उस दिन सुबह-सुबह दर्पण में चेहरा देखा तो सिर के
बाल कुछ बढ़े देख मन ने नाई के यहाँ जाने का निर्णय ले लिया| लेकिन आज उसके सैलून
पर भीड़ कुछ ज्यादा ही थी एक तो उसके सैलून की चारों कुर्सियां भरी थी दूसरे पाँच लोग
अपनी बारी की प्रतीक्षा करते लाइन लगाए बैठे थे, अपनी बारी आने में बिलम्ब का
अनुमान कर एक बार तो लौटने का मन किया..फिर आगे समय मिल पाए या न यह ध्यान आते ही
मैं भी छठे नम्बर पर अपनी बारी की प्रतीक्षा में वहाँ बैठ गया...दायें-बाएं देखा
तो सैलून का मालिक नहीं दिखा...कौन ग्राहक किस क्रम पर आया है इस बात का ध्यान वही
रखता है...
नज़रे घुमाई तो देखा एक
कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के बालों की कटिंग के साथ उसकी ढाढ़ी भी बन चुकी थी..लेकिन
वह चेहरे की फेसियल करा रहा था...मतलब...इस कुर्सीवाला व्यक्ति अभी पन्द्रह मिनट
खायेगा...! पता नहीं फेसियल की इसे कौन सी आवश्यकता आन पड़ी कि व्यर्थ का समय नष्ट
कर रहा है...यह सोचते हुए दूसरी कुर्सी पर निगाह पड़ी..इसकी तो अभी हेयर कटिंग चल
रही है...अरे..! इसकी दाढ़ी भी तो बढ़ी है...मतलब आधे घंटे के लिए यह कुर्सी भी
बुक..! तीसरी कुर्सीवाला मुँह टेढ़ा कर बार-बार शीशे की ओर निहार रहा था...सोचा
इसकी कटिंग वगैरह तो हो चुकी है तो फिर यह क्यों मुँह चियार रहा है ? लेकिन अगले
ही पल उसने नाई से कटिंग को ठीक करने के लिए कहा...यह कुर्सी मुश्किल से चार-पाँच
मिनट में खाली हो जायेगी...चौथी कुर्सी पर एक बच्चा बाल कटवा रहा था...मैंने सोचा
चलो इसके तो दाढ़ी है नहीं दस मिनट में यह कुर्सी खाली हो जायेगी...अभी यह सोच ही
रहा था कि तीसरी कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने सफ़ेद बालों पर हेयर-डाई लगवाना शुरू
कर दिया..मतलब इस काम में यह दस मिनट खाएगा...लेकिन इस उम्र में इस पर सफ़ेद बाल ही
अच्छे लगेंगे...खा-म-खा का बाल रंगने में समय बर्बाद किये दे रहा है...
अभी मैं अपने इसी
मुआयानें और विचारों में खोया ही था कि मेरा ध्यान अपनी बारी की प्रतीक्षा में
सामने बैठे मोबाइल पर किसी से बात करते व्यक्ति की ओर उसकी यह बात सुनकर गया कि वह
इस समय फला जगह पर है जबकि फला जगह यहाँ से तीन किमी की दूरी पर है...मुझे ध्यान
आया कई बार ऐसे ही बॉस ने भी मेरे होने के स्थान के बारे में पूँछा तो मैं भी गाड़ी
का इंजन बंद कर ऑफिस के रास्ते से ही उन्हें बताया कि कार्यालय में हूँ...यह ध्यान
आते ही मैं मुस्कुरा पड़ा...
‘हाँ..हाँ..आप चाहे जब
आ जाइए....अरे नहीं..हाँ लम्बाई कितनी है....नहीं...पहले लड़की की
एजुकेशन...हाँ...हाँ..बायोडाटा भेज दीजिए...मेरे ईमेल पर..नोट करिए..फिर बैठ कर
बाते होंगी....हाँ..हाँ..पूरा बायोडाटा...अरे बाकी बातें बाद में हो जायेंगी..’
शायद यह व्यक्ति लड़कावाला रहा होगा फोन पर ही वैवाहिक कार्यक्रम तय हो रहा
था...इनका तो बाल और दाढ़ी दोनों बनेगा यह आधे घंटे का समय खायेगा...इसी तरह मैं
वहाँ अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे व्यक्तियों को देख सैलून में अपनी
प्रतीक्षा-अवधि का मन ही मन आकलन करता रहा..अभी भी सामने बैठा व्यक्ति फोन पर
बातें किये जा रहा था..उसकी वार्ता अभी तक ‘बायोडाटा’ पर ही जारी थी...हाँ अब उसके
साथ ‘कुण्डली’ भी आकर जुड़ गई थी...
मैं सोच रहा था यह ‘बायोडाटा’
क्या होता है...अकसर मैंने नौकरी वाले विज्ञापन में पढ़ा है.. “अपना बायोडाटा इस
पते पर भेजें..” हो सकता हैं नौकरियों के लिए बायोडाटा अनिवार्य हो, परीक्षा
प्रणाली का अंग हो..लेकिन..नौकरियों जैसा ही विवाह के लिए भी उसी तरह से बायोडाटा
की माँग किया जाना मेरे समझ में नहीं आता...और वह भी बेचारी लड़कियों का विशेष रूप
से उनके नख-शिख वर्णन के साथ...!
अब-तक फेसियल वाले की
कुर्सी खाली हो चुकी थी...हम प्रतीक्षारत में से एक की बारी आ गयी थी, वह उस खाली
कुर्सी पर अपना आसन जमा चुका था...अब मेरा पाँचवा क्रम हो गया था...इधर मैं सोच
रहा था...यह बायोडाटा भी गजब का होता है...किसी न्यायालय के निर्णय जैसा अंधे-कानून
का सहारा लेते हुए सा...! बस साक्ष्य चाहिए और इन्हीं साक्ष्यों पर आधारित होता है
निर्णय...! वास्तविकता की आँखों में आँसू हो तो हो, हाँ...ऐसा ही होता है यह बायोडाटा,
जो किसी के अंतर्मन में नहीं झाँक पाता उस पर कोई निर्णय नहीं सुना पाता..!! केवल
इस बायोडाटा मात्र से किसी व्यक्ति का मूल्याँकन कैसे किया जा सकता है..?
लम्बाई..चौड़ाई..ऊँचाई..डिग्री और परिवार क्या केवल इतने भर से किसी व्यक्ति पर कोई
निर्णय सुनाया जा सकता है..? अगर ऐसा है तो यह व्यक्ति की उपेक्षा ही है जो उसके
अंतर्मन की गरिमा को उपेक्षित करता है...फिर तो बायोडाटा पर विश्वास करने वाले
क्रूर होने के साथ ही अज्ञानी भी होते होंगे...!
‘देखो न वह बायोडाटा
माँग रहा था बेचारी बच्ची का...! अरे तुम बच्ची को सामने देख ही रहे हो...उससे
बातें भी कर रहे हो...शिक्षा-दीक्षा का अंदाज तो हो ही जाना चाहिए..इसके बाद भी
कैसा बायोडाटा...? यहीं नहीं उसने बच्ची को खड़ा कर उसकी लम्बाई भी माप रहा था...भूल
गया कि उसकी भी बेटियाँ है...अपना नहीं देखता कि कोई उसका ऐसे ही बायोडाटा लेने
लगे वह कहाँ ठहरेगा...! अरे बच्चियों की भावनाओं-संस्कारों की पहचान और इनका कद्र
तो करना सीखो...क्या बच्चियाँ कोई सामान हैं कि...लड़के वाले हैं तो इतने अहंकारी
हो जाएँ..?’ हाँ इन बातों को बताते हुए श्रीमती जी उस दिन बहुत गुस्से में थी...
इन्हीं बातों में
खोया था..तीसरी कुर्सी खाली हो चुकी थी मैंने देखा उस पर बैठे महाशय तो अपने सिर
के बालों के साथ ही मूँछे भी रंगवा चुके थे...! उन्हें देख पता नहीं मैं क्यों मुस्कुरा
उठा..! वैसे आजकल मैं भी अपने सिर के बालों पर रंग चढ़ाने लगा हूँ...अब मेरा
क्रमांक चौथा हो चुका था...बायोडाटा वाले महाशय कोई नम्बर मिला रहे थे...हाँ ध्यान
आ गया...बायोडाटा...!!
उन दिनों सोलह-सत्रह
वर्ष की आयु रही होगी, मेरी शादी तय हो चुकी थी...मेरे दादा जी की विशेष इच्छा थी
इसके पीछे...! एक दिन उनके तकिये के नीचे मुझे एक अंतर्देशीय-पत्र मिला, उत्सुकता
वश उसे मैं पढ़ने लगा था...अरे यह क्या..! इस पत्र में उस लड़की के बारे में लिखा था
जिससे मेरा विवाह होने वाला था.. “हाँ माथे पर गड्ढे जैसा निशान है...” तथा पहनावे
आदि का वर्णन करते हुए अंत में लिखा था.. “शादी न हो तो अच्छा है...” उस पत्र को
पढ़ने के बाद उसे वैसे ही मोड़कर तकिए के नीचे रख दिया था...लेकिन दादा जी का निर्णय
अडिग रहा था...पत्र में वर्णित भावी पत्नी की छवि मन में लिए उन्हें देखने की
इच्छा अवश्य उठी लेकिन तब की पारिवारिक परम्पराओं के अनुसार मेरे लिए यह संभव नहीं
था...श्रीमती जी के ही शब्दों में ‘गुड्डे-गुड़ियों जैसा हमारा विवाह’ हो गया था...हाँ
वह भी कहती हैं कि मैं भी उस समय चौदह वर्ष की थी...! उन्हें देखने की इच्छा
मन में ही दबाये धीरे-धीरे पांच वर्ष व्यतीत हो गया..फिर हमारा गौना हुआ...उस पत्र में वर्णित
बायोडाटा से बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं उनकी कोई समानता स्थापित नहीं कर पाया
था...|
बहुत दिनों बाद...! एक दिन अपनी कोशिशों से थक-हार कर मैंने श्रीमती जी से पूँछा, “पहले तुम्हारे माथे पर कोई गड्ढा था क्या..?” उनका उत्तर था, “नहीं तो..मुझे याद नहीं...लेकिन हाँ...बचपन में...शायद तब मैं बहुत छोटी थी तो माथे पर चोट लगी थी..लेकिन ऐसे किसी निशान का मुझे पता नहीं” एक निर्दोष मासूम सा उत्तर मेरे सामने था...उस समय उस पत्र की बात मैंने श्रीमती जी से छिपा लिया था..
बहुत दिनों बाद...! एक दिन अपनी कोशिशों से थक-हार कर मैंने श्रीमती जी से पूँछा, “पहले तुम्हारे माथे पर कोई गड्ढा था क्या..?” उनका उत्तर था, “नहीं तो..मुझे याद नहीं...लेकिन हाँ...बचपन में...शायद तब मैं बहुत छोटी थी तो माथे पर चोट लगी थी..लेकिन ऐसे किसी निशान का मुझे पता नहीं” एक निर्दोष मासूम सा उत्तर मेरे सामने था...उस समय उस पत्र की बात मैंने श्रीमती जी से छिपा लिया था..
‘बायोडाटा’ शब्द के
कारण ही इन स्मृतियों में मैं खो गया था...क्योंकि किसी ‘बायोडाटा’ में आत्मा, मन
और शरीर नहीं होता...तो फिर इस ‘बायोडाटा’ पर इतना महत्त्व क्यों..? यह निर्जीव सा
बायोडाटा किसी के मन और आत्मा का दर्पण नहीं बन सकता...और शरीर भी तो कोई बस्तु
नहीं है...एक निर्दोष मासूम सी भावनाओं को बायोडाटा तले नहीं रौंदा जाना चाहिए...
मैंने देखा वो ‘बायोडाटा
वाले महाशय’ सैलून वाली कुर्सी पर विराज चुके थे...नाई उनका हजामत बना रहा
था..यकायक वो पुनः अपने मोबाइल पर बातें करने लगे थे...नाई हजामत बनाना छोड़ दूर
खड़ा हो उनकी फोन पर चल रही वार्ता के समाप्त होने का इंतजार करने लगा...लेकिन
मोबाइल पर चल रही उनकी यह वार्ता समाप्त ही नहीं हो रही थी..! मुझे लगा जैसे वो
बायोडाटा के एक-एक बिंदु पर चर्चा कर रहे हों...इस तरह कई मिनट बीत गया...नाई समेत
प्रतीक्षारत लोगों को अब यह नागवार लगने लगा था...अंत में मुझसे नहीं रहा
गया...मैं उस नाई से बोल उठा, “इन्हें तो जैसे किसी अन्य व्यक्ति की परवाह ही
नहीं...इन्हें इसका एहसास कराओ..” शायद यह कहते हुए उनने मुझे सुन लिया..फिर अपनी खींसे
निपोरते हुए मोबाइल पर बात करना बंद कर दिए..
अंत में मेरी भी बारी आ गयी..मैं कुर्सी पर बैठ चुका था...मेरा वाला नाई कटिंग के लिए तैयार हो रहा था...इसी बीच मेरे बगल की कुर्सी पर हेयर-कटिंग करा रहा व्यक्ति अपने नाई से पूँछा, “क्यों तुम्हारा मालिक कहाँ गया..?” “अरे..वह तो जेल में हैं...” मैं भी सोच रहा था कि आज इस सैलून का मालिक नहीं दिखा..! अब-तक बायोडाटा वाले महोदय भी जा चुके थे...
हाँ...वास्तव में सैलून
वाली बात मैं भूल सा गया था...लेकिन उस दिन श्रीमती जी ने फोन पर मुझसे पूँछा,
‘अरे आज आप को कुछ याद है कि कौन सी तारीख है..?” मैंने थोडा सा मस्तिष्क को टटोला
और झट से बोल उठा, ‘हाँ..हाँ..याद है...!” फिर उन्होंने बताया “हमारे विवाह को आज
इत्ते साल हो गए...लेकिन आप को तो जैसे कुछ याद ही नहीं रहता एक फोन तक नहीं
किया..?” मैं मारे डर के कोई सफाई नहीं दे पाया क्योंकि मेरे किसी उत्तर पर
‘नोक-झोंक’ तय था...हाँ..इस विवाह तिथि के याद आते ही हमें वह पत्र भी याद आ जाता
है...और श्रीमती जी के कथनानुसार अपना वह ‘गुड्डे-गुडियों जैसा विवाह’ भी...! आज
मैं सोचता हूँ..दादा जी के तकिए के नीचे का वह पत्र भी मेरे लिए किसी लड़की के
बायोडाटा जैसा ही था...लेकिन हम भी उस समय मासूम से ही थे...उस समय के हमारे
निर्दोष मासूमपने के सामने इस बायोडाटा रूपी पत्र की कोई अहमियत नहीं थी...
आज..हमारी उस विवाह-तिथि के बत्तीस वर्ष हो
चुके हैं और श्रीमती जी के साथ साढ़े सत्ताइस वर्ष का समय गुजर चुका है...! लेकिन
हमारे रिश्ते की सहजता ऐसी रही कि लगता है जैसे अभी कल की ही बातें हैं..! हाँ...हमें
कभी इसे जताना नहीं आया, बस हम इसे जीते चले जा रहे हैं क्योंकि जिंदगी को तो जिया
जाता है...इसीलिए फोन-फान, दिन, तिथि सब भूल जाते हैं...याद रहता है तो बस केवल
जीना...!
एक बात है ये ‘बायोडाटा’ होते हैं बड़े
झूठे...!! यदि इन पर आप विश्वास करते हो तो एक खूबसूरत जिंदगी से हाथ धोते हो...श्रीमती
जी द्वारा विवाह तिथि के याद दिलाने से उस झूठे बायोडाटा की याद आ गयी..और फिर
सैलून पर के वे ‘बायोडाटा वाले महोदय’ जैसे लोग याद आए, जो दूसरों की परवाह करना
जानते ही नहीं...!
अंत में मैंने एक गलती
कर ही दिया हमारे बीच ‘नोक-झोंक’ होना तय..! क्योंकि विवाह तिथि जो मुझे याद नहीं
रहती..!!
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