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रविवार, 28 दिसंबर 2014

ठोंगे में मूंगफली..!

           मैं बस में सीट ले चुका था...खिड़की से देखा…ठेले पर मूंगफली वाला मूँगफली को कड़ाही में कहुल रहा था...। बस के चलने में अभी थोड़ा समय अवशेष था...मन में आया चलो जब-तक बस नहीं चलती है तब-तक मूँगफली को ही तोड़ा जाए...! ठेले वाले से ठोंगे में मूँगफली खरीदा और वापस आकर बस में पुनः अपनी सीट पर बैठ गया...। एक बात है...मैं अकसर बस में मूंगफली ठोंगे में ही लेना पसंद करता हूँ...। इसके पीछे विशेष कारण यह होता है कि मूंगफली तोड़ते समय मैं उसी ठोंगे में उसके छिलकों को भी रखता जाता हूँ...और मूंगफली समाप्त होने के बाद चलती बस की खिड़की से छिलकों सहित उस ठोंगे को मैं किसी सूनसान स्थान पर फेंक देता हूँ...। आज-कल यह काम और महत्वपूर्ण हो गया है.…! स्वच्छता अभियान जो चलाया जा रहा है.…! हालांकि...अभी तक मैंने कोई झाड़ू नहीं लगाया है और न ही मुझसे किसी ने झाड़ू लगवाया हैं.… इतना महत्वपूर्ण भी नहीं हूँ और न ही किसी के लिए प्रेरणाश्रोत बनने की क्षमता है.…कि...कहीं फोटो छप जाए और झाडू लगाने की क्रान्ति आ जाए.…! एक बात और है...गंदगी फैलाने वालों का बहुमत इस तरह का है कि यदि झाडू लगाते कोई देखे तो या तो सिरफिरा मानेगा या फिर पागल…! और इस झाडू लगाने के चक्कर में दो-चार गाली भी मिल जाएगी.…लोग मान लेंगे कि बड़ा चालाक है गंदगी कर फिर झाडू लगाने का नाटक करता है...और...इस चक्कर में लेने के देने पड़ जायेंगे सो अलग…!
                हाँ तो.… झाडू तो नहीं लगाता लेकिन इस बात का ध्यान रखने की कोशिश करता हूँ कि किसी को मेरे चक्कर में झाड़ू न लगाना पड़े.…! और इसी सोच के प्रभाव में मैं ठोंगे से मूंगफली ले उसी ठोंगे में उसके छिलकों को रखता जाता हूँ.…इस काम में मुझे छुपा-छुपाई खेल जैसा मजा भी आता-जाता है.…यह कि...जैसे-जैसे ठोंगे में मूंगफली कम होती जाती है वैसे-वैसे बेचारी मूंगफलियाँ ठोंगे में छिलकों के ढेर में छिपने का प्रयास करती जाती  हैं ...लेकिन...एक-एक कर आखिर तक मैं उन्हें खोजता जाता हूँ.…!
                बस अभी तक चली नहीं थी.…बस में बैठे-बैठे हाथ में ठोंगे लिए छिलकों के ढेर में से मैं मूंगफली ढूढ़ रहा था.! तभी किसी ने बस के बाहर से मेरी खिड़की पर ठक-ठक की आवाज की...मैंने उस पर एक उड़ती हुई निगाह डाली....हाँ वह कोई भिखमंगा ही था.…! उसकी आवाज भी सुनाई पड़ी.… "बाबूजी…" मैंने ध्यान नहीं दिया...।..सोचा.. "होगा भिखमंगा.…इनकों भींख देकर भींख माँगने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना उचित नहीं होगा…भगवान ने हाथ पैर दिए हैं यह मेहनत कर क्या काम नहीं कर सकता? जो बेचारे काम कर पैसा कमाते है.…इसे भींख देना...उन बेचारों का क्या अपमान अपमान नहीं होगा...?"  "बाबूजी… ई… ई…" भिखमंगे की आवाज मुझे फिर सुनाई दी... "तो अभी यह गया नहीं...मैं ठोंगे में मूंगफली खोज रहा हूँ और यह सोच रहा होगा कि इसे देने को मैं सिक्के खोज रहा हूँ...शायद इसी लिए यह अभी तक खड़ा है...! ..हो सकता है यह वाकई में भिखमंगा ही हो..कोई काम करने लायक न हो...!" यही सोचते-सोचते मैंने पुनः उस पर एक गहरी दृष्टि डाली... "अरे...यह तो वास्तव में भिखमंगा ही है..." फिर मैं अपने बटुवे में से कुछ सिक्कों के बीच में से एक रुपये का सिक्का खोजने लगा...एक सिक्का बहुत सावधानी बरतते हुए यह सोचते हुए बटुवे में से निकाला कहीं यह दो का सिक्का न हो...और खिड़की से बाहर हाथ निकाल रस्म अदायगी करते उसके बर्तन में डाल दिया...खन्न...! एक सिक्का न देना पड़े इसके लिए मैंने सारे तर्क खोज लिए थे...!  
           भिखमंगा चला गया...मैंने देखा एक हट्टा-कट्टा तीस-पैंतीस साल का व्यक्ति मेरी बस में चढ़ रहा था चेहरे से वह किसी उग्रवादी से कम नहीं लग रहा था..! तभी बस भी चल पड़ी..इधर ठोंगे में मूंगफली भी ख़तम हो चुकी थी... केवल छिलके ही बचे थे..अब मैं छिलके सहित इस ठोंगे को बस से बहार फेंकने की फिराक में पड़ गया...तभी बस ड्राइवर के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी... "चलो-चलो तुरंत उतरो..." और वह जीर्ण-शीर्ण काया में अधेड़ भिखमंगिन सी महिला...! ड्राइवर से कुछ कहते हुए गिड़गिड़ाए जा रही थी...! ड्राइवर की आवाज कानों में फिर गूँजी... "जाओ कंडक्टर से पूँछो..." इधर कंडक्टर यात्रियों के टिकट बना रहा था...वह महिला कंडक्टर के पास आ गयी....कंडक्टर ने उसे देखते ही पूँछा, "क्या बात है..कहाँ जाना है...?" उस भिखारिन सी महिला ने किसी स्थान का नाम बताया..इस पर कंडक्टर ने उससे टिकट बनवाने के लिए कहा। वह फिर कंडक्टर से फिर गिड़गिड़ाने लगी...और अपनी धोती...हाँ साड़ी नहीं...के एक किनारे की छोटी सी गाँठ खोलने लगी...शायद वह बताना चाह रही थी कि उसके पास पैसा ही नहीं है...तब तक उसकी गाँठ खुली शायद दस के एक-दो नोट ही थे...और उसे दूर जाना था...उसके इस गाँठ में टिकट के पर्याप्त पैसे नहीं थे...!
                कंडक्टर उस औरत से चिल्लाया, "उतरो....तुरंत उतरो..." और यह कहते हुए उसने ड्राइवर से बस रोकने के लिए भी कह दिया...ड्राइवर ने बस को धीमी करना शुरू कर दिया...अब वह महिला जोर-जोर से गिड़गिड़ाने के अंदाज में चिल्लाने लगी...! सभी यात्रियों का ध्यान उस पर चला गया...हाँ..वह गिड़गिड़ाए जा रही थी...लेकिन उतरने के लिए तैयार नहीं थी...! अब वह बस यात्रियों से शायद यह कहना चाह रही थी कि कोई उसका टिकट बनवा दे...लेकिन सभी यात्री मौन थे..! इधर उसकी दशा देख मन ने सोचना शुरू किया... "यह औरत कहीं पागल तो नहीं...देखने से तो पागल नहीं लगाती...क्या वाकई गरीब है..? इतनी ही गरीब है तो कम से कम बिना पैसों के उसे इस सरकारी बस में नहीं चढ़ना चाहिए...अरे...! ये लोग बहुत चालाक होते हैं...क्या इसके पास पैसा नहीं होगा...? नाटक कर पैसा बचाती होगी इसी तरह...भाड़े बचाने की चाल है इसकी...! फिर यह तो ऐसी लगती है..कि...इसे इतनी दूर यात्रा करने की क्या जरुरत...?" आदि-आदि ऐसे ही तर्क मैं मन ही मन गढ़ता जा रहा था..और उस गरीब महिला के प्रति मन में उमड़ने वाली सदाशयता को इन तर्कों के ढेर से दबाता जा रहा था...इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में गढ़े इन तर्कों की ही विजय हुई...और मन ही मन मैंने निश्चय कर लिया कि ऐसे लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए...!
                कंडक्टर की आवाज फिर सुनाई पड़ी, “यह सरकारी बस है...बिना किराए दिए हम नहीं ले जायेंगे...क्या हमें नौकरी गँवानी है..? पता नहीं कहाँ-कहाँ से कैसे लोग चढ़ आते हैं..,?” और उसने ड्राइवर से बस रोकने की लिए फिर कहा..! वह भिखमंगिन सी महिला रुवांसी हो जोर-जोर से चिल्लाने लगी...! तभी पीछे से एक आवाज आई... "अरे..कंडक्टर इसे मत उतारो...मैं टिकट के पैसे दे दूंगा...कितना हुआ...?" फिर उस व्यक्ति ने अपने और उस महिला के टिकट बनवाये...! कंडक्टर बोला, “अरे भाई दया तो मुझमें भी है..लेकिन नियम कायदे से बंधा हूँ...दस-पांच की बात होती तो किसी तरह लिए चलता...सौ की बात है...नौकरी खतरे में पड़ सकती थी...” कहते हुए वह फिर टिकट काटने में व्यस्त हो गया...। तब-तक बस शहर से बाहर आ चुकी थी...मैंने चलती बस से एक सूनसान स्थान देखकर मूंगफली के छिलकों सहित उस ठोंगे को बस की खिड़की से बाहर यह सोचते हुए फेंक दी...कि...चलों इसी तरह सफाई अभियान में मेरा यह तुच्छ प्रयास भी समर्पित हो...!
        लेकिन...पता नहीं क्यों मन थोड़ा सा बेचैन था...! ऐसा लग रहा था...जैसे तमाम कूड़ों के मन में ढेर लग चुके हैं...उनका मैं क्या करूँ...? मन के कूड़े के...! पता नहीं किस ढेर में मेरी वह सदाशयता दब सी गयी है...जो पढाई के दिनों में अपने कस्बे से इलाहबाद बस से जाते समय प्रगट हो गयी थी...! हाँ...वह भी तो एकदम ऐसी ही घटना थी..! आज यहाँ एक औरत है तब वह एक गरीब युवक था...! वह ऐसे ही बस कंडक्टर से पैसे न होने की बात कहते हुए गिड़गिड़ा रहा था कि उसके पास किराए के पैसे नहीं है लेकिन उसे जाना जरुरी है...ऐसे ही आज की तरह...वह कंडक्टर भी उसको बस से उतार रहा था...बस का कोई भी यात्री उस युवक का साथ नहीं दे रहा था...तब मैंने बिना कुछ सोचे अपनी पढ़ाई के लिए मिले पैसों से कंडक्टर से उसका भी टिकट बनाने के लिए कह दिया था...!
      लेकिन आज पता नहीं क्या हो गया था मुझे..! यहाँ तक आते-आते क्या कुछ और क्यों बदल गया...! उस महिला के आर्त्र-स्वरों का भी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा...! ...और...मन के किसी कोने में ही सही उपज रही सदाशयता को दबाने के लिए मैं तर्क पर तर्क गढ़े जा रहा था...! ऐसे तर्क..! जो किसी के काम न आ सकें...! ये तर्क कूड़े ही तो हैं..! और...तर्क-कूडों के इस ढेर में दब कर उस सदाशयता ने दम तोड़ दिया..! तर्कों के इन कूड़ों का मैं क्या करूँ...इन्हें तो मैं बाहर ही नहीं फेंक पाया....!
        तभी एक आवाज सुनाई पड़ी... “अरे कंडक्टर साहब मुझे उतार दीजिए...और इस महिला को आगे आने वाले बस स्टेशन पर उतार दीजियेगा...” मैने देखा...अरे...! यह तो वही व्यक्ति है जिसे मैंने उग्रवादी जैसा समझ लिया था...! तो...इसी ने इस गरीब महिला का टिकट लिया था...! और...मैं सोचता ही रह गया...!
                  ------------------------------------विनय                

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

वह बौनापन और प्रश्नों की दुनियाँ में उत्तरों का ‘गॉड-पार्टिकल’...


          
         बस की यात्रा मुझे विचारों की गहराई में ले जाने का काम करती रही है...अकसर ऐसी यात्राओं में मेरी एक आदत रही है कि बस की खिड़की से बाहर झाँकने के साथ ही अपने अन्दर झाँकने का काम करता रहा हूँ..और..कई बार मुझे अपनी समस्याओं का हल ऐसी ही यात्राओं में मिला है..और...झिलमिल तारों के साथ चाँद को धरती पर उतर आने का अहसास भी पाया है...!
         
       ..बस में बहुत भीड़ थी...मुझे सीट मिल गयी थी..! मेरे बगल वाली सीट पर एक युवक आकर बैठ गया...मैंने उसकी ओर देखा वह ठीक-ठाक कपड़ों में था...बस की सभी सीटें भरी होने के साथ स्टैडिंग सवारियों से भी वह भर गयी..! बस में अधिकतर यात्री श्रमिक वर्ग से थे जो पूर्वांचल से काम की तलाश में पश्चिम की ओर रुख किए होंगे...वास्तव में पश्चिम में बड़ा दम है हर तरह का रोजगार उपलब्ध कराता है...! ...सोचा..बस को अब चलना चाहिए... तभी बस का ड्राइवर आकर अपनी सीट पर बैठ गया...अब मैं कंडक्टर को तलाशने लगा क्योंकि बगैर उसके बस चल ही नहीं सकती थी...लेकिन यह क्या बस तो चल पड़ी..! बस खचाखच भर गई थी..मेरी निगाहें इधर-उधर कंडक्टर को खोजने लगी...लेकिन कंडक्टर महोदय बस की भीड़ में कहीं नजर नहीं आये...!
     
        आचानक बस के पिछले हिस्से से एक बच्चे की आवाज आई... “फटाफट आप लोग टिकट बनवा लो...” आवाज थोड़ी अजीब लगी...! सोचा बच्चा तो टिकट बाँट नहीं सकता...थोड़ा पीछे उचक कर देखने का प्रयास किया लेकिन बस में भीड़ होने के कारण कंडक्टर को देख पाने में असफल रहा..! बगल में बैठा युवक किसी से अपने मोबाइल पर बात करने लगा..“हाँ..हाँ एकदम सही काम हुआ है...” फिर अपनी बातें समाप्त कर दी.. इसके बाद वह कुछ बोल रहा था लगा जैसे वह मुझे कुछ सुनाने की कोशिश कर रहा हो...! पहले तो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया..क्योंकि मेरा मन उसके बौद्धिक स्तर या कहें उसके सोशल स्टेटस को भी अपने अनुकूल नहीं पा रहा था...उससे बात करना मैं गैर जरुरी मान रहा था...उसके प्रति मेरे मन की इस उदासीनता की उसे परवाह नहीं थी...या मेरी इस उदासीनता को वह समझ ही न पा रहा हो...
     
        मेरी और मुखातिब होते हुए वह युवक बोला, “एकदम सही काम हुआ..लाटरी से फैसला हो गया...पहली बार मैंने इतना सही काम होते हुए देखा...!” अब मैं अपने को रोक नहीं सकता था क्योंकि वह मुझसे मुखातिब था यदि उससे बात न करता तो वह अपने को अपमानित महसूस कर सकता था..मैंने पूँछ लिया, “किस बात की लाटरी..?” फिर उसने बताया कि किसी अर्ध सरकारी वितरण एजेंसी के लिए योग्य उम्मीदवार के चयन की बात थी..मैंने उससे कहा, “अभी कैसे मान लिए कि सब सही हो गया...क्या नाम फ़ाइनल हो गया..” उसने कहा, “नहीं अभी तो लाटरी ही के माध्यम से नाम आया है..अभी तो और भी प्रक्रियाएं हैं..." फिर कुछ सोचते हुए उसने कहा, "आपने सही कहा..अभी चयन के कई चरण हैं..उसे कुछ शर्तों के साथ रिजेक्ट भी किया जा सकता है...मतलब अभी खेल बाकी है...!” फिर मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “यह भी हो सकता है कोई उसको हड़का दे तो वह एजेंसी लेने से ही मुकर जाए..” उसने मेरी बातों से सहमति जताई..” हाँ..अब-तक कंडक्टर की दो-तीन बार आवाजें सुनाई पड़ चुकी थी..लेकिन अभी भी बस में भीड़ के कारण वह मुझे दिखाई नहीं दिए..!
       
        फिर उस युवक ने बातों ही बातों में कहना शुरू किया कि “दिखावे की जिंदगी बहुत बेकार होती है..बहुत सारी परेशानियों का कारण बनती है...आदमी को अपने वास्तविकताओं में रहना चाहिए..अंत में कौन क्या ले जाता है..!” फिर वह बोला “मैं तो सब कुछ होते हुए भी बहुत साधारण से रहता हूँ..मेरी एक कंपनी है...वहाँ कई मजदूर काम करते हैं, मैं कभी-कभी ही उनके काम देखने जाता हूँ..हाँ मैं इतना अनुमान जरुर रखता हूँ कि मुझे इतना लाभ मिलना चाहिए..! और वे लोग लगभग उतना लाभ मुझे दे भी देते हैं...मैं भी सोचता हूँ कि इस लाभ का उत्तरदायित्व उनपर छोड़ देने से वे मेरी कंपनी को और जिम्मेदारी से चलाएँगे...ऐसा वे करते भी हैं..फिर...यदि वे कुछ थोड़ा लाभ भी ले लेते हों तो क्या फर्क पड़ेगा..उस लाभ के कारण कम से कम मेरी कंपनी के प्रति लगाव रखते हुए कामचोरी तो नहीं करते हैं और कंपनी को अपना समझते हैं...” एक सांस में जैसे उसने ये सारी बाते कह डाली थी, मैंने उसके इस प्रबंधकीय कौशल पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया...लेकिन यह सोचा जरुर की उसने कुछ कहा है...! बस भागी जा रही थी...बाहर अँधेरा घना होने के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था..हाँ आते-जाते वाहनों के हेडलाईट की रौशनी जब-तब दिखाई पड़ जाती..खिड़की के बाहर झांकने का प्रश्न ही नहीं था..!
       
       आकस्मात मेरे कानों में आवाज पड़ी, “कहाँ जाना है..टिकट बनवा लें...” मैंने चेहरे को ऊपर किया...“ओह...! तो बच्चे जैसी आवाज वाले यही कंडक्टर महोदय हैं..!” यह सोचते हुए मेरा ध्यान उनके शरीर की ओर भी गया...काफी लम्बा-चौड़ा शरीर था..! उन्हें देखकर मैंने सोचा, “इतने भारी-भरकम शरीर वाले की एक बच्चे जैसी पतली आवाज...!” कंडक्टर के शरीर और उनके आवाज के अनुपात को सोचकर मैं मन ही मन मुस्कुरा दिया..सोचा इसका कारण पूँछ लूँ...लेकिन...कहीं बुरा न मान जाएँ...नहीं पूंछा..! हम लोगों ने टिकटें बनवा ली...इस बीच एकाध स्टॉप पर बस रुकी भी..उसी समय कंडक्टर साहब किसी यात्री पर कुछ चिल्ला पड़े थे...तभी बस में पीछे से एक यात्री की आवाज आई, “अरे कंडक्टर साहब..रउरा के आवाज को का होगइल बा..हो..!” कंडक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया...अपने काम में लगा रहा...शायद सुना ही न हो..! मेरे बगल में बैठा युवक यह सुन हँस पड़ा...मैंने उससे कहा, “अरे नहीं..कंडक्टर से उसकी आवाज के बारे में नहीं पूँछना चाहिए..वह बुरा मान सकते हैं..” उसने कहा, “क्यों..?” “यह उनको कोंचने जैसी बात हो सकती है...” मैंने कहा| “अरे..! इसमें कौन सी कोंचने की बात...?” उसने प्रतिप्रश्न किया| “किसी की कमी की ओर इंगित करना वह भी शारीरिक..तो कोंचने वाली बात तो होगी ही..” मैंने उत्तर दिया|
       
       मेरी इस बात पर वह युवक एक क्षण चुप रहा...फिर चुप्पी तोड़ते हुए बोला, “देखिए भाई साहब..! ये जो बोला है वह मजदूर है..नए उम्र का है..और...इस बस में ज्यादातर यही लोग हैं..इनमें से अधिकतर गुजरात, पंजाब या दिल्ली जा रहे होंगे...ये बेचारे दिन भर मेहनत करते होंगे...ये ऐसे ही तफरी कर लेते हैं...या फिर शाम को दो-चार घूँट लेकर...कुछ क्षण के लिए अपनी रोजमर्रा की तमाम समस्याओं को भुला देते होंगे...इनके मन में जो आया बोल दिए, किसी को बुरा लगे तो लगे...इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता...यह भी इनके जिन्दगी का हिस्सा है...और...ये ज्यादा सोचते भी नहीं..! फिर इसमें कंडक्टर को बुरा मानने वाली कोई बात भी नहीं है...” सुनकर पास बैठे उस युवक की ओर मैं देखने लगा...मैंने अपने को बौना पाया..!
      
       ...और उधर यात्री के प्रश्न का कोई उत्तर न देकर कंडक्टर ने मुझे कोंच दिया...! मेरे मन ने एक अपना प्रश्न खड़ा कर दिया...कि...किसी उत्तर के बगैर क्या किसी प्रश्न की अस्मिता हो सकती है...या...क्या बिना उत्तर के प्रश्न अपनी मौत मर जाते हैं..? तो क्या उन्हें मर जाने देना चाहिए...? लेकिन मेरी बस ऐसे प्रश्नों और उत्तरों से बेपरवाह अपने गंतव्य की ओर कैसे बढ़ी जा रही थी...यह भी मेरे लिए एक प्रश्न था...मतलब...? फिर मेरे मन में इस तरह के विचार आते गए...
       प्रश्न...!
       प्रश्न तैरते रहते है...!
       क्या प्रश्न उत्तरापेक्षी होते है..?
       प्रश्नों का स्वतंत्र अस्तित्व है...!
       उत्तर...!
       क्या उत्तर भी तैरते रहते है...?
       या उत्तर भी स्वतंत्र हैं...!
       या उत्तर सदैव प्रश्न-सापेक्ष ही होते है....!
       प्रश्न और उत्तर...!
       ये अलग-अलग होते हैं या चिपके हुए होते है...!
       या दोनों अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ सदैव विद्यमान रहते है...!
       बस कभी-कभार टकरा जाते होंगे...!
       जो भी हो लेकिन एक बात है...प्रश्नों से जब उत्तर टकराते होंगे तो क्या होता होगा...
       या तो प्रतिप्रश्न उत्पन्न होता होगा...!
       या फिर प्रश्न से टकराकर उत्तर उसे ब्लैक होल में बदल देते होंगे और दोनों उसमें विलीन हो विलुप्त हो जाते होंगे...!
      
       जो भी हो प्रश्न संसार रचता है...जो प्रतिप्रश्न के रूप में विस्तारित होता रहता है...उत्तर में इस संसार को नष्ट करने की क्षमता होती है...फिर तो..! उत्तर विध्वंसात्मक होता है..! यह संसार को नष्ट कर सकता है...! विवादों की जड़ है..! प्रतिप्रश्न विवाद नहीं होते क्योंकि वे उत्तरों को अपने से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं...और दुनियाँ बनती रहती है...  
     
        हाँ..एक बात है उत्तर प्रश्नों में घनत्व बढ़ा देता है...शायद यही प्रतिप्रश्न उत्पन्न करता होगा...प्रतिप्रश्नों का संसार...! यही हमारी दुनियाँ है...अपने-अपने प्रश्न..! अपनी-अपनी दुनियाँ..! यह दुनियाँ बनी रहे ऐसे उत्तर तलाशें...लेकिन यह उत्तर प्रश्नों को ब्लैक-होल में ले जाने वाला न हो..नहीं तो यह संसार नष्ट हो जाएगा...उत्तर ऐसे हों जो प्रश्नों में घनत्व ले आए..जिससे प्रतिप्रश्न उत्पन्न हो सके...! और दुनियाँ सृजित हो सके...तो फिर...! उत्तरों में ‘गॉड-पार्टिकल’ तलाशें...जो प्रश्नों में घनत्व बनाए या प्रतिप्रश्न उत्पन्न करे...जिससे...दुनियां चलती रहे...बनती रहे..यह ब्लैक होल में न समाए..!
     
         हाँ...कंडक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया था...देता तो बस रुक सकती थी...उसका काम रुक जाता...समय बर्बाद होता...या..ड्राइवर की उलझन बढ़ जाती...बस खड्ड में जा सकती थी...लेकिन कंडक्टर ने उत्तर का ‘गॉड-पार्टिकल’ तलाशा...और बस चलती रही...
     
        मेरे मन में एक बात और उपजी.....
        यदि प्रश्न ही न हों तो....तब क्या होता होगा...क्या संसार रचने से रह जाता होगा...?
     
        चल रही बस में मैंने इसका भी उत्तर तलाशने का प्रयास किया...हाँ...बात उन दिनों की है..
    
      मैं शायद आठवीं में पढ़ रहा था..एक दिन...कक्षा में मास्साहब हम बच्चों को पढ़ा रहे थे...शायद किसी किताब से कुछ बोल कर लिखा रहे थे...तभी उन्हें किसी काम से कक्षा छोड़कर कुछ देर के लिए बाहर जाना पड़ा...उन्होंने आलेख लिखाने का उत्तरदायित्व मुझे दिया और चले गए...मैं छात्रों को बोलकर लिखाने लगा......इसी बीच एक शब्द आया.. ‘अश्लील’ बच्चे इस शब्द को लिख नहीं पा रहे थे...फिर मैंने ब्लैकबोर्ड पर इसे चाक से लिखा...अश्लील...बच्चे इसे देखकर लिख लिए...!       
      
       उसी समय मास्साहब कक्षा में लौट आए थे...आते ही उन्होंने ब्लैकबोर्ड पर लिखे इस शब्द को देखा...और...बिना हमसे कुछ पूँछे मेरी गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया...! मैं कुछ समझ ही नहीं पाया आखिर यह तमाचा मुझ पर क्यों पड़ा....हाँ...तमाचे के पहले मास्साहब ने मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया...और...उस तमाचे के भय से मैं भी कोई प्रश्न नहीं कर पाया...! मैं चुपचाप आकर अपनी बेंच पर बैठ गया...हाँ एक बात और थी...उस समय ‘अश्लील’ शब्द का मुझे कोई अर्थ भी नहीं पता था...इसका अर्थ तो मैंने बहुत वर्षों बाद जाना...और जब जाना तो मेरे मन में यह प्रश्न उभर आया कि “क्या मास्साहब ने ‘अश्लील’ शब्द को ही अश्लील मान लिया था...?” या फिर ब्लैकबोर्ड पर लिखने को मेरा दुस्साहस मान बैठे थे....खैर जो भी हो....यदि हम दोनों ने उस समय प्रश्न किए होते तो संभव था...उत्तरों का कोई ‘गॉड-पार्टिकल’ उन प्रश्नों से टकराता...और...एक और बेहतर दुनियाँ हमारे लिए बनी होती...! हम आज के अपने बौनेपन से भी बचे होते......!
      लेकिन..! अफ़सोस..! आज...तमाचे..! प्रश्नों पर तमाचे..! हाँ तमाचे...मासूम से प्रश्नों को बेमौत मारने पर आमादा हैं...! बिन प्रश्नों के यह दुनियाँ आखिर कैसे बनेगी..उत्तर का कोई ‘गॉड-पार्टिकल’ इनसे कैसे टकराएगा...! और बिना घनत्व के यह दुनियाँ कैसे टिकेगी...? तो....   
     
              आइए...! हम अपने बौनेपन का ध्यान रखते हुए प्रश्नों की दुनियाँ में रहें...लेकिन...उत्तरों के गॉड-पार्टिकल के साथ...!
                            ------------------------------एक पागलपन सोच..विनय...!            


सोमवार, 15 दिसंबर 2014

तो मित्र महोदय इस वीभत्स रस में डूबे हुए हैं....!

       दरवाजे पर दस्तक हुई..! अभी मैं दरवाजा थोड़ा सा ही खोला था कि चिहुँक गया..और अकस्मात् मेरे मुँह से निकल गया, “अरे भाई आप...!” बात यह थी कि ये आगन्तुक महाशय मेरे मित्र थे जिनसे इधर कई दिनों से मेरी मुलाक़ात नहीं हो पाई थी..या यों कहें कि हम अपने-अपने ‘ईगो’ के कारण एक दूसरे से मिलने से कतरा रहे थे...जैसे..यह मिलना भी आजकल फेसबुक के मित्र के किसी कंटेंट के लाइक करने या न करने की प्रवृत्ति से मेल खाता हो...कारण...एक बार मैं मित्र से मिलने उनके घर गया तो महोदय थोड़ी बहुत ‘हाय-हेलो’ के बाद अपना एक आवश्यक कार्य बताते हुए निकल पड़े...मुझे बड़ा नागवार गुजरा एक तो मैं अपने तथाकथित बहुमूल्य समय में से समय निकाला था और दूसरे काफी दूर चल कर उनसे मिलने गया..और..ये महाशय मेरे से बेपरवाह निकल लिए..! ...मैं उनके घर वालों से मिल कर चला आया था...तभी से मैंने भी एक ‘ईगो’ पाल लिया कि अब इस तरह मिलने की पहल करने की आवश्यकता नहीं...और मित्र महोदय भी पलट कर इधर मेरी इतने दिनों से खबर नहीं ले रहे थे..! फलतः कल्पनाशील मेरा मन उनके इस ‘ईगो’ से अपने ‘ईगो’ को लगभग पुष्ट कर चुका था...हाँ..उन्हें अचानक इस तरह आया देख मेरा ईगो दरक सा गया..और...उस समय यह मेरे चिहुँकन में प्रकट भी हो गया..!
       मैंने दरवाजा पूरा खोल दिया...मित्र महोदय बिना हमसे कुछ बोले सीधे मेरे तखत पर लगे बिस्तर पर जा कर बैठ गए और रजाई अपने ऊपर डाल ली...मैं भी आकर तखत पर सिरहाने पीठ को टेक देते हुए आराम से बैठ गया...हम दोनों के बीच कुछ क्षण मौन छाया रहा..! फिर मैं बोला, “इतने दिन बाद फुरसत मिली..!” “हाँ कुछ इधर-उधर की व्यस्तता आ गयी” कहते हुए वे भी तकिये के सहारे अधलेटे हो गए| मैंने मौका देखकर थोड़ी अपनी भड़ास निकालने की कोशिश की, “वैसे आदमी को संबंधों को भी जीना चाहिए...जिससे उसके अंत समय तक चार आदमी काम आ सके...नहीं तो...दुनियाँ में कौन किसको पूँछता है..!”
      उन्होंने मुझे घूरा जैसे मेरी बात अच्छी न लगी हो...बोले, “यार संबंधों को जीना..! इसका मतलब क्या है...?” “अरे मेरे कहने का मतलब यह कि बात-व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि कम से कम चार आदमी तो हमें अपना कह सकें..” मैंने मित्र की आँखों में अपनी आँख गड़ाते हुए कहा जैसे उन्हें किसी बात की चेतावनी दे रहा होऊं..! तभी सामने चल रहे टी.वी. पर मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी को दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार समारोह पर दृष्टि पड़ी...काफी भव्य समारोह में यह पुरस्कार उन्हें प्रदान किया जा रहा था..इस समारोह को मित्र महोदय भी देख रहे थे...
       अचानक टी.वी. देखते-देखते वह बोले, “तो तुम चार आदमी पर ही आ कर अटक गए हो..?” फिर मित्र महोदय ने टी.वी. की और इशारा करते हुए कहा, “अगर ये चार आदमी की ही परवाह किये होते तो आज इनका यहाँ ओस्लो में यह सम्मान न हो रहा होता...बल्कि ये तो अपने-अपने समाज के बहिष्कृत से लोग हैं...क्योंकि यह समाज की बुराईयों से लड़ रहे लोग हैं...पहले तो इन्हें तमाम तरह की उपेक्षाएँ ही मिली होंगी..!” और फिर बोले, “देखो यार चार आदमी ही क्यों..या..संबंधों को ही क्यों जीना..! यह बहुत मायने नहीं रखता...मायने तो इसमें है कि आप क्या जी रहे है...और इस जीने का तरीका क्या है..?” मैं मित्र की ओर देख कर सोचने लगा यह कौन सा ‘ईगो’ मैंने पाल लिया था..मेरा दाँव तो उल्टा पड़ गया..! मैं अभी यही सोच रहा था कि मित्र फिर बोल उठे,
       “अंत समय में चार आदमी साथ निभाएंगे या नहीं इसकी परवाह क्यों..? सोचो चार आदमी के चक्कर में कितनों को नजरअंदाज कर रहे हो...? अरे अंत समय में कोई साथ न भी निभाए तो कौन सा फर्क पड़ेगा..तब तो और ही अच्छा होगा..! शरीर सड़ कर मिट्टी में मिलेगी...खाद बनेगी..और भूमि उपजाऊ बनेगी..वैसे भी अब जमीन बंजर हो रही है..! और...यदि मृत शरीर को जानवर नोच कर खा जायेंगे तो कम से कम यह बात तो होगी कि चलो जीते न सही मरने पर तो किसी की भूँख मिटाने के काम आ गए..!”
       मित्र महोदय यह कह कर मंद-मंद मुस्कुराते हुए चुप हो कर मुझे देखने लगे..और..मैं इधर अवाक्..! तो मित्र महोदय इस वीभत्स रस में डूबे हुए हैं..! ...मैंने सोचा..! मेरी तमाम रसों से भरी कविता में...मित्र ने अपने इस वीभत्स रस को..! जिससे हम दूर भाग रहे थे...इसे कहाँ से उड़ेल दिया...! हाँ...इस वीभत्स रस में मेरा ‘ईगो’ भी घुल गया..! दोष मेरा ही था...मेरा मन कुछ ज्यादा ही कल्पनाशील हो गया था..! मैंने अपनी दृष्टि को फिर से टी.वी. पर गड़ा दिया...देखा...मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर रहे थे...लोग तालियों से उनका स्वागत कर रहे थे..! 

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

माना त देऊ नाहीं त पाथर..!

   

     यह हैं हमारे पंडित..! मतलब हमारे खानदानी पुरोहित...! वही पंडित कई वर्ष बाद एक विवाह कार्यक्रम में दिखाई दे गए...! मैंने पहला काम यही किया कि अपने मोबाइल से बिना इनके जाने इनकी तस्वीर उतार ली...हालाँकि...उम्र के इस पड़ाव पर इनकी हँसी गायब थी...या फिर मेरी ही दृष्टि बदल गयी हो...लेकिन..इन्हें देखते ही इनकी वही पुरानी छवि मेरे मन में जीवन्त हो उठी..!

        दादा जी ने बताया था कि इनके पिता जी भी हमारे परिवार के पुरोहित रहे हैं...और कोई बहुत पुराना रिश्ता भी बता रहे थे...! ये बेचारे बहुत सीधे-साधे प्रजाति के जीव हैं..! मैंने आज तक इनके आँखों में कोई बड़ा ख्वाब पलते हुए नहीं देखा है...थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी और अपने ‘उपरेहिती’ की आय से जीवन-यापन करते हुए ही इन्हें देखा है...! बस प्राकृतिक ढंग का सहज और सरल सा इनका जीवन-यापन..! जब से मैंने होश संभाला है तभी से मैंने खानदान में शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर इन्हें पंडिताई या पूजा-पाठ कराते देखा है...हाँ खानदान के अन्य परिवारों ने इनकी वृद्धावस्था एवं अवसरों पर इनके न पहुँच पाने की स्थिति को देखते हुए अपने अलग-अलग पुरोहित बना लिए हैं...
        
       इनका घर हमारे घर से कई किलोमीटर की दूरी पर था..बचपन में जब ये किसी धार्मिक या शादी-विवाह जैसे अवसरों पर गाँव आते...तो कई दिनों तक हमारे परिवार के लोग इन्हें घर पर रोक लिया करते...पता नहीं क्यों हम बच्चों को भी इनसे बाते करनें में बड़ा मजा आता था..! और जब ये अपने घर जाने के लिए तैयार होते तो हम कुछ बच्चे इनके कपड़े या इनके झोले को जिसमें दान या भेंट में मिली चीजें हुआ करती उसे छिपा कर रख देते...कभी-कभी इस प्रक्रिया में एकाध-दो दिन और रुक जाते...हाँ कभी-कभी ऐसा भी होता कि ये हम लोगों से तो कह देते कि आज नहीं जाएँगे और हमसे सामान देने की हमसे चिरौरी करते...तब हम बच्चे इनका सामान लाकर दे देते...लेकिन हम लोगों के इधर-उधर होते ही मौका पाते ही ये महाशय चुप-चाप निकल लेते..खैर...
       
      धार्मिक क्रियाकलाप कराते समय मैंने शायद ही इनके मुँह से संस्कृत श्लोकों को सुना हो...परिणामस्वरुप सत्यनारायण की कथाओं से बखूबी परिचय मैंने इन्हीं के मुखारबिंदों से प्राप्त किया...क्योंकि परिवार के बड़ों को सत्यनारायण की कथा सुनाते समय ये उसके हिंदी अनुवाद को ही पढ़ते और अध्याय समाप्त होने पर शंख बजाते...हाँ कभी-कभी अध्याय समाप्ति पर शंख बजाने का उत्तरदायित्व हम संभाल लेते...हम-उम्र बच्चों में इस उत्तरदायित्व के लिए एक प्रकार से गलाकाट प्रतियोगिता सी रहती...! इसी क्रम में कलावती, लता-पात, मोरध्वज से मैं बखूबी परिचित हुआ...एक बात और..! विवाह संपन्न कराते समय भी ये संस्कृत श्लोकों का प्रयोग नहीं करते थे...हाँ विवाह कार्यक्रम समाप्त होते समय मंडप में बड़े ही सुरीले अंदाज में मैंने इनको अकसर यह गाते हुए सुना था, “जब लगि गंग जमुन जलधारा तब लगि रहै अचल अहिवात तुम्हारा....” बचपन में किसी विवाह के संपन्न होते समय मैं इनके इसी गाने का इंतजार करता रहता....
       
       एक बार माँ के बहुत दबाव डालने पर मैं स्वयं यजमान बन सत्यनारायण की कथा सुनने बैठा... “आर्यावर्ते जम्बूद्वीपे सप्तरेवा खंडे...” कहते हुए इन्होंने सभी देवताओं का पूजा में आवाह्न किया..जब कथा के सातों अध्याय पूरे हुए तो कथा का समापन करते हुए इन्होंने मुझसे कहा, ”बाबा आप यह कहो कि लक्ष्मी हमारे घर वास करैं और बाकी सभी देवता अपने-अपने स्थान को प्रस्थान करें...” तो मैंने कहा, “सरस्वती हमारे घर वास करें और बाकी सभी देवता प्रस्थान करें...” इस पर इन्होंने हँसते हुए कहा था, “का बाबा..पुजवौ में मजाक करत हया...” फिर हम दोनों हँस पड़े थे..एक बात और थी...उस सत्यनारायण की कथा में नवग्रहों पर जब कुछ द्रव्य चढ़ाने की बात आई तो मैंने पंडित से पूँछा, “कहो पंडित केतना चढ़ाई..” तो इस पर भी उन्होंने हँसते हुए कहा था, “का बाबा इहौ कोनौउ कहई क बात है अरे जौन तोहार इच्छा होई..” हाँ यही बात उन्होंने अपने दक्षिणा के बारे में भी कही थी..
        
       इनमें एक गुण और था..वह था.. “विचार करना..!” जब ये हमारे घर होते तो किसी न किसी बुजुर्ग सदस्य के मुँह से मैं अकसर सुनता, “अरे पंडित आई अहैन उनसे विचरवाई ल्या..” खानदान या गाँव की बड़ी-बूढी महिलायें उनके पास कुछ “विचरवावई” के लिए आ जाया करती थी..स्वाभाविक भी है महिलायें बेचारी अपने घर-परिवार के कुशल-क्षेम के लिए पुरुष प्रजाति से कुछ अधिक ही चिन्तित रहती हैं...फलतः उनमें ज्यादातर भाग्योदय या भविष्य जानने की इच्छा होती थी या परिवार का बीमार सदस्य कब ठीक होगा या फिर कभी-कभी कोई गायब हुई बस्तु कहाँ होगी जैसे प्रश्न सम्मिलित होते थे...पंडित बड़े चाव से उन सबके प्रश्नों का समाधान करते जाते थे...हाँ जब कोई इनसे यह प्रश्न करता कि “का पंडित ई बतिया सही होई कि नाहीं..?” तो पंडित बोलते, “माना त देऊ नाहीं त पाथर..” यह कहते हुए लोगों की इच्छा के अनुरूप उन सब की शंकाओं का समाधान करते जाते...हाँ इनका यह जुमला “माना त देऊ नाहीं त पाथर” बीच-बीच में चलता रहता...एक दिन इसी तरह पंडित का अपना यह कार्यक्रम चल रहा था तो मेरे एक विनोदी स्वाभाव के पारिवारिक चाचा पंडित से बोले, “का..हो..पंडित जऊन रोगिया मन भावै उहई वईद बतावै वाला हाल फाने हया का..?” सुनते ही पंडित बड़े जोर से हँस पड़े और साथ में हम सभी हँस पड़े...फिर पंडित ने हँसते हुए ही कहा, “अरे भईया..! माना त देऊ नाहीं त पाथर..!” एक बार जब मैंने पंडित से ‘रोगिया’ और ‘वैद’ वाली बात पूँछी तो उन्होंने कहा, “का करी बाबा..जौउन इन सब का सुनई में अच्छा लागथअ उहई बताई देई थ...फिर ऊपर वाले क मर्जी...” एक बार मैंने भी इन्हें अपना हाथ दिखाने की कोशिश की तो ये हँसते हुए बोले, “का बाबा तुहऊँ...” फिर मैंने इनसे कहा “नाहीं पंडित तोहरे मुँह से सुनई में अच्छा लागथ..|”
       
       मैंने एक खास बात और देखी थी पंडित की..ये अपने इस “विचारई” की प्रक्रिया में कोई नुस्खा नहीं बताते थे...किसी को गुमराह भी नहीं करते थे...और न ही अन्धविश्वास को बढ़ाने वाली कोई बात ही करते..और मुझे कभी-कभी ऐसा लगता कि ये अपने इस ‘भविष्यवक्तृत्व’ के गुण से बस अपने संकोची स्वाभाव और लोगों की इच्छाओं का सम्मान करने के कारण ही जुड़ते थे...हाँ एक कमी इनमें बस यही थी कि ये सामने वाले को नाराज नहीं करना चाहते थे...!

       
       मेरे खानदान में एक कुलगुरु भी थे..उम्र के एक पड़ाव पर परिवार के वरिष्ठ लोग उनसे गुरुमंत्र लिया करते थे...एक बार मेरे मन में भी आया कि मैं किसे अपना गुरु मानूँ...क्योंकि मेरा मन उन्हें अपना गुरु स्वीकार नहीं करता था...! उनमें मुझे ‘गुरु’ होने का एक तरह का अहंकार दिखाई देता था... मुझे लगा यही अपने पंडित मेरे गुरु बन सकते हैं..! और कई वर्षों पूर्व मन ही मन मैंने इन्हें अपना गुरु मान भी लिया और बिना इन्हें बताए..! सोचा अगर इन्हें अपने मन की यह बात बताऊंगा तो ये बोल उठेंगे, “का बाबा तुहऊँ...!” और फिर “माना त देऊ नाहीं त पाथर” कहते हुए हँस पड़ेंगे...!

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

उस दिन....!

            उस दिन..! मैं शहर से गाँव जा रहा था..माँ को उनके घुटनों के आपरेशन के बाद गाँव छोड़ना था..कार की पिछली सीट पर पत्नी और अगली सीट पर इंटर प्रथम में पढ़ रहे पुत्र श्रेयांश के साथ मैं स्वयं कार ड्राइव कर रहा था...करीब आधे घंटे की ड्राइव फोर-लेन पर मैं कर चुका था...मेरे आगे-आगे एक ट्रक मेरे बाईं लेन पर चला जा रहा था...मेरी गति स्वाभाविक रूप से ट्रक से अधिक थी लगभग 80 किमी/घंटे.. मुझे उससे पास लेकर आगे बढ़ना था..मैंने सड़क के दाएँ लेन से यानि अपनी साइड से ट्रक से आगे निकलने का प्रयास किया..इस प्रयास में मैं ट्रक से कुछ ही मीटर की दूरी पर था कि अकस्मात् ट्रक ड्राइवर ने अपने ट्रक को दाएँ लेन की ओर यानि मेरे लेन पर मोड़ दिया...टक्कर की आशंका से मैं भयभीत हुआ लेकिन बिना समय गँवाए मेरे पैर ने ब्रेक को दबा दिया सड़क पर कार के पहियों के घिसटने की तेज आवाज हुई..मेरी कार कुछ मीटर घिसटने के बाद ट्रक से कुछ ही इंच की दूरी पर रुक गयी मैं ट्रक ड्राइवर से कोई प्रतिक्रिया करता तब तक ट्रक सड़क के डिवाइडर के कट से दूसरी ओर निकल चुकी थी..ट्रक-ड्राइवर के प्रति मन में गुस्सा था..लेकिन मैं भी समय बरबाद न करने की गरज से कार को आगे बढ़ा दिया..पुत्र श्रेयांश ने मुझसे कहा कि गाड़ी रोककर ट्रक ड्राइवर से उसकी गलती के लिए उसे डाट खिलानी चाहिए थी..खैर मैं कुछ बोला नहीं..फिर श्रेयांश बोले “मैंने तो सोच लिया था कि कम से कम कार में डेंट तो पड़ ही जाएगा...” मैं कुछ बोलता तब तक श्रीमती जी मेरी आलोचना करते हुए बोल उठी, “अरे..ये ऐसे ही चलाते हैं...” इस पर मेरे सुपुत्र जी ने कहा, “नहीं इसमें पापा की गलती नहीं है...” अब मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी, “वैसे भाई जब मैं गाड़ी चलता हूँ तो अपनी गति के तुलनात्मक इस बात का ध्यान रखता हूँ कि यदि कोई आकस्मात सामने आ जाए तो अपनी गाड़ी को नियंत्रित कर सकूँ..” अब मेरी माँ बोली “कम से कम ड्राइवर को डाँटना चाहिए था...” मैं भी यही सोचने लगा |
         अब मैं लगभग पंद्रह मिनट की ड्राइविंग और कर चुका था सब कुछ सामान्य था पिछली घटना का कोई तनाव नहीं था...एक पुल से मैं गुजर रहा था..पुल को पार करते समय मेरी निगाह हाईवे के विपरीत ओर सड़क निर्माण संबंधी किसी हलचल पर पड़ी मैं उस ओर देखने लगा जैसे मैं भूल गया कि मैं गाड़ी चला रहा था आकस्मात श्रेयांश की आवाज मेरे कानों में पड़ी, “अरे..अरे..हाँ..हाँ..” मेरी तन्द्रा भंग हुई..सामने देखा...! अरे बाप रे...! ठीक सामने एक इनोवा कार मेरी ओर बढ़ी आ रही थी..दिन में ही उसकी जलती हेड लाइटें आँखों को चौंधिया रही थी ! एक दम सीधी टक्कर की संभावना से मैं सिहर सा गया.. प्रत्युत्पन्नमति वश स्टेयरिंग एक ओर घूम गई पलक झपकते इनोवा मेरे बगल से निकल चुकी थी...! आगे मेरी नजर डाइवर्जन पर पड़ी...गाड़ियों को पुल पर चल रहे कार्य की वजह से विपरीत लेन से निकाला जा रहा था इसी क्रम में वह इनोवा भी मेरे सामने से आ रही थी...मेरे पुत्र ने कहा, “आखें बंद कर गाड़ी क्यों चला रहे हो मैं टक्कर को अवश्यम्भावी समझ तनाव में आ गया..” मैंने अपने पुत्र की ओर देखा..कुछ बोल नहीं पाया...बस इतना ही बोला, “हाँ मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई थी...” बेटे ने कहा, “इस बार आपकी पूरी गलती थी...भले ही इनोवा हमारे लेन पर थी लेकिन यह डाइवर्जन के कारण था उसका कोई दोष नहीं माना जाता..” मैंने सहमति से सिर हिलाई..तभी माँ बोल पड़ी, “अरे..तू अईसे हईयाई हया एक ड्राइवर तो राखि नाहीं सकता..” मैं कुछ नहीं बोला अपनी गलतियों पर ही मनन करता रहा...
       कुछ देर मौन ही गाड़ी चलता रहा...मैंने बेटे से कहा, “ईश्वर ने हम लोगों को बचा दिया...” वह इतना बोला “आँख खोल कर चलाया करिए..” मैंने कहा “इस तरह की यह पहली गलती थी..शायद ईश्वर ने इसी कारण बचा दिया...” मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया...! एक बात है...कोई ईश्वर को माने या न माने यह एक निजी व्यक्तिगत मामला हो सकता है लेकिन एक नैतिक सत्ता अवश्य है जिससे यह सारा ब्रह्माण्ड परिचालित है..वह “ऋत” नामक नैतिक सत्ता इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसे परिचालित करती है..कहने का आशय यह भी हैं कि यदि हम दुर्घटनाग्रस्त हुए होते तो ईश्वर या ऋत नामक सत्ता न होती ऐसा नहीं....वह तब भी होती...क्योंकि मैंने अपने बेटे से कहा कि हम यदि बार-बार ऐसी गलती करेंगे तो नहीं बच पाएँगे..खैर जो भी हो...!
     
       कुछ देर और कार-ड्राइव करने के बाद मैंने कार को ग्रामीण इलाके में सड़क के किनारे की एक साफ़-सुथरी चाय की दुकान पर रोकी चायवाले को बढ़िया चाय बनाने के लिए कह दिया और उसकी चाय बनने का इन्तजार करने लगा...मैंने देखा उसी समय तीन-चार लोग किसी गाड़ी से उतरकर चायवाले की दुकान पर आये चायवाले के यहाँ का लड़का तीन-चार कुर्सियाँ खींच कर उन लोगों के लिए लगा दिया वे सभी उस पर बैठ चुके थे...इस बीच दो-चार लोग और उनको घेर कर खड़े हो चुके थे...हम लोग कार पर अपनी-अपनी सीटों पर बैठे हुए ही चाय का इन्तजार कर रहे थे...तभी मेरा ध्यान उन नेता टाइप व्यक्ति के साथ आये एक लड़के पर पड़ी...सत्रह-अट्ठारह साल का वह लड़का हाथ में एक गन नुमा बंदूक लिए हुए था...मैंने उसकी उम्र और उसके हाथ के गन पर गौर किया...मैंने बेटे श्रेयांश से कहा, “इसको देखो..” उसकी ओर देखते हुए बेटे ने हँसते हुए कहा, “अरे इसमें कौन सी नई बात है आजकल यह ट्रेंड आम हैं...ऐसे लोग सत्रह-अट्ठारह वर्ष के लड़कों के हाथ में गन देकर उसे आपने साथ ले चलते हैं...और स्वयं सफ़ेद शर्ट और पायजामें में नेता जैसे दिखाई देने का प्रयास करते है..हाँ इस तरह के लोग चेहरे से अनपढ़ जैसे लगते है...ये लोग पुराने हो चुके स्कोर्पियो या फिर टाटा सफारी जैसे वाहन से चलते है...उस पर किसी पार्टी का झंडा भी लगा होता है..इस तरह ये लोग भौकाल मारते है...” सुनकर मैंने पीछे मुड़कर उनकी गाड़ी को देखा वास्तव में वह एक पुरानी स्कार्पियो थी...और किसी पार्टी का उस पर झंडा भी लगा था..बेटे के इस ज्ञान पर मैं मुस्कुराने लगा...
      ...फिर मैंने बेटे से उसके गन के बारे में चर्चा शुरू कर दी..मैंने पूँछा, “यह गन कैसी है...” बेटे ने कहा, “ऐसी गनें सत्रहवीं-अट्ठारवीं शताब्दी में अमेरिका में प्रचलित थी..वहाँ के लोग ऐसी गन से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते थे...” मुझे बेटे से हो रही इस वार्ता में आनंद आ रहा था...मैंने पूँछा, “पता नहीं यह लड़का इसे चला पायेगा या नहीं..” बेटे ने कहा “यह केवल भौकाल के लिए है इस गन को लोड करने में ही इसे एक घंटे लग जायेंगे...और इसका चलना भी मुश्किल होगा..शायद चल ही न पाए..” मैं समझ गया सुपुत्र महोदय के ज्ञान का श्रोत हिस्ट्री चैनल, डिस्कवरी चैनल और उनका कम्प्यूटर गेम के प्रति रुझान था...हालाँकि नेताओं के ट्रेंड के बारे में बेटे का अनुभव मुझे मौलिक लगा...खैर अब तक हम लोग चाय पी चुके थे...जैसे ही मैंने गाड़ी स्टार्ट किया बेटे ने कहा, “आँखे खोल कर गाड़ी चलाइयेगा...” मैंने उनकी ओर देखा और बोला “वहाँ भी ट्रक से पास लेते समय भले ही वह अपनी लेन में उस समय था और मैं अपनी लेन में..! फिर भी मुझे हार्न बजाना चाहिए था...” यह सोचकर मौन हो गया कि अब ऐसी गलती नहीं होने दूँगा...
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मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

क्रिकेट की वह गेंद.....!

          क्रिकेट की वह गेंद...! हाँ उस गेंद की याद फिर ताजा हो आई...धीरे-धीरे कर उस घटना के लगभग तीस वर्ष होने को आ गए हैं...अकसर शाम चार बजे अपने बाग के मैदान में क्रिकेट खेलने निकल जाते थे...खिलाड़ियों में हम-उम्र पारिवारिक बच्चों के साथ गाँव के ही अन्य बच्चे हुआ करते थे...ऐसे ही एक दिन हम खेल रहे थे...मेरे ही हम-उम्र के थे...वे पारिवारिक संबंधों में मेरे चाचा लगते थे..सुरेश..! ...लेकिन हममे संबंध उतना महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि मित्रता उससे भी बढ़कर थी...वही क्रिकेट का बल्ला ले बल्लेबाजी कर रहे थे...संयोग से गेंदबाजी भी चचेरा खानदानी भाई कर रहा था...मैं उस समय फील्डिंग कर रहा था...और बल्लेबाज के एकदम करीब गली में था...मुझे याद हैं...गेंदबाज की गेंदें स्टंप से दूर इधर-उधर पड़ रही थी और सुरेश ठीक से खेल नहीं पा रहे थे...आचानक...गेंदबाज से चिढकर बोले थे... “यार तोहका गेंदबाजी क सहूर नहीं है...ई मार्शलवा को देदो गेंद..थोड़ा खेलई में तो मजा आये...” चूँकि मैं थोड़ी तेज गेंदबाजी करता था इसीलिए क्रिकेट खेलते समय वह मुझे ‘मार्शल’ (समकालीन वेस्टइंडीज का तेज गेंदबाज) की उपाधि दे देते...यह सुनते ही मैंने गेंदबाजी कर रहे उस चचेरे भाई से कहा “यार थोड़ी सटीक गेंद डाल..मिडिल स्टंप उड़ा दे...बड़ा गावस्कर बन रहे हैं...”
        मेरे इतना कहते ही वह अगली गेंद फेंकने के लिए लम्बी दौड़ लगाते हुए गेंद फेंकी...हाँ वह गेंद काफी तेज थी...हवा में उड़ती हुई सी आई...सुरेश ने उससे बचने का प्रयास किया और थोड़ा घूम गए...वह गेंद सीधे पिछले गर्दन से ऊपर और सिर के निचले भाग में जा कर लगी...वह सीधे सिर के पीछे हाथ ले जाकर बल्ला छोड़ वहीँ बैठ गए...हम लोग दौड़ कर उनके पास पहुँचे...उनके आँखों में आँसू आ गए थे...कुछ मिनट वह ऐसे ही बैठे रहे हम बारी-बारी से चोट लगे स्थान को मलते जा रहे थे..कुछ मिनटों के बाद वह सामान्य हुए..हम लोग खेल बंद कर घर वापस लौट आये...
       हाँ करीब साल भर बीता होगा उनके सिर में हलका-हलका दर्द होने लगा था...कभी-कभी वह सिर दर्द की दवा ले लेते तो दर्द से राहत मिलती..लेकिन दवा का असर समाप्त होने के बाद दर्द पुनः प्रारंभ हो जाता...यह क्रम कुछ महीनों तक चलता रहा...फिर सुबह-सुबह उन्हें उल्टियों की शिकायत होने लगी...लेकिन कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था...सिर में लगी चोट की बात तो लगभग हम भूल चुके थे...धीरे-धीरे कर उनके एक आँख की रोशनी कम हो रही थी...कस्बे के डॉक्टर ने आँखों की जाँच कराने की सलाह दी...उन दिनों मैं इलहाबाद में रह कर अपनी पढ़ाई कर रहा था...एक दिन सुरेश चाचा मेरे कमरे पर आये...उन्होंने बताया था की डॉक्टर ने आँखों की जाँच कराने के लिए बोला है...उसी दिन मैं उन्हें अपनी साइकिल से स्वरुपरानी जिला चिकित्सालय ले गया...डॉक्टर ने उनकी आँखों में दवा डाली फिर तीन घंटे इन्तजार के बाद आँखों की जाँच के बाद चश्मा लगाने की सलाह दी...सुरेश चाचा फिर गाँव लौट गए थे...लेकिन उनकी बिमारी गंभीर होती जा रही थी...एक दिन मैं गाँव गया मैंने उन्हें एक अच्छे डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी...लेकिन वे बहुत ही संकोची स्वाभाव के थे किसी से भी कुछ कहना नहीं चाहते थे...मुझसे उनके सिर के दर्द को देखा नहीं जाता...मैं फिर इलाहबाद लौट आया था...
      एक दिन दोपहर बाद पिता जी मेरे पास आये...मुझे कुछ आशंका सी हुई मैंने उनसे सुरेश के बारे में पूँछा उन्होंने धीरे से बस इतना ही कहा सुरेश अब नही रहे...मैं सुनकर आवक रहा...यह मेरे लिए एक अविश्वसनीय और अकल्पनीय घटना थी....सुरेश साथ छोड़ देंगे यह कभी हमने सोचा ही नहीं था...लेकिन अब सच्चाई यही थी...बाद में पिता जी ने बताया कि ब्रेन स्कैनिंग में पता चला था कि उनके सिर के पिछले हिस्से में एक गाँठ थी...जो शायद चोट के कारण ही थी..उसके आपरेशन के लिए उस दिन उन्हें बंबई ले जाया जा रहा था..वह स्वयं तैयार हो रहे थे..लेकिन उसी समय वह गाँठ सिर के अंदर ही फूट गई थी....जो उनकी मौत का कारण बनी...

       यह एक ऐसी घटना थी जो मुझे आज-तक सालती रहती है...फिलिप ह्यूज की घटना ने सुरेश की याद को पुनः तजा कर दी...ये लोग एक ऐसी भावना के साथ प्राण त्याग किये हैं जहाँ जीतने वाला भी आनंदित होता है तो हारने वाला भी आनंदित होता हैं...क्योंकि खेल का मजा दोनों को ही मिलता है...तभी तो हार के डर से कोई खेलना नहीं छोड़ता...! खेल भावना सबसे बड़ीं सामजिक भावना है..ऐसी सामाजिकता ही इन लोगों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी...!