बात उन
दिनों की है..तब मैं इंटर का छात्र हुआ करता था..भविष्य की चिंता से मुक्त एक
प्रकार की निश्चिन्तता और मस्ती भरे दिन गुजर रहे थे..! मैं..कभी-कभी अपने विजय-सुपर
स्कूटर से विद्यालय चला जाया करता था...कालेज के मित्रों के बीच कभी मेरे स्कूटर
से कालेज आने की आलोचना होती..तो..कभी मेरी इस बात पर आलोचना होती कि...मैं अकसर
अपने स्कूटर पर पीछे उस छात्र को बैठाकर क्यों चलता था जो गरीब होने के साथ ही तथाकथित ऊँची जाति का नहीं था...लेकिन मैं..इन आलोचनाओं पर न तो ध्यान देता और न ही इन बातों
की परवाह करता...
मेरी ऐसी ही आलोचनाओं में अग्रणी भूमिका निभाने
वाले मेरे एक मित्र की शादी तय हो गयी...उस दिन उन्होंने बड़ी ही प्रसन्नता
से बताया था, “यार मेरी शादी तय हो गयी है..! मई में बारात चलना होगा..और हाँ अपने
स्कूटर से चलना..” उस समय मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे वे मुझे नहीं मेरे स्कूटर को
अपने बारात में चलने का निमंत्रण दे रहे हों...! खैर..जो भी रहा हो..मैंने उनकी
बारात में चलने के लिए हामी भर लिया था..., हाँ..उन्होंने हम दोनों के बीच के एक
कॉमन मित्र को भी उसी समय निमंत्रित किया और मुझे इस बात के लिए ताकीद किया कि
इन्हें भी अपने साथ लाना होगा..हम दोनों उनकी बारात में चलने के लिए उत्साहित भी
थे।
मित्र के विवाह का दिन आ गया...किसी तरह.…घर से अनुमति लेकर..हम दोनों बारात में शामिल होने के लिए स्कूटर से निकल पड़े। करीब
पचीस किलोमीटर की दूरी तय करते हुए हम उस स्थान पर पहुँचे जिसके आस-पास के ही किसी
गाँव में बारात को पहुँचना था। मैंने स्कूटर रोक दिया..और.…सिर घुमाते हुए कॉमन मित्र
से पूँछा, “यार किस गाँव में चलना है..?” उन्होंने जवाब दिया, “मुझे तो नहीं
मालुम..!” मैं भी अजीब बुद्धू निकला...मार्कंडेय को भी नहीं पता...! उस समय मैं कुछ-कुछ यही सोचने लगा था..। हाँ.. मेरे कॉमन मित्र का नाम मार्कंडेय ही था...!
घर से चलते समय मैंने बारात के गंतव्य स्थल के बारे में इसलिए विशेष जानने की
कोशिश नहीं की थी कि मार्कंडेय को पता मालुम होगा। खैर, अब हम दोनों थोड़ा सा
परेशान हो गए थे...। फिर हमने तय किया कि आगे इस रास्ते पर बढ़ते हुए यदि कहीं कोई बारात
आयी हो या आनेवाली हो तो पूँछ लिया जाये...।
हम थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि एक सजा-धजा घर
दिखाई दे गया.., पूँछने पर बताया गया कि यहाँ बारात तो आनेवाली है..! पर वह हम लोगों वाली
बारात नहीं थी..। फिर हम लोग लगभग एक किमी आगे बढ़ गये...यहाँ तो सड़क के किनारे कोई
बस्ती ही नहीं थी.…! जो बस्ती या गाँव दिखाई पड़ रहे थे वे उस सड़क के दोनों ओर आधा से
एक किलोमीटर की दूरी पर थे...हम वहाँ स्कूटर रोक कर खड़े हो गए थे और सड़क के दोनों
ओर दूर स्थित बस्तियों पर निगाहें दौड़ाने लगे..दूर..कई जगहों पर लाइटें टिमटिमा रही थी...! हम
दोनों सोचने लगे कि क्या किया जाए..फिर हमने तय किया कि उन प्रकाश-स्थलों पर चलकर
पता किया जाए शायद हमारी वाली बारात मिल जाए..क्योंकि..उस दिन की लगन बहुत तेज थी
कई स्थलों पर बारात आई हुई लग रही थी..। पुनः स्कूटर स्टार्ट कर हम एक निकट के स्थल
की ओर चल पड़े लेकिन वहाँ बताया गया कि यहाँ किसी और की बारात आने वाली थी...। अब शाम
का धुंधलका छाने लगा था...मायूस हो हम वहाँ से लौट पड़े..और दूर दिखाई पड़ रहे रोशनी
स्थल तक जाने का निर्णय लिया गया..। हालाकि वहाँ की दूरी लगभग एक से डेढ़ किमी की रही
होगी..किसी तरह वहाँ पहुँचे तो गाँव के बाहर ही बारात मिली और बाराती शायद द्वारचार
के लिए वहाँ तैयार हो रहे थे...लेकिन वहाँ भी वही..! वह बारात भी हमारी वाली नहीं
थी...! अब हम लोग पूरी तरह से निराश हो चुके थे। कारण...एक तो किसी नजदीक स्थल पर कोई
रोशनी नहीं दिखाई दे रहा था कि वहाँ चल कर पता किया जाता और दूसरा सबसे बड़ा डर
मुझे इस बात का सता रहा था कि मेरे स्कूटर में स्टेपनी भी नहीं थी..! यदि पहिया पंचर
हो गया तो मैं क्या करूँगा...! क्योंकि जिस स्थल पर हम लोग थे वह किसी छोटी-मोटी
नदी का क्षेत्र था जहाँ बबूल के पेड़ की बहुतायत थी और बने हुए खोरी में चलते हुए
उनके काँटों से स्कूटर पंचर हो जाने का डर इस अँधेरे में गहरा गया था..। मैंने मित्र
मार्कंडेय से सामने दिखाई दे रहे एक टीले पर चढ़ कर रोशनी तलाश करने के लिए
कहा...। इसी बीच एक बाराती गहराती रात का हवाला देते हुए हमारे पास इस अनुरोध के साथ
आया कि हम चाहें तो उसके बारात में शामिल हो सकते हैं..उसकी भी इज्जत थोड़ी बढ़
जाएगी...! हाँ उस दौर में दो-पहिया वाहन भी कम ही होते थे..किसी बारात में दो-चार
ऐसे वाहन होने पर शान की बात समझा जाता था।
एक बारगी तो मेरे मन में आया कि उस बारात
में शामिल होने के लिए हाँ कह दूँ..क्योंकि अगर बिना बारात किए ही घर लौटा तो घर
वालों को क्या उत्तर दूँगा कि क्यों लौट आया...और.…यदि यह कारण बताया तो अपनी
बेवकूफी सिद्ध कर दूँगा। इसी बीच मेरे मित्र टीले पर चढ़ कर लौट आये थे...आते ही
उन्होंने बताया कि काफी दूर उस ओर एक रोशनी दिखाई तो दे रही है..! लेकिन
तमाम आशंकाओं के बीच मैं थोड़ा परेशान सा हो गया था.…इसलिए मार्कंडेय भी वहाँ चलने
का जोर नहीं दे पा रहे थे। उसी समय साईकिल से एक राहगीर गुजरा..वह हम लोगों को
देखकर रुक गया..शायद वह निमंत्रण दे कर लौट रहा था और उसी इलाके का भी था। उसने
हम लोगों से मित्र द्वारा टीले पर चढ़ कर देखी गयी रोशनी की ओर इशारा करते हुए कहा
कि शायद वह बारात आप ही लोगों की तरफ से आई है..! एक बार आप लोग वहाँ जाकर पता कर
लीजिए...। अब हम लोगों के लिए उस राहगीर की बात में एक आशा की किरण झलकी...वहाँ तक
चलने का निश्चय किया गया।
हम वहाँ पहुचे ही थे की एक परिचित दिखाई
दे गए और वे हमे देखते ही पूँछ बैठे, “अरे भाई..आप लोग कहाँ रह गए थे...राकेश आप
लोगों का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं...” अब हमारे जान में जान आई और साथ में
ही बेवकूफियों पर पटाक्षेप भी हो गया। जनवासे में देखा...राकेश जी आराम से मसनद पर
पीठ टेके हुए दूल्हे की वेशभूषा में बैठे हुए थे...! हम लोगों को देखते ही वे जैसे उछल पड़े..कुछ देर उनके पास बैठा गया उनकी शिकायत आई कि द्वारचार के समय हम लोग
क्यों नहीं पहुँच पाए, बीच में मार्कंडेय ने सारी कहानी बताई..। थोड़ी हँसी हुई फिर हम
लोग सामान्य हो गए...इस समय बारात को खाना खिलाने की तैयारी हो रही थी..क्योंकि
अब तक रात के लगभग साढ़े दस बज चुके थे…! खाने की व्यवस्था लड़की
वालों के दरवाजे पर ही था...आजकल के बफर सिस्टम जैसा नहीं था। खाना खाने के बाद
मैं जनवासे में आ गया था और राकेश विवाह मंडप में चले गए थे...विवाह की रस्में पूरी होने के बाद ही उन्हें खाना था।
जनवासे में आते ही मुझे गहरी नींद आ गयी...आधी रात के बाद किसी ने
मुझे जगाया...जगाने वाले ने बताया कि कार का ड्राइवर कहीं चला गया है इसलिए मुझे
ही अपनी स्कूटर से दूल्हे को विवाह मंडप से ले आना है। मैं उनींदे ही स्कूटर लेकर
लड़की वालों के दरवाजे पर पहुँच गया...! गरमी के दिन थे ही उस समय आंधी आने की
सम्भावना बन रही थी...और हवाएँ तेज चल रही थी...! दूल्हे के लिबास (तब जोड़ा-जामा
प्रचालन में था) में राकेश मेरा इंतजार कर रहे थे...मैं वहाँ पहुँचा..मैं स्कूटर पर उन्हें बैठा कर गाँव के किनारे के रास्ते से निकलने लगा..उस
कच्चे रास्ते के एक ओर घर थे तो दूसरी ओर लोगों के खेत फैले हुए थे...और घरों से पानी
निकालने की नाली उस कच्चे रास्ते को जगह-जगह से काट रही थी। ऐसी ही एक-दो नालियों
को मैं क्रास किया..उस समय धूल भरी आँधी चलने लगा था..और.…तेज धूल भरी हवाओं से
बचने के प्रयास में मैं ऐसी ही एक नाली को नहीं देख पाया..! मेरा स्कूटर जोर से
उछल गया.…! किसी तरह मैं उसे संभालते हुए आगे बढ़ गया...
कुछ आगे मैं बढ़ा ही था कि मुझे आवाज सुनाई
दी, “अरे भाई...विनय..!” आवाज जानी-पहचानी थी..मैंने पीछे मुड़ कर देखा..मैं
हतप्रभ..! दूल्हे राजा मेरे स्कूटर पर नहीं थे...! हाँ..वह उसी नाली के पास स्कूटर
उछलने और स्टेपनी न होने के कारण गिर पड़े थे...! जैसे-तैसे मैंने स्कूटर रोकी मुझे
चिंता हुई कि दूल्हे बने राकेश को कहीं चोट तो नहीं आई...मैं उनकी ओर बढ़ा...! मेरे
उनके पास पहुंचते-पहुंचते वे पता नहीं क्यों...चकरोड के किनारे के खेतों की ओर दौड़
पड़े....मैं कुछ समझ पाता उसके पहले ही मैंने देखा कि वे हवा में उछल-उछल कर जैसे
कुछ पकड़ रहे थे...और बोलते जा रहे थे.. “विनय भाई ये उड़ा...देखिए...उधर गया...” तब
तक एक पचास रूपए का लहराता हुआ नोट हवा में मेरे आगे से गुजरा...मैं लपक कर उसे
पकड़ लिया...आँधी वाली हवा तेज थी...इसी बीच उन्होंने बताया कि गिरने से, उनके नोट
जो शगुन आदि में मिले थे, हाथ से छूट गए थे...! वही हवा में उड़ रहे थे...फिर मैंने कई
उड़ते नोटों को पकड़ा...! अब हम दोनों दूर-दूर तक खेतों में नोट ढूंढ रहे थे....मैंने
सोचा कि नोट खोजते और इस तरह उछल-कूद करते कोई घराती न देख ले...अँधेरा था...लेकिन
चन्द्रमा के प्रकाश की सहायता से लगभग सारे नोटों को हम लोग खोज लिए थे...! मैंने मित्र
दूल्हे से पूँछा, “देखो पूरे हुए कि नहीं..” उन्होंने हाथ में लिए नोटों को मुट्ठी
में मोड़ते हुए कहा. “हाँ इतना ही मोटा तो था...” मुझे थोड़ी हँसी आ गयी..और पूँछ
बैठा, “गिने थे कि नहीं...?” “अरे यार गिनने का मौका कहाँ था...” आगे उन्होंने फिर
कहा.. “तुम भी तो सो गए थे...!”
तभी एक टार्च की रोशनी हम लोगों पर पड़ी..! वे
हमारे पास आये बोले “क्या बात है..?” वह घराती थे..! तब-तक हम सामान्य हो चुके
थे...मैं लगभग इस अंदाज में यह सोचकर बोला कि हम लोगों के साथ क्या घटी है वह भांप
न पाए, “भई आपके यहाँ बारात आ रही है और आप लोगों में इतनी भी सभ्यता नहीं कि कम
से कम रास्ते की इन नालियों को आज के लिए ही समतल कर दें बच गए नहीं तो हम गिर
पड़ते...!” यह कह मैं दूल्हे का मुँह देखने लगा..तभी उन्होंने टार्च की रोशनी
नाली की ओर मारी..वहाँ उन्हें कुछ दिखा..पचास रुपये का एक नोट उन्हें वहाँ गिरा
पड़ा मिला..! इस पर मैंने उन्हें बताया कि स्कूटर उछलने से मेरा पर्स जेब से गिर गया
था..शायद यह नोट पर्स से गिर पड़ा था...मैं घराती महोदय को यह समझा ही रहा था कि
बीच में ही दुल्हे जी बोल उठे... “अरे टार्च है...! हो सकता है आपके पर्स के और नोट
खेतों की ओर न उड़ गए हों..” मित्र बने दूल्हे की ओर देख मैं हलके से मुस्कुरा दिया
और उन सज्जन से खेत की ओर इशारा करते हुए बोला, “हाँ..हाँ..जरा अपनी टार्च से थोड़ा
खेतों में भी देख लें कहीं कोई और नोट हवा में उड़ यहाँ तक तो नहीं आ गया है..?” फिर
हम तीनों टार्च की रोशनी में उड़े हुए नोट खोजने लगे...इस प्रयास में शायद एक-दो नोट और
मिले थे। फिर वापस आकर हम स्कूटर स्टार्ट कर जनवासे की ओर चल पड़े.. मेरे कान के
पास मुँह लाकर मित्र दूल्हे ने कहा, “चलो यार कम से कम सभी मिल गए..”
मुझे अब हँसी आने लगी थी..किसी तरह मैं अपनी
हँसी रोके हुए था.....
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