१
उसे काम चाहिए…ऐसा काम जिससे उसकी राहें खुल सकें..अपनी मर्ज़ी का मालिक बन सके..पिता और मां नहीं थे उसके! अब उसे अपनी राह खुद बनानी है..बस इतनी सी चेतना उसके अन्दर न जाने कौन सी उर्जा भर रही थी..आज वह कुछ ठान कर ही निकला था….
भैया ने गंभीर होते हुए सधे स्वर में उससे कहा, "देख रजुआ हम किसी तरह मेहनत मजूरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं, अब तुम्हारी पढ़ाई का बोझ उठाना हमारे वश में नहीं, वैसे भी यहां कोई स्कूल तो है नहीं..आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना होता.." भैया, जो उससे दस साल बड़े थे, ने जैसे उसकी पढ़ाई को लेकर अपना अंतिम फैसला सुना दिया हो! लेकिन बिना किसी प्रतिक्रिया के, जमीन पर निगाह गड़ाए, वह केवल उनकी बात सुनता रहा।
सही में, बड़े भाई का भी परिवार था अब, उनकेे दो बच्चे हो चुके हैं ! मेहनत मजदूरी करके उसकी पढ़ाई का खर्च उठाना उनके लिए कठिन ही था। भाभी भी, भाई के ऊपर पड़ते घर के खर्च का बोझ कम करने के लिए गांव के बड़े काश्तकारों के खेतों में मजदूरी करने चली जाती। हालांकि भाभी का मजूरी पर जाना उसे अच्छा नहीं लगता। लेकिन वह करता ही क्या! पिता और मां भी तो जब तक जीवित रहे, दूसरों के खेतों पर मजूरी करने जाते। यही नहीं पिता तो दूर कस्बे में पल्लेदारी भी करने चले जाते।
ऐसे ही एक रोज संझलौके, कुछ लोग पिता को टेम्पू से लाये और घर पर छोड़कर वापस चले गए थे, उनकी रीढ़ की हड्डी टूटी हुई थी। साथ आए लोगों ने इसका कारण, पिता के ऊपर गेहूं के बोरों का छल्ला गिरना बताया था। उस दिन मां बहुत रोईं। सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा, ले जाकर शहर के बड़े अस्पताल में दिखाओ, आपरेशन होगा। लेकिन मां के पास पैसा नहीं था, कैसे पिता को शहर के बड़े अस्पताल में ले जाती! वे दिनभर घर पर ही पिता की देखभाल करती, और मजूरी करने भी नहीं जा पाती। बिस्तर पर पड़े-पड़े पिता ने छह माहीने बाद प्राण त्याग दिए थे।
उन दिनों घर में अकसर सांझ का चूल्हा ठंडा रहता और भूखे पेट सोने की कोशिश में वह आसमान के घुप अंधेरे में टिमटिमाते तारों को देखता रहता। एक दिन तारों को देखते हुए उसने मां से कुछ सवाल पूंछे, उन सवालों के उत्तर में मां ने उससे कहा था, "जो धरती से ऊपर उठ जाते हैं, वे तारे बनकर टिमटिमाते हैं.." फिर उसने मां से पूंछा था, "इन तारों को खाना कौन खिलाता है..!!" इस पर मां ने उसे बताया, "नहीं बिटवा.. इन्हें भूख नहीं लगती.." फिर उसने कहा, "तब तो मां, मैं भी धरती से ऊपर उठकर ऐसा ही तारा बनुंगा..।" अचानक मां ने उसे अपने सीने से चिपटा लिया और बोली थी, "नहीं….बेटा तुम तो मेरे आँख के तारे हो..और..धरती के तारे बनोगे..वो देखो, वो जो चमकीला तारा है न, वो तुम्हारे बापू हैं..वहां से कह रहे हैं कि हमारा राजू धरती का तारा बनेगा..!" इसके बाद उसे मां के सिसकने की आवाज सुनाई पड़ी। और आसमान के टिमटिमाते तारों के बीच अपने पिता को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते न जाने कब उसे नींद आ गई ।
***
पिता के असमय गुजर जाने के बाद भैया मजदूरी पर जाने लगे। भैया की पढ़ने में कभी रूचि नहीं रही। पिता जब जीवित थे, तो भैया दिनभर इधर-उधर घूमते हुए इस तालाब से उस तालाब, पूरे दिन मछलियाँ मारने में बिता देते। मां अकसर नाराज़ होती और घर के अन्दर मछलियां लाने से मना करती। तब भैया घर के बाहर सूखे पत्ते इकट्ठा करता और वहीं उन पत्तों को जलाकर उसमें मछलियों को भूनता। उस समय उनके साथ बस्ती के दो-चार लड़के और होते। लेकिन उसे मछलियाँ मारना कतई पसंद नहीं। अकसर बारिश के दिनों में, गांव के तालाब से बहते पानी में नन्हीं-नन्हीं मछलियों को तैरते देख मगन होकर पानी में छप-छप करते हुए, वह उन मछलियों के पीछे भागता। एक दिन मछलियां भूनते समय भाई ने उसे अपने पास बुलाया और जबरदस्ती एक भुनी हुई मछली उसके मुंह में ठूंसने लगा था। उसने अपने जबड़े को कसकर भींच लिया और रोते हुए मां से यह बात बताई। तो, मां ने भाई को खूब पीटा। वही भाई अब घर की जिम्मेदारी समझ रहा है।
उन दिनों, जब पिता को चोट लगी, वह गांव के प्राइमरी स्कूल की चौथी कक्षा में पढ़ रहा था और बिना नागा किए स्कूल जाता। पिता को चोट लगने के बाद, शुरू के एक महीने तक वह स्कूल नहीं गया और अकसर उनके पास बैठा रहता। इधर पिता भी उसकी हथेलियों को अपने सीने पर रखकर दबाए रहते। वह तो, मां ने एक दिन उसे पिता के पास बैठकर सुबकते हुए देख लिया था! मां पास आई और उसके सिर को सहलाते हुए काफी देर तक उसके पास बैठी रहीं, और अगले दिन से उसे स्कूल जाने के लिए कहा। उसने ध्यान दिया, पिता ने भी सहमति में सिर हिलाया था।
अगले दिन स्कूल में, गैरहाजिरी को लेकर पंडी जी ने छड़ी से उसकी हथेलियों को लाल कर दिया और कान पकड़कर उठक-बैठक भी लगवाई। जबकि पूँछने पर भी उसने स्कूल से अपने गैरहाजिर रहने का कारण नहीं बताया। उससे पंडित जी ने एक पाठ्य-पुस्तक से किसी पाठ का हिस्सा पढ़ने के लिए कहा। लेकिन उसके पास वह किताब नहीं थी। तब एक अन्य लड़के की किताब पढ़ने के लिए दिया और उसने बिना अटके हुए पाठ का वह हिस्सा पढ़ डाला। वैसे भी, यह उसकी आदत में शुमार हो चला था कि उसे कहीं कुछ भी लिखा हुआ दिखाई पड़ता, उसे जरूर पढ़ता। अकसर राह चलते मिल गए किसी कागज के टुकड़े को भी वह उठा लेता, और बिना पढ़े न मानता। कठिन शब्दों के अक्षरों को बैठा-बैठा कर पढ़ने का प्रयास करता। इस तरह पढ़ने का उसका अच्छा अभ्यास हो चला था। उस दिन पाठ को पढ़ लेने से पंडित जी उससे बहुत खुश हुए। उसकी पीठ थपथपाई और वह किताब उसे देते हुए तीन दिन में पढ़कर वापस करने के लिए कहा।
***
इधर माँ, न जाने क्यों कमजोर होती जा रहीं थी, लेकिन फिर भी मजदूरी का काम नहीं छोड़ती। फसलों की कटाई के समय तो, मां रोज ही मजदूरी करने चली जाती। शायद उन्हें अब भैया के विवाह की चिन्ता सता रही थी और इसके लिए वे पैसा इकट्ठा करना चाहती थी। उन दिनों वह कक्षा छह में पढ़ रहा था और पिता को गुजरे डेढ़ वर्ष हुए थे। माँ ने पड़ोस के गांव की लड़की से भाई के विवाह की बात पक्की कर ली। वे गर्मियों के दिन थे जब छप्पर वाली दो कच्ची कोठरी वाले उसके घर में भाभी आई थी। उन दिनों मां बहुत खुश रहती। लेकिन एक दिन अचानक मां को चक्कर आया और वे गिर पड़ी। उस दिन भैया गांव के मलिकार के यहां मजदूरी करने गया था, जब तक वह आता माँ के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।
माँ का मृत शरीर ज़मीन पर पड़ा था। और उसकी आंखों से धार-धार आँसू बह रहे थे। भाई उसके पास आया और उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया, दोनों जार-जार रोने लगे। उसे सुनाई पड़ा, किसी ने भाई से कहा, 'इस तरह रोने से काम नहीं चलेगा, अन्तिम क्रिया का जुगाड़ करो।' यह एक वाक्य ''रोने से काम नहीं चलेगा' उन दोनों को, पहले से कठोर खुरदुरे जमीन की तपिश का अहसास करा गया और इसके साथ ही उनके आँसू भी सूख गए।
उसकी चुप्पी और उदासी अकसर रात में आसमान के किसी चमकीले तारे के इर्द-गिर्द खो जाया करती। क्योंकि माँ ने ही तो कहा था, "जो धरती से ऊपर उठ जाते हैं, वे ही तारे बनकर टिमटिमाते हैं।" मां भी तो बापू की तरह धरती से ऊपर उठ गई, तो जरूर बापू के पास वह टिमटिमा रही होगी और तारों के बीच माँ को खोजने लगता। आखिर माँ ने ही तो कभी आसमान की ओर इशारा करते हुए उससे कहा था,"ये जो चमकीला तारा है न, वो तुम्हारे बापू हैं।" रात में तारों को निहारना अब उसकी रोज की आदत हो चुकी थी।
***
झोपड़ीनुमा दो कच्ची कोठरी वाले उसके घर के सामने मुश्किल से विस्वा भर जमीन थी, जिसे वह 'दुवार' समझता। उस जमीन के एक कोने पर माँ ने कभी एक नीम का पौधा रोपा था, जो आज एक छोटे पेड़ की शक्ल ले चुका है और जिसके नीचे खटिया भर की छाँह नसीब हो जाती है। उसकी दोपहरी उसी नीम की छाँव में गुजरती। और, वह छाँव उसे अपने सिर पर माँ के आँचल की प्रतीति कराती। इस दुवार के दूसरे कोने पर एक छोटा देशी हैंडपंप गड़ा है, जिसे पिता ने लगवाया था। उस हैंडपंप के पास, धान की भूसी, जिसका प्रयोग बर्तन मांजने के लिए 'उबसन' के रूप में किया जाता है, और जो बर्तन मांजने से एकदम काली पड़ चुकी है, एक छोटे से मटमैले पानी भरे गड्ढे के आसपास छितरायी पड़ी है। पहले इस नल का पानी ठीक बगल के खेत में चला जाता था, लेकिन एक दिन खेत के मालिक ने खेत में पानी जाने को लेकर पिता से गाली-गलौज कर लिया, इसके बाद हैंडपंप के पास यह गड्ढा खोदा गया।
नीम की उस छाँव में बैठे हुए उसके मन में अकसर ख़याल उठता, आखिर गांव के "बड़े दुवारों" की तरह उसे भी बड़े दरख्त की छाया नसीब क्यों नहीं होती? उसे ध्यान आया, उस जैसे परिवारों, जिन्हें छोटी जात का माना जाता है, उनके दरवाजों पर बड़े दरख़्तनुमा पेड़ नहीं होते, आखिर क्यों? मन में उठते ऐसे प्रश्नों से वह झुंझला उठता और सोचता, माँ के हाथों लगाया नीम का यह पेड़ कब दरख़्त बनेगा! साथ ही छोटेपन का अहसास उसे बेचैन कर जाता। फिर, उस नीम के पेड़ को जल्दी से, बड़ा और विशाल करने के लिए उसके थाले में रोज पानी भरता। उसके मन की अकुलाहट और विकलता को समझने वाला, वहाँ कोई नहीं होता।
***
उसे अब अपने दायरे की समझ बढ़ रही है। परिवार उसका भूमिहीन है, जबकि दो कच्ची कोठरी वाले उसके झोपड़ीनुमा घर के चारों ओर दूर-दूर तक फैले हैं गांव के 'बड़कवन' के खेत और बाग! यह दृश्यावली उसे सब्ज़बाग जरूर दिखाती है, लेकिन है उसके लिए निरर्थक ही! बल्कि बिना किसी प्रयोजन के इन स्थलों पर दिखाई दे जाना भी उसके जैसे लोगों को 'चोर' समझ लिए जाने का कारण बन जाता है। इस जैसी मन:स्थति में मान-अपमान जैसे शब्द बेमानी के और गालियां निर्विकारत्व भाव को प्रर्दशित करती है, तो दो रोटी का जद्दोजहद ही जीवन का मूल संघर्ष बन गया है, और इसके सिवा इनका कहीं किसी से कोई टकराव नहीं! शिकवा नहीं!! यदि कभी-कभार कोई नेतृत्व उठा भी तो, शांत जल में कंकड़ मार कर चला जाता है, थोड़ी सी तरंग उठी और फिर वैसी ही नीरव शांति ! दरअसल उस जैसे परिवारों की पहुँच, न भगवान, और न ही संविधान तक हो पायी है, क्योंकि हर जगह इन्हें ही नाक रगड़ना होता है।
इन्हीं बातों के बीच माँ की यह बात उसे ध्यान में आती, "नहीं...बेटा तुम धरती का तारा बनोगे.." तब वह आसमान में टिमटिमाते तारों को देखता और "धरती के तारे" का अर्थ खोजने लगता! काश, मां होती तो वह, उनसे इसका अर्थ पूंछता!!
खैर, उसकी परिस्थितियाँ उसे तटस्थता की ओर ले जा रही है। जैसे व्यक्ति, समाज, जीवन और अपने परिवेश से भी तटस्थ होता जा रहा है वह! हाँ उसकी इस तटस्थता में भी एक अजीब सी ललक है, बेचैनी है और इनसे भी बढ़कर आत्मविश्वास है! तटस्थता से उपजता आत्मविश्वास!!
***
पश्चिम से साँझ की लालिमा गायब हो चुकी है और रात गहरा आई है, लेकिन उसकी निगाहें थी कि आसमान में तारों के बीच ही खोई हुई हैं, एक चमकते तारे के एकदम पास में एक छोटा तारा टिमटिमा रहा है..! यह जरूर मां होगी..!! तभी, अचानक भाभी की घबड़ाहट भरी आवाज़ सुनाई पड़ी, "राजू भैया..!" उसने देखा, सामने भाभी खड़ी है। हड़बड़ा कर उठ बैठा। भाभी ने बताया, भैया के पेट में दर्द है और उल्टी हो रही है।
माँ के न रहने पर भैया मजदूरी करने लगे थे। इधर गाँव के जगन से, जिन्हें गाँव वाले मालिक-मुख्तार कहकर संबोधित करते हैं, भाई ने माँ के क्रिया-कर्म के लिए रूपए उधार लिए थे। जो अभी चुकता नहीं हुआ है। जगन बार-बार भैया से तगादा करते और बेगारी करवाते। जिस दिन भैया बेगारी करते, उस दिन घर में चूल्हा जलाने में मुश्किल होती, क्योंकि कमोबेश रोज कुँआ खोदकर रोज पानी पीने वाली स्थिति है। इस बेगारी से बचने के लिए भैया अलसबेरे ही कस्बे में मजदूरी तलाशने निकल जाते। लेकिन एक दिन जगन ने जब इसके लिए उन्हें भला-बुरा कहा तो वे फिर से उनके यहां काम पर जाने लगे थे। वैसे भैया 'कटनी-बोवनी' के समय गाँव में ही मजदूरी करते हैं।
जगन बड़े काश्तकार होने के साथ ही किसी नेता के पिछलग्गू भी थे और छोटे-मोटे सरकारी ठेके भी हथिया लेते। गाँव में उन्हीं की चलती है। गाँव के छोटे-मोटे झगड़े निपटाने की कुव्वत भी उनमें है, अगर थाना-पवाना हुआ भी तो जिसके पक्ष में उनकी पैरवी होती पुलिस भी उसी की सुनती। गाँव के लोग उनको बहुत 'पहुँचवाला' कहते हैं। इन दिनों भैया उनके यहां काम करते तो मजूरी में से कुछ हिस्सा उधार की अदायगी में कट जाता और बाकी से घर का खर्च चलता। लेकिन, भैया अब पीने लगे हैं। भैया-भाभी में इस बात को लेकर आपस में कहासुनी भी होती। कई बार उसने भाभी को रोते हुए भी देखा है। एक बार भाभी नाराज़ होकर मायके चली गईं थीं, भैया ने किसी तरह उन्हें मनाकर लौटाया था और फिर कुछ दिनों तक उनका पीना भी बंद रहा।
आज भैया देर शाम जगन के यहां से ही आये थे, और कुछ ज्यादा ही लड़खड़ा रहे थे। भाभी उन्हें सहारा देकर खटिया तक ले गई थीं, वे निढाल होकर उस पर गिर पड़े थे। वह भी छप्पर की थूँनी पकड़े वहीं खड़ा होकर यह सब देख रहा था। अकसर ऐसा ही दृश्य उसकी आंखों के सामने से गुजरता। भैया नशे में थे और भाभी से पानी मांग रहे थे। भाभी ने मुड़कर उससे यह कहते हुए कि "राजू भैया, ये फिर से पीने लगे हैं" चूल्हे से दो रोटी और नमक-प्याज में थोड़ा सा सरसों का तेल मिलाकर खाने के लिए उसे दिया और भैया को पानी पिलाने लगी। रोटी खाने के बाद झोपड़ी से बाहर आकर खटोले पर लेटकर आसमान में जैसे कुछ तलाश रहा था, जब उसे किसी अनहोनी की आशंका में भाभी की कांपती आवाज सुनाई पड़ी थी।
वह दौड़कर भैया के पास पहुँचा। देखा, भैया उल्टी करते-करते चारपाई से नीचे गिर पड़े हैं। किसी तरह भाभी ने उसकी मदद से भैया को वहीं जमीन पर सीधे लिटाकर उनका सिर अपनी गोंद में रख लिया और भैया के मुँह पर पानी के छींटें मारने लगी, लेकिन, शायद भैया बेहोश हो चुके हैं! भाभी ने बदहवासी में उससे कहा, "देखो राजू इनको क्या हो गया है!!"
***
आज भैया की यह हालत उसके समझ से बाहर की थी। अचानक उसे न जाने क्या सूझा, गाँव की ओर दौड़ पड़ा। बदहवासी उस पर भी तारी थी। ढाई वर्षों के बीच पिता और मां को खोने के बाद जैसे भाई भी साथ छोड़कर जा रहा है। वह अपनी पूरी ताकत लगाकर दौड़ रहा है। घुप अंधेरी रात है, अचानक उसके पैर में एक जोर की ठोकर लगी और धड़ाम से वह जमीन पर गिर पड़ा। दर्द से बिलबिलाते हुए उठा, और फिर दौड़ पड़ा। उसे नहीं पता कि गिरने से लगे चोट के कारण होठ और नाक से खून बह रहा है, और घुटनों पर भी चोट आई है। फिर भी वह अपना पूरा दम लगा कर दौड़ रहा है। कुछ ही देर में वह घनी अमराईयों के बीच से, 'अन्हिंयारे' में भी झलक रही उस उजली पगडंडी पर दौड़े जा रहा है, जहां कभी दिन के उजाले में भी उसे जाने से डर लगता, क्योंकि उसने सुन रखा है कि इस रास्ते पर खिन्नी वाले पेड़ पर 'बरम बाबा' रहते हैं, जिसको वे पकड़ लेते हैं उसे नहीं छोड़ते। आज उसे उन 'बरम बाबा' का तनिक भी भय नहीं हुआ। और, बाग को पारकर खेतों के बीच से गुजरने वाले चौड़े रास्ते पर आ गया, अब उसके पैर जवाब देने लगे, आखिर अपने नन्हें पैरों से वह कितनी दूर दौड़ता ! लेकिन उसके सामने बेसुध भाई का सिर अपनी गोंद में लिए भाभी का चेहरा घूम रहा है। एक बार फिर उसने दौड़ने में अपनी पूरी ताकत लगाई। अब वह कुछ घरों को पार कर रहा है, उसे कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई पड़ी, दौड़ते हुए वह उन घरों को पार कर गया।
तभी क्षितिज पर टिमटिमाते तारों की आसमानी रोशनी में स्याह रंग में लिपटी जगन की बखरी झलक उठी! जैसे धरती से आसमान की ओर सिर उठाए कोई भूत उसे ही निहार रहा हो! हांफते हुए वह उस बखरी के बड़े 'दुवार' के बीचो-बीच जाकर खड़ा हो गया। इधर कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई देनी बंद हो गई थी। शायद कुत्ते जगन के घर तक उसका पीछा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए होंगे। इधर-उधर देखा, घने स्याह रंग में सब कुछ ढका नजर आया, कहीं कोई आहट उसे नहीं मिल रही थी। उसने जोर से, जगन चाचा... मालिक..मालिक..चाचा पुकारा, लेकिन कोई प्रतिउत्तर नहीं! वह सीधे बखरी के मुख्य दरवाजे की ओर दौड़ पड़ा।
जोर-जोर से दरवाजे को लगभग पीटने के अंदाज में थपथपाए जा रहा है। लेकिन वहाँ भी वही सन्नाटा, बखरी के अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई आवाज नहीं आई! और आती भी कैसे, जब उस दरवाजे पर बाहर से साँकल चढ़ी हो और ताला लटकता हो!! उसकी नजर लटकते ताले पर पड़ी..!! इसे देखते ही, वह धम्म से भहराकर, निढाल होकर पास के चबूतरे पर जैसे गिर पड़ा हो। उसकी आंखों से आँसू बहने लगे। तभी उसे "रोने से काम नहीं चलेगा' का ध्यान हो आया! फिर से उसने अपने को समेटा और बस्ती की ओर दौड़ पड़ा।
***
पिता भी कभी उसी बस्ती में रहते थे, लेकिन जब उन्हें दो विस्वा जमीन पट्टे में मिली, तो बस्ती वाला घर छोड़कर वहां आ गए थे, जहाँ आज चाचा का परिवार रहता है। बस्ती से मदद मिलने की आस में ही उस ओर भागा था वह। वहाँ पहुँचने पर उसे आश्चर्य हुआ, इतनी रात गए बस्ती जाग रही है ! कुछ लोग इधर-उधर आ-जा रहे हैं, तो कहीं कुछ लोग आपस में कानाफूसी करते दिखाई पड़े, न जाने कौन बात है? चारों तरफ एक अजीब सी अबोल हलचल है यहाँ !
इस बस्ती में ज्यादातर भूमिहीन, मजदूर और गरीब परिवारों का घर है। जो या तो गाँव में ही खेतिहर-मजदूर के रूप में काम करते हैं या फिर निकट के कस्बे में जाकर मजदूरी तलाशते हैं। इधर इस गाँव में एक और चलन शुरू हुआ है, गांव के गरीब-मजदूर परिवारों को तीन महीने की मज़दूरी पेशगी में देकर इन्हें दूरदराज के स्थानों पर काम कराने के लिए ले जाया जाता है। इसीलिए दिन में यहाँ सन्नाटा पसरा रहता है और घरों में ताला लटका मिलता है, या फिर कुछ निठल्ले ताश खेलते हुए मिल जायेंगे या फिर कुछ सुबह से ही टुन्न हो जाते हैं।
लेकिन आधी रात गए बस्ती में यह हलचल समझ में नहीं आई, और यह भी कि, उसे देखकर भी लोग जैसे अनजान हैं! अचानक उसे लालटेन जैसी रोशनी में कुछ लोगों का समूह झलक उठा और उत्सुकतावश उसकी ओर दौड़ पड़ा। लोगों के बीच से जगह बनाते हुए वह आगे आ गया, देखा! वहां जमीन पर कोई लेटा है। कोई उसे बेहोश, तो कोई मरने की बात कह रहा है। अरे ! उसके भैया भी तो ऐसे ही जमीन पर पड़े हैं!! उसके आँखों के सामने अंधेरा गाढ़ा होने लगा और कानों में सीटी बजने लगी।
उसे अपने आसपास बोलचाभर सुनाई पड़ रही है। धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोली। देखा, तीन-चार लोग घेरे हुए हैं। उठ कर वह बैठ गया। जोर की प्यास लगी है, पानी मांगा। पानी पीने के बाद कौतूहल से अपने आसपास देखा। उसे बताया गया कि वह बेहोश हो गया था। लोगों ने उसके होठ फटने और नाक से खून बहने का कारण भी पूंछा। उसने पूरी घटना कह सुनाई और लोगों से भैया को अस्पताल ले चलने की गुजारिश की।
उसकी बातों से लोगों के बीच कानाफूंसी शुरू हो गई। किसी ने कहा, जल्दी से मोटरगाड़ी वहां भी भेजो और कुछ लोग उसे अपने साथ लेकर उसकी झोपड़ी की ओर चल पड़े। इस बस्ती में एक अजीब किस्म की भगदड़ जैसी मची है।
घर पहुँचकर देखा, भाभी वैसे ही भैया का सिर अपनी गोद में लिए बैठी हैं। बस्ती वालों को देख कर वे रोने लगी और बोली, देखो इनको क्या हो गया है!! किसी ने भाभी को ढाढ़स बँधाते हुए कहा, अभी बेहोश हैं, जल्दी से अस्पताल पहुँचाना होगा..तो दूसरे ने कहा, एंम्बूलेंस उनको अस्पताल पहुँचाकर सीधे यहीं आएगी..एंम्बूलेंस वाले को खबर हो चुका है।"
एम्ब्यूलेंस आते-आते सुबह हो गई। भैया को अस्पताल पहुंचाया गया।
***
अस्पताल में, भैया जैसे कुछ और लोग भरती हैं! सब के मुँह और पेट में नली लगी है, भैया के भी! इनमें कई उसी बस्ती के हैं।
सूरज के चमकते-चमकते भैया के 'वारड' में उनके 'बेड' से चौथे और छठवें वाले पर 'रोउना-पिटना' शुरू हो गया, और 'दुपहरी होते-होते एक अउर बेड पर !' भाभी रोती और अपने 'आँचर' से आँसू पोंछ लेती। भैया बेहोशी की हालत में हैं, और उनकी सांस धीमी चल रही है। रात बीत रही है, लेकिन उसकी धड़कने रुकी हैं। भाभी के साथ उसकी भी निगाहें भैया पर ही गड़ी हैं। एक-एक पल कर-कर के किसी तरह रात बीती। यह दूसरे दिन के सुबह का समय है जब भैया कसमसाने लगे, और उनकी सांसें थोड़ी तेज हुई। नर्स और डाक्टर दौड़ पड़े, डाक्टर ने भैया को देखते हुए कहा, चिंता की कोई बात नहीं, खतरा टल गया है। इसके कुछ देर बाद भैया की आँखें मुलमुलाने लगीं। उन्हें होश आ रहा है। उन्होंने धीरे से आँखें खोल दी। उनकी ओर देखते हुए डाक्टर ने कहा,, 'अब तुम ठीक हो जाओगे।' भाभी की खुशी में रूलाई फूटने को हो आई।
छह दिन बाद अस्पताल से भैया को छुट्टी मिली। सँझलौका है, घर पर कुछ लोग आए हैं और झोपड़ी में कुछ देर तक भैया के साथ न जाने क्या बतिया रहे हैं। उनके जाने के बाद भैया से ज्यादा परेशान भाभी दिखाई दे रहीं हैं। उसे उन दोनों के बीच बहस होती सुनाई पड़ी। इस बेचैनी भरी साँझ को झोपड़ी के बाहर खटोले पर पेट के बल लेटकर जमीन की मिट्टी पर आड़ी-तिरछी रेखाओं से न जाने कौन सी आकृति बना रहा था वह, लेकिन कान भैया-भाभी की बातों पर लगा है। अब तो वह छोटी सी बात पर भी किसी अनहोनी की आशंका में सहम जाता है!
***
तो तुमको कछु नहीं फरक पड़ता.! अरे, ऊs जगनवा ने शराब पिलाकर तेरह लोगों को मार डाला, और तुम हो कि इससे कोउनऊ फरक नाहीं!! अगर तुमको कुछ हो जाता तो, कहां जाती मैं, क्या करती? जैसे भाभी की आवाज़ रूँवांसी है।
"देख तू बात नहीं समझ रही।" भैया कह रहे हैं।
'अच्छा ! तो तू समझदार है! छह दिन तक अपने ही समझदारी से अस्पताल में मउत से जूझता रहा, यही तुम्हारी समझदारी है, है न? देख लिया तुम्हारी समझदारी, बड़ा आया हमें समझाने।" भाभी गुस्से में बोलीं हैं।
"तू इतनी गुस्सा क्यों हो? भगवान का शुक्र मना, कि हम बच गए।" भैया खीझते हैं।
भगवान का शुकर तो मना ही रही हूँ, लेकिन तू जगनवा के खिलाफ नहीं बोलेगा, तो फिर कोनऊ दिन ऐसेई शराब पियाई के और लोगन के मारेगा। और तुम्हरऊ कोई भरोसा है?
"तू नहीं जानती। तो, तू चाहती है हम उसके खिलाफ गवाही दें ? अरे, तबहूँ कुछ नहीं होगा उसका, ऊ बहुत पहुँचवाला है।"
'हां हां मैं यही चाहती हूँ, और सुन ले,अगर तू नहीं बताएगा, तो मैं सरे बाजार गवाही दुंगी..कि..जगनवा दहिजरा ने ही सब को शराब पिलाकर मार दिया। अउर, ई का सरकार नहीं जानती कि दहिजरा नदी का गाड़ा शराब पिया के तेरह जनों को मरवा दिया है, जगनवा ने!! फिर चाहे केतनऊ पहुँच होई, काम न करी..अऊर ऊं मुँहझौंसे को जेहल जरूर होई, बस तुम गवाही दो, हमको बहटियावो मत।" भाभी जैसे गुस्से से फट पड़ी।
"हे भगवान, मेरी बात तो समझो, वे जगन के ही आदमी थे, जो हमसे मिलकर अभी गए हैं, जानती हो का कहकर गए हैं?" भैया कुछ कहना चाह रहे हैं, लेकिन भाभी बीच में बोल पड़ीं,
हाँ हाँ मैंने सुन लिया है वो का कहे..अरे यही न, जगनवा ने तुम्हारा कर्जा माफ कर दिया, यही न कहकर गए हैं। अरे कर्जा तो हम दोनों मजदूरी करके लौटा देते, और तुम हो कि करजा माफ कर दिया जगन ने, बस इतने से खुश हो गए? तुम्हारे करजा माफी से तेरह लोग लौट आएंगे का? या उस पापी का पाप धुल जाएगा? हाँ, पाप तो तुम अपने सिर चढ़ाओगे, ई अनियाव का साथ देकर..चुप बैठकर..!!
"नहीं रे! करजा-फरजा माफी की बात नहीं.." भैया चुप हो गए हैं। उसे ढिबरी की मद्धिम रोशनी में दिखाई पड़ रहा है, भैया ने अपने दोनों घुटनों के बीच जैसे अपना सिर छिपा लिया है और दोनों के बीच मौन छाया है। शायद भैया परेशान हैं।
"यह बात नहीं, तब कौन सी बात है? बताओ!" भैया के चेहरे को उठाते हुए भाभी ने पूँछा।
झोपड़ी में ढिबरी की उस मद्धिम-मद्धिम रोशनी में उसने देखा, भैया ने अपने दोनों हाथ भाभी के कंधे पर रख दिया है और निगाहें भाभी के चेहरे पर जमा लिया है! भैया कुछ कह रहे हैं..
'रजुवा की भाभी! वे यह कहकर गए हैं कि, जगन के यहाँ शराब पीने की बात कहने का अंजाम बहुत बुरा होगा.. तुम्हारी बहुरिया बहुत टिपिर-टिपिर करती है, जरा उसको भी समझा लेना..अगर वह तुमसे न संभल रही हो तो, हम लोग उसे अच्छे से संभाल लेंगे..बाकी तुम्हारी मर्जी..समझे..?... हाँ रजुआ की भाभी बस यही बात कह कर गए हैं, वे लोग इहाँ से! और ई बात से हमका बहुत फिकिर हो गई है तुम्हारी..!
"अच्छा ! बड़े आए हमारी फिकिर करने वाले!! एतनई..हमारी फिकिर करते तो जगनवा के इहाँ से जहर पीकर न आते! और का कहा ? हमको संभाल लेंगे! बड़े आए संभालने वाले" भाभी अपने कंधों से भैया का हाथ हटा रहीं हैं और उनकी आवाज़ घुंटी-घुंटी सी है।
"नहीं नहीं...अब तुम्हारी ही नहीं, आने वाले बच्चे की भी फिकिर करनी होगी हमें..और सुनों अब हम कभी नहीं पिएंगे..बस तू किसी से कुछ मत बोलना..हाँ अब कभी नहीं पिएंगे..कान पकड़ता हूँ.." उसे ढिबरी की रोशनी में कान पकड़कर उठते-बैठते भैया की परछाई दिखाई पड़ रही है।
"अच्छा बहुत कान मत पकड़ो, लेकिन ई बताओ, कोई पूँछेगा कहाँ पिये थे तो का बताओगे? भाभी की आवाज़ में डर था।
"यही कि सरपताही से लाए थे पीने के लिए। जगन के आदमी यही बोलने के लिए कहे हैं।" भैया ने भाभी के कान में जैसे फुसफुसाया हो! वे कुछ और कह रहे थे लेकिन उसे सुनाई नहीं दिया।
***
दस-बारह दिन बीत चुके हैं। उसने देखा, बस्ती में 'बिलाक' के बीडिओ साहब आए हैं। साथ कोई एक नेता भी हैं। बीडिओ साहब मरने वालों के घर घर जाकर नेता जी के हाथ से उनके परिवारों को सिलाई मशीन बँटवा रहे हैं। नेता जी दुःखी परिवारों को ढांढ़स बंधाते जाते।
इस पूरी घटना से वह बहुत विचलित है। "तेरह लोगों को मार डाला" भाभी की यह बात उसके बाल-मानस को बींधता रहता है और गाहे-बगाहे उस बस्ती की ओर निकल जाता। वह भी सिलाई मशीन बांटते 'बीडिओ' साहब के साथ हो लिया है। डरते-डरते जब बस्ती के लोग दबे स्वर में कहते कि, ''सबने जगन के यहां शराब पी थी' तो, नेता जी अपनी चढ़ी हुई भौंहों के साथ एक विद्रूप भावभंगिमा बनाकर डपटाहट भरे अंदाज में कहते, 'अरे भाई यह होनी था हो चुका, अब कोई क्या कर सकता है।" इसपर बेचारे गांव वाले मौन साध लेते, जैसे बोलकर उन्होंने कोई गलती कर दी हो। अंत में अपने बंदूकधारियों के साथ नेताजी जगन के घर जाकर देर तक उनकी कोठरी में बैठकर उनसे न जाने क्या बतियाते रहे।
इधर बस्ती में घूमते हुए उसने भी जान लिया है कि उस दिन मजदूरों ने जगन के घर पर ही शराब पिया था और उनके बीमार पड़ने की ख़बर मिलते ही परिवार सहित वे कहीं चले गए। तभी उस रात उनके बखरी के बड़के दरवाजे पर ताला लटकता मिला था उसे ! जगन को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया, लेकिन तीन दिन बाद छोड़ दिया ! भैया ही क्यों, सभी ने तो कह दिया था कि सरपताही से शराब लाए थे, और फिर बड़े नेता भी जगन की पैरवी में जुटे थे ! 'पुलिस सरपताही गई थी और वहां डब्बै-डुब्बे गिरा-फिरा कर बताया कि शराब की भट्टी नष्ट कर दिया गया है, मुला कोई पकड़ में नहीं आया..शाइत शराब बनाने वाले फरार हो गए थे, लेकिन वहाँ भट्ठी कहाँ थी?'' यह बात बस्ती के ही किसी व्यक्ति के मुँह से सुन रखा है वह।
भैया भी तो बता रहे थे कि सिवान की सरपताही में कोई शराब-भट्टी नहीं थी। बस्ती में ही उसने यह भी सुना था, "जगन बाहर से शराब मंगवाते हैं और चोरी-चोरी आसपास के गाँवों में बिकवाते हैं, तभी तो आठ इस गांव में, और पांच लोग दूसरे गांव में मरे! न जाने कैसे उस दिन शराब गड़बड़ निकल गयी, इसमें बेचारे जगन का क्या दोष? पुलिस उसे नाहक ही पकड़ ले गई।" सुनकर उसे धक्का लगा था, आखिर इस बस्ती का आदमी कैसे ऐसी बात कह सकता है!! उसने सोचा।
***
भैया को ढाई वर्ष हो चुके हैं, शराब छोड़े हुए। और उसने भी इस बीच मिडिल पास कर लिया है। मजूरी-धतूरी करके भैया घर के साथ-साथ उसकी भी पढ़ाई का खर्च ओजते रहे। लेकिन, उनका कहना कि 'अब तुम्हारी पढ़ाई का बोझ उठाना हमारे वश में नहीं..आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना होता', तो यह भैया का उसे न पढ़ाने का फैसला है! यह उनकी विवशता हो सकती है। सही में, उसे शहर भेजकर पढ़ाना भैया के वश की बात नहीं, उनके दो बच्चे भी तो हैं! भैया की इस बात पर वह कुछ नहीं बोला,केवल पैर के अँगूठे से जमीन कुरेदता रह गया!!
प्रतिउत्तर की कुछ क्षण प्रतीक्षा के बाद भैया काम पर निकल गए और वह भी झोपड़ी से बाहर निकल आया। इन ढाई वर्षों में नीम की छाया कुछ और सघन हो चुकी है, उसके नीचे पड़ी चारपाई पर आकर वह बैठ गया। दूर उत्तर-पूर्व के क्षितिज पर उमड़ते काले और भूरे बादल उसे नजर आ रहे हैं। यह जुलाई माह का दूसरा पखवाड़ा है। सामने दूर तक फैले खेतों में कहीं-कहीं धान की रोपनी, तो किसी खेत में बैल नधे हैं, खेत की जुताई हो रही है।
उसके घर के सामने वाले खेत में पोलई काका अपने बैल नाधे पड़े हैं। दो तीन हराई खेत जोते होंगे कि उनकी "ईहै..हऊ..हीहै.." जैसी तेज आवाज सुनाई पड़ी। उसने देखा, जुए में बांयीं ओर नधा बरधा जुए को झटकने की कोशिश कर रहा है और चलते-चलते खड़ा हो जा रहा है..पोलई काका बसौंटी से कोंच-कोंच कर उसे आगे बढ़ने के लिए उसका रहे हैं...लेकिन वह ऐसा अड़ा है कि वहीं खेत में ही बैठ गया। बेचारे पोलई काका कभी उसके कोख में बसौटी से कोंचते, तो कभी पूँछ पकड़कर कर उठाने की कोशिश करते, लेकिन वह ऐसा ढीठ बैल की टस से मस नहीं हो रहा है, जबकि वहीं दहिने वाला बैल बेचारा कमजोर जरूर है, लेकिन कंधे में जुआ टांगें उसे खींचने का प्रयास कर रहा है। दोनों की गरदन में जैसे जुआ फंस गया हो।
उससे पोलई काका की परेशानी देखी नहीं गई, वह भाग कर उनके पास पहुँचा और पूँछ पकड़ कर बैल को उठाने में उनकी मदद करने लगा.. वैसे यह बैल बड़ा गबरू टाइप का है..उसमें किसी बीमारी का लक्षण भी नहीं, फिर भी यह आनाकानी क्यों? उसकी पूँछ को जोर से खीँचते हुए पोलई काका से उसने यही पूँछा।
"अरे बेटवा ई सरवा गरियार निकलि गवा..पूरा सार सूरत हरामी अहै ई...काँधे पर जुआ अउर खेत में फार पड़ा नाहीं कि ससुर बइठेन! बेटवा, इहीं कतिकी के मेला से लिहे रहे एका..ससुरकैइके ठगि लेहेसि हमइ.." इस बीच काका जुए से सरिया निकाल उस बैल के गर्दन से जुआ अलग कर जैसे ही उसके कोख में बसौटी से कोंचे, झटपट उठ खड़ा हुआ ! उसके गर्दन में फिर से जुआ पहनाते हुए पोलई काका ने कहा, "बेटवा, कोउनऊ गाहक मिलि जाए तs एनका ससुर के निकालिन देब..इब तक चार फराई अऊर जोते होइत.." उन्होंने फिर हल का मूठ पकड़ लिया। जमीन में फार धँसाया और उनका इशारा पाकर बैल जैसे दौड़ पड़े हों। वह खड़ा रहा..एक हराई पूरी हुई..उसके पास से गुजरते हुए पोलई काका ने उसे देखते हुए फिर कहा, "देखs..बेटवा! गरियार बरधा ससुर ऐसेइ होथेंन...न चलिहिं तो न चलिहीं..अऊर चलिहैं तो ससुर मेड़इ ओदरिहैं.." वह मुस्कुराते हुए वापस आकर नीम के नीचे खटोले पर फिर लेट गया।
***
भैया भी तो बंटाई पर खेत लेना चाहते हैं। एक दिन पोलई काका और भैया के बीच की बातचीत उसने सुनी थी, 'नाहीं बेटवा, वैसे पिलान बनाई लिहे हौ, तो हम का कहीं, मुला अब अधियउ लिहे फ़ायदा नहीं बा, इहाँ तो, खादी-पानी, बिया-बिसार मेहनत मजदूरी कुल आपन, अऊर पइदा में आधा बाँट दs, का कहीं बेटवा! ई अजब रिवाज चला आई बाs, खेती करै वालन के खेत नाहीं, अऊर सुखमिन जमींदार!" भैया ने कहा था, " बात तो सही हवे काका, लेकिन केहू आन के मजूरी करइ से अच्छा कुछ अपनै काम किया जाय, इसीलिए अधिया लेने की सोच रहे हैं, हम और रजुआ मिलि कै.." "तोहार मर्जी बेटवा।" काका ने बीच में ही बोलते हुए उठ खड़े हुए थे।
तो क्या करे वह, भैया के साथ काम में हाथ बंटाए ? भैया यही चाहते हैं। फिर वह कैसे पढ़ पाएगा ? आगे पढ़ने के लिए तो उसे शहर जाना ही पड़ेगा ! लेकिन भैया उसे शहर भेज नहीं पाएंगे। मां ने तो कहा था धरती का तारा बनोगे, हूँह..क्या होता है धरती का तारा बनना..? उस दिन गांव में आए कोई साहब भैया को 'खेतिहर-मजदूर' बता रहे थे.. फिर तो उसे भी खेतिहर मजदूर ही बनना है.! शायद मजदूर को ही धरती का तारा कहते हों? ये आसमान के तारे भी न, किसी काम के नहीं, कोई सूरज तो बन नहीं जाता !!
…मजदूर होना बुरा है? हाँ है। देखा नहीं..! भैया मजदूरी ही तो करते हैं ! वह पढ़ना चाहता है, नहीं पढ़ा पा रहे उसे। भैया के बच्चे ! सब मजदूर बनेंगे..टिन्नी..रिंकू सब!! उस फटे पन्ने में..! पड़ा मिल गया था उसे कहीं, उसमें तो लिखा था...मजदूरों ने दुनिया को बदल दिया है..छि: मजदूर ! तुम अपने को नहीं बदल पाते, तो दुनियां क्या बदलोगे ? और उसने कागज के उस टुकड़े को चिंदी-चिंदी करके हवा में उड़ा दिया था..! नहीं, दुनियां को पढ़े लिखे लोगों ने बदला है…वह? वह तो पढ़ ही नहीं सकता..! लेकिन, पढ़ेगा..।
उधर क्षितिज में उठा बादल अब तक उमड़ते-घुमड़ते करीब आ चुका है...दूर खेतों के पार वृक्षावलियों को सफेदी ने ढक लिया है.. शायद उस ओर बारिश शुरू हो चुकी है..उधर से आती सुर सुर ठंडी हवाएं, जैसे उसे हौले-हौले सहला रहीं हैं...मां भी तो ऐसे ही उसके सिर पर हाथ फेरा करती...कितना सुकून भरा होता उनका सिर पर यह हाथ फेरना!! टप टप बूंदें पड़नी शुरू हो चुकी हैं....पेट के बल खटोले पर लेटे हुए उसकी पीठ पर पड़ती बूँदें धीरे-धीरे झड़ी में बदलने लगी हैं...भींगने में उसे मज़ा आ रहा है…भींग रहा है वह...भींगता रहा...उसका मन और मस्तिष्क धुल रहा है..! आज शाम को जब चाचा घर आएंगे तो बस्ती में जाकर मिलेगा उनसे...
२
उसने सुना है चाचा का शहर में भी घर है, अकसर वे गाँव-शहर आते-जाते रहते हैं। रेलवे लाईन के किनारे की एक जमीन पर पक्की ईंटों से बनी एक कोठरी के साथ लगा छोटा सा बरामदा और छत पर टीन-टपरे से छायी एक कोठरी, यही थी शहर में उनकी रिहाइश। जिसमें दो चचेरे भाई तथा एक छोटी चचेरी बहन और चाचा-चाची रहते हैं । चचेरे भाइयों में बड़ा भाई मजदूरी करता है तो छोटा किसी होटल में टेबल-बर्तन साफ करता है, बहन अभी पाँच-छह साल की होगी।
नगरपालिका के एक सरकारी स्कूल में कक्षा नौ में उसका नाम लिखाया जाना था। स्कूल भी क्या खूब, जैसे गरीबों के लिए ही बना हो! इसीलिए तो, बस चाचा ने आठ की मार्कशीट दिखाई और उसका एडमिशन हो गया। अमीरों के बच्चे उस स्कूल को हिकारत भरी नज़र से देखते होंगे, उसी में पढ़ेगा वह! कम से कम इण्टर तक तो पढ़ ही सकता है यहाँ।
उस दिन जब चाचा ने उसके शहर जाने की बात भैया से बताई तो नाराज़गी में भैया बोले थे, "चाचा, यह निखालिस फड़क-दलाली करना चाहता है, पढ़ाई के नाम पर मेहनत-मजूरी से भागता है।" चाचा असमंजस में पड़ गए थे, लेकिन जाने फिर क्या सोचकर भैया ने झिझकते हुए अपनी सहमति दे दी।
***
चाचा ने अखबार बांटने के काम पर भी लगवा दिया है। इसके लिए उसे रोजीना सुबह पांच बजे से नौ बजे के बीच खूब साइकिल चलानी होती है। इसके बाद स्कूल जाता है। अखबार बांटते समय रास्ते में पड़ते बरगद वाले चबूतरे पर बैठ वह अखबार भी पढ़ लेता है, खासकर रविवार का बच्चों वाला स्तंभ उसे खूब भाता है! और इसके चक्कर में अखबार देर से पहुँचने के कारण कभी-कभी उसे डाट भी मिलती है। 'हाकरई' के काम का पैसा नहीं मिलता है उसे, शायद चाचा लेते होंगे। क्योंकि किताब-कापी की समस्या होने पर चाचा कहते कि 'खान-खर्च' और फीस से पैसा बचे तब न।
सबके सो जाने पर वह रात में पढ़ता भी है। उस समय यदि रेल की पटरी पर कोई रेलगाड़ी गुजर रही होती है, तो अनायास ही भाप-इंजन वाली झकझकाहट में अपना भी सुर मिलाने लगता है, "झअ..झआ..पइसा चल कलकत्ता..झअ..झआ..पइसा..चल कलकत्ता" ।
जैसे-तैसे 'हाकरगीरी' के साथ उसकी पढ़ाई भी चल रही है, लेकिन यहाँ उसकी कोई विशेष परवाह नहीं करता, जबकि अभी उम्र ही कितनी है उसकी! चार-पाँच महीना हुआ होगा चाचा के साथ शहर आए हुए। घर से फुलपैंट और हाफ शर्ट पहनकर और झोले में एक हाफ पैंट तथा पूरी बाँह की कमीज लेकर निकला था! अब ठंड भी बढ़ने लगी है, इधर उसकी फुल पैंट भी साइकिल चलाते-चलाते घिसी जा रही है और कमीज़ की बाँहीं उतर गई है। वह संकोची भी तो बहुत है, चाचा तो देख ही रहे होंगे, क्या कहे उनसे! चाचा चाहें तो उसके लिए एकाध पैंट खरीद सकते हैं।
वह तो भाभी ने शहर आते समय ताखे से निकाल कर पचास रूपए दे दिए थे उसे! ये रूपए उसे बहुत काम आए !! जरूरी किताबें और कापियां वह इसी से लेता रहा, लेकिन इधर अब ये रूपए भी चुक गए हैं, किससे कहे? गाँव जाकर भैया से भी नहीं कह सकता। वैसे भी शहर जाने की बात को लेकर अभी तक चिढ़े हुए हैं वे, और भाभी बेचारी से ! नहीं-नहीं टिन्नी रिंकू भी तो हैं !! किसी से नहीं कहेगा...देखा जाएगा। वैसे उसके अखबार बांटने से यदि चाचा को पैसा मिलता होगा तो, उसके कपड़े तो आ ही सकते हैैं, या हो सकता है शहर के खर्चे चाचा के लिए भारी हों, आखिर हैं तो वे भी मजदूर ही..!!
आज विशाल बरगद को निहारते हुए वह सोच रहा है, गरीब-मजदूर परिवारों में संवेदनाओं के आदान-प्रदान जैसे संव्यवहार अचेतन रूप से ही हो जाते होंगे, इसमें कोई ऐसा ललकपूर्ण वर्ताव नहीं होता होगा जो पृथक से ऐसी भावनाओं का अहसास कराए और भावनात्मक सुरक्षाबोध पैदा हो सके..आह..! इस परिवेश में कोई कैसे दरख्त बन पाएगा? यह गरीबी भी न, संवेदनाओं को पहचानने ही नहीं देती!
लेकिन माँ ! न जाने कैसे उसकी गरीब मजदूरिन माँ, उसके मनोभावों को ताड़ लेती और सहलाती! उसे हजार नेमतें मिल जाया करती, फिर वह तन-मन से चौकड़ी भरने लगता..!! इस परिवेश में माँ, कैसे सबसे अलग थी? तभी तो वह...और उसकी आँख से आँसूं बह निकले...बरगद वाले चबूतरे पर बैठे हुए आज, पास में पड़े रविवार वाले अखबार से अनजान है वह, पढ़ने का मन ही नहीं हुआ उसका..देर हो रहा है..सोचते हुए, अखबार को उसके गंतव्य तक पहुँचाने के लिए साइकिल उठाकर चल पड़ा...
इस बरगद के चबूतरे से कुछ दूर आगे एक बड़ी सी बाउंड्री शुरू हो जाती है, जो बहुत दूर तक फैली है। इस बाउंड्री के बगल से होकर उसे, इसके दूसरे छोर से आगे तक जाना होता है। वहां कई घर हैं, जिन्हें अखबार देना होता है। इस स्थान से गुजरते हुए प्राय: बाउंड्री के गेट पर उसे भीड़ दिखाई पड़ती है। 'भीड़ क्यों है यहाँ?' अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए एक बार पूँछ भी बैठा था, 'फैक्ट्री है, इसी में काम करते हैं ये.." किसी ने यही बताया था उसे। वहां से गुजरते समय साइकिल को पैडिलियाते हुए एक बार उसकी निगाह बाउंड्री के पार फैक्ट्री की ओर जरूर उठ जाती है और सोचता, 'फैक्ट्री है, इसी में काम करते हैं लोग।'
***
दिसंबर आधा बीत चुका है, जाड़े की ठिठुरन भी बढ़ चुकी है..उसके कपड़े भी जाड़ा सँभालने लायक नहीं रह गए हैं। सुबह की 'हाकरगीरी' बहुत मुश्किल होती है, अब जहाँ भी उसे अलाव जलता मिलता, कुछ क्षण रूक कर ताप लेता है। मन ही मन जैसे-तैसे जाड़ा काट लेने की वह ठान चुका है, लेकिन पढ़ने के लिए कांपियाँ कहाँ से ले आए? पढ़ाई में अब उसे बहुत मुश्किल होने लगी है। उसने देखा, बरगद वाले चबूतरे के पास अलाव जल रहा है, तीन-चार लोग बैठे ताप रहे हैं, और एक कुत्ता भी उनके बीच घुसकर बैठा है...आज गलन कुछ ज्यादा है, साइकिल से उतर पड़ा। साइकिल खड़ी कर वह भी अलाव के पास पहुँच गया। आँच बढ़िया है, अपनी ठिठुरन दूर करने के लिए वह भी अलाव के पास बैठ गया। उसे दो लोगों की आपस में हो रही बात सुनाई पड़ी,
'सोच लो, तुम यह काम नहीं करोगे?' 'नहीं, मैं नहीं कर पाऊंगा..ढंग का दूसरा काम खोज लुंगा।' 'ठीक है, अगर कोई काम न मिले, तो फिर बतइयौ, मुकादम सेठ से कह देंगे।' 'हूँ..' उसे देखकर वे दोनों चुप हो गए।
"इस फैक्ट्री में क्या बनता है?" उसने यूँ ही जिज्ञासावश पूँछ लिया उनसे।
"दूध..' 'दूध..? हाँ..हाँ दूध ही..दूध पाउडर भी..मैं तो इसी में काम करता हूँ।" अधेड़ दिखाई दे रहे व्यक्ति ने कहा, जो अभी साथ बैठे युवक को समझा रहे थे।
'वोह..अच्छा..!' उसने अचंभे में बोल दिया। "तो..दूध भी पीने को मिलता होगा?" उसके इस मासूम प्रश्न पर वे दोनों हँस पड़े। उसमें से एक खीँ..खीं करते हुए बोला, "कक्कू..इसे दूध पीने का मन है बच्चा है न, मुकादम सेठ से मिलवा दो..काम और दूध दोनों मिलेगा इसे।" एक बार फिर वे दोनों हंस पड़े। वह उनकी हँसी से सकपका गया और बगल में बैठे कुत्ते के सिर पर हाथ फेरने लगा। देखा, कुत्ता भी पूँछ हिला रहा है। "अरे! देर हो रही है.." बुदबुदाते हुए उठ खड़ा हुआ।
***
अलाव से उठकर बांउड्री के बगल से होते हुए वह उन घरों की ओर चल पड़ा, जहाँ उसे अखबार देना होता है। अंतिम अखबार फेंककर जैसे ही चला "ऐ लड़के" की आवाज आई। पलट कर देखा, और अचानक मुड़ पड़ा। साइकिल की गद्दी से पैर जमीन तक नहीं पहुँचते, इसलिए उसका संतुलन बिगड़ा और गिरते-गिरते बचा। वे इस घर की मालकिन थीं! "तूने अखबार देने में आज भी देर कर दी!" "चाची..जड़ा गया था, कउड़ा तापने लगा" साइकिल संभाले हुए बोला, उसके आवाज में दयनीयता थी। "अच्छा रूक.." कह कर घर के अंदर चली गयी। कुछ देर में लौटी तो उनके हाथ में एक स्वेटर था। उसकी ओर बढ़ाते हुए बोलीं, "लो, इसे पहनो, और हाँ, कल से देर मत करना, समझे?" उसके लिए यह एक अप्रत्याशित बात थी। "लेते क्यों नहीं जी..कांप रहे हो...लो पहनो।" वे फिर बोलीं। बेहद संकोच में धीरे से उसने हाथ बढ़ा दिए। "हां पहनो..पहन लो.." उसके हाथ में स्वेटर देकर वे बोलीं। उसे पहनना पड़ा। "हाँ..देखो, तुझे फिट है।" कहते हुए चेहरे पर संतुष्टि का भाव लिए वे घर में जाने लगीं।
किंकर्तव्यविमूढ़ वह! खड़े-खड़े उन्हें घर के अंदर जाते हुए वह देख रहा है। कुछ क्षण बाद वह भी सुस्त कदमों के साथ हाथ से साइकिल पकड़े वापस हो लिया। न जाने क्यों आज उसे कुछ अच्छा महसूस नहीं हो रहा है, जैसे उसका कुछ खो गया हो ! यूँ ही पैदल ही पैदल वह बरगद के चबूतरे तक आ गया। स्वेटर पहनने से उसे गरमाहट महसूस हुई, बावजूद इसके उसके अंदर जैसे कंपकंपी छूट रही हो और कहीं कुछ जम रहा है।
***
साइकिल को स्टैंड से लगाकर चबूतरे पर बैठ गया। अब तक आठ बज चुके हैं, यहाँ सन्नाटा पसरा है। मजदूर भी फैक्ट्री के अंदर जा चुके हैं, अगर यही गरमी का दिन होता तो चार-छह लोग चबूतरे पर इधर-उधर पसरे होते। दूर तक फैली बरगद की शाखाओं की पत्तियों के बीच से सूर्य की किरणें चबूतरे पर ताक-झांक करने तक ही सीमित हैं। ऐसे में कोई क्योंकर ठंड भरी इस छाया में यहाँ बैठेगा!! अलाव अब राख में बदल रही है, लेकिन राख के नीचे कुछ सुलग रहा है और रह-रहकर धुएँ का नन्हा गुबार उठ जाता। अरे! वह कुत्ता अभी भी पैर पर पैर रखे वैसे ही निंदियाया बैठा है यहाँ.! कौन सा इसे "हाकरई" करना है! एक क्षण के लिए कुत्ते के सुख से उसे रश्क हो आया।
देखा, एक खोखे के सामने एक-दो लोग खड़े हैं और दो लोग उसके ठीक सामने की बेंच पर बैठे हुए हाथ में दोना पकड़े कुछ खा रहे हैं, एक व्यक्ति अपना दोना फेंक देता है। न जाने कैसे कुत्ते की निगाह उस पर पड़ जाती है, वह दौड़कर वहां पहुँच गया और दोने को मुँह में पकड़े वापस अलाव की ओर भागा आ रहा है। "उँह..कुत्ता..!" एक अस्फुट ध्वनि उसके मुँह से निकली और कुत्ते पर से निगाह हटा लिया।
उसकी तंन्द्रा टूटी गई, कहाँ खो गया था वह! तो इस स्वेटर का क्या करे ? स्वेटर को लेकर ही उसकी उलझन है। अपनी आँखें बंद कर लेता है। वह कुत्ता अब उसे स्वेटर पहने हुए दिखाई पड़ता है। चौंक उठता है वह, उसकी आँख खुल गई! देखा, कुत्ता अलाव से थोड़ी दूर पर बैठकर दोने को चाट रहा है। उसे कुत्ते से चिढ़ हो आई। एक झटके में उसने स्वेटर उतार दिया। चबूतरे से उठकर साइकिल के कैरियर में स्वेटर को दबाया और उछलते हुए उस पर सवार होकर तेज-तेज पायडल घुमाते वहाँ से निकल पड़ा, जैसे मन में कुछ निश्चय करके चला हो!
***
दूसरे दिन बरगद के चबूतरे के पास वाले अलाव पर नहीं रूका। हालांकि आज ठंड भी बहुत ज्यादा थी, लेकिन उसे अखबार बांटने में देर होने का डर था। अभी कल ही स्वेटर देते हुए ताकीद किया गया था कि 'कल से देर न हो' । अखबार बांटते हुए वह उस घर के पास आ चुका था जिस घर की मालकिन ने उसे स्वेटर दिया था। उसने साइकिल खड़ी किया और झोले में रखा स्वेटर निकालकर पहना, फिर अखबार देने उस घर की ओर मुड़ पड़ा। वहां से लौटकर बरगद वाले अलाव पर आया। कुछ देर तक अलाव के पास बैठा रहा। वहां से चलते समय चुपचाप स्वेटर निकाल कर झोले में रख लिया।
यह लगभग उसकी रोज की आदत बन चुकी है। असल में उस दिन उसने उस घर की मालकिन से स्वेटर तो ले लिया, लेकिन इसके साथ ही उलझन में भी फंस गया था। जैसे किसी ने उसके आत्मसम्मान को चांटा जड़ दिया हो! चबूतरे पर बैठे-बैठै यही निश्चय किया था कि वह इस स्वेटर को नहीं पहनेगा, लेकिन साथ में उसे यह भी भय हो आया कि अगर मालकिन उसे बिना स्वेटर पहने देखेंगी तो न जाने क्या सोचेंगी! और दूसरी बात यह कि अब वह दया का पात्र बनकर कुछ भी नहीं लेना चाहता। इसीलिए उस घर के पास पहुँचते ही स्वेटर पहन लेता और वापस चबूतरे पर आकर उतार भी देता! अब अखबार पहुँचाने में देर न करता।
***
एक दिन स्कूल से घर पहुँचा तो, चाचा-चाची उसका इन्तज़ार करते हुए उसे मिले। उसनेे देखा चाची के हाथ में वही स्वेटर था! कहाँ से मिला यह? चाचा की इस जिज्ञासा पर उसने स्वेटर मिलने की कहानी कह सुनाई। उस दिन चाची ने तमकते हुए उस पर यही आरोप लगाया था कि स्वेटर इसलिए छुपाकर रखता है कि कहीं वे लोग इसे ले न लें। हालांकि उसने बहुत सफाई दिया फिर भी कोई उसकी बात मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। लेकिन स्वेटर न पहनने के असली कारण को उसने उन सबसे छिपा लिया। उस दिन सबने मिलकर उसे 'चालाक' भी घोषित कर दिया। चाची ने भाइयों को स्वेटर पहनवा कर नपवाया भी, लेकिन उन्हें छोटा पड़ गया। अब वह अखबार बांटने घर से निकलता तो स्वेटर पहन कर निकलता।
इस घर में वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करता आ रहा है। और इससे भी बड़ी बात यह कि उसकी पढ़ाई की छोटी सी जरूरतों को भी वहाँ कोई समझने वाला नहीं है। इस अजीब घुटन भरे माहौल में रहना अब उसके लिए असंभव हो चला है। उस दिन अखबार बांटकर वह सीधे बरगद वाले चबूतरे पर पहुँचा और निढाल होकर चबूतरे पर पसर गया। आज उसका मन घर जाने के लिए भी नहीं हो रहा है, लेकिन जाए कहाँ वह?
गाँव चला जाए! लेकिन भैया क्या कहेंगे? भैया भी तो छह महीने हो गए, अभी तक उसका हाल-चाल नहीं पूँछे। हाँ, एक दिन गाँव से लौटकर आने के बाद चाचा जरूर उसे बता रहे थे कि तुम्हारे भैया ने पूंछा तो मैंने उन्हें बता दिया है कि रजुआ वहां बड़े मजे में है। वोह! "रजुआ बड़े मजे में हैं' लेकिन भैया को उससे भी तो पूंछना चाहिए, कम से कम उससे हाल-खबर ले लेते! लेकिन नहीं उसने भी तो भैया के मन का नहीं किया, शहर चला आया!! अगर वह गाँव चला जाएगा तो उसकी पढ़ाई का क्या होगा? वह रूआँसा हो आया, उसे लगा जैसे उसकी साँस फूल रही हो, चबूतरे पर लेटकर उसने आँखें मूँद ली।
***
चबूतरे के फर्श की गलन इस सर्द सुबह में बर्फ जैसी प्रतीत हो रही है। पढ़ने की इच्छा खूब थी लेकिन पढ़ाई कर पाना अब उसके लिए दूर की कौड़ी है...कैसे पढ़ेगा वह यहाँ रहकर? जब रहने का ही ठौर नहीं! तो.? नहीं..नहीं..कहीं भी वह रह लेगा..लेकिन काम? अखबार तो बाँट ही रहा है वह..अखबार वाले मालिक से कहेगा, हाकरगीरी का पैसा यदि मिलता हो, तो मुझे ही मिले। लेकिन? लेकिन, चाचा क्या सोचेंगे? चाचा ही ने तो अखबार बांटने के काम पर लगवाया था ! उस दिन सबने मिलकर उसे 'चालाक' कहा, अच्छा नहीं लगा था उसे। नहीं...वह यह 'हाकरई' भी छोड़ देगा..चाचा से कह देगा किसी और को इस काम पर लगवा दें, वह नहीं कर पाएगा इस काम को..! लेकिन फिर पढ़ेगा कैसे ?
किससे कहे..कहाँ जाए काम मांगने..यह फैक्ट्री..! इस फैक्ट्री में तो बहुत लोग काम करते हैं!! उस दिन अलाव पर वे दोनों क्या बात कर रहे थे..हाँ मुकादम सेठ! ये मुकादम सेठ कौन है? याद आया..जब उसने कहा कि "कक्कू..इसे दूध पीने का मन है बच्चा है न, मुकादम सेठ से मिलवा दो..काम और दूध दोनों मिलेगा इसे।" तो उसे कितना बुरा लगा था !! मुकादम सेठ काम देते होंगे इस फैक्ट्री में? तभी शायद उन 'कक्कू' ने कहा था, "अगर कोई काम न मिले, तो फिर बतइयौ, मुकादम सेठ से कह देंगे।" वह मुकाम सेठ से मिले क्या?
अकस्मात् उसकी आँखें खुली! उठ बैठा। सामने कुछ दूर एक बड़े से कूड़े के ढेर के आसपास उसके जैसे तीन बच्चे कुछ बीन रहे हैं। एक तो उसके जैसा ही है, और कपड़े भी मैला-कुचैला फटा पहना हुआ है, वह 'सिउटर' नहीं पहने हैं, 'जड़ा' रहा होगा! उसने झटपट अपना 'सिउटर' उतार लिया और कूड़े की ढेर की ओर दौड़ गया।
***
कूड़ा बीनते लड़के को उसने 'सिउटर' दे दिया और वह लड़का भी स्वेटर पाकर अचंभित था। जब तक उसे कुछ समझ में आता, वह दौड़कर सीधे फैक्ट्री के गेट पर आ खड़ा हुआ। एक बार मुकादम सेठ से मिलेगा जरूर, मिलकर उनसे काम मांगेगा।
फैक्ट्री के गेट पर खड़े-खड़े वह लोगों को अंदर जाते हुए निहार रहा है। इनमें उसकी उम्र का कोई नहीं दिखाई दे रहा। वह असमंजस में पड़ गया, पता नहीं मुकादम सेठ उसे काम देंगे या नहीं..वह अंदर जाए या न जाए! इसी ऊहापोह में कुछ देर तक फैक्ट्री के अंदर आते-जाते मजदूरों को वहीं से देखता रहा। अचानक वह भी अंदर जाते मजदूरों के साथ हो लिया। अंदर कुछ दूर जाने के बाद मजदूरों के रास्ते अलग-अलग हो रहे थे। किस रास्ते से जाए उसे समझ में नहीं आया, तो वहीं रुक गया और इधर-उधर देखने लगा, कोई मजदूर बाएं मुड़ता, कोई दाएं वाले रास्ते पर चल देता, तो कोई सीधे ही चला जा रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह किस ओर जाए, हाँ साइकिल से आने वाले मजदूर वहीं बगल में साइकिल खड़ी कर अपने-रास्तों की ओर मुड़ जाते। अचानक उसे भी अपनी साइकिल का ध्यान हो आया! दौड़कर गेट के बाहर आया। देखा, दूर बरगद के चबूतरे के पास उसकी साइकिल खड़ी है, उसकी जान में जान आई। वहाँ से साइकिल लेकर और अंदर मजदूरों की साइकिलों के साथ खड़ी कर दिया ।
अब वह किधर जाएं? तभी एक अट्ठारह-उन्नीस वर्ष का लड़का उसे दिखाई पड़ा। उसका चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा! उसनेे अपने दिमाग पर जोर डाला। उसे याद आ गया "अरे यह तो वही है..इसी ने तो कहा था इसे मुकादम सेठ से मिलवा दो..इसे दूध और काम दोनों मिल जाएगा.." वह उस लड़के के पास पहुँच गया और लगभग उसका रास्ता छेंकते हुए उससे पूँछा, "भैया..भैया, वो..वो..मुकादम सेठ कहाँ मिलेंगे?" पहले तो उस लड़के ने उसे बहुत ध्यान से देखा, फिर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ बोल उठा, "अच्छा तो तू है! तुझे दूध पीना है न, उस ओर जाओ, वहाँ से मुड़कर उस तरफ चले जाना वहीं मुकादम सेठ मिलेंगे तुझे!" हाथ के इशारे से उस रास्ते को दिखाते हुए अपने रास्ते पर चल दिया। इधर वह भी मुकादम सेठ से मिलने उस लड़के के बताए रास्ते पर हो लिया।
***
तो यहीं पर मिलेंगे मुकादम सेठ ! जहाँ वह खड़ा है ठीक उसके सामने कुछ दूर एक छपरा (शेडनुमा हाल) है, जिसके पीछे एवं अगल-बगल एक-एक कमरे बने हैं, और कमरों के दरवाजे इसी हाल में खुल रहे हैं, यह छपरा अगल-बगल के कमरों से थोड़ा और आगे तक बढ़ा है। पीछे वाले कमरे के दरवाजे के ठीक सामने छपरे में तखत पड़ा है, जिस पर मोटा गद्दा पड़ा है। इस पर दो लोग बैठे हैं, एक के बगल में कोई संदूकची जैसी चीज रखी है, दूसरा हाथ में कोई रजिस्टर लिए है। तखत के सामने छह-सात लोग लाईन में खड़े हैं तथा बाहर दस-बारह लोग इधर-उधर बैठकर 'घाम' ले रहे हैं। उसके ठीक दाहिने ओर एक पक्की टंकी भी है, जिसमें चार नल लगे हैं, एक मजदूर हाथ धो रहा है दूसरा पानी पी रहा है।
'शाइत' तखत पर ही मुकादम सेठ 'बइठे' हैं। सोचते हुए उसके कदम शेड की ओर बढ़ चले। वह 'छपरे' में चला आया और लाईन में खड़ा हो गया। उसके आगे अभी पाँच लोग और खड़े थे।
तख्त पर बैठे इन दो में कौन मुकादम सेठ है, सोच ही रहा था कि अचानक उसे एक गरजती सी आवाज सुनाई दी। लाईन में सबसे आगे खड़े एक मजदूर को पिछली बार बिना बताए काम से गायब हो जाने और कामचोर जैसे शब्दों से नवाजते हुए शब्द उसके कानों में गूंज उठे और जो उस मजदूर को भागने के लिए है। वह मजदूर 'मुकादम सेठ...मुकादम सेठ' गिड़गिड़ाते हुए वहाँ से चला गया।
"बाप रे! तो यही मुकादम सेठ हैं।" मुकादम सेठ तखत पर अलथी-पलथी मारे बैठे हैं। शरीर पर शिल्क जैसा हलके पीले रंग का कुर्ता और सफेद पायजामा पहने हैं। उनका पेट बहुत भारी है, कुर्ता पेट पर जैसे तना हुआ है...कंधे पर शाल हैं..। चेहरा! गोल..मोटी गरदन..बाल छोटे..गाढ़े सांवले रंग पर सफेदी की ओर बढ़ रही नुकीली मूँछें...रौबदार चेहरा! ..आँखें छोटी हैं, मगर हैं लाल, जैसे रात में कोई सोया न हो..कुल मिलाकर मुकादम सेठ के चेहरे पर पर एक अजीब सी रौबदार भयानकता पसरी हुई है, जो उस जैसे बच्चे को डराने के लिए काफी है।
वह डर गया..उसकी हिम्मत जवाब दे रही है, क्या कहेगा वह मुकादम सेठ से! मुकादम सेठ उसे भगाएं, इससे पहले ही यहाँ से उसे खिसक लेना चाहिए। उसके आगे अब केवल एक ही मजदूर है, वह उस मजदूर के पीछे छिपते हुए डर वश आंखें बंदकर धीरे-धीरे मुड़ने लगा।
***
एँ ! छोरे..
इस आवाज के साथ वह चौंक पड़ा। उसके आगे खड़ा मजदूर जा चुका है और मुकादम सेठ उसे घूर रहे हैं।
' बोल..बोलता क्यूँ नऐं.." मुकादम सेठ ने पूँछा है।
"कक्..काम...काम चाहिए.." हकलाहट भरी आवाज़ में वह बोला।
"काम चैयै..! तौ, खिसक क्यों रए।" मुकाम सेठ जैसे उसके प्रति जिज्ञासु हो उठा।
".........." वह चुप रहा।
"तुम्हारो मुँअ ते बोल काए कूँ नहीं फूट रए बे.." मुकादम सेठ के बगल में बैठा व्यक्ति बोला।
"........." वह डरा हुआ मुकादम सेठ को निहार रहा है।
"(गाली)..के बोलेगा भी कि नएँ ? साला पता नऐं किया सोच रौ औ..अच्छा चल बता, तेरो उमर कितनौ ऐ?" मुकाम सेठ का उसे घूरना जारी था।
"पंद्रह साल…" धीमी आवाज में वह बोला।
"अबे साले..(गाली) झूठ क्यों बोलता ऐ..तू अभी चौदा से कम का ऐ..क्यों सुलखे?" सुलखे वही है, जो मुकादम सेठ के बगल में बैठा है।
"सइ मुकादम सेठ!" सुलखे कह रहा है।
"अबे..(गाली)..तू जेल करैगो हमन कों! अभी ससुरा लेबर इंस्पेक्टर आएगो औरू बच्चा लेबरू में जुर्माना ठोंकि कइ चल्यो जाएगो, तौ तेरो बापु जुर्मानो भरैगो? बएतू साले! ना जाने ठौरि तै ससुरे चले औति ऐं।" मुकादम सेठ अपनी लाल आँखों से उसे घूरते हुए कह रहा है।
बात-बात पर गाली बकते हुए मुकादम सेठ का चेहरा उसे और भयानक लगने लगा है। 'कहाँ फंस गया वह' सोचते हुए जैसे अभी रो पड़ेगा और पनीली आँखों से उन्हें निहारने लगा।
"अच्छा बता घर ते भाग करि आयो ऐ...या तेरो बापु औरू म्हेंतारी ने भेजो ऐ।" सुलखे ने पूँछा।
वह कुछ नहीं बोला।
"तू साला कुछ बोलैगो भी या केवल टुकुर-टुकुर लखिबै ही.." फिर सुलखे की ओर देखकर मुकादम सेठ ने आगे कहा, "ये साला भागि कै ही आयो ऐ, देख्यौ, इसकौ पेटु लप्च्यौ ऐ..! कै दिन ते खायो नऐं...क्यों बे सइ ऐ न?"
उसने केवल सिर हिलाया, बोला कुछ नहीं।
"ये साले आजकल के लौंडे..ऐसैई होतु ऐं, सुलखे..यह ससुरा भी न उसइ गड्ढे में झोंकने लायकु ऐ..देखि ल्यौ इसै भी।"
सुलखे रजिस्टर में उसकी उम्र के साथ नाम, गांव और पिता का नाम नोट करता है। और एक मजदूरनुमा व्यक्ति को बुलाकर गड्ढे तक उसे 'पौंचा' आने की हिदायत देता है। मुकादम सेठ ने जाते समय उससे यह भी कहा कि "सुन टेम का खियाल नएं किया तौ समझो उसइ टेम तिहारी छुट्टी..नऐं तौ छै मिहिंना बाद तेरो नोंकरी पक्की हैंगी।"
गड्ढे में झोंके जाने को लेकर बहुत डर गया है, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में इस डर से ज्यादा उसे अपने भविष्य से डर है, यह सोचते हुए उस मजदूर के साथ हो लिया कि पता नहीं कौन से गड्ढे में यह ढकेलने ले जा रहा है।
***
"तो उसे इस गड्ढे से कींचड़ निकालना है" 'गड्ढे' को, जिसमें तीन-चार लोग काम कर रहे हैं, देखते हुए उसने सोचा। वे उस कींचड़ में लथपथ हैं, कोई पहचान में नहीं आ रहा। असल में यह गड्ढा नहीं, एक बड़ा सा कुंड है, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी है। इन सीढ़ियों पर भी मजदूर खड़े हैं, जिन्हें तसले में कींचड़ भरकर दिया जा रहा है। बाहर एक डाला खड़ा है यह कींचड़ उसी में भरा जा रहा है।
इस शहर में पढ़ने के लिए उसे कुछ करना होगा, इसके अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं, या फिर पढ़ाई छोड़कर गाँव लौट जाएं ! उसने अपने कपड़े उतार दिए, फटे बनियान और जांघिए में वह सीढ़ियों से गड्ढे में उतरने लगा। सीढ़ियों से उतरते हुए उसे लगा, जैसे पहले वह रस्सियों में बँधा था, जिसकी गाँठें अब ढीली हो रही है, इन रस्सियों को खोल कर फेंक देगा वह। अपने इस छुटपन में ही उसे यह एहसास हो चुका है कि मेहनत व्यक्ति को स्वतंन्त्र बनाती है, जबकि गरीबी निश्चेष्ट बनाकर परतंन्त्रता की ओर ढकेलती है। इसीलिए उसने हर-हाल में परिश्रम करना तय कर लिया है।
जैसे ही गड्ढे में उतरा, उसे हँसी के साथ एक चिरपरिचित आवाज सुनाई पड़ी। "आ, गये दूध पीने.." आवाज की ओर मुड़ा तो कींचड़ में लिपटा एक शख़्स दिखाई दिया। अच्छा ! तो यह वही लड़का है, जिसने उसे मुकादम सेठ तक पहुँचने का रास्ता बताया था। उसे देखकर वह भी मुस्कुरा उठा। थोड़ी ही देर में वह कींचड़ से लथपथ हो चुका था।
दरअसल यह गड्ढा एक बहुत बड़ा पक्का टैंक है, जिसमें राख इकट्ठी होती रहती है, भूंसी की यह राख पानी मिल जाने से कींचड़ में बदल जाती है। आज उसे बस इतना पता चला कि भूंसी को जलाकर किसी बड़े 'बोलर' के पानी को गरम किया जाता है, और इसकी राख इसी गड्ढे में आती है, जिसे मजदूर हटाते हैं। यहाँ दस-बारह मजदूर 'शिफटवार' काम करते रहते हैं। उसका पहला 'शिफट' दो घंटे का है, इसके बाद फिर दूसरा शिफ्ट दोपहर चार बजे से दो घंटे का होगा। कुल जमा चार घंटे "घणों काम" करना होगा, तब एक दिन का दस रूपया मिलेगा उसे।
राख में गर्म पानी मिल रहा था, इसलिए 'कीचड़' भी गर्म है, इस काम में उसे ठंड नहीं लग रहा। उत्साह के साथ काम में जुट गया है वह।
उस दिन शाम को चाचा-चाची नाराज़ मिले थे। पूँछने पर अपने दिन भर 'गायब' रहने का कारण बताया और यह भी कहा कि कल से वह 'हाकरई' नहीं करेगा। फिर खान-खर्च और रहने के सवाल पर उसने कहा कि वह फैक्ट्री में रह लेगा। चाचा थोड़ा गुस्से में थे। लेकिन वह भी अपने इस 'निर्दय' निर्णय पर अडिग रहा, तो चाचा ने झल्लाकर उससे अपना 'उब्बक-तुब्बक' भी यहाँ से उठा ले जाने के लिए कहा था। 'उब्बक-तुब्बक' के नाम पर उसके पास कुछ भी तो नहीं था! सिवा एक झोले के, जिसमें एक हाफ पैंट और एक शर्ट या फिर उसकी कुछ किताबें और कापियां थीं। अगले दिन इन्हें समेटकर वह फैक्ट्री पहुँच गया था।
कभी-कभी जीवन में कुछ "निर्दय" निर्णय जीवन की दिशा और दशा बदलने में सहायक हो जाते हैं। यदि उसका निर्णय 'निर्दय' था तो भी, उसे इसका पता नहीं, और अनजाने में ही था। उसके मन में लेशमात्र भी किसी के प्रति कोई नाराज़गी नहीं थी।
***
फैक्ट्री में काम करते हुए तीन महीने हो गए हैं उसे। वहां मजदूरों के रहने के लिए कुछ कमरे भी बने हैं, ऐसे ही किसी मजदूर ने अपने कमरे के सामने वाले बरामदे में सोने के लिए उसे जगह भी दे दिया है। वह अपनी एक छोटी सी संदूकची को, जिसे उसने इन तीन महीनों के बीच मजदूरी के पैसों से ख़रीदा है, उसी मजदूर के कमरे में रख देता है। इस बीच जब भैया ने सुना कि वह चाचा के घर से चला गया है, तो एक बार उससे मिलने फैक्ट्री में आए थे। जाते समय भैया को उसने पचास रूपए जबर्दस्ती पकड़ा दिए थे।
मार्च का महीना है, कक्षा नौ की सालाना परीक्षा उसके सिर पर है। वह अकसर रात में ही पढ़ पाता है। फैक्ट्री के एक आफिस के बरामदे को उसने अपने पढ़ने के स्थान के रूप में चुन रखा है, जहाँ रात भर बिजली का बल्व जलता रहता है। फर्श पर बैठकर उसी की रोशनी में पढ़ता है वह।
ऐसे ही एक दिन जब वह पढ़ने में तल्लीन था, तो उसके कानों को एक जानी-पहचानी कड़कदार स्वर बींध गई, "तो बरखुरदार तुमई औ..मैं कहूँ को ऐ साला..अबे (गाली)..के तू इआ का करि रए औ?"
किताबें समेटकर अब तक वह भी खड़ा हो चुका था। वह बोला, "मुकादम सेठ मैं पढ़ रहा हूँ, मेरा इम्तिहान आने वाला है।"
"एँ !! क्या..क्या बोला तू? कोंन सी कक्षा में पढ़ि रए औ?" मुकादम सेठ के स्वर में अब नरमी आई है।
"नौ में" उसने कहा।
मुकादम सेठ भौंचक उसे कुछ क्षण देखता रहा। फिर अचानक बोल पड़ा,
"वाह..वाह..साला तू इस टेम पढ़ता भी ऐ..ऐं! अच्छा सुनौ कल ते ऊपर सीढ़ी पर तू खड़ौग्गै। समझौ..औरु खूबै पढ़ौ।" और आगे बढ़ उसकी पीठ थपथपा कर वहाँ से चल दिए!
गाँव के स्कूल में 'पंडिज्जी' ने उसकी पीठ थपथपाई थी और आज यहाँ मुकादम सेठ ने! आश्चर्य से भरा मुकादम सेठ को जाते हुए वह देखता रहा। मुकादम सेठ ने तो छह महीना बाद नौकरी पक्की होने की बात कही थी, लेकिन यहाँ तो तीन महीने में उसका "परमोशन" कर दिया! जैसे उसे विश्वास ही नहीं हो रहा। उस "गड्ढे" की सीढ़ियों पर खड़े होकर काम करना उसके लिए गर्व का विषय है भी। अब उसे रोज राख के कींचड़ में लथपथ नहीं होना पड़ेगा और उसके कपड़े भी गंदे होने से बच जाएंगे! तथा पढ़ने के लिए समय भी मिलेगा। बहुत खुश है वह।
दूसरे दिन "गड्ढे" पर हाजिरी रजिस्टर में नाम लिखाते समय 'सुपरवाइजर' जी ने उससे कहा कि आज से उसे सीढ़ी पर खड़ा होना है। वह जाकर सीढ़ी पर खड़ा हो गया, आज पहली बार उसे अपने होने का एहसास हुआ, कि वह भी है! शायद अपने इसी होने के एहसास के लिए वह तड़फड़ाता आया है।
***
३
वह चाय सुड़कते हुए, अपनी यह कहानी सद्य पड़ोसी को सुना रहा है, पड़ोसी की चाय उसे बहुत पसंद आती है। रोज सुबह पड़ोसी की ही चाय पीता है। लेकिन आज न जाने उसके मन में क्या आया कि पड़ोसी को अपनी कहानी सुनाने बैठ गया। इधर पड़ोसी भी तल्लीन होकर उसकी कहानी सुन रहा था! अचानक कहानी पर विराम देते हुए उसने कहा, "भाई साहब आपकी चाय बहुत बढ़िया बनती है कि कुछ पूँछिए मत, पीकर मजा आ जाता है..आ..आह!" लेकिन पड़ोसी पर जैसे इस तारीफ का कोई असर ही नहीं हुआ, तारीफ को नजरंदाज करते हुए वे पूँछ बैठे,
"अच्छा ये बताइए! आप उस फैक्ट्री में कब तक काम किए..?"
"भाई साहब..! उस फैक्ट्री में रहते हुए मैंने अपनी लाॅ की पढ़ाई भी पूरी की। असल में, भले ही मुकादम सेठ गाली बहुत देता रहा हो, लेकिन वह मेरे काम से खुश रहता..मैं भी बहुत मेहनत से काम करता था..और भाई साहब, मुझे यह भी लगता है कि मेरी पढ़ाई से भी वह खुश था..! जब मैं बारहवीं में पहुँचा तो उसने मुझे मजदूरों की सुपरवाइजरी करने का काम दे दिया...इससे मुझे पढ़ने का मौका मिल जाता! और इस तरह वह मेरी पढ़ाई का ख्याल रखता..एक बार की बात बताएँ, तब मैं इण्टरमीडिएट पास कर चुका था..
मैं अपनी इस 'सुपरवाइजरी' के चक्कर में एक दिन फैक्ट्री में उसकी मशीनी युनिट्स की तरफ निकल गया था। वहां घूमते हुए अचानक मेरी निगाह ब्वाॅयलर पर चली गई..असल में अमूल की उस फैक्ट्री में तीन ब्वाॅयलर थे..इन ब्वायलरों में भाप बनाने की अलग-अलग क्षमता होती है, मैंने देखा कि बीच वाले ब्वायलर के ऊपर लाल हो गया है..! भाई साहब उसके लाल होने का मतलब बस यही था कि कुछ ही क्षणों में ब्वायलर धमाके के साथ फट जाएगा! मैं तो एकदम घबड़ा गया और फैक्ट्री के कर्मचारी सुखराज, जो ब्वायलर का 'वाचर' था, उसे पुकारने लगा..
... लेकिन मेरी पुकार का कोई प्रतिउत्तर मुझे नहीं मिल रहा था..घबड़ाहट में मेरी धड़कनें बढ़ती जा रही थी और इधर-उधर खोजने पर भी वह नहीं मिल रहा था। उसे खोजने के चक्कर में मैं पास के भूंसी के पहाड़ जैसे एक विशाल ढेर पर चढ़ गया..देखा ! तो वह वहीं ऊपर लंबी ताने सो रहा है..किसी तरह हाँफते हुए मैं उसके पास पहुँचा और उसे झकझोर कर जगाते हुए पूरी बात सुनाई...मारे डर के वह भी एकदम घबड़ा गया और फिर हम दोनों उस भूंसी के पहाड़ से लुढ़कते-उतरते भागते हुए ब्वायलर के पास पहुँचे...उसने ब्वायलर से भाप को रिलीज करना शुरू किया...कुछ ही देर में प्रेशर कम हो गया..! तब कहीं जाकर हम लोगों के जान में जान आई! खुदा-न-खाश्ता अगर वह ब्वायलर फट गया होता, तो फैक्ट्री में एक बड़ी जन-धन की हानि होती..!!
...हाँ तो..इसके बाद सुखराज ने मेरे पैर पकड़ लिए और मुझसे बोला कि मैं इस बात को किसी से भी न कहूँ, नहीं तो उसकी नौकरी चली जाएगी और मुझे मिल जाएगी! जबकि उसे अभी अपनी लड़कियों का विवाह भी करना बाकी है, नौकरी छूट जाने से वह लड़कियों का विवाह नहीं कर पाएगा..
…..फिर भाई साहब! मैंने भी किसी से नहीं कहा..अगर कह देता, तो वाकई वैसा ही होता जैसा वह कह रहा था..और...आज मैं उसी फैक्ट्री में नौकरी कर रहा होता.. यहाँ न होता..!
***
उसकी कहानी पूरी हो चुकी है। लेकिन उसका पड़ोसी अभी भी उसे गौर से देख रहा है। अचानक पड़ोसी ने बोलना शुरू कर दिया,
"भाई जी, आप अपनी सोच की सकारात्मकता के बल पर ही यहाँ तक पहुँचे हैं, परिस्थिति चाहे जैसी रही हो! सुखराज वाले मामले में तो बिना आगा-पीछा सोचे आप तटस्थ बने रहे, यह एक बड़ी बात थी! उँचा उद्देश्य उँची सोच से ही पूरा हो सकता है।"
पड़ोसी की बात को उसने गौर से सुना। उसकी बात को लक्षित करते हुए वह भी बोल उठा,
"सही कहा भाई साहब आपने..यदि मैंने थोड़ी चालाकी की होती तो सुखराज की जगह आज भी मैं उस फैक्ट्री में परमानेंट "वाचरी" की नौकरी कर रहा होता, यहाँ न होता! अरे भाई साहब! आपकी इस बात पर मुझे अपनी एक बात याद आती है..
...उन दिनों मैं ला सेकेंडियर में था.. मुझे थोड़ा-थोड़ा नेतागीरी का भी चस्का लग गया था..कालेज में दलितों के फोरम से अध्यक्षीय उम्मीदवार चुने जाने थे..मुझे उम्मीदवार बनाए जाने की बात लगभग तय हो चुकी थी...इसके लिए योग्यता-भाषण की एक छोटी सी औपचारिकता पूरी करनी थी…मैंने यह भाषण दिया,
"हमारे सामाजिक ताने-बाने बहुत विचित्र हैं। किसी एक बात के लिए किसी एक बात पर ही दोष नहीं मढ़ा जा सकता..हमें भी अपने अंदर झाँकने की जरूरत है..हो सकता है हमारे साथ अन्याय हुआ हो, लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि घृणा को घृणा से नहीं जीता जा सकता.. इससे घृणा की राजनीति शुरू होती है और फिर घृणा की ही फसल लहलहाएगी...अन्याय से मुक्ति के लिए राजनीति को हथियार तो बनाया जा सकता है, उद्देश्य नहीं..हमें कैसे सामाजिक सम्मान हांसिल हो, इस पर सोचना होगा.."
बस भाई साहब कुछ मत पूँछिए ! हाल में तो एकदम सन्नाटा छा गया था, लेकिन उस फोरम के सदस्यों के बीच खुसुर-फुसुर होने लगी..भाषण समाप्त कर जब मैं उनकेे पास आया तो मुझसे कहा गया, 'यही अध्यक्षीय भाषण देना था तो राजनीति छोड़ दो..अरे! कुछ फड़कता हुआ भाषण देते क्रांति जगाने वाला..! इस नपुंसकीय भाषण पर वोट मिलने से रहा..बन चुके अध्यक्ष !' और एक दूसरे फड़कते भाषणबाज को अध्यक्षीय पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया!'
...भाई साहब! यहीं पर मैंने राजनीति छोड़ दी।"
पड़ोसी, जो उसकी बात बहुत ध्यान से सुन रहा था, उसके चुप होते ही बोला,
"तो भाई जी, ऐसे ही होते हैं धरती के तारे!"
इसके साथ ही वे दोनों हँस पड़े, और हँसते हुए ही आवास से बाहर आ गए। उसने देखा, ड्राइवर और गनर उसका इंतजार कर रहे हैं, गनर ने आगे बढ़कर कार का दरवाजा खोल दिया, वह कार में बैठ गया। दरअसल आज वह प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट है।
***