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सोमवार, 19 दिसंबर 2016

घोटाले बिन सब सून

            एक बार किसी कार्यालय के एक छोटे साहब ने बास से छुट्टी माँगने का अपना एक वाकया मुझे सुनाया। वे छुट्टी की अर्जी देने अपने बास के पास गए थे। तब उनके बास ने छुट्टी का उनका अपलीकेशन फेंकते हुए उनसे कहा था -
           "बडे़ आए छुट्टी लेने..! जेब में कुछ होगा तभी घर, परिवार रिश्तेदार भी पूँछेंगे..नहीं तो वहाँ कोई पूँछनेवाला भी नहीं मिलेगा..का करोगे छुट्टी लेकर..!" 
             बेचारे वे छोटे साहब, मन मसोसकर, अपना खाली जेब टटोलते बास के चैम्बर से बाहर निकल आए थे। बास ने छुट्टी का अपलीकेशन फेंका, छोटे साहब को इससे कहीं ज्यादा मलाल अपना खाली जेब टटोलकर हुआ रहा होगा। इसके बाद, छुट्टी लेने के प्रति उनके मन में उचाट पैदा हो गया। और इसी उचाट मन से सुदूर अंचल के अपने कार्यालय के वियावान परिसर में, जाड़े की एक रात, वे चौकीदार के साथ अलाव ताप रहे थे। वैसे भी, खाली जेब वाले वियावान में ही ठेले जाते हैं। इस पसरे वियावान के प्रभाव में, छोटे साहब के निपट अकेले मन को भाँपकर चौकीदार ने उनसे कहा -
             "अरे साहब! आप से पहले वाले जो साहब यहाँ थे उनकी तो कुछ पूँछिए ही मत, उनके रहने पर तो, इस समय भी ऐसे वियावान में मेला लगा रहता था..पर जब से आप आए हो, सब सून हो गया है..न कोई गाड़ी न कोई घोड़ा..न लोग..!"
              चौकीदार की बात से साहब को चोट पहुँची, मतलब, चौकीदार भी इस वियावान में उनसे, साथ देने की कीमत वसूलना चाहता है। ऐसे में, अलाव की गर्मी पर जेब की ठंडक भारी पड़ी और वे अलाव तापना छोड़ उसी परिसर स्थित अपने आवास में सोने चले गए। वाकई, जेब के ठंडकपने में अलाव-फलाव भी काम नहीं करता। 
                पता नहीं उन छोटे साहब ने अपने बास या चौकीदार से कुछ सीखा भी था या नहीं। लेकिन हमें तो उन छोटे साहब के बास की बात में दम नजर आता है, बास की बातें सोते हुए को जगाने वाली जैसी थी। ऐसा बास पथप्रदर्शक होता है, वह दुनियाँ में चलने की राह दिखाता है। ऐसे ज्ञानी शुभचिंतक बास से अपनत्व का भाव पैदा होना स्वाभाविक है और उनकी जगह मैं होता तो उस बास से अपनत्व स्थापित कर लेता। वहीं, उस चौकीदार का परसेप्शन भी कमाल का था। चौकीदार को यह समझ है कि चारा फेंकने वालों के लिए जंगल में भी मंगल होता है। उसे पता है, असली मजा चरिए और चराइए में है। मतलब, जहाँ चरने और चराने वाले होते हैं, वहीं जंगल में मंगल होता है। 

             वाकई, जेब में सूनापन तो जग में सूनापन और इस सूनेपन से कुछ-कुछ वैराग्य टाइप का मन हो आता है। जेब का खालीपन, मन पर इच्छाओं का भस्म लपेटकर व्यक्ति को वीतरागी बना देता है। लेकिन किसी समाजी का ऐसे वीतराग से काम नहीं चलता, उसे छुट्टी लेनी पड़ती है, घर,परिवार, समाज देखना होता है और इसके लिए जेब का जलवेदार होना जरूरी है। इस भवसागर में आनंदानुभूति जेब के जलवे के साथ ही उठाई जा सकती है और यह आनंदानुभूति घपले-घोटाले की वैतरणी में उतर कर ही प्राप्त की जा सकती है। वैतरणी के उस पार तो निपट सूनापन है, जबकि इस वैतरणी में बहकर सीधे भवसागर की आनंदानुभूति प्राप्त होती है और ऐसी वैतरणी में गोता लगाने वाले को यह जग, "खुले ख्यंम्भु दुआर" टाइप का जगमग-जगमग करने लगता है। फिर, छुट्टी क्या, यही बास बिन मांगे स्पेशल-लीव तक देने को तैयार खड़ा मिलता है, और तब पूँछनेवालों की तो पूँछिए ही मत..!"
              अब यह भी स्वयंसिद्ध अनुभव है कि जेब में माल बिना घपले-घोटाले के आ ही नहीं सकता। मतलब, जो घपले-घोटाले में लुल्ल उसका जेब सुन्न। घोटाले और जेब में चहल-पहल के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।  
             लेकिन मैं यहाँ थोड़ा कन्फ्यूज हूँ, वह कि, उन छोटे साहब को छुट्टी क्यों नहीं मिली..क्या वे घपले-घोटाले का मर्म नहीं समझ पाए थे? और अपनी बेवकूफी के कारण वियावान में अकेले ही झख मार रहे थे? मुझे लगता है उन छोटे साहब को वह अदना सा चौकीदार भी समझाने की ही कोशिश कर रहा था।
             वैसे जरूर उन छोटे साहब को घपले-घोटाले का मर्म पता नहीं रहा होगा या फिर घपले और घोटाले में किसी एक को चुनने के बीच उलझे रहे होंगे। अगर वे मुझसे सलाह लेते तो मैं उन्हें घपले करने की सलाह देता, क्योंकि घपले में, घपले करने की संभावना घपले कर लेने के बाद भी बना रहता है। वहीं, घोटाले करने में घपला करने की संभावना क्षीण होती है। यहाँ घोटाले को घपले से व्यापक माना जाना चाहिए। कई घपले मिलते हैं तब कोई एक घोटाला बनता है।

            ऐसे में, मैं उन छोटे साहब को यही सलाह देता कि भाई, छोटे टाइप के साहब को घपले में ही विश्वास रखना चाहिए। क्योंकि घोटाले करने का सर्वाधिकार बड़े किस्म के साहब के पास होता है। या फिर घोटाले के लिए बडे़ साहब से पूर्वानुमति प्राप्त होनी चाहिए। एक सफल घपलेबाज में बडे़ साहब के प्रेरणाभाव को पहचानने की समझ और क्षमता भी होनी चाहिए। मतलब, एक ओहदेदार को अपनी औकात के अनुसार एक-दूसरे का सम्मान करते हुए घपले-घोटालों को अंजाम देना चाहिए। वैसे भी किसी ओहदेदार के आसपास चहल-पहल उसके घोटाले कर लेने के औकातानुसार ही होती है। 
             अगर वे छोटे साहब इस पर भी न समझ पाते तो, मैं आखिर में, उन्हें यही समझाता कि घपला ही घोटाला है और घोटाला ही घपला है। छोटा साहब इन दोनों में से कुछ भी करे, लेकिन यदि बड़े साहब आँख तरेरें तो उसे दुलराहट के साथ बड़े साहब की थोड़ी लल्लोचप्पो कर लेनी चाहिए। फिर तो, बडे़ साहब इसे छोटे का उत्पात समझकर उस पर लाड़ बरसाना शुरु कर देंगे, जो रोजमर्रा का खेल हो जाता है। 

              वैसे भी अपने यहाँ एक मान्यता है कि "क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात"। फिर तो, छोटा घपला करे या घोटाला, बड़े के लिए यह उत्पात टाइप का ही होगा, और बड़ा भी अपनी शोभा की खातिर इसके लिए छोटों को क्षमा कर देता है।
          
             तो, छोटे साहब को हमारी यही सलाह होती कि चाहे घपला करो या घोटाला। इससे न डरो और न हिचको। घपला या घोटाला कोई कुछ कहे, बडे़ के सामने माना यह उत्पात ही जाएगा, और किसी छोटे द्वारा किया गया उत्पात क्षम्य माना जाता है, बशर्ते इस उत्पात से बड़े के जलवे में कोई खलल न पहुँचे। छोटा या बड़ा, इन ओहदेदारों के बीच घपले-घोटाले का खेल इनके बीच का आपसी लाड़-प्यार ही होता है। इसी लाड़-प्यार से इन ओहदेदारों का जीवन सदैव चहल-पहल से गुंजायमान रहता है।
              तो वियावान वाले छोटे साहब को मेरी अन्तिम सलाह यही होती कि लाड़-प्यार सीख कर जीवन में चहल-पहल हेतु घपले-घोटाले करने की क्षमता विकसित कर लेनी चाहिए। इससे जीवन का सूनापन, गधे के सिर से सींग जैसा गायब हो जाता है। और घोटाले कर लेने के बाद आत्मविश्वास इतना बढ़ जाता है कि वह एक सफल ओहदेदार बन, बैकबेंचर से फ्रंटलाइनर बन जाता है। आँख चुराने की तो दूर की बात अब उसमें बड़े साहबों की आँखों में आँख डालकर बात करने की हिम्मत भी आ जाती है और यह घपले-घोटाले का ही महात्म्य होता है। तभी किसी ने कह दिया है कि बिन घोटाला सब सून। 
              खैर अभी तक मेरी सलाह छोटे साहब के लिए ही थी। यहाँ बड़े साहब की भी यह चिन्ता हो सकती है कि उन्हें कौन क्षमा करेगा? इस पर मेरी बड़े साहबों के लिए यही सलाह है कि, यहाँ हर बड़ा अपने बड़े के सामने आटोमेटिक छोटा होता जाता है ; और ऐसी ही एक शृंखला बनती जाती है, चूँकि लोकतंत्र का जमाना है तो इस शृंखला में सबसे बड़ी यहाँ की जनता हुई, और इस प्रकार यह "क्षमाभाव" इसी शृंखला की सवारी करते हुए जनता तक पहुँच जाती है! और क्षमा की भरी पूरी गठरी इसी जनता के सिर-मत्थे जाकर अटकती है..! अब लोकतंत्र में जीनेवाली यह जनता स्वयं जनार्दन भी होती है इसलिए यह जनता किसी से क्षमापेक्षी नहीं होती। जनता भगवान भरोसे होती है।
          तो, छोटे और बड़े दोनों साहबानों को मेरी यही सलाह है "चिंता छाँड़ि अचिंन्त्य रहौ, सांई है समरत्थ" जनता जनार्दन सांई बन सबको आशीर्वाद देती रहती है। मतलब छोटे-बड़े के जलवे ही जलवे हैं और ये जलवे घपले-घोटाले के ही थ्रू है।
                                                  - Vinay 
                                                   (18.12.16)

        
      

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

निरहंकारी की संवेदना

           आज स्टेडियम की ओर जाते हुए सड़क के किनारे एक कुत्ते पर अचानक निगाह टिक गई थी..जो अपनी पिछली दो टाँगों और आगे की दोनों टाँगों के पंजों को जमीन पर टिकाए हुए अपनी आँखों को बंद किए हुए बैठा था..! सच में मैं देखता रहा गया था...एकदम से ध्यानमग्नावस्था में वह बैठा हुआ था...उस समय वहाँ दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था, हम जैसे सुबह-सुबह टहलने वाले बस इक्का-दुक्का लोग ही आ जा रहे थे..। उससे कुछ दूरी पर खम्भे पर जलते हुए एक लैम्प-पोस्ट की रोशनी जरूर आस-पास बिखर रही थी..इसी रोशनी में सड़क की ओर मुँह करके बैठने के उसके अंदाज से मैं उसकी ओर ध्यानाकर्षित हुआ था...। खैर... 
            स्टेडियम से वाकिंग कर वापस आया, चाय बनाने और पीने का कार्यक्रम चालू किया...इस बीच घर भी फोन लगाया...पूरी घंटी गई लेकिन फोन उठा नहीं..अपनी स्वयं की बनाई चाय मैं सुड़क रहा था कि घर से फोन आ गया...चाय सुड़कते हुए फोन पर बतियाने लगा...
                मैंने पूँछा, "का हो..! का, हो रहा है..?"
               "रोटी बना रही हूँ..." का हो की आवाज।
              "इतनी सुबह-सुबह रोटी बन रही है...?" मैंने जिज्ञासावश इसलिए पूँछा कि असल में इस समय घर पर कोई इतना छोटा बच्चा नहीं है कि स्कूल ले जाने के लिए उसका टिफिन तैयार किया जा रहा हो..!
            फिर उन्होंने बताया, "आज सुबह-सुबह जब गेट खोला तो कहीं से वह दौड़कर आ गया था...पहले उसे कुछ बिस्कुट दिए लेकिन उसे खाने के बाद भी वह वहीं बैठा रहा..फिर मजबूरन मुझे रोटी बनानी पड़ रही है..."
            असल में यह पालतू नहीं है, बस उसका जन्म हमारी गली में दो वर्ष पूर्व हुआ था...और यहीं वह बड़ा भी हुआ है ..एक बार इसी फेसबुक पर एक पोस्ट पर मैंने इसके बड़े भाई की कहानी पोस्ट की थी..एक दुर्घटना में वह चल बसा था...उसके बाद इसका लगाव हमारे घर से हो गया...अकसर भूँखा होने पर यह घर के गेट के बाहर आकर बैठ जाता है...और जब कुछ खाने को मिल जाता है तो फिर वापस चला जाता है....या कभी जब इसे आराम करने का मन होता है तो गेट खुला मिलने पर यह बेधड़क अन्दर आकर किसी किनारे या कार के नीचे कुकुर-कुंडली अवस्था में बिना किसी की परवाह किए पसर जाता है...
          इसी के बारे में एक दिन श्रीमती जी बता रहीं थी कि एक दिन गेट खोलने पर कहीं से जब यह दौड़ कर आया था...उस दिन उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया तो कुछ देर तक यह आस-मंडरा कर ध्यानाकर्षित करने का प्रयास कर झिड़की खा फिर यह वापस चला गया था...लेकिन फिर बाद में गेट खोलते समय इसने इनपर ध्यान ही नहीं दिया...बल्कि देखकर भी पास न आकर अनजान बन दूसरी ओर चला गया था...श्रीमती जी ने बताया था, तब उन्हें यह एहसास हुआ कि अपनी उपेक्षा के कारण यह नाराज हुआ है...इसके बाद उन्होंने जबर्दस्ती इसे अपने पास बुलाया..और रोटी- बिस्किट देकर जब मनाया तब यह सामान्य हुआ और इनसे खेलने लगा था..जैसे इसे भी अपनी गलती का एहसास हुआ हो...
         इस कुत्ते की इसी संवेदनशीलता को भाँपकर जब भी यह दिखाई पड़ता है इससे मुखातिब हो इसकी आवभगत करनी होती है...और सुबह या शाम गेट पर आने पर इसे रोटी देनी पड़ती है..किसी दिन यदि ऐसा न हो तो फिर स्वयं से यह दुबारा नहीं आता... इसकी इन भावनाओं का बहुत खयाल रखना पड़ता है....
          शायद, इसी वजह से सुबह-सुबह श्रीमती जी इस कुत्ते के लिए रोटी बना रहीं थी।
            भाई, लोग कुत्ते की इस कहानी को हँसी में मत टालिएगा...या इस पोस्ट को हँसी में मत लीजिएगा...हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि जब हम बहुत छोटे थे तो ऐसे ही जाड़े में गाँव में अलाव तापते खूब कुत्ते-बिल्ली की कहानी सुना करते थे....हाँ, बल्कि जब हमारे कुछ रिश्तेदार घर आते तो कुत्ते-बिल्ली की इन कहानियों को सुन हमें गँवार ठहरा कर हमें चिढ़ाते भी थे... लेकिन हम कभी नहीं चिढ़े... यदि चिढ़े होते तो मैं यहाँ आपको भी आज की यह कहानी सुनाने न बैठ जाता...सच तो यह है इन कहानियों को सुन सुनकर ही यहाँ इस फेसबुक पर कुछ ऐसी ही कहानियाँ सुनाने लायक हुआ हूँ...! 
         आज के अखबार के अन्तिम पृष्ठ पर एक समाचार हेडिंग "इतिहास के सबसे खतरनाक मोड़ पर मानवता" में स्टीफन हाँकिंग के हवाले से लिखा था "मानव समुदाय भयानक पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से जूझ रहा है।...मानवता अपने विकास क्रम में सबसे खतरनाक परिस्थितियों का सामना कर रहा है।" खैर...
           हम यहाँ यही कहना चाहते हैं....
           ...हम अपने अहंकार में दूसरों की संवेदनाओं की पहचान नहीं कर पाते..संवेदनशील होने और इसकी पहचान होने की योग्यता के लिए निरहंकारी होना अनिवार्य है...
                #दिनचर्या 
                --Vinay 
                 5/12/16

पुराने जमाने की एक कहानी

सोचता हूँ पुराने जमाने की एक कहानी आप को सुनाएँ...लेकिन जब आप ध्यान से सुने तब तो, आप ध्यान से सुन रहे हैं न..? तो लीजिए सुनिए....
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               तो बहुत पहले की बात है एक राजा था..(अरे भाई बहुत पहले एक राजा ही तो होता था) उसका राज्य काफी विशाल था..(तो राज्य क्या भारतवर्ष था?)..अरे भाई! पहले कहानी सुनो टोंको मत..! तो राजा को इतने बड़े राज्य पर राज करने में बहुत कठिनाई हुआ करती थी...(तो राजा होना क्या बच्चों का खेल है..?).. बीच में फिर बोले...! हाँ तो राजा को कठिनाई इस बात से होती कि उसके राज्य की प्रजा बहुत जल्दी किसी के बहकावे में बहक जाती..(गोया...राजा न होकर वह कोई पाँच साला जनता द्वारा चुनी सरकार का मुखिया रहा हो..कि जनता के नाराज हो जाने से कुर्सी जाने का खतरा हो..?) अरे भाई! कहानी पूरी हो तब कयास लगाएँ..! जनता के बहक जाने से उस राजा की कुर्सी जाने का खतरा रहता था। उस राज्य में राजा को कुर्सी पर विराजमान रहने के लिए समय-समय पर प्रजा से सहमति प्राप्त करना जरूरी होता...चूँकि जो राजा होता है वह खानदानी भी होता है...या वंशपरंपरा के प्रसादपर्यन्त राज करता रहता....तो वह राजा अकसर वंशपरंपरा के पुरखों का जबर्दस्त महिमामंडन अपने प्रजा के समक्ष करता करता रहता। प्रजा भी उस राजघराने के प्रति श्रद्धावनत रहती...अन्त में वर्ष दर वर्ष गुजरते रहे और राजा इतने बड़े राज्य पर आसानी से राज करता रहा...(आपकी कहानी झूठी है..इतने समय तक कोई राजा, राजघराने के प्रति प्रजा के श्रद्धाभाव के कारण राज कर सकता है..?) अरे भाई! पहले पूरी कहानी तो सुन लीजिए...!
           राजा अपने राज्य की जनता (जनता नहीं प्रजा..!हाँ..हाँ..वही..प्रजा..!) के लिए लुभावने काम करता....कहता.. हम तुम्हें भी अमीर बना देंगे...लेकिन होता यह...कि बीच के लोग सारा माल झटक लेते बेचारे गरीब तो गरीब ही रहते...खैर..राजकाज चलते-चलते ऐसे ही कई वर्ष बीत गए..गरीबों से गरीबी दूर होने के लिए तैयार ही नहीं हुई... 
          उस दिन राजा बहुत गुस्से में था...अपने दरबारियों से सीधे गरीबी को ही बुलावा लिया...साथ में यह ताकीद भी की, कि गरीबी खुद चलकर आए और गरीब के साथ न आए...हुआ यही, उस दिन राजा अपने दरबारियों के साथ राजसिंहासन पर विराजमान था...गरीबी...राजा के दरबार में बडे़ शान से हाजिर हुई थी...जैसे राजा का उसे कोई परवाह ही न हो...वैसे, गरीबी को यह पता होता है कि जब तक राजा है तब तक मैं भी हूँ...मतलब राजा होता है प्रजा से..और प्रजा होती है गरीबी से...सो गरीबी राजा के सामने पूरी निडरता से हाजिर हुई...!
            राजा तो राजा ठहरा और वह भी सिंहासन पर बैठा हुआ राजा.! उसने गर्व से दरबारियों के ऊपर इधर-उधर निगाह डाला..(हाँ, जैसे कहना चाहता है कि देखो, गरीबी हमारे वश में है) और फिर गरीबी के ऊपर उसकी निगाह टिकी,  गरीबी को देखते हुए राजा के मुखारबिंदु से एक रोबीली आवाज प्रस्फुटित हुई...  
             "क्यों रे गरीबी..! तुझे मेरी जरा भी परवाह नहीं...मैंने इतने जतन किए, फिर भी तूने मेरे राज्य का परित्याग नहीं किया...और मेरी प्रजा को अभी तक परेशान कर रखा है..?"
          गरीबी तो गरीबी उसका राजा क्या बिगाड़ लेगा..वह राजा की बातों को सुनकर मुस्कुराने लगी..! गरीबी की इस मुस्कुराहट पर राजा को थोड़ा गुस्सा आया...वैसे राजा का यह विशेष गुण होता है कि बिना उसकी इजाजत किसी अन्य की मुस्कुराहट उसे पसंद नहीं आती...सो राजा अपने सिंहासन पर बेचैनी से हिलते-डुलते चिल्लाहट भरी आवाज़ में गरीबी को देखते हुए चिल्लाया...
         "रे गरीबी..तू मेरी तौहीन कर रही है... मैंने कितनी बार देश तुझे देश निकाले की दंडात्मक राजाज्ञा पारित किया लेकिन तू मेरी नहीं सुनती..? और यहाँ मेरे दरबार में खड़ी होकर मुस्कुरा रही है...!"
        इतना कह राजा गुस्से से कांपने लगा था...जैसे पहली बार राजा गरीबी को देखकर गुस्से में आया था..! राजा के मन्त्रिपरिषद के लोग तो जैसे सन्नाटे में आ गए थे...इधर राजा के इस गुस्से को देख गरीबी को भी थोड़ी चिन्ता हुई...बात यह कि, इतने वर्षों से इस राजा के राज्य में रहते-रहते इस राजपरंपरा से उसका लगाव होना स्वाभाविक ही था...राजा की उसे लेकर बदली भावभंगिमा को देख गरीबी को जैसे एहसास हुआ कि अब यह राजा बेवकूफी पर उतरने वाला है...वह राजा को समझाने को हुई कि राजा की क्रोध भरी वाणी उसे फिर सुनाई पड़ी....
          "रे दुष्ट गरीबी..!मेरी राजाज्ञाओं की विरोधिणी..!! तूने एक राजा और उसके राज्य का अपमान किया है...और मेरी प्रजा को भी तूने प्रताड़ित करने का काम किया है.. मैं अपने इस पुत्रवत प्रजा की भलाई और अपने राज्य के सम्मान को बरकरार रखने के लिए तुझे फाँसी दिए जाने का हुक्म देता हूँ..." 
             राजा के इस हुक्म पर गरीबी सिहर सी गई थी...उसे आश्चर्य हो रहा था राजा ने इतना कठोर कदम कैसे उठा लिया...! उसने देखा उस राज्य के तमाम मीडियामैन धड़ाधड़ अपने फ्लैश कभी राजा के चेहरे पर चमकाते तो कभी गरीबी पर फोकस करते...इन सब के बीच गरीबी किंकर्तव्यविमूढ़ सी राजदरबार में खड़ी थी...उसे अपनी चिन्ता नहीं थी उसे चिन्ता थी तो केवल इस राजा और इसके राज्य की..! उसे समझ है..कि... बिना मेरे..! राजा और प्रजा का यह खेल भी खतम हो जाएगा..और... इधर प्रलय आने का भी कोई चांस दिखाई नहीं पड़ रहा था..सूरज महाराज वैसे ही धरती का चक्कर लगा-लगा कर सरदी-गरमी और रात-दिन करते जा रहे थे...फिर इस राजा की मति क्यों मारी गई कि अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने पर उतारू है...? 
        हाँ... राजा के भरे दरबार में तमाम जगमगाती फ्लेशलाईटों के बीच खड़ी गरीबी, राजा के फांसी वाले आदेश पर यही सोच रही थी...
          इधर राजा का हुक्म सुनते ही ले दरबारियों मन्त्रियों- संन्त्रियों सहित सभी गरीबी को धर दबोचने हेतु दरबार के वेल में पहुँच गए.. सभी अपने-अपने तईं गरीबी को दबोच लेना चाहते थे...और राजा की ओर देखते भी जा रहे थे....जैसे सब राजा की नजरों में गरीबी से इस फाइट में अपना नम्बर बढ़ते देखना चाह रहे हों.... सभी मिलकर गरीबी को कालकोठरी की ओर लेकर चलने लगे थे...राजा के चेहरे पर तनाव स्पष्ट रूप से झलक रहा था....राजा ने आज की सभा को यहीं मुल्तवी कर दी....
                        
                    इधर राज्य में चारों ओर, राजा द्वारा गरीबी को फांसी दिए जाने की चर्चा चल पड़ी थी...प्रजा का अपार समर्थन राजा के प्रति हो चुका था...अगले कुछ वर्षों तक वह निष्कंटक और राज कर सकता था....
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                  हाँ...उस दिन राजा अपने राजमहल में आराम फरमा रहा था...राज्याधीन खबरिया विभाग की रिपोर्टें भी पढ़ता जा रहा था... सब जगह राजा की जै-जैकार मची हुई थी...न जाने क्यों राजा करवट बदल मुँह विसूरते हुए सोने का प्रयास करने लगा था.... वैसे, राजा लोग होते तो समझदार ही हैं... नहीं तो राजा कैसे बनते..? गरीबी को फांसी सुनाकर राजा भी किसी न्यायाधीश की तरह अपना कलम तोड़ बैठा था...जैसे न चाहते हुए गरीबी को फांसी देनी पड़ी हो...और...यह सोचकर अपने पापबोध से परेशान हो उठा था...
                ...इसी बीच राजा के शयनकक्ष के दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज हुई...कोई राजा से इसी वक्त मिलना चाहता था....राजा ने उस अपने खास व्यक्ति को शयनकक्ष में अाने की अनुमति प्रदान कर दी....शयनकक्ष में प्रवेश करते ही उस व्यक्ति ने राजा से कहा, 
         "हुजूर...! आपको हाईकमान ने याद किया है..अभी और इसी वक्त...!!" इसके बाद वह व्यक्ति मुड़कर गायब हो गया।
             राजा से भी बड़ा हाईकमान..! हाँ..राजा से भी बड़ा हाईकमान होता है..इस राज्य में..! (हाईकमान राज्य में प्रजा द्वारा स्वीकृत किसी वंशपरंम्परा टाइप रजघराने का मुखिया होता है...जिसे किसी विशेष परिस्थिति में कभी स्वयं राजा, तो कभी हाईकमान बन जाने का अधिकार प्राप्त होता है..प्रजा इस वंशपरंम्परा का बहुत आदर करती है )। तो, इस राज्य का यही सुपरनेचुरल हाईकमान, गरीबी को फांसी की सजा सुनाए जाने पर सक्रिय हो गया था...जिसकी सलाह के बिना राजा ने गरीबी को फाँसी की सजा सुनाई थी...राजा की इस चूक से हाईकमान के नाराज होने का खतरा उत्पन्न हो गया था..और राजा को यह बात पता थी कि हाईकमान के विश्वासपर्यन्त तक ही वह राजा बना रह सकता है...वह झटपट शयनकक्ष से निकल कर हाईकमान की ओर चल पड़ा...
             हाईकमान का दरबार सजा हुआ था....स्वयं हाईकमान सबसे ऊँचे आसन पर आरूढ़ था...राजा के सारे दरबारी और मन्त्रीगण वहाँ अपनी महत्तानुसार हाईकमान के आसपास ऊँचे-ऊँचे आसन पर विराजमान थे...हाईकमान के इस दरबार में राज्य के कोने-कोने से आए कुछ चुनिन्दा किस्म के कारिंदे टाइप लोग भी नीचे आसन पर जमे हुए थे....इधर गरीबी भी इस सजीले दरबार में अपनी पूरी सजधज के साथ आ कर खड़ी थी...राज्य के कुछ महत्वपूर्ण संन्त्री उसके लिए सुरक्षा का घेरा बनाए हुए खड़े थे.....
             राजा ने इस दृश्य को देखा... इस दरबारी दृश्य को देखकर वह भौंचक था..! उसे अपनी आँखों पर जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था...कि...अभी जिस गरीबी को उसने फांसी की सजा सुनाई थी...वही गरीबी....राज्य के संन्त्रियों के सुरक्षा घेरे में हाईकमान के समक्ष यों खड़ी मिलेगी..? राजा अपनी आँखें मलमलकर इस दृश्य को देखने लगा था...
            भौंचक राजा हाईकमान के समक्ष आकर खड़ा हो गया...इस दरबार में राजा को बैठने के लिए आसन भी नहीं उपलब्ध कराया गया...जैसे राजा के हाथों कोई बहुत बड़ा गुनाह हुआ हो और राजा हाथ बाँधे हाईकमान के समक्ष काटो तो खून नहीं जैसी हालत में खड़ा था...उसने देखा, जो दरबारी राजदरबार में बिना उसकी आज्ञा आसन नहीं ग्रहण करते थे वही, यहाँ इस दरबार में बिना उसकी परवाह किए आसन पर बैठे हैं...? 
             खैर....राजा की तंन्द्रा टूट चुकी थी हाईकमान की कड़कती आवाज सुनकर..! राजा ने हाईकमान के आग्नेय हो चुके नेत्रों की ओर देखा...और उनके सम्बोधन को इस दरबार में खड़े-खड़े ही सुनने लगा.....वाकई!  यह आश्चर्य की ही बात थी कि इतने महान राज्य का राजा यहाँ इतनी निरीहता से खड़ा था...!!

             हाईकमान की यह आवाज राजा के कानों में गूँजी...
             "तुम्हें पता है राजा होने के मायने..? मैंने तुम्हें राजा, राजमद में चूर होने के लिए नहीं बनाया था...कि...तुम अपने राजमद में गरीबी को ही फाँसी देते फिरो..? अरे बेवकूफ..! यहाँ तो राजा बनने वालों की तो लाइन लगी है..लेकिन मैंने सोच समझकर तुम्हें राजपद दिया था..कि...तुम सीधे-सज्जन और ज्ञानी तथा कम बोलने वाले हो...हमारी भावी पीढ़ी के योग्य होने तक राजकाज सुरक्षित चला लोगे...!
         ..... लेकिन तुम किसी राजा और उसके लिए प्रजा होने की महत्ता भूल गए...तुम्हें पता है..! जब प्रजा ही नहीं होगी तो राजदरबार किसके लिए सजाओगे...और फिर मेरी काहे की हाईकमानी...? यह दरबार और दरबारी...मन्त्री..संन्त्री..और...मेरे दूर-दराज तक के कारिंदों की शान...सब इस बेचारी गरीबी के ही कारण है...! जब तक गरीबी है हम सब हैं...और हमारा राज है...समझे..!"
           हाईकमान के सामने हाथ बाँधे खडे़-खड़े राजा ने बड़ी ही बेचारगी के अंदाज में संन्त्रियों की सुरक्षा में इठलाती..मुस्कुराती खड़ी गरीबी की ओर निहारा....राजा उसे देख एकबारगी तो फिर चिढ़े लेकिन अगले ही पल चिहुँक कर गरीबी को देख मुस्कुराने लगे..जैसे, अपने साहब को देख न चाहते हुए भी कोई मातहत मुस्कुराने लगता है...वाकई! ये मुस्कुराहटें भी न, होती हैं बड़ी लाजवाब ही..! इधर दरबारियों के चेहरे मुस्कुराहटों से खिल उठे थे।
         अचानक हाईकमान की आवाज फिर गूँजी....
         "सुनो राजाधिराज जी...! जाओ गरीबी को फांसी देनेवाली अपनी राजाज्ञा वापस लो....और....गरीबी को स्वतंत्र करो...जिससे ..मेरे ये कारिंदे, दरबारी, मन्त्री, संन्त्री सब मिलकर गरीबी दूर कर सकें और इन्हें भी गरीबी दूर करने का श्रेय मिलना चाहिए...आखिर..जब सब मिलकर गरीबी दूर करेंगे तभी गरीबी दूर होगी...गरीबी दूर करने का अधिकार सभी को है...मैंने तुम्हें राजा बना कर भूल की है...तुम्हें राजनियमों की इत्ती भर जानकारी नहीं...?  राजा को कभी श्रेय लेने के लिए कार्य नहीं करना चाहिए....तुम्हें श्रेय देने का सर्वाधिकार हमारे पास सुरक्षित है...!"
         हाईकमान ने जैसे ही अपनी वाणी को विराम दिया..तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सभाकक्ष गूँज उठा...सभी दरबारी वाह..वाह..कर उठे...इधर राजा अपना थूँक निगलते हुए मिमियाती सी आवाज में हाईकमान से बोले...
            "जी...जी...पर...सर..सर.., लोग कहेंगे कि गरीबी को हमने बचाया है...इसमें प्रजा के नाराज होने का खतरा भी है...इससे भी हम-आप असुरक्षित हो चुके होंगे...वैसे भी...आजकल..गरीबी के विरोध में तमाम दवाब समूह उभर आए हैं...क्रान्ति संभावित...सी..!"
             राजा की बात से दरबार में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया..फिर दरबारियों में ही आपस में गुफ्तगू होने लगी...अचानक हाईकमान का स्वर फिर उभरा....
           "देखो...अब तक हमारी वंशपरंपरा से ही राजा बनते आए हैं...और सभी ने गरीबी हटाने के लिए काम किए लेकिन, इनमें से किसी ने भी गरीबी को फांसी पर नहीं चढ़ाया...यह गरीबी प्रजा के सानिध्य में और उनके पास ही रहती है...और प्रजा जब-तब गरीबी हटाए जाने का सुख भोगती रहती है...हमारे गरीबी हटाने के प्रयास को देखकर ही प्रजा हमको ही राजा मानते आई है...इस बात को तुम्हें समझना चाहिए...और...रही बात क्रान्ति की तो..! तो हमने प्रजा को तमाम अधिकार दिए तो हैं..वह काहे नहीं अपने इन अधिकारों का प्रयोग करती..? सूचनाधिकार से प्रजा स्वयं अपनी गरीबी हटा सकती है...इतने अधिकार सम्पन्न होने के बाद हमारे राज्य की प्रजा कभी क्रान्ति नहीं कर सकती ..!"
           राजा हाथ बाँधे हुए हाईकमान की बात गौर से सुन रहा था ...लेकिन सभा बीच इठलाती गरीबी को देखते हुए बीच में बोल पड़े...
             "लेकिन सर जी...गरीबी न हटने से प्रजा के नाराज हो जाने का खतरा है...और वैसे भी राज्य में आपके तमाम विरोधी प्रजा के कान भरने शुरू कर दिए हैं... प्रजा के कान भरने वालों के खिलाफ हम कार्यवाही भी नहीं कर सकते...आपके विरोधियों का यह रामलीला मंचन नाटकीय होते-होते धार्मिक रूप ग्रहण करता जा रहा है...प्रजा दिग्भ्रमित सी हो जाती है...!"
          राजा की बातों को हाईकमान ने ध्यान से सुना और धीर-गंभीर आवाज में कहा,
           "राजन...(हाईकमान द्वारा यह" राजन" कुछ-कुछ "मोरे रजऊ" जैसा सम्बोधन लिए था) मैंने तो केवल गरीबी को फाँसी चढ़ाए जाने पर मना किया है...गरीबी दूर करने के प्रयास पर नहीं..! जाओ जाकर अपने अमले के साथ गरीबी दूर करने के अपने प्रयास को अपनी प्रजा को खूब दिखाओ...इसके लिए अपनी प्रतिबद्धता को बार-बार दुहराओ और कहो कि जो गरीबी दूर करने में अवरोध खड़ा करेगा उसके विरुद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई होगी...सतर्कता कमेटियों का गठन करो...सतर्कता आयुक्त बनाओ...अपने अमले को इसके अधिकार क्षेत्र में खड़ा करते हुए प्रजा को दिखाओ ..गरीबी दूर करने में किसके स्तर से किस स्तर की कोताही की गई थी...इसकी जाँच कराओ...मेरा तो यह भी आदेश है कि राजा स्वयं को भी इस जाँचाधिकार में सम्मिलित करे...देखना...! यह तुम्हारी जो प्रजा है न, तुम्हारे गरीबी दूर करने की इस मुहिम से जबर्दस्त खुश हो जाएगी...!! आखिर, जनता को कुछ होते हुए दिखाई पड़ जाएगा...! फिर समवेत रूप से सबकी गरीबी दूर होगी..जनता खुश होगी...जैसे मोगैम्बो खुश हुआ था..और हाँ..प्रजा के साथ-साथ कुछ अपनी भी चिन्ता किया करो.."
               राजा....हाँ..हूँ के अन्दाज में हाईकमान की बात सुनता रहा...उसने उड़ती हुई सी निगाह हाईकमान पर डाली...हाईकमान से कुछ लोग अपने को सतर्कता आयुक्त बनाए जाने की सिफारिश भी करते दिखाई देने लगे थे..खासकर अभी तक पदविहीन रहे कारिंदों की इसके लिए लाईन सी लग गई ..कई कारिंदों ने तो इसी चक्कर में राजा को भी धकिया दिया...हर स्तर की तमाम सतर्कता आयोगों, कमेटियों में पद लेने की होड़ सी मच उठी थी..हाईकमान और समृद्ध हो उठा था...
         ..... इधर....गरीबी की ओर से सबका ध्यान भंग हो चुका था...गरीबी को जैसे ही अपनी इस आजादी का बोध हुआ वह भी अपने लिए सर्वाधिक सम्मानित स्थल प्रजा-निवास की ओर चुपके से निकल पड़ी...
            इस राज्य का यह राजा अब चुपचाप अकेले ही हाईकमान के दरबार से बाहर अपने राजमहल की ओर चल पड़े... उन्हें जाकर तुरन्त बिस्तर पर पड़ जाना था...सोना था...लेकिन रास्ते में तमाम मीडिया मैन उनके मुँह पर अपने-अपने माइक लगाए बस एक ही प्रश्न दोहरा रहे थे...
             "तो महाराज...! गरीबी को फाँसी पर चढ़ाने के लिए कौन सी तिथि निर्धारित की गई है..?"
             राजा मौन इस प्रश्न की अनसुनी करते हुए अपने शयनकक्ष की ओर अपने डग अब और तेजी से बढ़ाने लगा था....
     (.....यह कहानी थी पुराने जमाने के एक राजा की...आगे अवसर मिला तो इसी राज्य की आगे की कथा सुनाएंगे...)
                       --Vinay 
                         4/12/16     

        
          
         
       

बेखुदी में सनम

        "बेखुदी में सनम..उठ गए जो कदम..आ गए...आ गए..आ गए पास हम.."
         आज सुबह जब अपने आवास से निकल सड़क पर आया तो सुबह-सुबह सवारी की तलाश में खड़े अाटो के बड़े भाई टैम्पो में यही गाना बज रहा था। गाना सुनते हुए मैं अपने कदम स्टेडियम की ओर बढ़ाते गया...
             गाने को सुनते हुए और चलते-चलते मैं मानसिक मंथन में भी निमग्न हो गया था...मुझे लगा यह "बेखुदी" कैसी होती होगी..काम की होती है या बेकाम की..? गाने की मधुरता से एहसास हो रहा था कि यह बेखुदी होती है बडे़ काम की..! आखिर! इस बेखुदी में ही तो कदम उठते हैं...कदम बढ़ते हैं...लोग पास आ आते हैं...
        वाकई! "बेखुदी में" होना एक इतिहासकारी घटना होती है...या कभी यही बेखुदी क्रांतिकारी सी हो जाती है...यह आमने-सामने, मतलब बेखुदी में होने के खिलाफ वाली बेखुदी भी होती है...बेखुदी में इंसान क्या से क्या बन जाता है...!! 
        सोचिए!  क्या कभी आप "बेखुदी में" हुए हैं..? अगर हुए होंगे तो निश्चित ही कदम बढ़ाए होंगे..और नहीं हुए होंगे तो केवल हाथ मलते रह गए होंगे.. फिर तो आप में जड़ता रही होगी...
          "बेखुदी में" को हम किस बात की निशानी मानें? बेवकूफी की या फिर बुद्धिमानी की? इसका उत्तर देना मेरे बस में नहीं..क्योंकि बेखुदी में होने पर तमाम तरह के लफड़े भी शुरू हो जाते हैं...जैसे इन्हीं लफड़ों के कारण लोग बेखुदी में होने को बेवकूफी की निशानी मानते हैं..कभी-कभी तो बेखुदी की तुलना हराकिरी से भी किया जाने लगता हैं...एक चीज तो मैं भी मानता हूँ अकसर बेखुदी में उठे शुरुआती कदम को लोग बेवकूफी ही मानते हैं....लेकिन तमाम लफड़ों के साथ पड़ते बेखुदी के ये कदम कब लोगों को एक दूसरे के पास ले आता है इसका पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है तो फिर ऐसे ही गीत गुनगुनाए जाते हैं...!
       
             मैंने तो मान लिया है बिना बेखुदी में हुए आप कुछ नहीं कर सकते....कुछ करने के लिए बेखुदी में होना ही पड़ता है..हाँ, इतना जरूर है बेखुदी में होने के लिए किसी की परवाह नहीं करनी चाहिए...आप बेपरवाह बेमुरौव्वत बेखुदी में होईए..! लेकिन आपकी बेखुदी में जब अन्य भी शामिल हों या "पैरलल"हो तब बेखुदी में होने का मजा है..जैसे सुनते हुए गाने में वे दोनों समान रूप से बेखुदी में हैं..तभी साथ-साथ गा भी रहे हैं..!! बेखुदी में होना है तो ऐसे ही होना है साथ-साथ गाना है...
          अब देखिए न! आजकल लगता है हम सब किसी की बेखुदी के शिकार बन चुके हैं...सब मिलकर लाईन में खड़े हैं...एकदम पास पास! जैसे दूरी मिट रही हो... लेकिन कुछ लोग इस बेखुदी की बेहद लानत-मलामत भी कर रहे हैं..वे बेखुदी में होने को ठीक नहीं मानते...फिर भी, कुछ लोग मिलकर समवेत बेखुदी में हो रहे हैं.. बेखुदी में हों भी क्यों न? बेखुदी में होना क्या किसी की बपौती है कि भाई आप ही बेखुदी में रहो हम नहीं हो सकते..? दूसरों की बेखुदी में होना देख भला कौन आपे में रह सकता है..ऐसे में किसी न किसी को कभी न कभी आपा खोना ही होता है...! बेखुदी में होना ही है... बिना बेखुदी में हुए यहाँ किसी को कुछ मिलता भी नहीं... 
          वाकई! हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम बेखुदी में होते ही नहीं अजीब सी घूँटी पिए हुए लोग हैं हम..! हमारी दिक्कत यही है कि कुछ लोग खुद बेखुदी में हो लेते हैं लेकिन सामने वाले को बेखुदी में नहीं होने देते...इसे लफड़ा बता विधिवत बेखुदी में होने को बेवकूफी का पर्यायवाची घोषित कर देते हैं....बेखुदी में होने के लफड़ों से दूसरों को डरा देते हैं...एक बात और है...यहाँ इसी वजह से कुछ ही लोगों का बेखुदी में होने का समूह भी बनता है..लेकिन लेकिन यही दूसरों को इसे लफड़ा बताते रहते हैं....कभी-कभी बेहद तेज-तर्रार लोगों को मैं बेखुदी में होकर बतियाते देखता हूँ तो ऐसा लगता है ये अपने जैसे बेखुदी में होने वालों की राजनीतिक पार्टी खड़ी कर रहे हैं...यही लोग बेखुदी का बंटाधार कर देते हैं.....
          यहाँ एक बात और...जब हम बहुत आगा-पीछा सोचते हैं तो बेखुदी में नहीं हो पाते..हमारे देश में वामपंथ आगा-पीछा सोचने वालों का समूह है..जबकि यही लोग बेखुदी में होने और होवाने का वीणा उठाने वाले लोग थे.. इनकी समस्या यही है कि केवल यही बेखुदी में रहना जानते हैं...ये बेखुदी में रहने के लिए खाद-पानी बेखुदी में न रहने वालों से ही लेते हैं...यदि ऐसा न होता तो यह देश बेखुदी में होने के लिए तरसते लोगों का देश न होता...वाकई! यह देश सदियों से बेखुदी में होने से दूर रहा है..हमारा तो राष्ट्रीय-चरित्र ही ऐसा बन चुका है..लोग करें तो क्या करें..बेखुदी में रहने वाले, इन तरसते हुए लोगों को इसका असली फंडा बताते ही नहीं.... 
         हालाँकि, कुछ ऐसे अवसर भी आए हैं जब भी हम बेखुदी में हुए  हैं तो देश का इतिहास बदल गया है...
    
        विचारों की ऐसी ही निमग्नता के साथ मैं स्टेडियम तक पहुँच गया...अन्यमनस्क से इसमें चक्कर लगाया और वापस आ गया था...
         चाय पीते हुए अखबार की खबरों पर निगाह टिकी, "हिलेरी के पक्ष में लाखों फर्जी वोट पड़े" मतलब ट्रंफ कह रहे हैं कि "हिलेरी को धांधली से ज्यादा वोट मिले" ये लो..हम तो नाहक ही मुगालता पाले हुए थे... ये बड़े मियां तो सुभानअल्ला निकले..! यहाँ के लोग भी अपने नेता के लिए बेखुदी में हो जाते हैं...खैर, अब मैं इस मामले में अपने देशवासियों को नहीं कोसुंगा....
        एक बात है..आमने-सामने की बेखुदी में नोटबंदी भी लागू हो जाती है...और...बेखुदी में लोगों के बेवफा हो जाने का भी खतरा होता है...लेकिन क्या हुआ है...क्या होगा..क्या नहीं होगा..इसकी चिन्ता छोड़ गुनगुनाएं...
      "बेखुदी में सनम..उठ गए जो कदम..आ गए...आ गए..आ गए पास हम.."
          Vinay 
           29/11/16
               दिनचर्या तो यह कल की थी लेकिन आज पोस्ट कर पाया हूँ... वैसे आज तबियत कुछ खराब सा है... स्टेडियम की ओर नहीं जा पा रहा हूँ.... (30/11/16)

मन के मुगालतों की मगरूरी से बचिए

          उस दिन मेरे ड्राइवर ने गाड़ी दौड़ाकर बस पकड़ाया था। बस में खाली सीट न देखकर कंडक्टर वाली सीट पर पहले से बैठे एक बुजुर्ग टाइप सज्जन के बगल में बैठ गया था। कंडक्टर पीछे की सीटों के पास जाकर टिकट बना रहा था। यह सोचकर "हममें से किसी एक को इस सीट से उठना पड़ेगा" कंडक्टर की सीट पर बैठने में मुझे थोड़ा संकोच भी था। मैंने बगल में निश्चिंत से बैठे हुए उन सज्जन की बुजुर्गियत भाँपते हुए पुनः सोचा था, "उठना तो हमें ही पडे़गा..खैर तब की तब देखी जाएगी" और टिकट बनवाने के लिए पर्स टटोलने लगा था।
          अपने गंतव्य का टिकट लेने के लिए मैंने कंडक्टर को सौ का एक नोट दिया तो उसने टिकट से बचे पैसे मुझे तत्काल वापस कर दिए। मैंने कंडक्टर द्वारा लौटाए उन रुपयों को बिना गिने हुए वैसे ही अपनी जेब में रख लिया था। इसके बाद मैंने  टिकट देने के लिए कंडक्टर की ओर देखा तो वह मुँह में पान की गिलौरी लिए बेफिक्र अंदाज में अपनी सीट पर बैठने की फिराक में दिखाई पड़ा था। कुछ क्षणों बाद थोड़ी सी जगह बनाकर वह हम दोनों के बीच में आकर बैठ गया था। इसके बाद जब उसने मुझे टिकट देने में रुचि नहीं दिखाई तो मैंने सोचा, "हो सकता है कंडक्टर ने लौटाए रूपयों के साथ टिकट भी दे दिया हो" और मैंने अपने को टिकट लिया हुआ मान लिया था। खैर..
           बस चलती रही...कंडक्टर सीट पर हमारे साथ बैठने में परेशानी अनुभव कर रहा था जहाँ हम उसकी सीट पर कब्जा जमाए आराम से बैठे थे। मैंने ध्यान दिया था, कंडक्टर ने बड़ी चालाकी के साथ उन बुजुर्ग सज्जन को एक दूसरी सीट पर बैठाने के प्रयास में उठाया था। लेकिन सीट न मिलने से वे बेचारे खड़े-खड़े अपनी बाकी की यात्रा पूरी करने लगे थे, उनकी यह स्थिति देख मैं असहज हो उठा था। असल में, मेरे बैठने के पहले ही वे कंडक्टर की इस सीट पर बैठे हुए थे और उम्रदराज भी थे इस आधार पर इस सीट पर बैठने का नैतिक अधिकार उन्हीं का था। जबकि कंडक्टर ने बुजुर्ग को दूसरी सीट पर बैठाने के बहाने से उठाकर उनके प्रति अन्याय किया था और मुझसे आराम से बैठ जाने के लिए कहा था। मेरी असहजता का कारण यही था।
     
               मैंने एकबारगी कंडक्टर की ओर फिर निहारा, वह नई-नई भर्ती का लगा था, लेकिन उसका पान जैसा कुछ चबाने और बोलने का अंदाज उसे एक टिपिकल मझा हुआ सरकारी बाबू जैसा बता रहा था जो तमाम बातों की बेफिक्री में बस अपनी तईं करता हुआ मस्त दिखाई दे रहा था। उस कंडक्टर को देखकर मैं सोचने लगा था, "इस कंडक्टर ने मुझे क्यों नहीं हटाया.? मेरे भी बाल पर सफेदी ने अपना कब्जा जमाना शुरु कर दिया है...हो सकता है मेरे बालों की सफेदी मुझमें भी बुजुर्गियत झलका रही हो और समाज में बुजुर्गों का सम्मान तो होता ही है... लेकिन मैं उनके जैसा बूढ़ा तो नहीं..! और उन बुजुर्ग बेचारे ने भी कंडक्टर से अपने उठाए जाने का प्रतिकार क्यों नहीं किया?" असल में मैंने इधर अपने बालों को रंगना छोड़ सा दिया है और परिणामस्वरूप मैं अपने प्रति लोगों के व्यवहार में थोड़ा परिवर्तन भी पाया है। मतलब जैसे कोई मेरे उम्र का खयाल करते हुए मुझे विशेष तरजीह सा दे देता है। हालाँकि घर की ओर से बाल रंगने का मुझपर बराबर दबाव बना हुआ है। 
         लेकिन इधर, बुजुर्ग को कंडक्टर द्वारा उठाए जाने को लेकर वहाँ बैठे-बैठे मेरे मन ने इन प्रश्नों को ही जैसे जीवन के दुरूह प्रश्न मान लिए और  इस उत्तर पर बात जाकर खतम हुई-
         "असल में इस चलती बस के आगे सरकारी गाड़ी लगा कर मेरे ड्राइवर ने इसे रुकवाते हुए मुझे चढ़ाया था..मेरे इस सरकारीपने के ठसक के प्रभाव में मेरा लुक कुछ-कुछ वीआईपी-पने लिए जैसा हुआ हो, और मेरे इस लुकीय प्रभाव में संकोचवश बचारे वे बुजुर्ग सीट से उठाए जाने पर अपना नैतिक प्रतिरोध कंडक्टर से दर्ज न करा पाए होंगे....वाकई! ऐसे ही तमाम तरह के नैतिक अधिकार वाले प्रतिरोध ऐसे ही ठसकों के सामने संकोच खा जाते होंगे।" खैर..
         इधर मैं भी अपने ठसक रूपी मगरूरी में, नैतिक दायित्व से बेपरवाह अपने इस ठसकीय प्रभाव से अर्जित सीट रूपी काले धन पर बैठने के सुख के साथ अपने गंतव्य को प्राप्त हुआ था। 
           मैं बस से उतरा तो अचानक फिर से टिकट का ध्यान आया। मैंने जेब से कंडक्टर द्वारा लौटाए नोटों के बीच टिकट खोजने लगा लेकिन टिकट मुझे नजर नहीं आया। मतलब कंडक्टर ने बिना टिकट दिए ही मुझे यहाँ तक लाया था और मैं उस बस का एक बेटिकट यात्री था। मेरे दिए किराए के पैसे कंडक्टर की जेब में काले धन के रूप में जमा हो गए थे। उस कंडक्टर ने मुझे उन नोटों की शक्ल में तीन रूपए अधिक भी लौटाए थे। मेरे प्रति उसकी अजीब तरह की सदाशयता थी। अब जाकर कंडक्टर द्वारा सम्मान के साथ अपनी सीट पर मुझे बैठाए रहने का राज समझ में आया। लेकिन मेरे ही साथ उसने ऐसा क्यों किया यह बात मैं समझ नहीं पाया..! अब इस बात के विश्लेषण की शक्ति मुझमें नहीं बची थी। हाँ इतना जरूर है कि अब युग बदल रहा है आप किसी बात का गुमान न पालें। 
          अगले गंतव्य के लिए अब मैं एक दूसरी बस में सवार हुआ था, वह क्या है कि आजकल लगता है रोडवेज ने नई बसों की खरीदारी की है सो यहाँ से भी मुझे नई बस मिली। मुझे रोडवेज द्वारा बसों के बेडें में नई बसों को ले आना अच्छा लगा था। इस बस में मुझे सीट मिली जहाँ मेरे बगल में एक सज्जन पहले से बैठे हुए थे।  मेरे टिकट लेने के बाद उन्होंने भी कंडक्टर की ओर टिकट के लिए दो हजार का एक नोट बढ़ाया। कंडक्टर ने फुटकर न होने की बात कह कर दो हजार नोट वापस वापस कर दिया तो उस व्यक्ति ने छोटे नोट से अपना टिकट बनवाया था। मुझसे बातों-बातों में उस व्यक्ति ने नोटबंदी की प्रशंसा भी करना शुरू कर दिया था..वह कहता रहा और मैं सुनता रहा। नोटबंदी के समर्थन में उस व्यक्ति ने कालेधन का प्रवाह रोकने के लिए एक सलाह भी दिया- 
      
         "शहरों में जमीन के प्लाटिंग पर एकदम से रोक लगा देनी चाहिए। बल्कि सरकार को स्वयं आगे आकर बहुमंजिली इमारतें बनाकर लोगों को आवासीय सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए। इससे जमीन की व्यर्थ बर्बादी रुकने के साथ ही बिल्डरों की माफियागीरी पर रोक के साथ शहरी पर्यावरण में भी सुधार होगा और तमाम तरह के अवैध कब्जों साथ जमीन सम्बन्धी अन्य अपराधों पर रोक लगेगी।" 
          मैं मौन, हाँ हूँ के साथ उनकी बातें सुनता रहा। इनके चुप होते ही पास की सीट पर बैठे एक अन्य सज्जन पर ध्यान चला गया जो किसी से मोबाइल पर बात कर रहे थे, उनकी बात "उसी सामान पर बस रैपर लगा दो" पर ध्यान चला गया मुझे लगा जैसे किसी और के बनाए माल पर अपना रैपर लगाने की बात कह रहे हों। मोबाइल पर बात कर चुकने के बाद साथ में बैठे व्यक्ति से बात करते हुए विभिन्न तर्कों द्वारा नोटबंदी की जबर्दस्त तारीफ करते जा रहे थे।
         एक जगह बस रुकी तो कुछ और यात्री बस में सवार हुए, बस की सभी सीटें भर चुकी थी, एक बच्ची मेरे बगल में आकर खड़ी हो गई थी। अचानक "रैपर" लगवाने वाले सज्जन मुझसे उस बच्ची को बैठाने के लिए कहा। बच्ची के प्रति उनकी इस सदाशयता का मैं प्रतिकार नहीं कर सका और कठिनाई सहते हुए दो की अपनी सीट पर मैंने उस तीसरी बच्ची को सरकते हुए किसी तरह बैठाया था। इधर वे "रैपर" वाले सज्जन की नोटबंदी के पक्ष में एक से एक तर्कों के साथ वार्ता जारी थी। मुझे उनकी कुछ आदर्शातामक बातों को सुनकर कोफ्त सी होने लगी थी और मैं मन ही मन उनके बारे में सोच रहा था - 
          "बडे़ आए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले एक बच्ची को तो अपनी तीन वाली सीट पर जगह नहीं दे सके...नैतिकता की बातें तो केवल बात करने भर के लिए होती हैं..इन बातों के पालन की नौबत आए तो ऐसे लोग स्वयं आगे न आकर दूसरों से अपेक्षा करते हैं..ऐसे लोगों की बातों को क्या महत्व देना...!" और यह सोचते ही नोटबंदी के पक्ष में उनकी सारी बातें मुझे हलकी प्रतीत होने लगी थी। 
            ऐसे ही कुछ देर और बीता...ड्राइवर ने अचानक बस में ब्रेक लगाई तो बस में खड़े होकर यात्रा कर रही एक अन्य महिला गिरते-गिरते बची...तभी वह "रैपर" वाला व्यक्ति अपनी सीट से उठते हुए उस महिला को अपनी सीट देते हुए बैठ जाने का अनुरोध किया। वह महिला उसकी सीट पर बैठ गई थी। उस व्यक्ति ने अपनी बाकी की यात्रा बस में खड़े होकर पूरी की थी।
         इधर मेरी मन:स्थिति विचित्र सी हो चुकी थी, अपने मन को धिक्कारते हुए मैंने इस मन को व्यर्थ के मुगालते पाल लेने से बचने के लिए सलाह दिया...मैंने मन ही मन जैसे स्वयं से कहा हो, "बेटा व्यर्थ के मुगालते मत पाला करो..अन्यथा तुम्हारी बातों का मैं भी विश्वास नहीं करुँगा..तुम्हारे निष्कर्ष मुझे धोखा देते हैं..." अब मैं मन के विचारों और इसके निकाले निष्कर्षों पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगा था। क्योंकि कभी-कभी मन के निष्कर्ष धोखा भी दे जाते हैं।
          हाँ, सच में! हमें व्यर्थ के मुगालते पाल किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दी नहीं करनी चाहिए...और मन को किसी बंद गली में छोड़ना भी नहीं चाहिए..मन के लिए खुला आकाश चाहिए.. वाकई! यह संसार भी अभी किसी अन्तिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया है..! मन को मन के निष्कर्षों की मगरूरी से बचाइए..! - Vinay

मेरे फनछाया वाले भगवान

            आजकल लोग नोटबंदी के संकट में फँसे पड़े हैं और इधर हम हैं कि लक्ष्मी और विष्णु की एक मूर्ति को लेकर संकट में फँसे पड़े हैं। मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि इस मूर्तिद्वय में लक्ष्मी की मूर्ति का स्थान कहाँ निर्धारित करें। मेरे समक्ष संकट कुछ-कुछ शेषनाग के कारण भी उत्पन्न हुआ है। यहाँ क्षीरसागर में शेषनाग न जाने क्यों अपने फन की छाया भगवान विष्णु पर ही किए रहना पसंद करते हैं और लक्ष्मी जी इनके फन की छाया के सुख से वंचित जब देखो तब विष्णु के पैंताने उनका पैर दबाते दिखाई देती हैं, पता नहीं स्वर्गलोक की कैसी रीत है?
          मेरी समझ में लक्ष्मी के ऊपर भगवान विष्णु का यह घोर अन्याय है ; विष्णु द्वारा लक्ष्मी का अपमान है। स्वर्गलोक के ये देवता जैसे किसी अहमन्यता के शिकार हैं, अन्यथा लक्ष्मी जी विष्णु के साथ शेषनाग की फनछाया में सदैव दिखाई देती उनका पैर न दबा रही होती। लक्ष्मी के इस अघोषित अपमान के पीछे स्वर्गलोक में नोटों का प्रचलन न होना ही जान पड़ता है। स्वर्गलोक के देवता बिना नोट खर्च किए ही सारे मजे लूटते हैं, इसीलिए लक्ष्मी जी के महत्व को वे नहीं समझते। हो सकता है शेषनाग की फनछाया से लक्ष्मी जी के वंचित होने के पीछे यही कारण हो? वहीं भूलोक स्थित हमारे देश में गड़े या किसी तहखाने में छिपायी गई धनलक्ष्मी तक की नाग-नागिन रक्षा करते हैं, मजाल है कि कोई वहाँ फटक पड़े। खैर..
           स्वर्गलोक में लक्ष्मी की ऐसी उपेक्षा पर मुझे एक हमारी ही पुरानी बात याद आती है, तब हमारी श्रीमती जी नई-नई आयीं थी। उन्होंने किसी देवता की, जिसकी वे पूजा कर सकें, तस्वीर लाने के लिए मुझसे कहा था। मैं दौड़ा-दौड़ा बाजार से कई देवताओं की तस्वीरें खरीद लाया था। मतलब, बाजार में भगवान भी विभिन्न वैरायटियों में उपलब्ध रहते हैं और हमें बाजार से अपने भक्ति-भाव के अनुरूप किसी भी वैरायटी के भगवान खरीदने की स्वतंत्रता रहती है।
         बाजार की बात पर ध्यान आता है, इस बाजार की महिमा अपरम्पार, बाजार भी अपने तरीके का लोकतंत्र है। जहाँ बाजार न हो मान लीजिए वहाँ लोकतंत्र नहीं है। हम तो कहते हैं चीन आज का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जो अमेरिका की बराबरी पर उतर आया है। चीन यह सब बाजार के बलबूते ही कर पा रहा है। यह देश भी अब बाजार में ढल चुका है। वैसे भी जब हर जगह कम्युनिस्ट मर चुका है तो चीन में कैसे राज करता? चीन में कम्युनिस्ट नहीं बाजार का राज है, बाजार सबसे बड़ा लोकतंत्र है। थ्येनानमन चौक कांड के बाद चीन में यह बाजार ही राहत लेकर आया था। हाँ, विषयांतर ठीक नहीं पहले अपनी बात कर लें। 
            तो श्रीमती जी को पूजा करना था और हम उनकी भक्तिभावना से तब तक लगभग अपरिचित से ही थे, सो उनकी पूजा के लिए कई देताओं की तस्वीर खरीद लाए! यहाँ एक बात मानना होगा हम भारतीय वाकई बेहद लोकतांत्रिक होते हैं, मतलब हम अपनी इच्छानुसार अपने-अपने भगवान भी चुन सकते हैं। इसी बात पर तो हमें अपने भारतीय होने पर भी गर्व है। मतलब तुम हमारी नहीं सुनोगे तो हम भी तुम्हें छोड़कर अपना दूसरा भगवान चुन लेंगे, क्या पता भगवान भी इस बात से डर कर अपने भक्तों की खूब सुनते हों? और हो सकता है कुछ लुभावनी घोषणाएँ भी कर देते हों? नेता की नेताई भी ऐसी ही समस्या से जूझती है, इसीलिए तो ये चौबीसों घंटे के चकल्लस में लगे रहते हैं कि भक्तगण अपना पाला न बदलें। खैर.. 
            देवताओं की उन कई तस्वीरों में से श्रीमती जी को शेषनाग की फनछाया के नीचे समान आसन पर विराजमान लक्ष्मी-विष्णु की तस्वीर पसंद आई थी। विष्णु के पैर दबाती लक्ष्मी जी की छवि को श्रीमती जी पूजा के योग्य नहीं मानती, स्त्री को अपमानित करती टाइप इस छवि की पूजा करना उनकी दृष्टि में उचित नहीं था। आखिर किसी के देवता होने से उसे देवी के अपमान करने का अधिकार नहीं मिल जाता। तभी से मैं भी सावधान होकर नारी-स्वातंत्र्य और गरिमा का हिमायती बन गया था। फिर उनने पूजा के लिए लक्ष्मी-विष्णु की उस तस्वीर को फ्रेम में मढ़ा कर पूजा की चौकी पर स्थापित कर लिया तब से वर्ष दर वर्ष बीतता रहा और वे इसी तस्वीर की पूजा करती रहीं। 
             इधर नोटबंदी की घटना के पूर्व संयोगवश एक मूर्तिकार से मेरी भेंट हो गई थी। पूजा वाली फोटो की ही तरह लक्ष्मी-विष्णु की वैसी ही मूर्ति बनवाने की इच्छा जागृत हुई, आखिर इतने वर्षों से पूजावाली उस तस्वीर से प्रगाढ़ हो चुका था मेरा भी लगाव। लेकिन मूर्तिकार ने वही क्षीरसागर वाली शेषशैय्या पर आराम फरमाते भगवान विष्णु का पैर दबाते लक्ष्मी की मूर्ति गढ़ दी। इसे देख श्रीमती जी ने कह दिया, "पूजा के लिए यह मूर्ति उचित नहीं है..मैं इस मूर्ति की पूजा नहीं कर सकती...पूजा के लिए वही तस्वीर जैसी मूर्ति चाहिए।" खैर, उनकी भावना समझते हुए मूर्तिकार से मैंने पूजा वाली तस्वीर जैसी मूर्ति गढ़ने के लिए पुनः कहा। इसी बीच नोटबंदी लागू हो गई और इधर मूर्तिकार मूर्ति भी गढ़ लाया था। 
              1000-500 के नोट बंद! इस नोटबंदी का मुझपर जबर्दस्त असर पड़ा था। उस दिन रात बारह बजे के बाद मेरे भी ये नोट कागज के टुकड़े मात्र रह गए थे। उस मूर्तिकार से मूर्ति लेने की इच्छा नहीं हो रही थी, अचानक मूर्तिकार को दिया अपना वचन याद आया। और फिर रिजर्व बैंक के गवर्नर तो हम हैं नहीं कि वचन देकर मुकर जाएँ..! सोचा, मूर्तिकार को उसके गढ़े मूर्ति का प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए। इस बात पर मुतमईन होने पर कि मूर्तिकार द्वारा मूर्ति के निर्धारित मूल्य से किसी किस्म के काले धन के सृजन की कोई गुंजाइश नहीं है मैंने मूर्ति लेने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। मूर्ति का मूल्य चुकाने हेतु मैंने दस दिन का समय भी लिया, मरता क्या न करता के अन्दाज में मूर्तिकार भी इसके लिए तैयार हो गया। इधर नोटबंदी में अपने काले सफेद की सीमा भांपकर मूर्तिकार से क्षीरशायी छविवाली मूर्ति वापस कर दिया। हालाँकि शोपीस के लिए यह मूर्ति मैं लेना चाहा था लेकिन नोटबंदी से मेरी क्रयशक्ति क्षीण हो चुकी थी।
            इस नोटबंदी से जैसे बाजार को लात ही पड़ गई हो, अब अगर बाजार क्षीण तो लोकतंत्र भी कमजोर हुआ है। मैं तो कहता हूँ, लोकतंत्र की आत्मा बाजार में ही निवास करती है। आज देखिए तो चीन में लोकतंत्र तो भारत में कम्युनिस्ट टाइप का माहौल पसरा हुआ है। लोकतंत्रवादी दल चिचिया रहे हैं, क्योंकि उनके नारों को कोई दूसरा चालाकी से हथिया लिया हो, भई, यह तो सरासर चीटिंग टाइप का है। खैर..
            मूर्तिकार द्वारा दूसरी बार गढ़ कर दी गई मूर्ति का मैं निरीक्षण करने लगा था। लेकिन यहाँ भी वही गड़बड़ी पूरी फनछाया में चतुर्भुज विष्णु जी विराजमान थे, लक्ष्मी जी को तो मूर्तिकार ने इस छाया के किनारे लगभग बाहर की ओर ही बैठा रखा था। तो क्या लक्ष्मी जी फनछाया पसंद नहीं करती? या जिसे हम आधुनिक सोच समझ रहे थे वही गलत है? आखिर इतना समझाने के बाद भी मूर्तिकार से यह गलती क्योंकर हो रही है? मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि लक्ष्मी जी को विष्णु का पैर दबाना मंजूर है लेकिन फनछाया में रहना मंजूर नहीं है। रहें विष्णु फनछाया में! तो क्या लक्ष्मी जी फनछाया में रहने वालों के पैर दबाती हैं?...फिर तो लक्ष्मी जी की यह निरीहता है!
           लेकिन जो भी हो यह तो तय है लक्ष्मी जी को फनछाया में रहना मंजूर नहीं, बस इतना भर है कि वे फनछाया में रहने वालों की चेरी बन जाती हैं! आज अब यह बात समझ में आ रही है यह बाजार की ही कवायद है कि लक्ष्मी जी फनछाया में विराजमान हों, यह बाजार की महिमा है। जिनके पास फन है वही बाजार के पुरोधा हो चले हैं, लेकिन लक्ष्मी भी अब केवल इन्हीं की चेरी नहीं बनी रह सकती। तो ये फनवाले बाजार के पुरोधा, लक्ष्मी जी को अपनी फनछाया में रहने के लिए मजबूर करते हुए दिखाई दे रहे हैं। यही नहीं ये लक्ष्मी जी की लल्लोचप्पो कर येन-केन-प्रकारेण अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। वैसे भी लक्ष्मी जी चेरी तो बन सकती हैं, लेकिन किसी फनछाया में रहना इन्हें भी मंजूर नहीं। इसीलिए भरे बाजार लक्ष्मी जी तड़फड़ाती हैं, बाजार में चलायमान रहना चाहती हैं। नोटबंदी एक तरह से प्राणवायु की तरह लक्ष्मी जी को फनछाया से मुक्त कर पुनः इनकी स्वतंत्रता की उद्घोषणा करने जैसा है। लेकिन ये फनवाले इस नोटबंदी को धिक्कार रहे हैं क्योंकि लक्ष्मी के बिना इस भरे बाजार इन्हें कौन पूँछेगा? बिना लक्ष्मी के ये निरीह हो जाएँगे। 
  
              खैर हम तो ठहरे आम आदमी हम तो लक्ष्मी और विष्णु दोनों को समान आसन पर फनछाया के नीचे बैठा कर खुश हो लेते हैं हमें फनछाया के राज पता नहीं, और विष्णु भगवान तो देवता पुरुष हैं उनकी बात ही कुछ और है। लेकिन ये किस किस्म के पुरुष हैं जो सदैव फनछाया के नीचे रहते हैं और लक्ष्मी जिनकी चेरी बनी रहती हैं? पता नहीं नोटबंदी में ये कैसा फील करते होंगे? शायद तब भी इन फनछाया वालों के लक्ष्मी जी पैर ही दबा रही होंगी। नोटबंदी से फनछाया के नीचे रहनेवालों पर कोई असर नहीं हुआ होगा। 
          प्रिय भक्तगणों! मैं भी भक्त ही हूँ..लेकिन मैं अपनी भक्ति के आत्मविश्वास में अपने भगवान से थोड़ा हँसी-मजाक भी कर लेता हूँ! मुझे विश्वास है, मेरे भगवान इतने हलके नहीं हैं कि अपनी फनछाया से निकल मुझपर ही पिल पड़े। वे स्वर्गलोक वाले भगवान मेरी बात पर बस मुस्कुरा रहे होंगे और कुछ नहीं। - Vinay

चाय का जायका

           आखिर ना-नुकुर करते-करते सुबह पाँच तैंतीस पर स्टेडियम की ओर निकल ही गए..सुबह, अब थोड़ी ठंड बढ़ गई है। रास्ते में पीछे कुछ लड़के किसी "लाइन"की बात करते हुए चले आ रहे है। मैं मन ही मन सोच रहा था..इधर लोग अब कुछ ज्यादा ही सभ्य हो चले हैं मतलब "तुम तो सभ्य नहीं हुए" जैसी बात अब नहीं रह गई है। मुझे याद आया बीस-पच्चीस साल पहले जैसे लाईन का कोई मतलब ही नहीं होता था। इलाहाबाद में पढा़ई के दिनों में किसी फार्म के भरने या बैंक में फीस जमा करते समय यदि लाइन लगती भी तो टूट जाती थी..खिड़की तो जैसे धुमक्खी का छत्ता सा दिखाई देता..लाइन-फाइन का कोई मतलब ही नहीं होता..तब मैं सोचा करता था, काश! कोई लाइन लगवाने वाला होता तो चाहे जित्ति देर खड़ा रहना पड़ता खड़े रहते। लेकिन तब जैसे किसी को हमारी फिकर ही नहीं हुआ करती थी..
            ऐसे ही मुझे याद आता है कि एक बार किसी बैंक की खिड़की पर मैं लाइन लगाए हुए था..वहाँ धकापेल मची हुई थी। लाइन लगती और टूट जाती। दादा टाइप के लड़के आते और खिड़की पर पहुँच अपना काम करा कर निकल लेते कोई बोलता तो उसे हड़का लेते.. यही नहीं कुछ लड़के तो धंधा भी बना लिए थे...मैं मायूस सा यह सोचते हुए खड़ा था कि काश! कोई लाइन लगवाने वाला यहाँ आ जाता...उस दिन किसी परीक्षा फीस जमा करने का अन्तिम दिन था... तभी एक पुलिस वाला मेरे पास आया और मेरी मायूसी देख द्रवित होते हुए मुझसे मेरा फार्म और फीस के पैसे लिए..दस रूपए में फीस जमा करने का सौदा तय हो गया था.. कुछ क्षणों बाद फीस जमा कर उसने रसीद मुझे सौंप दी थी...वाकई! मेरे लिए आश्चर्य जनक रहा था..तभी से मैंने लेने-देने के महत्व को सीख लिया था। 
            आज स्टेडियम की ओर जाते हुए "लाइन" शब्द सुनकर मुझे मेरे वे पुराने दिन यह सोचते हुए याद आए कि "कोई लाइन लगवाने वाला, शायद अब आ गया है..जहाँ किसी की दादागीरी नहीं चल रही है.." इन्हीं खयालों में खोए-खोए मैं स्टेडियम तक आ चुका था। वहाँ टहलते हुए टहलबाज ग्रुप वालों से शुरू में ही भेंट हो गई..उनके बीच चल रही बातों पर कान लगाया, "लाइन में लगने वाले समोसा हाथ में लेकर लाइन में लगे होते हैं..दो तीन घंटे बाद काम कर फिर से लाइन में लग लेते हैं" "वैसे लाइन लगाने से जनता परेशान नहीं है..इसके बाद भी नोटबंदी की प्रशंसा कर रही है.. हाँ परेशानी तब होती है जब दो-तीन घंटे लाइन में लगने के बाद काउंटर पर यह कह दिया जाता है कि कैश खतम हो गया है" "आइ बी ने रिपोर्ट भेजा है कि ये नेता दंगे करवा सकते हैं....आखिर नोटबंदी से इन्हीं नेता का ही सबसे अधिक नुकसान हुआ है..." "अब समस्या उतनी नहीं रह गई है यदि इन मजदूरों का चक्कर न हो तो..नोट बदलवाने का इन्हें अच्छा-खासा काम मिल गया है" "अभी बैंक में स्याही नहीं पहुँची है..मार्कर तो लगा रहे हैं लेकिन मजदूर इसे मिटा कर फिर लाइन लगा लेते हैं" यही जुमले आज मैंने सुने। असल में इनके पास से गुजरते हुए मैंने अपनी चाल थोड़ी धीमी कर ली थी। इसीलिए इतने जुमले सुन पाए। खैर....
            स्टेडियम का दो चक्कर लगाया और वापस लौट चला। रास्ते में बीच सड़क पर एक गाय अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई दिखी। बछड़ा उझक-उझक कर थन से दूध पी रहा था। गाय बेचारी अपने बछड़े की ममता में उसका उझकना सहते हुए पगुराते हुए उसे भरपेट दूध पी लेने का अवसर दिए जा रही थी। वाकई! एक माँ अपने बच्चे से अपने ममत्व के बदले कोई स्वार्थ नहीं रखती। यह दृश्य मुझे कभी का किसी राजनीतिक दल का चुनाव-चिह्न जैसा भी लगा। लेकिन सुबह-सुबह ममत्व के इस दर्शन ने हृदय को एक ताजगी भरे अहसास से भी भर दिया। इस गाय के पीछे सड़क की पटरी पर नोटबंदी की चिन्ता से मुक्त एक कुत्ता अपनी एक टाँग से गर्दन खुजला रहा था। यह सब देखते मैं आगे बढ़ गया था। 
            मुख्य सड़क पर आते ही मैंने सात-आठ कुत्तों को भौंकते हुए एक ही तरफ भागते हुए देखा, जैसे ये भी किसी नोटबंदी से परेशान होकर कोई ज्ञापन देने हेतु मार्च कर रहे हों..यह सब देखते-सुनते मैं अपने आवासीय परिसर में लौट आया। 
               वैसे मैं चाय कड़क नहीं पीता, बचपन में दादा जी कड़क चाय पीते थे बस उन्हीं के साथ कड़क चाय पीने की आदत थी। लेकिन इलाहाबाद की उस लाइन से अपने चाय का जायका मैंने बदल लिया था। हाँ, अब चाय में अदरक-वदरक मिलाकर अपनी चाय को जरूर स्वादिष्ट बना लेता हूँ...ऐसे ही आज भी स्वयं की बनाई हुई चाय मैंने पिया। 
        फिर अखबार पढ़ा.."सुषमा की किडनी फेल, जल्द होगा प्रत्यारोपण" पढ़ते हुए ईश्वर से दुआ मांगी कि भगवान इन्हें शीघ्र स्वस्थ करें। बाकी खबरें राजनीतिक टाइप की थी। उसकी चर्चा आवश्यक नहीं। 
              #दिनचर्या टाइप 
               17/11/16 
                --Vinay

रविवार, 20 नवंबर 2016

दरकाए जाते पुल

            पुल का बहुत महत्व होता है। पुल जोड़ते हैं। एक दूसरे को समझने का अवसर देते हैं। लोगों के बीच के आपसी शक-शुबहा, भ्रम को ये पुल ही दूर करते हैं। किसी पुल से आर-पार जाकर हम तमाम विभाजक रेखाओं को धता बता सकते हैं। मैं तो यह भी मानता हूँ, पुल लोगों को ठगे जाने से भी बचाते हैं। पुल संभावनाओं के द्वार भी खोलते हैं। यही नहीं अपने होने के क्रम में यही पुल अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक महत्व भी निभाते चलते हैं। इसीलिए पुल तोड़े नहीं जाते, बल्कि इन्हें विस्तार दे कर और सुगम भी बनाया जाता है, जिससे आसानी से लोग आर-पार हो सकें। ये पुल जब कभी छीज कर अदृश्य हो जाते हैं, तो धार्मिक मिथक बन जाते हैं। तब ऐसे ही किसी छीजे पुल को लोग, किसी रावण को मारने के लिए बना रामसेतु पुकारते हैं। शायद इन्हीं कारणों से सीधे-सादे लोगों को ये पुल रहस्यात्मक भी प्रतीत होते हैं। 
           बचपन में अकसर पुलों को लेकर रहस्यात्मक किवदंन्तियाँ भी सुनी है। पुलों पर पहलवान वीर बाबा या ब्रह्मवीर बाबा का वास बताया जाना देखा और सुना है। एकाध पुल की तो घंटे-घड़ियाल से पूजा होते हुए भी देखा है। मतलब ये पुल अदृश्य रूप से हमें लाभ या हानि भी पहुँचा सकते हैं। कभी- कभी बचपन में, किसी अज्ञात भय से, शाम के समय किसी पुल को तेजी से साइकिल चलाते हुए पार करते थे। मतलब बचपन में पुल से डर भी लगता था। 
            उस दिन पता चला कि वह पुल फिर टूट गया है। वाहनों का  उस पुल से गुजरना बंद है। यह पुल अकसर टूटता ही रहता है। मन में, इस पुल के टूटने को लेकर बहुत गुस्सा उठता है। पता नहीं हम कैसे पुल बनाते हैं, जो टूट जाते है।  लेकिन यह पुल किसी खास अवधि में ही टूटता दिखाई देता है। 
           एक बार, इस पुल से गुजरते हुए, मेरी गाड़ी में लिफ्ट लिए हुए एक सिपाही से मैंने पुल के टूटने की चर्चा की तो, उस सिपाही ने मुझे बताया था "यह पुल अपने आप नहीं टूटता इसे तोड़ा जाता है।" उस सिपाही की बात सुन मैं अचंभित हुआ था। उसने इस पुल के तोड़े जाने की आर्थिक व्याख्या भी की थी। 
             वाकई! पुल भी किसी बने रिश्ते सरीखे ही होते हैं। पुल और रिश्ते दोनों के बनने के पीछे ढेर सारे कारण होते होंगे। हालाँकि, इन पुलों के नींव में जब स्वार्थ छिपा हो तो किसी रिश्ते की ही भाँति ये भी कमजोर होते हैं, दरक जाते हैं। इन पुलों में मजबूती सीमेंट, बजरी और लोहे के मिल जाने से ही आती है, जैसे रिश्ते में, मजबूती वाले तत्व, त्याग और प्रेम, मिला होता है। स्वार्थ वाले रिश्ते तनाव नहीं झेल पाते और ये भी दरक जाते हैं। 
         
            इस पुल को मैंने विशेष स्थानों पर ही टूटते हुए देखा है, यह पुल अपने पायों से तो टूटता नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन पुल पर का रास्ता जरूर दरक जाता है और फिर इसपर आवाजाही बन्द। इस पुल को फिर से दरका जान सिपाही की बात पर ध्यान चला गया। उसने पुल तोड़ने की आर्थिक व्याख्या की थी। माल के ठेकेदार अपने डम्प माल को बेचने के लिए पुल तोड़ देते हैं। अपना माल बेंच दो..! क्यों..क्योंकि, तब अपनी-अपनी ओर वाले, अपनी-अपनी तरफ ही माल बेंच पाएँगे..! री होता है कि इसपर इतना बोझ लादा जाय कि यह दरक जाए..वाकई! सब की हर चीज सहने की सीमा होती है। पुल को दरकाकर, कुछ लोगों द्वारा चाँदी काटी जाती है। पुलों में दरार पैदा करने का काम ठेकेदार टाइप के लोग ही करते हैं। पुल इनकी आँख में खटकते हैं। 
            ये ठेकेदार बहुत चालू चीज होते हैं। वैसे तो इनका किसी पुल से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन ये पुल की महत्ता को समझते हैं। किसी चीज की माँग और आपूर्ति पर विशेष रूप से नजरें गड़ाए रहते हैं। अगर किसी "चीज" की आपूर्ति बाधित कर दी जाए तो उसकी माँग बेतहाशा बढ़ जाती है, यह उस "चीज" का ठेकेदार बखूबी जानता है। भविष्य के फायदे की सोच कर वह मार्केट की ओर अपना माल डम्प करता रहता है। चूँकि पुल चालू रहने से दोनों ओर के माल बिकने की पूरी सम्भावना बनी रहती है इसलिए अपने डम्प माल को बिकवाने के लिए वह पुल को दरकाने की सोचने लगता है। 
             अब देखा जाय तो विचारों के ठेकेदार भी यही करते हैं। क्योंकि "विचार" भी "रा-मटेरियल" की तरह ही इस्तेमाल होते हैं। तो, "विचार" भी एक तरह का माल हुआ, जो किसी आदिम टाइप की किताब से निकाल-निकाल कर दूसरी ओर के लोगों के लिए डम्प किया जाता है। अब ऐसे "रा-मटेरियल" का ठेकेदार, अपने इन विचारों के समर्थन में कसीदे गढ़-गढ़ कर माल तैयार करता है। चूँकि ऐसे कई ठेकेदार होते हैं और सबके अपने-अपने डम्प माल होते हैं। लेकिन जनता के बीच पुल होता है, इस पुल के कारण ही ठेकेदारों की योजना सफल नहीं हो पाती और डम्प माल धरा का धरा रह जाता है। जनता के बीच के ये पुल जनता को एक दूसरे से मिलाकर ऐसे माल की असलियत से भी पहचान करा देते हैं।
          लेकिन जैसा कि, मैंने ऊपर ही कहा है कि ठेकेदार बहुत चालू चीज होते हैं! ये अपना तैयार डम्प माल जनता को लेने के लिए मजबूर कर देने की जुगत में पड़ जाते हैं और इनका खेल आरंभ होता है। तो ये, करते क्या हैं? ये पुल पर आवाजाही रोकना चाहते हैं। ये ठेकेदार लोग पुल तोड़ने की ठान लेते हैं। क्योंकि जब पुल टूटेगा तो मजबूरी में ही सही इनका माल चल निकलेगा! इनके माल लेने की मजबूरी हो जाएगी।
         हाँ तो,ये ठेकेदार अपने डम्प माल को एक ट्रक में ओवरलोड कर इस ट्रक को पुल के ऊपर ले जाकर खड़ा कर देते हैं। और फिर ट्रक की खराबी के बहाने से वहीं पुल पर ही ट्रक को जैक पर उठाकर छोड़ देते हैं। किसी को कानों-कान इस बात की भनक नहीं होती कि पुल तोड़ने की साजिश चल रही है। इधर लोगों को यह भ्रम रहता है कि एक खराब ट्रक पुल पर खड़ा है।
         अब आप ही बताइए! किसी ओवरलोडेड ट्रक का पूरा भार जब केवल एक छोटे से जैक पर टिकेगा तो पुल को दरकना ही है। आखिर किसी दो स्थानों को जोडते पुल की भी सहने की सीमा होती है; पुल को क्रेक हो ही जाना है। लोगों की अज्ञानता और नासमझी का फायदा उठाकर कर ओवरलोडेड यह ट्रक ठेकेदारों के हित में, पुल तोड़ते हुए इसे नुकसान पहुँचाकर गायब हो जाता है। कहने का आशय यही है कि, ऐसे ठेकेदारों का काम पुल तोड़ना ही है, यह उनके फायदे की चीज है। जिससे उस ओर का उसनका डम्प माल बिक जाए। ऐसा ही तमाम वैचारिक समूहों के ठेकेदार भी करते हैं। वे भी जनता के बीच के पुल को तोड़कर अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होते रहते हैं। 
            अब पुल के दोनों ओर सुरक्षा की दृष्टि से "मरम्मत चालू आहे" का बोर्ड लगा कर प्रशासन अवरोध खड़ा कर देता है, मतलब मरम्मत होने तक पुल पर आवाजाही बन्द रहता है। ठेकेदार को इस टूटे पुल का लाभ मिल जाता है और उसका सारा डम्प माल बिक जाता है।..ठेकेदारों की चाँदी!! क्योकि, तब लोग मजबूरी में इन्हीं का माल लेने लगते हैं, पुल तोड़ने वाले ठेकेदारों की चल निकलती है।
          आप समझ लीजिए, जब कोई चीज ठेकेदार बेंचता है तो, कोई न कोई पुल टूटता ही है। बाजार में, किसी विशेष जगह का या कोई विशेष माल ज्यादा बिक रहा हो या किसी चीज की अचानक माँग बढ़ी हो तो, यह कहीं न कहीं किसी पुल को दरकाए जाने की निशानी है।
          हाँ.. उस दिन, उस सिपाही ने एक महत्वपूर्ण बात और बताई थी, यह कि पुल के मरम्मत करने वाले लोग भी, पुल को पुनः चालू करने के लिए ठेकेदारों से सौदेबाजी करने पर उतर आते हैं। ठेकेदार अपना काम निकाल, फिर से पुल पर आवाजाही शुरू करा देते हैं। यह चक्रानुक्रम क्रिया बेहद चालाकी के साथ चलती रहती है, ये आम जन को कुछ भी समझ में आने नहीं देते। मतलब, आज के जमाने में पुल अपने आप नहीं टूटता इन्हें तोड़ा जाता है। पुल को तोड़ने और मरम्मत का काम ऐसे ही चलता रहता है। किसी पुल का टूटना आर्थिक गतिविधि का एक हिस्सा होता है। 
         लेकिन, पुल तोड़ने के इस खेल में हानि आम आदमी का ही होता है। जैसे उस दिन चार घंटे की यात्रा दस घंटे में पूरी हुई थी, वह भी बढ़े हुए किराए के साथ।
         हाँ, पुलों के प्रति हमारी श्रद्धा होती है। रामसेतु की तरह पुल कल्याणकारी भी होते हैं, जो खूबसूरत सभ्यताओं को जन्म देकर किसी राष्ट्र की एकता में अतुलनीय योगदान देते हैं। तमाम तरह के रावणों का संहार पुलों के कारण ही संभव हो पाता है। लेकिन हमें इस तथ्य से सावधान रहना होगा कि जब हम "धार्मिक" होते दिखाई देते हैं तो "रा-मटेरियल" बन जाते हैं, तब कोई ठेकेदार हमें डम्प करने लगता है, फिर यही ठेकेदार किसी पुल को तोड़कर हमारा इस्तेमाल करा देता है।
                     

                                                 -Vinay

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

अच्छे उद्देश्यों को प्रोत्साहित कीजिए

           अभी कल की बात है कई दिनों बाद स्टेडियम की ओर टहलने निकला था। आजकल सुबह-सुबह टहलने में मन आनाकानी करने लगा है। शायद बढ़ते शीत के प्रकोप को एडजस्ट करने में इसे समय लगेगा। खैर, मन का क्या, धीरे-धीरे परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल ही लेता है।
             जब स्टेडियम पहुँचा तो मुँह-अँधेरा था। ग्रुप वालों की कार खड़ी थी, इस कार से चार लोग प्रतिदिन टहलने आते हैं ये एक साथ ग्रुप में ही टहलते है, बल्कि यहाँ स्टेडियम में इनके साथ एक-दो लोग और हो लेते हैं। ये लोग बड़े आराम से गपियाते-बतियाते हुए खरामा-खरामा स्टेडियम के चार-पाँच चक्कर पूरे करते हैं। इन ग्रुप वालों की खड़ी कार देख मैंने सोचा, "ये बिना नागा यहाँ रोज आते हैं, जबकि हम तो बीच-बीच में गैप भी मार देते हैं।" एक बात है, इन्हीं की बातों को सुनकर कुछ लिखने की प्रेरणा भी मिल जाती है और लिखकर फेसबुक पर आपसे साझा कर लेता हूँ। इधर स्टेडियम की पट्टी पर टहलते हुए मैं अपने रौ में यहाँ रोज आने वालों को अकनते भी जा रहा था कि रोज आने वालों में कौन-कौन आए हैं..ऐसे कई लोग टहलते हुए मिले। इन्हें टहलते देख अपन भी टहलने के लिए उत्साहित हो उठते हैं।  खैर.. 
      
             चलते-चलते, ग्रुप के बगल से गुजरते हुए इनसे आगे बढ़ रहा था। इन लोगों की एक-दो जुमले जैसी बातें सुनने के लिए मैं लालायित रहता हूँ क्योंकि इन जुमलों की मदद से फेसबुक पर अपनी कुछ "बेवकूफियाँ" बघारने का मौका मिल जाता है। कई फेसबुक-पुरोधाओं के अनुसार लिखने के लिए बेवकूफी जैसे अनिवार्य तत्व की आवश्यकता होती है। इस सम्बन्ध में, मैं भी उनका अनुयायी ही हूँ। स्टेडियम की वाकिंग पट्टी पर एक धीर-गंभीर सीरियस टाइप के टहलगार की तरह मैं अकसर ग्रुप से आगे निकल जाता हूँ, लेकिन इस बीच मेरा मन इनके जुमलों को सुनने के लिए कुलबुलाता रहता है, सो इनकी बातों की ओर कान भी घुमाए रहता हूँ ।
          खैर.. आज भी इन लोगों का एक ऐसा ही जुमला कान से टकराया तो मेरी भी बेवकूफियों की तंन्द्रा जागृत हो उठी थी। मैंने उन्हें आपस में चहकते-गपियाते यह सुना, "बहुत बढ़िया! यह जो दो हजार का नोट निकला है न, यह लोगों के पास  आएगा तो अब इसे लोग बाहर भी निकालते रहेंगे...कोई अपनी आलमारी में गड्डियायेगा नहीं...कि पता नहीं कब यह भी बेकार घोषित कर दिया जाए.." हाँ, आज का यही जुमला मैं सुन पाया था और उनसे आगे निकल आया...चहकते बतियाते उनकी बात से मुझे एहसास हुआ कि ये नोट वापसी पर आपस में खूब मजे ले रहे हैं...इनकी बात से ऐसा लगा जैसे बैंक में लाईन लगाने इन्हें नहीं जाना है और निर्द्वन्द्व टाइप की अपनी बतकही में मस्त थे। 
           अब तक इनसे थोड़ा आगे निकल आया था..आगे तीन-चार महिलाओं में से एक, आपस में बतियाते हुए कह रही थी, "मेरी सास ने कहा..." आगे पूरी बात मैं स्पष्ट रूप से तो नहीं सुन पाया लेकिन कुछ-कुछ वह महिला अपनी सास की अधिनायकवादी बातों के सम्बन्ध में ही बतिया रही थी...इसे मैं बहुओं और सास के बीच की एक मनोवैज्ञानिक समस्या मानता हूँ और इससे ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन कभी-कभी तीसरा इसका बेजा फायदा उठा लेता है। खैर, यह कोई राष्ट्रीय समस्या नहीं है..इस समस्या को भुनाते हुए ये टीवी सीरियल वाले टैक्स चोरी कर जरूर अपनी कमाई बढ़ा लेते होंगे इसी मायने में यह राष्ट्रीय समस्या है। 
         स्टेडियम से लौटते समय कुछ लड़के टाइप के लोग मिले.. वे भी आपस में बतिया रहे थे, जो नोट वापसी की चिन्ता से परे दूसरे मुद्दे पर बात कर रहे थे। उनमें से एक को कहते सुना, "वो नेहरू ही भारत के बँटवारे की जड़ है..." तपाक से दूसरा बोला उठा था "अरे नहीं यार...ऐसा नहीं है..."  मुझे संतोष हुआ कि यहाँ हर बात को काटती बात और बातों के परे की बात भी मौजूद है..फिर कोई चिन्ता नहीं...कोई अपनी मनवा नहीं सकता...जैसे आजकल हमारी सोशल मीडिया पर का चक्कलस है!
           दरअसल आजकल, बात दर बात, बातों का जनतंत्र है, और बातों में नेता बनाने का दम होता है। आजकल बात में भी संख्याबल से ही शक्ति आती है बिना संख्या बल के बातों में दम नहीं आता। इसीलिए अपनी-अपनी बात को लेकर उछल-कूद मची रहती है। कोई बात न अच्छी होती है न बुरी..एकदम किसी नेता के अन्दाज में..! मतलब बातों में नेतागीरी के गुण भी होते हैं..कोई बात जब अपने समय, देश-काल में व्यावहारिक होते हैं तो वह बात चल निकलती है।जैसे कोई नेता चल निकलता है। दुनियाँ भर में आजकल दक्षिणपंथी बातें ट्रम्फ साबित हो रही हैं या अति आदर्शवादी बातों की जगह दो-टूक व्यावहारिक बातें जगह लेती जा रही हैं।
          खैर, सब कुछ बिजनेस टाइप भी है..इसमें भी कोई चिन्ता की बात नहीं क्योंकि हर बात बिजनेस करती है, ऐसे में किसी बात के ट्रम्फ हो जाने पर भी खुश होने की जरूरत नहीं है..इसके पीछे बाजार का भी माहौल होता है। बाकी सब समझदार हैं और बातों पर बारीकी से नजर तो रखते ही हैं...मतलब किसी बात की चिन्ता नहीं। हाँ अपनी-अपनी नजर की जरूर चिन्ता होनी चाहिए, नहीं तो बात फिसलती रहेगी। 
             टहलकर अपने आवास पर आया..रोज की भाँति चाय पीने की तलब लगी..इस तलब का नोट वापसी से कोई मतलब नहीं। किचेन में जाकर चाय बनाने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी.. दूध में कुछ पानी मिलाकर गैस पर रखा...अदरक कूँचने लगा कि निगाह चाय के डिब्बे पर पड़ी..."अरे! इसमें तो चाय की पत्ती ही नहीं..वही ताजमहल वाली चाय अपने लिए स्पेशल रूप से रखता हूँ...डब्बे में इसके आधा चम्मच चूरे के तलछट के सिवा कुछ नहीं बचा था" अब बढ़िया चाय कैसे बनेगी?  इस समस्या के हल के लिए मैंने तुलसी की हरी पत्तियों का सहारा लिया और चाय का वह चूरा, तुलसी की पत्ती, अदरक मिलाकर चाय तैयार कर मजे से पीने लगा था.! असल में चाय की पत्ती न खरीद पाने के लिए प्रधानमंत्री ही दोषी हैं, न पाँच सौ, हजार के नोट बन्द किए होते और न चाय की पत्ती खरीदने में मेरे समक्ष समस्या खड़ी होती..मतलब यही नोट बंदी का भी मतलब..ताजमहल चाय के बिना तुलसी की चाय पी रहा था.. प्रधानमंत्री ने इस हालत में हमें लाकर छोड़ दिया है कि ताजमहल चाय की पत्ती नहीं खरीद पा रहे हैं! 
      
              समस्या! हाँ, आज ये 1000 और 500 के नोट ही समस्या बनकर खड़े हो गए हैं.. जबकि कभी यही नोट जेब की गर्मी बढा़ते चेहरे को, इन नोटों की गर्मी के गर्वोन्मत्त मुस्कान से भर देते थे..लेकिन आज चाय की पत्ती खरीदने के लिए तरस रहे हैं..! भरे रहे जेबों में ये नोट अब क्या फर्क पड़ता है.. बल्कि, अब इन्हें ही ठिकाने लगाने की चिन्ता सवार हो गई है। यही तो जीवन और मृत्यु का भी फलसफा है।इसी चिन्ता से सराबोर चाय पीते हुए मैंने घर फोन लगाया...
          हाँ, घर की चिन्ता हो आई थी.. घर में के नोटों की चिन्ता हो आई। असल में पिछले दिनों बैंक खातों पर हैकिंग की समस्या हुई थी। खासकर एसबीआई ने अपने एटीएम के पिन अचानक ब्लॉक कर दिए थे, मेरा एटीएम कार्ड घर पर होता है और जरूरत पर घर वाले ही यूज करते हैं...उस दिन रात नौ के आसपास श्रीमती जी बेहद झल्लाहट भरे आवाज में फोन पर कहा था, "अरे तुम्हारे एटीएम का पिन लाक हो गया है..बिल पेमेंट नहीं हो रहा है.." मैंने फोन पर ही कहा था, "तो नगद पेमेंट कर दो..."  "नगद लेकर नहीं आए हैं..." श्रीमती जी का उत्तर था। अब नाराज होने की बारी मेरी थी, "तुम्हारी यही लापरवाही ठीक नहीं..खरीदारी पर नगद भी ले जाया करो..वैसे भी आजकल हैकिंग-फैकिंग का चक्कर चल रहा है.." "अरे घर में कितना नगद पड़ा है कि नगद लेकर जाएँ..?" "तो पहले एटीएम से निकाल लेती...अब मैं सबेरे देखुंगा" मेरा इतना कहना था कि उन्होंने यह कहते हुए बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए फोन काट दिया, "सुनो, मैं स्पेंसर में हूँ और सामान छोड़कर जा रही हूँ...तुम अपने में मस्त रहो..." 
           वाकई!  उस समय मैं अपने में ही मस्त था, फेसबुक पर किसी पोस्ट को लिखते हुए..तत्काल तो बात आई-गई हो गई और मैं भी घर की परेशानी भूल फेसबुक पर अपने को पोस्टिया कर इत्मीनान से अपनी बीती दिनचर्या पर साँस लिया ही था कि, रात दस बजे छोटे सुपुत्र जी का फोन आ गया, "मम्मी बहुत नाराज हैं..." मैं डरा हुआ सा तत्काल सुपुत्र जी से एसबीआई का टोल नम्बर माँगा। खैर किसी तरह से OTP प्राप्त कर उन्हें निकट के एटीएम केंद्र से पिन जनरेट कर लेने के लिए कहा, इस तरह नया पिन मिला। फिर हमें पाँच हजार रूपए निकाले जाने की सूचना मिली, लेकिन तब तक रात के ग्यारह बज चुके थे। बाद में इसी गुस्से में, इमरजेंसी के लिए रखने के नाम पर श्रीमती जी ने एटीएम से पच्चीस हजार रूपए निकाले थे..।
          दुर्भाग्य से, इसी बीच प्रधानमंत्री ने आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया.. इन्हीं नोटों की चिन्ता में अदरक, तुलसी की हरी पत्तियों की चाय पीते हुए मेरी घर से बात होने लगी थी... उन्होंने बताया कि पाँच सौ नोटों में कुल दस हजार रूपए मेरे पास बचे हैं..." खैर इस ओर की चिंता से मैं मुक्त हुआ..लेकिन इधर सोशल मीडिया पर पत्नियों के काले धन की चर्चा पर ध्यान आते ही बिना कुछ सोचे विचारे मैं श्रीमती जी से पूँछ बैठा,  "अरे, कहीं कुछ हमारी बिना जानकारी के हो तो उसे भी...!" बस मेरा इतना बोलना था कि उधर से मेरी औकात बताते हुए मुझे जलील करती हुई सी उनकी आवाज सुनाई पड़ी, "कुछ सोच समझ कर बोला करो..तुमने मुझे यह अवसर दिया ही कहाँ" मैं चुप हो गया था... फिर उन्होंने ही बातचीत जारी रखते हुए कहा, "आज घर के कबाड़ के चक्कर में मैंने एक कबाड़ीवाले को बुला लिया था...वह तो बहुत खुश था...कह रहा था कि मोदी ने बहुत अच्छा काम किया है... हम लोगों का क्या...हमारे जैसे लोगों के पास जो दो चार नोट हैं हम उसे बदल लेंगे...लेकिन कुछ लोग चिन्ता के मारे खाना ही नहीं खा रहे हैं...उसने बताया कि एक जन के घर गए तो देखा वह चिन्ता में भूँखे पड़े हैं..हम लोग तो बहुत खुश हैं!" हालाँकि मुझे आभास हुआ श्रीमती जी भी, इस नए-नए आए समाजवाद से खुश हैं, अब मैं भी चिन्तामुक्त हुआ था।
            हमारी बातचीत समाप्त हुई तो सोचा, "सोचा..ससुरा यह कबाड़ीवाला सबेरे-सबेरे ताजमहल वाली चाय नहीं पीता होगा नहीं तो मोदी की कारस्तानी इसे भी पता होती...!" 
           हाँ उस दिन श्रीमती जी किसी शादी में जाने और इस पर आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक के पड़े प्रभाव की भी चर्चा कर रही थी..अब शादी विवाह वाले भी परेशान तो होंगे ही!  जब एक लाख की लँहगा-चुनरी पहनकर ताजमहल जैसे होटल में ही वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न होंगे तो चिन्ता वाजिब ही है..अगर ये सब चेक से नहीं हो रहा होगा तो यह सर्जिकल स्ट्राइक इसीलिए हुआ है...मैंने यही तो कहा था। अब विवाह सम्पन्न करने के लिए दहेज की रकम और खर्चे कम करने ही होंगे! 
         भई! हम अपने शौक कम करें...ताजमहल जैसे शौक को कम करना होगा..!! इसी शौक के कारण ही तो बाकी लोग कबाड़ीवाले बन गए हैं...अपने बीच हमें भी पाकर ये खुश हैं..इनकी खुशी में पलीता मत लगाईए..! हम सब ने इसके सिवा कोई चारा भी नहीं छोड़ा था...कितने लोगों की हम भक्त कह कर खिल्ली उड़ाएंगे? नब्बे प्रतिशत आम सामान्य तबके के लोग इस आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक से बेहद खुश हैं...इनके बीच जाने पर हमें इस बात का अहसास होता है। इस खुशी में वे परेशानी भी झेलने के लिए तैयार बैठे हैं...आपसे क्या इनकी खुशी देखी नहीं जाती..? धत् तेरे की! कम से कम और कुछ नहीं तो इसके पीछे के छिपे उद्देश्य को ही प्रोत्साहित कीजिए..

बुधवार, 9 नवंबर 2016

ऐसे परिवर्तन?

          बात उन दिनों की है तब मुझे बालक या बच्चा कुछ भी कह कर संम्बोधित किया जा सकता था। घर के सामने दो अमरूद के पुराने पेड़ थे। एक पेड़ का अमरूद अधपके में ही मीठा लगता तो दूसरे का पक जाने पर। हमें जब भी मौका मिलता, जैसे घर पर जब कोई बड़ा नहीं होता तो इन पेड़ों पर चढ़कर मीठे टाइप के अमरूद के फलों को खोजकर तोड़ लाते, दिन में एक दो बार अकसर हम ऐसा करते। यही नहीं स्कूल से आने पर एक बार इन पेड़ों पर नजर मार आते। ऐसे ही अन्य बच्चे भी करते थे। यह सिलसिला तब तक चलता जब तक इन पेड़ों पर एक भी फल बचा होता। कभी-कभी ऐसा भी होता किसी एक फल पर पर जब दो बच्चों की निगाह पड़ती तो उनमें से जो पहले उसे तोड़ लेता उसका ही अधिकार उस अमरूद पर होता। कई बार किसी पके अमरूद को देख उसे तोड़ने के फिराक में जब कोई बच्चा पेड़ पर चढ़ता तो दूसरा बच्चा नीचे से लग्गी लगाकर उस अमरूद को तोड़ लेता, फिर विवाद से बचने में उन दो प्रतिद्वन्द्वी बच्चों में वह अमरूद आधा-आधा बंटता। खैर... 
            उन्हीं दिनों मेरे दिमाग में अमरूद का पेड़ लगाने की बात सूझी। तब मैं छोटा था, अपनी इस इच्छा को मैं किसी से व्यक्त नहीं किया लेकिन खेलते-कूदते यदि कहीं कोई छोटा पौधा दिखाई पड़ता तो मैं अमरूद का पौधा होने के सम्बन्ध में उसकी पूरी तरह पड़ताल करता। उस पौधे को अपने दादाजी को दिखाता तब वह किसी घास का पौधा निकलता और फिर मैं अमरूद के पौधे की खोज में लग जाता। 
         ऐसे ही एक बार, जब हम अपने हम-उम्र बच्चों के साथ खेलने में मगन थे तो, अचानक बड़ी-बड़ी सी घासों के बीच चार-पाँच इंच के एक नन्हें से पौधे पर मेरी निगाह पड़ गई थी। उत्सुकतावश वहीं पर बैठकर, मैं उस पौधे ध्यान से देखने लगा था। इस पौधे की छोटी-छोटी गाढ़ी कत्थई रंग की चमकीली-चमकीली सी पत्तियाँ मुझे बहुत खुबसूरत लगी थी। जैसे, मुझे यह विश्वास हो चला था कि हो न हो यह अमरूद का ही पेड़ होगा। फिर दौड़ कर मैं खुरपी लाया और इसकी सहायता से सावधानी पूर्वक मिट्टी सहित इस पौधे को वहाँ से निकाल लिया था। मेरे दादा जी ने भी इसके अमरूद का पौधा होने की पुष्टि कर दिया था। 
           फिर, बहुत जतन के साथ मैंने इस पौधे को रोप दिया था। धीरे-धीरे यह बड़ा होता रहा। गर्मियों में, प्रतिदिन मैं इसे सींचता था। मुझे आज भी याद है, जब मई-जून के महीने में इसमें नई-नई कोंपलें निकल आया करती तब मैं बहुत खुश हुआ करता। धीरे-धीरे अमरूद का यह पौधा इतना बड़ा होने लगा था कि इस पौधे का तना दो टहनियों में विभक्त हो चुका था। एक दिन अचानक जब इस पौधे पर मेरी निगाह पड़ी तो देखा, इसकी एक टहनी तने से फटी हुई सी जमीन की ओर झुकी हुई थी। फिर मैंने रस्सियों से इस टहनी को तने के साथ बाँध दिया था। संयोग से कहीं से मुझे हाथ में पहना जाने वाला एक स्टील का कड़ा मिल गया था, जिसके बीच दोनों टहनियों को डालकर एक दूसरे को सहारा दे दिया था। वह पेड़ ऐसे ही बड़ा होता रहा, मैंने फिर उस कड़े नहीं निकाला। बाद में अमरूद के पौधे का वह तना इतना मोटा होता गया कि स्टील का वह कड़ा उस तने के बीच में ही खो गया था। अब वह अमरूद का पौधा पेड़ बन चुका था उसमें फल आने लगे थे, जो बेहद मीठे होते। समय बीत रहा था, मैं भी पढ़ने शहर चला गया था। फिर मुझे नौकरी मिली। अब घर जाना थोड़ा कम हो चुका था। लेकिन जब भी घर जाता इस पेड़ की पत्तियों को छूकर, जैसे सहलाते हुए अमरूद के इस पेड़ से अपने लगाव का अहसास करता। जैसे इस पेड़ से मेरा कोई रिश्ता सा बन चुका था। 
           ऐसे ही उस दिन भी मैं घर पहुँचा था। मेरी निगाह उस अमरूद के पेड़ को तलाश रही थी। मैं भौंचक देखता रह गया था। अमरूद के उस पेड़ को जड़ के पास से कटवा दिया गया था। मैं जैसे सन्नाटे में आ गया था। मैंने कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया कि घर के विस्तार में इस पेड़ से अड़चन पड़ने के कारण उस अमरूद के पेड़ को कटवा दिया गया था। मैंने अनुभव किया कि, फिर भी, उस पेड़ को बचाया जा सकता था। मेरी आँखें पसीज सी गई थी। मैंने अपनी भावनाओं को जज्ब कर लिया था। किसी को कुछ भी अहसास नहीं होने दिया। बस मुझे ऐसा अहसास हुआ जैसे किसी रिश्ते पर कुल्हाड़ी चलाई गई हो। आखिर यह अमरूद का पेड़ पिछले तीस वर्षों से मेरे साथ था, जिसे मैंने रोपा था..मैंने सींचा था...लेकिन जो सबका भी था। 
          मैं जानता हूँ..परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, लेकिन यह परिवर्तन किसी रिश्ते की कीमत पर नहीं होना चाहिए। चाहे वह किसी पेड़ से ही क्यों न हो..... 

अपने-अपने आभामंडल

        अपने-अपने आभामंडल के बडे़ उपयोग होते हैं। कुछ लोग अपने आभामंडल के प्रति बड़े जागरूक होते हैं। वैसे भी इस सम्बन्ध में हम अपने देवताओं से ही सीख लेते पाए गए हैं। जिस देवता का जितना बढ़िया आभामंडल होता है हम उस देवता की उतनी ही पूजा करते हैं। उतना ही चढ़ावा मिलता है। अभी आप फेसबुक पर देखिए तो हम जैसे लोग यहाँ भी आकर अपने-अपने आभामंडल को बारीकी से समृद्ध और चमकीला बनाने का प्रयास करते समझे जा सकते हैं। 

           कोई कुछ समझा जाए! इस चक्कर में, कोई शूर-वीर, तो कोई आदरणीय-सम्माननीय, तो कोई स्वघोषित दानवीर, तो कोई स्वनामधन्य ख्यातिलब्ध टाइप हरकतें करते हुए पाया जाता है। हाँ, कुछ-कुछ इसी टाइप से लोग सोशल मीडिया पर नमूदार होते हैं। और जैसे अपने हाथ में कोई कटोरा लिए हुए दाता के नाम पर देने की प्रार्थना करते हुए दिखाई देते हैं। 

             वाकई! हम बड़े प्रतिभाशाली हैं, हमारी प्रतिभा का सम्मान तो होना ही चाहिए। लेकिन कुछ लोगों की महानता और अच्छाई को देखकर मुझे अपने ऊपर कोफ्त सी होती है कि आखिर मैं ऐसा क्यों न हो सका? किसी की दरियादिली देख-सुनकर मुझे अपनी बेदरियादिली कचोटने लगती है। 

               अब यही बात ले लीजिए, मैं किसी को भीख देने में बहुत आनाकानी करता हूँ, और भीख देना लगभग पसंद ही नहीं है। ऐसे में कई बार जेब में सिक्के न होने की सोचकर भी मन को, भीख न दे पाने के पापबोध से बचा लेता हूँ। अभी एक सुदूर धार्मिक यात्रा पर निकला था, वहाँ एक महिला अपने छोटे बच्चे का हाथ पकड़े हुए जब अपनी गरीबी के आभामंडल से मुझे प्रभावित करने का प्रयास करते हुए भीख देने की गुहार की तो मैंने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की थी। फिर भी वह मानी नहीं थी और बोली, "अरे, कुछ पुन्य तो कमाई ल्यो.." इसपर जब उसकी ओर मुड़कर देखते हुए मैंने कहा, "मुझे ऐसे पुन्य नहीं कमाना" तो चिढ़ते हुए से वह यह कहते हुए कि "तो यहाँ पाप कमाई आए हो" दूसरी ओर चली गई थी।

              हाँ, ऐसे ही मैं अपनी पूरी यात्रा में भीख माँगने वालों को नजरअंदाज करता रहा था। ट्रेन में एकाध अंधे पर अनमने ही सही कुछ दयालु टाइप का हुआ तो एक सहयात्री ने मेरे दयालु होने के उत्साह पर पानी फेरते हुए कहा, "अरे,ये सब बने होते हैं, ऐसे ही जब मैंने एक विकलांग पर दया दिखाई थी तो ट्रेन रूकने पर वह उछलते हुए दूसरी ओर भागा था...पैर तोड़ने-मरोड़ने का उसे गजब का अभ्यास था।" इस बात पर मैं बोला तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन मुस्कुराते यह अवश्य सोचा था कि "यदि ऐसे भिखमंगे को ओलम्पिक में अवसर मिले तो जिम्नास्ट में एकाध पदक तो जीत ही लें! खैर...

               ट्रेन में ही मेरे जैसे एक अन्य सहयात्री ने जब एक भिखमंगे को दुत्कारा तो एक अन्य अनुभवी यात्री ने कहा, "आप इसको दुत्कार रहे हो, अभी वे ताली बजाते हुए आएंगे तो बड़े आराम से उन्हें दस का नोट पकड़ा दोगे" मैंने इस बात को समझने का प्रयास किया और ट्रेन की खिड़कियों से पीछे भागते जमीन और पेड़ आदि को देखते हुए यह सोचते जा रहा था कि जब हम कैसे चीजों को पीछे छोड़ते हुए चलते हैं और इसी गति में खो गया था। 

              थोड़ी देर बाद सही में, ताली की आवाज सुनाई पड़ी, जो रह-रहकर तेज होती जा रही थी। "आइ दैया..दे दो.." सुन मैंने ध्यान से उस ओर देखा तो एक शख्स को उन तालीबाजों को नोट देते हुए देखा।इधर मैं मन में निश्चय करने लगा था कि इन्हें एक पैसा नहीं देना है...जब भिखमंगों बेचारों को नहीं दिया तब इन्हें देना तो एकदम ऊसूलों के खिलाफ होगा..और एकदम कायराना..इन्हें दस रूपए देने से बेहतर भिखमंगों को ही देना उचित मानने लगने लगा..! हालाँकि इनकी अश्लीलता भरी छेड़खानी से भी डर लग रहा था.. इसी डर से वे जिसकी ओर हाथ बढ़ाते वही दस का नोट निकाल कर दे देता। यात्रियों से उन्हें इस तरह ताली बजाते, पैसे लेते देख, इसे एक तरह की गुंडागीरी समझ मैं रेलवे की व्यवस्था को कोसने लगा था। खैर, मेरे पास से गुजरते हुए, इनने साथी कश्मीरी यात्री की ओर हाथ बढ़ा कर दस का नोट ले लिया। इसी तरह से दो-तीन बार हुआ वही बेचारे कश्मीरी सहयात्री ही इन्हें दस का नोट देते रहे। हाँ, एक बात थी इन लोगों ने मेरी ओर एक बार भी हाथ नहीं बढ़ाया था। और इस प्रकार मैं अपने धर्मसंकट को बचा गया था लेकिन भिखमंगे को दुत्कारने वाले यात्री को दस का नोट देना ही पड़ गया था। 

               एक बात है भिखमंगई भी एक प्रकार की हिजड़ागीरी ही है। जो जितना बड़ा हिजड़ा वह उतना बड़ा भिखमंगा..! और, एक तथ्य और...ये ताली बजा-बजाकर भीख ले लेते हैं। यह सब अपने-अपने तरीके के आभामंडल का भी कमाल है।