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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

विरहिन की गली मत जाना रे भौंरा....


           जाफरी साहब...! हाँ....जाफरी साहब...! यही नाम था उनका... बचपन की कुछ यादों के बीच जाफरी साहब भी स्मृतियों में अकसर आते रहते हैं... व्यक्तित्व आकर्षक..! गोरे-चिट्टे..! लम्बा कद लम्बी सफ़ेद दाढ़ी...याद है...कभी-कभी गोल सफ़ेद टोपी लगा कर आते तो कभी बिना टोपी के... हम बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय थे जाफरी साहब..! जब भी आते हम बच्चे उन्हें देखते ही..जाफरी साहब-जाफरी साहब... कहते उनके पास दौड़ पड़ते थे....और जाफरी साहब हम बच्चों के हाथों में पांच या दस पैसे का एक-एक सिक्का रखते चले जाते... फिर हम बच्चे ‘मलाई वाले’ को खोजते...मलाई-वाला और कोई नहीं बल्कि लकड़ी के डब्बे को साईकिल के कैरियर पर रख उसमें आइसक्रीम रख उसे बेचने वाले को कहते थे... जैसे ही वह ‘मलाई वाला’ दिखाई पड़ता हम सारे बच्चे उसे घेर कर खड़े हो जाते और जाफरी साहब के दिए उसी पैसे से मलाई खरीद उसका मजा लेते... कभी-कभी तो जाफरी साहब स्वयं ‘मलाई वाले’ को बुला लेते और मलाई खरीद कर दिला दिया करते... हमारे बीच उनका आगमन अकसर मार्च महीने से जुलाई माह तक नियमित अंतराल पर बना रहता था...और हम बच्चे उनके आने का बेसब्री से इंतजार किया करते थे...

           मुझे आज भी याद है..जब मैं भी अन्य बच्चों की तरह हुडदंग मचाते जाफरी साहब की ओर दौड़ता तो मेरे दादा जी अकसर मुझे घूरा करते थे... शायद जाफरी साहब से पैसे लेने के लिए अन्य बच्चों की तरह मेरा हाथ बढ़ाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था... खैर दादा जी की भावनाओं को धीरे-धीरे मैं समझ गया था... हाँ जाफरी साहब मेरे दादा जी के साथ बैठ घंटों बतियाते थे.... जाफरी साहब के हम बच्चों के बीच आने का सिलसिला कई वर्षों तक जारी रहा...

           शायद वह समय था जब हम किशोर-वय में प्रवेश करने वाले थे...यही कोई मार्च का महीना रहा होगा... गाँव के लोग हमारे घर जुटते और और रात-रात भर होली गीत ‘फगुआ’ होता रहता...हम बच्चे भी रात में जाग कर उन गीतों और ढोल की थापों का मजा लिया करते...फगुआ के कुछ गीत तो इतने लोकप्रिय होते कि हम बच्चे दिन में मंडली बना ढोल-झंझीरे के साथ रात का नकल किया करते...हम बच्चों की मंडली के बीच एक 'फगुआ' गीत बहुत लोकप्रिय था..."विरहिन की गली मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना...."

            स्मृतियों में थोड़ी धुंधली सी यादें शेष हैं... इसी होली के बाद का कोई महीना रहा होगा जब कोई बड़ा चुनाव होने वाला था... उसमें जाफरी साहब भी उम्मीदवार थे....! हाँ जाफरी साहब हम बच्चों में लोकप्रिय थे ही... हम लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता का फायदा उठाया गया...हम बच्चों को उनके चुनाव-प्रचार की ज़िम्मेदारी दी गयी... इस प्रचार के लिए लाउडस्पीकर लगे मिठाईलाल के रिक्शे का प्रबंध किया गया था...हाँ.. मिठाईलाल से भी हम बच्चों की विशेष दोस्ती थी...कारण.. जब कोई 'मलाई वाला' हमारी आवाजें नहीं सुनता था तो उसे बुलाने का प्रयोग वह अपने इसी रिक्शे से करते थे.... खैर...बारी-बारी से हम बच्चों के बीच से दो बच्चे चुन कर प्रचार के लिए आस-पास के गावों में उसी रिक्शे में भेजा जाता था....

            उस दिन जाफरी साहब के चुनाव प्रचार की हमारी बारी थी...इस प्रचार के लिए मैं और मेरे हम-उम्र परिवार के एक अन्य बच्चे जो रिश्ते में मेरे चाचा लगते थे...चुने गए, हम दोनों बच्चे जाफरी साहब के चुनाव प्रचार के लिए बहुत उत्साहित थे... हम दोनों को उसी प्रचार वाले रिक्शे पर कुछ हिदायतों के साथ बैठा दिया गया था... हमारा रिक्शा दूसरे गाँव की ओर बढ़ चला था... 'जाफरी साहब को वोट दें....' 'उनके चुनाव चिन्ह .....पर ठप्पा लगाएं...' फिर हम दोनों गाते... 'आवा सखी वोट दई आई मुहर ... पर लगाई...' इन्हीं जुमलों को दुहराते-दुहराते हम कई बस्तियों को पार कर गए थे... फिर हमारा रिक्शा मुड़ा.... अब हम प्रचार के लिए सिखाए गए जुमलों के अंत में अपना एक नया स्वर जोड़ रहे थे.... ‘’अपने जाफरी साहब के चुनाव निशान.....पर ठप्पा लगाएं...’’ ठीक इसके बाद हम अपने सुरीले अंदाज में गाते.... ‘’बिरहिन की गली में मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना..’’ जब हम अपने इस लोकप्रिय फगुआ गीत को गाते तो मिठाईलाल अपना सिर गोल-गोल घुमाते रिक्शा चलाते हमारा उत्साहवर्धन करते जाते... अब हम दोनों लाउडस्पीकर का मजा लेने लगे थे... और अपने इस गीत “ को सुरीले अंदाज में गाने का प्रयास करते इसकी आवृत्ति को बढ़ा रहे थे... ’बिरहिन की गली में मत जाना रे भौंरा और कहीं उड़ जाना..’’

          अब हम प्रचार का कार्य पूरा कर घर लौट आये थे....हम बड़े खुश थे कि हमने बहुत अच्छा प्रचार किया... रिक्शे से उतरते ही हम दोनों दौड़ कर दादा जी और घर के कुछ लोगों के साथ बैठे जाफरी साहब के पास पहुंचे... वे सब हमें बड़े ध्यान से देख रहे थे... तब-तक हम दोनों उनके पास दौड़ कर पहुँच चुके थे... वे सब धीर-गंभीर मुद्रा में अब भी हम दोनों को घूरे जा रहे थे... मुझे लगा शायद हमारे प्रचार की आवाज यहाँ तक नहीं पहुंची नहीं तो इतने बढियाँ प्रचार के लिए हमें शाबाशी अवश्य मिलती... कुछ यही सोचकर मैं उनसे पूंछ बैठा,

             “हमार दूनौ जने क अवाज सुनायी पड़त रहा कि नाहीं...”

             “अरे सरऊ हरे..! खूब सुनाई पडत रहा...जाफरी साहब बेचारे क वोट मिल चुका... “बिरहिन की गली में मत जाना रे भौंरा...!” दादा जी की यह डाट सुन हम सन्नाटे में आ गए थे...प्रचार की शाबाशी पाने का उत्साह काफूर हो चुका था...हम सिर झुकाए खड़े थे....

            जाफरी साहब किसी पार्टी से चुनाव लड़ रहे थे या निर्दलीय थे स्पष्टता के साथ यह तो याद नहीं है... हाँ उन्हें वोट देने उनकी गली कोई नहीं गया था.. पता नहीं यह हमारे प्रचार का असर था या कुछ और... उस चुनाव के बाद जाफरी साहब बेचारे फिर कभी नहीं दिखाई दिए...!

            आज सोचता हूँ... बचपन में प्रचार के समय गाया वह गीत झूठा नहीं था...! सत्ता के बिना राजनीतिक विरही ही होता है... और...विरही की गली जाना खतरे से खाली नहीं होता.....

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

मेरा चश्मा....


           न जाने किन विचारों की तंद्रा में मैं खोया हुआ था... उन्ही विचारों में खोये हुए से, मैं बगल में रखे गिलास की ओर हाथ बढ़ा रहा था...यह सोच कर कि एकाध गिलास पानी पी लूँ... लेकिन यह क्या...! यह गिलास मेरे हाथ में क्यों नहीं आ रही... हालाँकि गिलास को देखते हुए ही उसकी ओर मैं हाथ बढ़ा रहा था...एक बारगी तो मन में हलकी सी घबड़ाहट यह सोचकर आ गयी कि मेरी मानसिक स्थिति ठीक है या नहीं... फ़िलहाल संतोष की बात यह रही कि.... दो तीन प्रयासों के बाद गिलास हाथ में न आने का रहस्य समझ में आ गया... दरअसल दोष मेरे प्रयासों में नहीं था...हाँ मेरा चश्मा ही उस भ्रम का कारण था जो गिलास को पास दिखा रहा था...और मेरा हाथ गिलास तक पहुँच ही नहीं रहा था... मैंने जब आँख पर तिरछे हो गए चश्में को ठीक किया तो उसके लेंस ने गिलास की सही दूरी को लाकर मेरी आँख के सामने रख दिया और मुझसे दुबारा ऐसी गलती न हो मैंने झट से गिलास हाथ में ले पानी गटक गया...

          अभी मैंने पानी पीकर गिलास मेज पर रख बिस्तर पर पसरने का प्रयास कर ही रहा था कि महाशय जी आ धमके... हाँ वह महाशय और कोई नही मेरे एक पुराने मित्र हैं, और अकसर हम दोनों खुलकर अपने दुःख-दर्द आपस में बाट लिया करते हैं... उन्हीं की धमक मुझे सुनाई पड़ी...|

            ‘’क्या बात है भाई, सोने जा रहे हो...?’’

            ‘’नहीं, अभी सोने का समय कहाँ हुआ..’’ आलस्य भरे मन से मैंने उत्तर दिया| तब तक मेरे मित्र चालू हो चुके थे...

            “क्या बताएं यार... यह जंग नहीं जीती जा सकती..” उन्होंने कुछ क्षोभ भरे शब्दों में कहा|

           “कौन सी जंग जीती नहीं जा सकती.. कौन सा भारत-पाकिस्तान का युद्ध छिड़ा है...|” मैंने हलके मूड में कहा|

            “तुम्हें तो मेरी बात में हरदम मजाक ही सूझता है.. मेरी बात को कभी गंभीरता से लेते भी हो...?” मित्र महोदय थोड़ा रुष्ट होते हुए से बोले|

            “अरे भाई...अभी आप ने बात ही कहाँ शुरू की..कि मैं आप की बात मज़ाक में लूँगा..|” मैंने उन्हें मनाने के अंदाज में बोला|

           मित्र महोदय ने जैसे अपनी व्यथा-कथा शुरू की.. “यार क्या बताऊँ अभी मैं कल बस से जा रह था.. मुझे अपने गंतव्य पर पहुँचने की थोड़ी जल्दी थी...रास्ते में बीच-बीच में सवारियों को उतार और चढ़ा रहा था...”

          “कौन सवारियों को उतार और चढ़ा रहा था...तुम..” मैंने मित्र की बातों पर ध्यान देने के प्रयास में पूँछा|

          “अच्छा ये बताओ क्या मैं बस का कंडक्टर हूँ...?” झल्लाहट में वह मुझसे बोले.. जैसे कंडक्टर उनके लिए कोई तुच्छ जीव हो..!

          “ओह..यार सो सारी...!” मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ|

          “हाँ वही बस वाला...उसके कंडक्टर से मैंने कहा कि तुमने तो इसे पैसेंजर बना दिया है... और बस में लिखाये हो सुपर फ़ास्ट एक्सप्रेस..! तो यार... वह बोला बाबूजी हवा में नहीं चलते जमीन पर चलते हैं...हवाई-जहाज नहीं हैं... आखिर सवारी नहीं लेंगे तो सरकार के खाते में क्या जमा करेंगे... और जो बेचारा परेशान है क्या उसे छोड़ते चलें...अगर आप को इतनी ही जल्दी है तो अपनी सवारी से चला करें...|” एक साँस में मित्र महोदय बोल गए|

          “तुम भी तो किसी के फटे में अनावश्यक टांग अड़ाने लगते हो... उस बेचारे कंडक्टर ने क्या बुरा कहा...?” मैंने जैसे उन्हें समझाने के स्वर में बोला|

          “बात तो आप सही कह रहे हो..वह बेचारा ठीक आदमी था तभी तो सरकार के खाते की उसे चिंता थी.. मैंने उसकी बातों का बुरा नहीं माना|’’ जैसे वह स्वयं अपने को ढाढ़स दे रहे हों|

         मैंने पूँछा, ”फिर क्या हुआ आगे कुछ और घटित हुआ कि सीधे अपने गंतव्य पहुँच गए...|”

         “तुम मेरी बातों पर गंभीर नहीं हो...तुम्हें तो बस....|” महाशय थोड़ा नाराज होते हुए से बोले|

         “अरे भाई बुरा मत समझिये मैं तो आप को सुनना चाहता हूँ..तभी न पूँछ रहा हूँ...” मैंने उनकी बातों में रूचि दिखाते हुए बोला|

          अब उनमें मेरे एक अच्छे श्रोता होने का विश्वास जगा....उन्होंने कहना शुरू किया.. “बस कुछ देर तक चली ही थी कि ड्राइवर ने उसे फिर रोक दी...और मैं कुछ समझता तब तक मैंने उसे कंडक्टर से कहते हुए सुना कि टी. आई. साहब हैं..., मैं समझ गया था कि बस को चेकिंग के लिए रोका गया था... और यार मुझे चिंता हुई कि...मुझे अब थोड़ा देर और होगा...लेकिन..टी. आई साहब तो कंडक्टर साहब के परिचित निकले... उन्होंने तो कंडक्टर को देखते हुए ही कहा...अरे तुम हो..! जाओ-जाओ.. और कंडक्टर ने तुरंत ड्राइवर से चलने के लिए कहा और बस चल पड़ी...|” वह चुप हो गए|

         हम दोनों के बीच छाई चुप्पी को तोड़ने के अंदाज में मैंने कहा “चलिए आपका समय बच गया.. नहीं तो बस चेकिंग के चक्कर में और देर हो जाती..”

         “बात यह नहीं है..” मेरे मित्र थोड़ा उदास आवाज में बोले|

         “तो..अब कौन सी बात आ गयी...|” मैंने उन्हें कुरेदने के अंदाज में कहा|

         “बात तो अब कुछ नहीं आई थी... लेकिन यार मै सोचने लग गया था...कि..क्या टी. आई. ने बस की चेकिंग न कर अपनी डयूटी के साथ न्याय किया था...? या उसके संबंध उसकी डयूटी पर भारी थे...?” उन्होंने एक चिंता सी जाहिर की..|

         “यार तुम एक साधारण सी बात में इतना क्यों सोच रहे हो...इसमें बाल की खाल निकालने की आवश्यकता नही...” मैंने कहा|

         “नहीं इसमें बाल की खाल नहीं है...सोचो हमारे देश में ऐसे कितने लोग संबंधों के निर्वहन में अपनी डयूटी पूरी नहीं कर रहे हैं... और तो और... क्या हम अपने डयूटी के प्रति लापरवाह दिखाई नहीं देते...फिर हम व्यवस्था ठीक करने के लिए क्यों झगड़ रहे हैं...|” उनके स्वर में थोड़ी उत्तेजना आ गयी थी|

          “अरे भाई हम समाज में रहते हैं थोड़ा सामाजिक संबंध निभाना भी तो पड़ता है...इसमें कौन सी बुराई है...|” मैंने उनकी उत्तेजना को शांत करने का प्रयास किया...|

          “बात सामाजिक संबंधों की नहीं है...ऐसे संबंधों का क्या महत्त्व जो कर्तव्यपालन में बाधक हो... इससे अच्छा तो फिर असामाजिक होना ही है... फिर क्यों हम अन्ना या केजरीवाल को तलाशते हैं....जानते हो इसी सोच से तो हमारी गिरावट शुरू हो जाती है...और मैं यह भी कहता हूँ .. कर लो तमाम एजेंसियों का गठन... हमारे और आपके बीच में क्या है..कौन से संबंध हैं.. कौन सी एजेंसी इसकी जाँच कर लेगी...! अंत में क्लीन चिट ही हाथ आएगी...|” अब वह थोड़ा भर्राए स्वर में बोलना आरम्भ कर दिए थे..|

            हम दोनों के बीच चुप्पी छाई हुई थी..थोड़ी देर बाद मैंने करवट बदली तो पीठ में कुछ गड़ा....लगा जैसे मेरा चश्मा तो नहीं टूट गया..! सोचा कैसे देखूंगा... मेरे मित्र अब जा चुके थे....|