धीरे-धीरे मैं प्लेटफार्म पर चढ़ आया..ट्रेन के आने में थोड़ा समय शेष
था..| काफी मात्रा में यात्री ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे...कुछ यात्री यात्री-शेड
के नीचे की तीन-चार बेंचों पर बैठे हुए थे तो कुछ प्लेटफार्म पर खड़े थे..एक बेंच
पर थोड़ी सी जगह देख मैं वहाँ जाकर बैठ गया..| पास में ही चार-पाँच युवा, जो लगभग
चौबीस-पच्चीस वर्ष के रहे होंगे, शायद वे भी ट्रेन की ही प्रतीक्षा कर रहे होंगे,
उनमें आपस में हो रही बातों को मैं सुनने का प्रयास करने लगा था..|
उनमें से कोई एक
कह रहा था.. ‘मेरे तो फेसबुक पर पचास से ज्यादा मित्र नहीं है...’
दूसरा बोला..
‘जिसको जानते हों उन्हीं को दोस्त बनाना चाहिए..’
पहला फिर बोल उठा,
‘ऐसा है यार..बहुत ज्यादा फेसबुक मित्र हो जाने पर पता नहीं कैसे-कैसे लोग जुड़
जाते है...’
दूसरे ने फिर कहा,
‘हाँ कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो उल्टी-सीधी चीजें पोस्ट कर देते हैं..’
पहले युवक ने फिर
कहा, ‘हाँ..बात यह है हमारे फेसबुक-वाल पर परिवार के सदस्य भी जुड़े होते हैं
जिनमें परिवार की लड़कियाँ, रिश्तेदार या बड़े लोग भी सम्मिलित होते हैं, लेकिन कुछ लड़कों
के फेसबुक फ्रेंड-लिस्ट में उनके परिवार के लोग या लड़कियाँ नहीं जुडी होती, केवल
लड़के ही उनकी लिस्ट में शामिल होते हैं और यदि हम किसी परिचित लड़की की पोस्ट पर ‘लाइक
या कमेन्ट’ करते हैं तो इसका डर बना रहता है कि ऐसे फेसबुक-मित्र जो अपने परिवार
के सदस्यों से नहीं जुड़े होते वे बड़ी उल्टी-सीधी टिप्पड़ियां कर बैठते है...तब हमें
बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है...इसीलिए..जो अपने परिवार से जुड़े हों और जिम्मेदारी
का परिचय दे रहे होते है, उन्ही की फ्रेंड-रिक्वेस्ट स्वीकार करते है...’
अब तीसरा युवक बोल
उठा.. ‘हाँ यार..! सही कहा..ऐसे लोग ही गैर जिम्मेदार होते है..फेसबुक पर अपने
परिवार से भी जुड़ा होना चाहिए...’
“इनकी बातें तो तथ्यपूर्ण हैं..सच में सोशल
मीडिया ‘लाइक’ और ‘कमेन्ट’ तक ही सीमित नहीं है..” इन बातों को सुन मैं यही सोच ही
रहा था कि तभी ट्रेन के आने की घंटी बजी...मैंने देखा आपस में वार्तालाप कर रहे उन
युवकों में से दो जो अपने मित्र को स्टेशन पर छोड़ने आये रहे होंगे वापस जा रहे
थे...
मैंने सुनी वार्तालाप
के पहले युवक को उनसे कहते हुए सुना, ‘हाँ.. ठीक हैं पहुँचने पर फोन से बात
होगी...अरे वैसे तो हम सब फेसबुक पर तो हैं ही...’
ट्रेन आती हुई दिखाई
दी और मैं भी ट्रेन में चढ़ने की तैयारी करने लगा..
* *
ट्रेन प्लेटफार्म पर
आ चुकी थी...मैंने एक अन्य व्यक्ति के साथ एक डिब्बे चढ़ने का प्रयास किया...उसके
दरवाजे पर ही खड़े टी.टी. ने उस बोगी को रिजर्वेशन कोच कहते हुए उसमें चढ़ने से मना
कर दिया..| हालांकि, ऐसा नहीं था....वह कहीं से भी रिजर्व-कोच नहीं लगा..बल्कि
साधारण श्रेणी का ही डिब्बा वह भी था..| खैर, हम दोनों दूसरे डिब्बे में चढ़ गए...सीटें
खाली थी...मैंने वहाँ सफ़ेद लक-दक कुरता-पायजामा पहने एक नेता-टाइप व्यक्ति को एक
पुलिसवाले के साथ बैठे हुए देखा, ‘शायद यह पुलिस-वाला इनका सुरक्षा-गार्ड हो’ इस
विचार के साथ मैं भी वहीँ उन दोनों के सामने वाली सीट पर बैठ गया| हम आपस में एक
दूसरे को देखे जा रहे थे...नेता टाइप व्यक्ति हमसे हमारे गंतव्य स्थल के बारे में
पूँछ बैठे, हमारा गंतव्य स्थल एक ही शहर में होने के कारण बातचीत सम्बन्धी हममें प्रगाढ़ता
पनप गई| सफ़ेद लक-दक कुरता-पायजामा पहने व्यक्ति के लिए ‘नेता-टाइप’ शब्द का प्रयोग
उनके पहनावे के कारण किया है, क्योंकि प्रायः हमारे यहाँ के नेताओं ने भी अपने लिए
लगभग इसी तरह का ‘ड्रेस-कोड’ निर्धारित कर लिया है..और..इस ड्रेस में दिखाई देने
वाले को कोई भी आसानी से ‘नेता जी’ समझ सकता है|
ट्रेन अपनी गति के रौ
में थी...‘वैसे हम अकसर अपनी गाड़ी से ही राजधानी जाते हैं और ट्रेन की अपेक्षा कम
समय में पहुँच जाते हैं...यह सब सड़कों में सुधार होने से हुआ’ नेता जी के इसी कथन
से आपस में हमारी बात-चीत आरम्भ हुई| ‘देखिए दो मजबूत राजनैतिक दलों की सत्ता की दावेदारी
में प्रतिस्पर्धात्मक विकास तो होता ही है’ नेता जी की इस बात को सुन मैंने यह
कहते हुए स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया कि वास्तव में इधर विकास तो हुआ ही है|
‘लेकिन भाई साहब... इस
विकास से बहुत से लोग बेरोजगार भी हो रहे हैं’ लक-दक कुरता-पायजामा पहने नेता जी के
इस वाक्य को सुन मेरे चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न उभर आया..! इस चिह्न को भाँप नेता
जी ने इस विकास से बढ़ती बेरोजगारी की अपने तरीके से व्याख्या की..!
उनका कहना, ‘सड़कों के
इस तरह के विकास से तमाम फ़्लाइओवर बन रहे हैं यहाँ तक कि बाजारों में भी जहाँ से
ये सड़कें गुजरती हैं लोगों के घरों और दुकानों को तोड़कर फ़्लाइओवर बना दिए जा रहे
हैं..बेचारे दुकानदार बेरोजगार होते जा रहे हैं..और तो और इन सड़कों से लोग ऊपर-ऊपर
ही गुजर जाते हैं, दुकानदारों की दुकानदारी भी नहीं चल पाती’ फिर आगे उन्होंने
इसमें और जोड़ा, ‘बेरोजगारी बढ़ी की नहीं..?’
मुझे लगा जैसे नेताजी कोई चुनावी भाषण देने लगे
हों...हालाँकि मैंने अपने कुछ तर्कों के साथ उनके इस कथन के प्रतिवाद की कोशिश की,
लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी..मुझे लगा यह महाशय मेरे इस यात्रा के साथी हैं अतः
मैंने भी उनके इस कथन की सहमति में फिर दो बार सिर हिलाया..| यहाँ एक बात और
स्पष्ट करना होगा कि ट्रेन में मिले इस व्यक्ति के पहनावे के आधार पर ही मैंने मन
ही मन इन्हें ‘नेता-टाइप’ व्यक्ति का संबोधन दिया था, लेकिन बातों ही बातों में
इन्होंने स्वीकार भी कर लिया कि ये वास्तव में ‘नेतागीरी’ करते हैं, जैसे इनके ये कथन
‘यदि सब नियम से ही काम करने लगे तो फिर हम नेताओं का क्या काम..!’ और ‘वैसे मैं
किसी सरकारी आदमी को गलत काम करने के लिए नहीं कहता...’ उनकी नेतागीरी को प्रमाणित
करने के लिए पर्याप्त है|
ट्रेन किसी स्टेशन
पर रुकी हुई थी...बाहर घना अँधेरा था..हमारी बोगी इंजन के पास वाली ही थी इसलिए
प्लेटफार्म के ऐसे स्थान पर थी जहाँ प्रकाश व्यवस्था नहीं होगी...मेरा ध्यान
नेताजी के पास ही बैठे पुलिस-वाले पर चला गया जिसे मैं नेता जी का सुरक्षा-गार्ड
समझ रहा था..| मैंने ध्यान दिया वह पुलिस-वाला कोई हथियार जैसे स्टेनगन या राइफल
वगैरह नहीं लिए हुए था, मैंने यही सोचा ‘शायद यह नेता जी का बाडीगार्ड न हो..!’
ट्रेन में भीड़ कम थी नेता जी पैर फैला जैसे सोने का उपक्रम करने लगे और मैं भी थोड़े
आराम की मुद्रा में आ गया था| ट्रेन चल पड़ी, अचानक नेता जी उठ बैठे और मेरी ओर
देखते हुए बोले, ‘बहुत भ्रष्टाचार बढ़ गया है...अरे..! आदमी के लिए कितना चाहिए फिर
भी संतोष नहीं...इस चक्कर में तो लोग नैतिकता जैसे भूल ही गए हैं, सरकारी आदमी को
देखो, वेतन मिल रहा हैं लेकिन यदि काम भी कर रहा है तो बस जैसे पैसा ही खोज रहा
हो, उसके बगैर कोई काम करने का जैसे उसके लिए कोई मतलब ही नहीं..और इसके बगैर उसका
काम करने में मन भी नहीं लगता है..!’ मैंने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाया लेकिन बोला
कुछ नहीं, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ यह तो बहुत अच्छा नेता है बिलकुल आम आदमी जैसा..!
लेकिन प्रशंसा में मैं कुछ बोल नहीं पाया...| ट्रेन फिर कहीं रुकी हुई थी|
‘यहाँ कोई स्टापेज
नहीं..पता नहीं क्यों रोक दिए है..ये अब ऐसे ही करेगी’ नेता जी ने फिर कहा, ‘देखिए
पुलिस वाले बेचारे रात-दिन नौकरी करते हैं लेकिन जरा सी बात पर सस्पेंट हो जाते
हैं, कोई इनकी मजबूरियों को नहीं समझता’ मुझे ध्यान आया कि नेता जी के बगल में ही
पुलिसवाला बैठा है, ‘तो शायद यह नेता जी का बाडीगार्ड नहीं है...फिर ये महाशय भी
तो इतने बड़े नेता नहीं लगते कि इन्हें बाडीगार्ड की जरुरत पड़े..इसका मतलब
पुलिसवाले को देख ये मुंहसोहासी कह रहे हैं’ यही सब सोचते उस पुलिसवाले को देखते
हुए मैंने एक ऐसी पुलिस-व्यवस्था को अपनाने के लिए कहा जिसमें पुलिस डयूटी में
इन्हें कुछ आराम मिल सके| ‘नहीं सरकार ने पहले इस विषय पर सोचा था लेकिन इतनी
भर्तियाँ कौन करेगा..फिर यह सब ठंडे बस्ते में चला गया है..’ मेरी बात सुन पुलिस
वाले ने यही कहा|
अब-तक ट्रेन चल
चुकी थी... ‘वास्तव में पुलिस की दुर्दशा है, इतनी अधिक डयूटी करते है..वह भी लगभग
चौबीसों घंटे की, लेकिन वेतन कितना कम रहता है..? वहीँ आई.ए.एस-पी.सी.एस. बन लोग
मौज काटते हैं...हमारे यहाँ काम और वेतन में तो कोई तालमेल ही नहीं है..बहुत
असमानता है!’ यह कहते हुए नेताजी पुलिस वाले की ओर मुखातिब होते हुए फिर बोले, ‘आप
को तो इसका अच्छा अनुभव होगा..?’ मैं यह सुनते ही यह सोचते हुए ‘पक्का...यह
पुलिसवाला इन नेता जी का बाडीगार्ड नहीं है..मतलब ये वजनदार नेता नहीं हैं’ उस
पुलिस वाले की ओर देखने लगा| असल में ‘बाडीगार्ड’ से मैं मन ही मन नेता जी को तौल
रहा था|
“अरे भाई..! गांधी
जी ने एक बात कही थी कि फाल किसी एकाध मेढक को ही लगता है..|” पुलिसवाले ने यह बात
हमारी ओर देखते हुए कहा| मैंने इस कथन के अर्थ को समझने का प्रयास किया किन्तु
असफल रहा, ‘लेकिन गांधी जी ने कहाँ और कब इसे कहा है, किसी किताब में तो मैंने इसे
पढ़ा नहीं..और तो और..गांधी जी की किसी विचारधारा से भी यह कथन मेल नहीं खा रहा है’
यह सोचते हुए मैंने उस पुलिस वाले की ओर देखा, तभी उन महाशय की आवाज सुनाई दी, “आप
समझे नहीं...अरे मेढक जो हैं न..अपनी निष्क्रियता की अवस्था में जमीन में दबे-पड़े
रहते हैं, जब किसान खेत की जुताई करने लगता है तो कोई एकाध मेढक को ही उसके हल का
फाल लगता है जबकि जमीन में तो बहुत मेढक दबे रहते हैं, जिस मेढक को यह फाल लग गया
वही बेचारा दुर्भाग्यशाली होता है...!” साथ ही इसमें उन्होंने आगे जोड़ा, ‘बस इसी
तरह हम भी हैं हमको यही पुलिस की नौकरी बदा थी..क्या हमीं थे...लेकिन वही है कि
किसान का फाल हमें ही लग गया..और हमें यही
नौकरी मिली’ उधर उस बेचारे का यह वाक्य पूरा हुआ इधर मैं इस कथन के दूसरे ही
अर्थ में खो गया..
‘हम सभी
तो दबे-पड़े हैं, अपने ऊपर पता नहीं किस मिट्टी की मोटी परत दर परत चढ़कर...एकदम
मेढक की सी शीत निष्कृयता लेकर...! एक अजीब सी व्यवस्था के नीचे ‘हाइबरनेशन’ की
अवस्था है हमारी..!! हैं तो सभी इसमें, लेकिन जिसको फाल लग गया वही बेचारा...!’
अभी मैं इसी अर्थ
में खोया था कि नेता जी की आवाज सुनाई दी, ‘बात तो सही है आप पुलिस बन गए और यहाँ
मैं नेतागीरी करने लगा..अपना-अपना भाग्य..! लेकिन भाई सबको संतोष होना चाहिए...कोई
सिर पर थोड़े ही न ले जाना है...हमने तो आवश्यकता सीमित कर रखी है जिससे व्यर्थ की
मगज़मारी न करनी पड़े..’ अब नेता जी मेरी ओर मुखातिब हुए, ‘आप क्या करते हो..?’ मैं
बताना तो नहीं चाहता था लेकिन छिपाने का प्रयास करते हुए भी नहीं छिपा पाया और
नेता जी को पता चल गया कि मैं भी कुछ हूँ|
‘इतनी दूर पोस्टिंग
लिए हैं..’ नेता जी के इस बात पर मैंने कहा, ‘नौकरी करनी ही है, जहाँ भी तैनाती
मिलेगी जाना तो पड़ेगा ही..’ अब नेताजी लगभग बलपूर्वक बोले, ‘अरे आप नाहक परेशान
हैं...बताइए मैं बात चलाऊं...? मेरा फोन नम्बर ले लें और अपना भी दे दें..बात हो
जाएगी..’ मैं किसी तरह नम्बर के आदान-प्रदान को टालते हुए बोला, ‘नहीं कौन इस पचड़े
में पड़े और ज्यादा उलझन नहीं पालना चाहिए...|’ मेरी पचड़े वाली बात सुन नेता जी
बोले, ‘देखिए भाई साहब आदमी को भगवान् बन कर नहीं जीना चाहिए वह इंसान है इंसान बन
कर ही रहे...अरे थोडा-बहुत सब चलता है..नहीं तो जिंदगी भी नहीं चलेगी..’ यह कहते
हुए नेता जी मेरा फोन नम्बर लेना भूल चुके थे..
ट्रेन की गति धीमी
पड़ रही थी...शायद कोई बड़ा स्टेशन नजदीक ही था, धीरे-धीरे कर ट्रेन रुक गई, प्लेटफार्म
रोशनी में नहाया हुआ था..! तभी नेता जी ने अचानक प्लेटफार्म की ओर देखते हुए पता
नहीं क्या सोच कर मुझसे कहा, ‘ये औरते न होती हैं बड़ी रहस्यमयी’ इसे सुन मैं चौंक
पड़ा| मैं अभी उनके इस कथन के मर्म को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि आगे इसमें
उन्होंने और जोड़ा, ‘बात यह है भाई साहब कि इनका कोई भरोसा नहीं कि ये कब क्या कर
बैठें और आप इस बात का अनुमान नहीं लगा सकते” अब मुझसे नहीं रहा गया मैंने लगभग
नेता जी के कहे इन कथनों पर प्रतिवाद दर्ज कराने की नीयत से कहा, ‘अरे नहीं भाई, ऐसी
बात नहीं...इन्हें बहुत कुछ सहना और समझना पड़ता है...’ मेरे इस विचार को नेता जी
ने कोई तवज्जो नहीं दिया और गंभीरता लिए शब्दों में मुझसे कहना शुरू किए, “देखिए भाई
साहब आप ध्यान दीजिए...एक स्त्री के कितने रूप होते हैं..माँ..बहन..बुआ..भाभी...चाची..ताई...पत्नी...प्रेमिका...आदि,
और वह इन रिश्तों को सबसे अलग-अलग एक ही साथ कुशलता से निभाती है...अब आप ही
बताइए...! कोई एक साथ इतने रूप धारण कर सकता है...तो कैसे आप स्त्री के चरित्र का
भरोसा करेंगे?” नेता जी के स्त्री के प्रति इस विचार को सुन एक क्षण के लिए मैंने
अपना सिर पकड़ लिया..जो बात एक स्त्री को गौरवान्वित करता है उन्हीं बातों के आधार
पर नेता जी द्वारा निकाले गए निष्कर्ष को मैंने मन ही मन कोई महत्त्व नहीं दिया|
‘एक स्त्री की संवेदनशीलता को लोग समझ ही नहीं पाते...स्त्री
तो एक जलधारा के सदृश है, जो सागर..नदी...झील...बादल...सभी में मिल जाती है...!
उसकी तरलता, उसकी संवेदना को हम समझ नहीं पाते...!! शायद उसकी यही संवेदनशीलता एक
साथ इतने रिश्तों को निभाने की उसे शक्ति भी प्रदान करता है..और..उसकी भावनाएं भी
वही समझ सकता है जो उसी के जैसा संवेदनशील हो...नहीं तो लोग उसे चरित्रहीन का तमगा
दे देते हैं...! लेकिन, हम भूल जाते हैं कि जलधारा स्वयं में पवित्र होती है, क्योंकि
इसकी तरलता में प्रक्षालन की शक्ति होती है....!’ मन हुआ नेता जी को मन की ये सारी
बातें सुना दें...लेकिन ऐसा नहीं कर सका क्योंकि सबके अपने-अपने तर्क होते
हैं...और फिर कुतर्कों से जीतना मुश्किल है|
मैं मन की इन
भावनाओं में डूबा ही था कि नेता जी का स्वर सुनाई दिया.. ‘भाई साहब सो गए क्या...?
पता नहीं ट्रेन कब चलेगी..इतनी देर से खडी है...’ अपने इस स्वर के साथ वह
प्लेटफार्म का जैसे मुआयना करने लगे थे| एक मूंगफली वाले को बुलाकर मूँगफली खरीदा,
‘सफ़र में मैं और कुछ नहीं खाता..तला-भुना तो एकदम नहीं खाना चाहिए..’ शायद ऐसा
इसलिए कहा था कि मैं पकौड़े लेने के चक्कर में था लेकिन नहीं लिया...फिर, मैंने भी
उनकी इस बात का समर्थन किया| ‘अरे..आप भी लीजिए...’ कहते हुए मूँगफली के ठोंगे को
मेरे सामने कर दिया, लेकिन मेरे लिए इसके छिलकों को फेंकने की समस्या होती फिर भी
उनके आग्रह को टाल नहीं पाया और एक-दो फली उठाने लगा| उसी समय, एक साठ-पैंसठ
वर्षीय व्यक्ति ट्रेन की खिड़की से हम लोगों की ओर हाथ बढ़ा भींख माँगते दिखाई दिया,
नेता जी अपनी जेबों को टटोलते हुए कहा, ‘फुटकर नहीं है जाओ’ और इधर मैं भी
प्रतिक्रियाहीन मूंगफली फोड़े जा रहा था, लेकिन वह भिखमंगा जाने का नाम नहीं ले रहा
था.. ‘अरे भाई मैंने कहा न कि हम लोगों के पास फुटकर नहीं है...तुम जाते क्यों
नहीं...” लेकिन फिर भी वह नहीं गया और बोला, ‘अरे बाबूजी कुछ भी हो दे दो, चाहे
कुछ खाने का ही दे दो..’ यह कहते हुए वह जैसे कुछ न कुछ लेने के लिए अड़ सा गया,
इसे भाँप नेता जी ने दो मूंगफली के दाने उसकी ओर बढ़ा दिया, आश्चर्य..! दो मूंगफली
का दाना पाकर भी वह खुश था और चलता बना..!
यह देख मैं
मुस्कुरा दिया..नेता जी ने मुझे देखते हुए कहा, ‘देखा आपने भींख माँगने की भी एक
आदत होती है..लोगों को भींख पाए बिना भी चैन नहीं मिलता..!’ ‘अरे भाई साहब..आपको
पता है...! दिल्ली-विल्ली जैसे शहरों में तो भींख माँगने की थोड़ी खाट भर की जगह भी
ये भिखमंगे पचास-पचास लाख में खरीदते और बेंचते हैं...यह बात तो मेरे विधायक जी ने
बताई थी...!’ मैंने थोडा अचंम्भित हो नेता जी को सुना| वे फिर बोले, ‘आप को
विश्वास नहीं होगा...लेकिन एक बार मैं अपने विधायक जी के साथ दिल्ली गया था वहीँ
पर एक जगह जहाँ कोई भींख मांग रहा था..उसकी ओर इशारा करते हुए विधायक जी ने यही
बात उस जगह के बारे में बताया था..’ इस समय ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ने लगी..और इधर
मैं सोच रहा था हो सकता है नेता जी की इस बात में अतिशयोक्ति हो लेकिन इसमें कुछ न
कुछ सच्चाई भी होगी....ट्रेन सरपट भाग रही थी|
कुछ देर तक हमारे बीच
मौन छाया रहा लेकिन ट्रेन फिर रुकने लगी, नेता जी ने कहा, ‘देखा, अब ऐसे ही
होगा..अब इसे रोक-रोक कर अन्य गाड़ियों को आगे बढाते रहेंगे...इसका क्या..इसे तो
यहीं तक जाना है...दूर की ट्रेनों को निकालते रहेंगे...’ मन ही मन मैंने भी सोचा
‘ठीक है कि हमको बस अगले स्टेशन तक ही जाना है और ट्रेन को भी, लेकिन क्या रेलवे
वालों को हमारे लोगों के समय का ध्यान नहीं..?’
अब नेता जी से बात करने में मेरा मन नहीं लग
रहा था, जबकि उन्होंने कई बार मुझसे बात करने की कोशिश की...एक बार तो मैंने सोचा
‘नाहक ही इनसे इतनी बातें कर ली’ क्योंकि बातों से उनका मन अब भी भरा नहीं
था...इसीलिए बातों के लिए जैसे वे मुझे कुरेद रहे थे...उस रुकी ट्रेन से उतर बाहर
टहलने लगा था..और इया प्रतीक्षा में था कि ट्रेन कब चले....
मुख्य स्टेशन तक ट्रेन
दो घंटे बिलम्ब कर जैसे-तैसे पहुँची...प्लेटफार्म से बाहर आते ही नेता जी और मैं
विपरीत दिशाओं की ओर अपने गंतव्यों के लिए ऑटो तलाश रहे थे...इस समय रात के बारह
से अधिक हो रहा था...मुझे एक ऑटो मिला..उस ऑटो में पहले से ही एक व्यक्ति सवार
था...मैंने उसे रिजर्व कर लिया और घर के
लिए निकल पड़ा...ऑटोवाला ऑटो को तेज़ गति से भगाए जा रहा था...एक मोटरसाइकिल पर दो
पुलिसवाले मंथर गति से चले जा रहे थे...ऑटोवाला तेजी से उनसे आगे बढ़ गया...मैंने
देखा दोनों पुलिसवाले अपनी मोटरसाइकिल से ऑटो के आगे तेजी से आए और उसे रुकने का
इशारा किया...ऑटो रुक गयी..एक पुलिसवाले ने झट से ऑटोड्राइवर का गिरेबान पकड़ा और
भद्दी गालियाँ देते हुए कहा, ‘..सा...ले...ठीक से चलना नहीं आता...देखो न हमारे
ऊपर धूल उड़ी’ किसी तरह ऑटोवाले ने उन पुलिसवालों से हाथ-पैर जोड़ हम लोगों से यह
कहते हुए आगे बढ़ा, ‘बाबूजी देखा..इन पुलिसवालों को..! मेरी कौन सी गलती थी...?
लेकिन..इनके मुँह कौन लगे..’ मैं भी सोचने लगा, ‘इस बेचारे ऑटोड्राइवर की आखिर ऐसी
कौन सी गलती थी जिसके कारण नाहक ही पुलिसवालों से उसे अपमानित होना पड़ा..?’
खैर, थोड़ी देर बाद ऑटोवाला
ऑटो में बैठे मेरे साथ के यात्री को उतारते हुए मुख्य सड़क छोड़ हमारे ब्लाक की ओर
जानेवाली सड़क पर मुड़ गया..कुछ आगे जाने पर मुझे दो पुलिस वाले दिखाई पड़े, लेकिन ये
पहलेवाले नहीं थे, एक पुलिसवाला लघुशंका में तल्लीन था और उसके पास ही एक
मोटरसाइकिल खड़ी थी, तो दूसरा हमारे ऑटो की ओर देखते हुए सड़क पर लाठी पटकने लगा
था...पास पहुँचने पर ऑटो को रुकने का इशारा किया, सहमा-सहमा सा ड्राइवर ने ऑटो रोक
दिया.... ‘क्यों बे इतनी रात को ऑटो इधर क्यों लाया..’ पुलिस वाले ने ऑटो-ड्राइवर
को लगभग डाटते हुए कहा| ‘बोलता नहीं...क्यों बे तू...साले..अभी दो चार थप्पड़ रशीद
करेंगे तो होश ठिकाने आ जाएगा..’ पुलिसवाले ने फिर घुड़की थी| सहमें-सहमें
ऑटो-ड्राइवर ने कहा, ‘अरे साहब बाबूजी मिल गए इन्हें यहाँ तक आना था..इन्हें पहुँचाने
आए हैं...’ ऑटो वाले ने डर से ऐसे कहा जैसे मुफ्त मे मेरे ऊपर एहसान कर रहा हो..!
पुलिस वाले ने अब
मेरी ओर देखकर मुझ से पूँछा, ‘क्यों तुमको इतनी रात में ही आना था..’ अब मुझे उस
पुलिस वाले पर क्रोध सा आ गया, मैंने कहा, ‘पहले तो तमीज सीखो कि कैसे बात करनी
चाहिए..वर्दी पहन पुलिसिया अंदाज़ मुझे मत दिखाओ...तुम लोगों की यही सबसे बड़ी खराबी
है...अभी मैं तुम-तुम कह तुमसे बात करूँ तो कैसा लगेगा’ पुलिसवाला थोडा सकपकाया और
बोला, ‘नहीं मेरा मतलब इतनी रात को क्यों चल रहे हैं..’ मैंने कहा, ‘क्या रात में
चलना कोई गुनाह है...तुम्हारे किस कानून में लिखा है...कोई अपने घर रात में नहीं
जा सकता..? और सुनो अगर गुनाह भी है तो ट्रेन लेट हो गई...पहले रेलवे पर मुक़दमा दर्ज
करो जिसके कारण इतनी रात हुई?’ पुलिसवाले ने फिर कहा, ‘अरे आप बुरा मत मानिए हमारा
काम है..’ मैंने कहा, ‘काम है..करो..अच्छी बात है..लेकिन सभ्य तरीके से पेश आओ..हाँ
हमारी तलाशी भी ले सकते हो..’ फिर उसने ऑटो-ड्राइवर से कहा, ‘जाओ..’
मुझे अनुभव हुआ कि ‘हमारी
प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के जमाने की वह चिरंतन कमी अभी भी जारी है...जहाँ
प्रशासनिक व्यवस्थाएँ मात्र लोगों को डराने के लिए हुआ करती थी..और अंग्रेजों से मिले
हुए सामंती तत्व इसका बखूबी अपने हित में प्रयोग किया करते थे...इस प्रशासन का
प्रभाव उन सामंतों पर नहीं होता था बल्कि उन सामंतों का आम-सीधे जनों पर शोषणकारी
प्रभुत्व वैसे ही बरक़रार रहता था...आज उन सामंतों के स्थान पर दूसरे लोग उभर आए
हैं...हो सकता है चालाक या असली अपराधी इस व्यवस्था के हाथ न आएँ बल्कि नादान या
सीधे-साधे लोग इससे इसी तरह प्रताड़ित होते रहें...वास्तव में अभी भी प्रशिक्षण का तरीका
और इसका उद्देश्य जैसे कुछ भी नहीं बदला...! और व्यवस्था ही अपने नागरिकों से
गुंडई करती हुई हर जगह दिखाई दे जाती है..!’
हाँ, यही सब मैं सोच रहा था कि मेरा घर आ गया...मैंने
घर के पास ऑटो-ड्राइवर को रुकने का इशारा किया ऑटो से उतर मैंने ड्राइवर को किराया
दिया..| ‘बाबूजी वे पुलिसवाले लौटते समय मुझे परेशान कर सकते है...कोई दूसरा
रास्ता बताइए..’ ऑटो-ड्राइवर ने कहा| मैंने एक सड़क की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘जाओ
इसी रास्ते से चले जाओ आगे जाकर यह उसी रास्ते में मिल जाएगी..वे पुलिसवाले नहीं
मिलेंगे..|’ औटोवाला जा चुका था...पत्नी ने गेट खोला ये बाते उन्हें
बताई..उन्होंने कहा, ‘इधर चोरियाँ बढ़ गयी हैं..इसीलिए पुलिसवाले रात में गस्त कर
रहे है...हो सकता है ऑटोवाले के पास रात में यहाँ तक आने का परमिट न हो...’ लेकिन,
मैं यही सोच रहा था कि पुलिस का व्यवहार भी अपने में एक समस्या है..|
बेचारा
ऑटो-ड्राइवर..! दो बार तो किसी तरह उसे ‘फाल’ लगते-लगते बचा...फिर कहीं किसी ‘फाल’
का शिकार न हो जाए...
यह ‘फाल’ किसी को भी
लग सकता है, थके हुए से इन विचारों के साथ मुझे नींद आ गयी....
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