मतदाता पुनरीक्षण का कार्य चल रहा है। सो, हम भी इस काम-धाम की जाँच के लिए अपने जोन में निकल लिए। बूथ-ऊथ देखते रहे। घटने-बढ़ने वाले मतदाताओं की जानकारी करते रहे। एक चर्चा के दौरान यह बात उठी थी कि अविवाहित लड़कियों की उम्र अट्ठारह वर्ष हो जाने के बाद भी, खासकर गाँवों में, परिवार के लोग मतदाता सूची में इन लड़कियों का नाम शामिल कराने से कतराते हैं। और विवाहित होने पर ससुराल की मतदाता सूची में नाम शामिल हो जाने का तर्क देते हुए सूची में नाम शामिल कराने में रुचि नहीं लेते। खैर, इसके पीछे कुछ अन्य कारण भी होंगे। यह परम्परा से चली आती अधिकारों की गँवई मानसिकता हो सकती है। इसीलिए परम्पराओं की लीक पकड़ कर चलना सदैव ठीक नहीं माना जा सकता।
इस सम्बन्ध में एक बूथ पर पूँछने पर बताया गया कि, "ऐसी बात नहीं है, लोग इस वजह से भी मतदाता सूची में शामिल होना चाहते हैं कि मतदाता-पहचानपत्र से उनकी पहचान होती है। आजकल इसकी बहुत जरूरत पड़ने लगी है।" मतलब हो सकता है उपरोक्त बात में आंशिक सत्य हो।
एक बूथ पर वहाँ की जनसंख्या के अनुपात में अधिक मतदाता दिखाई दिए। बी एल ओ ने बताया कि रिकार्ड में जनसंख्या वास्तविक जनसंख्या से कम दर्ज है। कुछ लोग किसी शहर-वहर में निवास करने के बाद भी गाँव की मतदाता सूची में अपना नाम इसलिए देखना चाहते हैं कि, इसमें वे अपनी जड़ तलाश कर रहे होते हैं। मैं इसपर, उसे कुछ सजेशन सा देते हुए सूची से, गाँव से बाहर निवास करने वालों के नाम हटाने के लिए कहा। तो, गाँव के दबंग किस्म के लोगों के डर से, उसने ऐसा करने में कुछ असमर्थता सी व्यक्त की। लेकिन, मैंने उसे थोड़ी हिम्मत बधाई। हालाँकि, गाँव का श्रमिक वर्ग शहरों में मौसमी मजदूरी करने निकल जाता है, जो दो-चार माह बाद वापस भी आ जाते हैं, लेकिन इस चक्कर में उनका भी नाम मतदाता सूची से कट जाने का अंदेशा रहता है। जब दबंगों पर आँच आती है तो वह भी अपने विरोधी ऐसे लोगों का मतदाता-सूची से नाम कटवाने का प्रयास करते हैं। खैर, मैंने बी एल ओ से सावधानी पूर्वक काम करने की बात कह आगे बढ़ गया था।
ये दबंग भी गाँव-गाँव विद्यमान है। वाकई! देश को इनसे भी आजादी चाहिए। इनके कारण लोग अपने काम को ढंग से कर ही नहीं पाते। ऐसे ही एक बूथ पर, एक सदियों पुराना किला दिखाई दिया। वह पहाड़नुमा बड़े-बड़े पत्थर के चट्टानों के सहारे बनाया गया था। एक व्यक्ति ने मुझे बताया "यह छत्रसाल के जमाने का है।" इस किले में कई गुप्त-द्वार, तहखाने, सुरंगों के होने का आभास हुआ, जो समय की मिट्टी में, जैसे दब चुके दिखाई दिए थे।
इस किले को देखते हुए मन में खयाल आया, तब के दबंग ऐसे किलों में रहते थे। और, इस किले में हो सकता है, तमाम चींखें भी गूँजी हो, जो इस किले की दिवारों से टकराकर शान्त हो गई हों। लेकिन आज के दबंगों को, किसी किले की जरूरत नहीं है, उसके लिए हमईं लोग काफी हैं, हम ही दबंगों के लिए उनके किले हैं। और आज, लोग चीखते भी नहीं, अगर चीखें भी तो इनकी ऐसी आवाजें, अब फाइलों के पन्नों के तहखाने, सुरंगों में गायब हो, धीरे-धीरे समय के साथ दब जाती है। इसीलिए पुराने पत्थर के किले अब ढह चुके हैं और जो बचे हैं वे भी ढह ही रहे हैं। और, किले का स्वरूप बदल गया है, अब ये किले, पन्नों, फाइलों में तब्दील हो चुके हैं। साथ ही दबंगों का आभामंडल भी बदल चुका है।
फिर दूसरे गाँव से गुजरे। गाँव के किनारे एक बड़ा सा तालाब था। लेकिन ऊँचे बंधों के कारण तालाब दिखाई नहीं दे रहा था। बँधे के ऊपर कुछ पेड़ थे। बरगद, पीपल, पाकड़ जैसे पेड़। एक पेड़ के नीचे एक छोटा सा मन्दिर बना था। उस मन्दिर पर कुछ ग्रामीण महिलाएँ धूप-दीप दे रही थी। उसी बँधे के ऊपर पच्चीस तीस लड़के कई समूहों में बैठे-खड़े दिखाई दिए। मुझे गाँव में अपने बचपन की याद आई। खैर...
इधर हाल ही में यहाँ कई तालाबों का खुदाई भी कराई गई है, सो जिज्ञासा वश उस तालाब की स्थिति देखने मैं, बँधे पर चढ़ गया। हाँ, मैंने ध्यान दिया कि बंधे पर मुझे चढ़ते देख कुछ लड़के भागे भी थे। तालाब में पानी भरा था। बच्चे तैर रहे थे, तथा गाँव की कुछ औरते तालाब में नहा भी रहीं थी। तालाब के बँधे से वापस हो लिया। बंधे से उतरते हुए, मैंने वहीं एक आदमी को हैंडपंप पर कप गिलास धोते देखा। किसी उपन्यास में वर्णित ग्रामीण-परिवेश जैसा यह दृश्य जीवंत हो गया।
गाड़ी में बैठते ही मेरे ड्राइवर ने बताया, हैंडपंप पर आदमी शराब का कप-गिलास धो रहा था और वहीं पास में शराब की दूकान भी खुली थी। तब तक रामकिशोर ने मुझे एक और जानकारी दी, "बंधे पर आपको देखकर जो लड़के भागे थे, वे जुआ खेल रहे थे।" खैर, बचपन में गाँव में हम भी तो, खूब "दहला-पकड़" खेले थे। ताश का यही खेल मुझे सबसे आसान लगता था। वैसे, शुरुआती दिनों में हम बच्चे बड़ों से छिपकर यह खेल खेलते थे। लेकिन, ये बच्चे मुझे देखकर भागे थे, जबकि मैं इनके घर का बड़ा भी नहीं था। हो सकता है, ये जुआ ही खेल रहे हों। गाँवों में घूमते हुए यह दृश्य आम है। सच में, जिस उर्जा से तस्वीर बदली जा सकती है, तमाम किले ढहाए जा सकते हैं, वही उर्जा बर्बाद हो रही है, आहिस्ता-आहिस्ता सा..! शराब का वह ठेका भी किसी दबंग का ही रहा होगा।
हमारा ग्राम्य-जीवन बिना किसी "विजन" के आहिस्ता-आहिस्ता केवल सरक सा रहा है। जो लोग केवल ग्राम के होकर रह गए हैं उनके लिए सरकारें काम तो करती हैं, लेकिन इन्हें कोई विजन नहीं दे पाती। सरकारें विजन देने में नाकाम रही हैं। अब "दबंगई" भी एक नए "विजन" के रूप में सामने आई है। हाँ, यह मतदाता सूची भी तो नए-नए दबंग पैदा करती है, दबंगई का ही विजन देती है। और, भारत में लोकतंत्र और कुछ नहीं तो, दबंगई का विजन तो है ही।