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शनिवार, 15 नवंबर 2014

यह मुआ तो बड़े दिमागदारों का खेल है...!

“आओ सेकुलरिज्म-सेक्युलरिज्म खेलें..!”

“ये सेक्युलरिज्म क्या है..?”

“इतने पॉपुलर खेल के बारे में तुम्हें नहीं पता...? अच्छा...इसका मतलब भेड़िया आया-भेड़िया आया कहानी कभी नहीं पढ़े...!”

“अरे यार..मेरे भाई..! कहानी तो पढ़ा है...”

“लेकिन इसे समझ नहीं पाए...तभी इस खेल को भी नहीं समझ पा रहे हो..!”

“अच्छा भई..! अब तुम्हीं समझाओ, इस खेल को लगे हाथ हम भी खेल लेंगे..!”

“हाँ...! उसी कहानी की तरह ‘सेक्युलरिज्म-सेक्युलरिज्म’ कह कर यह खेल खेला जाता है...मानो कोई बड़ी आफत आनेवाली हो या आ गयी हो..!”

“देखो पहेली मत बुझाओ..खेल की विधि बताओ..!”

“यह तो जानते हो कि स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार भी है..और इस स्वतंत्रता की सार्थकता हमारे खेलने की स्वतंत्रता पर निर्भर है..”

“मतलब...? मैं समझा नहीं...”

“मतलब यह कि यदि स्वतंत्रता हो तो हम सभी तरह के खेल खेल सकते है...!”

“मतलब इस खेल के खिलाड़ियों के लिए स्वतंत्रता एक अनिवार्य तत्व है..”

“सही समझे..! आगे और ध्यान से सुनो पूरा खेल समझ में आ जाएगा...”

“नहीं...नहीं..एक बात और समझाओ..मान लो इस खेल के खिलाडियों को स्वतंत्रता न हो तो...?”

“तब तो खेलई नहीं होगा..!”

“ऐसा क्यों..?”

“क्योंकि तब सेक्युलरिज्म-सेक्युलरिज्म कहने वाले भी नहीं रहेंगे..! और न ही खिलाड़ी अलग-अलग रंगों की गोटी इस्तेमाल कर पाएंगे जो इस खेल का प्रमुख तत्व है..”

“अच्छा अब खेल समझाओ...”
“कोई जमीन तैयार करो..फिर तमाम गोटियाँ ले लो...हाँ साथ में कुछ अलग-अलग रंग भी लेना जरुरी होगा...”

“हाँ..ये चीजें हमने ले ली..आगे..”

“अब गोटियों को अपने हिसाब से अलग-अलग रंगों में रंग लिया जाए..”

“क्या प्रत्येक रंग के लिए गोटियों की संख्या बराबर-बराबर होनी चाहिए..?”

“बराबर-बराबर तो कर सकते हो..लेकिन खेल का मज़ा तभी आएगा जब एकाध रंग की गोटियों की संख्या अधिक या किसी रंग की कम हो..अलग-अलग रंगों वाली गोटियों की संख्या भी इस खेल का तत्व है...! क्योंकि इस खेल का मूल तत्व भय है जो गोटियों की एक-दूसरे से कम या ज्यादा संख्या पर विशेष रूप से निर्भर होती  है...”

“ओ.के.-ओ.के...अब आगे..”

“अब तैयार जमीन पर गोटियों को बिछा दिया जाये..”

“नहीं..ये तो बताया ही नहीं कि गोटियों को मैदान में किस प्रकार से बिछाया जाए..मेरा मतलब गोटियों को मिक्स बिछाएं या उनके रगों के समूह के आधार पर..!”

“हाँ इस पर ध्यान देना आवश्यक है..तैयार जमीन पर गोटियाँ आप दोनों तरीके से मसलन मिक्स या रंगों के समूह में, दोनों विधि से बिछा सकते हो..लेकिन दोनों तरीकों के मजे अलग-अलग हैं..मान लो विभिन्न रंगों की गोटियों को मिक्स तरीके से बिछाते हैं..तो खेल की अवधि थोड़ी लम्बी होगी..और यदि रंगों के समूह के आधार पर इन्हें बिछाते हैं तो खेलने की अवधि छोटी हो सकती है..क्योंकि तब खेल आधा ही बचता है...”

“वो कैसे...”

“वो ऐसे कि जब भिन्न रंगों की गोटियों को आपस में मिक्स करके बिछाओगे तो उन्हें अपने-अपने रंगों वाली गोटियों के समूह में लाना होगा और इसके लिए खेल के बाहर के लोगों को भी इस तरह प्रशिक्षित कर खेल का हिस्सा बनाना पड़ेगा कि वो हूटिंग-शूटिंग कर सकें...! इसी प्रक्रिया में गोटियाँ अपने-अपने रंगों वाले समूह की गोटियों में शामिल होने लगती है..यह तब-तक चलता रहे जब-तक कि पूरी तरह गोटियाँ अपने-अपने रंगों के समूहों में न हो जाएं...ध्यान रहे यह गोटियों में आपसी भय या डर पैदा करने का खेल है...और इसे बनाए रखना होगा...”

“अच्छा..! यह बताओ यदि गोटियाँ अपने-अपने रंगों के समूह में हों तो...”

“तो...एक दूसरे को उनके रंगों का भय दिखाते रहो...हाँ अब कुछ ‘सेक्युलरिज्म-सेक्युलरिज्म’ कहने वाले खिलाड़ियों को भी इसमें शामिल करना पड़ेगा...! और...जब तक इस तरह का समूह बना रहेगा..तब तक खेल का आनंद चलता रहेगा...हाँ..भय की मात्रा इस तरह निर्धारित करो कि गोटियाँ आपस में मिक्स न होने पाएं...”

“ये ‘सेक्युलरिज्म-सेक्युलरिज्म’ कहने वाले कैसे होते हैं..और इसका मतलब क्या है...”

“इसका मतलब यह है ये संख्या को भय के रूप में बदलने में माहिर होते हैं..और...यानी..कम संख्या वाले समूह को अधिक संख्या वाले समूह का भय दिखाओ...और..बीच-बीच में उसके अस्तित्व पर संकट दिखाते जाओ... यही भेड़िया है...वैसे यह भेड़िया आता कभी नहीं...! यही प्रक्रिया एक प्रकार की सेक्युलरिज्म है..”

“तो सेक्युलरिज्म का मतलब...”

“अरे मेरे भाई...अब जिन रगों के समूहों में गोटियों की संख्या थोड़ी कम हो उन्हें अधिक संख्या वाले गोटियों के समूह का भय दिखाते रहो..यही तो सेक्युलर-सेक्युलर का खेल है..और ये सेक्युलर-सेक्युलर कहने वाले गोटियों और खिलाड़ियों पर बहुत बारीक नजर रखते हैं..ये एक प्रकार का माइंड-गेम खेलते हैं..”

“ये माइंड-गेम खेलने वाले क्या रेफरी की भूमिका में होते हैं..जो गोटियों और खिलाड़ियों पर नजर रखते हैं..?”

“ये माइंड-गेम खेलने वाले कुछ-कुछ रेफरी जैसा आचरण करते दिखाई देना पसंद करते हैं..लेकिन असल में होते हैं ये भी इस खेल के खिलाड़ी ही...! इनका काम गोटियों के बीच खासकर कम रंगों की संख्या वाले गोटियों में इनसिक्योरिटी का भाव जगाए रखना जिससे ये खेल और खिलाड़ियों के बीच भी बने रहें...”

“यार..तुम तो हमको शतरंज की जैसे चालें बताने लगे...गोटियों को मिक्स ही रहने दो तो क्या फर्क पड़ता है...क्यों इन्हें हाथी, घोड़ा, शेर, बाघ में बदल रहे हो..?”

“यही फर्क पड़ेगा कि तब सारा खेल ख़त्म...!”

“अच्छा एक चीज अन्त में और बता दो..यदि हम अलग-अलग रंगों के समूहों की गोटियों को आपस में मिक्स करने का खेल खेलें तो...?”

“तो..तो..ओ..ओ.. हाँ, तब भेड़िये का डर नहीं रहेगा और खेल का मजा भी ख़त्म...!”   

“लेकिन... यह मुआ आपका खेल है बड़े दिमागदारों का खेल...!”

“तभी तो इतना दिमाग लगाने के बाद भी इस खेल को नहीं समझा पा रहा हूँ..”

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मंगलवार, 4 नवंबर 2014

क्या कर्म करने वाला वास्तव में खुराफाती होता है......?

        “डिप्रेशन” हाँ...उस दिन इसी विषय पर बहस चल रही थी..बहस के प्रतिभागी थे..मेरा भांजा, पिता जी और मैं स्वयं...शायद उसी दिन आमिर का इसी विषय पर ‘सत्यमेव जयते’ प्रसारित हुआ था...हालांकि मैं उसे देख नहीं पाया था...हम लोगों का विषय यही था कि आखिर डिप्रेशन किसी को क्यों होता है..? यहाँ मैं उन तर्कों का उल्लेख नहीं करूँगा जो इसके कारण के रूप में हम लोग दे रहे थे क्योंकि फेसबुक के सभी मित्र विद्वान् और चिंतनशील होते हैं..वो..इन तर्कों को जानते और समझते हैं....अतः ज्ञान बघारने की आवश्यकता नहीं..!
        खैर...बात यहीं से बिगड़ी जब पिता जी ने कहा “भाई हमें तो किसी प्रकार की चिंता और तनाव होता ही नहीं...” उनकी बात मुझे पसंद नहीं थी क्योंकि भक्ति से मुझे चिढ़ सी होती है...! अब बात कर्म और भक्ति की ओर मुड़ गई... तर्क ये भी थे कि कर्म में रत रहने वालों को ही तनाव होता है...भक्ति वाले तो हर चीज से निश्चिंत होते हैं..ईश्वर उनकी मदद करता रहता है..!
        फिर बात आई कर्म और भक्ति में कौन श्रेष्ठ है...! हम आपस में तर्कबाजी में उलझ गए...तभी मेरे भानजे ने कहा, “मामा मेरे एक विद्वान् गुरुजन ने इस विषय पर एक कहानी सुनाई थी..और कहा था कि कहानी सुनने के बाद निष्कर्ष स्वयं निकालना कि कर्म और भक्ति में कौन श्रेष्ठ है...आप भी कहानी सुनने के बाद निष्कर्ष निकालिए....! 
         
         भानजे ने कहानी सुनाना आरम्भ किया जो इस प्रकार थी...

        “एक गुरुकुल में पढ़नेवाले दो छात्र आपस में मित्र थे..एक कर्म में विश्वास रखता तथा कर्मार्जन से जीवन-यापन करता था..! और.. दूसरा भक्ति में..उसके लिए भगवन का नामस्मरण ही सब कुछ था...इसी में वह निश्चिंत रहता था..! एक दिन दोनों आपस में बहस करने लगे..एक कहता कर्म ही श्रेष्ठ है तो दूसरा भक्ति को श्रेष्ठ बताने लगता..! उन दोनों का यह विवाद उनके गुरु जी के पास पहुँच गया...गुरु जी ने एक सुबह उन दोनों को बुलाया और उन्हें एक बड़ी सी कोठरी में बंद कर दिया उस कोठरी में घुप अँधेरा था..! धीरे-धीरे कर कई घंटे बीत गए अब उन दोनों को भूख लगने लगी थी...वहाँ खाने के लिए कुछ था भी नहीं...और अँधेरे में कुछ सूझ भी नहीं रहा था..! भक्ति में तल्लीन रहने वाला मित्र जब भूख से कुलबुलाने लगा तो उसे अपने भगवान् याद आने लगे और वह उनका नाम-जप करने लगा..! इधर दूसरा मित्र भी भूख से बेचैन हो उठा था...लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अँधेरे में क्या करे..! हाँ उसका कर्म-भाव जागृत हो चुका था...वह यूँ ही अँधेरे में ही यहाँ से वहाँ इस कोने से उस कोने यह सोचकर हाँथ मारने लगा कि कहीं कुछ खाने को मिल जाए...अचानक...! उस अँधेरी कोठरी के एक कोने में रखे एक घड़े से उसका हाथ टकरा गया..झट से उस घड़े में हाथ डाला..हाथ में कुछ लगा..उसे घड़े से निकाल कर खाने का प्रयास किया...लेकिन...वह खा नहीं सका..उस ककड़ को उसने अपने मित्र की ओर उछाल दिया और फिर घड़े में हाथ डाला..अबकी बार फिर कुछ हाथ लगा और उसे मुट्ठी में ले मुँह में रखा..अरे वाह...! शायद यह चना था..| इस प्रकार यदि उसके हाथ ककड़ लगता तो उसे वह मित्र की ओर उछाल देता और यदि चना मिलता तो उसे खा लेता...धीरे-धीरे उसकी भूख शांत हो गयी और वह अपने स्थान पर आकर आराम से सो गया..
        ...अब दूसरा दिन...उस कोठरी का दरवाजा खुला गुरूजी उन दोनों के सामने खड़े थे...गुरूजी ने उन दोनों से हाल-चाल के साथ ही उनके भूँख के बारे में भी सवाल किया तो कर्म में विश्वास करने वाले शिष्य ने तपाक से जबाव दिया कि “गुरु जी मैंने तो किसी तरह घड़ा खोज उसमें रखे चने से अपनी भूँख शांत कर ली है...” अब गुरूजी ने दूसरे शिष्य से पूंछा तो वह कुछ नहीं बोला..अपनी बंद मुट्ठी गुरु जी के सामने खोल दी...दोनों मित्रों की आँखे चौंधिया गयी..क्योंकि मुट्ठी में अशर्फियाँ थी...!
        ...फिर गुरु जी ने कहा कि अब तुम दोनों सोचो कि कर्म और भक्ति में कौन श्रेष्ठ है..!”
      
       भानजे ने यह कहानी यहीं पर समाप्त करते हुए कहा, “मामा अब आप बताएं कि इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है..!” 
        मैं भी पशोपेश में पड़ गया..क्योंकि यहाँ एक भूखे मित्र के हाथ में अशर्फियाँ तो दूसरे मित्र ने अपने प्रयासों से अपना भूख शान्त कर लिया था...! फिर कुछ सोचकर मैंने भांजे से पूंछा, 
       “क्या गुरूजी ने यह नहीं बताया कि कर्म और भक्ति में कौन श्रेष्ठ है..?” भांजे ने कहा, “नहीं..उन्होंने भी इसे हम पर छोड़ दिया|”
       मैंने कहा, “..यहाँ कर्म ही श्रेष्ठ है..क्योंकि इसी के बिना पर उसकी भूख शांत हुई...अशर्फियों से तो भूख शांत नहीं होती..!” 
          हलांकि, मैं पहले ही कर्म को भक्ति से श्रेष्ठ बताया था..इसीलिए इस कहानी को सुनने के बाद भी मैंने अपने इसी तर्क को आगे बढ़ाया..लेकिन अशर्फियों के लालच में मैं रह-रह कर इस संबंध में अपनी धारणा बदलने के लिए प्रेरित हो रहा था..! और इसी क्रम में मेरा भी भक्ति की ओर झुकाव बढ़ने लगा क्योंकि यहाँ तो बिना कुछ कर्म किए ही अशर्फियाँ हाथ लगी थी...!
         फ़िलहाल मैं अपने तर्क को संशोधित करने के प्रयास में ही था कि पिता जी गीता का श्लोक बोल पड़े, “कर्मनेवाधिकारास्ते मा फलेषु कदाचनः...” मैं अपने दिमाग पर जोर डालना शुरू किया कि किसे श्रेष्ठ सिद्ध करे लेकिन इस श्लोक का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा मैं स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा था...चूंकि अशर्फियों का लालच मन में था ही इसलिए अब मैं कर्म में खोट खोजने लगा...मैं सोचने लगा...
      “यदि कहीं अशर्फियों की जगह वास्तव में मित्र की मुट्ठी से कंकड़ ही निकलता तो दोनों मित्रों के बीच भविष्य में होने वाले महाभारत की पटकथा लिख गयी होती...! और...वह कर्मवादी मित्र अब अपने अज्ञान पर भी पछता रहा होगा..काश..! मैं उसे कंकड़ न समझता तो भूख तो शान्त हुई ही थी..अशर्फियाँ भी हाथ आ जाती...| उसके कर्म में जरूर कुछ न कुछ कमी रह गयी जिसके कारण वह घड़े में अशर्फियाँ होने के ज्ञान से वंचित हुआ...! जरुर उस कर्मवादी मित्र ने यही सोचा होगा...|”
        जैसे ही मेरे विचार में यह सब आया मैं अशर्फियों के लालच में बोल पड़ा.. “पूर्ण ज्ञान के साथ कर्म करना चाहिए..और इस रूप में ही कर्म भक्ति से भी श्रेष्ठ होती है..!” इतना कह कर मैं चुप हुआ ही था कि भानजा पूँछ बैठा, “वो कैसे मामा...!”
        मैने अपने मन की चोरी अर्थात दिमाग के खुराफात को छिपाते हुए उत्तर देने से बचने का प्रयास करने लगा...आकस्मात..! यह सब सोचते-सोचते मैं सोच बैठा...
         "क्या वास्तव में कर्म करने वाला खुराफाती होता है..?” तभी बीमार माँ को देखने डॉक्टर साहब आ गए और हमारी वार्ता समाप्त हो गयी..तथा मैं उत्तर देने से भी बच गया...!

         अब इस बारे में आप भी सोचिए....
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