...कभी-कभी प्रतीत होता है कि जीवन में सिर्फ भोगा जाता है,
अनुभव किया जाता है लेकिन क्या इस प्रकृया में कोई मानक तय किया जा सकता है...!
क्या स्वयं को इस पर कसा जा सकता है...! और क्या किसी अन्य के लिए भी इसे मानक के
रूप में स्वीकार किया जा सकता है...? प्रत्येक व्यक्ति का भोगा हुआ उसका अपना निजी
होता है, इससे उसके अपने दृष्टिकोंण विकसित होते हैं...व्यक्ति अपने भोगे हुए से
ही अपने लिए उत्तर खोजता है...हमारे भोगने का स्तर हमारे अनुभव की व्यापकता पर
निर्भर करता है, जो मानस पटल पर तमाम प्रश्न उकेरते हैं...यह हमारे व्यवहार को
प्रभावित करता है...इन्हीं बातों कि चर्चा अपनी पत्नी से कर रहा था, तभी पत्नी
बोली, “इन बातों पर इतना दिमाग खपाना व्यर्थ है, हाँ मनुष्य का व्यवहार किन्हीं
बातों से प्रभावित हो सकता है इस पर ज्यादा विचार करना और इस आधार पर निष्कर्ष
निकालना सनकपूर्ण सोच है|” लेकिन वह जानता आया है...,और पत्नी को समझाने सा लगा...कभी-कभी
सर्वजन के भोगे हुए से सर्वमान्य नियम खोजने का प्रयास किया जाता है, इससे वैचारिक
संघर्ष का भी जन्म होता है...इस वैचारिक संघर्ष से उपजे निष्कर्ष से ही मनुष्य का
मानसिक, नैतिक और बौद्धिक विकास हुआ है, इसका उसके सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव
पड़ा है...यदि ऐसा नहीं होता तो मनुष्य इतना चेतन न होता और जीवन की तमाम कलाएँ
केवल सनक या पागलपन होती...और लिखना...शायद केवल सनक मात्र...!
वैसे मनुष्य के मानस पटल पर कुछ बातें,
घटनाएँ अंकित होती जाती हैं, जो उसे संवेदनशील बनाती है...शायद चिंतन की प्रकृया
भी उसी से आरम्भ होती है...वैचारिक प्रश्नशंकुलता इसी संवेदनशीलता का परिणाम है...और
यह प्रश्नशंकुल मनःस्थिति, उत्तर पाने की आकुलता में, तमाम सृजनात्मक कार्य कर
डालता है...साहित्य, दर्शन, विज्ञान एवं अन्य कलाओं का विकास इसी का परिणाम है...
वह अकसर ऐसे ही कुछ न कुछ सोचता रहता
है..., उसे लगता है...यह आदत उसमें बेचारगी का भाव पैदा करती है...जो उसे लोगों की
निगाहों में दुखी दिखाने लगता है.....लेकिन क्या वास्तव में वह दुखी है.....उसमें
बेचारगी का भाव है...? ...हालाँकि वह जनता है कि ऐसा वह नहीं है... किसी का उसके
लिए यह लिखना, “जो भी प्यार से मिला तुम उसी के हो लिए” शायद उसमें उस वैचारिक
प्रवाह की ओर संकेत करती हो जिसमें प्रवाहित हो वह कुछ तलाशता रहता है और इस तलाश
में वह सभी चीजों को स्वीकार करता जाता है...
लेकिन फिर भी वह स्वयं को असामाजिक सा पाता
है..., सामाजिकता के ताने-बानें में उसने व्यवहारवाद का ऐसा उलझाव देखा है, जहाँ
वह सदैव अपने को अनफिट पाता रहा है.... जब भी वह अपने को इसमें ढालने का प्रयास
करता है उसे महसूस होता है... जैसे अपने को झुठला रहा है...कुछ अस्वाभाविक सा हो
रहा है...एक छद्म आवरण के खोल में घुस रहा है....उसका व्यक्तित्व खंडित हो रहा
है....इस खंडितत्व का अहसास ही उसमें अपराधबोध जगाकर उसे निरीह बना देता है....जो उदासी और बेचारगी का भाव उत्पन्न कर उसे आत्मपीड़क बना देता है....इस
आत्मक्षरित व्यवस्था में जीने की विवशता ही उसे कभी-कभी दुःख और उदासी के मनोभाव
में ढकेल देता है...और इसकी शुरुआत कहाँ से हुई वह सोचने लगा...