमने इसका विरोध किया था और उस जगह से दूर चले गए थे। उस नर्तकी का पुरूषों के बीच नाचना और पुरुषों का उछलते हुए उसे देखना तब हमें बहुत बुरा लगा था। वास्तव में जब कभी भी ऐसा दृश्य आँखों के सामने उपस्थित हुआ हमने ऐसे दृश्य से मुँह मोड़ना ही उचित समझा।
           मैं अकसर ऐसे दृश्यों को देखकर सोचने लगता हूँ कि जो पुरूष नाचती बारबालाओं या नर्तकियों को ललचाई सी नजरों से देख झूमते हुए ताली पीटते हैं वे अपने घर की महिलाओं की कैसी इज्जत करते होंगे? खैर....
           जरा उस महिला के मन झाँकते! जो अकेली पुरूषों के बीच में नाच रही हो और इन्हीं पुरूषों की ललचाई सी आँखें उसके शरीर को बेध रही हों, तो उस महिला के मन पर क्या गुजरती होगी? कुछ लोग इसे पेशा कह देते होंगे, लेकिन क्या कोई इसे सहज पेशा मान सकता है? यह पेशा हो भी तो यह तमाम दर्द और पीड़ा को समेटे हुए उस महिला की गरिमा की शर्तों पर ही होता होगा। ऐसे में मेरी स्मृतियों में आए उस बारात और ऐसे ही अन्य स्थलों पर लोग महिलाओं की गरिमा से खिलवाड़ करते हुए लगते हैं।
            उसी समय बस में जब मैंने सोशल मीडिया को खँगाला तो पता चला कि आज महिला दिवस भी है, क्योंकि कुछ लोग इस महिला दिवस पर बधाई देते हुए नजर आ रहे थे! लेकिन, मैं सोच रहा था पता नहीं वे किसको और किसलिए बधाई दे रहे थे। जबकि यह स्त्री तो-

हाँ वह स्त्री है
नहीं चाहती वह कि-
उसका भी कोई दिवस हो,
उसने तो जननी बन तुमको ही
सारे दिवस सौंप दिए हैं।
हाँ वह स्त्री है,
सहचरी बन साथ निभाया
आँगन की फुदकती उस गौरैया सी
जो तिनका-तिनका खटती है।
हाँ वह एक स्त्री है,
अभिलाषा है उसकी
उन बेधती निगाहों से
किसी मुक्ति-दिवस की।
हाँ, दे सको तो तुम उसे,
अपने जमावड़ों वाले गलियारों से
चटखारे वाली कहानियों का
पात्र बनते जाने से, ऐसा ही कोई
उसे एक मुक्ति दिवस दे दो।
हाँ, वह स्त्री है
अगर दे सकते हो तो उसे
तमाम कसीदों से मुक्त केवल
एक डर विहीन दिवस ही दे दो।
-विनय

स्वर्गलोक में नारद का नया बखेड़ा.

            संयोग से आज महाशिवरात्रि के दिन पृथ्वी का भ्रमण कर नारद जी स्वर्गलोक में भगवान् विष्णु से मिलने पहुँचे थे...मन में उठते कुछ अनसुलझे प्रश्नों से वे बेचैन थे..
           “भगवन् ! आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी? विष्णु से नारद ने यही प्रश्न किया था| नारद के इस प्रश्न से भगवान् विष्णु अचकचा उठे और उनकी ओर देखते हुए बोले-
              “अरे नारद आप स्वर्गलोक में हो..! फिर भी यह प्रश्न..?”
             “नहीं प्रभु मेरे जिज्ञासु मन को शांत करें..मैं जब से पृथ्वीलोक से वापस आया हूँ..इस प्रश्न ने मेरे दिमाग का मट्ठा कर दिया है..अब आप ही मेरा उलझन दूर कर सकते हैं..|” माथे पर परेशानी का भाव लिए नारद जी ने कहा|
            इधर भगवान् विष्णु नारद के इस अनापेक्षित से प्रश्न से, यह सोचकर हैरान थे कि एक तो नारद के मुँह से आज “नारायण-नारायण” भी नहीं सुनाई दिया, दूसरे कहीं नारद जी उनकी भक्ति को छोड़ वामपंथ-दक्षिणपंथ जैसे सांसारिक प्रश्नों में ही न उलझ जाएं..! फिर भक्ति का प्रचार-प्रसार कौन करेगा..? हाँ अपनी भक्ति किसे अच्छी नहीं लगती...सो भगवान् विष्णु ने धीर-गंभीर वाणी में उनसे कहा-
             “अरे नारद जी ! देवलोक के लिए यह प्रश्न प्रासंगिक नहीं है..आप कहाँ का बखेड़ा यहाँ ला रहे हैं” 
             “नहीं प्रभु यह प्रश्न देवलोक के लिए, आप के लिए और सभी देवताओं के लिए प्रासंगिक है..!” नारद के आत्मविश्वास से लबरेज इस वाक्य को सुन नारायण ने नारद के प्रश्न के प्रति थोड़ी संजीदगी बरतते हुए पूँछा-
             “अच्छा..! ऐसे प्रश्न की प्रेरणा आप में कैसे जागृत हुई?”
           “हे प्रभु..! भोले बाबा और उनके भक्तों को देखकर ही मेरे मन यह प्रश्न आया, भक्तों के प्रति वर्ताव में मुझे आप त्रिदेव भी अप्रत्यक्ष रूप से आज के इस मौंजू प्रश्न में बंटे दिखाई दे रहे हैं, इसीलिए आपसे यह प्रश्न पूँछना पड़ा” -नारद उवाच|
              “तो नारद ! कैलाशपति शंकर जी से ही यह प्रश्न करते..” विष्णु ने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा|
             “हे परम आदरणीय प्रभु..! भोले बाबा से ऐसे प्रश्न करने की आवश्यकता ही नहीं..! वे तो असली वामपंथ के पुरोधा हैं। अहा..! राख भभूत लपेटे साँप, विच्छू धारण किए एकदम आम-आदमी जैसे और ऐसे ही लोगों से घिरे हुए..वही कैलाशपति शंकर..आम आदमी के भगवान ! उन्हें देख कोई भी वामपंथी ही नहीं बल्कि वामपंथ का पुरोधा भी मान लेगा, और यही नहीं प्रभु! आज मैंने धरती पर भी महाशिवरात्रि के पर्व पर वैसे ही जटाजूट धारी भभूत लपेटे हुए शिव-रूप धारण कर घोड़े पर सवार मनुष्य और उस शिवबारात में अब तक आपकी कृपा से वंचित मनुष्यों को बाराती बने देखा जहाँ उन सबका उत्साह देखते ही बनता था!” जैसे नारद जी ने भगवान् शंकर की भक्ति में लीन होकर कहा हो।
             “लेकिन नारद ! इस नश्वर से सांसारिक प्रश्न को हम देवों पर तो न लागू करो..!” नारद के अन्दर उपजते वामपंथी रुझान से अप्रभावित विष्णु ने कहा|
          “नहीं प्रभु..! अब आप त्रिदेवों की इस विषय पर स्पष्ट स्थिति मैं जानना चाहता हूँ..हाँ,भोलेनाथ से तो पूँछने की आवश्यकता ही नहीं उन्हें समझना बहुत आसान है..! बस सीधे आपके पास चला आया हूँ |” 
            “अरे ! पहले इस विषय पर ब्रह्मा की भी तो राय ले लेते...फिर मेरे पास आते..!” विष्णु की इस बात पर नारद थोड़ा उत्तेजित हो कर बोले-
            “देखिए परमेश्वर! जैसी रचना वैसा रचनाकार..!! उनकी पूरी रचना में ही हमें दक्षिणपंथ दिखाई पड़ता है...पृथ्वीलोक पर आते-जाते मुझे इसका स्पष्ट प्रमाण मिल गया है...”
            “नारद ! यह कौन सी पहेली बुझा रहे हो..?” –विष्णु
          “यह पहेली नहीं है प्रभु..देखी कह रहे हैं..! आखिर..वहीँ ब्रह्मा जी ने पृथ्वी पर जीवन रच दिया..उसे हरा-भरा कर दिया...! लेकिन..मंगल..बुध..समेत अन्य ग्रहों की स्थिति क्या है..? यही नहीं..चन्द्रमा तो पृथ्वी के पास ही था, उसको भी ब्रह्मा जी ने उजाड़ बना दिया है..! आखिर अपनी ही रचना में ऐसा भेदभाव क्यों..? यह दक्षिणपंथ नहीं तो और क्या है..? ब्रह्माजी के मन में जो था वैसा ही उन्होंने बना दिया..! एक को सजाओ-सँवारो और दूसरे को उजाड़ बनाए रखो..!! यह कहाँ का दैवीय सामाजिक न्याय है..? हाँ भगवन! मैं तो कहता हूँ..सृष्टि रचने का काम और किसी को सौंपिए..नहीं तो सब गुड़गोबर हो जाएगा..|” नारद के इस तल्खी भरे स्वर को सुन विष्णु समझ चुके थे कि नारद पर अभी पृथ्वीलोक का ही भूत छाया है, वह मौन ही रहे|
            “नहीं भगवन्, आप मौन मत हों..कृपया मेरे प्रश्न का उत्तर दें कि आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी..? वैसे प्रभु क्षमा करे मुझे आपका रुझान दक्षिणपंथ की ओर ही दिखाई देता है, नहीं तो ब्रह्मा जी के इस अन्यायपूर्ण कार्य में आप अवश्य हस्तक्षेप करते..?” नारद ने अपनी जिज्ञासा और तल्खी को पुनः विष्णु से प्रकट किया..|
इधर भगवान् विष्णु नारद से अपनी बातचीत की दिशा भी नहीं मोड़ पा रहे थे, और यह सोचते हुए “देवी लक्ष्मी भी न जाने कहाँ भ्रमण पर निकल गई हैं...? लक्ष्मी भी तो अक्सर देवताओं के ही यहाँ जाती हैं..सही में नारद के प्रश्न का उत्तर देना कठिन है!!” भगवान विष्णु के माथे पर बल पड़ गया और नारद के इस प्रश्न में उलझ अपना सिर खुजला रहे थे..! उनके कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि नारद के इस प्रश्न का क्या उत्तर दें, फिर अपने मुकुट को सीधा करते हुए (सिर खुजलाने से जो टेढ़ा हो गया था) नारद से अनमने ढंग से पूँछा-
              “अच्छा कैलाशपति शंकर की सवारी क्या है..”
              “नंदी बैल जी..!” – नारद
              “लेकिन मनुष्यों ने तो शिवबारात वाले जुलूस में उन्हें घोड़े पर बैठा दिया था.., मैं कहता हूँ कि मनुष्यों के चक्कर में न पड़िए, ये कुछ का कुछ बना देते हैं!” विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा | 
              विष्णु से अपने अनुत्तरित प्रश्न को लेकर नारद असंतुष्ट थे और विष्णु भी उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं देना चाहते थे। भगवान् विष्णु यह सोचकर भी थोड़े परेशान से हुए कि कहीं नारद के इस प्रश्न से देवलोक में भी दक्षिणपंथ-वामपंथ का झगड़ा न शुरू हो जाए...! इसी से चिंतित भगवान विष्णु ने फिर कहा-
             “देखो नारद ! जो ‘गोल्डीलॉक जोन’ में होगा वही खुशहाल होगा...”

             यहाँ भगवान् विष्णु का आशय किसी के संतुलित अवस्था में होने से था...लेकिन नारद उनके इस कथन से भी संतुष्ट नहीं हुए। तभी नारद को कृष्णावतार के समय का उनका गीतोपदेश, जिसमे भगवान् ने स्वयं अपना विराट स्वरुप वर्णित किया था, उस कथन से निकले इसी अर्थ “भगवान् स्वयं अपने को भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाते तो मेरे प्रश्न का क्या उत्तर देंगे...?” को सोचते हुए और मन ही मन आज "नारायण-नारायण" की जगह “ॐ नमः शिवाय...ॐ नमः शिवाय” जपते नारद वहाँ से चल दिए..
            महाशिवरात्रि के इस पर्व पर आप सबके जय की मंगलकामना के साथ...!
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