शबनम
नाजों से पली-बढ़ी अपने अब्बा की लाड़ली थी। हाँ, उसके अब्बा जिस मुहल्ले में रहते
थे वह हिन्दू बाहुल्य मुहल्ला था। अकसर छोटी बच्ची शबनम हिन्दू औरतों को बड़े ध्यान
से देखा करती थी और घर में वैसे ही कपड़े पहन स्वांग भी करती थी। शबनम को
बिंदी बहुत पसंद थी, वह जब भी हिन्दू औरतों के माथे पर बिंदी देखती तो
उसका भी मन बिन्दी लगाने का हो आता। ऐसे ही एक बार जब वह माथे पर बिंदी लगाए अपनी
अम्मी को इसे दिखाते हुए पूँछा था, तब उसकी उम्र यही कोई दस-ग्यारह साल के लगभग रही होगी, "देख अम्मी
कैसी लगती हूँ" यह सुन अम्मी तो केवल मुस्कुरा कर रह गई थी लेकिन वहीं पास
में बैठी शबनम की खाला ने अपने हाथों से शबनम के माथे से बिंदी को हटाते हुए कहा
था, "देख बी
तूने शब्बो को बहुत चढ़़ा लिया है तनिक इसे अपने मजहब के कायदे सिखा दिया कर..!
इसीलिए मैं न कहती थी, इसे मदरसे में तालीम दिलवा..! लेकिन तूने मेरी एक न सुनी
और यह शब्बो, आज बिन्दी लगाए घूम रही है!" अम्मी ने तो खाला की इस बात को अनसुनी
कर दिया था...हाँ, शबनम को बहुत बुरा लगा और वह खाला को रूवांसी हो घूरने लगी थी, उस
समय शबनम को अम्मी की आवाज सुनाई दी थी, "अरे बड़ी बी, शब्बो अभी बच्ची है और फिर थोड़ा मुहल्ले का भी तो असर है, धीरे-धीरे यह भी अपने
तौर-तरीके सीख जाएगी।"
इन्हीं सब
के बीच शबनम गाहे-बगाहे शीशे के सामने हिन्दू औरतों जैसा सज-धज घंटों शीशे के
सामने खड़ी होकर रह-रह अदाएं बनाती और स्वयं को निहारती रहती। उस समय अम्मी तो उसे कुछ
नहीं कहती, केवल उसकी
ओर आँखें तरेर कर देखभर लिया करती थी, लेकिन शबनम अम्मी की नाराजगी समझ जाती और
अपनी चूड़ी, बिन्दी निकाल कर धर देती। अकसर ऐसा वह अम्मी के कमरे में ही घर के
बड़ों की नज़रों से बच कर करती, खासकर फूफी से उसे अधिक डर लगता। हाँ, अब्बा से इन बातों के लिए
उसे कोई भय नहीं था। संयोग से एक बार उसकी फूफी ने बिन्दी लगाए उसे देखा तो उसकी
अम्मी के साथ उसे भी भला-बुरा कहने लगी थी, उसी समय उसके अब्बा भी आ गए थे, तब अब्बा ने भी फूफी को टोकते हुए कहा
था, "काहे इस
नन्हीं जान पर इतना नाराज हो रही हो बी, ऐसी टोकाटाकी से बच्चे दब जाते हैं...सयानें
में सब समझ जाएगी।" इसी तरह एक
बार अम्मी और फूफी में किसी बात पर थोड़ी खींच-तान हो गई थी, उस दिन वह अम्मी के
कमरे में बिन्दी लगाए शीशे के सामने अपनी अदाओं के साथ खेल रही थी कि फूफी की नजर
उस पर पड़ गई, फूफी ने
अम्मी से लड़ाई की सारी खीझ उसी पर उतार दी थी, "अरे देख तो..अब इस घर में ऊसूलों और तहजीब की तो कोई बात ही नहीं करता और एक ये
अपने अब्बा की लाड़ली..! बिन्दी-चूड़ी पहने हिन्दुआनी ही बनने पर उतारू है।"
फूफी की इस बात से शबनम सहम सी गई थी क्योंकि फूफी के 'हिन्दुआनी' कहने में उसे नफरत का एहसास
हुआ था, फिर कई दिनों तक शबनम अपने बिन्दी वाले खेल से दूर ही रही थी।
इस घटना
को बीते हुए कुछ दिन हो चुके थे लेकिन शबनम के दिलो-दिमाग में फूफी का कहा
"हिन्दुआनी" लफ्ज़ अभी तक गूँज ही रहा था। ऐसे ही एक दिन अब्बा नमाज अता
कर आराम फरमा रहे थे तभी शबनम उनके पास पहुँची थी और अब्बा के सफेद लम्बी डाढ़ी से
खेलते हुए बहुत ही मासूमियत से पूँछा था, "अब्बू बिन्दी...लगाने से हम हिन्दुआनी हो जाएंगे? बिन्दी लगाना खराब बात है..?" अब्बू के मुँह से अचानक निकला था, "नहीं
तो..! यह किसने कह दिया?"
"फूफी" शबनम ने यही बताया था। एक क्षण के लिए शबनम के अब्बा को
कुछ समझ में ही नहीं आया कि वह शबनम को क्या उत्तर दें। "बताओ न अब्बू"
फिर से शबनम की यह आवाज कानों में पड़़ते ही वह कह पड़े थे, "मेरी
शब्बो बिटिया, देख मेरे
डाढ़ी है न, और तेरे चाचू को?"
"नहीं" शबनम ने सिर हिलाया। "और तेरे भाई को? वह भी तो डाढ़ी नहीं रखता...यह
अपनी वाली टोपी भी नहीं लगाता..! तो क्या वह मुसलमान नहीं है? बेटा..! वैसे तुम भी बिन्दी
लगा लेने से हिन्दुआनी नहीं हो जाओगी, जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो..खराब लगे उसे
न करो..हाँ, जिस बात से नुकसान पहुँचे वही बात खराब होती है।" और अब्बू ने
शबनम के सिर पर हाथ फेरा। अब्बू की इन बातों को सुन शबनम खुशी से उछलते हुए खेलने
चली गई थी।
उस दिन शबनम ने अब्बू से रंगों का बक्सा और
साथ में सफेद कागज का रोल खरीद कर लाने के लिए कहा था। अब्बू अपनी शब्बो की कोई
बात नहीं टालते थे। शाम को शबनम की बताई हुई सारी चीजें हाजिर थी। दूसरे दिन सुबह
से ही शबनम व्यस्त थी, उसके आस-पास रंगों के साथ ही लाल-हरे रंग में रंगे हुए कागज
भी इधर-उधर बिखरे पड़े थे, और शबनम ऐसे
ही कागजों को रंगे जा रही थी। इस समय शबनम चार-पाँच बच्चे से भी घिरी हुई थी और वे
सभी कौतूहल से कागजों को रंगते हुए उसे ही देखे जा रहे थे। उस वक्त शबनम की खाला
और फूफी भी निकल आई थी, दोनों ने शबनम को अपने काम में व्यस्त देखा तो फूफी ने कहा, "अरे शबनम, तुम इन रंगों से क्या कर
रही हो?" "कुछ नहीं
फूफी...बस झंडा बना रही हूँ.." कागजों को रंगने में मशगूल शबनम ने फूफी की ओर
बिना देखे ही कहा था। "अरे कौन सा झंडा बना रही हो जो इतने रंग रोगन फैलाए
बैठी हो?" फूफी ने
फिर पूँछा था। "तिरंगा झंडा..! कल पन्द्रह अगस्त है न, झण्डे को स्कूल ले
जाना है।" शबनम वैसे ही फूफी को बिना देखे जबाव दिया। "तुम्हारे स्कूल
वालों ने तुम्ही को झण्डा बनाने का ठेका दे दिया है क्या जो सबेरे से ही व्यस्त
हो..? देखो..ये भी तो पढ़ने जाते हैं..!" फूफी ने अन्य बच्चों की तरफ इशारा
करते हुए थोड़े तल्ख़ सी आवाज में कहा था। "नहीं ये हमारे स्कूल में नहीं
पढ़ते.." शबनम वैसे
ही अपने काम में जुटे हुए बोली थी।
इसके बाद फूफी ने शबनम के अब्बा की ओर
मुखातिब होते हुए कहना शुरू किया था, "अरे भाईजान..! अपने इस शबनम को कुछ दीनियाती तालीम
भी दिला दीजिए नहीं तो मजहब के सारे रस्मोरिवाज इसके खयालात से दफा हो
जाएंगे..!"
"अरे बी, शब्बो तो अभी छोटी जान है, समझदारी आने पर सारे
इल्मे-दीन की मालुमात हो जाएगी..फिर इसे कोई काजी थोड़ी ही न बनना है...इसके लिए तो
यह अपना असगर ही काफी है..आजकल इसकी मदरसे में तालीम बढ़िया हो रही है...कुरान-शरीफ
तो जैसे इसे जुबानी याद है.." शबनम के अब्बा ने अपने सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते
हुए असगर की ओर इशारा करते हुए कहा था। असगर शबनम का ही हमउम्र फुफेरा भाई था। फूफी की ख्वाहिश असगर को
मदरसे में तालीम दिलवा कर आलिम बनाने की थी। उत्सुकता से असगर झुककर शबनम को
तिरंगा झंडा रंगते देख रहा था। अचानक शबनम को पता नहीं क्या सूझा..!..झण्डा
रंगते-रंगते असगर से बोल पड़ी,
"ऐ असगर तू अपनी यह टोपी
हमें पहना दे तो मैं तुझे एक तिरंगा झंडा दे दुँगी.."
"शबनम मुझे तेरा यह झण्डा नहीं
चाहिए.. और लड़कियाँ टोपी नहीं पहनती.. तू बड़ी होगी तो बुर्का पहनेगी.." यह
कहते हुए असगर वहाँ से अन्य लड़कों के साथ ले खेलने चला गया था।
फूफी वहाँ से जा चुकी थी और माहौल में
सन्नाटा पसर चुका था। अचानक माहौल में आए सन्नाटे को भाँपकर शबनम ने अब्बू की तरफ
देखा जो तिरंगा झंडा रंगते उसे ही देख रहे थे। उसने झट से एक झण्डा उठाया और उसे
लेकर अब्बा के पास पहुँच गई, बोली, "अब्बू
देखो वैसे ही बना है न.." शबनम ने दाहिने हाथ में झण्डा पकड़े हुए और बाएँ
हाथ में किताब लिए उसमें बने तिरंगे झण्डे की ओर इशारा करते हुए पूँछा था। उसके अब्बू
के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई थी, "शब्बो बेटी! हू-ब-हू वैसे ही.." शबनम के
सिर पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा था। शबनम खुश हो गई थी। तभी न जाने क्या सोचकर
उसने अब्बू से कहा, "अब्बू..!
मैं बुर्का नहीं पहनुँगी.." अब्बा शबनम की इस बात पर चौंक पड़े थे। लेकिन
अगले ही वक्त सँभलते हुए कहा,
"नहीं बेटा...ठीक है...मत पहनना..!" बाप-बेटी की इस बातचीत के
दौरान ही शबनम की अम्मी भी आ गई थी और उनके बीच की बातों को सुनकर शौहर से कहा, "देखो
शब्बो के अब्बू..आप इसे सिर पर चढ़ा लिए हो...इतना आजाद-खयाली ठीक नहीं..एक तो
लड़की जात है..और ऊपर से आप इसे सिर चढ़ाए दे रहे हो..." "अरे! बेगम..शब्बो
अभी बच्ची है, बहुत ही नाजुक खयालात हैं उसके..! उस पर कोई चोट नहीं लगनी चाहिए...आहिस्ता-आहिस्ता
उसको सारा इल्म हो जाएगा..अपनी शब्बो तो बहुत समझदार होगी..!" अब्बा ने अम्मी
को यही जबाव दिया था। इसके बाद दोनों अन्य बातों में मशगूल हो गए थे।
धीरे-धीरे वक्त बीता। शबनम
का निकाह एक एक लम्बे-चौड़े गोरे-चिट्टे खूबसूरत नौजवान से हो चुका था। जब शबनम की
शादी हुई थी तब तक वह ग्रेजुएट हो चुकी थी। और लड़का भी उस समय वरसियरी की पढ़ाई
कर रहा था, वो तो उस लड़के के वालिदान किसी काम से शबनम के अम्मी-अब्बू से मिलने
आए थे और वहीं शबनम को देखते ही निकाह की बात भी पक्की कर लिए थे। वैसे शबनम भी कम
खूबसूरत नहीं थी, उसकी इसी खूबसूरती के कारण ही जब वह हाईस्कूल में थी तभी से उसके
लिए रिश्तेदारियों से रिश्ते के प्रस्ताव आने लगे थे। यहाँ तक कि उसकी फूफी ने भी असगर
से उसके रिश्ते का प्रस्ताव रखा था, लेकिन अब्बू, असगर से उसका रिश्ता नहीं चाहते
थे और शबनम इस बात से अपने
अब्बू से बहुत खुश भी हुई थी। और सिराज को शौहर के रूप में पाकर शबनम बहुत खुश थी।
उन दोनों के निकाह के एक साल बाद ही सिराज सरकारी विभाग में वरसियर हो गया था।
शबनम को सिराज के सम्बन्ध में अब्बू का कहा एक-एक लफ्ज़ अब भी याद है, उस दिन
अब्बू पहली दफा सिराज से मिल कर आए थे और अम्मी से उसके बारे में चर्चा करते हुए
कह रहे थे, "बेगम..सिराज
बहुत नेक-दिल और इल्मे-दीन वाला लड़का है, देखना, एक दिन खुदा के फजल से उसे वरसियरी भी मिल जाएगी और अपनी
शब्बो उसके साथ बहुत खुश रहेगी..!" हाँ, यही वे लफ्ज़ थे जिसे शबनम ने तब
सुना था जब वह अब्बू को पानी देने जा रही थी, अब्बू के मुँह से सिराज का नाम सुनते
ही वह पर्दे की ओट में थोड़ा ठिठक पड़ी थी और अब्बू के कहे इन लफ्जों को उसने वहीं
सुन लिया था।
शबनम अपने शौहर के साथ ही उसके तैनाती स्थान के
एक छोटे से शहर में रहने लगी थी। शबनम की ख्वाहिशों और ऐशो-आराम को लेकर सिराज सदैव
फिक्रमंद रहता था और शबनम भी अपने शौहर पर मर मिटती थी, इधर सरकारी विभाग में
वरसियरी मिल जाने से ऊपरी आमदनी भी हो जा रही थी जिससे उनकी जिंदगी खुशहाल थी। लेकिन
उसकी इस खुशहाली में जैसे किसी की नजर लग गई जब एक दिन शबनम को अपने अब्बू के इस
दुनिया में न रहने की बात पता चली थी। अब्बू ही वह शख्स थे जो उसकी जेहनियत के
काफी करीब थे और उनके इंतकाल से जैसे भावनाओं की एक मजबूत जमीन उसके पैरों के नीचे
से खिसक गई थी, एक लमहे के लिए तो जैसे उसने अपने को बेसहारा महसूस कर लिया था। लेकिन
वालिद के गुजर जाने से बेहद गमगीन शबनम को शौहर सिराज ने सँभाला तथा भावनात्मक रूप
से भी बहुत साथ दिया था।
इधर अहिस्ता-अहिस्ता
कर इनके निकाह के तीन साल हो चुके थे, एक दिन सिराज की छोटी बहन ने शबनम से ऐसे ही
मजाक-मजाक में अब तक अपने फूफी न बन पाने का मलाल जाहिर करते हुए उससे कहा था, "भाभी अब
मुझे भी बुआ बनने का मौका दो.." और उन्हीं दिनों मिली खाला ने भी अभी तक उसकी
गोंद न भरने की चर्चा करते हुए उससे कहा था, "देख, शब्बो अब तुम्हारी गोंद भरनी चाहिए और बीवी-बच्चों से ही ये आदमी लोग
जिम्मेदार होते हैं..और फिर मर्दों का क्या भरोसा...कब तीन बार तलाक बोल दें..?"
तब शबनम ने इन बातों पर कोई ख़ास तवज्जों नहीं दिया था, लेकिन अब वह भी इस बारे में
गंभीरता से सोचने लगी थी, क्योंकि वैसे भी सिराज दिन भर अपने कामों में ही व्यस्त
रहता और घर में अकेले पड़े-पड़े वह ऊबने लगती थी। हालाँकि अब ये मियां-बीवी भी इस
बात पर सहमत थे कि घर में बच्चे की किलकारी गूँजनी चाहिए।
लेकिन धीरे-धीरे वक्त गुजर रहा
था। गाहे-बगाहे नाते-रिश्तेदारियों में औरतें शबनम से, अभी तक उसकी गोंद न भरने को
लेकर टोंका-टाकी करती रहती थी और शबनम भी गुजरते समय का एहसास कर थोड़ा चिन्तित हो
जाती। खासकर, अपने भरे-पूरे ससुराल की औरतों से उसे इस विषय में मजाक का भी सामना
करना पड़ता था। एक बार कुनबे की ही एक औरत जो रिश्ते में शबनम की ननद थी, यूँ ही मजाक-मजाक
में कहा था, "अरे
भाभीजान ऐसे कब तक चलेगा..? अब तो हम
फूफी बनने के लिए तरस रहे, वैसे भी
अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है..।" सुनकर शबनम केवल
मुस्कुराकर रह गई थी और उस ननद की बात "अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है"
का मतलब वह समझ नहीं पाई थी।
शबनम को तीन चार महीने बाद अपने
देवर के वलीमा में जाना पड़ा था, यहाँ जैसे चर्चा का केंन्द्रबिन्दु वही थी, इसका
एक कारण तो यही था कि सिराज की वरसियरी में इधर कमाई भी खूब बढ़ गई थी और दूसरे
उसके निकाह के लगभग चार साल होने को आए थे, लेकिन अभी तक माँ बनने का उसका नसीब
नहीं जागा था, हाँ, तब इन्हीं सब बातों को लेकर सिराज की एक ईर्ष्यालु फूफी, जो सिराज
की अम्मी यानी शबनम की सास से चर्चा में मशगूल थी, को शबनम ने कहते सुना था, “देखो
बीबी अब बहुत हो गया..बिना औलाद के घर सूना-सूना रहता है..फिर सिराज चाहे तो बिना
तलाक दिए भी तो दूसरा निकाह कर सकता है..उसके पास किस चीज की कमी है..? कम से कम
नाती-पोतों का सुख तो मिलेगा...नहीं तो दिन ऐसे ही गुजरता रहेगा..” सास से कही गई सिराज
की फूफी की ये बातें उसे बहुत नागवार महसूस हुई और इसी के साथ ननद की वह पुरानी बात,
"अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है" भी उसे गड्डमड्ड होती प्रतीत
हुई...! मतलब, “किसी बात की कमी न होना” क्या तलाक या सिराज के लिए दूसरी बीवी का
आधार बन सकता है..? शबनम का दिमाग भन्ना उठा तथा “तलाक..दूसरा निकाह..तलाक..दूसरा
निकाह” जैसे शब्द उसके मस्तिष्क को बेरहमी के साथ झिंझोड़ते गूँज उठे थे, सिराज
उससे दूर हो इसकी वह कल्पना ही नहीं कर सकती थी...थोड़ी देर बाद उसे सिरदर्द का
एहसास होने लगा था।
वे दोनों वापस आ गए थे तथा सिराज अपने
काम में व्यस्त हो गया था। शबनम अब
कुछ परेशान सी रहने लगी थी...जैसे वह एक अनजाने भय के साए में घिर गई थी...और उदास
सी रहने लगी..उसकी इसी उदासी को लक्षित करते हुए एक दिन सिराज ने अपने दोनों हाथ
उसके कन्धों पर रखते हुए उससे कहा भी था, “मेरे पास किस बात की कमी है जो तुम
गुम-सुम सी रहने लगी हो..? देखो शबनम औलाद की हमें भी चिंता है..मैंने तो अम्मी और
फूफी से भी कह दिया था..मैं औलाद के लिए दूसरा निकाह नहीं करूँगा..” और फिर “आफिस
को देर हो रही है” कहते हुए वह आफिस चला गया था। “तो अम्मी (सास) और फूफी ने
सिराज से भी यह सब कहा है..!” इसी के साथ ननद की उस पुरानी बात “अपने सिराज भाई के
पास किस बात की कमी है” के साथ ही खाला की वह बात “और फिर
मर्दों का क्या भरोसा..कब तीन बार तलाक बोल दें..?" बिजली के सामान शबनम के
दिमाग में कड़क उठी...पति के जाने के बाद कुछ क्षणों के लिए वह अपने दोनों हाथों से
सिर पकड़ कर जमीन पर ही बैठ गई थी, “ऊफ..! ये बातें कितनी तकलीफदेह हैं...? सब कुछ
इतना आसान है..?” शबनम को तेज सिरदर्द के साथ ही अपने आसपास का सब कुछ घूमता हुआ
महसूस हुआ था।
उस दिन श्रीमती जी को एक पुरानी बात याद आ गई थी। वह एक सामान्य
सी ही बात थी। श्रीमती जी ने उस पुरानी घटना को याद करते हुए मुझसे पूँछा था, "वो याद है न आपको...एक बार हमारे
घर पर हमसे मिलने आपके कार्यालय के एक जूनियर इंजीनियर परिवार सहित आए थे?" मैंने अपनी स्मृतियों को खंगाला
तो बोल उठा, "हाँ..हाँ याद आया.." श्रीमती जी ने इतना सुनते ही मुझसे फिर
पूँछा, "आजकल वो लोग कहाँ होंगे..? वैसे बेचारी उनकी पत्नी उस समय
मुझे कुछ चिन्तित और परेशान दिखाई दी थी, अरे हाँ..! आपने बताया था कि वे बीमार
थी..?" मैंने पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा, “हाँ, शायद एक बार काफी समय
बाद मिलने पर जे.ई. साहब ने हमें बताया था कि उन्होंने दिल्ली के एम्स में अपनी
पत्नी की बाईपास सर्जरी कराया था..लेकिन फिर भी बीमार ही रहती हैं..इसके बाद हमारी
उनसे कोई मुलाक़ात और बात भी नहीं हुई...पता नहीं वो लोग कहाँ और कैसे होंगे..?”
मैंने लम्बी श्वास भरते हुए पत्नी से बोला था।
फिर अचानक श्रीमती जी मुझसे बोली, “वह
बहुत भली और सीधी महिला थी, उनको उस समय तक कोई बच्चा नहीं हुआ था इसी बात से वह
बहुत चिंतित रहती थी...मुझसे उन्होंने काफी बात भी किया था” यह कह पत्नी चुप हो गई
तो मैंने पूँछा, “किस तरह की बातें हुई थी..?” पत्नी ने कहा, “हाँ उन्हें इस बात
की चिंता रहती थी कि कहीं उनके पति बच्चे के लिए दूसरा निकाह न कर लें या उन्हें
तलाक न दे दें..? क्योंकि उनके मजहब में मर्दों के लिए यह सब बहुत असान होता है और
उन्होंने हमसे यह भी कहा था कि आप सब को तलाक या शौहर के दूसरी शादी कर लेने का डर
नहीं रहता..आप सब का मजहब इस मामले में बहुत अच्छा है...!” फिर पत्नी ने अपनी बात
पूरी की, “वह बेचारी इसी चिंता में घुली जा रही थी।”
“क्या कोई मजहब भी किसी को चिंता में घुला
डालने का कारण बन सकता है..?” हाँ इस विचार के साथ ही मैंने एक गहरी सांस भरते हुए
पत्नी से कहा, “मुझे लगता है वह बेचारी इसी चिंता में ह्रदय रोग पाल बैठी थी” हम
दोनों चुप हो गए थे...और यकायक “शबनम” की यही कहानी मेरे दिमाग में कौंध गयी थी।
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