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रविवार, 26 जुलाई 2020

तभी सौ साल जीने की सार्थकता है

 'जीवेम शरदः शतम्' अथर्ववेद का यह मंत्र ईश्वर से सुखायु एवं दीर्घायु कामना करने का मंत्र है। इस मंत्र में आठ सूक्त है -

प्रथम सूक्त - 'पश्येम शरदः शतम्' अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इंद्रिय स्वस्थ रहे।

द्वितीय सूक्त - 'जीवेम शरदः शतम्' अर्थात हम सौ वर्ष तक जीयें।

तृतीय सूक्त - 'बुध्येम शरदः शतम्' अर्थात् हम मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे।

चतुर्थ सूक्त - 'रोहेम शरदः शतम्' अर्थात् हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे ।

पाँचवाँ सूक्त - 'पूषेम शरदः शतम्' अर्थात् हमें सौ वर्षों तक अच्छा भोजन मिलता रहे।

छठा सूक्त - 'भवेम शरदः शतम्' अर्थात् हम सौ वर्षों तक बने रहे।

सातवाँ सूक्त -'भूयेम शरदः शतम' अर्थात् हम सौ वर्षों तक पवित्र बनें रहे।

आठवाँ सूक्त - 'भूयसी शरदः शतम्' अर्थात् सौ वर्षों के बाद भी हम ऐसे ही बने रहें।

       इन आठों सूक्तों में मानव के सम्पूर्ण शरीरिक तथा मानसिक स्वस्थ्य सहित उसके दीर्घायु होने की कामना व्यक्त की गई है।

         लेकिन आज इक्कीसवीं सदी में मानव जीवन का नियमन करने वाले ढेर सारे कारक उत्पन्न हो चुके हैं, तो दूसरी ओर इस 'जीवन को गतिमान रखने वाले अनेक उद्देश्य हैं।' विज्ञान में आई प्रगति के बीच भोगवाद जीवन को तहस-नहस करता जा रहा है और मनुष्य अपनी मनोवृत्तियों की पहचान कर पाने में अक्षम हो रहा है। इस भोगवादी वृत्ति में जीवन का सारा गणित उलझकर रह गया है। परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता के प्रति अपनी भूमिका में संतुलन स्थापित करने में व्यक्ति चूक रहा है। जीवन में पवित्रता के मायने भी बदल गए हैं तथा दूसरों के पराभव की कामना में उसे संतोष मिलता है और इसमें ही वह अपनी बुद्धि की सफलता मानने लगा है।  

        मनुष्य के लिए सौ वर्ष जीना ही महत्वपूर्ण नहीं है, जीवन में संतुलन होना भी जरूरी है। 'ययाति' जैसे पौराणिक चरित्र के माध्यम से इस नाम के उपन्यास में उपन्यासकार ने जीवन में संतुलन की आवश्यकता बताई है। उपन्यासकार के अनुसार, "परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता और विश्व के केंन्द्र में स्थित परमशक्ति के साथ अपनी प्रतिबद्धता को जो जानता है और मानता है वही भोगवाद के युग में भी जीवन का संतुलन बनाए रख सकेगा।"

        यह जीवन संसार का सबसे बड़ा मीठा फल है। लेकिन ययाति के शब्दों में ‘‘इस संसार में मीठे फलों को ही कीड़ा लगने का खतरा अधिक रहता है।’’ और "जीवन भी इसी तरह का है। सुन्दर है मधुर भी है किन्तु पता नहीं कब और कहाँ से उसमें कीड़ा लग जाता है।’’ इसे जानते रहने के लिए ही दीर्घायु मंत्र में 'बुध्येम शरदः शतम्' अर्थात् सौ वर्षों तक मानसिक स्वास्थ्य की अभिलाषा की गई है। हमारा मानसिक स्वास्थ्य हमें जीवन को समझने की शक्ति देता है। 'ययाति' में आया यह कथन कि "हर आदमी ज़िन्दगी के अन्तिम मोड़ पर कुछ सयाना अवश्य हो जाया करता है, लेकिन यह समझदारी दूसरों की ठोकरों से नहीं, बल्कि उसके अपने ज़ख्मों से आया करती है" जीवनपर्यंत सीखने के महत्व को रेखांकित करता है। क्या है कि जीवन सीखने या चेतना के उन्नयन की प्रकृया है और इस प्रकृया का थम जाना ही मृत्यु है, क्योंकि इससे जीवन जैसे मीठे फल में लगे कीड़े को जानने की शक्ति समाप्त हो जाती है। 

        ययाति अपने अमात्य से जब यह शिक्षा ग्रहण करता है कि "यह दुनिया आदमी के मन की दया पर नहीं, बल्कि उसकी कलाई की ताकत पर चला करती है। आदमी केवल प्रेम पर जीवित नहीं रह सकता। वह दूसरों का पराभव करके ही जिया करता है। आदमी की इस दुनिया में चल रही सारी दौड़-धूप केवल भोग के लिए होती है। त्याग की बातें मंदिर, पुराण और कीर्तन में ही ठीक लगती हैं, लेकिन जीवन कोई मंदिर नहीं, वह एक समरभूमि है" तो वह यह भी स्वीकार करता है कि "क्रूरता और शूरता जुड़वा बहिनें हैं।" देखा जाए तो व्यक्ति के वैभव के पीछे यदि उसकी शूरता है तो यहीं पर उसकी क्रूरता भी सिद्ध होती है। ययाति के शब्दों में "जितना वैभव अधिक, उतना ही आत्मा का पतन भी अधिक होता है" वैभव शरीर की पूजा करवाती है। फिर तो, "शरीर के पुजारियों की आत्मा चेतना-विहीन हो जाती है।" ऐसी स्थिति में व्यक्ति उपभोग की ओर प्रवृत्त होकर भोक्ता बन बैठता है और वासनाओं का गुलाम हो जाता है। उसकी वासनाएँ उसकी मनोवृत्तियों को मनोविकार में बदल देती है और फिर व्यक्ति पाषाणवत् यंत्रचालित जैसा हो जाता है । 

         'ययाति' के शब्दों में, हम अपनी वासनाओं के वशीभूत "आठों पहर आत्मपूजा में ही लीन रहते हैं दिन-रात अपनी ही दृष्टि से दुनियां को देखा करते हैं, यही नहीं, बल्कि अपने से परे किसी दुनियां का अस्तित्व मानने से भी इनकार करते हैं उनकी समझ में यह बात शायद कभी आती ही नहीं है! यह तो एक ऐसी हकीकत है जैसा बहरा व्यक्ति संगीत का आनंद नहीं ले सकता और अंधा प्रकृति की सुन्दरता पर मोहित नहीं हो सकता। अत्मपूजन में लगे व्यक्ति भी मन से अंधे और अंतःकरण से बहरे हो जाते हैं" और "अनजाने मनुष्य किस तरह अपने ही चारों ओर चक्कर काटता रहता है। कई गांवों को अपनी चपेट में ले लेने वाली दूर की बाढ़ की अपेक्षा उसे अपनी आँखों के आँसुओं का महत्त्व अधिक प्रतीत होता है!" तात्पर्य यह कि ऐसा आत्मकेंन्द्रित व्यक्ति दूसरों की या समाज के कष्टों, समस्याओं को नहीं समझ पाता और जाने अनजाने में स्वयं का भी दुश्मन बन बैठता है। इस संबंध में 'ययाति' में शर्मिष्ठा भी यही सोचती है कि "मनुष्य का सच्चा बैरी भाग्य नहीं, स्वयं मनुष्य ही है।"  

        आत्मपूजन में लगे व्यक्ति की भावनाएँ निरपेक्ष नहीं रह जाती, इससे उसके जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है तथा आत्मा और शरीर के बीच का संतुलन नष्ट हो जाता है। यह आत्मप्रेम है जो देह के आकर्षण से उत्पन्न होता है। 'ययाति' भी इसके आकर्षण से विद्ध सोच रहा है,  "देह नहीं तो मधुर संगीत नहीं, देह नहीं तो सुंदर चंद्रोदय नहीं। देह नहीं तो स्वादिष्ट व्यंजन-पकवान नहीं, देह नहीं तो खुशबूदार फूल नहीं, देह नहीं तो प्यारभरा स्पर्श नहीं!" और,

       "सच तो यही है कि इस संसार में हर कोई केवल अपने लिए ही जिया करता है। मनुष्य सुख के लिए अपने निकट के लोगों का सहारा ठीक उसी तरह खोजते हैं जैसे वृक्षलताओं की जड़ें पास की आर्द्रता की ओर मुड़ जाती हैं। इसी झुकाव को दुनिया कभी प्रेम कहती है कभी प्रीति, तो कभी मैत्री। लेकिन वास्तव में वह होता है आत्मप्रेम ही। एक तरफ की आर्द्रता नष्ट होते ही पेड़-पौधे सूख नहीं जाते हैं उनकी जड़ें किसी और आर्द्रता की खोज में दूसरी ओर मुड़ जाती हैं–वह आर्द्रता नज़दीक हो या दूर–और उसे खोजकर वे फिर से लहलहाने लगते है।" दरअसल 'केवल अपने लिए ही जीना' व्यक्ति की उसकी अपनी वासनाओं के कारण है और इन वासनाओं की प्रवृत्ति क्या होती है, 'ययाति' इस संबंध में विचार करता है कि  "क्या हर वासना शेर जैसी होती है? उसे एक बार जिस उपभोग का चसका लग जाए, उसी के पीछे वह पागल की तरह भागती है! शायद वासना के केवल जीभ ही होती है! भगवान ने उसे कान, आँखें, मन, हृदय कुछ नहीं दिया है। उसे अन्य किसी बात की पहचान होती ही नहीं है। वह पहचानती है केवल अपने सन्तोष को!" आशय यही है वासनाएँ व्यक्ति को विवेकशून्य बना देती हैं और ऐसे व्यक्ति के लिए "प्रीति, वात्सल्य, ममता कुछ भी सच नहीं।" वह इनके प्रयोग से अपना एक नकली चेहरा ही गढ़ता है। इस चेहरे के साथ "मानव केवल अपने सुख के लिए जीता है। केवल अपने अहंकार की तृप्तता के लिए जीता है।"

    उपन्यास में शाप से ययाति का असमय ही बूढ़ा हो जाना वासनाओं के अनियंत्रित उपभोग के कारण है, वासनाएँ व्यक्ति की मनःस्थिति को विकृत कर देती हैं और उसकी आत्मपूजा की प्रवृत्ति उसे दूर से आती बाढ़ नहीं देखने देती, उसे केवल अपने ही आँसुओं में उलझाकर रख देती है।

      तो फिर! मनुष्य का जीवन कैसा हो ? क्या वह वैरागी बनकर जीवन जिये? आखिर यह तो सच ही है कि "आसक्ति ही आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है' और चाहे यह विलासिता के रूप में हो या शक्ति के, ये दोनों जगत को सुखी बनाने में असमर्थ हैं। अकसर 'विरक्ति' के पीछे शक्ति प्राप्त करने की भावना होती है या फिर विरक्ति में भी अतृप्त वासनाएँ मन को बेचैन किए रहती हैं। 'ययाति' भी कुछ ऐसा ही सोचता है, "हरी दूब में सांप भी दबे-छिपे रहते हैं। विरक्ति की ओट में उसी प्रकार आसक्ति भी...’’ यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है, 'विरक्ति' के भाव में व्यक्ति अपने मन में स्वयं को ऊँचा उठा हुआ मान लेने का भ्रम पाल लेता है, और तब 'ययाति' के शब्दों में, "वे रहे महान ॠषि ! सामान्य लोगों के, सामान्य दुःखों को भला वे कैसे देख पाते?" दरअसल ययाति ने अपने बड़े भाई यति के बचपन में ही संन्यासी बन जाने से उपजे अपनी माँ के दुःखों को देखा है और शायद इसीलिए वह एक जगह कहता है, "जिस दिन से मालूम हुआ कि यति ने माँ को कितना दुख पहुँचाया है, आश्रम-जीवन के प्रति मेरे मन में अनजाने ही एक घृणा पैदा हो गई थी।" इन बातों से यह भी स्पष्ट है कि मनुष्य का जीवन केवल उसके अपने लिए ही नहीं होता, उसे परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता के लिए भी जीना पड़ता है।

         तो जीवन रूपी इस मीठे फल में कीड़ा न लगे, इसलिए मानव को पहले अपना मन जीतना चाहिए। लेकिन "मन को जीतना जग को जीतने जैसा आसान नहीं..!" इसके लिए 'ययाति' इस रूपक को याद करता है, ‘मानव जीवन में आत्मा रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी और मन लगाम है। विविध इंद्रियाँ घोड़े हैं। उपभोग के सभी विषय उसके रास्ते हैं और इंद्रियाँ और मन से युक्त आत्मा उसका भोक्ता है।' और "इसलिए मनुष्य की आत्मा हमेशा जाग्रत रहनी चाहिए! नशे में धुत् सारथी के हाथों से लगाम छूट जाती है, घोड़े बेकाबू होकर मनमानी दिशा में भाग खड़े होते हैं, रथ गहरी खाई में गिरकर चकनाचूर हो जाता है और उसमें बैठा धनुर्धर व्यर्थ प्राणों से हाथ धो बैठता है।’’

          आत्मा की जाग्रत अवस्था पाप और पुण्य के खेल से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि आज "परलोक या परमात्मा के बारे में परंपरा से चली आई श्रद्धा, विज्ञान के चौंधिया देने वाले प्रकाश में विचरने वाले समाज का नियमन करने में असमर्थ हो रही है।" 'ययाति' भी कुछ इसी बात की ओर संकेत करता है, "पाप और पुण्य तो धूर्त पंडितों और मूर्ख मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई कल्पनाएं हैं। इस दुनिया में केवल सुख या दुख ही सत्य है, बाकी सब माया है। पाप और पुण्य मन के मात्र आभास हैं कल्पना के खेल हैं।" दरअसल आत्मा की जाग्रत अवस्था चीजों को सही परिपेक्ष्य में देखने की दृष्टि प्रदान करती है और बिना इसके पाप और पूण्य की सारी अवधारणाएँ व्यर्थ है।

        आत्मा की जाग्रत अवस्था में मनुष्य के भाव निरपेक्ष होते चले जाते हैं, 'ययाति' में कच के शब्दों में, "प्रेम मनुष्य को अपने से परे देखने की शक्ति देता है। प्रेम किसी से भी हो गया हो, मनुष्य से अथवा वस्तु से; किन्तु वह प्रेम सच्चा होना चाहिए। अन्तःकरण की तह से उठता हुआ आना चाहिए! वह स्वार्थी, लोभी या धोखेबाज़ नहीं होना चाहिए। राजकन्ये, सच्चा प्रेम हमेशा निःस्वार्थी होता है, निरपेक्ष होता है। फिर वह फूल से किया गया हो या किसी जीव से। प्रकृति की सुन्दरता से हो या माता-पिता से। प्रीतम या प्रेयसी से किया हो अथवा वंश, जाति या राष्ट से! निःस्वार्थ, निरपेक्ष, निरहंकार प्रेम ही मनुष्य की आत्मा के विकास की पहली सीढ़ी होती है।'' मनुष्य प्रेम के इस मनोभाव के साथ अपनी आसक्तियों पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि इसी के साथ व्यक्ति का कर्तव्यबोध भी जाग्रत हो उठता है। तभी तो 'ययाति' में कच से कहलवाया गया है, 'प्रेम जीवन की एक उच्च भावना है। किन्तु कर्तव्य उससे भी श्रेष्ठ भावना है!' और कर्तव्य-भावना से रहित प्रेम को ढकोसला मानता है, "प्रेम चाहे माँ-बाप का हो या पति-पत्नी का, सब ढकोसला ही होता है। केवल नाटक होता है! अपने अन्तरतम में मानव केवल अपने से प्यार करता है, अपने शरीर से, अपने सुखों से और अपने अहंकार से प्यार करता है।" 

         यहाँ एक विशेष बात भी है कलाकार कौन होता है? कर्तव्यपथ पर चलने वाला व्यक्ति या अपनी भावनाओं, मानसिक आवेगों में डूबा रहने वाला व्यक्ति?  'ययाति' भी इस पर विचार करता है, "क्या मनुष्य के भीतर का कलाकार उससे सर्वथा भिन्न होता है?" 'ययाति' में यह जिज्ञासा इसलिए उठायी गई है कि व्यावहारिक जीवन में दूसरों को पराभूत करने की मानसिकता लिए व्यक्ति छल-छद्म का सहारा लेते हुए मानव मन की पवित्र भावनाओं का दुरुपयोग करता हुआ दिखाई पड़ता है, लेकिन उसी व्यक्ति के हाथ में जब तूलिका आ जाती है, तो उसका कलाकार मन संसार को निरपेक्ष ढंग से देखने लगता है! दरअसल यह कर्तव्यबोध की ही अवस्था है, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग व्यक्ति ही कलाकार भी हो सकता है, क्योंकि कर्तव्य पथ पर चलने वाला इंसान कुछ अधिक ही संवेदनशील भी होता है। एक कलाकार का मन सबसे अधिक प्राकृतिक होता है, शायद इसी को लक्षित कर 'ययाति' सोचता है, "निसर्ग और मानव का नाता अनादि अनंत है। ये दोनाें मानो जुड़वाँ भाई हैं। इसीलिए निसर्ग के सान्निध्य में जीवन अपनी सारी सच्चाइयाँ लेकर हमारे सामने प्रकट हो जाता है।" और "मानव निसर्ग से दूर हो जाता है तो उसका जीवन एकांगी होने लगता है। उस कृत्रिम और एकांगी जीवन में उसकी कल्पनाएं, भावनाएं, वासनाएं सब अवास्तविक और विकृत बन जाती हैं।" निसर्ग मानव को सहज बनाती है और वह अपने दुखों के प्रति भी संवेदनशील हो जाता है, तभी तो ययाति के मन में यह प्रश्न उठता है, "क्या कलाकार के दुःख से ही उसकी कला अधिक सजीव, अधिक सुंदर और अधिक रसीली बन जाती है?"

       इसीलिए हमें प्रकृति से सीख लेनी चाहिए कि कैसे झंझावातों के बीच प्रकृति निरपेक्ष भाव से अपना काम करती रहती है! 'ययाति' को अन्तत: इसका ज्ञान होता है, "प्रेम करना सीखना चाहते हो न? तो नदी को गुरु करो। वृक्ष को गुरु करो। माता को गुरु कर लो।’’ और वह अपनी वासनाओं से मुक्त होता है तथा मन पर विजय प्राप्त करने की बात कहता है, "मानव समाज को सुखी बनाना हो तो मानव को अपने मन पर विजय प्राप्त करनी होगी।’’ अंत में 'ययाति' को समझ आती है-

         ‘सुख में, दुःख में, हमेशा एक बात गांठ बाँध लो। काम और धर्म महान पुरुषार्थ हैं। बहुत ही प्ररेक पुरुषार्थ हैं। जीवन के लिए अतीव पोषक पुरुषार्थ हैं। किन्तु ये पुरुषार्थ स्वच्छन्दता से भाग जाते हैं। ये पुरुषार्थ कब अंधे हो जाएंगे, कोई भरोसा नहीं! उनकी लगाम हमेशा धर्म के हाथ रहने दो... 

   न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति 

    हविषा कृष्णवर्त्मेंव भूय एवाभिवर्धते।’’

          तभी सौ साल जीने की सार्थकता है।