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शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

दबंगई का विजन...

            मतदाता पुनरीक्षण का कार्य चल रहा है। सो, हम भी इस काम-धाम की जाँच के लिए अपने जोन में निकल लिए।  बूथ-ऊथ देखते रहे। घटने-बढ़ने वाले मतदाताओं की जानकारी करते रहे। एक चर्चा के दौरान यह बात उठी थी कि अविवाहित लड़कियों की उम्र अट्ठारह वर्ष हो जाने के बाद भी, खासकर गाँवों में, परिवार के लोग मतदाता सूची में इन लड़कियों का नाम शामिल कराने से कतराते हैं। और विवाहित होने पर ससुराल की मतदाता सूची में नाम शामिल हो जाने का तर्क देते हुए सूची में नाम शामिल कराने में रुचि नहीं लेते। खैर, इसके पीछे कुछ अन्य कारण भी होंगे। यह परम्परा से चली आती अधिकारों की गँवई मानसिकता हो सकती है। इसीलिए परम्पराओं की लीक पकड़ कर चलना सदैव ठीक नहीं माना जा सकता। 
         इस सम्बन्ध में एक बूथ पर पूँछने पर बताया गया कि, "ऐसी बात नहीं है, लोग इस वजह से भी मतदाता सूची में शामिल होना चाहते हैं कि मतदाता-पहचानपत्र से उनकी पहचान होती है। आजकल इसकी बहुत जरूरत पड़ने लगी है।" मतलब हो सकता है उपरोक्त बात में आंशिक सत्य हो।
     
           एक बूथ पर वहाँ की जनसंख्या के अनुपात में अधिक मतदाता दिखाई दिए। बी एल ओ ने बताया कि रिकार्ड में जनसंख्या वास्तविक जनसंख्या से कम दर्ज है। कुछ लोग किसी शहर-वहर में निवास करने के बाद भी गाँव की मतदाता सूची में अपना नाम इसलिए देखना चाहते हैं कि, इसमें वे अपनी जड़ तलाश कर रहे होते हैं। मैं इसपर, उसे कुछ सजेशन सा देते हुए सूची से, गाँव से बाहर निवास करने वालों के नाम हटाने के लिए कहा। तो, गाँव के दबंग किस्म के लोगों के डर से, उसने ऐसा करने में कुछ असमर्थता सी व्यक्त की। लेकिन, मैंने उसे थोड़ी हिम्मत बधाई। हालाँकि, गाँव का श्रमिक वर्ग शहरों में मौसमी मजदूरी करने निकल जाता है, जो दो-चार माह बाद वापस भी आ जाते हैं, लेकिन इस चक्कर में उनका भी नाम मतदाता सूची से कट जाने का अंदेशा रहता है। जब दबंगों पर आँच आती है तो वह भी अपने विरोधी ऐसे लोगों का मतदाता-सूची से नाम कटवाने का प्रयास करते हैं। खैर, मैंने बी एल ओ से सावधानी पूर्वक काम करने की बात कह आगे बढ़ गया था। 

           ये दबंग भी गाँव-गाँव विद्यमान है। वाकई! देश को इनसे भी आजादी चाहिए। इनके कारण लोग अपने काम को ढंग से कर ही नहीं पाते। ऐसे ही एक बूथ पर, एक सदियों पुराना किला दिखाई दिया। वह पहाड़नुमा बड़े-बड़े पत्थर के चट्टानों के सहारे बनाया गया था। एक व्यक्ति ने मुझे बताया "यह छत्रसाल के जमाने का है।" इस किले में कई गुप्त-द्वार, तहखाने, सुरंगों के होने का आभास हुआ, जो समय की मिट्टी में, जैसे दब चुके दिखाई दिए थे। 

             इस किले को देखते हुए मन में खयाल आया, तब के दबंग ऐसे किलों में रहते थे। और, इस किले में हो सकता है, तमाम चींखें भी गूँजी हो, जो इस किले की दिवारों से टकराकर शान्त हो गई हों। लेकिन आज के दबंगों को, किसी किले की जरूरत नहीं है, उसके लिए हमईं लोग काफी हैं, हम ही दबंगों के लिए उनके किले हैं। और आज, लोग चीखते भी नहीं, अगर चीखें भी तो इनकी ऐसी आवाजें, अब फाइलों के पन्नों के तहखाने, सुरंगों में गायब हो, धीरे-धीरे समय के साथ दब जाती है। इसीलिए पुराने पत्थर के किले अब ढह चुके हैं और जो बचे हैं वे भी ढह ही रहे हैं। और, किले का स्वरूप बदल गया है, अब ये किले, पन्नों, फाइलों में तब्दील हो चुके हैं। साथ ही दबंगों का आभामंडल भी बदल चुका है। 
          फिर दूसरे गाँव से गुजरे। गाँव के किनारे एक बड़ा सा तालाब था। लेकिन ऊँचे बंधों के कारण तालाब दिखाई नहीं दे रहा था। बँधे के ऊपर कुछ पेड़ थे। बरगद, पीपल, पाकड़ जैसे पेड़। एक पेड़ के नीचे एक छोटा सा मन्दिर बना था। उस मन्दिर पर कुछ ग्रामीण महिलाएँ धूप-दीप दे रही थी। उसी बँधे के ऊपर पच्चीस तीस लड़के कई समूहों में बैठे-खड़े दिखाई दिए। मुझे गाँव में अपने बचपन की याद आई। खैर...
        इधर हाल ही में यहाँ कई तालाबों का खुदाई भी कराई गई है, सो जिज्ञासा वश उस तालाब की स्थिति देखने मैं, बँधे पर चढ़ गया। हाँ, मैंने ध्यान दिया कि बंधे पर मुझे चढ़ते देख कुछ लड़के भागे भी थे। तालाब में पानी भरा था। बच्चे तैर रहे थे, तथा गाँव की कुछ औरते तालाब में नहा भी रहीं थी। तालाब के बँधे से वापस हो लिया। बंधे से उतरते हुए, मैंने वहीं एक आदमी को हैंडपंप पर कप गिलास धोते देखा। किसी उपन्यास में वर्णित ग्रामीण-परिवेश जैसा यह दृश्य जीवंत हो गया। 
          गाड़ी में बैठते ही मेरे ड्राइवर ने बताया, हैंडपंप पर आदमी शराब का कप-गिलास धो रहा था और वहीं पास में शराब की दूकान भी खुली थी। तब तक रामकिशोर ने मुझे एक और जानकारी दी, "बंधे पर आपको देखकर जो लड़के भागे थे, वे जुआ खेल रहे थे।" खैर, बचपन में गाँव में हम भी तो, खूब "दहला-पकड़" खेले थे। ताश का यही खेल मुझे सबसे आसान लगता था। वैसे, शुरुआती दिनों में हम बच्चे बड़ों से छिपकर यह खेल खेलते थे। लेकिन, ये बच्चे मुझे देखकर भागे थे, जबकि मैं इनके घर का बड़ा भी नहीं था। हो सकता है, ये जुआ ही खेल रहे हों। गाँवों में घूमते हुए यह दृश्य आम है। सच में, जिस उर्जा से तस्वीर बदली जा सकती है, तमाम किले ढहाए जा सकते हैं, वही उर्जा बर्बाद हो रही है, आहिस्ता-आहिस्ता सा..! शराब का वह ठेका भी किसी दबंग का ही रहा होगा।
           हमारा ग्राम्य-जीवन बिना किसी "विजन" के आहिस्ता-आहिस्ता केवल सरक सा रहा है। जो लोग केवल ग्राम के होकर रह गए हैं उनके लिए सरकारें काम तो करती हैं, लेकिन इन्हें कोई विजन नहीं दे पाती। सरकारें विजन देने में नाकाम रही हैं। अब "दबंगई" भी एक नए "विजन" के रूप में सामने आई है। हाँ, यह मतदाता सूची भी तो नए-नए दबंग पैदा करती है, दबंगई का ही विजन देती है। और, भारत में लोकतंत्र और कुछ नहीं तो, दबंगई का विजन तो है ही। 

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

डर और सावधानी

            कभी-कभी लिखने का मन नहीं करता, लेकिन #दिनचर्या तो चलती ही रहती है, लिखने या न लिखने से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आज जैसे ही स्टेडियम में पहुँचे, टहलने वाला ग्रुप मिल गया। यह ग्रुप अपने समय का पक्का निकलता है। मतलब जिस दिन हम जल्दी पहुँच जाते हैं तो यह मेरे बाद पहुँचता और जिस दिन देर से पहुँचते हैं तो ग्रुप स्टेडियम में टहलता दिखाई देता है। कभी मन होता है कि "सर्जिकल स्ट्राइक" के अंदाज में स्टेडियम पहुँच, चक्कर लगा कर वापस चले आएँ और किसी को पता ही न चले! लेकिन अलसियाये मुझसे, ऐसा सर्जिकल स्ट्राइक हो ही नहीं पाता..! खैर... 
           तो, ग्रुप वाले आपस में बतिया रहे थे, रोज की तरह। मैंने भी उनकी बातों पर कान लगा दिया, यही सोचकर कि आप से भी शेयर करने के लिए शायद कोई मसाला मिल जाए..मैं अपने बेहद बचपन काल में, परिवार के बुजुर्गों से उनकी यात्रा का विवरण ऐसे ही सुनता था..जैसे अपनी दिनचर्या की चर्चा आप से करता हूँ। लेकिन प्लीज, मुझे बुजुर्ग मत समझिएगा, तब मोबाइल का जमाना नहीं था, नहीं तो कौन सुनाने वाला और कौन सुनने वाला..! आज सभी, मोबाइल पर ही अपनी-अपनी बात कह रहे हैं, मतलब सुनाने और सुनने का खेल आज के दौर में खतम हो चुका है।
         आपस में बतियाते ग्रुप के कई जुमले सुनाई दिए, "सारा काम मोबाइल करेगा" मतलब इसी पर कहा-सुना के साथ अन्य टाइप के काम इसी से हो जाएगा। ग्रुप वालों के कुछ अन्य जुमले, "भगत को फोन लगाओ" "अब बिना ड्राइवर के ही गाड़ियाँ होंगी" "बिना दिल का आदमी होगा"। ...फिर, इन जुमलों के बाद जोरदार हँसी गूँजती। ये आवाजें मेरी तेज चालों के साथ दूर तक मेरा पीछा करती थी। मन ही मन सोचा, इसी तरह ये सारे लोग अपने आगे की दिनचर्या की तैयारी कर रहे होंगे।  
            लौट कर आवास पर आया। ध्यान दिया, आवासीय परिसर में खड़जे पर काफी दूब उग आई है, सो वहीं बैठकर दूब उखाड़ने लगा था। खड़जे पर खरपतवार जैसे फैले इस दूब को उखाड़ते ऐसा आभास हो रहा था जैसे, अपने मन के कोनों में उगे-पड़े किसी भी तरह के अहंकार को उखाड़ कर फेंक रहा होऊँ। वाकई!  कभी-कभी ऐसे काम भी कर लेने चाहिए। 
           बाद में चाय-वाय बनाकर पिया। बाहर से एक हलकी सी "फट" की आवाज हुई, शायद हाकर ने अखबार फेंका था। लेकिन न जाने क्यों अखबार उठाने तुरन्त नहीं निकला। याद आता है, बहुत पहले यानी कि जब अपने किसी भविष्य की तलाश में रहा होऊँगा तब, ऐसे ही अखबार आने पर, भाग कर अखबार उठाता था या हाकर के आने की प्रतीक्षा किया करता लेकिन अब वैसा उत्साह नहीं दिखता। जैसे, दिल दिमाग सब कुछ समझ गया हो और यह रोजमर्रा की बात भर रह गई हो।
            खैर, अब इतनी भी उदासीनता ठीक नहीं, अभी जीवन की गंध बाकी है। कुछ देर बाद, अखबार उठाने बाहर निकला। जैसे ही दरवाजा खोला, बरामदे में टँगे लकड़ी के बाक्सनुमा घोंसले में से झाँकती गौरैया फटाक से उड़ भागी..इस समय, इस कृत्रिम घोंसले में, वह अपने बच्चों को पाल रही है, उसके लिए यह सावधानी और डर जरूरी है। मतलब सावधानी और डर काम के ही होते हैं।

          वैसे आदमी अब बहुत लापरवाह हो चुका है। ड्राइविंग जैसी सीट पर बैठे हुए आदमी का भी कोई भरोसा नहीं रह गया है, नहीं तो, "बिना ड्राइवर के गाड़ी" की बात न की जाती। आदमी के अलावा बाकी अन्य सब जीवों में डर और सावधानी जैसे गुण आज भी है, वैसे ये आदिम गुण ही हैं। आज का आदमी, अपने को "आदिम" नहीं समझता, वह अपने सारे काम "प्लांडवे" में करने लगा है। लेकिन, इस आदमी का, आज का कोई भी काम बिना "आदिम" हुए नहीं चलता। सो, यह आदमी "आदिम" भी "प्लांन्डवे" में ही होता है। और "प्लांन्डवे" में होने के लिए इस आदमी को, "बिना दिल का" भी होना पड़ता है। यह इस पर भी काम हुआ जा रहा है। विज्ञान का जोर है, यह विज्ञान, बिना दिल का आदमी पैदा तो कर ही लेगा या कर भी रहा है । वैसे भी, दिल का भी कोई भरोसा नहीं है, कब आपके साथ "सर्जिकल स्ट्राइक" कर बैठे, और आप "अनप्लांन्ड" हो जाएं।
             हाँ, आज दिल और दिमाग की ज्यादा जरूरत भी नहीं रह गई है, बस "भगत" बनने की जरूरत है। किसी को "भगत" कह देने वाले अपना सीना न फुलाएँ, "भगत" का मतलब यहाँ किसी राजनीतिक टाइप के "भगत" से नहीं है। अगर ऐसा मानें तो, "अपने-अपने खेमे" में सभी लोग "भगत" ही कहे जाएंगे। क्योंकि "भगत" होने की खिल्ली उड़ाने वालों को, इसी "सर्जिकल स्ट्राइक" पर "अपने खेमे वालों" को सावधान करते बखूबी सुना-पढ़ा है। इसीलिए कोई कभी भी, किसी "खेमेबाज" को आत्मविश्वास भरे लहजे में कह सकता है कि, "भगत को फोन लगाओ"। एक जरूरी बात और कहना है, ये "भगत" और "खेमेबाज" लोग बात बेबात में भी खूब "सर्जिकल स्ट्राइक" करते रहते हैं। भारतीय सेना को भी इन्हीं से, बेहतर तरीके से "सर्जिकल स्ट्राइक" करते रहने का गुर सीख लेना चाहिए, फिर कभी कोई सबूत नहीं माँग पाएगा और सेना का प्रशिक्षण आदि का खर्च भी बच सकेगा। इससे, फौरी तौर पर सेना को आर्थिक और सामरिक दोनों लाभ होगा। 
          अब आज का अखबार पढ़ना शुरू किए। दैनिक जागरण में बीच के पन्ने पर किसी "नेता" का किसी "नेता" के लिए कहा गया कथन हेडिंग "नफरत की बेल उगा रहे फला" छपा था। इसे पढ़ते हुए लगा, यहाँ "कथनकार नेता" समय की नब्ज पहचाने बिना ही अपना कथन झोंक रहे हैं, उनके लिए यह ठीक नहीं। कहीं जनता ने "सर्जिकल स्ट्राइक" को ही नफरत फैलाना मान लेगी तो "कथनकार" की नेतागीरी के परखच्चे उड़ सकते हैं!  अरे भाई, कथनकार जी!  समय और अवसर के कथनानुसार ही "कथन" तलाशा करिए तभी आपकी जय होगी।
            हिन्दुस्तान में सम्पादकीय पेंज पर "न सरहद हो न सियासत" पढ़ा तो लगा, ये "सर्जिकल स्ट्राइक" सरहद और सियासत के ही कारण होते हैं, कलाकारों के कारण नहीं। 
         हाँ, अभी भी दिमाग पर टीवी समाचार चैनलों की तरह सर्जिकल स्ट्राइक का भूत चढ़ा हुआ है, सोच रहे हैं, धीरे-धीरे इसे उतारा जाए। 
#चलते_चलते -
        डर और सावधानी रक्षा कवच का काम करते हैं। जिसमें नई बात यह कि, ये हमें किसी अप्रत्याशित "सर्जिकल स्ट्राइक" से भी बचाते हैं। 
       
              -- Vinay 
              #दिनचर्या 22/6.10.2016

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

महात्मा का जन्मदिवस

            आज थोड़ी फुर्तबाजी में थे। इसलिए पाँच बजे नींद खुलते ही पाँच-दस पर स्टेडियम की ओर निकल लिए। उठने और निकलने में यह फुर्तबाजी इसलिए थी कि, आज गाँधी जी की जयन्ती है और सुबह आठ बजे कार्यालय जाकर उनके फोटू पर माल्यार्पण करना था। चूँकि, हम सरकारी नौकरी में हैं, इसलिए प्रत्येक वर्ष माल्यार्पण का अवसर मिल ही जाता है।
            एक बात है! वैसे तो, है यह आपके कान में सुनाने लायक...लेकिन, यहाँ लिखे दे रहे हैं, आप सुनिए मत, पढ़ लीजिए, वह कि, गाँधी के फोटू को माला पहनाते लाज आती है..! हाँ, उनका माल्यार्पण करते हमें शर्म आती है, इसीलिए मुझे गांधी के सामने हाथ जोड़ना ज्यादा मुफीद लगता है। क्योंकि, यह सोचकर हाथ जोड़ लेते हैं कि, "गाँधी बाबा, तुम ऐइसई दूर रहो, फोटू में ही रहो, वहाँ आप हमें बहुत ठीक लगते हो...इसी दूरी में तो आपसे प्रेम पनपता है। गाँधी!  तुम दिखाने की नहीं छिपाने की चीज हो।"
          आवासीय परिसर से निकलते हुए डीजे की जबर्दस्त आवाज कानों में गुंजायमान हो रही थी। वैसे, रातभर यह डीजे बजता रहा होगा..निश्चित रूप से आसपास वाले ठीक से सो नहीं पाए होंगे। शायद, नवदुर्गा के पांडाल में ही यह डीजे बज रहा होगा। एक दिन अखबार में पढ़े थे कि दुर्गा पंडालों में डीजे बजाने की अनुमति नहीं रहेगी। लेकिन, अब इस पर क्या कहें, यह धर्म का मामला है, किसी धर्म के मामले में टाँग अड़ाना उचित नहीं होता यही सोचकर यहाँ नियमों के पालन को उचित नहीं माना गया होगा।
            हम स्टेडियम पहुँचे। हमारे साथ ही रोज टहलने वाला ग्रुप भी पहुँच गया था। मैंने उन्हें आपस में बतियाते सुना, "आज रात में बिजली का खम्भा टूट गया, और रात में बिजली नहीं आई.." यह सुनते ही मुझे, उनकी पीड़ा की अनुभूति हुई। वाकई, एक तो सड़कें गली जैसी हैं और ऊपर से बिजली के खंभे ऐसे गड़े होते हैं कि डिवाइडर न होते हुए भी डिवाइडर का आभास देते हैं...फिर तो इन खम्भों को टूटना ही होता है! सुना, किसी ट्रैक्टर ने खम्भे को धकिया दिया था। इसीलिए तो, लोग साठ साल का रोना रोते हैं, हम ढंग से बिजली के तार भी अभी तक नहीं फैला पाए हैं।
          चक्कर लगाते, एक सज्जन के बगल से निकलते समय मोबाइल पर उनके बतियाने की आवाज सुनी, वह किसी से कह रहे थे, "यहीं स्टेडियम में टहल रहे हैं" उनके बात करने का अंदाज बता रहा था कि वह अपनी घरवाली से ही बात कर रहे होंगे। खैर..स्टेडियम का, स्वयं के द्वारा निर्धारित चक्कर पूरा कर हम लौट आए।
           आज सुबह-सुबह रामकिशोर आ गए, कभी-कभी रामकिशोर सुबह आकर मेरी चाय बना देते हैं, खासकर जब सुबह कहीं जल्दी निकलना होता है। रामकिशोर का कुत्ता बड़ा प्यारा है, वह भी अकसर सुबह उसी के साथ आता है और मेरे किचेन, कमरे सब जगह घूम लेता है, लेकिन आज वह गेट के बाहर ही रह गया था। मैंने जब गेट खुलवाया तो वह अपनी पूँछ हिलाते धड़ाके से अन्दर घुस गया। रामकिशोर को इधर-उधर ढूँढ़ते हुए अन्त में किचेन में खोज निकाला। मैं अपने कमरे में आराम फरमा रहा था, रामकिशोर को खोज वह महाशय निश्चिंत होकर वहीं मेरे कमरे में आकर आराम फरमाने लगे। जैसे, उसे सब बातें पता हो, और चाय बनने के बाद रामकिशोर के साथ भी निकल भी लिए। मैं, अब कुत्तों को ज्यादा समझदार मानने लगा हूँ।
          चूँकि, आज गाँधी जी पर माल्यार्पण वगैरह करना था, चाय-वाय पीकर नहाने की तैयारी करने लगा। बाथरूम में देखा, बहुत दिनों से शौचालय की सफाई नहीं हुई थी। ध्यान आया, आज गाँधी जयन्ती पर कुछ भासन-वासन भी देना पड़ सकता है, और इधर देश के प्रधानमंत्री भी अपने बहुआयामी स्वच्छता-कार्यक्रम के क्रियान्वयन में जुटे हैं, सो मैं ही क्यों पीछे रहूँ, तो भाषण देते समय मेरे भी करनी और कथनी में कोई अन्तर न रह जाए, आज ही शौचालय साफ करने की ठान ली। अब मेरे कथनी में भी दम रहे, और स्वच्छता अभियान पर एक जोरदार भाषण दे सकूँ; हार्पिक्स तथा ब्रश लेकर अपने इस स्वच्छता महाभियान में हम भी जुट गए। खैर..भाषण देने की नौबत तो आई लेकिन स्वच्छता अभियान दिमाग से निकल गया, आखिर, एक ही चीज को दुहराना भी तो अब हमें अच्छा नहीं लगता..!
             हाँ, गाँधी जी की फोटू को मैंने कई बार निहारा, गाँधी जी ग्राम-स्वराज की बात करते थे। वाकई, गाँधी जी का यह सपना आज ग्रामों में साकार हो रहा है। चारों ओर स्वराज ही स्वराज है!  मजाल है कि हम इस ग्राम-स्वराज में कोई दखलंदाजी कर सकें? बहुत सशक्त हो चुकी है ग्राम-स्वराज की यह अवधारणा! अब सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति को कहीं ऊपर जाने की आवश्यकता नहीं.. ग्राम-स्वराज के रहनुमा द्वारा इनकी समस्याओं का वहीं गाँव में ही चुटकी बजाते निस्तारण कर दिया जाता है। अगर गाँव के ये निचले पायदान के दलिद्रनारायण, भूल से ऊपर अपनी बात पहुँचाने पहुँच भी गए तो ग्राम-स्वराज के ऐसे-ऐसे रहनुमा हैं कि तब ये, इन दलिद्रनारायणों को त्वरित-न्याय देने में, तनिक भी देर और संकोच न करते हुए ग्राम-स्वराज का उत्तम उदाहरण भी तत्काल प्रस्तुत कर देते हैं।
         वैसे, दलिद्रनारायण की सेवा में ही गांधीगीरी भी सफलीभूत होता है। नहीं तो आप ही विचारिए! बिना दलिद्रनारायण के कैसे होगी गाँधीगीरी..? जब तक दलिद्रनारायण रहेंगे तब तक गाँधीगीरी रहेगी.. मैं तो कहता हूँ, गाँधीगीरी और दलिद्रनारायण दोनों में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है! हाँ, दलिद्रनारायण गाँधीगीरी की बदौलत ही जिन्दा है तो गाँधीगीरी भी दलिद्रनारायण की सेवा के बदौलत ही चलती है।
             भाई लोग, मैं तो मानता हूँ, जन्मदिवस मनाना भी एक बिजनेस है, चाहे वह अपना जन्मदिवस हो या दूसरे का या फिर किसी महात्मा का ही क्यों न हो! आखिर, जीने को मजा लूटना ऐसे ही नहीं माना जाता..और कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनके स्वर्गवासी होने पर हमारी दुकानदारी चलती रहे इसलिए हम उनका जन्मदिन मनाते हैं। हाँ, किसी का जन्मदिन से सेवा भावना की याद आती है ; जैसे यदि हम गाँधी जी को भूलते हैं तो सेवा-भावना भी भूलते हैं और इस भावना में ही तो मेवा है। ऐसे में मेवा मिलता रहे हम गाँधीगीरी करते रहे.. सब का काम चलता रहे। गाँधी, नोट और वोट सब जगह काम आते हैं।
               
               हाँ, एक बात है, दलिद्रों को भी "दलित" जैसे शब्द से सीख लेते हुए "दलिद्रनारायण" सम्बोधन पर अब आपत्ति दर्ज करानी चाहिए। इस शब्द में भेदभाव जैसा भाव छिपा होता है..एकदम छुआछूत जैसा! क्या मजाक है! भला आज तक "दलिद्र" से कभी "नारायण" जुड़ पाए हैं? अब तक दलिद्रों को, अपने नारायणों का खेल समझ में आ जाना चाहिए था, जो नहीं आया। खैर, मैं यही सोचता रहा और सभा विसर्जित हो चुकी थी। अन्त में, साबिर ने दो गाँधी भजन गाया, जिसे गुनगुनाते हुए मैं उठ गया था -
            "वैष्णव जन तेणे कहिए, जे पीर पड़ाई जाणे रे" और
             "ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान"

                                          --Vinay
                                          #दिनचर्या 21/2.9.16