उस दिन रेलवे-क्रासिंग बन्द मिली। क्रासिंग खुलने के इन्तजार में मैंने भी कई गाड़ियों के पीछे कार रोक दी क्योंकि न तो हवा में उड़कर जा सकता था और न ही अपनी आजादी को खतरे में डाल क्रासिंग पार कर सकता था। यहाँ कहने का यह मतलब नहीं कि बन्द क्रासिंग पर रुक कर मैंने क्रासिंग के ऊपर कोई एहसान किया हो, बल्कि इस बन्द क्रासिंग ने मुझे रोककर किसी खतरे से बचाने के लिए इसने मुझ पर ही एहसान किया.! बेचारी यह बन्द क्रासिंग मेरी आजादी को मेरे लिए ही सुरक्षित रखना चाह रही थी। एक बात है, और वह यह कि अगर कहीं किसी रास्ते पर रेलवे टाइप क्रासिंग बन्द मिले तो इसका यह मतलब नहीं कि आपकी आजादी पर कोई ब्रेक लगा है, इससे तो आपकी और रेलवे दोनों की आजादी सुरक्षित रहती है! खैर...
मुझे रुकते देख एक पाँच-छह साल का उलझे, भूरे बालों वाला लड़का हमारी ओर आता दिखाई दिया। वह थोड़ी दाग-धब्बे वाली मैली सी नीली शर्ट पहने हुए था। शायद यह शर्ट सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के स्कूल-ड्रेस जैसी ही थी, हो सकता है किसी सरकारी स्कूल में पढ़ता भी हो। जैसे ही कार के पास आकर उसने कार के बन्द खिड़की के शीशे पर ठक-ठक किया मैंने शीशा नीचे सरका दिया, कुछ बोलता उसके पहले ही वह मेरी ओर हाथ बढ़ा कर बोल पड़ा था, "बाबू जी...!" एकटक सी मेरी नजर उसके चेहरे पर जम गई, जैसे मैं उसका चेहरा पढ़ रहा होऊँ। मैंने समझा वह मुझसे अपनी कोई आजादी माँग रहा है, फिर मैं कौन होता हूँ इसे आजादी देनेवाला..! यही सोचकर मैंने उससे पूँछा, "तुम्हारे माँ-बाप हैं?" नहीं के अंदाज में सिर हिलाते हुए बोला, "नहीं"। मैंने फिर पूँछा, "तो, तुम किसके साथ रहते हो?" "भाई के साथ" लड़के ने कहा और बताया कि भाई उससे बड़ा है। "अच्छा! तुम भीख क्यों माँग रहे हो?" मैंने पूँछा। इसके जवाब में उस लड़के ने कहा कि वह टाफी खाने के लिए भीख माँग रहा है! मैं थोड़ा चौंका और उससे फिर उसके माँ-बाप के बारे में पूँछा लेकिन उसने अपना वही पहले वाला उत्तर दुहराया।
उत्तर से असंतुष्ट मैंने उससे पूँछा," आखिर तुम यहाँ कैसे आए! तुम्हें कौन पकड़ कर लाया?" वह मेरी ओर देखने लगा था। मैंने उससे अपना प्रश्न पुनः दुहराया, "हाँ..हाँ, बताओ तुम्हें यहाँ कौन पकड़ कर लाया है।" इस बार उसने मेरे प्रश्न "कौन पकड़ कर लाया" को जैसे पकड़ लिया और खिस्स से हँस दिया फिर बिना कोई उत्तर दिए हँसते हुए ही दूसरी कार की ओर भाग गया। उस लड़के की इस प्रतिक्रिया पर मैं मन ही मन हँस पड़ा। हालाँकि वह भागा न होता तो उसे टाफी खाने के पैसे अवश्य देता। खैर, मैंने उसके साथ नत्थी उसकी आजादी को भी उसी के साथ जाते देखा।
इसके बाद मैंने देखा, मेरे पीछे आनेवाली कुछ कारें विपरीत दिशा से आनेवाले वाहनों के लेन में क्रासिंग के पास जाकर खड़ी हो गई ! मतलब जैसे ही क्रासिंग खुले दूसरों की आजादी को धकियाते हुए अपनीवाली आजादी के साथ रफूचक्कर हो ले।
ध्यान आया आजकल आजादी की मांग बहुत जोर पकड़ रही है, जैसे; अपनीवाली, इसकीवाली, उसकीवाली, ऐसीवाली, तैसीवाली, वैसीवाली, सबकी वाली आदि-आदि न जाने कौनसीवाली और कितनीवाली आजादी चाहिए..! आजादी की उठती इस जबर्दस्त माँग को देख सुनकर मुझे अब आश्चर्य होने लगा है। आश्चर्य क्या, बल्कि दिमाग भन्नाया हुआ सा है। याद आया पन्द्रह अगस्त सन सैंतालिस को तो अंग्रेजों ने बकायदा पैंतीस करोड़ भारतवासियों के लिए आजादी की लोडिंग कर मय रवन्ना भारतवासियों के हाथों सौंप दिया था और फिर हमारे पुरनियों ने भी छब्बीस जनवरी बावन को बकायदा इस आजादी को अपने पैंतीस करोड़ देशवासियों के बीच बाँट दिया था तो फिर समस्या कहाँ से आई कि आज जहाँ देखो वहीं से आजादी की माँग हलकान किए हुए है?
वास्तव में आजादी मिली भी और बँटी भी। कम से कम आजादी की कालाबाजारी कर किसी स्विस अकाउंट में तो नहीं ही रखा गया है। भारत की जनता ही पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को धूम-धड़के एवं हर्षोल्लास के साथ मनाकर इस बात को सिद्ध करती है। रहा-सहा सन्देह तब जाता रहता है जब हम आज के अपने नेता को एक सौ पच्चीस करोड़ देशवासियों के लिए चिन्तित होते हुए देखते हैं। भला ऐसे में कोई क्यों किसी के हिस्से की आजादी स्विस बैंक में रखेगा? तो इससे सिद्ध होता है कि जितनी मात्रा में अंग्रेजों से हमें आजादी मिली थी कुल का कुल देशवासियों के बीच बँटा था। फिर समस्या कहाँ है.. यह आजादी का माँग क्यों उठी? सिर खुजलाते हुए मैंने इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर खोजने लगा।
देखा! सिर खुजलाने से क्या होता है? अरे भाई, समस्या का उत्तर मिल जाता है, और क्या होता है! हाँ, अंग्रेजों ने तो पसंद नापसंद के आधार पर मात्र पैंतीस करोड़ भारतवासियों के लिए ही आजादी हैंडओवर किया था तब उन्हें क्या पता था कि हम एक सौ पच्चीस करोड़ हो जाएँगे! इसी कारण आज आजादी का माल कम पड़ गया है। निश्चित है! पैंतीस भर की चीज एक सौ पच्चीस के लिए पूरा नहीं पड़ेगी। फिर तो यह होना ही था; एक-दूसरे से इसकी छीना-झपटी! इस छीना-झपटी में बेचारी यह आजादी तार-तार हुई। यहीं से शुरू होता है अपने-अपने ब्रांड के अनुसार वैरायटीवाली आजादी की माँग! जैसे, अपनी, इनकी,उनकी, ऐसी, तैसी, जैसी, वैसी आदि वाली आजादी। एक सौ पच्चीस करोड़ देशवासियों के माई-बाप संविधान के पास भी लगता है इतनी वैरायटी की आजादी, देने के लिए नहीं है।
आज अगर अम्बेडकर जी मिल जाएँ तो उनका टेंटुआ दबा कर पूँछें कि "बडे़ आए संविधान निर्माता बनने! एक अदद आजादी की फैक्टरी कि विधि तो बता नहीं पाए बस फालतू एक किताब में उलझा कर चले गए...अगर आजादी-उत्पादन विधि बताई होती तो कम से कम आज देशवासियों को आजादी की इतनी किल्लत न हो रही होती..! कम से कम आजादी की फैक्टरी तो लोग लगा लेते! और आजादी उत्पादन में रोजगार भी मिलता" खैर, अब कुछ नहीं हो सकता, अब तो इतनी ही आजादी में काम चलाना होगा। हाँ, मेरे प्यारे सवा सौ करोड़ देशवासियों!
लेकिन निराश होने की भी जरूरत नहीं है, अभी लंदन की किसी संस्था ने बताया है कि "आबादी से ज्यादा अहमियत इस बात में है कि कैसे आप संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं।" लो मिल गया न हल यह भी वही अंग्रेज ही बता रहे हैं। हमें आजादी जैसे संसाधन के इस्तेमाल के तरीके भी उन्हीं अंग्रेजों से सीखना चाहिए। यहाँ मेरा अपना यह भी सुझाव है, क्योंकि हम एक गरीब देश के वासी हैं, न हो तो हमें आजादी-बैंक बना लेना चाहिए। बहुत लालच न कर जरूरत भर की आजादी लेकर शेष इसी बैंक में जमा कर देना चाहिए, फिर तो सबका काम चल पड़ेगा।
वैसे भी महात्मा गांधी ने कहा था "धरती पर सबकी जरूरत भर का सामान है, मगर सबके लालच को पूरा करने लायक नही"। हाँ, गाँधी जी की इस बात से हम सीख ले सकते हैं क्योंकि तब हमें अंग्रेजों से जरूरत भर की आजादी तो मिल ही गई थी। मतलब हमारे देश की सरजमीं पर आज भी अँग्रेजों की दी हुई इतनी आजादी मौजूद है कि पैंतीस में ही एक सौ पच्चीस का काम चल सकता है। बशर्ते, हम अपनी आजादी की लालच पर कंट्रोल रखें! तो भाई आजादी की माँग की समस्या का हल हो गया। मतलब हमें आजादी का लालच कम करना होगा।
तो क्या ये आजादी की माँग करने वाले लालची हैं? लेकिन क्या पता?
जैसे, अब वही बच्चा जो स्कूल ड्रेस में था शायद स्कूल जाता भी रहा हो, उसके माँ-बाप भी रहे हों जो उसके टाफी खाने की इच्छा पूरी न कर रहे हों। उसने शौकिया अन्दाज में टाफी खाने के लिए मुझसे भीख माँगी हो। उसी तरह हमारा संविधान शौकिया आजादी माँगने वालों का शौक पूरा नहीं कर पा रहा है। जे. एन. यू. टाइप आजादी की माँग करने वाले छात्र या ऐसे ही अन्य लोग अपने किसी शौक को पूरा करने के लिए शौकिया आजादी माँगने वाले लोग हैं। जिनसे ज्यादा पूँछ-ताछ होगी तो खिस्स से हँस कर निकल लेंगे..! जैसे रेलवे-क्रासिंग पर टाफी खाने के लालच में शौकिया भीख माँगता वह बच्चा मेरे द्वारा ज्यादा पूँछ-ताछ करने पर खिस्स से हँस कर चला गया था। इन पर विश्वास न करें।