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मंगलवार, 23 अगस्त 2016

ये खिस्स से हँस कर चल देने वाले लोग

             उस दिन रेलवे-क्रासिंग बन्द मिली। क्रासिंग खुलने के इन्तजार में मैंने भी कई गाड़ियों के पीछे कार रोक दी क्योंकि न तो हवा में उड़कर जा सकता था और न ही अपनी आजादी को खतरे में डाल क्रासिंग पार कर सकता था। यहाँ कहने का यह मतलब नहीं कि बन्द क्रासिंग पर रुक कर मैंने क्रासिंग के ऊपर कोई एहसान किया हो, बल्कि इस बन्द क्रासिंग ने मुझे रोककर किसी खतरे से बचाने के लिए इसने मुझ पर ही एहसान किया.! बेचारी यह बन्द क्रासिंग मेरी आजादी को मेरे लिए ही सुरक्षित रखना चाह रही थी। एक बात है, और वह यह कि अगर कहीं किसी रास्ते पर रेलवे टाइप क्रासिंग बन्द मिले तो इसका यह मतलब नहीं कि आपकी आजादी पर कोई ब्रेक लगा है, इससे तो आपकी और रेलवे दोनों की आजादी सुरक्षित रहती है! खैर...
        
               मुझे रुकते देख एक पाँच-छह साल का उलझे, भूरे बालों वाला लड़का हमारी ओर आता दिखाई दिया। वह थोड़ी दाग-धब्बे वाली मैली सी नीली शर्ट पहने हुए था। शायद यह शर्ट सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के स्कूल-ड्रेस जैसी ही थी, हो सकता है किसी सरकारी स्कूल में पढ़ता भी हो। जैसे ही कार के पास आकर उसने कार के बन्द खिड़की के शीशे पर ठक-ठक किया मैंने शीशा नीचे सरका दिया, कुछ बोलता उसके पहले ही वह मेरी ओर हाथ बढ़ा कर बोल पड़ा था, "बाबू जी...!" एकटक सी मेरी नजर उसके चेहरे पर जम गई, जैसे मैं उसका चेहरा पढ़ रहा होऊँ। मैंने समझा वह मुझसे अपनी कोई आजादी माँग रहा है, फिर मैं कौन होता हूँ इसे आजादी देनेवाला..! यही सोचकर मैंने उससे पूँछा, "तुम्हारे माँ-बाप हैं?" नहीं के अंदाज में सिर हिलाते हुए बोला, "नहीं"। मैंने फिर पूँछा, "तो, तुम किसके साथ रहते हो?" "भाई के साथ" लड़के ने कहा और बताया कि भाई उससे बड़ा है। "अच्छा! तुम भीख क्यों माँग रहे हो?" मैंने पूँछा। इसके जवाब में उस लड़के ने कहा कि वह टाफी खाने के लिए भीख माँग रहा है! मैं थोड़ा चौंका और उससे फिर उसके माँ-बाप के बारे में पूँछा लेकिन उसने अपना वही पहले वाला उत्तर दुहराया।
           
              उत्तर से असंतुष्ट मैंने उससे पूँछा," आखिर तुम यहाँ कैसे आए! तुम्हें कौन पकड़ कर लाया?" वह मेरी ओर देखने लगा था। मैंने उससे अपना प्रश्न पुनः दुहराया, "हाँ..हाँ, बताओ तुम्हें यहाँ कौन पकड़ कर लाया है।"  इस बार उसने मेरे प्रश्न "कौन पकड़ कर लाया" को जैसे पकड़ लिया और खिस्स से हँस दिया फिर बिना कोई उत्तर दिए हँसते हुए ही दूसरी कार की ओर भाग गया। उस लड़के की इस प्रतिक्रिया पर मैं मन ही मन हँस पड़ा। हालाँकि वह भागा न होता तो उसे टाफी खाने के पैसे अवश्य देता। खैर, मैंने उसके साथ नत्थी उसकी आजादी को भी उसी के साथ जाते देखा।
           
              इसके बाद मैंने देखा, मेरे पीछे आनेवाली कुछ कारें विपरीत दिशा से आनेवाले वाहनों के लेन में क्रासिंग के पास जाकर खड़ी हो गई ! मतलब जैसे ही क्रासिंग खुले दूसरों की आजादी को धकियाते हुए अपनीवाली आजादी के साथ रफूचक्कर हो ले।
          
          ध्यान आया आजकल आजादी की मांग बहुत जोर पकड़ रही है, जैसे; अपनीवाली, इसकीवाली, उसकीवाली, ऐसीवाली, तैसीवाली, वैसीवाली, सबकी वाली आदि-आदि न जाने कौनसीवाली और कितनीवाली आजादी चाहिए..! आजादी की उठती इस जबर्दस्त माँग को देख सुनकर मुझे अब आश्चर्य होने लगा है। आश्चर्य क्या, बल्कि दिमाग भन्नाया हुआ सा है। याद आया पन्द्रह अगस्त सन सैंतालिस को तो अंग्रेजों ने बकायदा पैंतीस करोड़ भारतवासियों के लिए आजादी की लोडिंग कर मय रवन्ना भारतवासियों के हाथों सौंप दिया था और फिर हमारे पुरनियों ने भी छब्बीस जनवरी बावन को बकायदा इस आजादी को अपने पैंतीस करोड़ देशवासियों के बीच बाँट दिया था तो फिर समस्या कहाँ से आई कि आज जहाँ देखो वहीं से आजादी की माँग हलकान किए हुए है?
           
             वास्तव में आजादी मिली भी और बँटी भी। कम से कम आजादी की कालाबाजारी कर किसी स्विस अकाउंट में तो नहीं ही रखा गया है। भारत की जनता ही पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को धूम-धड़के एवं हर्षोल्लास के साथ मनाकर इस बात को सिद्ध करती है। रहा-सहा सन्देह तब जाता रहता है जब हम आज के अपने नेता को एक सौ पच्चीस करोड़ देशवासियों के लिए चिन्तित होते हुए देखते हैं। भला ऐसे में कोई क्यों किसी के हिस्से की आजादी स्विस बैंक में रखेगा? तो इससे सिद्ध होता है कि जितनी मात्रा में अंग्रेजों से हमें आजादी मिली थी कुल का कुल देशवासियों के बीच बँटा था। फिर समस्या कहाँ है.. यह आजादी का माँग क्यों उठी? सिर खुजलाते हुए मैंने इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर खोजने लगा।
              
                देखा! सिर खुजलाने से क्या होता है? अरे भाई, समस्या का उत्तर मिल जाता है, और क्या होता है! हाँ, अंग्रेजों ने तो पसंद नापसंद के आधार पर मात्र पैंतीस करोड़ भारतवासियों के लिए ही आजादी हैंडओवर किया था तब उन्हें क्या पता था कि हम एक सौ पच्चीस करोड़ हो जाएँगे! इसी कारण आज आजादी का माल कम पड़ गया है। निश्चित है! पैंतीस भर की चीज एक सौ पच्चीस के लिए पूरा नहीं पड़ेगी। फिर तो यह होना ही था; एक-दूसरे से इसकी छीना-झपटी! इस छीना-झपटी में बेचारी यह आजादी तार-तार हुई। यहीं से शुरू होता है अपने-अपने ब्रांड के अनुसार वैरायटीवाली आजादी की माँग! जैसे, अपनी, इनकी,उनकी, ऐसी, तैसी, जैसी, वैसी आदि वाली आजादी।  एक सौ पच्चीस करोड़ देशवासियों के माई-बाप संविधान के पास भी लगता है इतनी वैरायटी की आजादी, देने के लिए नहीं है।
        
                आज अगर अम्बेडकर जी मिल जाएँ तो उनका टेंटुआ दबा कर पूँछें कि "बडे़ आए संविधान निर्माता बनने! एक अदद आजादी की फैक्टरी कि विधि तो बता नहीं पाए बस फालतू एक किताब में उलझा कर चले गए...अगर आजादी-उत्पादन विधि बताई होती तो कम से कम आज देशवासियों को आजादी की इतनी किल्लत न हो रही होती..! कम से कम आजादी की फैक्टरी तो लोग लगा लेते! और आजादी उत्पादन में रोजगार भी मिलता" खैर, अब कुछ नहीं हो सकता, अब तो इतनी ही आजादी में काम चलाना होगा। हाँ, मेरे प्यारे सवा सौ करोड़ देशवासियों!
         
             लेकिन निराश होने की भी जरूरत नहीं है, अभी लंदन की किसी संस्था ने बताया है कि "आबादी से ज्यादा अहमियत इस बात में है कि कैसे आप संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं।" लो मिल गया न हल यह भी वही अंग्रेज ही बता रहे हैं। हमें आजादी जैसे संसाधन के इस्तेमाल के तरीके भी उन्हीं अंग्रेजों से सीखना चाहिए। यहाँ मेरा अपना यह भी सुझाव है, क्योंकि हम एक गरीब देश के वासी हैं, न हो तो हमें आजादी-बैंक बना लेना चाहिए। बहुत लालच न कर जरूरत भर की आजादी लेकर शेष इसी बैंक में जमा कर देना चाहिए, फिर तो सबका काम चल पड़ेगा।
         
             वैसे भी महात्मा गांधी ने कहा था "धरती पर सबकी जरूरत भर का सामान है, मगर सबके लालच को पूरा करने लायक नही"।  हाँ, गाँधी जी की इस बात से हम सीख ले सकते हैं क्योंकि तब हमें अंग्रेजों से जरूरत भर की आजादी तो मिल ही गई थी। मतलब हमारे देश की सरजमीं पर आज भी अँग्रेजों की दी हुई इतनी आजादी मौजूद है कि पैंतीस में ही एक सौ पच्चीस का काम चल सकता है। बशर्ते, हम अपनी आजादी की लालच पर कंट्रोल रखें! तो भाई आजादी की माँग की समस्या का हल हो गया। मतलब हमें आजादी का लालच कम करना होगा।
              तो क्या ये आजादी की माँग करने वाले लालची हैं? लेकिन क्या पता?
          
            जैसे, अब वही बच्चा जो स्कूल ड्रेस में था शायद स्कूल जाता भी रहा हो, उसके माँ-बाप भी रहे हों जो उसके टाफी खाने की इच्छा पूरी न कर रहे हों। उसने शौकिया अन्दाज में टाफी खाने के लिए मुझसे भीख माँगी हो। उसी तरह हमारा संविधान शौकिया आजादी माँगने वालों का शौक पूरा नहीं कर पा रहा है। जे. एन. यू. टाइप आजादी की माँग करने वाले छात्र या ऐसे ही अन्य लोग अपने किसी शौक को पूरा करने के लिए शौकिया आजादी माँगने वाले लोग हैं। जिनसे ज्यादा पूँछ-ताछ होगी तो खिस्स से हँस कर निकल लेंगे..! जैसे रेलवे-क्रासिंग पर टाफी खाने के लालच में शौकिया भीख माँगता वह बच्चा मेरे द्वारा ज्यादा पूँछ-ताछ करने पर खिस्स से हँस कर चला गया था। इन पर विश्वास न करें। 

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

डालर-ग्रह

              आज अखबार के किसी कोने पर मैंने किसी "मून एक्सप्रेस" के संस्थापक की बात पढ़ी कि चांद पर खरबों डॉलर का प्लेटिनम और हीलियम 3 मौजूद है। पढ़ते ही मेरा दिमाग सुन्न हो गया! सोचने लगा चन्द्रमा पर और कौन-कौन से तत्व होंगे? आखिर जब ये चीजें मिली तो क्या सोना-चांदी का भंडार नहीं होगा..? निश्चित होगा और वह भी खरबों डॉलर से कम का नहीं होगा। ऐसे ही अन्य तत्वों के भी छिटपुट भंडार होंगे और फिर तो पूरा मामला खरबों डालर का नहीं बल्कि शंख-पद्म डॉलर का बनता है..!
          
              मैं तो कहता हूँ...अब तय करने का समय आ गया है कि पहले चन्द्रमा को खोद कर अरबों डॉलर बनाया जाए या फिर पृथ्वी की ही खुदाई चलती रहे? वैसे एक बात है...आज डॉलर के जमाने में सब चाँदी काटना चाहते हैं, इस चक्कर में पूत और पड़ोसी का भी मतलब नहीं रह जाता। ऐसे ही नहीं एक बार एक साहब ने मुझसे कहा था, "अरे! कुछ कमा-धमा लो नहीं तो कोई पूँछेगा नहीं!" मैंने तब यही सोचा था कि यह अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में मुझसे ऐसा बोल गया है और तब उसकी बात बुरी लगी थी। लेकिन, आज सोचता हूँ उन साहब की बात तो ठीक ही थी, अगर अंटी में माल है तो हजार गणेश-परिक्रमा करने वाले बैठे हैं! आखिर, अमेरिका का डालर चाँद पर भी ऐसे ही नहीं झलक गया।
           
             वैसे पड़ोसियों के बीच आजकल कैसा रिश्ता है? भारत-पाकिस्तान को तो आप देख ही रहे हैं..बेचारे हमारे गृहमंत्री बिना खाए-पिए वहाँ से चले आए। मतलब साफ है, छोटे अकसर खुरपेंची होते हैं...माफ करिएगा हो सकता है कोई अपवाद भी मिल जाए..हाँ तो, चन्द्रमा भी तो पृथ्वी का पड़ोसी है और छोटा भी! क्या पता पृथ्वी से अपने टूटने की पूरी खुन्नस यह चांद पृथ्वी को कभी भी टक्कर मारकर पूरी कर ले..? वैसे भी फला धूमकेतु या फला चीज के टकराने का भय अकसर सुनाई ही देता रहता है..! और अगर कहीं चन्द्रमा ने अपनी खुन्नस निकाली तो हम पृथ्वीवासी भी गए काम से! ठीक है कि अभी चन्द्रमा हमारी पृथ्वी की गणेश परिक्रमा करता है, लेकिन यहाँ यह कोई मैटर नहीं है, मैटर तो खरबों डालर का है, बात गणेश-परिक्रमा से नहीं बनती..बात बनेगी तो खरबों डालर से, और चाँद पर चाँदी काटने से..! डालर के प्रताप से चांद जैसी गणेश-परिक्रमा करने वाले न जाने कितने उपग्रह से हम पृथ्वीवासी गगन पाट देंगे..चन्द्रमा की गणेश-परिक्रमा से पिघलने की जरूरत नहीं।
        
           मेरे धरतीवासियों! चांद पर खरबों डॉलर के माल को लावारिस छोड़ना उचित नहीं है। तो, पृथ्वीवासियों! पृथ्वी की खुदाई छोड़कर चाँद की खुदाई में जुट जाओ, कहीं ऐसा न हो कि खरबों डालर के इस माल की चकाचौंध से प्रभावित कोई एलियन इसे न ले उड़े? वैसे भी एक दिन कहीं पढ़ा था कि ग्रहीय जीव के रूप में मानव का विकास अभी उतना नहीं हो पाया है जितना कि अन्तरिक्ष में अन्य ग्रहों पर हुआ होगा..! हाँ तो देर करने की अावश्यकता अब नहीं, डालर खोजो और अपना विकास करो...फिर तो...क्या चांद, क्या मंगल, और अगर इसके आगे कोशिश करोगे तो कहीं तुम्हें सोने, चांदी, प्लेटिनम के विशुद्ध ग्रह भी न मिल जाए...अनन्त की संख्या में डालर..! फिर तो डालर ही डालर !! 
        
            अब इतने डालरों का तुम करोगे क्या? अरे बुद्धू इंसानों इतनी भी बात नहीं समझते? इन डालरों से अपने लिए पृथ्वी से भी बड़ा एक डालर-ग्रह बना डालो वैसे भी तुम्हारी जनसंख्या बढ़ती जा रही है...और धरती पर का सारा माल भी खोदना है.. ऐसे में धरती पर रहते हुए यह पूरी तरह सम्भव नहीं हो पाएगा...! सीधी सी बात है, अपने नवीन डालर-ग्रह पर बैठ धरती को खोदो, और और डालर इकट्ठा करो...अपने डालर-ग्रह पर आराम से निवास करो!! ब्लैकहोल भी आप का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा...आखिर यह भी आपके लिए डालर रखने के काम ही तो आएगा!!! अद्भुत सारा ब्रह्मांड डालरमय...

"बेवकूफी का सौन्दर्य" - अनूप शुक्ल

              वैसे साहित्यकारिता धता बताने का ही काम है, मतलब हम जो हैं, जो नहीं हैं उसे अच्छी तरह कहने का काम है। व्यंग्यकार कौन कहाँ धता बता रहा है इसे बखूबी परख लेता है। अपने एक आदरणीय रिश्तेदार की बातों को परखने और साथ ही इनपर उनकी चुटकी लेने की आदत से मैं बचपन मे ही परिचित हो गया था। तभी से व्यंग्य को कुछ-कुछ समझने की मैं कोशिश करने लगा था हलांकि व्यंग्य के साहित्यशास्त्र का मैंने कोई अध्ययन नहीं किया और किसी व्यंग्य लेखन पर मेरी कोई टिप्पणी एक पाठक की हैसियत से ही हो सकती है, कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं। 
   
             हाँ, एक बात है, व्यंग्यकार साफ हृदय का होता है और धता बताने वालों को वह असानी से पहचान लेता है, इस बात को मैंने अपने उन रिश्तेदार को देख कर ही जाना था। उन्हें चीजों को बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार करते हुए देखा था। खैर..भूमिका पूरी हुई...

            मेरे एक फेसबुक मित्र श्री अनूप शुक्ल जी हैं, जिनसे फेसबुक पर ही सही मैं सौभाग्यवश उनसे जुड़ा हूँ और उनकी सारी पोस्टों को पढ़ता रहा हूँ। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर जुड़े रहने की प्रेरणा उन्हीं से ग्रहण करता हूँ। उनकी हाल ही में एक व्यंग्य रचना "बेवकूफी का सौन्दर्य" पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई है ; जिसे पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। हाँ, इसी व्यंग्य रचना पर एक पाठक की हैसियत से कुछ लिखना चाहता हूँ।
       
              "बेवकूफी का सौन्दर्य" को मैंने ठहकर ध्यान से पढ़ने की कोशिश की और पहली बार मैंने किसी व्यंग्य रचना को इतनी शिद्दत से पढ़ा बिलकुल इसकी भूमिका के लेखक श्री आलोक पुराणिक के कथनानुसार व्यंग्य के विद्यार्थी की तरह। वास्तव में इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैं परत दर परत व्यंग्य विधा से परिचित होता रहा और मुझे अहसास हुआ कि व्यंग्यकार प्रत्येक धता बताने वाली चीज को पहचान लेता है। मतलब यही कि साहित्य में व्यंग्य की शैली चीजों को उलट-पुलट कर देखने-समझने की विधा है। इस तथ्य का ज्ञान पुस्तक के व्यंग्य "बोरियत जो न कराए" पढ़कर हुआ। ऐसे में व्यंग्यकार की नजरों से कोई चीज छिपती नहीं। परिणामतः शुक्ल जी को कोई धता बता भी नहीं सकता और अगर आप ने इसकी तनिक भी गुस्ताखी की तो झट से इनके व्यंग्य का एक जोरदार डंडा पड़ चुका होता है। 
      
                 वास्तव में श्री शुक्ल जी दृष्टि प्रदान करने वाले तथा "महानता" के घोषित तत्वों को भी कुशलता से कठघरे में खड़ा कर देने वाले व्यंग्यकार हैं; मतलब वे विसंगतियों पर प्रहार ही नहीं करते बल्कि अपने व्यंग्य में राह भी दिखाते हैं, जैसे "अरे भाई। दिमाग को संसद में मत बदलो। जरा तमीज से पेश आओ।" इसीप्रकार "बुजुर्गों को अपने नाती-पोतों को खिलाने का शौक बहुत रहता है। इसी बहाने घर में टिके भी रहते हैं।" या "चुनाव भावुकता से नहीं लड़े जाते बच्चा।घोषणापत्र में भावुकता दिखेगी तो जनता समझेगी ये कवि लोग हैं। राजनेता नहीं हैं।...घोषणापत्र ललित निबंध सरीखा होना चाहिए जो पढ़ने में मनभावन होना चाहिए। भले ही उसका मतलब कुछ न निकले।" व्यंग्यकार यहाँ कुछ कहते हुए भी जान पड़ता है, जहाँ तमाम भावार्थों से संघनित ऐसी पंक्तियों के पिघलने पर व्यंग्य कई स्तरों पर बहता हुआ दिखाई देने लगता है, जहाँ विद्रूप व्यवस्था पर चोट तो होती ही है अन्तर्धारा के रूप में व्यंग्यकार की करुणा भी झलक उठती है। जैसे "बुजुर्गों" वाली बात मेँ या "फटाफट क्रिकेट में चीयरबालाओं की स्थिति" में आया यह व्यंग्य-कथन दृष्टव्य है "बहुत कम कपड़े पहनती है। इतने कम कि वे अगर खूबसूरत न हों और उनके पहने कपड़े गंदे हों तो देश की आम जनता सी लगी"।
                 
               अभी तक अन्य लेखकों के जो भी छिटपुट व्यंग्य पढ़ा वहाँ मुझे लगा कि व्यंग्यकार किसी विशेष "थीम" पर चलते हैं, जैसे किसी खास बात को सूत्र-रूप में पकड़कर उसी पर केंद्रित हो जाते हैं और यहाँ व्यंग्यकार का व्यंग्य-विषय तुरत-फुरत समझ में आ जाता है जो भरी सभा में किसी को चिढ़ाने जैसा ही होता है, जहाँ चिढ़नेवाला भी आसानी से प्रतिउत्तर देने हेतु तत्पर हो उठता है। लेकिन "बेवकूफी का सौन्दर्य" में आए व्यंग्य सुननेवाले को आत्ममंथन के लिए सोचने पर विवश करता है। यहाँ व्यंग्य किसी बात को सूत्र-रूप में पकड़कर चलता हुआ दिखाई नहीं देता और लट्ठमलट्ठ की बात भी नहीं होती बल्कि इनके व्यंग्य की आधारभूमि में फैलाव होता जाता है, जैसे टार्च की रोशनी में सलीके से और भी चीजें दिख जाती हैं। "आनलाइन कविता स्कूल" व्यंग्य से इस तथ्य को समझा जा सकता है। लेकिन कहीं-कहीं व्यंग्यकार आवश्यकता पड़ने पर सीधे व्यंग्य पर उतर आता है, जैसे, "आइए घाटा पूरा करे"। इसीप्रकार "जाम के व्यावहारिक उपयोग के बहाने" व्यंग्यकार किसी समस्या पर सरकारी-तंत्र और समस्या के प्रति हमारे दृष्टिकोण की पोल खोल देता है।
     
              वैसे व्यंग्य गुस्सा, हास्य और करुणा जैसे भाव को अन्तर्धारा के रूप में लेकर चलता है, लेकिन यहाँ हास्य जोकरों वाला नहीं होता बल्कि हँसी-हँसी में कुछ कह जाने वाला हास्य होता है, असल में यहाँ आया हास्य गुस्से को संतुलित करते दिखाई देता है जबकि करुणा जैसा भाव सुनने वाले को संजीदा कर जाता है। "बेवकूफी का सौन्दर्य" में ये सभी तत्व दिखाई देते हैं। व्यंग्यकार के गुस्से को मैंने "देश सेवा का ठेका" में "चल बे मेरे प्यारे देश। इस तरफ चल। उधर नहीं बे इधर। तेरी सेवा का ठेका हमें मिला है। तुझे हमारी मर्जी से चलना पड़ेगा। समझ गया न।" में बखूबी एहसास किया। इस कथन से मैं सिद्ध कर सकता हूँ कि श्री शुक्ल जी गुस्सा, हास्य और करुणा के संविलयन से उपजे क्षोभ से प्रेरित व्यंग्यकार हैं। वैसे "बायें थूकिये" से तो हँसी ही फूट पड़ती है, या "बेटा विमोचन में फंसा हूं। जैसे ही विमोचन हटा घर आता हूं।" यहाँ व्यंग्यकार गुदगुदाते हुए अपने विनोदी स्वभाव से भी परिचित कराता है।
       
               "बेवकूफी का सौन्दर्य" की व्यंग्य-रचनाओं में बहुत सुलझी हुई दृष्टि का इस्तेमाल किया गया है। "जनसेवा का जोखिम" पढ़ते हुए यह बात प्रमाणित होती है कि किसी बात के पक्ष में लिख देना भी आधुनिक युग में एक व्यंग्य-विधा है। इनकी सुलझी हुई इस व्यंग्य-शैली में प्रयुक्त भाषा का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि व्यंग्य में किसी बात की व्याख्या नहीं होती बल्कि व्यंग्य एक कथन है, जो अपने पाठक में व्यंग्य-कथनों के प्रति रुचि जगाती बात करते हुए चलती है। व्यंग्य की चोट के प्रभाव का एहसास उसकी भाषा में ही छिपा होता है। यहाँ व्यंग्य-लेखक इस भाषा में सिद्धहस्त है। हम जैसे व्यंग्य के नए पाठकों को भाषा ही व्यंग्य के चुटीलेपन का एहसास कराती है। जैसे, "अरे यार देओ चाहे जो कुछ लेकिन लिखो लैपटॉपै।" व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्यों में आम बोलचाल की भाषा को सहज-शैली में अपनाया है।
      
               इसप्रकार "बेवकूफी का सौन्दर्य" समग्र रूप से व्यंग्य का सौन्दर्य है, जिसमें व्यंग्य के सभी तत्व परिलक्षित होते हैं। व्यंग्य की खोज में भटक रहे किसी पाठक के लिए यह एक बेहतर किताब है। आज की इस व्यवस्थात्मक जटिलता में किसी व्यंग्य को समझने के लिए उस व्यवस्था को भी समझना बहुत जरूरी होता है जिस पर तंज कसा गया हो। "बेवकूफी का सौन्दर्य" कुछ ऐसे ही जटिल समस्याओं पर प्रहार करती है, जिसकी रोचकता पाठक की समझ पर निर्भर करती है। वैसे भी व्यंग्य जब धीरे-धीरे साहित्य बनने की ओर उन्मुख होता है तो उसमें मंचीय हास्य जैसी रोचकता खोजना व्यर्थ की कवायद है। अतः इस पुस्तक में सम्मिलित व्यंग्य की रोचकता इसके विषय-वस्तु की गंभीरता की समझ में निहित है, मतलब यहाँ आए व्यंग्यों की रोचकता इसके विषय-वस्तु की गंभीरता और पाठक में इसकी समझ के समानुपाती है।
       
                अंत में इस किताब का नाम "बेवकूफी का सौन्दर्य" है, जो व्यंग्य का अनेकांतवादी शास्त्र है, यहाँ व्यंग्य का लोकतंत्र है, जहाँ कोई भी बात किसी भी ढंग से कह देने की स्वतंत्रता है, इसलिए व्यंग्य-स्कूल के मुझ प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी को इतनी बातें कहने की हिम्मत हुई।
                                                                                              -विनय कुमार तिवारी