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शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

भगवान से भी बढ़कर मनुष्य है

             भगवान से भी बढ़कर मनुष्य होता है। दरअसल 'मनुष्य होना' अस्तित्व बोध है तो वहीं 'ईश्वरत्व' इस अस्तित्व-बोध का खंडन है। हम "सियाराममय सब जग जानी" कहते हैं, इसमें सब कुछ को ईश्वर के रूप में स्वीकार करके चलने की बात है। लेकिन ठीक इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक भाव, 'ईश्वर' की इस 'सब कुछ' से एक खामोशी भरी दूरी को भी स्वीकारता है। इस 'खामोशी भरी दूरी' में चीजों के प्रति उपेक्षा का भाव निहित है, और जो प्रकारांतर से 'अमानवीयता' ही है। 'ईश्वर' की यह 'अमानवीयता' इस रूप में समझ सकते हैं कि यदि मनुष्यता का मुक्ति में विश्वास है तो 'ईश्वरत्व' चीजों को अपने से 'परे' नहीं जाने देती। देखा जाए तो, ईश्वर पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के ईश्वर की तरह सर्वग्रासी है। तभी तो, ऐसे सर्वग्रासी ईश्वर को सिंह की गुफा के सदृश्य माना गया, जिसमें जाते हुए पदचिह्न्न तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन बाहर आते हुए पदचिह्न्न नहीं मिलते।

           वैसे 'भगवान' और 'मनुष्य' के बीच का यह झगड़ा सुलझाने के लिए अद्वैत, विशिष्टाद्वैत या द्वैतवाद भी पर्याप्त नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अवधारणा में ही ऐसे सारे विवाद की जड़ अन्तर्निहित है। इस समस्या का समाधान दार्शनिक दृष्टि में नहीं, अपितु मानवीय संवेदनाओं से उपजी साहित्यिक-दृष्टि, इसपर अधिक समग्रता और संवेदनशीलता के साथ विचार करती हुई प्रतीत होती है।

            किसी कृति की साहित्यिक दृष्टि उसकी रचना प्रक्रिया से समझी जा सकती है। इसके लिए महाकवि वाल्मीकि के रामायण के राम और तुलसी के रामचरित मानस के राम का चरित्र तुलनीय है। रामायण की रचना प्रक्रिया के पीछे महाकवि वालमीकि के "मा निषाद प्रतिष्ठां.." में अभिव्यक्त 'शोकार्त्त' भाव वाली संवेदनशीलता है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी इस बात को स्वीकार करते हैं -

         "शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा"
   
         अर्थात यह श्लोक हमने अपने मुख से शोकार्त्त ही निकाला है।
          
         जिस अभिव्यक्ति के पीछे शोक से उपजी मनःस्थिति हो; वह दूसरों के हृदय में वैसी ही वेदना की कल्पना कर सकता है। ऐसे रचनाकार की रचनावृत्ति मनोवैज्ञानिक ढ़ग से अपने पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए चलती है। इसीलिए आदि कवि वाल्मीकि के राम "सम्पूर्ण मनुष्य" की ओर अग्रसर हैं। नामवर सिंह जी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के कथन का उल्लेख करके यही दिखाने का प्रयास किया है - "वाल्मीकि ने नेता की ही खोज की थी। ऐसे नर चंद्रमा की, जिसमें मनुष्य की 'समग्रा लक्ष्मी' का निवास हो। उन्हें उन नेताओं के किसी ऐसे स्थाई भाव की खोज नहीं थी, जो विभावानुभाव संचारी भाव के संयोग से रस रूप में परिणत हो सके। वे मनुष्य के संपूर्ण और आदर्श रूप के जिज्ञासु थे।" कहने का आशय यह भी है कि महाकवि, रामायण में बिना किसी "वाग्जाल" के राम की प्रतिष्ठा और उनके चरित्र की खोज करते है और जिसमें, नामवर जी के अनुसार, द्विवेदी जी के शब्दों में "उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता है।" 

             इस प्रकार यदि वाल्मीकि की संवेदनशीलता एक 'सम्पूर्ण मनुष्य' की खोज करती है तो वहीं तुलसी ने रामचरित मानस को भक्ति-भाव की भूमि पर रचा है और यहाँ राम का पाला 'भक्त' से पड़ा है। इसीलिए तुलसी मानते हैं कि सुकवि की कविता होने पर भी राम नाम के बिना वह श्रेष्ठ नहीं कहलाती। जैसे वस्त्र के बिना अन्य साज-सज्जा के होते हुए भी नारी शोभनीय नहीं होती -     

"भनिति विचित्र सुकवि कृत न जोऊ, राम नाम बिनु सोह न सोऊ।
बिधुवदनी सब भांति संवारी, सोन न बसन बिना बर नारी।।"
       भक्ति-मानस की पृष्ठभूमि में तुलसी की सारी संवेदनाएँ "भगवान" की प्रतिष्ठा में ही खर्च हो जाती है। महिमामंडन के इस प्रयास में "भगवान" का चरित्र ऐसा उभरता है कि 'राम' उसके नीचे दब जाते हैं।
      
        यहाँ इस चर्चा के परिपेक्ष्य में, रामायण और रामचरित मानस में आए अहिल्या वाले प्रसंग से राम के चरित्र की तुलना कर दोनों महाकवियों वाल्मीकि और तुलसी के 'सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य' समझ सकते हैं।

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             विद्वानों का कहना है, प्रत्येक लिखा हुआ साहित्य होता है। लेकिन यह "लिखा हुआ" ऐसा वैसा नहीं, इसमें मन-जन का विवेचन होना चाहिए। यह विवेचन जब मर्म को बेधे तभी वह साहित्य है। इसीलिए धार्मिक-साहित्य श्रद्धा के विषय तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी रचनाधर्मिता अनुभूतियों को जगाने में लगभग असफल सी होती हैं। क्योंकि 'उपदेश' भावों की सृष्टि नहीं कर पाते। आचार्य द्विवेदी जी के शब्दों में "...काव्य सर्जक है, वह मनुष्य की दुनिया में नए भावों की सृष्टि करके विधाता के भाव-जगत में वृद्धि करता आ रहा है।" इस कथन का आशय यही है कि साहित्य को भाव-जगत की पहचान कराने वाला होना चाहिए। अहिल्या-प्रसंग से वाल्मीकि और तुलसी की अलग-अलग भाव-दृष्टि का ही नहीं, बल्कि उनके काव्यगत उद्देश्यों का भी पता चलता है। 

        रामचरित-मानस की अपेक्षा वाल्मीकि-रामायण में अहिल्या का प्रसंग अधिक गाम्भीर्य और मनोवैज्ञानिकता के साथ मानवीय संवेदना की पहचान कराने वाला है। वहीं तुलसी ने इस प्रसंग को चलताऊ ढंग से लिया। यदि तुलसी के राम "आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं" के कारण जिज्ञासु हैं, तो रामायण के राम की जिज्ञासा "पुराणं निर्जनं रम्यं" अर्थात पुराने और निर्जन लेकिन रमणीक आश्रम के बारे में है। यहां 'पुराणं' और 'रम्यं' जैसे शब्द उस स्थान के प्रति मनोवैज्ञानिक प्रभाव जगाते हैं, जिसका संकेत विश्वामित्र, इसे कभी का 'देवताओं जैसा और देवताओं द्वारा पूजित' गौतम ऋषि का आश्रम (आश्रमो दिव्यसंकाश: सुरैरपि सुपूजित:) कहते हुए, अहिल्या का प्रसंग सुनाकर देते हैं। इसी आश्रम में गौतम ऋषि की अनुपस्थिति जान (तस्यांतर विदित्वा) उनका ही वेश धारण कर (मुनिवेषधरोअहल्यामिदं) इंद्र ने अहिल्या से समागम की इच्छा व्यक्त की थी -
       
          "संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे"  

       और मुनि वेशधारी इंद्र को पहचानकर भी अहिल्या ने उसके साथ प्रसन्नतापूर्वक समागम किया -
   
          "मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन
           मतिं चकार दुर्मेधा देवराज कुतूहलात।।"

        यही नहीं वाल्मीकि जी ने इस समागम के उपरांत अहिल्या से "कृतार्थेनान्तरात्मा" और "कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ" कहलवाकर अहिल्या के कुछ ऐसे ही मनोरथ के पूर्ण होने का संकेत भी किया है। अहिल्या के इस "मनोरथ" को समझकर ही गौतम ऋषि ने उसे "इह वर्षसहस्त्राणि बहूनि त्वं निवत्स्यसि" अर्थात इसी स्थान पर हजारों वर्षों तक रहने एवं वायु-भक्षण करते हुए निराहार रहकर राख पर सोने एवं अदृश्य रहकर निवास करने का शाप देते हैं - 
       
       "वायुभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी
        अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेsस्मिन्निवत्स्यसि"
       
     लेकिन अब वही अहिल्या राम को तप के तेज से प्रकाशित होती दिखाई पड़ी -
      
        "ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम" 
    
        जो कोहरे में छिपी हुई पूर्णमासी के चन्द्रमा की जैसी या जल में पड़ते सूर्य के प्रतिबिम्ब की तरह दीप्तिमान थी -
     ‌ 
        "स तुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव
         मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्तां सूर्यप्रभामिव"

             
          वाल्मीकि के राम ने जिस निर्जन लेकिन रम्य स्थान को देखा वहाँ गौतम ऋषि द्वारा शापित उनकी "दुर्मेधा" पत्नी निवास करती है, समाज-बहिष्कृता होने के कारण जहाँ कोई नहीं जाता। इसीलिए वह स्थान निर्जन है। ये राम एक संवेदनशील व्यक्ति के मानवीय दृष्टि से समाज से ठुकराई एकान्तवासिनी अहिल्या की तपश्चर्या और पश्चात्ताप की वेदना (तुषारावृतां) से उपजे उसके अन्तर की पवित्रता को पहचान जाते हैं। इसीलिए उन्हें अहिल्या 'द्योतितप्रभामाम' अर्थात दीप्तिमान दिखाई पड़ी। महाकवि वाल्मीकि के इस वर्णन में उनकी साहित्यिक-दृष्टि झलक आई है। यही वह दृष्टि है जो वाह्य तो वाह्य! मन की वेदना को भी पहचान जाती है। अहिल्या की इस वेदना वाली मनःस्थिति को दर्शाने के लिए ही महाकवि ने कहा है कि धुएँ में जलती हुई आग की लपट की तरह वह गौतम ऋषि के शाप से किसी को दिखाई नहीं पड़ती थी। 

            धूमेनापि परीतांगीं दीप्तामग्निशिखामिव
            सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह"
     
     वाल्मीकि के इस श्लोक से प्रमाणित है कि, लज्जा और पापबोध से उपजे आत्मग्लानि (धूमेनापि परीतांगीं) और इससे ऊपर समाज-बहिष्कृता तथा पति द्वारा परित्यक्ता होने की आत्म-प्रतारणा से अहिल्या 'निर्वेद' की स्थिति में होती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का अन्तर्मन प्रकाशित (दीप्तामग्निशिखामिव) हो उठता है और वह स्वयं दुनियावी मोह-जाल से अपना सरोकार समाप्त कर समाज की नजरों से ओझल सा हो (दुर्निरीक्ष्या बभूव) जाता है। 

      यहाँ ध्यातव्य है, गौतम ऋषि ने अहिल्या को पुनः: स्वीकार करने के लिए लोभ-मोह से रहित (लोभमोहविवर्जिता) होकर राम का आतिथ्य करने की शर्त रखा था - 

         तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता
         मत्सकाशे मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिप्यसि

       इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि की काव्यानुभूति राम को 'लोभमोहविवर्जिता' अहिल्या का दर्शन कराती है। ऐसी अहिल्या का उद्धार नहीं होगा तो फिर किसका होगा? इसीलिए वाल्मीकि ने राम से ऐसी 'महाभागा' अहिल्या को तारने के लिए कहा, जिससे वह देवरुपिणी हो जाए -

        "तारयैनां महाभागामहल्यां देवरुपिणीम" 
       
       यहां दोनों महाकवियों वाल्मीकि और तुलसी की दृष्टियों में अंतर स्पष्ट है। गोस्वामी तुलसी दास जी का कवि हृदय इस प्रसंग में उतना मानवीय और संवेदनशील नहीं बन पड़ा है। 'रामचरितमानस' के राम को अहिल्या "सिला" के रूप में दिखाई पड़ती है -

      ‌‌ "पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी" 

        तुलसी से इस 'सिला' की 'मन:स्थिति' और वेदना अननुभूत ही रह जाती है। यहां उनका हृदय साहित्यिक-धर्म निबाहता हुआ नहीं दिखाई देता। बल्कि उनकी यह दृष्टि भक्ति-समन्वित धार्मिक-नैतिकता (पूजा-अराधना की फॉलोइंग वाली) वाली है। अहिल्या उनके लिए हाड़-मांस की नहीं 'उपल देह' वाली अर्थात पत्थर है। उन्होंने विश्वामित्र से कहलवाया भी है- 

       "गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर
       चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुवीर।

       तुलसी अपने प्रभु की 'प्रभुताई' में इतने मगन हैं कि एक स्त्री के शिला बनने के पीछे के गर्हित कारण को वे नहीं दिखाना चाहते। वैसे कुछ लोग मान सकते हैं कि शायद तुलसी दास जी ने अहिल्या के मनोभाव को ही 'सिला' के रूप में इसीलिए चित्रित किया हो कि अतिशय वेदना की स्थितियों से गुजरने पर व्यक्ति पत्थर-हृदय हो जाता है! लेकिन भक्ति के प्रभाव में जब वे राम से इस 'उपल देह' पर‌ "कृपा" करने के लिए कहते हैं, तो जैसे अमानवीय हो उठते हैं। यहाँ तुलसी की छवि थोड़ी-बहुत स्त्री-विरोधी की हो उठती है, उनपर तो जैसे राम का "भगवानत्व" सिद्ध कराने का धुन सवार है।     

        दरअसल इसी धुन में गोस्वामी जी अहिल्या की मानसिक-वेदना और उसकी निर्वेदावस्था को महत्त्व देते हुए नहीं दिखाई पड़ते। यदि वे ऐसा करते तो अहिल्या जिस ऊंचाई पर दिखाई पड़ती, तब उसे 'भगवानत्व' वाली 'कृपा' की नहीं, बल्कि समाज में पुनः प्रतिष्ठा के लिए मानवीय मदद पाने की अधिकारिणी होती। महर्षि वाल्मीकि ने अहिल्या के इस सामाजिक अधिकार को पहचानकर ही विश्वामित्र से "तारयैनां महाभागामहल्यां'' कहलाकर राम के मन में उसके प्रति कर्तव्यबोध जगाया। क्योंकि अहिल्या अब इस योग्य हो चुकी है कि उसे 'कृपा' की नहीं, बल्कि उस तिरष्कृता नारी को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा लौटाने की आवश्यकता है। यह किसी भी सहृदय व्यक्ति का कर्तव्य-कर्म होना चाहिए। इस प्रकार 'रामायण' और 'रामचरितमानस' के अहिल्या-प्रसंग में आए 'तारय' और 'कृपा' जैसे शब्दों से इन दोनों महाकाव्यों के काव्यगत उद्दश्यों में अंतर का भी पता चलता है।
        
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          नामवर जी "दूसरी परंपरा की खोज" में लिखते हैं, "रचना-प्रक्रियावाली सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य मनुष्य ही होता है और काव्य में उसी के सम्मूर्तन की समस्या कवि की मुख्य समस्या होती है।" वाल्मीकि और तुलसी दो अलग-अलग युगों में हुए हैं, और उस समय के देश-काल की परिस्थितियां भी भिन्न रही होंगी। लेकिन युग चाहे जो हो, काव्य-सर्जक अन्ततः अपने युग के मनुष्य की खोज में रहता है। अवतारवाद की अवधारणा भी ऐसे ही खोजों का परिणाम है। वाल्मीकि हों या तुलसी, दोनों की सर्जनात्मक दृष्टि अपने युग के 'पुरुषोत्तम' की खोज करती है। इस लेख में इन महाकवियों की प्रसंगगत तुलना एक ही विषय पर इनकी सर्जनात्मक दृष्टि को लेकर है। काव्य-सृजन के पीछे रचनाकार के मनोविज्ञान की भूमिका होती है, जो रचना-प्रक्रियावली में व्यक्त होकर उसके काव्यात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति कराती है। 

         'तारय' या 'कृपा' जैसे शब्दों से अहिल्या-प्रसंग में आए पात्रों के प्रति इन द्वय महाकवियों की मनोवैज्ञानिक संवेदनशीलता प्रदर्शित है। इससे काव्य-कर्म के पीछे का इनका अभिप्रेत संकेतित होता है। भरतमुनि के अनुसार काव्य का उद्देश्य दुख, श्रम शोक से आर्त और तपस्वियों को मानसिक शांति प्रदान करना है - 

       "दुखार्तांना श्रमार्तांना शोकर्तांना तपस्विनाम 
        विश्रामजनन लोके नाट्यमेतद भविष्यति।" 
               
         लेकिन विचारकों ने माना है कि इस उद्देश्य को पाने के लिए काव्य-सर्जक को 'द्रष्टा' होना चाहिए। 'द्रष्टापन' चीजों को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने का अवसर देता है। क्रौंच पक्षी की पीड़ा से शोकार्त्त महर्षि वाल्मीकि 'रामायण' सृजन के लिए प्रेरित हुए और उनके इस भाव का प्रभाव महाकाव्य के पात्रों पर भी पड़ा है। इसीलिए इस प्रसंग में पात्र सहज और मानवीय चारित्र वाले हैं तथा अपने परिवेश के अनुसार सहज प्रतिक्रिया व्यक्त करते प्रतीत होते हैं। यहाँ रचनाकार ने पात्रों को जैसे खुला छोड़ रखा है, जिनके बीच वह अपने "सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य" "मनुष्य के सम्मूर्तन की समस्या" हल करता है। जैसे वह सामाजिकों को बताना चाह रहा हो कि देखो ऐसे भी लोग हैं। अहिल्या-प्रसंग में गौतम ऋषि के आश्रम के घटनाक्रम से अवगत होने के बाद राम वहाँ जिस अहिल्या को देखते हैं वह "तपसा" अर्थात तपस्विनी के रूप में है, उस तप-मूर्ति के लिए ही महाकवि ने 'द्योतितप्रभामाम', तुषारावृतां, पूर्णचन्द्रप्रभामिव, सूर्यप्रभामिव, धूमेनापि परीतांगीं और दीप्तामग्निशिखामिव जैसी उपमा का प्रयोग किया। यहां कवि द्रष्टा है लेकिन साक्षी-भाव से अपने पात्रों की अनुभूतियों को चित्रित करता है, जो काव्य-रसिकों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करने वाला है। इससे अहिल्या को दोषमुक्ति और उसके अन्तर्मन की पवित्रता की ओर संकेत करने के कवि-कर्म का विशेष प्रयोजन भी पूरा होता है। सामाजिक जहां अहिल्या के प्रति सहृदय हो उठते हैं, वहीं राम के मन में भी श्रद्धाभाव उत्पन्न होता है और वे अहिल्या का पैर छू लेते हैं - 

         "राघवौ तु ततस्तस्याः पादौ जगृहतुस्तदा" 

      इस प्रकार राम की संवेदनशीलता उनके अंदर की मनुष्यता के साथ मूर्तिमान हो उठी है, वे अहिल्या के ऊपर 'कृपा' नहीं, बल्कि अपने सामाजिक दायित्व के साथ कर्त्तव्य निर्वहन करते दिखाई देते हैं। दरअसल 'तारयैनां' शब्द यहां चरितार्थ हुआ है। यही साहित्यिक दृष्टि है, जहाँ बिना लाग-लपेट के मानवता की मंगलकामना प्रतिष्ठित होती है।

       इधर 'रामचरितमानस' में तुलसी की भक्ति-भावना ने काव्य का रूप लिया है, उनके राम भगवान हैं। स्वाभाविक है, भगवान् अपने भक्तों पर 'कृपा' ही करते हैं और यह 'कृपा' किसी भी रूप में हो सकती है। तुलसी लिखते हैं -

'परसद पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही'
           
     राम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। राम अपने पैरों से उस 'सिला' का स्पर्श करते हैं। यहाँ स्पष्ट रूप से 'कृपा' और 'तारय' में अंतर है। 'कृपा' में 'मानवीयता' वाली कर्त्तव्य-भावना नहीं बल्कि 'अहसान' करने का बोध छिपा है, जिसमें 'प्रभुता का अहंकार' विराजमान है। हालांकि तुलसी भी अहिल्या को 'तपपुंज' अर्थात तपस्विनी मानते हैं, और उनके विश्वामित्र भी 'सकल कथा मुनि कहा विसेषी' अर्थात अहिल्या के बारे में राम को सब-कुछ बताए रहते हैं। लेकिन क्या कुछ बताया है, यह तुलसी ही जाने! वे इसका विवरण नहीं देते। इससे प्रमाणित है कि तुलसी स्वान्त: सुखाय के कवि हैं क्योंकि वे भक्ति में आनंद खोजते हैं। इसीलिए उनके राम इस संवेदनशील अवसर पर 'भगवान' ही बने रहे और वाल्मीकि के राम जैसी करुण-भावना नहीं दिखाते ! अन्यथा 'सिला' को पैरों से स्पर्श न करते। यहां 'भगवान्' राम ज़्यादा से ज़्यादा 'कर्मवाद' की स्थापना करते दिखाई देते हैं कि तपस्विनी अहिल्या को अब उसके तप का फल मिलना चाहिए। 

       दूसरी ओर वाल्मीकि जी के 'तारयैनां' से "इसका उद्धार करें" अभिप्रेत है। एक तिनका भी किसी का उद्धार कर सकता है। इसमें आए 'तारय' शब्द से किसी सामंतीय भावना की अभिव्यक्ति नहीं होती। अहिल्या का पैर छूकर वाल्मीकि के राम नारी के सम्मान की स्थापना करते हैं और समाज में उसे व्यापक स्वीकृति दिलाते प्रतीत हो रहे हैं। अहिल्या के प्रति व्यक्त हुई राम की इस करुण-भावना में यह संदेश भी छिपा है कि इस संसार को 'ईश्वर' से अधिक 'मनुष्य' की जरूरत है। इसीलिए साहित्यिक दृष्टि ईश्वर की बजाय मनुष्य की खोज में रहती है।
        
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        महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित 'रामायण' एक जन-काव्य है। इस महाकाव्य में परिस्थितियों के साथ पात्रों की प्रतिक्रियाएं मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यक्त हुई है। अहिल्या प्रसंग में तो महर्षि वाल्मीकि किसी आधुनिक साहित्यकार की तरह मनोवैज्ञानिक सूत्र पकड़कर चले हैं और स्त्रियों के न्यायपूर्ण अधिकारों की मार्मांतक व्याख्या करते हैं। यहां कवि नहीं, उसके पात्र 'बोलते' हैं। शरतचन्द्र के शब्दों में कहें तो पात्रों का यह बोलना ही उनके "प्राणों की वह पुकार" है जिससे कोई भी साहित्यिक कृति जीवंत हो उठती है। इसीलिए साहित्यिक दृष्टि से 'रामायण' एक जीवंत महाकाव्य है। वहीं 'रामचरितमानस' में सर्वत्र कवि ही 'बोलता' है। तुलसी के इस 'कहने' की प्रवृत्ति ने ही 'मानस' को एक 'धार्मिक-काव्य' बना दिया है, जैसे नीति शास्त्र की कोई 'पोथी' हो। शरत् बाबू भी रेखांकित करते हैं कि "साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है।" दरअसल धार्मिक-साहित्य का महत्त्व और प्रभाव एक दायरे तक सीमित होता है, इसलिए शरतचन्द्र यह मानते हैं कि 'साहित्य होने के लिए सबके हितों से सहानुभूति रखना आवश्यक' होता है। 'वाल्मीकि-रामायण' ऐसी ही एक साहित्यिक कृति है, जिसमें राम 'भगवान' की तरह अहिल्या पर 'कृपा' नहीं, बल्कि 'मनुष्य' बने रहकर ही सहानुभूति जताते हैं। राम एक 'लांक्षित' स्त्री का आतिथ्य स्वीकार करके तत्कालीन समाज की बनी-बनाई मर्यादा को तोड़कर "पुरुषोत्तम" बनते हैं।   

     राम और लक्ष्मण द्वारा पैर छूते ही अहिल्या को गौतम ऋषि का श्राप स्मरण हो आया कि इस आश्रम में राम के आने पर 'लोभमोहविवर्जिता' होकर उनका सत्कार करने पर वह श्राप से मुक्ति पाएगी-     

         "स्मरन्ती गौतमवच : प्रतिग्राह सा च त"

       यह याद आते ही अहिल्या उनके चरण पकड़ लेती है‌ और आतिथ्य-सत्कार करती है। इधर राम ने भी अहिल्या के उस आतिथ्य को स्वीकार कर लिया - 

        पाद्यमर्ध्य तथाss तिथ्यं चकार सुसमाहिता
        प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा

          यही नहीं, आश्रम में राम के आगमन को जानकर गौतम ऋषि भी आ जाते हैैं। राम उनका भी आतिथ्य स्वीकार करते हैं -

           "रामोऽपि परमां पूजा गौतमस्य महामुनेः"

           वाल्मीकि के इस वर्णन में एक संदेश यह भी छिपा है कि "आतिथ्य करना" और "आतिथ्य स्वीकार करना" दोनों से समान धरातल पर होने का बोध होता है। यहां मेज़बान और मेहमान, दोनों एक-दूसरे का अनुग्रह प्राप्त करते हैं। वहीं तुलसी ने 'भगवान' राम की 'कृपा' प्राप्त होने के बाद अहिल्या से "मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन" कहलाकर राम की 'स्तुति' कराई । इस स्तुति से स्त्री के न्यायपूर्ण अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता का महत्त्व कम होता है।

         अभी पिछले कुछ दशकों तक स्त्रियों के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण बेहद संकुचित रहा है। इलाहाबाद के बांध पर अक्सर पागल सी दिखाई पड़ जाने वाली एक वृद्धा के बारे में एक बार किसी ने मुझे बताया था कि विवाह के बाद युवावस्था में ही उसके परिवार वालों ने उसपर चारित्रिक दोष मढ़कर उसे त्याग दिया था। 'चरित्रहीन' में किरणमयी का यह कहना कि "इस जाति को गले में रस्सी बाँधकर यदि दस-बीस वर्ष तक लटकाकर रखा जाए, तब भी यह नहीं मरेगी" समाज में प्रताड़ित ऐसी ही स्त्री की मनोदशा पर मार्मिक कथन है। दरअसल इसके पीछे समाज का दृष्टिकोण उत्तरदाई रहा है। इसपर शरतचंद्र प्रश्न उठाते हैं कि "नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है?" इसीलिए वे 'सतीत्व' और 'नारीत्व' को अलग देखने के लिए कहते हैं, "मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।” और अंततः वे स्त्रीत्व पर किसी भी कलंक-कथा को पाप मानने की घोषणा करते हुए कहते हैं "नारी के कलंक पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं।" 

      शरतचंद्र ने नारी की प्रताड़ना के पीछे मर्दवादी सोच से उपजे दंभ को उत्तरदाई माना है 'परिणीता' में वे कहते भी हैं "संसार के सारे पुरुष सभी दोष नारी के ऊपर अभिमानपूर्वक मढ़कर एकतरफा फैसला करते हैं। बेचारी नारी को सबकुछ सहन करना पड़ता है।" दरअसल वास्तविकता तो यही है कि स्त्री पर अत्याचारों की जड़ में उसका आत्मनिर्भर न होना ही रहा है। 'आर के नारायण' के उपन्यास "डार्क रूम" में रमानी की पत्नी का यह कथन कि "मेरा कुछ नहीं है इस दुनिया में। औरत के पास उसके बदन के अलावा अपना और क्या है? इसके अलावा सब कुछ उसके बाप का है, पति का है, बेटे का है।" तो स्त्री की परनिर्भरता से उपजी अधिकार-विहीनता का ही दर्द है।  

        कुछ अपवादों को छोड़कर सदियों से स्त्री के प्रति भारतीय समाज की दृष्टि ऐसी ही रही है। उसके साथ चाहे मर्दवादी दंभी व्यवहार रहा हो या फिर व्यभिचार की लांक्षना, प्रताड़ना की केंन्द्रविंदु सदैव से स्त्री ही रही है। ऐसी ही एक प्रताड़ित असहाय सी अहिल्या को समाज में पुनर्प्रतिष्ठा दिलाकर वाल्मीकि के राम ने समाज की बनाई हुई मर्यादा को तोड़ा। जिसका एक संदेश है कि, किसी लीक पर बंधकर चलने की जरूरत नहीं, मानवीय दृष्टिकोण के साथ समाज को परिवर्तनशील होना चाहिए।  

        'मानस' में अहिल्या पर 'कृपा' करना 'भगवान्' राम के लिए उतना चुनौतीपूर्ण नहीं रहा होगा जितना 'रामायण' के 'मनुष्य' राम के लिए! राम उस स्त्री के आश्रम में जाकर उसका आतिथ्य स्वीकारते हैं जिसे उसके पति ने त्याग दिया है, और जिसपर लगे कलंक का दाग़ इतना गहरा था कि उसके आश्रम में मनुष्य क्या, पशु-पक्षियों तक ने जाना छोड़ दिया था!! आखिर कैसी रही होगी उस समय की सामाजिक व्यवस्था? और तो और, अहिल्या के पुत्र शतानंद जिसके लिए वाल्मीकि ने 'महातेजा:' और 'महातपा:' जैसे विशेषण का प्रयोग किया है, ने भी अपनी माता से दूरी बना लिया था।

       ऐसे सामाजिक परिवेश में अहिल्या को सम्मान देना एक दुष्कर लेकिन महान सामाजिक कार्य तो था ही, साथ में राम द्वारा उठाया गया यह कदम आश्चर्यजनक भी था। शायद यही कारण है कि विश्वामित्र से अहिल्या के उद्धार और गौतम ऋषि से भेंट के वृत्तांत (अहल्यादर्शनं चैव गौतमस्य समागमम्) को सुनकर महातपस्वी शतानंद के रोंगटे खड़े हो गए थे -

          तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रस्य धीमतः
          हृष्टरोमा महातेजा: शतानन्दो महातपा: 

         शतानंद इतने पर भी नहीं रुकते वे आश्चर्य में भरकर विश्वामित्र से अपनी जिज्ञासाएं शान्त करने लगते हैं। जैसे कि -

          अपि ते मुनिशार्दूल मन माता यशस्विनी
          दर्शिता राजपुत्राय तपोदीर्घमुपागता 
       
        बहुत दिनों से तप कर रही मेरी माता को क्या श्री राम को दिखाया ? और क्या मेरी माता ने श्री राम का सत्कार किया?-

             अपि रामे महातेजा मम माता यशस्विनी
             वन्यैरुपाहरत्पूजां पूजार्हे सर्वदेहिनाम् 
             
             शतानंद विश्वामित्र से यह भी पूछते हैं कि क्या आपने इंद्र ने मेरी माता के प्रति जो दुराचार किया था वह पुरातन वृत्तांत भी राम से कहा था?  

             अपि रामाय कथितं यथावृत्तं पुरातन मर
             मम मातुर्महातेजो दैवेन दुरनुष्ठितम्

            शतानंद को इस बात पर आश्चर्य था कि क्या यह सब जानने के बाद भी श्री राम वहां गए ? और वे यह भी पूँछते हैं कि क्या राम के दर्शन के प्रभाव से मेरी माता मेरे पिता को मिल गयी या नहीं? 

                अपि कौशिक भद्र ते गुरुणा मम संङ्गता
                माता मम मुनिश्रेष्ठ रामसंदर्शनादितः

            लेकिन शतानंद यह भी समझ रहे थे कि माता का अपराध बहुत बड़ा था और पिता ने श्राप देकर माता को त्यागा था, तो माता का उद्धार करने पर क्या पिता ने राम का सत्कार किया या नहीं! (अर्थात पिता राम से भी तो नाराज नहीं हो गए?) -
       
             अपि मे गुरुणा रामः पूजितः कुशिकात्मज
             इहागतो महातेजाः पूजां प्राप्तो महात्मन:
  
           शतानंद से रहा नहीं गया तो विश्वामित्र से यह प्रश्न भी कर लेते हैं कि आश्रम में मेरे पिता के आने पर श्री राम ने उनको प्रणाम किया था या नहीं? अथवा मेरी माता के दोषों पर ध्यान दे उन्होंने उनका तिरस्कार तो नहीं किया? 

        शतानंद और विश्वामित्र के बीच हुए इस वार्तालाप में 'अपि' शब्द बड़ा मार्मिक और हृदयस्पर्शी है। यही वह शब्द है जिससे पता चलता है भगवान् से भी बढ़कर मनुष्य और उसकी संवेदनाएं हैं। एक सच्चे साहित्यकार की भांति वाल्मीकि को काव्य के मर्मस्थलों की पहचान है। इस प्रकार वे अपनी 'रचनाप्रक्रियावली' के माध्यम से भगवान को नहीं, अपितु 'मनुष्य' को प्रतिष्ठित करते हैं।

      इस लेख के अंत में यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि यहां वाल्मीकि या तुलसी की तुलना के पीछे का आशय किसी एक को छोटा या बड़ा दिखाना नहीं है। दोनों अपने-अपने युगानुरूप चिंतन-प्रक्रिया में रत रहे होंगे और युगानुकूल साहित्य का सृजन किए। दरअसल इस तुलना के पीछे इनकी दृष्टियों के फ़र्क को समझना रहा है। इनमें एक है संवेदनशील साहित्यिक-दृष्टि, जो मानवतावादी दृष्टिकोण पर जाती प्रतीत हुई और दूसरी भक्ति-भाव से समन्वित धार्मिक-दृष्टि है, जिससे हमारा समाज प्रभावित होता है। आजकल के तमाम सामाजिक और धार्मिक संघर्ष पर ऐसी दृष्टियों का प्रभाव पड़ रहा है।   
                          *****   

वास्तविकता यही है कि "आतिथ्य करना" और "आतिथ्य स्वीकार करना" समान धरातल का बोध कराता है, इसमें भगवान की स्तुति वाला भाव नहीं है जो भगवान की कृपा प्राप्त होने के बाद तुलसी ने अहिल्या से "मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन" कहकर कराई है।
"साहित्य का मूल है सहित से, अर्थात् सबके सहित सहानुभूति रखना आवश्यक है।"

"साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है।"


     "स्मरन्ती गौतमवच : प्रतिग्राह सा च तौ"




अहिल्या ने भली भांति उनका आतिथ्य किया । दोनों राजकुमारों ने भी शास्त्रों में वर्णित विधिविधान के साथ किये गए उसके आतिथ्य को ग्रहण किया

गौतमोऽपि महातेजा अहिल्यासहितः सुखी
रामं संपूज्य विधिवत्तपस्तेपे महातपाः

रामोऽपि परमां पूजा गौतमस्य महामुनेः
राम ने भी गौतम से विधिवत् पूजा ग्रहण किया


"सब कुछ लेखक ही कह डालना चाहता है। पात्रों के प्राणों की वह पुकार इसमें कहां सुनाई देती है"

नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है?

मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।”

शरत् बाबू ने अपने साहित्य में स्पष्ट रूप से यह अंकित किया है कि पुरुषों के बनाये हुए झूठे शास्त्र केवल स्त्रियों को बांध रखने की बेड़ियां हैं।

कोरोना शाप

       अश्वमेध यज्ञ के बारे में अश्वलायन श्रौतसूत्र का कथन है कि - जो सब पदार्थों को पाना चाहता है, सब विजयों का इच्छुक होता है और समस्त समृद्धि पाने की कामना करता है वह इस यज्ञ‌ का अधिकारी है। 

         कुछ दिनों पहले तक पृथ्वी पर विकास के विजय का अश्वमेध यज्ञ चल रहा था! और इस यज्ञ के अश्व के खुरों की टाप से ग्लोबल-विलेज का कोना-कोना कंपायमान था। ग्लोब के निवासी विकास के उन्माद में गर्वोन्मत्त होकर इसके पीछे भाग रहे थे, और यह अश्व था कि ग्लोबल विलेज को बेरोक-टोक और बेलगाम होकर रौंदे जा रहा था! किसकी मजा़ल थी कि इस अश्वमेध यज्ञीय अश्व को रोक या बाँध सके!! लेकिन, विजयोन्माद में इसके पीछे भागते पागल पृथ्वीपतियों के हुंकार एवं इनके पद-टापों से बेचारी पृथ्वी तहस-नहस होकर अर्त्रनाद कर रही थी!!
        
         अचानक यह उन्मादी घोड़ा पृथ्वीपतियों को बंधा दिखाई पड़ गया! वह भी कहाँ? कोरोना महाराज के आश्रम पर!! वही घोड़ा, जो विश्वविजय में मतवाला था और चहुँ ओर कुलाचे भर रहा था, कोरोना मुनि के आश्रम पर असहाय और बेबस बंधा खड़ा है। इधर पृथ्वीपति होने के अहंकार में इस घोड़े के पीछे भागने वाला मानव कोरोना महाराज के शाप के भय से मारे डर के कांप रहा है! तथा पृथ्वी भी जैसे अभयदान पाकर विकासोन्मत्त अश्व के टापों से उड़ी धूल झाड़ रही है। खैर..

          हम बाल्मीकि रामायण में आए उस प्रसंग से आज की स्थिति से तुलना कर सकते हैं। राजा सगर अश्वमेध यज्ञ करते हैं और यज्ञ का घोड़ा गायब हो जाता है। वे अपने पुत्रों से उस घोड़े को खोजने के लिए कहते हैं। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को खोजने निकल पड़ते हैं। इस खोज में वे बड़े-बड़े त्रिशूलों और मजबूत हलों से पृथ्वी को खोदते जा रहे थे, जिससे पृथ्वी पर हाहाकार मच जाता है -
           
           शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः।
           भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन।।

        पृथ्वी खोदने में अनेक नाग, दैत्य, और बड़े बड़े दुर्धर्ष राक्षस मारे गए और अनेक घायल हुए -

           नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव।
           राक्षसानां च दुर्धर्ष: सत्त्वानां निनदोभवत्।।

        उन राजकुमारों ने साठ हजार योजन भूमि खोद डाली और पाताल तक पहुँच गए - 

        योजानानां सहस्त्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन।
        विभिदुर्धरिणीं वीरा रसातलामनुत्तमम ।।

       वे राजकुमार पर्वतों सहित इस जम्बूद्वीप को खोदते हुए चारों ओर ढूंढ़ते फिर रहे थे -

         एवं पर्वतसंवाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजा:।
         खनन्तो नृपशार्दूल सर्वत: परिचक्रमु:।।

       अन्ततः देवता विकल होकर ब्रह्मा जी के पास गए और उदास होकर उनसे कहा कि हे भगवन् ! महाराज सगर के पुत्र सारी पृथ्वी खोद डालते हैं और उन लोगों ने अनेक सिद्धों, तथा जलवासियों को मार डाला है -

        भगवन्पृथिवी सर्वा खन्यते सागरात्मजै:।
        वहवश्च महात्मो हन्यन्ते जलवासिनः ।।

        तथा सागर के पुत्रों के सामने जो पड़ता है, उसे वे यह कहकर मार डालते हैं कि, हमारे यज्ञीय अश्व का चोर यही है, यही हमारा घोड़ा चुरा ले गया है -

        अयं यज्ञो हरो अस्माकमनेनाश्वोअप्नीयते।
        इति ते सर्वभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजा:।।

        देवताओं की बातों को सुनकर ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि जो पृथ्वी को धारण करते हैं (अर्थात प्रकृति) उन्हीं कपिल के क्रोधानल से वे राजकुमार दग्ध हो जाएंगे। यह पृथ्वी सनातन है निश्चय ही इसका नाश नहीं होगा (प्रकृति बैलेंस करती है) -

        तस्य कोपाग्निना दग्धा भविष्यन्ति नृपात्मजाः।
        पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः ।।

         घोड़ा न मिलने पर सगर के पुत्रों ने अपने पिता से जाकर कहा कि हमने सारा सागर समस्त पृथ्वी ढूंढ़ डाली और देव, राक्षस, पिशाच, उरग और पन्नग जो हमें मिले, उन्हें हमने मार डाला, किंतु हमें वह यज्ञीय अश्व नहीं मिला -

        सहितासागर: सर्वे पितरं वाक्यंव्रुवन् ।
        परिक्रांता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च मुदिताः।।
        देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगकिन्नराः
        न च पश्यमहेअश्वं…
        
         तो, राजा सगर ने कुपित होकर अपने पुत्रों से पुनः पृथ्वी को खोदने के लिए कहा -

        भूय: खनत भद्रं बो निर्भिद्यं वसुधातलम्। 

        फिर तो सगर के पुत्रों ने रसातल खोदते हुए आगे बढ़कर पूर्व दिशा को खोदकर दक्षिण दिशा को खोदने लगे -
        मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्वा रसातलम
        ततः पूर्वां दिशं भित्वा दक्षिणां विभिदुः पुनः।।

        और फिर इसी तरह धरती खोदते हुए पश्चिम, उत्तर दिशा से होते हुए ईशान दिशा की ओर बढ़कर बड़े क्रोध से पृथ्वी खोदने लगे -
 ‌         
         रोषादभ्यखनन्सर्वे पृथिवी सगरात्मजाः।

         अन्ततः उन्होंने अपने उस यज्ञीय अश्व को सनातन वासुदेव कपिल के आश्रम में घास चरते देखा,

           ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम्।
           हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः।।

           और कपिल को घोड़ा चुराने वाला समझकर क्रुद्ध होकर उन्हें मारने के लिए दौड़े। कपिल भगवान ने क्रुद्ध होकर सगर के उन साठ हजार पुत्रों को भस्म कर राख का ढेर बना दिया -

           ततस्तेनाप्रमेयेण कपिलेन महात्माना।
           भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजा:।।

           इस प्रकार बाल्मीकि रामायण में वर्णित इस प्रसंग, जिसमें राजा सगर के साठ हजार पुत्रों से पृथ्वी त्रस्त और आतंकित थी, की तुलना विकास के पीछे पगलाए आज के मनुष्य से करते हैं, तो इसे एक रूपक कथा के सदृश पाते हैं। विकास की लालसा में पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियाँ धरती की प्राकृतिक व्यवस्था को नष्ट तो करती ही है, साथ में मनुष्य के लिए भी घातक बन जाती है। आज कोरोना संकट भी कपिल भगवान के शाप की तरह मानवजाति पर मँडरा रहा है। यह ग्लोबलविलेज पर नहीं ग्लोबलविलेज का संकट है।

           महाकाव्य के सत्य किसी राजनीतिक विसात पर नहीं रचे जाते, बल्कि उनके पीछे लोककल्याण की अवधारणा होती है। ऐसे ही लोकाभिमुख काव्य का चिरंतन मूल्य होता है।   

भगवान से भी बढ़कर मनुष्य है-3

संकल्प और विकल्प

           मेरा मानना है कि वाल्मीकि के राम स्तुति और अराधना के विषय नहीं हैं, बल्कि इन्हें अपने अन्तर में अनुभव किया जा सकता है। हाँ इन राम में स्वयं को खोजा जा सकता है। दरअसल स्तुति और अराधना भक्ति का वह सोपान है, जिसपर खड़ा व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है, ऐसा अराधक विकल्पहीन होता है, जबकि विकल्पों के बीच ही व्यक्ति को कर्म करने के अवसर दिखाई पड़ते हैं।
           वैसे मनुष्यता, संकल्प और विकल्प के बीच ही विकसित होती है। हमारे अधिकांशतया महात्मन् संकल्प को श्रेष्ठ मानकर विकल्प को खारिज करते हैं और विकल्पों को संकल्प की सिद्धि में बाधक के रूप में देखते है। लेकिन वे यहीं पर भूल करते हैं, मानवीयता विकल्पों के बीच ही विकसित होती है। संकल्पवान् को सिद्धि तो प्राप्त होती है, लेकिन आवश्यक नहीं कि यह सिद्धि संसार के लिए कल्याणकारी ही हो! पुराण कथाओं में राक्षस भी अपने संकल्प के बल सिद्धि प्राप्ति हेतु संकल्पित होकर तप करते दिखाए गए हैं, लेकिन वे अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग करते हुए ही देखे गए हैं। आखिर ऐसा क्यों?
       
        दरअसल स्वार्थपूर्ति हेतु अर्जित सिद्धियां कल्याणकारी नहीं होती। ये संसार के लिए अहितकारी तो होती ही हैं स्वयं धारक का भी विनाश कर डालती हैं। इस प्रकार बिना कर्तव्यपथ का अनुगमन किए यदि मात्र संकल्प से ही सिद्धि अर्जित की जाती है तो यह सिद्धि कल्याणकारी नहीं हो सकती। इसीलिए वाल्मीकि के राम संकल्प और विकल्पों के बीच जूझते हुए कर्तव्यपथ के अनुगामी हैं। ऐसे राम में 'राजत्व' नहीं है, तभी वे राक्षसों के साथ रावण का विनाश कर पाते हैं। वहीं विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए जब राजा दशरथ से राम को मांगते हैं तो पुत्रमोह से व्यथित हो दशरथ स्वयं अपनी सेना के साथ चलकर यज्ञ की रक्षा का प्रस्ताव देते हैं कि -

           इयमक्षौहिणी पूर्णा यस्याहं पतिरीश्वरः ।
           अनन्या संवृतो गत्वा योद्धाहं तैर्निशाचरैः।।
  
           मेरे पास जो भारी सेना है, उसे साथ लेकर मैं उन राक्षसों से लड़ुंगा और आगे विश्वामित्र से कहते हैं "अहं तत्र गमिस्यामि न रामं तेतुमर्हसि" अर्थात् मैं स्वयं वहाँ जाउंगा, आप श्री राम जी को न ले जाइए। इसके बाद वे यानि दशरथ द्वारा उन विघ्नकारी राक्षसों का परिचय पूँछे जाने पर विश्वामित्र "पुलस्त्यवंश प्रभवो रावणो नाम राक्षसः" कहते हुए रावण का परिचय देते हैं और बताते हैं कि उसकी प्रेरणा से बड़े बलवान दो राक्षस जिनके नाम मारीच और सुबाहु है, ऐसे यज्ञों में विघ्न डालते हैं -
       
         "तेन संचोदितौ द्वौ तु राक्षसौ सुमहावलौ 
         मारीचश्च सुबाहुश्च यज्ञविघ्नं करिष्यति।। 

         विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ ऐसे दुरात्मा का सामना‌ करने से इनकार कर देते हैं - 
      
       "न हि शक्तोस्मि संग्रामें स्थातुं तस्य दुरात्मनः" 
और कहते हैं कि रावण युद्ध में बलवानों का बल क्षय कर देता है, अतएव मैं उसके या उसकी सेना के साथ युद्ध करके पार नहीं पा सकता-

          स हि वीर्यवतां वीर्यमादत्ते युद्धि राक्षसः।
          तेन चाहं न शक्रोमि शंयोद्धुं तस्य वा वलैः।।
          
        वाल्मीकि जी ने इस प्रसंग के माध्यम से जैसे यहाँ कहने का प्रयास किया है कि राजत्व से राक्षसत्व को नहीं जीता जा सकता! बल्कि संकल्प और विकल्प के बीच अपने कर्त्तव्यपथ की खोज करने वाले मानवीय भाव वाले राम ही ऐसे राक्षसत्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

          ताड़का एक स्त्री है, राम को उसका वध करने में हिचक हो सकती है इसीलिए विश्वामित्र राम को समझाते हैं कि ताड़का अधर्मी है और पहले भी पृथ्वी का नाश चाहने वाली विरोचन की लड़की मन्थरा को इंद्र ने मार डाला था। इसी प्रकार भगवान विष्णु ने भी इंद्र का नाश चाहने वाली भृगु की पतिव्रता पत्नी औत शुक्र की माता को मार डाला था -
          अधर्म्या जहि काकुत्स्थ धर्मो हास्या न विद्यते
           श्रुयते हि पुरा शक्रो विरोचन सुतं नृप।।
           पृथ्वी हन्तुमिच्छन्तीं मन्थरामभ्यमुढ्यत
           विष्णुना च पुरा राम भृगुपत्नी दृढ़व्रतो
           अनिंन्द्रं लोकमिच्छंन्ती काव्यमाता निपिद्रिता।।
     और इसी प्रकार अनेक पुरुषोत्तम राजकुमारों ने समय-समय पर अनेक अधर्माचरण वाली स्त्रियों का वध किया है। अतएव तुमको भी इस दुष्ट यक्षिणी को मारने में किसी प्रकार का विचार न करना चाहिए -

          एतैरन्यैश्च बहुभी राजपुत्र महात्मभि:
          अधर्मनिरता नार्यो हताः पुरुषसत्तमैः
            तस्मादेनां घृणा त्यक्त्वा
             जहि मच्छासनान्नृप।।

       विश्वामित्र के यह समझाने पर राम "गो ब्राह्मणहितार्थाय देशस्यास्य सुखाय च" अर्थात गो ब्राह्मण के हित और इस देश वासियों को सुखी करने हेतु ताड़का को मारने के लिए तैयार होते हैं, लेकिन ताड़का के सामने आने पर उसके कान और नाक काट कर केवल उसे भगाने का ही उद्यम करते हैं - 
       एनां पश्य दुराधर्पा मायावलसमन्वितम
        विनिवृत्तां करोम्यद्य हृतकर्णाग्रानासिकाम्।
क्योंकि वे सोचते हैं, स्त्री की जान लेना ठीक नहीं उसे केवल दुष्ट कर्म करने लायक नहीं रहने देना चाहते -
       न हृयेनामुत्सहे हन्तुं स्त्रीस्वभावेन रक्षिताम्।
       वीर्यं चास्या गतिं चापि हनिष्यामीति मे मतिः।।
       
         यही है वाल्मीकि के राम की मानवीयता! उनका उद्देश्य या संकल्प केवल यज्ञ की रक्षा करने का है, इसके लिए अनावश्यक किसी की वे जान नहीं लेना चाहते!! कर्तव्य पालन के पीछे ऐसी ही भावना होती है और यहाँ विकल्पों को भी महत्त्व मिलता है, यही तो मनुष्यत्त्व भी है। मनुष्यता किसी सिद्धि के लिए लालायित नहीं होती। 

       लेकिन ताड़का रुकती नहीं उसका रूप और भी विध्वंसक होता चला जाता है, इसे देखकर विश्वामित्र राम के इस दया भाव को लक्षित करते हुए उन्हें पुनः समझाते हैं कि इस पर अब दया दिखाने की जरूरत नहीं है -

          दृष्टा गाधिसुतः श्रीमानिदं वचनमव्रवीत्
          अलं ते घृणया राम पापैपा दुष्टचारिणी।।

          यहाँ तुलसी के राम की अपेक्षा वाल्मीकि के राम अधिक मानवीय हैं क्योंकि तुलसी के राम इतना सोच-विचार नहीं करते और ताड़का के दिखाई पड़ने पर मात्र एक ही वाण से वे उसका वध कर डालते हैं -

 चले जात मुन्हि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई। 
  एकहि बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।

         तुलसी में मोक्ष की कामना है, उनके राम भगवान हैं और इसीलिए राम ताड़का को 'दीन' समझकर उसे देवस्थान भी प्रदान करते हैं। 

     लेकिन वाल्मीकि के राम द्वारा ताड़का के मारे जाने पर ताड़का के वन का शाप छूट गया और वह चैत्ररथ वन की तरह अत्यंत रमणीक हो गया -

          मुक्तशापं वनं तच्च तस्मिन्नेव तदाहनि।
          रमणीयं विवभ्राज तथा चैत्ररथं वनम्।।

         वाकई ! कर्त्तव्य पथ का अनुगामी मनुष्य धरती को रमणीय बनाता है। इस प्रकार तुलनात्मक रूप से हम कह सकते हैं कि जहाँ भगवान की कल्पना के केंन्द्र में मुमुक्षु भक्त होता है वहीं मानवीयता के केंन्द्र में विश्व और उसका प्रत्येक कण-कण होता है। इसीलिए ऊपर वाले को केंन्द्र में रखने वाले किसी धार्मिक की अपेक्षा मनुष्यता को केंन्द्र में रखकर कर्तव्य पथ के अनुगामी व्यक्ति इस धरती को अधिक कल्याणकारी और सुंदर बना सकता है। एक कवि की कल्पना में उसका महानायक भी ऐसा ही होता है और वाल्मीकि के राम ऐसे ही हैं। 

भगवान से भी बड़ा मनुष्य है -2

नारद जी महर्षि वाल्मीकि से मिलने आते हैं, तो महर्षि वाल्मीकि जिज्ञासु भाव से उनसे पूँछ बैठते हैं -       

         को न्वास्मिन्सांप्रतं लोके सत्य वाक्यो दृढ़व्रतः।
         धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्य वाक्यो दृढ़व्रतः ।।
         चरित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।
          विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः।।
         आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोनसूयकः।
         कस्य विभ्याति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ।।
       
        अर्थात इस संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दॄढ़व्रत, अनेक प्रकार के चरित्र करने वाले, प्राणिमात्र के हितैषी, विद्वान, समर्थ, अति दर्शनीय, धैर्यवान, क्रोध को जीतने वाले, तेजस्वी, ईर्ष्याशून्य और युद्ध में क्रुद्ध होने पर देवताओं को भयभीत करने वाले कौन हैं।
     
        इसके उत्तर में नारद मुनि ने महर्षि वाल्मीकि को श्री राम के जीवन चरित्र का संक्षिप्त वृत्तांत सुनाया। 

        नारद जी के देवलोक प्रस्थान करने के पश्चात वाल्मीकि जी अपने शिष्यों के साथ स्नान हेतु तमसा नदी के तट पर आए और वहीं पर मिथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े के नर क्रौंच पक्षी को एक बहेलिया द्वारा मारा जाना देखते हैं तथा इस पापपूरित हिंसा कर्म और विलाप करती हुई क्रौंची पक्षी को देख शोकार्त्त महात्मा वाल्मीकि के मुख से सहसा निकल पड़ता है -
        
         मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समा।
         यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।।
       
         हे बहेलिये! तूने जो इस कामोन्मत्त नर पक्षी को मारा है, इसलिए अनेक वर्षों तक तू इस वन में मत आना, अथवा तुझे सुख शान्ति न मिले।
         
         लेकिन वे यह सोचकर और भी दुखी हो उठे कि इस पक्षी के कष्ट से व्यथित उनके मुँह से यह क्या निकल गया ! अर्थात उन्होंने बहेलिए को शाप क्यों दे दिया -
       
        तस्यैवं व्रुवतश्चिंता वभूव हृदि वीक्षतः ।
       शोकार्त्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतंमया।।
       
        फिर उन्हें वहीं पर यह भी अनुभूत हुआ कि यह श्लोक उनके मुख से शोकार्त्त ही निकला है, इसमें चार पद हैं प्रत्येक पद में समान अक्षर हैं और वीणा पर भी यह गाया जा सकता है, अतः इसमें मेरा अपयश नहीं है-
      
     पादवध्दोक्षरशमस्तन्त्रीलयसमन्वितः।
     शोकार्त्त प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा।।
     
       इसके बाद ब्रह्मा जी उनसे मिलने आते हैं, लेकिन महर्षि वाल्मीकि का ध्यान बार-बार बहेलिये की ओर ही जा रहा था और वे यह सोचकर चिंतातुर और दुखी हो रहे थे कि पापी बहेलिये ने वैर बुद्धि से आनंद से खेलते हुए पक्षी का वध, व्यर्थ ही कर डाला-
       "पापात्मना कृतं कष्ट वैरग्रहण बुद्धिवा" 

        महर्षि वाल्मीकि को इस प्रकार दुखी देखकर ब्रह्मा जी ने उनसे नारद जी के मुख से सुन चुके श्री रामचन्द्र जी के छिपे हुए अथवा प्रकट सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करने के लिए कहा - 
      
       रामस्य चरित कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम।
       धर्मात्मनो गुचवतो लोके रामस्य धीमतः।।
       वृत्तं कथय वीरस्य यथा ते नारदाच्छुतम।
       रहस्यं च प्रकाशं च यद्वत्तं तस्य धीमतः।।

        आगे ब्रह्मा जी ने यह भी कहा कि तुम श्रीरामचन्द्र जी की मनोहर पवित्र कथा को श्लोकबद्ध बनाओ। जब तक इस धराधाम पर पहाड़ और नदियाँ रहेंगी, तब तक इस लोक में श्री रामचन्द्र जी की कथा का प्रचार रहेगा -

       कुरु रामकथा पुण्यां श्लोकवद्धां मनोरमाम्।
       यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।।
       तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिप्यति।
       यावद्रामायणकथा त्वकृता प्रचरिप्यति।।

         और अंततः ब्रह्मा जी की बात से प्रेरणा पाकर महर्षि वाल्मीकि ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला समुद्र की तरह रत्नों से भरा पूरा और सुनने से मन को हरने वाला; श्री रामचन्द्र जी का चरित्र जैसा कि नारद जी से सुन चुके थे, वैसा ही बनाया -

         कामार्थगुण संयुक्तं धर्मार्थगुणविस्तरम्।
         समुद्रामिव रत्नाढ्यं सर्वश्रुति मनोहरम्।।|  
         स यथा कथितं पूर्व नारदेन महर्षिणा।
         रघुनाथस्थ चरितं चकार भगवानृपिः।।

भगवान से भी बढ़कर मनुष्य है-1

         भगवान से भी बढ़कर मनुष्य होता है। दरअसल 'मनुष्य होना' अस्तित्व बोध है तो वहीं 'ईश्वरत्व' इस अस्तित्व-बोध का खंडन है। जब हम "सियाराममय सब जग जानी" कहते हैं तो इसमें सब कुछ को, ईश्वर के रूप में स्वीकार कर चलने की बात है। लेकिन ठीक इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक भाव, 'ईश्वर' की इस 'सब कुछ' से एक खामोशी भरी दूरी को भी स्वीकारता है। इस 'खामोशी भरी दूरी' में चीजों के प्रति उपेक्षा का भाव निहित है, और जो प्रकारांतर से 'अमानवीयता' ही है। 'ईश्वर' की यह 'अमानवीयता' इस रूप में समझ सकते हैं कि यदि मनुष्यता का मुक्ति में विश्वास है तो 'ईश्वरत्व' चीजों को अपने से 'परे' नहीं जाने देती। देखा जाए तो ईश्वर पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के ईश्वर की तरह सर्वग्रासी है। तभी तो, ऐसे सर्वग्रासी ईश्वर को सिंह की गुफा के सदृश्य माना गया, जिसमें जाते हुए पदचिह्न्न तो दिखाई पड़ते हैं लेकिन बाहर आते हुए पदचिह्न्न नहीं मिलते।

           वैसे 'भगवान' और 'मनुष्य' के बीच के यह झगड़ा सुलझाने के लिए अद्वैत, विशिष्टाद्वैत या द्वैतवाद भी पर्याप्त नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अवधारणा में ही सारे विवाद की जड़ अन्तर्निहित है। इस समस्या का समाधान दार्शनिक दृष्टि में नहीं, अपितु मानवीय संवेदनाओं से उपजी साहित्यिक-दृष्टि, इसपर अधिक समग्रता के साथ और संवेदनशील होकर विचार करती हुई प्रतीत होती है।

            किसी कृति की साहित्यिक दृष्टि उसकी रचना प्रक्रिया से समझी जा सकती है। इसके लिए महाकवि वाल्मीकि के रामायण के राम और तुलसी के रामचरित मानस के राम का चरित्र तुलनीय है। रामायण की रचना प्रक्रिया के पीछे महाकवि वालमीकि के "मा निषाद प्रतिष्ठां.." में अभिव्यक्त 'शोकार्त्त' भाव वाली संवेदनशीलता है। स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी इस बात को स्वीकार करते हैं -

       "शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यथा"
   
        अर्थात यह श्लोक हमने अपने मुख से शोकार्त्त ही निकाला है।
          
        जिस अभिव्यक्ति के पीछे शोक से उपजी मनःस्थिति हो; वह दूसरों के हृदय में वैसी ही वेदना की कल्पना कर सकता है। ऐसे रचनाकार की रचनावृत्ति मनोवैज्ञानिक ढ़ग से अपने पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए चलती है। इसीलिए आदि कवि वाल्मीकि के राम "सम्पूर्ण मनुष्य" की ओर अग्रसर हैं। नामवर सिंह जी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के कथन का उल्लेख करके यही दिखाने का प्रयास किया है - "वाल्मीकि ने नेता की ही खोज की थी। ऐसे नर चंद्रमा की, जिसमें मनुष्य की 'समग्रा लक्ष्मी' का निवास हो। उन्हें उन नेताओं के किसी ऐसे स्थाई भाव की खोज नहीं थी, जो विभावानुभाव संचारी भाव के संयोग से रस रूप में परिणत हो सके। वे मनुष्य के संपूर्ण और आदर्श रूप के जिज्ञासु थे।" कहने का आशय यह भी है कि महाकवि रामायण में बिना किसी "वाग्जाल" के राम की प्रतिष्ठा और उनके चरित्र की खोज करते हैं और जिसमें नामवर जी के अनुसार, द्विवेदी जी के शब्दों में "उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता है।" 

          इस प्रकार यदि वाल्मीकि की संवेदनशीलता एक 'सम्पूर्ण मनुष्य' की खोज करती है तो वहीं तुलसी ने रामचरित मानस को भक्ति-भाव की भूमि पर रचा है और यहाँ राम का पाला 'भक्त' से पड़ा है। इसीलिए तुलसी मानते हैं कि सुकवि की कविता होने पर भी राम नाम के बिना वह श्रेष्ठ नहीं कहलाती। जैसे वस्त्र के बिना अन्य साज-सज्जा के होते हुए भी नारी शोभनीय नहीं होती -     

"भनिति विचित्र सुकवि कृत न जोऊ, राम नाम बिनु सोह न सोऊ।
बिधुवदनी सब भांति संवारी, सोन न बसन बिना बर नारी।।"
       
        भक्ति-मानस की पृष्ठभूमि में तुलसी की सारी संवेदनाएँ "भगवान" की प्रतिष्ठा में ही खर्च हो जाती है। महिमामंडन के इस प्रयास में "भगवान" का चरित्र ऐसा उभरता है कि 'राम' उसके नीचे दब जाते हैं।
      
        यहाँ इस चर्चा के परिपेक्ष्य में, रामायण और रामचरित मानस में आए अहिल्या वाले प्रसंग से राम के चरित्र की तुलना कर दोनों महाकवियों, वाल्मीकि और तुलसी के 'सर्जनात्मक दृष्टि का लक्ष्य' समझ सकते हैं।

(क्रमशः... )

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

वे छह शिकायतें

         उस दिन महिलाओं द्वारा की गई शिकायतों की सुनवाई के समय मैं भी उपस्थित था। शिकायतों की सुनवाई बारी-बारी हुई।        
         पहली लड़की आई। उसे कुर्सी पर बैठने के लिए कहा गया। उस लड़की को मैं ध्यान से देख रहा था, जिसकी उम्र सत्ररह-अट्ठारह वर्ष के बीच थी। उसके खामोशी भरी उदास चेहरे से ऐसा लगा जैसे किसी सर्द और खामोश रात में बर्फ सी जमी झील पर कुहासे का धुंध छाया हो। उसे अपने पति से गुजारा भत्ता चाहिए, इस बात से मुझे किंचित आश्चर्य हुआ। 'पति इसे दो साल से छोड़ सुदूर मुंबई में रहता है! पंद्रह वर्ष से भी कम उम्र में इसका निकाह हुआ होगा और क्या पता इसका पति गुजारा भत्ता देने लायक है भी या नहीं? लड़की अनपढ़ भी है इसका भविष्य क्या होगा?' लड़की की त्रासदी पर मैंने सोचा। किसी ने उससे पूँछा, 'क्यों तुम पढ़ना चाहोगी'। लड़की ने प्रश्न करने वाले की ओर देखा और देखती रही। जैसे उससे कुछ अजूबा सवाल पूँछ लिया गया हो। उसके मुंह से बोल नहीं फूटे। शायद उसे पढ़ाई के मायने भी नहीं बताए गए थे। कम उम्र में शादी करने तथा पति के गुजारा भत्ता देने लायक होने के बारे में उसकी मां का कहना था, "वह छोटा-मोटा काम करता है...जल्दी निकाह इसलिए किया कि, न करती तो क्या करती और भी तो लड़कियां हैं..लड़के भी तो हैं...धीरे-धीरे सभी को निपटाना है।" गरीबी और अशिक्षा के साथ धर्म का घालमेल व्यक्ति के जीवन को नर्क बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखता। अन्त में समस्या का समाधान न सूझने पर लड़की की मां से यही कहा गया, 'इस बच्ची को पढ़ाई के साथ कुछ सिलाई-कढ़ाई भी सिखाओ।' 
         दूसरी लड़की भी उम्र उन्नीस-बीस से ज्यादा नहीं थी। वह स्याह स्लेट पर खड़िया से लिखी किसी इबारत की तरह लगी, जिसे मिटाने का प्रयास किया गया हो। शिकायती पत्र देते समय उसकी खामोशी पिघल कर आँखों से बह निकली। रोते हुए उसने कहा, वे मुझे मार डालेंगे। दरअसल इस मुस्लिम लड़की का निकाह अल्पवय में कर दिया गया था। पति का चाचा उसे परेशान करता है। उसकी बातों से लगा कि वह यौन-उत्पीड़न की शिकार है। पति से शिकायत करने पर वह इस बात पर ध्यान नहीं देता। उसके मामले में पुलिस को हस्तक्षेप करने के लिए कहा गया।
         तीसरी लड़की चौबीस-पच्चीस वर्ष के आसपास थी। अनपढ़ थी और पति से अनबन होने के कारण मायके में रह रही थी। उसके पति को भी बुलाया गया। वह पढ़ा-लिखा और स्मार्ट दिखाई पड़ा। समझाने पर वह लड़की को साथ ले जाने के लिए सहमत हो गया । दरअसल यहां बेमेल विवाह की समस्या थी। इसी तरह चौथी लड़की का पति तलाक चाहता था। 
        पाँचवीं शिकायत एक महिला की थी, जिसकी उम्र अड़तीस-चालीस वर्ष के आसपास थी। उसका पति किसी बड़े शहर में माली का काम करता है और वह अपने परिवार की आय बढ़ाने के लिए घरों में खाना बनाने का काम करती है। उसकी समस्या यह थी कि उसकी बहू मायके से ससुराल पिछले एक साल से नहीं आ रही थी। लड़की के माता-पिता भी उसे ससुराल भेजने में रुचि नहीं दिखा रहे थे। जबकि वह महिला बहू को अपने घर लाने के लिए परेशान थी। उसके अनुसार बहू पढ़ी-लिखी और कम्प्यूटर चलाना जानती है और आत्मनिर्भर है जबकि लड़का आठवीं तक ही पढ़ा है। 
        छठी लड़की की आयु तेईस वर्ष के लगभग थी। वह बिना बाँह के कुर्ता पहने थी और पारदर्शी दुपट्टा ओढ़े थी। उसका पहनावा परिस्थितियों के अनुरूप न होने से अस्वाभाविक जान पड़ा। उसकी भृगुटी थोड़ी चढ़ी हुई और चेहरे पर तनाव झलक रहा था। जब मुझे पता चला कि लड़की का पति उसके साथ नहीं रहना चाहता और वैवाहिक संबंध तोड़ना चाह रहा है, तो मुझे लगा कि इस लड़की को सम‌झने की जरूरत है। स्वभावत: यह लड़की ईमानदार होगी और हो सकता है जो चीज इसे अच्छी न लगती हो उसका विरोध करती हो। लेकिन शायद उसका यह गुण उसकी वैवाहिक समस्या का कारण बन रहा हो। लड़की का पिता उसकी शादी टूटने के अंदेशे से दुःखी होकर रो रहा था। उसकी समस्या यह थी कि कैसे वह लड़की की दूसरी शादी करेगा।
         दरअसल इन छह शिकायतों में ऊपर की चार शिकायतें मुस्लिम लड़कियों की थी और पांचवीं तथा छठी हिंदू लड़कियों की। 'धर्म' महिलाओं की सुरक्षा और उसके अधिकार की चिंता नहीं करते तथा धार्मिक मान्यताएं महिलाओं का हितपोषण भी नहीं करती। अधिकांशतः 'धार्मिक मान्यताएं' पुरुषवादी सत्ता का पोषण करती हैं, जिसमें स्त्रियां दोयम दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती है। यह सच है कि स्त्रियों के लिए जाति और धर्म का कोई अर्थ नहीं होता। विवाह-व्यवस्था कहीं संविदा तो कहीं धार्मिक-बंधन के रूप में स्वीकार किया गया है, लेकिन सही अर्थों में स्त्रियों की प्रताड़ना के पीछे मानव स्वभाव उत्तरदायी होता है और स्वभाव व्यक्ति की परिवेशगत परिस्थितियों से निर्मित होता है।