भगवान से भी बढ़कर मनुष्य होता है। दरअसल 'मनुष्य होना' अस्तित्व बोध है तो वहीं 'ईश्वरत्व' इस अस्तित्व-बोध का खंडन है। हम "सियाराममय सब जग जानी" कहते हैं, इसमें सब कुछ को ईश्वर के रूप में स्वीकार करके चलने की बात है। लेकिन ठीक इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक भाव, 'ईश्वर' की इस 'सब कुछ' से एक खामोशी भरी दूरी को भी स्वीकारता है। इस 'खामोशी भरी दूरी' में चीजों के प्रति उपेक्षा का भाव निहित है, और जो प्रकारांतर से 'अमानवीयता' ही है। 'ईश्वर' की यह 'अमानवीयता' इस रूप में समझ सकते हैं कि यदि मनुष्यता का मुक्ति में विश्वास है तो 'ईश्वरत्व' चीजों को अपने से 'परे' नहीं जाने देती। देखा जाए तो, ईश्वर पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के ईश्वर की तरह सर्वग्रासी है। तभी तो, ऐसे सर्वग्रासी ईश्वर को सिंह की गुफा के सदृश्य माना गया, जिसमें जाते हुए पदचिह्न्न तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन बाहर आते हुए पदचिह्न्न नहीं मिलते।
वैसे 'भगवान' और 'मनुष्य' के बीच का यह झगड़ा सुलझाने के लिए अद्वैत, विशिष्टाद्वैत या द्वैतवाद भी पर्याप्त नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अवधारणा में ही ऐसे सारे विवाद की जड़ अन्तर्निहित है। इस समस्या का समाधान दार्शनिक दृष्टि में नहीं, अपितु मानवीय संवेदनाओं से उपजी साहित्यिक-दृष्टि, इसपर अधिक समग्रता और संवेदनशीलता के साथ विचार करती हुई प्रतीत होती है।
किसी कृति की साहित्यिक दृष्टि उसकी रचना प्रक्रिया से समझी जा सकती है। इसके लिए महाकवि वाल्मीकि के रामायण के राम और तुलसी के रामचरित मानस के राम का चरित्र तुलनीय है। रामायण की रचना प्रक्रिया के पीछे महाकवि वालमीकि के "मा निषाद प्रतिष्ठां.." में अभिव्यक्त 'शोकार्त्त' भाव वाली संवेदनशीलता है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी इस बात को स्वीकार करते हैं -
"शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा"
अर्थात यह श्लोक हमने अपने मुख से शोकार्त्त ही निकाला है।
जिस अभिव्यक्ति के पीछे शोक से उपजी मनःस्थिति हो; वह दूसरों के हृदय में वैसी ही वेदना की कल्पना कर सकता है। ऐसे रचनाकार की रचनावृत्ति मनोवैज्ञानिक ढ़ग से अपने पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए चलती है। इसीलिए आदि कवि वाल्मीकि के राम "सम्पूर्ण मनुष्य" की ओर अग्रसर हैं। नामवर सिंह जी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के कथन का उल्लेख करके यही दिखाने का प्रयास किया है - "वाल्मीकि ने नेता की ही खोज की थी। ऐसे नर चंद्रमा की, जिसमें मनुष्य की 'समग्रा लक्ष्मी' का निवास हो। उन्हें उन नेताओं के किसी ऐसे स्थाई भाव की खोज नहीं थी, जो विभावानुभाव संचारी भाव के संयोग से रस रूप में परिणत हो सके। वे मनुष्य के संपूर्ण और आदर्श रूप के जिज्ञासु थे।" कहने का आशय यह भी है कि महाकवि, रामायण में बिना किसी "वाग्जाल" के राम की प्रतिष्ठा और उनके चरित्र की खोज करते है और जिसमें, नामवर जी के अनुसार, द्विवेदी जी के शब्दों में "उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता है।"
इस प्रकार यदि वाल्मीकि की संवेदनशीलता एक 'सम्पूर्ण मनुष्य' की खोज करती है तो वहीं तुलसी ने रामचरित मानस को भक्ति-भाव की भूमि पर रचा है और यहाँ राम का पाला 'भक्त' से पड़ा है। इसीलिए तुलसी मानते हैं कि सुकवि की कविता होने पर भी राम नाम के बिना वह श्रेष्ठ नहीं कहलाती। जैसे वस्त्र के बिना अन्य साज-सज्जा के होते हुए भी नारी शोभनीय नहीं होती -
"भनिति विचित्र सुकवि कृत न जोऊ, राम नाम बिनु सोह न सोऊ।
बिधुवदनी सब भांति संवारी, सोन न बसन बिना बर नारी।।"
भक्ति-मानस की पृष्ठभूमि में तुलसी की सारी संवेदनाएँ "भगवान" की प्रतिष्ठा में ही खर्च हो जाती है। महिमामंडन के इस प्रयास में "भगवान" का चरित्र ऐसा उभरता है कि 'राम' उसके नीचे दब जाते हैं।
यहाँ इस चर्चा के परिपेक्ष्य में, रामायण और रामचरित मानस में आए अहिल्या वाले प्रसंग से राम के चरित्र की तुलना कर दोनों महाकवियों वाल्मीकि और तुलसी के 'सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य' समझ सकते हैं।
* * * * *
विद्वानों का कहना है, प्रत्येक लिखा हुआ साहित्य होता है। लेकिन यह "लिखा हुआ" ऐसा वैसा नहीं, इसमें मन-जन का विवेचन होना चाहिए। यह विवेचन जब मर्म को बेधे तभी वह साहित्य है। इसीलिए धार्मिक-साहित्य श्रद्धा के विषय तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी रचनाधर्मिता अनुभूतियों को जगाने में लगभग असफल सी होती हैं। क्योंकि 'उपदेश' भावों की सृष्टि नहीं कर पाते। आचार्य द्विवेदी जी के शब्दों में "...काव्य सर्जक है, वह मनुष्य की दुनिया में नए भावों की सृष्टि करके विधाता के भाव-जगत में वृद्धि करता आ रहा है।" इस कथन का आशय यही है कि साहित्य को भाव-जगत की पहचान कराने वाला होना चाहिए। अहिल्या-प्रसंग से वाल्मीकि और तुलसी की अलग-अलग भाव-दृष्टि का ही नहीं, बल्कि उनके काव्यगत उद्देश्यों का भी पता चलता है।
रामचरित-मानस की अपेक्षा वाल्मीकि-रामायण में अहिल्या का प्रसंग अधिक गाम्भीर्य और मनोवैज्ञानिकता के साथ मानवीय संवेदना की पहचान कराने वाला है। वहीं तुलसी ने इस प्रसंग को चलताऊ ढंग से लिया। यदि तुलसी के राम "आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं" के कारण जिज्ञासु हैं, तो रामायण के राम की जिज्ञासा "पुराणं निर्जनं रम्यं" अर्थात पुराने और निर्जन लेकिन रमणीक आश्रम के बारे में है। यहां 'पुराणं' और 'रम्यं' जैसे शब्द उस स्थान के प्रति मनोवैज्ञानिक प्रभाव जगाते हैं, जिसका संकेत विश्वामित्र, इसे कभी का 'देवताओं जैसा और देवताओं द्वारा पूजित' गौतम ऋषि का आश्रम (आश्रमो दिव्यसंकाश: सुरैरपि सुपूजित:) कहते हुए, अहिल्या का प्रसंग सुनाकर देते हैं। इसी आश्रम में गौतम ऋषि की अनुपस्थिति जान (तस्यांतर विदित्वा) उनका ही वेश धारण कर (मुनिवेषधरोअहल्यामिदं) इंद्र ने अहिल्या से समागम की इच्छा व्यक्त की थी -
"संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे"
और मुनि वेशधारी इंद्र को पहचानकर भी अहिल्या ने उसके साथ प्रसन्नतापूर्वक समागम किया -
"मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन
मतिं चकार दुर्मेधा देवराज कुतूहलात।।"
यही नहीं वाल्मीकि जी ने इस समागम के उपरांत अहिल्या से "कृतार्थेनान्तरात्मा" और "कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ" कहलवाकर अहिल्या के कुछ ऐसे ही मनोरथ के पूर्ण होने का संकेत भी किया है। अहिल्या के इस "मनोरथ" को समझकर ही गौतम ऋषि ने उसे "इह वर्षसहस्त्राणि बहूनि त्वं निवत्स्यसि" अर्थात इसी स्थान पर हजारों वर्षों तक रहने एवं वायु-भक्षण करते हुए निराहार रहकर राख पर सोने एवं अदृश्य रहकर निवास करने का शाप देते हैं -
"वायुभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेsस्मिन्निवत्स्यसि"
लेकिन अब वही अहिल्या राम को तप के तेज से प्रकाशित होती दिखाई पड़ी -
"ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम"
जो कोहरे में छिपी हुई पूर्णमासी के चन्द्रमा की जैसी या जल में पड़ते सूर्य के प्रतिबिम्ब की तरह दीप्तिमान थी -
"स तुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव
मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव"
वाल्मीकि के राम ने जिस निर्जन लेकिन रम्य स्थान को देखा वहाँ गौतम ऋषि द्वारा शापित उनकी "दुर्मेधा" पत्नी निवास करती है, समाज-बहिष्कृता होने के कारण जहाँ कोई नहीं जाता। इसीलिए वह स्थान निर्जन है। ये राम एक संवेदनशील व्यक्ति के मानवीय दृष्टि से समाज से ठुकराई एकान्तवासिनी अहिल्या की तपश्चर्या और पश्चात्ताप की वेदना (तुषारावृतां) से उपजे उसके अन्तर की पवित्रता को पहचान जाते हैं। इसीलिए उन्हें अहिल्या 'द्योतितप्रभामाम' अर्थात दीप्तिमान दिखाई पड़ी। महाकवि वाल्मीकि के इस वर्णन में उनकी साहित्यिक-दृष्टि झलक आई है। यही वह दृष्टि है जो वाह्य तो वाह्य! मन की वेदना को भी पहचान जाती है। अहिल्या की इस वेदना वाली मनःस्थिति को दर्शाने के लिए ही महाकवि ने कहा है कि धुएँ में जलती हुई आग की लपट की तरह वह गौतम ऋषि के शाप से किसी को दिखाई नहीं पड़ती थी।
धूमेनापि परीतांगीं दीप्तामग्निशिखामिव
सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह"
वाल्मीकि के इस श्लोक से प्रमाणित है कि, लज्जा और पापबोध से उपजे आत्मग्लानि (धूमेनापि परीतांगीं) और इससे ऊपर समाज-बहिष्कृता तथा पति द्वारा परित्यक्ता होने की आत्म-प्रतारणा से अहिल्या 'निर्वेद' की स्थिति में होती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का अन्तर्मन प्रकाशित (दीप्तामग्निशिखामिव) हो उठता है और वह स्वयं दुनियावी मोह-जाल से अपना सरोकार समाप्त कर समाज की नजरों से ओझल सा हो (दुर्निरीक्ष्या बभूव) जाता है।
यहाँ ध्यातव्य है, गौतम ऋषि ने अहिल्या को पुनः: स्वीकार करने के लिए लोभ-मोह से रहित (लोभमोहविवर्जिता) होकर राम का आतिथ्य करने की शर्त रखा था -
तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता
मत्सकाशे मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिप्यसि
इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि की काव्यानुभूति राम को 'लोभमोहविवर्जिता' अहिल्या का दर्शन कराती है। ऐसी अहिल्या का उद्धार नहीं होगा तो फिर किसका होगा? इसीलिए वाल्मीकि ने राम से ऐसी 'महाभागा' अहिल्या को तारने के लिए कहा, जिससे वह देवरुपिणी हो जाए -
"तारयैनां महाभागामहल्यां देवरुपिणीम"
यहां दोनों महाकवियों वाल्मीकि और तुलसी की दृष्टियों में अंतर स्पष्ट है। गोस्वामी तुलसी दास जी का कवि हृदय इस प्रसंग में उतना मानवीय और संवेदनशील नहीं बन पड़ा है। 'रामचरितमानस' के राम को अहिल्या "सिला" के रूप में दिखाई पड़ती है -
"पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी"
तुलसी से इस 'सिला' की 'मन:स्थिति' और वेदना अननुभूत ही रह जाती है। यहां उनका हृदय साहित्यिक-धर्म निबाहता हुआ नहीं दिखाई देता। बल्कि उनकी यह दृष्टि भक्ति-समन्वित धार्मिक-नैतिकता (पूजा-अराधना की फॉलोइंग वाली) वाली है। अहिल्या उनके लिए हाड़-मांस की नहीं 'उपल देह' वाली अर्थात पत्थर है। उन्होंने विश्वामित्र से कहलवाया भी है-
"गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुवीर।
तुलसी अपने प्रभु की 'प्रभुताई' में इतने मगन हैं कि एक स्त्री के शिला बनने के पीछे के गर्हित कारण को वे नहीं दिखाना चाहते। वैसे कुछ लोग मान सकते हैं कि शायद तुलसी दास जी ने अहिल्या के मनोभाव को ही 'सिला' के रूप में इसीलिए चित्रित किया हो कि अतिशय वेदना की स्थितियों से गुजरने पर व्यक्ति पत्थर-हृदय हो जाता है! लेकिन भक्ति के प्रभाव में जब वे राम से इस 'उपल देह' पर "कृपा" करने के लिए कहते हैं, तो जैसे अमानवीय हो उठते हैं। यहाँ तुलसी की छवि थोड़ी-बहुत स्त्री-विरोधी की हो उठती है, उनपर तो जैसे राम का "भगवानत्व" सिद्ध कराने का धुन सवार है।
दरअसल इसी धुन में गोस्वामी जी अहिल्या की मानसिक-वेदना और उसकी निर्वेदावस्था को महत्त्व देते हुए नहीं दिखाई पड़ते। यदि वे ऐसा करते तो अहिल्या जिस ऊंचाई पर दिखाई पड़ती, तब उसे 'भगवानत्व' वाली 'कृपा' की नहीं, बल्कि समाज में पुनः प्रतिष्ठा के लिए मानवीय मदद पाने की अधिकारिणी होती। महर्षि वाल्मीकि ने अहिल्या के इस सामाजिक अधिकार को पहचानकर ही विश्वामित्र से "तारयैनां महाभागामहल्यां'' कहलाकर राम के मन में उसके प्रति कर्तव्यबोध जगाया। क्योंकि अहिल्या अब इस योग्य हो चुकी है कि उसे 'कृपा' की नहीं, बल्कि उस तिरष्कृता नारी को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा लौटाने की आवश्यकता है। यह किसी भी सहृदय व्यक्ति का कर्तव्य-कर्म होना चाहिए। इस प्रकार 'रामायण' और 'रामचरितमानस' के अहिल्या-प्रसंग में आए 'तारय' और 'कृपा' जैसे शब्दों से इन दोनों महाकाव्यों के काव्यगत उद्दश्यों में अंतर का भी पता चलता है।
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नामवर जी "दूसरी परंपरा की खोज" में लिखते हैं, "रचना-प्रक्रियावाली सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य मनुष्य ही होता है और काव्य में उसी के सम्मूर्तन की समस्या कवि की मुख्य समस्या होती है।" वाल्मीकि और तुलसी दो अलग-अलग युगों में हुए हैं, और उस समय के देश-काल की परिस्थितियां भी भिन्न रही होंगी। लेकिन युग चाहे जो हो, काव्य-सर्जक अन्ततः अपने युग के मनुष्य की खोज में रहता है। अवतारवाद की अवधारणा भी ऐसे ही खोजों का परिणाम है। वाल्मीकि हों या तुलसी, दोनों की सर्जनात्मक दृष्टि अपने युग के 'पुरुषोत्तम' की खोज करती है। इस लेख में इन महाकवियों की प्रसंगगत तुलना एक ही विषय पर इनकी सर्जनात्मक दृष्टि को लेकर है। काव्य-सृजन के पीछे रचनाकार के मनोविज्ञान की भूमिका होती है, जो रचना-प्रक्रियावली में व्यक्त होकर उसके काव्यात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति कराती है।
'तारय' या 'कृपा' जैसे शब्दों से अहिल्या-प्रसंग में आए पात्रों के प्रति इन द्वय महाकवियों की मनोवैज्ञानिक संवेदनशीलता प्रदर्शित है। इससे काव्य-कर्म के पीछे का इनका अभिप्रेत संकेतित होता है। भरतमुनि के अनुसार काव्य का उद्देश्य दुख, श्रम शोक से आर्त और तपस्वियों को मानसिक शांति प्रदान करना है -
"दुखार्तांना श्रमार्तांना शोकर्तांना तपस्विनाम
विश्रामजनन लोके नाट्यमेतद भविष्यति।"
लेकिन विचारकों ने माना है कि इस उद्देश्य को पाने के लिए काव्य-सर्जक को 'द्रष्टा' होना चाहिए। 'द्रष्टापन' चीजों को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने का अवसर देता है। क्रौंच पक्षी की पीड़ा से शोकार्त्त महर्षि वाल्मीकि 'रामायण' सृजन के लिए प्रेरित हुए और उनके इस भाव का प्रभाव महाकाव्य के पात्रों पर भी पड़ा है। इसीलिए इस प्रसंग में पात्र सहज और मानवीय चारित्र वाले हैं तथा अपने परिवेश के अनुसार सहज प्रतिक्रिया व्यक्त करते प्रतीत होते हैं। यहाँ रचनाकार ने पात्रों को जैसे खुला छोड़ रखा है, जिनके बीच वह अपने "सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य" "मनुष्य के सम्मूर्तन की समस्या" हल करता है। जैसे वह सामाजिकों को बताना चाह रहा हो कि देखो ऐसे भी लोग हैं। अहिल्या-प्रसंग में गौतम ऋषि के आश्रम के घटनाक्रम से अवगत होने के बाद राम वहाँ जिस अहिल्या को देखते हैं वह "तपसा" अर्थात तपस्विनी के रूप में है, उस तप-मूर्ति के लिए ही महाकवि ने 'द्योतितप्रभामाम', तुषारावृतां, पूर्णचन्द्रप्रभामिव, सूर्यप्रभामिव, धूमेनापि परीतांगीं और दीप्तामग्निशिखामिव जैसी उपमा का प्रयोग किया। यहां कवि द्रष्टा है लेकिन साक्षी-भाव से अपने पात्रों की अनुभूतियों को चित्रित करता है, जो काव्य-रसिकों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करने वाला है। इससे अहिल्या को दोषमुक्ति और उसके अन्तर्मन की पवित्रता की ओर संकेत करने के कवि-कर्म का विशेष प्रयोजन भी पूरा होता है। सामाजिक जहां अहिल्या के प्रति सहृदय हो उठते हैं, वहीं राम के मन में भी श्रद्धाभाव उत्पन्न होता है और वे अहिल्या का पैर छू लेते हैं -
"राघवौ तु ततस्तस्याः पादौ जगृहतुस्तदा"
इस प्रकार राम की संवेदनशीलता उनके अंदर की मनुष्यता के साथ मूर्तिमान हो उठी है, वे अहिल्या के ऊपर 'कृपा' नहीं, बल्कि अपने सामाजिक दायित्व के साथ कर्त्तव्य निर्वहन करते दिखाई देते हैं। दरअसल 'तारयैनां' शब्द यहां चरितार्थ हुआ है। यही साहित्यिक दृष्टि है, जहाँ बिना लाग-लपेट के मानवता की मंगलकामना प्रतिष्ठित होती है।
इधर 'रामचरितमानस' में तुलसी की भक्ति-भावना ने काव्य का रूप लिया है, उनके राम भगवान हैं। स्वाभाविक है, भगवान् अपने भक्तों पर 'कृपा' ही करते हैं और यह 'कृपा' किसी भी रूप में हो सकती है। तुलसी लिखते हैं -
'परसद पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही'
राम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। राम अपने पैरों से उस 'सिला' का स्पर्श करते हैं। यहाँ स्पष्ट रूप से 'कृपा' और 'तारय' में अंतर है। 'कृपा' में 'मानवीयता' वाली कर्त्तव्य-भावना नहीं बल्कि 'अहसान' करने का बोध छिपा है, जिसमें 'प्रभुता का अहंकार' विराजमान है। हालांकि तुलसी भी अहिल्या को 'तपपुंज' अर्थात तपस्विनी मानते हैं, और उनके विश्वामित्र भी 'सकल कथा मुनि कहा विसेषी' अर्थात अहिल्या के बारे में राम को सब-कुछ बताए रहते हैं। लेकिन क्या कुछ बताया है, यह तुलसी ही जाने! वे इसका विवरण नहीं देते। इससे प्रमाणित है कि तुलसी स्वान्त: सुखाय के कवि हैं क्योंकि वे भक्ति में आनंद खोजते हैं। इसीलिए उनके राम इस संवेदनशील अवसर पर 'भगवान' ही बने रहे और वाल्मीकि के राम जैसी करुण-भावना नहीं दिखाते ! अन्यथा 'सिला' को पैरों से स्पर्श न करते। यहां 'भगवान्' राम ज़्यादा से ज़्यादा 'कर्मवाद' की स्थापना करते दिखाई देते हैं कि तपस्विनी अहिल्या को अब उसके तप का फल मिलना चाहिए।
दूसरी ओर वाल्मीकि जी के 'तारयैनां' से "इसका उद्धार करें" अभिप्रेत है। एक तिनका भी किसी का उद्धार कर सकता है। इसमें आए 'तारय' शब्द से किसी सामंतीय भावना की अभिव्यक्ति नहीं होती। अहिल्या का पैर छूकर वाल्मीकि के राम नारी के सम्मान की स्थापना करते हैं और समाज में उसे व्यापक स्वीकृति दिलाते प्रतीत हो रहे हैं। अहिल्या के प्रति व्यक्त हुई राम की इस करुण-भावना में यह संदेश भी छिपा है कि इस संसार को 'ईश्वर' से अधिक 'मनुष्य' की जरूरत है। इसीलिए साहित्यिक दृष्टि ईश्वर की बजाय मनुष्य की खोज में रहती है।
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महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित 'रामायण' एक जन-काव्य है। इस महाकाव्य में परिस्थितियों के साथ पात्रों की प्रतिक्रियाएं मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यक्त हुई है। अहिल्या प्रसंग में तो महर्षि वाल्मीकि किसी आधुनिक साहित्यकार की तरह मनोवैज्ञानिक सूत्र पकड़कर चले हैं और स्त्रियों के न्यायपूर्ण अधिकारों की मार्मांतक व्याख्या करते हैं। यहां कवि नहीं, उसके पात्र 'बोलते' हैं। शरतचन्द्र के शब्दों में कहें तो पात्रों का यह बोलना ही उनके "प्राणों की वह पुकार" है जिससे कोई भी साहित्यिक कृति जीवंत हो उठती है। इसीलिए साहित्यिक दृष्टि से 'रामायण' एक जीवंत महाकाव्य है। वहीं 'रामचरितमानस' में सर्वत्र कवि ही 'बोलता' है। तुलसी के इस 'कहने' की प्रवृत्ति ने ही 'मानस' को एक 'धार्मिक-काव्य' बना दिया है, जैसे नीति शास्त्र की कोई 'पोथी' हो। शरत् बाबू भी रेखांकित करते हैं कि "साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है।" दरअसल धार्मिक-साहित्य का महत्त्व और प्रभाव एक दायरे तक सीमित होता है, इसलिए शरतचन्द्र यह मानते हैं कि 'साहित्य होने के लिए सबके हितों से सहानुभूति रखना आवश्यक' होता है। 'वाल्मीकि-रामायण' ऐसी ही एक साहित्यिक कृति है, जिसमें राम 'भगवान' की तरह अहिल्या पर 'कृपा' नहीं, बल्कि 'मनुष्य' बने रहकर ही सहानुभूति जताते हैं। राम एक 'लांक्षित' स्त्री का आतिथ्य स्वीकार करके तत्कालीन समाज की बनी-बनाई मर्यादा को तोड़कर "पुरुषोत्तम" बनते हैं।
राम और लक्ष्मण द्वारा पैर छूते ही अहिल्या को गौतम ऋषि का श्राप स्मरण हो आया कि इस आश्रम में राम के आने पर 'लोभमोहविवर्जिता' होकर उनका सत्कार करने पर वह श्राप से मुक्ति पाएगी-
"स्मरन्ती गौतमवच : प्रतिग्राह सा च त"
यह याद आते ही अहिल्या उनके चरण पकड़ लेती है और आतिथ्य-सत्कार करती है। इधर राम ने भी अहिल्या के उस आतिथ्य को स्वीकार कर लिया -
पाद्यमर्ध्य तथाss तिथ्यं चकार सुसमाहिता
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा
यही नहीं, आश्रम में राम के आगमन को जानकर गौतम ऋषि भी आ जाते हैैं। राम उनका भी आतिथ्य स्वीकार करते हैं -
"रामोऽपि परमां पूजा गौतमस्य महामुनेः"
वाल्मीकि के इस वर्णन में एक संदेश यह भी छिपा है कि "आतिथ्य करना" और "आतिथ्य स्वीकार करना" दोनों से समान धरातल पर होने का बोध होता है। यहां मेज़बान और मेहमान, दोनों एक-दूसरे का अनुग्रह प्राप्त करते हैं। वहीं तुलसी ने 'भगवान' राम की 'कृपा' प्राप्त होने के बाद अहिल्या से "मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन" कहलाकर राम की 'स्तुति' कराई । इस स्तुति से स्त्री के न्यायपूर्ण अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता का महत्त्व कम होता है।
अभी पिछले कुछ दशकों तक स्त्रियों के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण बेहद संकुचित रहा है। इलाहाबाद के बांध पर अक्सर पागल सी दिखाई पड़ जाने वाली एक वृद्धा के बारे में एक बार किसी ने मुझे बताया था कि विवाह के बाद युवावस्था में ही उसके परिवार वालों ने उसपर चारित्रिक दोष मढ़कर उसे त्याग दिया था। 'चरित्रहीन' में किरणमयी का यह कहना कि "इस जाति को गले में रस्सी बाँधकर यदि दस-बीस वर्ष तक लटकाकर रखा जाए, तब भी यह नहीं मरेगी" समाज में प्रताड़ित ऐसी ही स्त्री की मनोदशा पर मार्मिक कथन है। दरअसल इसके पीछे समाज का दृष्टिकोण उत्तरदाई रहा है। इसपर शरतचंद्र प्रश्न उठाते हैं कि "नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है?" इसीलिए वे 'सतीत्व' और 'नारीत्व' को अलग देखने के लिए कहते हैं, "मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।” और अंततः वे स्त्रीत्व पर किसी भी कलंक-कथा को पाप मानने की घोषणा करते हुए कहते हैं "नारी के कलंक पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं।"
शरतचंद्र ने नारी की प्रताड़ना के पीछे मर्दवादी सोच से उपजे दंभ को उत्तरदाई माना है 'परिणीता' में वे कहते भी हैं "संसार के सारे पुरुष सभी दोष नारी के ऊपर अभिमानपूर्वक मढ़कर एकतरफा फैसला करते हैं। बेचारी नारी को सबकुछ सहन करना पड़ता है।" दरअसल वास्तविकता तो यही है कि स्त्री पर अत्याचारों की जड़ में उसका आत्मनिर्भर न होना ही रहा है। 'आर के नारायण' के उपन्यास "डार्क रूम" में रमानी की पत्नी का यह कथन कि "मेरा कुछ नहीं है इस दुनिया में। औरत के पास उसके बदन के अलावा अपना और क्या है? इसके अलावा सब कुछ उसके बाप का है, पति का है, बेटे का है।" तो स्त्री की परनिर्भरता से उपजी अधिकार-विहीनता का ही दर्द है।
कुछ अपवादों को छोड़कर सदियों से स्त्री के प्रति भारतीय समाज की दृष्टि ऐसी ही रही है। उसके साथ चाहे मर्दवादी दंभी व्यवहार रहा हो या फिर व्यभिचार की लांक्षना, प्रताड़ना की केंन्द्रविंदु सदैव से स्त्री ही रही है। ऐसी ही एक प्रताड़ित असहाय सी अहिल्या को समाज में पुनर्प्रतिष्ठा दिलाकर वाल्मीकि के राम ने समाज की बनाई हुई मर्यादा को तोड़ा। जिसका एक संदेश है कि, किसी लीक पर बंधकर चलने की जरूरत नहीं, मानवीय दृष्टिकोण के साथ समाज को परिवर्तनशील होना चाहिए।
'मानस' में अहिल्या पर 'कृपा' करना 'भगवान्' राम के लिए उतना चुनौतीपूर्ण नहीं रहा होगा जितना 'रामायण' के 'मनुष्य' राम के लिए! राम उस स्त्री के आश्रम में जाकर उसका आतिथ्य स्वीकारते हैं जिसे उसके पति ने त्याग दिया है, और जिसपर लगे कलंक का दाग़ इतना गहरा था कि उसके आश्रम में मनुष्य क्या, पशु-पक्षियों तक ने जाना छोड़ दिया था!! आखिर कैसी रही होगी उस समय की सामाजिक व्यवस्था? और तो और, अहिल्या के पुत्र शतानंद जिसके लिए वाल्मीकि ने 'महातेजा:' और 'महातपा:' जैसे विशेषण का प्रयोग किया है, ने भी अपनी माता से दूरी बना लिया था।
ऐसे सामाजिक परिवेश में अहिल्या को सम्मान देना एक दुष्कर लेकिन महान सामाजिक कार्य तो था ही, साथ में राम द्वारा उठाया गया यह कदम आश्चर्यजनक भी था। शायद यही कारण है कि विश्वामित्र से अहिल्या के उद्धार और गौतम ऋषि से भेंट के वृत्तांत (अहल्यादर्शनं चैव गौतमस्य समागमम्) को सुनकर महातपस्वी शतानंद के रोंगटे खड़े हो गए थे -
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रस्य धीमतः
हृष्टरोमा महातेजा: शतानन्दो महातपा:
शतानंद इतने पर भी नहीं रुकते वे आश्चर्य में भरकर विश्वामित्र से अपनी जिज्ञासाएं शान्त करने लगते हैं। जैसे कि -
अपि ते मुनिशार्दूल मन माता यशस्विनी
दर्शिता राजपुत्राय तपोदीर्घमुपागता
बहुत दिनों से तप कर रही मेरी माता को क्या श्री राम को दिखाया ? और क्या मेरी माता ने श्री राम का सत्कार किया?-
अपि रामे महातेजा मम माता यशस्विनी
वन्यैरुपाहरत्पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम्
शतानंद विश्वामित्र से यह भी पूछते हैं कि क्या आपने इंद्र ने मेरी माता के प्रति जो दुराचार किया था वह पुरातन वृत्तांत भी राम से कहा था?
अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातन मर
मम मातुर्महातेजो दैवेन दुरनुष्ठितम्
शतानंद को इस बात पर आश्चर्य था कि क्या यह सब जानने के बाद भी श्री राम वहां गए ? और वे यह भी पूँछते हैं कि क्या राम के दर्शन के प्रभाव से मेरी माता मेरे पिता को मिल गयी या नहीं?
अपि कौशिक भद्र ते गुरुणा मम संङ्गता
माता मम मुनिश्रेष्ठ रामसंदर्शनादितः
लेकिन शतानंद यह भी समझ रहे थे कि माता का अपराध बहुत बड़ा था और पिता ने श्राप देकर माता को त्यागा था, तो माता का उद्धार करने पर क्या पिता ने राम का सत्कार किया या नहीं! (अर्थात पिता राम से भी तो नाराज नहीं हो गए?) -
अपि मे गुरुणा रामः पूजितः कुशिकात्मज
इहागतो महातेजाः पूजां प्राप्तो महात्मन:
शतानंद से रहा नहीं गया तो विश्वामित्र से यह प्रश्न भी कर लेते हैं कि आश्रम में मेरे पिता के आने पर श्री राम ने उनको प्रणाम किया था या नहीं? अथवा मेरी माता के दोषों पर ध्यान दे उन्होंने उनका तिरस्कार तो नहीं किया?
शतानंद और विश्वामित्र के बीच हुए इस वार्तालाप में 'अपि' शब्द बड़ा मार्मिक और हृदयस्पर्शी है। यही वह शब्द है जिससे पता चलता है भगवान् से भी बढ़कर मनुष्य और उसकी संवेदनाएं हैं। एक सच्चे साहित्यकार की भांति वाल्मीकि को काव्य के मर्मस्थलों की पहचान है। इस प्रकार वे अपनी 'रचनाप्रक्रियावली' के माध्यम से भगवान को नहीं, अपितु 'मनुष्य' को प्रतिष्ठित करते हैं।
इस लेख के अंत में यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि यहां वाल्मीकि या तुलसी की तुलना के पीछे का आशय किसी एक को छोटा या बड़ा दिखाना नहीं है। दोनों अपने-अपने युगानुरूप चिंतन-प्रक्रिया में रत रहे होंगे और युगानुकूल साहित्य का सृजन किए। दरअसल इस तुलना के पीछे इनकी दृष्टियों के फ़र्क को समझना रहा है। इनमें एक है संवेदनशील साहित्यिक-दृष्टि, जो मानवतावादी दृष्टिकोण पर जाती प्रतीत हुई और दूसरी भक्ति-भाव से समन्वित धार्मिक-दृष्टि है, जिससे हमारा समाज प्रभावित होता है। आजकल के तमाम सामाजिक और धार्मिक संघर्ष पर ऐसी दृष्टियों का प्रभाव पड़ रहा है।
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वास्तविकता यही है कि "आतिथ्य करना" और "आतिथ्य स्वीकार करना" समान धरातल का बोध कराता है, इसमें भगवान की स्तुति वाला भाव नहीं है जो भगवान की कृपा प्राप्त होने के बाद तुलसी ने अहिल्या से "मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन" कहकर कराई है।
"साहित्य का मूल है सहित से, अर्थात् सबके सहित सहानुभूति रखना आवश्यक है।"
"साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है।"
"स्मरन्ती गौतमवच : प्रतिग्राह सा च तौ"
अहिल्या ने भली भांति उनका आतिथ्य किया । दोनों राजकुमारों ने भी शास्त्रों में वर्णित विधिविधान के साथ किये गए उसके आतिथ्य को ग्रहण किया
गौतमोऽपि महातेजा अहिल्यासहितः सुखी
रामं संपूज्य विधिवत्तपस्तेपे महातपाः
रामोऽपि परमां पूजा गौतमस्य महामुनेः
राम ने भी गौतम से विधिवत् पूजा ग्रहण किया
"सब कुछ लेखक ही कह डालना चाहता है। पात्रों के प्राणों की वह पुकार इसमें कहां सुनाई देती है"
नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है?
मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।”
शरत् बाबू ने अपने साहित्य में स्पष्ट रूप से यह अंकित किया है कि पुरुषों के बनाये हुए झूठे शास्त्र केवल स्त्रियों को बांध रखने की बेड़ियां हैं।