लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

डर को ड्राइव करें


       नींद तो आज लगभग साढ़े चार बजे ही टूट चुकी थी, लेकिन मैं मानसिक प्रमाद में उलझा कतई बिस्तर नहीं छोड़ा...धीरे-धीरे छह बज गए थे...आखिर में बिस्तर छोड़ना ही था..! वैसे आजकल मैं अपने सुबह टहलने वाले कार्यक्रम को महत्व न देकर, आलस को महत्व देने लगा हूँ...तथा...जो जैसा चल रहा है उसे वैसे ही चलने देने में विश्वास करने की मेरी प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है...हो सकता है यह उम्र या समय के दौर का तकाजा हो..खैर। 

           ...बिस्तर छोड़ कर उठने पर शरीर में अकड़न की अनुभूति हुई..थोड़ा बहुत शरीर को वॉर्मअप करना ही था...तो कमरों में ही घूम-घूम कर टहलने लगा..! हाँ इस कमरे से उस कमरे और फिर इस कमरे तक कुछ चक्कर टाइप से..! इस चकरघिन्नी में कमरे और गलियारे में देखा..! तीन-चार मेंढक के बच्चे फुदक रहे थे..और..ये मेरे पैरों के धमक की आहट पाते ही आसन्न खतरे को भाँप फुदक कर दीवाल की ओर किनारे हो लेते..! करीब पंद्रह मिनट की चहलकदमी में, यह देखते हुए मैं उनसे बच-बचाकर पैर धरता रहा..हाँ, यहाँ मेरे आवास में यही स्थिति है..बरसात के दिनों से यही हो रहा है..एक बार तो भूल से दरवाजा खुला छोड़ दिया था, तो "असढ़िया साँप" या कहें "घोड़ा पछाड़" किचेन में घुसकर आराम फरमा रहा था..! खैर उसे निकल जाने दिया था...तब से दरवाजों को खुला नहीं छोड़ता..
          "लेकिन..बंद दरवाजे के नीचे से ये मेढक के बच्चे अन्दर चले आते होंगे..और..सुरक्षित रहते हुए इन्हें यहाँ कमरे में रोशनी के कारण कीट-पतंगे आसानी से मिल जाते होंगे" नन्हें मेंढ़कों को फुदकते देख मैंने यही सोचा..! ध्यान देने पर मैंने पाया कि..पैरों की धमक से आसन्न संकट भाँपकर इनका फुदककर किनारे हो जाना अपने तईं किसी डर के प्रति इनकी बुद्धिमत्तापूर्ण प्रतिक्रिया है..! इधर मैंने भी पैरों से इनके कुचल जाने के अपने "डर" से मुक्त होने की सोची..!! और डर-डर कर फुदकते उन नन्हें मेढकों को बारी-बारी से अपनी मुट्ठी में कैद कर इन्हें ले जाकर झुरमुटों में छोड़ता रहा..
         ...इस दौरान मेरी मुट्ठी में कैद होते मेंढ़क, शायद स्वयं के निगले जाने की स्थिति में पाए जाने की सोच मारे डर के अपनी अन्तिम घड़ी गिने होंगे..लेकिन मुट्ठी से मुक्त होते ही झाड़ियों में स्वयं को सुरक्षित पाकर उछल-कूद करते हुए अपने इस भयानक डर से मुक्त होने की खुशी भी मनाए होंगे..!! वाकई! डर से मुक्त होना खुशी देने वाला ही होता है...एक बात है अगर ये मेंढक लेखक होते तो निश्चित ही किसी मँझे हुए लेखक की साहित्यिक भाषा में यही लिखते कि "डर, डरने से होता है" लेकिन ठहरे ये बेचारे मेंढक! आखिर ये घोड़े की तरह नाल थोड़ी न बँधा सकते हैं...!! 
       ...अभी पिछले दिनों मैंने पढ़ा कि कहीं किसी अधिकारी ने आत्महत्या कर ली..उस अधिकारी की फेसबुक प्रोफाइल को जब हमने खंगाला तो उसने 
"it's a must win situation.. no alternative except victory" 
          को अपनी टैगलाइन बना रखी थी..आप इन पंक्तियों पर ध्यान देंगे तो यही पाएँगे कि उसने अपने लिए "फुदकने" का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा था..!! मतलब उसे हर हाल में 'Victory' ही चाहिए..! फिर तो किसी 'हार' के अंदेशे का डर उसे आत्महत्या तक ले ही जाएगा..!!!
         खैर..सुबह "डर" से फुर्सत मिलने पर देखा पेड़ बन रहा आम का प्रफुल्लित पौधा गिरा हुआ था...यह कैसे गिरा?  दो बंदर के बच्चों को उछलते-कूदते देखकर अनुमान लगाया कि यह बंदरों की "खुराफात" के कारण गिरा है..अब किसी की खुराफात ही सहजवृत्ति हो तो फिर क्या किया जाए.. 
चलते_चलते
      देखिए! डर तो सभी जीवों की सहजवृत्ति होती है क्या मेंढक, क्या आदमी! बात डर को ड्राइव करने की महत्वपूर्ण है..और इससे भी बढ़कर यह कि आपका डर किस बात को लेकर है..! हाँ यही बातें किसी को मेंढक तो किसी को आदमी बनाती हैं...
सुबहचर्या 
(10.10.18)

भुरभुरापन

        आज नवनिर्मित "माँ लामा देवी" का शुभारंभ होना था..उद्घाटन के लिए चहक रहे धर्मशाला परिसर के मुख्यद्वार पर बँधा लाल रिबन जैसे उल्लास में रह-रहकर हवा में फड़फड़ा उठता। उस मुख्यद्वार के सामने स्थित मैदान के किनारे पर एक मंच बनाया गया था। मंच पर फूलों से सुसज्जित टेबल पर एक बड़ी सी तस्वीर रखी हुई थी जिसके नीचे तख्ती पर "माँ लामा देवी" लिखा हुआ था। उस टेबल के ठीक पीछे मंच के पृष्ठ भाग पर एक विशाल आकर्षक फ्लैक्सी लगी हुई थी और उस पर बड़े अक्षरों में "माँ लामा देवी धर्मशाला उद्घाटन समारोह" के साथ ही मुख्य अतिथि और आयोजक के नाम भी लिखे थे। वहाँ के क्षेत्रीय विधायक मुख्य अतिथि के रूप में थे, तो आयोजक के नाम के नीचे स्वयं योगवीर का नाम लिखा था और साथ में "सौजन्य से- नृपेंन्द्र" छपा था। 
          
        उद्घाटन समारोह का जायजा लेते-लेते योगवीर की निगाह नवनिर्मित धर्मशाला के मुख्यद्वार के गेट के ऊपर भव्य तरीके से लिखे गए "माँ लामा देवी धर्मशाला" पर ठहर गयी। बचपन से ही मन में पली साध को आज साकार होते देख पल भर के लिए उनका मन भावनाओं के उफान में जैसे बह चला था...भींग सी चली आँखों से, स्मृतियों के हिचकोलों में स्वयं को सँभालते हुए उन्होंने उद्घाटन की बाट जोहते हवा में फड़फड़ाते लाल रिबन की ओर देखा...
        ... हाँ, उन दिनों इस धर्मशाला के स्थान पर एक बड़ा इमली का पेड़ और तीन महुआ के दरख्त हुआ करते थे..और..ठीक दाँए ओर बड़ा तालाब जिसके दूसरे छोर पर एक मंदिर...उस मंदिर के पीछे से लेकर तालाब को तीन तरफ से घेरे हुए पुराने दरख्तों वाला एक विशाल बाग हुआ करता था। जो इस नवनिर्मित धर्मशाला के पीछे तक फैला था। उस बाग में आम, पाकर, महुआ, इमली, खिन्नी, लिसोढ़ा आदि के वृक्ष थे। लेकिन वह बाग अब लगभग उजड़ चुका है...पुराने दरख्त या तो सूख चुके हैं या फिर समय के थपेड़ों में गिरते गए...बाग के कुछ हिस्से पर लोगों के अवैध कब्जे भी हो चुके हैं, लोगों ने वहाँ या तो मकान बना लिया या फिर उसे अपने खेत में मिला लिया। हाँ..उस मंदिर को जरूर थोड़ी और भव्यता प्रदान कर दी गई है। 
         ... माँ की उँगलियाँ पकड़े महाशिवरात्रि पर लगने वाले यहाँ के मेले में वह भी आया करता था...माँ मंदिर के चबूतरे पर सीढ़ियों के पास ही बैठ जाती और वह मेले की चहल-पहल को निहारा करता...माँ एक बार मंदिर के चबूतरे पर उसी स्थान पर बैठी थी...उनके सिर पर पड़ा साड़ी का पल्लू फटा था और किसी ने उन्हें भिखारिन समझ उनके सामने पाँच रूपए का नोट रख सीढ़ियाँ उतरने लगा था...तब दौड़कर माँ ने उस आदमी को पाँच रूपए का वह नोट देते हुए उससे कहा था, "भैया मैं भिखारिन नहीं हूँ।" इस घटना के बाद माँ ने मंदिर के उस चबूतरे पर बैठना छोड़ दिया था...कभी-कभी माँ मंदिर में जल चढ़ाने जाती..तब मंदिर में कोई नहीं होता था...छोटी सी लुटकी में तालाब का जल और बाग से बेल-पत्र लेकर वह मंदिर में जाती, अकसर तब उनकी उँगलियाँ पकड़े वह भी उनके साथ होता...माँ सुबह मुँह-अँधेरे मंदिर पर झाड़ू-बुहारू करने भी आ जाती...
        ...... मुख्यद्वार पर बँधे फड़फड़ाते लाल रिबन की तरह योगवीर के अंतर्मन में उठती यह अनुगूँज "माँ..माँ...माँ लामा देवी..हाँ..माँ लामा देवी..! माँ.. हाँ माँ तुम सब की माँ...तुम्हें अब सब माँ ही पुकारेंगे.." बाहर आने के लिए फड़फड़ा उठी..और भावनाओं को जज्ब़ करते-करते उनकी आँखों के कोर आखिर भींग चुके थे।
        अचानक आहट भांप योगवीर ने पीछे मुड़कर देखा...नृपेंन्द्र अपनी स्कार्पियो से उतर ठीक उन्हीं की ओर चला आ रहा था...वही नृपेंन्द्र..जिसके सौजन्य से आज का यह कार्यक्रम आयोजित है..! पास आते हुए नृपेंन्द्र की आवाज "विधायक जी बस पहुँचने ही वाले हैं...विशिष्ट अतिथियों को लेकर आप मंच पर पहुँचिए..तब तक मैं अन्य व्यवस्था देख लेता हूँ.." सुनते ही योगवीर अपने अतिथियों की ओर चल दिए, जो थोड़ी दूर पर एक दरख्त की घनी छाया में कुर्सियों पर बैठे आपस में गपिया रहे थे...योगवीर किसी जिले में प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट थे और अतिथियों में उनके समकक्षीय कुछ परिचित थे...योगवीर उन सभी को लेकर मंच की ओर चल दिए । 
                               (2)
            
          मंच की सजावट आकर्षक थी...कुर्सियों के सामने मेजों पर खूबसूरत गुलदस्ते रखे गए थे। योगवीर अपने अतिथियों के साथ मंच पर आ चुके थे...सामने..पांडाल में व्यवस्थित ढंग से लगभग दो सौ कुर्सियाँ लगायी गयी थी..उनमें आगे की पंद्रह बीस कुर्सियों को छोड़ जिसपर गाँव के मानिंद जन बैठे थे, शेष पर ग्रामीण गरीब परिवारों के लोग बैठे दिखाई पड़े...कोई कुर्सी खाली नहीं थी, बल्कि कुर्सियों के पीछे काफी संख्या में ग्रामीण खड़े भी थे...इनमें से ज्यादातर ग्रामीण उनकी ही बस्ती के थे...अपनी उस बस्ती को वे आज भी गरीबों की ही बस्ती मानते हैं...एक-एक कर ये सारे दृश्य योगवीर की आँखों में कैद हो रहे थे...हाँ, आज अपनी बस्ती के इन ग्रामीणों की आँखों में उन्हें एक अजीब सी चमक दिखाई दे रही थी...ठीक इसी समय विधायक जी मंच की ओर आते दिखाई दिए..स्वयं योगवीर उनकी अगवानी करते हुए उन्हें मुख्य अतिथि की कुर्सी तक ले आए। 
        इस बीच मंच संचालक ने उद्घोषणा की..."हमारे बीच उपस्थित मा. मुख्य अतिथि जी...माँ लामा देवी की तस्वीर पर माल्यार्पण करेंगे..और फिर बारी-बारी से सभी अतिथि.." तस्वीर पर माल्यार्पण कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद संचालक ने प्रथम वक्ता के रूप में नृपेंन्द्र का आवाह्न किया...माइक पर आते ही नृपेंन्द्र ने "माँ लामा देवी अमर रहें" का नारा लगाया...योगवीर ने अचकचा कर नृपेंन्द्र की तरफ देखा...नृपेंन्द्र अपनी रौ में मंच के सामने बैठे लोगों से भी तब तक दो-तीन बार "माँ लामा देवी अमर रहें" का उद्घोष करा चुके थे...योगवीर आश्चर्यमिश्रित निगाहों से नृपेंन्द्र को देखे जा रहे थे..उनके कानों में नृपेंन्द्र की आवाज गूंज रही थी....माँ लामा देवी एक वात्सल्यमयी माँ थीं..ममतामयी माँ थीं..उनका स्नेह मुझ पर भी बरसा है...
       ....यह वही नृपेंन्द्र है गाँव के प्राथमिक विद्यालय में साथ पढ़ने वाला..उन दिनों नृपेंन्द्र कक्षा चार और वह पाँच में थे...दोनों घर से स्कूल आने-जाने की आधी दूरी अकसर साथ-साथ तय करते और आधी दूरी के लिए अलग-अलग राह पकड़ते..असल में नृपेंन्द्र का घर गाँव के बीच में था और उनकी बस्ती गाँव के किनारे पर...
          ....उसके बाबा कभी-कभी नृपेंन्द्र के खेत पर काम करने जाते थे...उसे याद है..यह बात उन्हीं दिनों की है..वह भी बाबा के साथ नृपेंन्द्र के घर गया था...उस दिन...बाबा जमीन पर बैठ गए थे, जबकि नृपेंन्द्र के दादा अकेले ही चारपाई पर बैठे हुए थे..! बाबा का इस तरह जमीन पर बैठना उसे समझ में नहीं आया था..तब बाबा के पीठ के सहारे खड़ा हुआ वह, उनके गले में बाहें डाल जल्दी घर चलने के लिए मचल उठा था...
            ....घर पहुँचते ही उसने बाबा से पूँछा था, "बाबा...तुम नृपेंन्द्र के दादा के साथ चारपाई पर क्यों नहीं बैठे..?" इसका जवाब बाबा ने...हम छोटी जात वाले हैं..कहकर दिया था...जात किसने बनाया..बहुत कुरेदने पर बाबा ने झल्लाते हुए बस इतना ही कहा था...जात भगवान ने बनाया है, इस पर हमारा कोई वश नहीं...इस घटना के बाद से स्कूल में गाए जाने वाले प्रार्थना की पंक्ति "जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जायें" से उसका मन उचट गया था और उसे भगवान से भी जैसे नफरत सी हो आयी थी...भगवान ने जाति क्यों बनायी उसका बाल-मन अकसर इन्हीं बातों पर उलझ जाता..अब नृपेंन्द्र के साथ स्कूल आना-जाना उसने कम कर दिया था... 
        ...इस घटना के पहले कभी-कभी माँ या बाबा के साथ गाँव के बड़े किसानों के यहाँ वह "मजूरी तौलने" चला जाता, लेकिन बाबा वाली बात से उसमें अपमान बोध जाग उठा था और ऐसे लोगों के यहाँ जाने से वह माँ या बाबा से कोई न कोई बहाना बना कर कन्नी काट लेता था ..लेकिन उन दिनों "कटनी" के दिन थे...बाबा भी घर पर नहीं थे..मजबूरी में नरेंद्र के घर मजूरी तौलाने माँ के साथ उसे जाना पड़ा...
                                   3
         ...उस दिन नृपेंन्द्र के घर कुछ और मजदूर भी अपनी मजदूरी लेने आए थे...वह भी माँ के साथ एक चबूतरे पर बैठ "मजूरी तौले" जाने का इन्तजार कर रहा था...उसी समय उसे नृपेंन्द्र आता दिखाई पड़ा था..और वह उत्साह में उससे मिलने चल पड़ा था...लेकिन उसकी अनदेखी करते हुए नृपेंन्द्र ने उसकी माँ से कहा था.."भउजी अपनी मजूरी तौला लो..वहाँ.."  नृपेंन्द्र का माँ को "भउजी" कहना उसे बहुत नागवार लगा...नृपेंन्द्र तो उससे भी छोटा है..! फिर क्यों वह माँ को भउजी कह रहा है...इन्हीं खयालों में वह नृपेंन्द्र से बोल उठा था..."तू..तो मुझसे भी छोटा है..फिर माँ को भउजी क्यों कह रहा है..माँ बोल.." उसकी इस बात पर नृपेंन्द्र ने कहा था, "तुम्हारी माँ..भउजी है...सब गाँव वाले तो भउजी ही कहते हैं तुम्हारी माँ को..हम भी भउजी कहेंगे" और "भउजी..भउजी" कहकर जैसे उसे चिढ़ाने लगा था...
          ...गुस्से में उसने आव देखा न ताव..और अचानक नृपेंन्द्र का कालर पकड़ लिया और उसे झिंझोड़ते हुए उससे 'माँ' कहलाने की जिद करने लगा...लेकिन नृपेंन्द्र 'भउजी-भउजी' कहे जा रहा था...फिर क्या था..! नृपेंन्द्र को वहीं जमीन पर पटक कर उस पर घूंसों की बरसात करते हुए वह 'ले..माँ को भउजी कहेगा...ले..ले..' कहता जा रहा था...जब तक माँ कुछ समझती तब तक उसपर वह कई घूँसे बरसा चुका था...किसी तरह उसे नृपेंन्द्र से अलग किया गया था...
          ...इधर नृपेंन्द्र रोये जा रहा था और उधर उसके घर वाले उसे भला-बुरा कहते हुए पीटने के लिए उद्धत हो रहे थे...अचानक..! भागकर माँ उसके पास आ गई थी और उसकी बाँह पकड़  घसीटते हुए उसे वहाँ से थोड़ी दूर ले गयी...फिर वहीं उसे पीटना शुरू कर दिया था..माँ उसे डंडे से पीट रही थी..उसे याद है...वह भी चुपचाप खड़े हुए माँ से मार खा रहा था..हाँ, उसे पीटते हुए माँ रोये जा रही थी..उसकी पिटाई देख नृपेंन्द्र का रोना बंद हो गया था...उसकी पिटाई के बाद माँ ने जाकर नृपेंन्द्र को पुचकारा था..
          ...उस दिन नृपेंन्द्र के घर से वापस आने पर अकेले ही छप्पर के नीचे उदास और गुमसुम बैठा था...लोग उसकी माँ को 'भउजी' या "भाभी" क्यों कहते हैं..? बड़े तो बड़े..लेकिन उस जैसे हम-उम्र बच्चे भी माँ को 'भउजी' कहते हैं..! ..वह तो उसने बाद में समझा था कि कुछ बड़ी उम्र के लोग माँ को 'भउजी' माँ से चुहलबाजी में कहते थे और माँ उनकी चुहलबाजी से बचने के लिए उन्हें 'भइया-भइया' कहती जाती...हाँ माँ की आदत हो गई थी...सभी छोटे-बड़े को 'भइया' कहना....
          ..... उसे याद है..छप्पर में अकेले बैठे हुए वह दूर सिवान तक पसरी चिलचिलाती दोपहरी को निहारने लगा था..जिसमें एक अजीब सी मृगमरीचिका बन रही थी... हाँ अपनी लाल सूजी आँखों से उसी झलमल दोपहरी को निहार रहा था...तभी किसी ने उसके सिर पर हाथ रख सहलाने लगा था...उसने पलट कर देखा...यह माँ थी..! माँ ने उसे अपनी बाँहों में भर सीने से लगा लिया था....और उसे यूँ ही सीने से लगाए बहुत देर तक रोती भी रही..और..वह भी माँ की छाती से लगा सुबकने लगा था...फिर माँ उसके और अपने आँसू पोंछते हुए बोली थी...बेटा...नृपेंन्द्र के घर वाले तुम्हें पीटते तो मुझपर क्या गुजरती..! और उसे बाँहों में भरे सीने से लगाती हुए बोली थीं...तू पढ़ लिख कर जब बड़ा आदमी बन जाएगा न...तो फिर सब हमें भी "माँ" बोलना शुरू कर देंगे...और भाभी भी तो माँ समान ही होती है न..इसका तू क्यों बुरा मानता है..!"
            ...मंच पर बैठे हुए, अपने बचपन की इन्हीं पुरानी स्मृतियों में वह खोया हुआ था, इधर नृपेंन्द्र ने "माँ लामा देवी अमर रहें.." के एक जोरदार नारे के साथ अपना भाषण समाप्त किया..मंच संचालक ने किसी अन्य वक्ता को भाषण के लिए आमंत्रित कर लिया था...
                                  4
          ...उसे याद आता है...बाबा से पाए अपने 'जात' के ज्ञान से उसे भगवान से नाराजगी हो चली थी...एक दिन उसने माँ से कह दिया था..माँ..भगवान ने जात बनायी है..तू फिर क्यों मंदिर जाती है..? तब माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था..भइया..भगवान ने अच्छाई भी बनाई है..तुम अच्छे हो..तुम्हारी इस अच्छाई को आखिर भगवान ने ही तो बनाया है..और देखो जिस मंदिर हम जाते हैं..उस भगवान के हाथ पैर तो है नहीं..जब तुम बड़े हो जाओगे तो वह तुम्हारे इन्हीं दोनो हाथों से अच्छाई करेगा..कहते हुए माँ ने उसके दोनों नन्हें हाथ अपने हाथ में ले लिया था...वह मंदिर जाने लगा था...माँ अनपढ़ थी लेकिन उसकी इन बातों को वह आज भी नहीं भूल पाता..
         ...एक दिन आफिस के अपने चैम्बर में बैठा वह काम निपटा रहा था...अर्दली ने एक चिट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा था..सर, आपके गाँव से कोई मिलने आया है..वह नृपेंन्द्र ही था..! उस दिन आफिस के उस चैम्बर में ही नृपेंन्द्र से काफी देर तक बातें हुईं थी...बचपनवाली उस दिन की घटना के कई वर्ष बाद यह पहला अवसर था, जब वे दोनों इस तरह मिल कर बातें कर रहे थे...नृपेंन्द्र उसकी माँ के नाम नवनिर्मित धर्मशाला का उद्घाटन जिला पंचायत के इलेक्शन से पहले क्षेत्रीय विधायक के हाथ कराना चाहता था, और उद्घाटन की सारी जिम्मेदारियाँ भी वह उठाने के लिए तैयार था..बस इसके लिए सहमति और उद्घाटन की तारीख देने के साथ उसे अपने स्वजातियों से नृपेंन्द्र को वोट देने की अपील भर करनी थी..
          ...उसके लिए यह कोई मँहगा सौदा नहीं था..लेकिन नृपेंन्द्र के इस प्रस्ताव में उसे बचपन में मिले अपने अहसास का सौदा होता प्रतीत हुआ था...आज उसे यह भी अहसास हो रहा था कि..अपमान से उपजी पीड़ा व्यक्ति की ठोस निर्मिति तो होती है..लेकिन सम्मान की अभिलाषा व्यक्तित्व को परतदार बनाकर उस ठोस निर्मिति को भुरभुरा बना डालती है...वाकई!  सम्मान के पीछे व्यक्तित्व का यह भुरभुरापन ही तो होता है..!!
          ...धर्मशाले की जमीन के लिए योगवीर का अपने चचेरे भाइयों से थोड़ा विवाद हो गया था..चचेरे भाई जमीन पर कब्जा कर उसे बेंचना चाहते थे..यह तो उसकी अफसरी वाली हनक और नृपेंन्द्र की मदद काम आई..कि..रातोंरात उस जमीन के चारों ओर बाउंड्रीवाल खड़ा हो गया था...इसी चक्कर में नृपेंन्द्र से दो-तीन बार उसकी फोन पर बातचीत हुई थी...योगवीर ने अगले महीने की तिथि दे दी थी..उसे भी लगा था...माँ के नाम बनवाए गए धर्मशाला का उद्घाटन भव्य तरीके से ही होना चाहिए..
           
         .. माँ के नाम बनवा रहे इस धर्मशाले के लिए पैसा जुटाने के लिए क्या-क्या आरोप नहीं झेले थे उसने..!भ्रष्टाचार के एक-दो आरोप तो उस पर अब भी चल रहे हैं...बल्कि इन्हीं आरोपों के कारण उसका प्रमोशन भी रुका हुआ है..और कोर्ट-कचहरी का चक्कर अलग से..! लेकिन, माँ के नाम धर्मशाला बनवाने की साध पूरी करने के लिए वह सब कुछ करता सहता चला गया...और...आज अपने स्वप्न को साकार होते देख रहा था..!! 
          
          योगवीर की स्मृतियों की कड़ी टूटती है..उसके कानों में आवाज पड़ी..माँ लामा देवी अमर रहें...अरे!  यह तो विधायक जी ने बोलना शुरू कर दिया है...वह खयालों में ऐसा डूबा था कि उसे पता ही नही चला कब वे बोलने के लिए खड़े हो गए..! विधायक जी ने अपनी बात समाप्त करने के बाद नृपेंन्द्र को इशारे से अपने पास बुलाया और उसका हाथ पकड़कर उठाते हुए लोगों से अपील की...आसन्न जिला पंचायत के इलेक्शन में आप सभी नृपेंन्द्र को वोट देकर जिताइए...हम विधायक निधि से इस धर्मशाले को और भी भव्य स्वरूप प्रदान करेंगे..सामने पांडाल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी....
         ..तालियों की इस गूँज के बीच मंच-संचालक ने उद्घाटन-समारोह में आए हुए अतिथियों को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए योगवीर का अह्वान किया..
         योगवीर ने भाषण दिया, जिसका मुख्य अंश इस प्रकार था.. "आज का दिन हम सब के लिए बहुत ही गरिमापूर्ण है..यह मेरी माँ का सम्मान नहीं, आप सब का सम्मान है..आज आप सम्मान के साथ इन कुर्सियों पर विराजमान हैं इसके पीछे भाई नृपेंन्द्र जी की बहुत बड़ी भूमिका है...इनका परिवार बचपन से हमारे लिए प्रेरणाश्रोत रहा है...हमारी और इनकी दोस्ती न होती तो शायद हमें यह सम्मान का अवसर न मिलता...हम सबका फर्ज है कि आने वाले जिला पंचायत के चुनाव में इन्हें अधिक से अधिक मत देकर विजयी बनाएँ..." इस दौरान योगवीर के बगल में खड़े नृपेंन्द्र का हाथ अभिवादन की मुद्रा में लगातार जुड़ा रहा..! अब तक ग्राम वासियों के बीच खाने का पैकेट भी बंटना शुरू हो गया था। 
            ... इधर मंच पर पीछे बैठे बी.डी. ओ. साहब पसीना-पसीना होकर मन ही मन इस कार्यक्रम के आयोजन पर खर्च हुई धनराशि की प्लानिंग में उलझ चुके थे..! उन्हें कार्यक्रम की भव्यता में अनुमान से कुछ ज्यादा ही खर्च हो जाने का अंदेशा था..असल में क्या है कि विधायक जी ने दस दिन पहले ही इस कार्यक्रम के भव्य आयोजन की सारी जिम्मेदारी बी. डी. ओ. साहब पर डाल दी थी...वैसे भी नृपेंन्द्र की कृपा से उन्हें इस विकास खंड से कोई टस से मस नहीं कर सकता..! जबकि साथी अधिकारी इस 'क्रीम' ब्लाक के लिए लार चुआते रहते हैं..ऐसे में इस कार्यक्रम पर ऊँट के मुँह में जीरे जैसे हुए खर्च की क्या चिन्ता..!! और अब वे कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित हो चुके थे, उनके चेहरे पर आई मुस्कान बता रही थी कि उन्होंने भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है..
                     
                         *****

लकीर के लिए टेंशन न लें

          आज तो सुबह सात बजे मैंने बिस्तर छोड़ा..!असल में क्या है कि रात में सोने के ठीक पहले तक यदि आप गंभीर वैचारिक चिंन्तन में उलझे होते हैं, तो निश्चित ही आपकी रात की नींद, कुछ न कुछ खराब तो होगी ही!  तो मैं भी बीती रात सोने के पहले थोड़ा ही सही, कुछ वैचारिक चिंतन में उलझ गया था..इसीलिए, नींद तो आई, लेकिन सोते में अचानक मस्तिष्क में कुछ चुभने जैसा अहसास होता और नींद टूट जाती..! खैर, नींद में आई इसी कमी को पूरा करने के लिए टहलने की कौन कहे, सुबह सात बजे तक मैं बिस्तर नहीं छोड़ा था...!!
       .... हाँ, एक बात है, रात में सोने के कम से कम एक घंटा पहले मन-मस्तिष्क को रिलैक्स कर लेना चाहिए। जिनको सोने के पहले कुछ पढ़ने की आदत है उन्हें चाहिए कि गंभीर विषयों का पाठन नहीं करना चाहिए, बल्कि पाठन के विषय मनोरंजन पूर्ण और हल्के-फुल्के ही होने चाहिए... और एक बात अतिमहत्वपूर्ण कहना तो छूटा ही जा रहा था, वह यह कि आजकल सोशल-मीडिया का जमाना है...इसपर तर्क-वितर्क में मत उलझिए..क्योंकि यहाँ सभी के अपने-अपने पूर्वाग्रह होते हैं..ऐसे में ये तर्क-वितर्क सृष्टि के अंत तक चलते रहेंगे और आपकी रात की नींद नाहक ही खराब होगी..! खैर.. 
        जब तक उठा तब तक लड़का भी आ गया था.. उसने चाय बनायी और हमने पी। चाय पीते हुए अखबार उठाया तो कल के सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों पर निगाह पड़ी..इन्हें पढ़ते हुए मन ही मन मुस्कराया..एक फैसला तो मानवीय रिश्तों में आपसी विश्वास बहाली या यों कहें विश्वास की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करता प्रतीत हुआ... वाकई!  मानव निर्मित संबंधों में आपसी विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता...कानून-फानून तो बनते बिगड़ते रहते हैं...
      ....इस फैसले को पढ़कर मुझे बचपन (कक्षा पाँच-छह के आसपास) में श्रीमद्भागवत, कल्याण और सुखसागर में पढ़ी वैदिक कहानियाँ याद हो आयी...एक व्यक्ति एक स्त्री से उसके पति के सामने ही काम-याचना करता है..स्त्री अपने पति की ओर इशारा करते हुए स्वयं को विवाहित बता कर उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है..और व्यक्ति उस स्त्री को उसका प्रस्ताव न मानने के कारण श्राप देने के लिए उद्धत हो जाता है....एक अन्य कथा में पत्नी स्वयं अपने कंधों पर बैठाकर पति को गणिका के पास ले जाती थी...लेकिन उक्त कथानकों में कहीं भी इन बातों को अनैतिकता की श्रेणी में नहीं माना गया...बल्कि इन कहानियों से पति-पत्नी के बीच आपसी संबंधों तथा एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों और उनके बीच आपसी विश्वास की व्याख्या होती है।...उन्हीं दिनों मैं अपने बाबू (दादा जी) के मुख से अकसर किसी की पोंगापंथी पर उसे "लकीर का फकीर होना" जुमले से नवाजते सुना करता। 
         ...एक बात और.. हमने ओखली (संविधान अंगीकरण) में सिर दे दिया है, तो मूसलों (संवैधानिक व्यवस्थाओं के निर्णयों) से क्या डरना..! हाँ, भूसे को निकालने के लिए कुटाई भी जरूरी है...खैर,
            मेरी सुबहचर्या पढ़कर आप "टफनेस" जैसी स्थिति में आएं, इसके पहले ही मैं बताना चाहता हूँ कि इधर कई दिनों से मैं अपने पड़ोसी के साथ चाय नहीं पी पाया था और मुझे पड़ोसी के साथ चाय पीने की इच्छा हो आयी थी... मैं पड़ोसी का इन्तजार करने लगा...और..वे दिखाई भी पड़ गए..! मेरे चाय का आफर उन्होंने स्वीकार किया और हम दोनों गप्प लड़ाते हुए साथ-साथ बैठकर चाय पीने लगे...चाय पीकर सूकूँन मिला..
          सुबहचर्या 
           (28.9.18)
             श्रावस्ती 

मन का काम गरल है

       दोस्तों, सोचा...आज अपनी #सुबहचर्या लिखें। वैसे आजकल इधर सुबह-सुबह उठकर टहलने में न जाने क्यों मन आनाकानी करने लगता है। अकसर हम भी बिस्तर पर करवट बदलते हुए मन को विजयीभव का आशीर्वाद दे, चुपचाप पसरे रहते हैं। उठते तब हैं जब मन बकायदे उठने के लिए तन को झिंझोड़ता है।
       खैर, मन की बात चली तो "उर्वशी" में पढ़ी ये पंक्तियाँ याद आने लगी -
"तन का क्या अपराध? 
यंत्र वह तो 
सुकुमार प्रकृति का,
सीमित उसकी शक्ति और सीमित 
आवश्यकता है, यह तो मन ही है
निवास जिसमें समस्त 
विपदों का ;
वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी 
काल्पनिक क्षुधा से 
हाँक -हाँक तन को उस जल को मलिन 
बना देता है, 
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस 
स्वच्छ सलिल में
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार 
खिलते हैं।" 
        तो, मित्रों बिस्तर पर पड़े अलसियाया हुआ मैं अपने तन को क्यों दोष दूँ ! तन तो इस प्रकृति की भाँति बड़ा निर्मल होता है, इसका अपराधी तो यह विषैला मन ही है -
            
"तन का काम अमृत, लेकिन 
यह मन का 
काम गरल है।"
       गजब!  भाई जी, इस तन का सोना या जगना इस मन के ही अधीन है...
"मन की लिप्सा के अधीन 
उसको जगना
पड़ता है ;"
        
          तो आज मन ने बिस्तर छोड़ने के लिए सुबह सवा छह बजे के बाद तन को झिंझोड़ा..मैं उठ बैठा..मुँह पर पानी के छींटे मारे, चप्पल पहनी और सड़क पर चहलकदमी करने निकल पड़ा..
      
         सड़क पर चढ़ रहा था (असल में हमारे आवास से सड़क ऊँचाई पर है) तो बरबस एक लड़के पर हमारा ध्यान चला गया, जो तेजी से पैडल मारते हुए साइकिल को खैंचरते हुए भागा जा रहा था...शायद वह साइकिलिंग कर रहा हो...सड़क पर चलते हुए मुझे कोई खास बात नजर नहीं आई, बस यही लगा कि लोग अब अपनी दिनचर्या के लिए गतिमान होना शुरू हो गए हैं...
      
          ....टहलते-टहलते यूँ ही मैं काफी आगे निकल गया..देखा..एक मिनी सरोवर (?) में कमल खिलने को हैं..एक दोपहर को इधर से गुजर रहा था, तो खिले हुए ये कमल बहुत खूबसूरत लग रहे थे..असल में कमल सूरज की किरणों के साथ ही खिलना शुरू होते हैं...इस छोटे से सरोवर में, जो अतिक्रमण का शिकार था, ये बेचारे कमल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते प्रतीत हुए..
          
          ...कहते हैं कमल कींचड़ में खिलता है, ऐसा कहने वाले "कींचड़" को हेय मान कर ही कहते हैं..लेकिन क्या पत्थर में कुव्वत है कि वह कमल खिलाए..!! इसलिए मैं तो कहता हूँ, कींचड़ को उपेक्षित नजरों से न निहारें, क्योंकि कींचड़ में ही कमल खिल सकता है..!
         
        ....यहाँ से लौटते समय सड़क की खंतियों में भरे जल में खिली कुमुदिनियों पर निगाह गड़ गयी..कुमुदिनी का खिलना एकदम प्रात:बेला में ही होता है।
        इन सब को देखते हुए मुझे ध्यान आया वर्षा-ॠतु बीतने के तुरंत बाद प्रकृति बड़ी मनोहारी हो जाती है.. हरियाली के साथ-साथ सरोवर भी पुष्पित हो उठते हैं..! दुनियादारी से ऊबे लोगों का वैरागी-मन ऐसे ही किसी सरोवर के किनारे प्राकृतिक अंचल में आश्रय खोजता है..आखिर, मुक्ति का मार्ग अन्ततः इस प्राकृतिक वातावरण में से ही होकर गुजरता है..
"जो भी अवसर निसर्ग के, 
ईश्वर के भी 
क्षण हैं ; धर्म साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं 
चलती है" 
        हाँ भाई जो इस प्रकृति को नहीं समझते, वे ईश्वर को क्या समझेंगे। और जो प्रकृति को समझ लेता है उसके लिए मुक्ति की चाह व्यर्थ हो जाती है -
"पर, खोजें क्यों मुक्ति? 
प्रकृति के हम 
प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति, 
तब तक हम भी 
बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शान्त, आनंदमयी 
धारा में।"
         इस प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त धरती से... 
"कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस
वसुधा से!"
          इस प्रकार प्रकृति के इस टुकड़े को निहारते-निहारते कुछ क्षणों के लिए हम भी जोगी टाइप हो लिए थे। 
         चलते-चलते अचानक मैंने देखा सड़क की पटरी पर गंदगी के बीच प्लास्टिक का अपना एक छोटा तिरंगा पड़ा था..राष्ट्रीय झंडे के अपमान की सोच मैंने झटपट इसे उठा लिया। लेकिन..मन में थोड़ी सी ऊहापोह भी मची कि आखिर इस झंडे का क्या किया जाए..! इसे सड़क पर फेंक नहीं सकता था और घर लाने पर कूड़े के साथ फिर मिल जाने का भय था..अचानक, आजकल पूजा के बाद होने वाले मूर्ति-विसर्जन का ध्यान हो आया...बस, मैंने इस राष्ट्रीय प्रतीक तिरंगे को मरोड़ा, गोला बनाया और वहीं पास के नाले में फेंक दिया..मने मूर्ति की तरह उस तिरंगे झंडे को विसर्जित कर दिया..
        वैसे एक बात है, सनातनधर्मी कभी मूर्ति स्थापना के हिमायती नहीं रहे हैं... हाँ..हम केवल प्रकृति को ही पूजते रहे...इसीलिए मुक्तिकामी लोग प्रकृति की ओर भागते रहे हैं...लेकिन, जैसे-जैसे हम मूर्ख होते गए वैसे-वैसे हमारी आस्था मात्र प्रतीकों तक सीमित होती गई ! 
        खैर, लौट के बुद्धू घर को आया टाइप से, घर पहुँच अपनी चाय पीने की तलब मिटाने के उपक्रम में जुट गया..चाय बनायी और चाय सुड़कते हुए अखबार पर निगाह डाली....
      "मुसलमानों के बिना हिंदुत्व भी नहीं बचेगा" यह कथन मन को भाया। एक बात है "हिंदुत्व" कोई धर्म नहीं है, भारतीय संविधान को मानना ही हिंदुत्व है। बल्कि हम कह सकते हैं भारतीय संविधान हिंदुत्व की व्याख्या है। खैर मैंने बहुत बात कर ली, बात थोड़ी लंबी हो गई । 
चलते_चलते
        हम जिसे सबसे हेय समझ लेते हैं, उसमें भी असीम संभावनाएं छिपी होती हैं, उसके प्रस्फुटन से मुक्ति-मार्ग मिलता है। 
(19.9.2018)