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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

फटके का ‘पियार’..!

         कभी-कभी मन प्रेम के बारे में सोचने लगता है...आखिर यह ‘प्रेम’ किस बला का नाम है..? आखिर यह मन की कौन सी अवस्था है जिसके कारण इतिहास में उलटफेर के साथ व्यक्ति की मनोवृत्तियों को भी इस भावना ने प्रभावित किया है...क्या प्रेम की भावना में अधिकार की भावना भी छिपी होती है...या...यह एक ऐसी भावना है..जिसमें प्रबल सह-अस्तित्व की भावना होती है..? मूलतः प्रेम की जब भी चर्चा होती है तो स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों को लेकर ही..
               एक दिन मैंने फटके से पूँछा, ‘क्यों फटके कभी किसी से प्रेम किया है..? पहले तो फटके हँसा फिर बोला, “क्या साहब..! आपको भी मजाक करने का सहूर नैं है..? हाँ फटके जब हँसा था तो आगे के टूटे दो दांत भी दिखाई दिए थे| “अरे फटके मैं मजाक थोड़ी न कर रहा हूँ..बस पूँछ रहा हूँ..” मैंने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा| “तो साहब, का हमहीं मिला रहे आपका की ऐसन सवाल करे बदे..?” अबकी बार फटके ने शांत भाव और नज़रों को नीची रखते हुए बोला था..ऐसा जैसे मुझसे कुछ छिपा रहा हो...खैर...मैंने फिर कहा, “क्यों तुमसे नहीं कर सकता..? क्या तुम इंसान नहीं हो..और तुम प्रेम नहीं कर सकते...?” “अरे नहीं साहब..! ऊ बात नहीं...ई प्रेम-व्रेम सब बड़कवन क काम हवै...हमन क त कुछ पते नें चला अबहूँ तक प्रेम का है...” इसे सुन मेरे मुस्कुराने की बारी थी..मैं फटके में दिलचस्पी लेने लगा था... “अरे कभी किसी को देखा हो और उससे शादी करने का मन हो गया हो, यही तो प्रेम है..!” मैंने हँसते हुए कहा..| “अरे साहब हम ठहरे मजूर-मनई..हमसे का जमोगवावई चाहत हया...साहब वियाह त हमार पहिले होई ग रहा त प्रेम कहाँ से होतई...अऊर साहब...एक बार मजूरी कर्ट रहे त..हाँ..तब..हमार वियाह नाहीं भवा रहा...उहै चौदह-पंद्रह की उमर रही होए...ऊ मजूरिन क और हमार...” यह बोलकर फटके न जाने क्यों चुप हो गया उसके चेहरे पर लाज की जैसे रेखाएं उभर आई.....उसकी चुप्पी मुझे खली क्योंकि फटके की बातों में मुझे मजा आ रहा था...मैंने बेसब्री के साथ पूँछा, “हाँ..हाँ..फटके...आगे क्या हुआ...बताओ भाई..!” “अरे साहब आप मजा ले रहे हैं...” फटके ने लजाते हुए से कहा..| जब मैंने फटके को विश्वास दिलाया कि नहीं ऐसा नहीं है यार..! तो वह फिर अपनी बात को आगे बढाते हुए बोला, “हाँ तो साहब हम फरुहा से पलड़ा में मिटटी भरि कै ओकरे सिर पर धरि देत रहे...इहीं बीच हम अउर ऊ दूनौ क निगाह एक-दूसरे से मिलि जाई...” हाँ, फटके लजाकर ही चुप हो गया था..मैंने फटके को फिर कुरेदा, “तुम पूरी बात नहीं बता रहे हो फटके..!” “अरे नहीं साहब छिपावै बदे कुछ नहीं है..हाँ साहब मुला ई बात हमका आजतक नाहीं भूलत..! फिर कभौं मुलाकातौ नाहीं भा...” अब फटके चुप हो चुका था..
          हमारे बीच के कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद फटके बोला, “अच्छा साहब, अब हम चलें..?” मैंने फटके के चेहरे पर नजर गड़ाते हुए पूँछा, “तुम्हारे दांत कैसे टूट गए..? बाकी तो बढियाँ हैं...इनकी दूसरे लगवा लो..जवान दिखोगे..पैसा न हो तो मैं तुम्हारी मदद कर दूँ!” अधेड़ावस्था के करीब पहुँच रहा फटके मेरी बात सुन मुस्कुराया और कहा, “नहीं साहब..! बात पैसे की नहीं है...” “फिर..?” मैंने उत्सुकता दर्शाते हुए पूंछा| “बात ये है साहब...पाहिले हम बहुत शराब पियत रहे...हम अपनी घरवाली से जबरदस्ती पैसा माँग-माँग ठेका पर जाई के पी आई...उहू क मजूरी छिनी कै..! फिर एक दिन हमार ऊ छोटा बचवा बहुत बीमार होई ग रहा...लेकिन हम पीयै से बाज नाहीं आये...बचवा का दवाई लावै बदे घरवाली जवन रुपिया दिये रही ओकर हम शराब पी के तीन घंटा बाद हम घरे पहुँचे..दवाई त लेहे नहीं रहे अउर ऊपर से नशे में..बस हमार गिरेबान झकझोरी के घरवाली दवाई के बारे में पूँछेसि त हम ओका ठेली दिहे..बस कुछ पूँछो न साहब..! बहुत जोर का मुक्का उसने मेरे मुँह पर मारा..!! हमार दाँतेइ टूटी गवा..और खून निकलि आई..हम मुँह पकड़ कै बैठ गए हमार हाथ खून से लाल..! हाँ साहब..ई देखि घरवाली घबडाई के परेशान...अउर रोवे...हमार नशा हिरन साहब..! पासइ में हमार बचवा झिंगोले में बुखार से तप रहा था..! कुछ देर बाद जब हमरे मुँह से खून बंद हुआ त उ दांत फेंकि के मुँह धोवा...तब तक घरवाली सुबकत रही...फिर हम ओसे जाई के बोले, ‘तू नाहक परेशान हो..हमार ई दांत पाहिले से हीलत रहा अब अच्छा हुआ..झंझट ख़तम....तब से साहब हम आजतक शराब नाहीं पिए..ई टूटा दांत सब याद दिला देत है...घरवाली एकबार जबरदस्ती से आपन महीना भर की कमाई दांत लगावै के लिए दिहेसि..हम ऊ पैसा ओकरे बेंक में जमा कई दिहे और ओसे बोले, ‘ई हमार-तोहार पियार आ..ई ऐसेइ रहे..’ बस साहब अब हम चलत हई..नाहीं त देरी पर घरवाली बिगड़े...” एक ही साँस में फटके ने सारी बात कह दिया था...अब वह जा चुका था...उससे मजा लेने के लिए मेरे पास कोई प्रश्न भी नहीं बचा था...

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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

शबनम

               शबनम नाजों से पली-बढ़ी अपने अब्बा की लाड़ली थी। हाँ, उसके अब्बा जिस मुहल्ले में रहते थे वह हिन्दू बाहुल्य मुहल्ला था। अकसर छोटी बच्ची शबनम हिन्दू औरतों को बड़े ध्यान से देखा करती थी और घर में वैसे ही कपड़े पहन स्वांग भी करती थी। शबनम को बिंदी बहुत पसंद थी, वह जब भी हिन्दू औरतों के माथे पर बिंदी देखती तो उसका भी मन बिन्दी लगाने का हो आता। ऐसे ही एक बार जब वह माथे पर बिंदी लगाए अपनी अम्मी को इसे दिखाते हुए पूँछा था, तब उसकी उम्र यही कोई दस-ग्यारह साल के लगभग रही होगी, "देख अम्मी कैसी लगती हूँ" यह सुन अम्मी तो केवल मुस्कुरा कर रह गई थी लेकिन वहीं पास में बैठी शबनम की खाला ने अपने हाथों से शबनम के माथे से बिंदी को हटाते हुए कहा था, "देख बी तूने शब्बो को बहुत चढ़़ा लिया है तनिक इसे अपने मजहब के कायदे सिखा दिया कर..! इसीलिए मैं न कहती थी, इसे मदरसे में तालीम दिलवा..! लेकिन तूने मेरी एक न सुनी और यह शब्बो, आज बिन्दी लगाए घूम रही है!" अम्मी ने तो खाला की इस बात को अनसुनी कर दिया था...हाँ, शबनम को बहुत बुरा लगा और वह खाला को रूवांसी हो घूरने लगी थी, उस समय शबनम को अम्मी की आवाज सुनाई दी थी, "अरे बड़ी बी, शब्बो अभी बच्ची है और फिर थोड़ा मुहल्ले का भी तो असर है, धीरे-धीरे यह भी अपने तौर-तरीके सीख जाएगी।"
         इन्हीं सब के बीच शबनम गाहे-बगाहे शीशे के सामने हिन्दू औरतों जैसा सज-धज घंटों शीशे के सामने खड़ी होकर रह-रह अदाएं बनाती और स्वयं को निहारती रहती। उस समय अम्मी तो उसे कुछ नहीं कहती, केवल उसकी ओर आँखें तरेर कर देखभर लिया करती थी, लेकिन शबनम अम्मी की नाराजगी समझ जाती और अपनी चूड़ी, बिन्दी निकाल कर धर देती। अकसर ऐसा वह अम्मी के कमरे में ही घर के बड़ों की नज़रों से बच कर करती, खासकर फूफी से उसे अधिक डर लगता। हाँ, अब्बा से इन बातों के लिए उसे कोई भय नहीं था। संयोग से एक बार उसकी फूफी ने बिन्दी लगाए उसे देखा तो उसकी अम्मी के साथ उसे भी भला-बुरा कहने लगी थी, उसी समय उसके अब्बा भी आ गए थे, तब अब्बा ने भी फूफी को टोकते हुए कहा था, "काहे इस नन्हीं जान पर इतना नाराज हो रही हो बी, ऐसी टोकाटाकी से बच्चे दब जाते हैं...सयानें में सब समझ जाएगी।" इसी तरह एक बार अम्मी और फूफी में किसी बात पर थोड़ी खींच-तान हो गई थी, उस दिन वह अम्मी के कमरे में बिन्दी लगाए शीशे के सामने अपनी अदाओं के साथ खेल रही थी कि फूफी की नजर उस पर पड़ गई, फूफी ने अम्मी से लड़ाई की सारी खीझ उसी पर उतार दी थी, "अरे देख तो..अब इस घर में ऊसूलों और तहजीब की तो कोई बात ही नहीं करता और एक ये अपने अब्बा की लाड़ली..! बिन्दी-चूड़ी पहने हिन्दुआनी ही बनने पर उतारू है।" फूफी की इस बात से शबनम सहम सी गई थी क्योंकि फूफी के 'हिन्दुआनी' कहने में उसे नफरत का एहसास हुआ था, फिर कई दिनों तक शबनम अपने बिन्दी वाले खेल से दूर ही रही थी।
          इस घटना को बीते हुए कुछ दिन हो चुके थे लेकिन शबनम के दिलो-दिमाग में फूफी का कहा "हिन्दुआनी" लफ्ज़ अभी तक गूँज ही रहा था। ऐसे ही एक दिन अब्बा नमाज अता कर आराम फरमा रहे थे तभी शबनम उनके पास पहुँची थी और अब्बा के सफेद लम्बी डाढ़ी से खेलते हुए बहुत ही मासूमियत से पूँछा था, "अब्बू बिन्दी...लगाने से हम हिन्दुआनी हो जाएंगे? बिन्दी लगाना खराब बात है..?" अब्बू के मुँह से अचानक निकला था, "नहीं तो..! यह किसने कह दिया?" "फूफी" शबनम ने यही बताया था। एक क्षण के लिए शबनम के अब्बा को कुछ समझ में ही नहीं आया कि वह शबनम को क्या उत्तर दें। "बताओ न अब्बू" फिर से शबनम की यह आवाज कानों में पड़़ते ही वह कह पड़े थे, "मेरी शब्बो बिटिया, देख मेरे डाढ़ी है न, और तेरे चाचू को?" "नहीं" शबनम ने सिर हिलाया। "और तेरे भाई को? वह भी तो डाढ़ी नहीं रखता...यह अपनी वाली टोपी भी नहीं लगाता..! तो क्या वह मुसलमान नहीं है? बेटा..! वैसे तुम भी बिन्दी लगा लेने से हिन्दुआनी नहीं हो जाओगी, जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो..खराब लगे उसे न करो..हाँ, जिस बात से नुकसान पहुँचे वही बात खराब होती है।" और अब्बू ने शबनम के सिर पर हाथ फेरा। अब्बू की इन बातों को सुन शबनम खुशी से उछलते हुए खेलने चली गई थी।
           उस दिन शबनम ने अब्बू से रंगों का बक्सा और साथ में सफेद कागज का रोल खरीद कर लाने के लिए कहा था। अब्बू अपनी शब्बो की कोई बात नहीं टालते थे। शाम को शबनम की बताई हुई सारी चीजें हाजिर थी। दूसरे दिन सुबह से ही शबनम व्यस्त थी, उसके आस-पास रंगों के साथ ही लाल-हरे रंग में रंगे हुए कागज भी इधर-उधर बिखरे पड़े थे, और शबनम ऐसे ही कागजों को रंगे जा रही थी। इस समय शबनम चार-पाँच बच्चे से भी घिरी हुई थी और वे सभी कौतूहल से कागजों को रंगते हुए उसे ही देखे जा रहे थे। उस वक्त शबनम की खाला और फूफी भी निकल आई थी, दोनों ने शबनम को अपने काम में व्यस्त देखा तो फूफी ने कहा, "अरे शबनम, तुम इन रंगों से क्या कर रही हो?" "कुछ नहीं फूफी...बस झंडा बना रही हूँ.." कागजों को रंगने में मशगूल शबनम ने फूफी की ओर बिना देखे ही कहा था। "अरे कौन सा झंडा बना रही हो जो इतने रंग रोगन फैलाए बैठी हो?" फूफी ने फिर पूँछा था। "तिरंगा झंडा..! कल पन्द्रह अगस्त है न, झण्डे को स्कूल ले जाना है।" शबनम वैसे ही फूफी को बिना देखे जबाव दिया। "तुम्हारे स्कूल वालों ने तुम्ही को झण्डा बनाने का ठेका दे दिया है क्या जो सबेरे से ही व्यस्त हो..? देखो..ये भी तो पढ़ने जाते हैं..!" फूफी ने अन्य बच्चों की तरफ इशारा करते हुए थोड़े तल्ख़ सी आवाज में कहा था। "नहीं ये हमारे स्कूल में नहीं पढ़ते.."  शबनम वैसे ही अपने काम में जुटे हुए बोली थी।
         इसके बाद फूफी ने शबनम के अब्बा की ओर मुखातिब होते हुए कहना शुरू किया था, "अरे भाईजान..! अपने इस शबनम को कुछ दीनियाती तालीम भी दिला दीजिए नहीं तो मजहब के सारे रस्मोरिवाज इसके खयालात से दफा हो जाएंगे..!"
         "अरे बी, शब्बो तो अभी छोटी जान है, समझदारी आने पर सारे इल्मे-दीन की मालुमात हो जाएगी..फिर इसे कोई काजी थोड़ी ही न बनना है...इसके लिए तो यह अपना असगर ही काफी है..आजकल इसकी मदरसे में तालीम बढ़िया हो रही है...कुरान-शरीफ तो जैसे इसे जुबानी याद है.." शबनम के अब्बा ने अपने सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए असगर की ओर इशारा करते हुए कहा था। असगर शबनम का ही हमउम्र फुफेरा भाई था। फूफी की ख्वाहिश असगर को मदरसे में तालीम दिलवा कर आलिम बनाने की थी। उत्सुकता से असगर झुककर शबनम को तिरंगा झंडा रंगते देख रहा था। अचानक शबनम को पता नहीं क्या सूझा..!..झण्डा रंगते-रंगते असगर से बोल पड़ी,
         "ऐ असगर तू अपनी यह टोपी हमें पहना दे तो मैं तुझे एक तिरंगा झंडा दे दुँगी.."
         "शबनम मुझे तेरा यह झण्डा नहीं चाहिए.. और लड़कियाँ टोपी नहीं पहनती.. तू बड़ी होगी तो बुर्का पहनेगी.." यह कहते हुए असगर वहाँ से अन्य लड़कों के साथ ले खेलने चला गया था।
         फूफी वहाँ से जा चुकी थी और माहौल में सन्नाटा पसर चुका था। अचानक माहौल में आए सन्नाटे को भाँपकर शबनम ने अब्बू की तरफ देखा जो तिरंगा झंडा रंगते उसे ही देख रहे थे। उसने झट से एक झण्डा उठाया और उसे लेकर अब्बा के पास पहुँच गई, बोली, "अब्बू देखो वैसे ही बना है न.." शबनम ने दाहिने हाथ में झण्डा पकड़े हुए और बाएँ हाथ में किताब लिए उसमें बने तिरंगे झण्डे की ओर इशारा करते हुए पूँछा था। उसके अब्बू के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई थी, "शब्बो बेटी! हू-ब-हू वैसे ही.." शबनम के सिर पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा था। शबनम खुश हो गई थी। तभी न जाने क्या सोचकर उसने अब्बू से कहा, "अब्बू..! मैं बुर्का नहीं पहनुँगी.." अब्बा शबनम की इस बात पर चौंक पड़े थे। लेकिन अगले ही वक्त सँभलते हुए कहा, "नहीं बेटा...ठीक है...मत पहनना..!" बाप-बेटी की इस बातचीत के दौरान ही शबनम की अम्मी भी आ गई थी और उनके बीच की बातों को सुनकर शौहर से कहा, "देखो शब्बो के अब्बू..आप इसे सिर पर चढ़ा लिए हो...इतना आजाद-खयाली ठीक नहीं..एक तो लड़की जात है..और ऊपर से आप इसे सिर चढ़ाए दे रहे हो..."  "अरे! बेगम..शब्बो अभी बच्ची है, बहुत ही नाजुक खयालात हैं उसके..! उस पर कोई चोट नहीं लगनी चाहिए...आहिस्ता-आहिस्ता उसको सारा इल्म हो जाएगा..अपनी शब्बो तो बहुत समझदार होगी..!" अब्बा ने अम्मी को यही जबाव दिया था। इसके बाद दोनों अन्य बातों में मशगूल हो गए थे।
             धीरे-धीरे वक्त बीता। शबनम का निकाह एक एक लम्बे-चौड़े गोरे-चिट्टे खूबसूरत नौजवान से हो चुका था। जब शबनम की शादी हुई थी तब तक वह ग्रेजुएट हो चुकी थी। और लड़का भी उस समय वरसियरी की पढ़ाई कर रहा था, वो तो उस लड़के के वालिदान किसी काम से शबनम के अम्मी-अब्बू से मिलने आए थे और वहीं शबनम को देखते ही निकाह की बात भी पक्की कर लिए थे। वैसे शबनम भी कम खूबसूरत नहीं थी, उसकी इसी खूबसूरती के कारण ही जब वह हाईस्कूल में थी तभी से उसके लिए रिश्तेदारियों से रिश्ते के प्रस्ताव आने लगे थे। यहाँ तक कि उसकी फूफी ने भी असगर से उसके रिश्ते का प्रस्ताव रखा था, लेकिन अब्बू, असगर से उसका रिश्ता नहीं चाहते थे और शबनम इस बात से अपने अब्बू से बहुत खुश भी हुई थी। और सिराज को शौहर के रूप में पाकर शबनम बहुत खुश थी। उन दोनों के निकाह के एक साल बाद ही सिराज सरकारी विभाग में वरसियर हो गया था। शबनम को सिराज के सम्बन्ध में अब्बू का कहा एक-एक लफ्ज़ अब भी याद है, उस दिन अब्बू पहली दफा सिराज से मिल कर आए थे और अम्मी से उसके बारे में चर्चा करते हुए कह रहे थे, "बेगम..सिराज बहुत नेक-दिल और इल्मे-दीन वाला लड़का है, देखना, एक दिन खुदा के फजल से उसे वरसियरी भी मिल जाएगी और अपनी शब्बो उसके साथ बहुत खुश रहेगी..!" हाँ, यही वे लफ्ज़ थे जिसे शबनम ने तब सुना था जब वह अब्बू को पानी देने जा रही थी, अब्बू के मुँह से सिराज का नाम सुनते ही वह पर्दे की ओट में थोड़ा ठिठक पड़ी थी और अब्बू के कहे इन लफ्जों को उसने वहीं सुन लिया था।
           शबनम अपने शौहर के साथ ही उसके तैनाती स्थान के एक छोटे से शहर में रहने लगी थी। शबनम की ख्वाहिशों और ऐशो-आराम को लेकर सिराज सदैव फिक्रमंद रहता था और शबनम भी अपने शौहर पर मर मिटती थी, इधर सरकारी विभाग में वरसियरी मिल जाने से ऊपरी आमदनी भी हो जा रही थी जिससे उनकी जिंदगी खुशहाल थी। लेकिन उसकी इस खुशहाली में जैसे किसी की नजर लग गई जब एक दिन शबनम को अपने अब्बू के इस दुनिया में न रहने की बात पता चली थी। अब्बू ही वह शख्स थे जो उसकी जेहनियत के काफी करीब थे और उनके इंतकाल से जैसे भावनाओं की एक मजबूत जमीन उसके पैरों के नीचे से खिसक गई थी, एक लमहे के लिए तो जैसे उसने अपने को बेसहारा महसूस कर लिया था। लेकिन वालिद के गुजर जाने से बेहद गमगीन शबनम को शौहर सिराज ने सँभाला तथा भावनात्मक रूप से भी बहुत साथ दिया था।
                इधर अहिस्ता-अहिस्ता कर इनके निकाह के तीन साल हो चुके थे, एक दिन सिराज की छोटी बहन ने शबनम से ऐसे ही मजाक-मजाक में अब तक अपने फूफी न बन पाने का मलाल जाहिर करते हुए उससे कहा था, "भाभी अब मुझे भी बुआ बनने का मौका दो.." और उन्हीं दिनों मिली खाला ने भी अभी तक उसकी गोंद न भरने की चर्चा करते हुए उससे कहा था, "देख, शब्बो अब तुम्हारी गोंद भरनी चाहिए और बीवी-बच्चों से ही ये आदमी लोग जिम्मेदार होते हैं..और फिर मर्दों का क्या भरोसा...कब तीन बार तलाक बोल दें..?" तब शबनम ने इन बातों पर कोई ख़ास तवज्जों नहीं दिया था, लेकिन अब वह भी इस बारे में गंभीरता से सोचने लगी थी, क्योंकि वैसे भी सिराज दिन भर अपने कामों में ही व्यस्त रहता और घर में अकेले पड़े-पड़े वह ऊबने लगती थी। हालाँकि अब ये मियां-बीवी भी इस बात पर सहमत थे कि घर में बच्चे की किलकारी गूँजनी चाहिए।
            लेकिन धीरे-धीरे वक्त गुजर रहा था। गाहे-बगाहे नाते-रिश्तेदारियों में औरतें शबनम से, अभी तक उसकी गोंद न भरने को लेकर टोंका-टाकी करती रहती थी और शबनम भी गुजरते समय का एहसास कर थोड़ा चिन्तित हो जाती। खासकर, अपने भरे-पूरे ससुराल की औरतों से उसे इस विषय में मजाक का भी सामना करना पड़ता था। एक बार कुनबे की ही एक औरत जो रिश्ते में शबनम की ननद थी, यूँ ही मजाक-मजाक में कहा था, "अरे भाभीजान ऐसे कब तक चलेगा..? अब तो हम फूफी बनने के लिए तरस रहे, वैसे भी अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है..।" सुनकर शबनम केवल मुस्कुराकर रह गई थी और उस ननद की बात "अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है" का मतलब वह समझ नहीं पाई थी
        शबनम को तीन चार महीने बाद अपने देवर के वलीमा में जाना पड़ा था, यहाँ जैसे चर्चा का केंन्द्रबिन्दु वही थी, इसका एक कारण तो यही था कि सिराज की वरसियरी में इधर कमाई भी खूब बढ़ गई थी और दूसरे उसके निकाह के लगभग चार साल होने को आए थे, लेकिन अभी तक माँ बनने का उसका नसीब नहीं जागा था, हाँ, तब इन्हीं सब बातों को लेकर सिराज की एक ईर्ष्यालु फूफी, जो सिराज की अम्मी यानी शबनम की सास से चर्चा में मशगूल थी, को शबनम ने कहते सुना था, “देखो बीबी अब बहुत हो गया..बिना औलाद के घर सूना-सूना रहता है..फिर सिराज चाहे तो बिना तलाक दिए भी तो दूसरा निकाह कर सकता है..उसके पास किस चीज की कमी है..? कम से कम नाती-पोतों का सुख तो मिलेगा...नहीं तो दिन ऐसे ही गुजरता रहेगा..” सास से कही गई सिराज की फूफी की ये बातें उसे बहुत नागवार महसूस हुई और इसी के साथ ननद की वह पुरानी बात, "अपने सिराज भाई के पास कोई कमी नहीं है" भी उसे गड्डमड्ड होती प्रतीत हुई...! मतलब, “किसी बात की कमी न होना” क्या तलाक या सिराज के लिए दूसरी बीवी का आधार बन सकता है..? शबनम का दिमाग भन्ना उठा तथा “तलाक..दूसरा निकाह..तलाक..दूसरा निकाह” जैसे शब्द उसके मस्तिष्क को बेरहमी के साथ झिंझोड़ते गूँज उठे थे, सिराज उससे दूर हो इसकी वह कल्पना ही नहीं कर सकती थी...थोड़ी देर बाद उसे सिरदर्द का एहसास होने लगा था।

        वे दोनों वापस आ गए थे तथा सिराज अपने काम में व्यस्त हो गया था। शबनम अब कुछ परेशान सी रहने लगी थी...जैसे वह एक अनजाने भय के साए में घिर गई थी...और उदास सी रहने लगी..उसकी इसी उदासी को लक्षित करते हुए एक दिन सिराज ने अपने दोनों हाथ उसके कन्धों पर रखते हुए उससे कहा भी था, “मेरे पास किस बात की कमी है जो तुम गुम-सुम सी रहने लगी हो..? देखो शबनम औलाद की हमें भी चिंता है..मैंने तो अम्मी और फूफी से भी कह दिया था..मैं औलाद के लिए दूसरा निकाह नहीं करूँगा..” और फिर “आफिस को देर हो रही है” कहते हुए वह आफिस चला गया था “तो अम्मी (सास) और फूफी ने सिराज से भी यह सब कहा है..!” इसी के साथ ननद की उस पुरानी बात “अपने सिराज भाई के पास किस बात की कमी है” के साथ ही खाला की वह बात “और फिर मर्दों का क्या भरोसा..कब तीन बार तलाक बोल दें..?" बिजली के सामान शबनम के दिमाग में कड़क उठी...पति के जाने के बाद कुछ क्षणों के लिए वह अपने दोनों हाथों से सिर पकड़ कर जमीन पर ही बैठ गई थी, “ऊफ..! ये बातें कितनी तकलीफदेह हैं...? सब कुछ इतना आसान है..?” शबनम को तेज सिरदर्द के साथ ही अपने आसपास का सब कुछ घूमता हुआ महसूस हुआ था।

          उस दिन श्रीमती जी को एक पुरानी बात याद आ गई थी। वह एक सामान्य सी ही बात थी। श्रीमती जी ने उस पुरानी घटना को याद करते हुए मुझसे पूँछा था, "वो याद है न आपको...एक बार हमारे घर पर हमसे मिलने आपके कार्यालय के एक जूनियर इंजीनियर परिवार सहित आए थे?" मैंने अपनी स्मृतियों को खंगाला तो बोल उठा, "हाँ..हाँ याद आया.." श्रीमती जी ने इतना सुनते ही मुझसे फिर पूँछा, "आजकल वो लोग कहाँ होंगे..? वैसे बेचारी उनकी पत्नी उस समय मुझे कुछ चिन्तित और परेशान दिखाई दी थी, अरे हाँ..! आपने बताया था कि वे बीमार थी..?" मैंने पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा, “हाँ, शायद एक बार काफी समय बाद मिलने पर जे.ई. साहब ने हमें बताया था कि उन्होंने दिल्ली के एम्स में अपनी पत्नी की बाईपास सर्जरी कराया था..लेकिन फिर भी बीमार ही रहती हैं..इसके बाद हमारी उनसे कोई मुलाक़ात और बात भी नहीं हुई...पता नहीं वो लोग कहाँ और कैसे होंगे..?” मैंने लम्बी श्वास भरते हुए पत्नी से बोला था।
          फिर अचानक श्रीमती जी मुझसे बोली, “वह बहुत भली और सीधी महिला थी, उनको उस समय तक कोई बच्चा नहीं हुआ था इसी बात से वह बहुत चिंतित रहती थी...मुझसे उन्होंने काफी बात भी किया था” यह कह पत्नी चुप हो गई तो मैंने पूँछा, “किस तरह की बातें हुई थी..?” पत्नी ने कहा, “हाँ उन्हें इस बात की चिंता रहती थी कि कहीं उनके पति बच्चे के लिए दूसरा निकाह न कर लें या उन्हें तलाक न दे दें..? क्योंकि उनके मजहब में मर्दों के लिए यह सब बहुत असान होता है और उन्होंने हमसे यह भी कहा था कि आप सब को तलाक या शौहर के दूसरी शादी कर लेने का डर नहीं रहता..आप सब का मजहब इस मामले में बहुत अच्छा है...!” फिर पत्नी ने अपनी बात पूरी की, “वह बेचारी इसी चिंता में घुली जा रही थी।”
         “क्या कोई मजहब भी किसी को चिंता में घुला डालने का कारण बन सकता है..?” हाँ इस विचार के साथ ही मैंने एक गहरी सांस भरते हुए पत्नी से कहा, “मुझे लगता है वह बेचारी इसी चिंता में ह्रदय रोग पाल बैठी थी” हम दोनों चुप हो गए थे...और यकायक “शबनम” की यही कहानी मेरे दिमाग में कौंध गयी थी               
                            -------------------------------विनय      

रविवार, 10 अप्रैल 2016

हिन्दू धर्म का “रैपर” दुनिया के सभी धर्मों के रैपरों से अधिक “इकोफ्रेंडली” होता है..

         वैसे देखा जाए तो दुनियाँ के सारे धर्मों की भाषा एक है! भाषा माने उद्देश्य..| मतलब दुनिया के सभी धर्म एक ही उद्देश्य की बात करते हैं; घूम-फिर-कर लोक-परलोक तक की चर्या के लिए समान अचार-व्यवहार की ही चर्चा करते हैं| अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक सामान है तो फिर विभिन्न धर्मों के बीच विवाद की जड़ कहाँ से आई?
          असल में तीन दिनों का अवकाश यानी एक तरह से खाली समय मुझे मिला है...आज मेरे साथ रहने वाले ‘रामकिशोर’ और ‘देवपाल’ ने तय किया कि यहीं महोबा में ही कलेक्ट्रट के बगल में ‘गोरखगिरी’ पहाड़ पर चलना है, वहाँ पहाड़ पर कोई छोटी-मोटी गुफा और शंकर भगवान् का एक छोटा सा मंदिर भी है...यहाँ के लोग मानते हैं कि ‘गुरु गोरखनाथ’ ने इसी पर्वत की गुफा में कई वर्षों (बारह वर्ष) तक तपस्या भी किया था, इसी कारण इस पर्वत का नाम ‘गोरखगिरी’ पड़ा है...हाँ तो उन दोनों ने ‘राजू’ अर्थात मेरे ड्राइवर साहब को भी बुला लिया था...साथ में यह भी तय हुआ कि वहीँ पहाड़ पर चलकर कुछ खाया-पिया जाएगा..मतलब खाने-पीने का सामान भी साथ लेकर चलना है...
         हम सभी घर से निकल पड़े थे ‘गोरखगिरी पर्वत’ मेरे आवास से बमुश्किल पाँच-छः किलोमीटर की दूरी पर या कहें महोबा नगर के दूसरे छोर पर स्थित है...रामकिशोर ने रास्ते में पड़ने वाले तिवारी लोगों के एक मुहल्ले की गली में ड्राइवर से गाड़ी मोड़ने के लिए कहा..हम गली में घूम कर एक घर के सामने रुके..शायद रामकिशोर जिन ‘तिवारी जी’ से मुझे मिलवाना चाहता था यह घर उन्हीं का था...तिवारी जी घर से निकले और हमारा परस्पर अभिवादन हुआ, फिर वे हमें अपने बैठक-कक्ष में ले गए..इसके पहले देवपाल और रामकिशोर दोनों ने इस परिवार का गुणगान मुझसे किया हुआ था, जैसे- महोबा नगर का आधा हिस्सा ही इनकी जमीन पर बसा हुआ है...पढ़ा-लिखा परिवार है तथा इनके परिवार में विधायक भी हुए हैं...आदि-आदि, तिवारी जी ने हमें अपने खानदान के लोगों के घर भी दिखाते हुए कहा कि सब एक ही परिवार से निकले हैं, और आपस में कोई विवाद भी नहीं है..और अपना पुश्तैनी घर भी दिखाया जो बहुत मोटी दीवारों वाला है, इसमें अलग-अलग दिशाओं में चार दरवाजे भी हैं जो किसी पुरानी हवेली के दरवाजों के अवशेष जैसे दिखते हैं...एक दाऊ तिवारी हैं, जो इसी परिवार के हैं, वे महोबा के सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, सामजिक या राष्ट्रीय कार्यक्रमों जैसे, पल्स पोलियो अभियान, स्वतंत्रता दिवस आदि के लिए जिलाधिकारी महोबा द्वारा आयोजित बैठकों में वे अवश्य सम्मिलित होते हैं, और बढ़-चढ़कर अपना योगदान भी देते हैं....तिवारी जी ने श्री दाऊ तिवारी का भी घर दिखाया इसके बाद हमने तिवारी जी (श्री ओमप्रकाश तिवारी) के घर पर उनके ही घर का बना शुद्ध खोये का पेड़ा खाया और नमकीन के साथ बढ़िया चाय भी पिया, फिर तिवारी जी भी हमारे साथ ‘गोरखगिरी’ के लिए हो लिए...
         कुछ ही मिनटों में हम ‘गोरखगिरी’ पहाड़ के किनारे पहुँच गए थे...यह पहाड़ हिमालय जैसा ऊँचा तो है नहीं कि पहाड़ की तलहटी में पहुँचने की बात लिखें, फिर भी इतना ऊँचा तो है ही कि सीधी चढ़ाई चढ़ें तो सांस फूलने लगे (ऊँचाई के कारण नहीं चढ़ने की थकावट के कारण)...हमारे ड्राइवर ने गाड़ी थोड़ी ऊँचाई पर ले जाकर ‘शिव-तांडव’ के पास रोकी.. ‘शिव-तांडव’ इस पहाड़ के एक बड़े से पत्थर या कहें खड़ी चट्टान पर ‘तांडव-नृत्य’ की मुद्रा में लगभग पंद्रह फीट ऊँची तराशी गई मूर्ति वाले स्थान को कहते हैं...’ हमने ‘शिव-तांडव’ के दर्शन किए, साथ में तिवारी जी ने बताया कि एक बड़े से पत्थर पर एक ऊभरी हुई आकृति को ही तराश कर इस मूर्ति को आकार दिया गया है...मैंने ध्यान से इस मूर्ति को देखा; मेरे समझ में नहीं आया कि गढ़ने वाले ने इसे भगवान् शंकर का रूप दिया है या मुण्डमाला धारण किये हुए काली माता का..? लेकिन सब ‘शिव-तांडव की मूर्ति कहते हैं, इसलिए हमने भी भगवान् शंकर की मूर्ति मान पुष्प अर्पित करते हुए प्रणाम किया| (चलते समय रामकिशोर ने कुछ गुलाब के फूल रख लिए थे)....
        ‘शिव-तांडव’ के पीछे से ढलानदार रास्ते से इस पहाड़ पर चढ़ना था जहाँ वह गुफा और मंदिर था..हम लोग तेज धूप में महोबा वाली पड रही गर्मी में धीरे-धीरे पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित उस गुफा की ओर चढ़ाई वाले रास्ते पर चल रहे थे..सबसे आगे देवपाल हाथ में झोला और पानी की बाल्टी (थर्मस वाली) लिए हुए, उसके पीछे तिवारी जी, फिर मैं और मेरे पीछे रामकिशोर तथा उसके पीछे ड्राइवर राजू...जिस पहाड़ पर हम चढ़ रहे थे उसके बगल में एक और पहाड़ था थोड़ी ऊंचाई पर जाने पर दोनों पहाड़ों के बीच नदी जैसी स्थिति दिखाई दी तिवारी जी ने इसे दिखाते हुए मुझे बताया कि पहले इतनी वर्षा होती थी कि इन पहाड़ों से झरने फूटते रहते थे और इस नाले से सदैव पानी बहता रहता था और फूटते झरनों की आवाजें सुनकर ऐसा लगता था जैसे हम किसी संगीतमय ध्वनियों के बीच में खड़े हों, बचपन में हम यहाँ आकर नहाते थे...इस चिलचिलाती धूप और गर्मी तथा आसपास के पत्ती विहीन छोटे-छोटे पेड़ तथा झाड़ियों को देखते हुए उनकी बातें मुझे स्वप्न सरीखी प्रतीत हुयी, खैर..
        मेरे आगे-आगे चल रहे तिवारी जी ने बताया कि ‘पहले यहाँ तेंदुए और अन्य जंगली जानवर भी विचरण करते थे’ और एक नई जानकारी से परिचित कराते हुए कहा- “अमर शहीद स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद भी इस पहाड़ी की गुफाओं में आकर छिपे थे तथा पिता जी रात के अँधेरे में एक टार्च और लाठी के सहारे उनको यहाँ खाना देने आते थे...जहाँ कुछ और स्वतंत्रता सेनानी भी होते थे...मेरे पिता भी स्वतंत्रता सेनानी थे|” इस नई जानकारी के साथ मैं इस स्थान से अभिभूत था...
        इस चढ़ाई वाले रास्ते पर ग्रेनाईट के बड़े-बड़े चट्टानों के बीच छोटे-छोटे मैदान भी थे जिसपर पेड़ और झाड़ियाँ थी, “निश्चित ही बरसात में यह स्थान काफी हरा-भरा हो जाता होगा” मैंने सोचा| इस पहाड़ पर चढ़ते हुए तिवारी जी ने अपनी उम्र के बारे में बताया कि वह ‘उन्सठ वर्ष (59) के हैं’...कहने का आशय यही था कि इस उम्र में भी वह एक युवा जैसी क्षमता के साथ इस पहाड़ पर चढ़ रहे थे...इसके साथ ही उनके चेहरे पर मुझे थकान का भी कोई चिह्न नहीं दिखाई दिया...मैंने उन्हें बताया कि मैं आप से दस-इग्यारह साल छोटा हूँ (शायद मेरे कहने का आशय यह था कि मैं तो थकने लगा हूँ)
       इस प्रकार ‘शिव-तांडव’ से लगभग चार सौ मीटर की दूरी तय करते हुए पहाड़ की उंचाई पर मंदिर वाले स्थान पर पहुँच गए थे..मंदिर क्या था बस एक बड़े से पत्थर की चट्टान पर टिके एक अन्य विशालकाय पत्थर के बाहर निकले हुए कुछ भाग के नीचे वाला स्थान, हाँ, उसी स्थान को ही मंदिर कहा जाता है...यहाँ किसी मूर्ति का दर्शन नहीं हुआ बल्कि आधार वाले बड़े पत्थर की दीवाल को ही गाढ़े गेरुए रंग से रंगा गया था और उसपर दो चमकती आँखें लगाईं गई थी..मैंने ध्यान से देखा नीचे पत्त्थर की चौकी पर ‘जय भोले बाबा लिखा’ था...निश्चित रूप से वहाँ कोई मूर्ति नहीं थी फिर भी न जाने क्यों हिन्दुओं को ‘मूर्ति-पूजक’ कहकर चिढाया जाता है! ये बेचारे पत्थर में भी जीवन देखते हैं, इसीलिए उसे भी पूजते हैं..धर्म का प्रकृति से ऐसा तादात्म्य...!! (उसके सामने बैठे-बैठे मैं यही सोच रहा था)..मन श्रद्धा से भर गया...फिर रामकिशोर के दिए गुलाब के फूलों को मैंने वहाँ चढ़ाया...इसके बाद उन बड़ी सी चट्टानों की परिक्रमा की..परिक्रमा करते हुए रामकिशोर ने हमें बताया कि ‘साहब उपाध्याय जी जिला विकास अधिकारी थे उन्होंने ही अपने व्यक्तिगत प्रयासों से इस परिक्रमा मार्ग को बनवाया था..मैंने मन ही मन श्री आर. पी. उपाध्याय जी, तत्कालीन जिलाविकास अधिकारी महोबा, जो बेहद धार्मिक प्रकृति के हैं, को धन्यवाद दिया, अन्यथा चट्टानों के बीच से इस स्थान की परिक्रमा करना बहुत दुष्कर होता...
        इसके बाद आपस में टिके बड़े-बड़े दो पत्थरों के नीचे बैठकर सुस्ताते हुए सब ने रामकिशोर के लाये हुए पकौड़ी खाए फिर देवपाल ने हमें पानी पिलाया...तिवारी जी ने बताया कि ‘यादव-संघ’ इस मंदिर और इस स्थान की देखभाल करता है...तभी हमसे पहले से वहाँ उपस्थित दो व्यक्तियों में से एक ने बताया कि “इधर तो कई वर्षों से तो बारिश ही नहीं हो रही है अन्यथा यह स्थान काफी रमणीक और हरा-भरा रहता है..पहले यहाँ ऊपर भी कभी पानी नहीं सूखता था और पत्थरों से पानी झरता रहता था लेकिन अब नीचे से पानी लाना पड़ता है...यहाँ के पेड़ पौधे और झाड़ियों से लोग लकड़ी भी तोड़कर ले जाते है..सूखी लकड़ी तो ठीक है लेकिन हरी टहनियों को भी तोड़ ले जाते हैं, मना करो तो अफसरों से शिकायत करते हैं, और अफसर बोलते हैं कि नाहक ही मना करते हो...हाँ वे भी गरीब ही हैं गैस पर कहाँ खाना बना पायेंगे? यही सोचकर लकडियाँ तोड़ने से अब हम भी मना नहीं करते...” मैंने उस व्यक्ति से उसका नाम भी पूँछा, तो उसने अपना सरनेम ‘यादव’ बताया जो प्रतिदिन इस स्थान की देखभाल करने के लिए दो बार यहाँ आता है..
       आगे उस व्यक्ति ने कहा, “पहले यहाँ तेंदुए भी रहते थे...लेकिन महोबा जिला हो जाने के और यहीं पास में नीचे पुलिस लाइन बन जाने के बाद फिर कभी तेंदुएं दिखाई नहीं दिए..”...इसके आगे देवपाल ने मेरा ज्ञानवर्धन किया- “सर, पुलिस लाइन से आती बंदूकों की आवाजों के कारण तेंदुओं ने इस स्थान को छोड़ दिया..”, “हाँ पुलिस लाइन में चाँदमारी तो होता ही है” मैंने सोचा| इसी के साथ एक विषय पर और चर्चा हुई वह यह कि महोबा जिला बन जाने से भू-माफियाओं को बहुत लाभ हो रहा है..मैंने पूँछा, “वह कैसे?” तो मेरा ज्ञानवर्धन हुआ कि यहाँ माफिया किस्म के लोग औने-पौने दामों में जमीन का कोई टुकड़ा खरीद लेते है, और फिर आसपास की भूमि को, यदि वह सरकारी हुई तो उस पर कब्ज़ा जमा लेते हैं, अन्यथा गरीबों की यदि जमीन होगी तो उन्हें अपनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर कर देते हैं, फिर अपनी जमीन छोड़ शेष अन्य कब्जाए भाग पर प्लाटिंग करते हुए उसे ऊंचे दामों पर बेचते रहते हैं...इसमें उनका करोड़ों का वारा-न्यारा होता रहता है..खैर, “इस चर्चा पर ज्यादा ‘बोल्डनेस’ दिखाने की जरुरत नहीं” मैंने सोचा|
     हाँ, इसप्रकार कुछ समय बिताने के बाद हम वापस लौट पड़े..लौटते हुए मैंने देखा एक लड़का पेड़ों से लकडियाँ तो तोड़ रहा था..एकबार मन हुआ कि उससे कह दें देखो हरी टहनियों को मत तोडना लेकिन फिर नहीं कहा...कुछ आगे जाने पर एक महिला भी लकडियाँ तोड़ती दिखी..वहीँ से मेरी निगाह नीचे महोबा नगर पर पड़ीं ऊपर से जैसे पूरे महोबा नगर की झलक मिल रही थी...देखते हुए मैंने कहा, “महोबा नगर पहाड़ों के बीच में जैसे किसी घाटी में बसा हुआ दिखाई पड़ रहा है” इसे सुनकर रामकिशोर ने कहा, “यहाँ से महोबा हरिद्वार जैसा दिखाई देता है” हम बात करते-करते नीचे उतर आए थे|
         जब मैं अपने आवास पहुँचा तो पत्नी से उस स्थान की चर्चा की (फोन पर) तो वे नाराज होते हुए बोलीं “अच्छा..! जब हम थे तो काम का बहाना बना हमें वहाँ नहीं ले गए..और अकेले में घूम रहे हो..” वैसे मैं यह सफाई देता रहा कि “उस स्थान के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी..और ‘शिव-तांडव’ तो मैं दिखा ही चूका हूँ..” लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी और बोल उठी, “तभी सब कहते हैं कि आप अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कुछ भी कहे..मैं ही क्यों न कहूँ..” फिर फोन से हमारी वार्ता टूट चुकी थी...
        “अरे! मैं वैचारिक रूप से इतना कट्टर तो नहीं कि श्रीमती जी ऐसा कहें,,?” मैं फोन पर पत्नी से टूटी वार्ता के बाद मन ही मन यही सोच रहा था कि मेरा ध्यान “जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक सामान है तो फिर विभिन्न धर्मों के बीच विवाद की जड़ कहाँ से आई?” चला गया..हाँ इस पोस्ट का उद्देश्य इसी पर लिखना था लेकिन इस पोस्ट को व्यर्थ के दूसरे विषय ‘पहाड़ भ्रमण’ की चर्चा में लम्बा-चौड़ा कर दिया, पता नहीं आप पढेंगे भी या नहीं...? खैर..
        हाँ, “धर्मों के बीच विवाद की जड़” के बारे में सोचते हुए मेरा ध्यान विश्व के सभी धर्मों यथा- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई जैन, बौद्ध आदि पर गया साथ ही इनसे निकले अन्य उपधर्मों पर भी मैंने विचार करते हुए “धर्मों के बीच विवाद की जड़” तलाशने लगा..अचानक मुझे इसका उत्तर मिल गया..फिर इस विवाद की जड़ तलाश लेने की ख़ुशी में मैंने अपनी पीठ थपथपाई !
        इन धर्मों के बीच विवाद की जड़ भी कोई ख़ास नहीं है...बस लोग अपने-अपने धर्म को तरह-तरह के “रैपर” में पेश करते हैं और यह धर्मों का “रैपर” ही इनमें आपसी विवाद का कारण है...हाँ, इस “धर्मों के रैपर” की इस खोज के साथ ही मेरा ध्यान हाल ही में महाराष्ट्र मे एक शनिदेव मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर छिड़े विवाद पर चला गया...न्यायालय के हस्तक्षेप से पाँच सौ वर्षों की परम्परा को एक झटके में बदल दिया गया और महिलाओं को भी शनिदेव के दर्शन की अनुमति दे दी गई..!! है न आश्चर्य की बात..!!! मतलब हिन्दू धर्म का ‘रैपर’ हमें अन्य धर्मों की अपेक्षा सबसे अधिक “इकोफ्रेंडली” दिखाई दिया..मतलब हिन्दू धर्म का “रैपर” पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करता बल्कि यह पर्यावरण के अनुकूल मने “इकोफ्रेंडली” होता है..हाँ, हिन्दू धर्म का “रैपर” कागज के ‘ठोंगे” जैसा ही होता है पर्यावरण में घुल-मिल जानेवाला...जैसे ‘गोरखगिरी’ पर्वत की वह गुफा, और पत्थर में भी चेतना तलाशती आकार विहीन वह मूर्ति..! मतलब हिन्दू धार्मिक भावनाएँ अदृश्य सी पर्यावरण में घुल जीवन ही तलाशती हैं, जीवन को क्षति नहीं पहुंचाती...मैं इस “रैपर” पर बलि-बलि जाऊँ..!!!
       हाँ, दुनियाँ के कुछ धर्मो के रैपर एकदम से “इकोफ्रेंडली” नहीं होते..ऐसे धर्मों के ‘रैपर’ निरंतर पर्यावरण को क्षति पहुँचाने का काम करते है, जैसे “पोलिथीन का रैपर” होता है सैकड़ों सालों तक पर्यावरण में पड़े-पड़े ये “रैपर” पर्यावरण को ही क्षति पहुँचाते रहते हैं...यह “प्लास्टिक जैसा रैपर” जहाँ पड़ा होता है वहाँ जीवन पनपने की संम्भावना को क्षीण करता रहता है...लेकिन पता नहीं क्यों ऐसे धर्मों के लोग अपने धर्म के “पर्यावरणीय-हानिकारक रैपर” की खूबसूरती में ही उलझे रहते हैं...? तो भाई ये “रैपर” ही विवाद की जड़ होते हैं...प्लास्टिक के रैपरों पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है...

      आइए..! कानून न सही, हम स्वयं धर्मों के “प्लास्टिक के रैपरों” पर प्रतिबन्ध लगाएँ...धर्मों के “इकोफ्रेंडली रैपर” ही इनके बीच के सारे विवादों को ख़तम करेंगे|    

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

यह "एंटीक्लाकवाइज" और "क्लाकवाइज" का चक्कर!

                मैं सुबह-सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे स्टेडियम तक टहलने चला जाता हूँ। इस स्टेडियम में चारों ओर किनारे पर लगभग साढ़े चार फीट की चौड़ी कंक्रीट की पटरी बनी हुई है, लोग इसी पर चलते हुए स्टेडियम का चक्कर भी लगाते हैं।
              यहाँ टहलने के लिए सुबह पाँच या साढ़े पाँच बजे के बीच मेरी भी नींद अपने आप ही खुल जाती है और अलसाए हुए होने पर भी खुद ब खुद मेरे कदम स्टेडियम की ओर चल पड़ते हैं। सुबह-सुबह प्रतिदिन उठने और टहलने की मेरी यह आदत इधर कुछ ही महीनों में पड़ी है, इसके पहले इतनी सुबह उठने की आदत नहीं थी, तब मैंने अपने सैमसंग वाले मोबाइल में प्रतिदिन सुबह सात बजे उठने के लिए एलार्म लगा रखा था। एलार्म क्या यह एक तरह से अलग-अलग दिनों के लिए भजनों का सेट है। हालाँकि अब सुबह उठने के लिए इस एलार्म की जरूरत नहीं होती लेकिन इसके बजने के टाइमिंग में मैंने कोई परिवर्तन नहीं किया और यह भजनों वाला एलार्म उसी तरह से सुबह सात बजे ही बजता है। इसे सुनना मुझे अच्छा लगता है। मेरे लिए इस मोबाइल की उपयोगिता भी इन्हीं भजनों के कारण है।
            आज स्टेडियम से टहलकर आने के बाद चाय पीते हुए जब मैं इसे लिख रहा हूँ तो "गोबिन्दा ते गोबिन्दा, तिरूपति बाला गोबिन्दा" का भजनरूपी एलार्म बजने लगा है!
           चूँकि आज वृहस्पतिवार है पत्नी भी पहले प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत रहते हुए भगवान् विष्णु की पूजा करती थी इसी से प्रेरित होकर मैंने भी आज के दिन के लिए इसी भजन को एलार्म के रूप में चुना था। इसी तरह अन्य दिनों के लिए भी अलग-अलग भजन सेट कर रखे हैं, जैसे मंगलवार और शनिवार के दिन अपने हनुमान जी का। वैसे पत्नी अब वृहस्पतिवार वाला व्रत नहीं रहती, हाँ हम देवताओं के प्रति कोई कट्टर भी नहीं है, लेकिन न जाने क्यों, हम अपने इस सुबह-सुबह टहलने जाने के प्रति कट्टर हो गए हैं?
           वैसे यहाँ स्टेडियम में लोग उसी संकरी पटरी पर टहलते हैं और जिसको दौड़ना होता है वह स्टेडियम में बीच के कच्चे ट्रैक पर दौड़ता है। हाँ मैं भी पटरी पर चलते हुए स्टेडियम का दो-तीन चक्कर लगा लेता हूँ। इस तरह स्टेडियम का चक्कर लगाते समय सूर्योदय के पहले क्षितिज पर छायी मनमोहक अरुणिमा और शीतल मंद-मंद बहती पवन, मन में प्रकृति का एक अद्भुत एहसास करा जाती है। हाँ, इसी एहसास के लिए सूर्योदय के पहले ही कदम खुद ब खुद स्टेडियम की ओर उठ जाते हैं।
टहलते वक्त मैंने कुछ और बातों पर भी गौर किया है जैसे इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर अधिकांश लोग एंटीक्लाकवाइज माने घड़ी की सूईयों के विपरीत दिशा में ही पटरी पर चलते हैं और स्टेडियम का चक्कर लगाते दिखाई देते हैं। जबकि क्लाकवाइज चक्कर वाले अल्पसंख्या में ही होते हैं बस इक्का-दुक्का! चक्कर लगाते समय अधिसंख्य लोगों का दक्षिणावर्त (एंटीक्लाकवाइज) चलने के पीछे के कारण का मनोविज्ञान मेरे समझ में नहीं आया। इसके साथ ही स्टेडियम के इस संकरे walking Street पर चलते हुए मैंने लोगों के बीच एक दूसरे का ख्याल रखने वाली गजब की सहिष्णुता देखता हूँ। जैसे, पीछे से आने वाले की तेज गति का आहट पाते ही आगे चलने वाला व्यक्ति पीछे से आने वाले को रास्ता देने के लिए पहले से ही किनारे होने लगता है। और एक-दूसरे के बगल से गुजरते समय ये लोग अपने हाथों के झटकने का अंदाज बदलकर एक-दूसरे को चोट से भी बचाते हैं। यही नही एक बात और है एंटीक्लाकवाइज घूमते बहुसंख्या वाले लोग सामने से आ रहे इक्का-दुक्का क्लाकवाइज लोगों के लिए आमना-सामना होने पर सम्मानपूर्वक किनारे होते हुए उन्हें निकल जाने के लिए रास्ता छोड़ देते हैं।
           यहाँ इस मैदान के पटरी पर एंटीक्लाकवाइज या क्लाकवाइज टहलते हुए लोगों को अपने समान उद्देश्यों का ज्ञान होता है और वे एक ही जगह पहुँचते भी हैं। एक बात और है, पटरी पर चक्कर लगाते समय प्रतिदिन विपरीत दिशा से आते एक व्यक्ति से मेरा सामना होता है, और टहलते हुए मेरी निगाहें उसे खोजने भी लगती हैं। यहाँ आने पर मुझ पर कट्टरता-विहीन सह-अस्तित्व की भावना तारी हो जाती है। खैर...
             आज देश में सहिष्णुता-असहिष्णुता, देशभक्ति-देशद्रोह, दक्षिणपंथ-वामपंथ जैसे तमाम विवाद दिखाई पड़ रहे हैं, इन विवादों का उत्तर स्त्री-पुरुष के संबंधों को परिभाषित करती "मुझे चाँद चाहिए" की इन पंक्तियों में मुझे मिलता दिखाई देने लगता है। आखिर देश के परस्पर विरोधी विचार वाले लोगों का भी उद्देश्य होता तो समान ही है चाहे वे "क्लाकवाइज" हों या "एंटीक्लाकवाइज" इसका एहसास होना जरूरी है -
              "हर स्त्री-पुरुष के बीच में किसी न किसी तरह का तनाव आता है। इस रिश्ते की प्रकृति ही ऐसी है।....लेकिन आपसी मतभेदों को सुलझाते हुए जिंदगी भी गुजारनी होती है। तुम्हारे मंडी हाउस की तरह जे.एन.यू. भी लिबरेशन का बड़ा अड्डा है। अगर तुम्हारी तरह हर कोई सौ फीसदी अंडरस्टैंडिंग की दलील लेकर अड़ जाए, तो यहाँ कोई घर ही न बसे। अंडरस्टैंडिंग एक प्रक्रिया है, जो एक अवस्था के बाद साथ-साथ धूप-छाँव झेलने से ही अपना स्वरूप लेती है। इसमें दोनों ही पक्षों को एडजस्ट करना होता है। क्या तुम यह कहना चाहती हो कि तुम्हारे और हर्ष के बीच में कोई बुनियादी मतभेद है?" 
वर्षा चुप रही। जवाब देने से पहले 'बुनियाद' की परिभाषा देनी होती, जिससे नयी बहस छिड़ सकती थी। "

               हो सकता है देश में वैचारिक स्तर पर छिड़े सारे विवाद एक-दूसरे के प्रति सामंजस्य बनने की प्रक्रिया के हिस्से हों।

               अंत में चलते-चलते इस पोस्ट के संबंध में एक तथ्य और उद्घाटित करना है, एक बार सुबह मैं इसे पोस्ट कर चुका था लेकिन edit करने के चक्कर में यह post delete हो गयी, जिसकी पुनर्प्राप्ति में मुझे फिर से प्रयास करना पड़ा। शायद इस पोस्ट में पुराने सैमसंग मोबाइल की चर्चा कर देने से सोनी का यह मोबाइल अपनी तौहीन समझ असहिष्णु हो गया था और उस पोस्ट को डिलीट कर मुझसे अपना बदला चुकाया। लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी और इस पोस्ट के प्रति इसे सहिष्णु बना कर ही माना।

क्या करें? हम तो चाटुकारों के देश में रहते हैं..

            उस गोष्ठी के सभाकक्ष में पहुँचते ही मैं अपनी घड़ी देखने लगा था| मैं गोष्ठी के प्रारंभ होने के निर्धारित समय से करीब चालीस मिनट विलंब से पहुँचा था, उस समय गोष्ठी के मंच पर अतिथियों की कुर्सियाँ खाली थी| जैसा कि किसी भी गोष्ठी के मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि होते हैं वैसे ही यहाँ भी थे| इनके नाम को दर्शाता हवा में झूलता वह बैनर इन अतिथियों का बेसब्री से इंतज़ार करता हुआ मुझे जान पड़ा लेकिन अभी भी वहाँ के वातावरण में उन महानुभावों के आगमन की सुगबुगाहट मुझे परिलक्षित नहीं हुई तथा आयोजकगण गोष्ठी की तैयारियों में ही व्यस्त दिखे| आमंत्रितकर्ता ने मुझे मंच पर की एक खाली कुर्सी पर बैठाया|  
         कुछ देर बाद मंच की खाली कुर्सियों पर तौलिया डाला जाने लगा था मेरी भी कुर्सी पर तौलिया डाला गया| फिर कदाचित् गर्वित भाव से मैंने मंच के सामने हाल में खाली पड़ी कुर्सियों की ओर देखा जिस पर लोग आ आ कर बैठते जा रहे थे| इधर यहाँ मंच पर अकेले बैठे हुए अतिथियों के इंतज़ार में खाली अन्य कुर्सियों पर मेरा ध्यान चला गया| इन्हें देख मैं थोड़ा असहज हो उठा तथा मन ही मन स्वयं को कोसने लगा कि नाहक ही इतनी जल्दी आ गए| खैर, करीब आधे घंटे बीतने के बाद अतिथियों का आगमन हुआ| विशिष्ट और मुख्य मुख्य अतिथि बारी-बारी से मंच पर विराजमान हुए! दीप प्रज्ज्वलन और औपचारिक उद्घाटन के बाद आयोजनकर्ताओं को अपने समयाभाव का हवाला दे वे कुछ ही देर बाद चलते बने थे|
          इधर बारी-बारी से इन दोनों अतिथियों को जाते देख इनके ‘समयाभाव’ के सामने मैं नतमस्तक हो गया था| मुझमें भी ‘समयाभाव’ से सम्मानित होने का भाव जागृत हो उठा था और तत्क्षण बाद मैं भी यही हवाला दे उस गोष्ठी स्थल से चलता बनना चाहा था| लेकिन मेरा मन थोड़ा समझदार निकला उसने जैसे मुझे समझाया हो “क्यों बे! तुझे पता नहीं कि तेरे पास समय ही समय है? समयाभाव तो मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि नामधारी जीवों के लिए ही आरक्षित किया गया है..तू किस खेत का मूली है..जो इसका सहारा लेगा...चल बैठा रह..” और फिर मैं गोष्ठी में बैठा ही रहा| अब मेरा मन इस निष्कर्ष पर जा टिका कि किसी गोष्ठी या समारोह के लिए विशिष्ट और मुख्य अतिथि बनने जैसा सम्मान अर्जित करने की योग्यता के लिए ‘समयाभाव’ होना पहली शर्त है इसके बाद ही कुछ और! इस शर्त का पालन करते हुए ऐसे अतिथि किसी गोष्ठी या समारोह में सबसे बाद में पहुँचते हैं और सबसे पहले वहाँ से प्रस्थान भी कर जाते हैं| हो सकता है आप की किसी गोष्ठी में ये विशिष्ट जीव अंत तक बैठे रहे हों लेकिन यह अपवाद स्वरुप ही होगा|
       जैसा कि मैंने कहा कि किसी भी गोष्ठी का शुभारम्भ दीप प्रज्ज्वलित करके की जाती है और इसके लिए एक डिजाइनर दीप में चार-पाँच बाती रखे होते हैं जिसे बारी-बारी से मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि तथा अन्य अतिथि एक-एक कर प्रज्ज्वलित करते जाते हैं| यहाँ इस गोष्ठी के शुभारम्भ में भी इसी परम्परा का पालन किया गया| लेकिन मैंने देखा मुख्य अतिथि के द्वारा दीप के पाँच बातियों में से चार बातियों को प्रज्ज्वलित कर देने के बाद आयोजक ने विनम्रतापूर्वक उनके हाथों से उस जलते मोमबत्ती को लेकर विशिष्ट अतिथि की ओर बढ़ा दिया और उन्हें भी उस एक बची बाती को प्रज्ज्वलित कर और गोष्ठी के शुभारम्भ करने का गौरवबोध मिल गया था| फिर भी हम जैसे सामान्य से अतिथि मुख्य अतिथि के इस  अनाड़ीपने से ऐसे ही उस गौरवबोध से वंचित हो गए थे| हालांकि इसमें उन महोदय का दोष नहीं था वे शायद पहली बार मुख्य अतिथि बने थे नहीं तो एक बाती जलाने के बाद मोमबत्ती विशिष्ट अतिथि की ओर बढ़ा देते|
       इस गोष्ठी में मुझे एक तथ्य की अनुभूति और हुई जिसे मैंने धीरे से आत्मार्पित कर लिया वह यह कि जरुरी नहीं कि किसी गोष्ठी के मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि को उस गोष्ठी के लिए निर्धारित विषय का ज्ञान हो| लेकिन आप इसे अधिनियमित मत मानिएगा क्योंकि हो सकता है नेताओं या उनके लिए आयोजित गोष्ठी अपवाद हो लेकिन तब यह गोष्ठी, गोष्ठी न होकर जनसभा होगी जहाँ जनता उनके ज्ञान का लोहा मान जाती है|
      अब आते हैं एक दूसरी बात पर, अकसर गोष्ठियों में विशिष्ट अतिथि या मुख्य अतिथि के पूर्व अन्य सामान्य से अतिथियों या वक्ताओं का भाषण या कहें संबोधन भी होता है| कभी-कभी वक्तागण गोष्ठी को संबोधित करते समय मुख्य अतिथि के लिए ‘परम आदरणीय’ या ‘आदरणीय’ जैसा विशेषण प्रयोग करने लगते हैं तब ऐसे संबोधनों के कारण एक समस्या उत्पन्न होने की संभावना होती है| जैसे किसी पूर्व वक्ता ने मुख्य अतिथि के लिए ‘परम आदरणीय’ या ‘परम परम श्रद्धेय’ जैसा विशेषण प्रयुक्त किया तो बाद के वक्ता के लिए भी इन विशेषणों का प्रयोग करना एक मज़बूरी बन जाती है अन्यथा “परम” को “आदरणीय” से अलग करने पर उस सीमा तक मुख्य अतिथि अपना असम्मान समझ सकते हैं| यहाँ एक अन्य तथ्य की ओर भी इंगित करना है, अकसर गोष्ठी के वक्ता भाषण के शुरू में सभी अतिथियों का एक-एक कर नाम ले अपना भाषण प्रारम्भ करते हैं, अब यदि किसी का नाम लेने से रह जाए तो फिर जिनका नाम छूटा हो उन महानुभाव के नाराज हो जाने का खतरा भी बना रहता है|
      इन्हीं बातों को सोच-सोच कर कभी-कभी वक्ता के रूप में मैं अपना भाषण गड़बड़ा देता हूँ बोलना कुछ होता है तो बोल कुछ देता हूँ; वक्तृत्व कला गायब हो जाती है| ऐसे में अकसर मुझे अमेरिका के शिकागो में स्वामी विवेकानंद जी के भाषण का “भाइयों और बहनों” का वह संबोधन याद आ जाता है जब इसी संबोधन को सुन वहाँ का हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था| लेकिन यहाँ तो हम ‘आदरणीय’ या ‘परम आदरणीय’ जैसे संबोधनों में ही खोये रहते हैं, तथा कोई भी गोष्ठी जैसे अतिथियों की सम्मान-गाथा भर बन कर रह जाती है, यहाँ सामने बैठे श्रोता वक्ताओं के लिए साध्य नहीं मात्र साधन भर ही होते हैं| क्या करें हम तो चाटुकारों के देश में रहते हैं!
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