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सोमवार, 21 सितंबर 2015

राजनीति और कुछ नहीं केवल दूब रोपना है...

         
          बिना मन के भी...कुछ भी लिखने का मन कर रहा है...आज सबेरे से ही मैं दूब रोप रहा हूँ...एक बार सोचा इस पर कोई कविता लिख मारें...लेकिन आप जानते हैं...सायास कोई रचना नहीं बनती...वह तो खुद-ब-खुद बन जाती है....! लगे हाथ यह भी बताता चलूँ कि कविता में कोई न कोई बिम्ब तो होना ही चाहिए...लेकिन इतना सोचने के बाद भी कविता नहीं बन पाई...तुकबन्दी नहीं बनी तो नहीं बनी...! हाँ, इसमें एक बात यह भी है कि पेशेवर जो नहीं हूँ...यदि पेशेवर होता तो तुकबन्दी भी बैठा लेता....और...भला बिना तुकबन्दी के भी कोई कविता होगी...? फिर ध्यान आया राजनीति में भी कोई तुकबन्दी नहीं होती...तो चलिए राजनीति को अपने दूब रोपने से जोड़ देते हैं....

         अब इसी के साथ एक प्रश्न उठता है कि आखिर दूब रोपना है क्या..? तो भाई मेरे...पहले इस दूब को समझना होगा...यह बेचारा एक अदना सा नाचीज घास रूपी पौधा होता है....!! हाँ..जब बहुतायत में उगा हुआ दिखाई देता है तो बंजर जैसी जमीन में भी हरियाली सी छा जाती है...यहीं से इस नाचीज का काम शुरू हो जाता है... कहा जाता है कि नंगे पैरों से इसपर चलना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है...फलतः स्वास्थ्य के शुभेच्छुओं द्वारा इसकी पैरों से रौंदाई शुरू हो जाती है...एक बात और है..! इसपर नंगे पैरों से चलने के पहले यह ध्यान रखना होता है कि केवल दूब ही हो...इसके लिए दूब रोपने के साथ ही साथ अन्य घास नुमा पौधों को स्थान नहीं दिया जाता..ऐसे पौधों को चुन-चुन कर हटाना पड़ता है...ऐसे पौधे कटाई से भी नहीं मानते...इनके नुकीले बन जाने और फिर इनसे कोमल पैरों में धसने का भय बनता है...और..बेचारे ये कोमल पैर घायल हो सकते हैं...इसलिए दूब के पौधों के बीच से इन्हें जड़ से खतम किया जाता है..! लेकिन दूब बेचारे में यह गुण नहीं होता वह तो जमीन पकड़ कर ही चलता है...पैरों से रगड़ खा यह कोमलता का ही अहसास देता है....एक बात है कुछ लोगों का यह भी मानना है कि सुबह-सुबह इन कोमल दूबों पर चलने से ब्लड-प्रेशर भी कम हो जाता है...अब यह हो या न हो लेकिन यह तो तय है कि इसकी हरियाली देख मन प्रसन्न हो उठता है...और...सबेरे-सबेरे इसपर ओस की बिराजती बूँदे भी बहुत खूबसूरत लगती हैं...तो...ब्लड-प्रेशर कम होने की सम्भावना तो बनती ही है...!!

           हाँ एक बात और है...इस दूब को बड़ा नहीं होने देना चाहिए..इसकी कटिंग करते रहना चाहिए...अन्यथा जब दूब  बढ़ जाएगा तो पैरों को भी अपने में उलझा सकता है...बस इतना ही खतरा हो सकता है इससे...! बेचारा यह दूब यहाँ भय का कारक भी बन जाता है...!!

          यह जो हमारी राजनीति है न वह भी दूब रोपाई का ही खेल है...ऊँचे मंच से इन्हें सब दूब ही नजर आते हैं...बढ़ने नहीं देंगे...बस भाई दूब बने रहो..राजनीतिकों को आपकी यह दूब जैसी हरियाली बहुत भाती है...आपकी जद्दोजहद देखकर इन राजनीतिकों को मजा आता है...नंगे पैरों से आपको रौंदने या आपके ऊपर चलने में शासक होने का जो मजा है वह भला इन्हें और कहाँ मिलेगा..! हाँ ये इस बात का ध्यान रखते हैं कि आपके बीच कोई नुकीला घास-नुमा पौधा न आ जाए...ये लोग बड़ी चालाकी से ऐसे पौधों की सफाई कर देते हैं...!! इन्हें तो रिरियाने वाले लोग ही पसंद होते हैं...जो जमीन न छोड़े केवल इसपर घिसट-घिसट कर ही चलना जानता हो....और दूब भाई में ये सारे गुण होते हैं....इसलिए दूब जैसा आपका रिरियाना भी इनके लिए बहुत खूबसूरत होता है, आपकी आँखों के आँसू दूब पर पड़ी ओस की बूँदों जैसा ही इनके लिए मनोहारी होते है...! ये सब इसे बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि आँसू पोंछने का सुख भी इसी से मिलता है...और..वाहवाही अलग से...!! इनका ब्लड-प्रेशर इसीलिए हमेशा नार्मल बना रहता है क्योंकि आपकी दूब जैसी कोमलता इनके कोमल पैरों को बहुत मजे देती है..अब जिसको मजा आएगा उसके लिए हर प्रेशर नार्मल ही होगा...

        हाँ ये बेचारे तो दूब बनकर ही खुश हैं...राजनीतिकों का यश गाते हैं....इनका बटन दबाते हैं...और इनका काम है इस हरियाली को बनाए रखना...जमीन तैयार किये रहना...इन राजनीतिकों की तो यही खेती है..दूब रोपना...गरीबी का खेल खेलते रहना..! और आम आदमी को उसकी हद में रखना..!! इसके लिए दूब की कटिंग करते रहना...यही इनकी राजनीति है...गरीबी भी यहाँ खेती है राजनीतिक खेती...और यह खेती लहलहाती रहे....राजनीति के लिए यह दूब रोपते रहो...हरियाली बनी रहेगी...तो राजनीति भी चलती रहेगी...
         
         मेरे एक मित्र श्री राकेश मिश्र जी हैं उन्होंने मुझे फेसबुक पर याद दिलाया कि...
            
               “दधि दूर्वा लोचन फलफूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।“                         

        
         वाह भाई मिश्रा जी आपने भी क्या खूब याद दिलाया....अब तो स्पष्ट ही हो गया कि इन राजनीतिज्ञों के चुनावी-यज्ञ के लिए इस दूब..! नहीं..नहीं..दूब जैसे लोगों का..,कितना महत्त्व होता है....!!
                                                           
                                     -----विनयावनत

शनिवार, 19 सितंबर 2015

खूँटियों पर टंगते शब्द

         रंगीन रोशनियों से नहाया हुआ मंच बहुत सुन्दर ढंग से सजाया गया था..! इस मंच पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे...लेकिन...आज कवि-सम्मेलन की बारी थी...वैसे यह कथन कहावत के रूप में प्रचलित है..“संतन को कहा सीकरी सो काम” मतलव कवि होना भी एक प्रकार की संतई है...और...यह चमक-दमक भरा मंच उसके लिए बेमानी है...लेकिन...अब दुनियादारी का ज़माना है और इस जमाने में दुनियादार तो होना ही पड़ता है...तभी श्रोता होंगे, मंच होगा और कविता होगी...नहीं तो सब सूना...! फिर तो कविता भी नहीं उपजेगी...इसीलिए कवि को भी इस ‘सीकरी’ से काम है...

          हाँ तो मंच सजा हुआ था..बारी-बारी से कवि आते जा रहे थे और मंचासीन हो रहे थे...अब सभी कवि अपने-अपने आसन पर विराज चुके थे....परिचय के साथ उनके स्वागत की बारी थी...स्वागती महोदय मंच पर हो रही उद्घोषणा के साथ बारी-बारी से एक-एक कर कवियों का माल्यार्पण करना आरम्भ किया..स्वागती महोदय के हाथ में एक माला दिया जाता और वे इसे एक कवि के गले में डाल देते...ऐसा करते-करते चार कवियों को पार करते हुए वे पाँचवी कवयित्री महोदया के पास पहुँचे...दोनों हाथों से माला पकड़े वे अभ्यास-गत मूड में आ चुके थे और इस माला लिए हाथ को कवयित्री जी के गले की ओर इसे अर्पण करने हेतु आगे बढ़ा दिए...! लेकिन कवयित्री जी सकुचा गई उन्होंने अन्य कवियों की भाँति इसे गले में पहनने के लिए कोई उत्साह नहीं दिखाया....तब तक श्रोताओं की ओर से हँसी फूट पड़ी थी...स्वागती महोदय को अपनी गलती का अहसास हुआ और फिर उन्होंने इस माले को पुष्प-गुच्छ में परिणत कर कवयित्री महोदया के हाथों में अर्पण कर दिया...बस..!!
        
          यहाँ तीन बातें मुझे कचोट गई...पहला - कवयित्री महोदया का एक पुरुष(व्यक्ति नहीं) के हाथ से गले में माला पहनने से सकुचाना, दूसरा- श्रोताओं का हँसना और तीसरा- स्वागती महोदय का एक स्त्री(व्यक्ति नहीं) को माला पहनाने की भूल का अहसास करना...! अब मैं सोचने लगा इन कवियों में कविता कैसे उपजती होगी...? यह भेदग्रस्त मन कैसे कवितामय होता होगा...? लाइटें रंगीन होकर जल-बुझ रही थी...मंच पर जैसे दुनियादारी तारी थी....हाँ तो मंच की इस रंगीनियत में व्यक्ति ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के रूप में अलग-अलग दिखाई दे रहा था...और उन्हें देखने के पैमाने अपने तरीके से काम कर रहे थे...इस विभाजन को कवि-मन या कहें साहित्यिक-मन भी दूर नहीं कर पाया...श्रोता तो बेचारे थे...! वे तो हँसना ही चाहते थे...एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति के लिए स्वागत की माला ‘वरमाला’ भी बन जाती है; यह मजाक हमें हँसा देता है....मतलब इन कवियों ने भी अनजाने में ही बता दिया कि एक स्त्री व्यक्ति नहीं होती..वह होती है तो स्त्री ही..! फिर हम चाहें कितने बौद्धिक हों..साहित्यिक हों...हमारे लिए एक माला स्त्री के लिए सदैव ‘वरमाला’ ही होती है...!!
         
        क्या करें इनमें इन बेचारों की गलती नहीं है...दोष श्रोताओं का ही है वे हँस क्यों पड़े...? लेकिन हो सकता है यह ‘सकुचाना’ और ‘भूल का अहसास’ से उपजी हँसी हो....या फिर इस बौद्धिक या साहित्यिक दुनियाँ का ‘सकुचाना’ और ‘भूल का अहसास’ श्रोता-सापेक्ष हो...खैर...
          
         जो भी हो...लेकिन एक बात तय है अब जब हम बहुत बौद्धिक या भावुक होते हैं तो हमारे शब्द खूँटी पर टंगते चले जाते हैं...क्योंकि इसका हमें कीमत वसूलना होता है...या दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि हम अपने शब्दों को खूँटी पर टांग-टांग कर साहित्यिक सर्जक भी बन जाते हैं....और श्रोताओं की ताली हमें प्रभावित कर जाती है...इस व्यापर में तब उनकी हँसी उत्साहवर्धक होती है...फिर तो हम शब्दों को खूँटी पर टांगते साहित्य सृजन करते चले जाते हैं...मतलब शब्दों को हम ओढ़ते नहीं...अपने से चिपकाते नहीं...शायद यही एक साहित्यकार की विधा है...यह दुनियादारी का ही कमाल है...! यदि ये शब्द हमसे चिपके रह गए तो फिर हो चुकी दुनियादारी..! ये चमक-दमक भरी दुनियादारी ही इन शब्दों को मूल्य प्रदान करते हैं...इसके लिए इन शब्दों को खूँटी पर टाँगना पड़ता है...

         हाँ यहाँ एक बात है...शब्दों का खूँटी पर जो टांगना है न...! वह सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ से भिन्न है...यहाँ तो जब शब्द खूंटियों पर टंग जाते हैं तो साहित्य-सृजन हो उठता है...! और वहाँ खूँटियों पर टंगने की पीड़ा से साहित्य सृजन होता है....लेकिन शब्दों का खूंटियों पर टंगना विभाजनकारी होता है...नहीं तो व्यक्ति, व्यक्ति ही होता और वह स्त्री-पुरुष में विभाजित न होता...!! यह विभाजन बलात्कारी होता है...बाँट देता है...चीजों को अपने जबड़े में फंसाना चाहता है...केवल खेलना जानता है...वह भी खूँटी पर टांग कर...या फिर ताली की चाह लिए विनयावनत सा पैरों पर भी गिर पड़ता है...! शायद चमकीली सी इस दुनियादारी का यही विभाजनकारी खेल है जहाँ साहित्य अब खूंटियों पर टंगे शब्दों से उपजता है....!!

         अरे हाँ..! मैं भी तो ऐसा ही हूँ...आप के कान में धीरे से बताता हूँ...मैं भी तो हँस दिया था...! मैं भी...!! अपने लिखे इन शब्दों को फेसबुक की इस खूँटी पर टांग दे रहा हूँ...यदि ये शब्द मुझसे चिपके रहेंगे तो ये बेचारे ‘गरीब के जोरू’ बन जाएंगे...हाँ इन्हें साहित्यिक जामा जो पहनाना है..!!             

         

हरारत...

          पिछले दिनों शरीर में कुछ हरारत सी महसूस हुई थी...मैंने अपने से ही कुछ यूँ ही ‘वायरल फीवर’ के लिए सामान्यतः प्रचलित दवाएँ जैसे पैरासीटामाल, एंटीबायोटिक आदि ले लिया था...बुखार तो जैसे नियंत्रण में था...लेकिन कुछ शुभेच्छुओं की सलाह पर जिला-चिकित्सालय चला गया था...सी.एम.एस. महोदय ने देखते ही आसन ग्रहण कराया...आने का कारण पूँछने पर मैंने उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया...उन्होंने एक रुपये की पर्ची बनवाने के लिए मेरे अटेंडेंट को भेज दिया....इस बीच सी.एम्.एस. महोदय अपने काम में उलझे रहे...निश्चित रूप से वे भी एक डॉक्टर थे...लेकिन उन्हें कार्यालीय फाइलों और रिपोर्टों में ऐसे उलझे देख वे मुझे डॉक्टर कम किसी कार्यालय के बाबू अधिक लग रहे थे...यहाँ उन बेचारे में कमी नहीं थी...असल बात यह कि स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाएँ देने वाली सरकारी संस्थाओं को हम केवल एक कार्यालय बना कर छोड़ दिए हैं...डॉक्टर यदि जिले की स्वास्थ्य सम्बन्धी रिपोर्टों को बनाने एवं इसके प्रशासन में ही उलझा रहता है तो वहीँ शिक्षक भी पढ़ाई के कामों में कम बल्कि इतर कामों में अधिक उलझा रहता है....
         
         अचानक सी.एम.एस. महोदय मेरी ओर देखते हुए बोले... ‘इस समय डा. गुप्ता जी मरीजों को देख रहे होंगे आप उन्हीं को दिखा दें...’ इसी बीच पर्ची बनवाकर मेरा अटेंडेंट आ गया था... “हाँ...सर...गुप्ता जी बैठे हैं....वो मरीजों को बहुत अच्छे से देखते हैं..” मेरे बड़े बाबू ने भी उसी समय मुझसे यह कहा...फिर हम पर्ची लेकर डा. गुप्ता के कमरे की ओर बढ़े...एक गैलरी पार करते हुए मैंने वहाँ जबरदस्त भीड़ देखी... “देखिए सर..ये सारे लोग डा. गुप्ता को दिखाने के लिए आए हुए हैं..यही तो यहाँ के ऐसे डॉक्टर हैं जो पूरे मन और ध्यान से रोगियों को देखते हैं...इसीलिए इनको दिखाने के लिए रोगियों की भीड़ लगी रहती है...”
          
        किसी तरह भीड़ के बीच से निकलते हुए..अब हम डा. गुप्ता के कक्ष में थे...हमारा परिचय हुआ..डा. साहब ने वहीँ एक खाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया...मैं भी इत्मीनान से वहाँ बैठ गया...डा. गुप्ता बारी-बारी से मरीजों को देखते जा रहे थे...उन्हें देख मैं सोचने लगा यदि यह डा. अपना कोई नर्सिंग होम खोल ले या फिर प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू कर दे तो इनपर पैसों की बरसात होने लगे...लेकिन यहाँ वेतन के रूप में क्या पाते होंगे...? खैर...तभी मेरा ध्यान उनके चेहरे की ओर गया...हाँ रोगियों को देखते हुए डा. गुप्ता के चेहरे पर एक अद्भुत गरिमामय संतोष का भाव दिखाई पड़ा...
        
        इसी तरह कुछ रोगियों को देखने के बाद वे मेरी भी नब्ज टटोलने लगे...फिर मेरा बी.पी. लिए..८४-१३८...इसके बाद ब्लड टेस्ट लिखते हुए बोले “वैसे तो कोई ख़ास बात नहीं है..ये दवाएँ ले लीजिए...और यह टेस्ट करा लीजिए....”
        
        अब मैं इस जिला चिकित्सालय के पैथालोजी सेक्सन में आ गया था...यहाँ मैंने देखा रोगियों का नाम एक रजिस्टर पर लिखा जा रहा था और फिर उनका सेंम्पल लेते हुए जाँच की कार्यवाही चलती जा रही थी...मुझे यहाँ की पूरी प्रक्रिया व्यवस्थित लगी..स्वास्थ्यकर्मी बेचारे मुस्तैदी से अपना काम करते जा रहे थे...मेरे साथ भी प्रक्रिया का पालन किया गया...मुझे बताया गया कि हीमोग्लोबिन १३% है और मलेरिया की रिपोर्ट डेढ़ घंटे बाद प्राप्त होने की बात कही गयी...बाद में रिपोर्ट में मलेरिया की पुष्टि नहीं हुयी...
      
         इधर अस्पताल से आने के बाद मैं अपने कार्य निपटाता रहा...उसी दिन रात में मुझे जबदस्त उल्टी हुई लगा जैसे आंत बाहर आ जायेगी...रात में बहुत कमजोरी का अहसास हुआ...फिर मैंने काम से अवकाश ले लिया...घर आ गया था....
       
         एक बात है जब आप ऐसी स्थितियों से गुजरते हैं तो मनःस्थित जीवन के प्रति थोड़ी सी उदासीनता वाली हो जाती है...मैंने उस दिन श्रीमती जी से कुछ ऐसा ही भाव व्यक्त किया था.. “आखिर क्या मतलब है इस जीवन का..?”
         
         श्रीमती जी ने कहा था, “मतलब...? समझो तो सब कुछ मतलब ही है...! इस आकाश को देखो..कोई है धरती जैसा...? इस धरती के जीवों..पक्षियों..को देखो...यह सब देखने को कहाँ मिलेगा...सब-कुछ कितना अद्भुत है..!! यह सब देखते रहना भी जीवन का मतलब होता है...और यदि किसी में ज्यादा उत्साह हो तो ईश्वर की इस रचना में और चार-चाँद लगा दे...!! कोई यूँ ही किसी के काम आ जाए बिना अर्थ के तो यह भी जीवन का मतलब होता है...”
            
          श्रीमती जी ने जैसे ही अपनी बात पूरी की...मुझे रोगियों का इलाज करते हुए डा. गुप्ता के चेहरे पर का वह अद्भुत गरिमामय संतोष वाला भाव दिखाई दे गया...
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        इस जिला चिकित्सालय का चक्कर लगाने के बाद मैंने अनुभव किया कि हमारी सरकारी संस्थाए वास्तव में अपना काम करती हैं...अच्छे व्यक्तियों से इन संस्थाओं में और चार-चाँद लग जाता है...केवल आवश्यकता है तो इनकी क्षमताओं में वृद्धि करने तथा अच्छे लोगों की पहचान कर उन्हें उत्तरदायित्व सौंपने का...!

बुधवार, 2 सितंबर 2015

विचारों के बुलबुले मत उठाईए...बूँद बनिए सागर बन जाएगा..

            वैसे ‘हिन्दू’ शब्द मेरे लिए एक उदात्त विचारधारा है...एक दिन ऐसा ही कुछ मैंने फेसबुक पर अपने स्वयं के ‘रिलीजियस व्यू’ के सम्बन्ध में टिप्पणी की थी...मेरी इस टिप्पड़ी पर मेरे आदरणीय अग्रज शान्ति प्रकाश त्रिपाठी जी ने काँवरियों के बढ़ते हुजूम में ‘हिन्दू आतंकवाद’ का संदेह व्यक्त किया था..शायद उनके कहने का आशय यही रहा होगा कि यदि हिन्दू एक सर्वसमावेशी विचारधारा है तो इसमें यह दृश्य क्यों दिखाई दे रहा है...? उनकी इस टिप्पड़ी के विरोध में मेरे एक अन्य फेसबुक मित्र ने कई तल्ख़ टिप्पड़ियाँ की..
          
             मैं अपने उन फेसबुक मित्र को बताना चाहता हूँ कि काँवरियों के बढ़ते कारवाँ में हिन्दू आतंकवाद का रूप क्यों दिखाई देता है...? वास्तव में भैया जी (शान्ति प्रकाश त्रिपाठी) उम्र में मुझसे सात-आठ वर्ष बड़े हैं, उनकी तो छोड़िए मुझे काँवरियों के बारे में पहली जानकारी उस समय हुई जब मैं स्नातक प्रथम-वर्ष में था तब इनकी संख्या भी बहुत कम हुआ करती थी| बाद में धीरे-धीरे मैंने अखबारों के माध्यम से जाना कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ के आस-पास काँवरियों का हुज़ूम चलता है, और आजकल तो सप्ताह भर से अधिक दिन पूरा हाईवे इनकी पैदल यात्रा से बाधित रहता है यहाँ तक कि काँवरियों से भरे इन मार्गों पर वाहनों का संचालन भी बंद हो जाता है...यही प्रचलन अब पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई भागों में भी दिखाई देने लगा है|
        
           आखिर ‘हिन्दुओं’ में यह प्रचलन पहले क्यों नहीं था..? इसका कारण यही था कि हिन्दू सामूहिक उपासना पद्धति पर विश्वास नहीं करता और इसका मूल हिन्दुओं की मान्यताओं तथा इनके दर्शन में छिपा है| बचपन का मेरा अपना अनुभव है कि एक सामान्य कृषक जीवन जीता ‘हिन्दू’ कभी किसी मंदिर का मोहताज नहीं रहा है, उसके भगवान् को मैंने उसकी पोटली में ही ‘शालिग्राम’ के रूप में देखा है..! और उसे इस ‘शालिग्राम’ की पूजा भी दूसरों की निगाहों से बचकर करते हुए ही देखा है...मतलब हिन्दू ईश्वर की अराधना एकांत में ही करना चाहता है..इस हिन्दू के लिए उसका धर्म नितांत व्यक्तिगत ही रहा...मैंने इस ‘हिन्दू’ को सूर्य को अर्ध्य देता हुआ या नीम, पीपल जैसे वृक्षों पर जल चढ़ाता हुआ प्रकृति की उपासना में ही तल्लीन देखा है...यदि अधिक हुआ तो वह बिना किसी दिखावे के किसी पर्व पर नदी को पवित्र मान वहाँ स्नान करने चला गया या फिर अपने पुरखों के तर्पण हेतु गया हो आया| इस ‘हिन्दू’ को मैंने कर्म को ही पाप-पुण्य की मान्यताओं से जोड़ते हुए इसी में धर्म को खोजते देखा है...हाँ इस धर्म के लिए उसने किसी वाह्य आडम्बर को महत्त्व नहीं दिया और आम भारतीय कृषक तथा श्रमिक वर्ग धार्मिक मान्यताओं के रूप में ईश्वर उपासना हेतु स्थूल कर्मकांडों को अपने जीवन में विशेष प्रश्रय देता हुआ दिखाई नहीं पड़ता|    

            शायद यही कारण रहा है कि मेरे अपने गाँव में आज भी कोई मंदिर नहीं है...और न ही किसी मंदिर की आवश्यकता पड़ी| यही कहानी अधिसंख्य हिन्दू ग्रामीण भारत की रही है...जिसने ऐसा ‘हिन्दू जीवन’ देखा होगा उसे आज के ये काँवरिए ‘हिन्दू आतंकवादी’ ही नजर आएँगे...मेरे अपने इस अनुभव से आदरणीय अग्रज भाई जी का अनुभव तो और पुराना है; यदि उन्होंने भी ऐसा ही कहा है तो इसका कारण उनका अपना आडम्बरहीन सहज और सरल जीवन है...! ऐसे व्यक्ति के जीवन की पवित्रता और ऊँचाई किसी की नजरों की मोहताज नहीं होती तथा जब ऐसे लोग आज के इस ‘धार्मिक हुल्लड़बाजी’ को देखते हैं तो इसमें इन्हें आतंक का दिखाई देना स्वाभाविक ही है|
         
            एक बात और है मैंने स्वयं काँवरियों के रेले के बीच से गुजरते हुए अनुभव किया है कि उनकी भीड़ किसी अन्य को ‘हिन्दू’ नहीं मानती जो उनकी वेशभूषा में नहीं होता और उनके रास्ते नहीं चल रहा होता| रास्ते चलते यदि आपका वाहन उनसे थोड़ा भी छू जाए तो शायद आपकी जान पर बन आएगी...तब उन काँवरियों का ‘हिन्दूवाद’ नहीं दिखाई देगा..इसी तरह इन काँवरियों की भीड़ के आगे सड़क पर चलना अधिसंख्य ‘हिन्दुओं’ के लिए ही दुश्वार होता है, यहाँ तक कि अपने समूह में ये अराजक भी हो जाते है, समाचारों में इसे देखा जा सकता है| बात चन्द काँवरियों की उद्दंडता का भी नहीं...लेकिन बात यही है कि धीरे-धीरे ही सही आखिर हम किस मानसिकता का निर्माण करते जा रहे हैं..जो ‘कुछ’ से शुरू होकर न जाने कहाँ पहुँचेगा..? शायद इसी ‘एंगिल’ से देखने पर  इस नए-नए प्रचलन में ‘आतंक’ दिखाई देता है जो हमारी परम्पराओं में नहीं रहा है|
         
               काँवरियों के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य और है...जो उम्र पढ़ने-लिखने और जीवन में परिश्रम करने की होती है उसी उम्र में इस धार्मिक आडम्बर के दिखावेपन में वे न जाने क्या तलाशते हैं..! वास्तव में युवाओं का धार्मिक आडम्बरों के प्रति ऐसा बढ़ता रुझान देश के लिए एक योग्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोंण संपन्न नागरिक का टोंटा उत्पन्न करेगा| मुझे इस सम्बन्ध में एक घटना याद आती है उन दिनों मै अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर रहा था..एक दिन मुझसे मिलने मेरे दूर के एक रिश्तेदार का लड़का आया जो एम.बी.बी.यस. की पढ़ाई कर रहा था...उससे हुई बातचीत में मैंने पाया कि उसके अन्दर ‘धार्मिक प्रतिक्रियावाद’ की एक तीक्ष्ण भावना घर कर गयी थी और उसके विचार एक तरह से धार्मिक उन्माद में बदल चुके थे...उसके सम्बन्ध में और एक उल्लेखनीय बात यह थी कि वह एक ऐसे क्षेत्र और ऐसे लोगों के सानिध्य में रहकर अपनी एम्.बी.बी.यस. की पढ़ाई कर रहा था जहाँ से ही वह अपने ऐसे “धार्मिक विचार” ग्रहण कर रहा था| मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि एक एम्.बी.बी.यस. का छात्र धर्म के प्रति इतना दुराग्रही कैसे हो सकता है...! उस समय मुझे वह “साइको” प्रतीत हुआ था....! वास्तव में हम अपने परिवेश और जीवनशैली से ही अपनी सोच विकसित करते चले जाते हैं और इस तरह एक विशेष परिवेश में पला-बढ़ा व्यक्ति अपनी तमाम शैक्षिक योग्यताओं के बाद भी उन्मादी विचारों का हो सकता है| यहीं पर आकर आतंक धर्म-विशेष से जुड़ने लगता है जो उस ‘परिवेश’ का ‘आतंकवाद’ होता है|
          
              हाँ यह भी सच है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि धर्म के नाम पर आतंकवाद कैसे पनपता है..? गणेश पूजा...दुर्गा पूजा...भारत मिलाप..काँवरियों की बढ़ती भीड़...यह सब क्या है..? दुर्गा पूजा के दिनों में किसी बाजार या कस्बे से गुजरिए तो सड़क मार्ग पर बनाए गए पूजा पांडाल तमाम रास्तों को अवरुद्ध किये रहते हैं...यही नहीं इन दिनों जीवन भी जैसे अवरुद्ध सा रहता है..हम एक अजीब से धार्मिक-आडम्बर के नशे में डूबे रहते हैं...यह आडम्बर जो हमें पंगु बनाता है वह क्या है...? यह भी एक प्रकार का आतंक है..! इन दिनों धर्म के इस आडम्बर के लिए बीच सड़क पर अवरोध खड़ा कर चन्दा वसूलने का खेल भी शुरू हो जाता है...आखिर यह सब क्या है..धर्म का आतंक ही तो है..और धीरे-धीरे बदलते ‘परिवेश’ का आतंक है!!
         
               मेरे फेसबुक मित्र ने गोपीगंज और सैदाबाद में काँवरियों को रोक कर अलविदा की नमाज बीच सड़क पर पढने देने की बात का उल्लेख यह कहते हुए किया है कि इस पर हम कुछ नहीं बोलते...मेरे भाई...मैं गोपीगंज और सैदाबाद को अच्छी तरह जानता हूँ...बचपन में ताजिये से मेरा पहला परिचय तो सैदाबाद में ही हुआ था...भीड़ में घुस कर ताजिये के जुलुस को देखा करता था...’हाय हुसैन’ की आवाज पहली बार कानों में वहीँ पड़ी थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि यह बेगाने लोगों का धर्म है...क्योंकि वहाँ का सह-जीवन उन्हें आपस में बहुत गहरे तक जोड़ता था लगभग पूरे पूर्वांचल की यही स्थिति थी और यही कारण रहा है कि पूर्वांचल में साम्प्रदायिक संघर्ष सबसे कम हुए हैं|
         
               अब आते हैं बीच सड़क पर अलविदा की नमाज पढ़ने की बात पर...हाँ..तो..! अलविदा की नमाज़ साल भर में कितनी बार पढ़ी जाती है....? जहाँ तक मेरी जानकारी है साल में एक बार..! और वह भी ईद के पहले पड़ने वाले शुक्रवार पर ही..एक दिन..!! यह एक त्यौहार की तरह मनाया जाता है...शायद नमाज़ियों की अधिक भीड़ होने के कारण ही ऐसा होता होगा...और उतने ही सलीके से..! खैर ये तो सामूहिक धार्मिक उपासना में विश्वास करने वाले लोग हैं अतः इस पर टिप्पड़ी करने की आवश्यकता मैंने कभी नहीं समझा| लेकिन आप तो ऐसे न थे...! ये हमारे हिन्दू भाई तो धर्म के नाम पर अब सड़कों का ही बेजा इस्तेमाल करने लगे हैं..और हाँ विवाह जैसे अवसर भी सडकों पर ही संपन्न किये जाते हैं..इनका बैंड-बाजा तो सड़क पर ही चलता है...| आखिर यह क्या है..? क्या सड़कें केवल आपकी हैं उनकी नहीं..?
          
               मेरे भाई इस बात को आत्मसात करना होगा कि यह देश इसके सभी निवासियों का है..जितना आपका इस पर हक़ है उतना ही इनका भी...कार्यस्थलों पर कंधे से कंधा मिलकर ये भी देश के लिए उतनी ही कुशलता से काम करते हैं जितना हम और आप करते हैं...बल्कि...मैंने तो इन्हें और ही अधिक जिम्मेदारी से काम करते हुए पाया है क्योंकि इनके ऊपर हमने एक ‘तमगा’ भी लगा रखा है...आपके अनुसार यदि काँवरियों के बीच में कुछ ‘चन्द’ सिरफिरे हो सकते हैं तो वैसे इनमें भी हो सकते हैं..लेकिन...इससे पूरी कौम बदनाम नहीं होनी चाहिए...
           
                यहाँ प्रसंगवश एक घटना का भी मैं उल्लेख करना चाहता हूँ...बात उन दिनों की है जब मैं जूनियर की कक्षा में पढ़ रहा था..एक दिन मैंने देखा एक ही ऊँची कक्षा में पढनेवाले दो छात्र आपस में झगड़ रहे थे...उनमें से एक छात्र दूसरे से लम्बाई में काफी छोटा और कमजोर था...और दूसरा उस छोटे लडके से काफी बलिष्ठ और लम्बा था...लेकिन वह छोटा लड़का बड़े पर जबदस्त ढंग से अपने मुक्कों का प्रहार किये जा रहा था...जबकि बलिष्ठ छात्र उसके वार से केवल बचने का ही प्रयास कर रहा था..हम भी रुक इस लड़ाई को देखने लगे थे..मैं आश्चर्य में था कि छोटे वाले लड़के से इतना बलिष्ठ होते हुए भी वह उस पर हाथ नहीं उठा रहा था...? हालाँकि मुझे आज भी उस बलिष्ठ लड़के की वह बात बरबस याद आ जाती है जिसे वह उस समय कहता जा रहा था.. “देखो मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता...तुम मेरे एक हाथ का वार भी नहीं सह सकते...” बाद में किसी ने उन्हें शांत कराया था...यहाँ इस घटना के उल्लेख का आशय यही है कि शारीरिक रूप से कमजोर छात्र में अधिक आक्रामकता ‘भयवश’ थी| और वह अपनी इस ‘आक्रामकता’ को एक हथियार के रूप में भी प्रयोग कर रहा था...इसी प्रकार यह ‘असुरक्षा का मनोविज्ञान’ बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच भी काम करता है...यहाँ बहुसंख्यक को कुछ अधिक ही सहनशील और जिम्मेदार भी होना चाहिए...!
        
                एक बात और है....भारतीयों को आजादी के समय देश का धर्म के नाम पर हुआ विभाजन आज भी सालता है; परिणामतः आज के आतंकवाद के साये में इनकी देशभक्ति की जैसे रोज परीक्षा होती है| यह किसी के लिए निश्चित रूप से बहुत पीड़ादायी होता है जब लोग उसकी निष्ठा पर संदेह करने लगते है...! वास्तव में इस ‘संदेह’ से भी अल्पसंख्यकों में मनोवैज्ञानिक रूप से आक्रामकता पनप सकती है..लेकिन...इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देश के प्रति उनकी निष्ठा किसी से कम है| इसका प्रमाण तो यही है कि कुछ घटनाओं तथा धार्मिक विवादों या दंगों की बातें छोड़ दी जाएँ तो भारत में सभी आतंकवादी घटनाएँ विदेशी आतंकवादियों द्वारा ही अंजाम दिए गए हैं...एक बात यहाँ और भी उल्लेखनीय है...किसी की बहुसंख्या उसकी सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकती यदि ऐसा ही होता तो मुस्लिम बहुल देश स्वयं आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित नहीं होते...!! पाकिस्तान से लेकर अरब जगत का हाल कोई भी जान सकता है| यही नहीं अगर हम अपनी संवैधानिक व्यवस्था को छोड़ दें तो हमारी अपनी स्वयं की बहुसंख्यक हिन्दू बिरादरी स्वयं अपने लोगों के लिए सुरक्षा की गारंटी नहीं बन सकी है...कारण..? हमारे अपने समाज में जातिवाद की एक ऐसी विचारधारा गहराई से जड़ें जमाए हुए है कि इसका दंश हम सदियों से भोगते आ रहे हैं..आज भी ग्रामीण भारत इसके अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाया है...गाँवों में दलितों के यहाँ खुले-आम खाने से हम जैसे तथाकथित उच्च जातीय समाज के लोग आज भी कतराते हैं...इसे हम अपनी तौहीन समझते हैं..इसका कारण हमारा अपना वही ‘परिवेश’ है जिसमें हम सदियों से रहते आए हैं और आखिर यह परिवेश भी तो किसी के लिए ‘आतंकवाद’ से कम नहीं है| हमारे समाज के इसी ‘परिवेश’ से ही बौद्धों और जैनों की उत्पत्ति हमारे अपने इसी ‘आतंकवाद’ की प्रतिक्रिया में हुआ था अतः इस तथ्य को भी समझना होगा कि एक धार्मिक समूह अपने लोगों के लिए सुरक्षा की गारंटी नहीं बन सकता|
         
                अकसर एक तर्क और दिया जाता है कि देखो उनकी जनसख्या बढ़ रही है फिर तो इस तरह एक दिन हम अल्पसंख्यक हो कर रह जाएंगे तब इस देश का क्या होगा..? यहाँ यह तर्क प्रस्तुत करते समय हम भूल जाते हैं कि हजारों वर्षों से हम वैसे ही हैं..बल्कि हमारे कारवाँ में बाहर से आए लोग भी जुड़ते गए...ऐसा इसलिए हो सका कि हम किसी एक विचारधारा के होकर नहीं रहे बल्कि भिन्न-भिन्न विचार समूहों से भी अपने विचारों को जोड़ते गए...इसी प्रवृत्ति को मैंने ‘हिन्दू विचारधारा’ के रूप में ग्रहण किया...तो मेरे भाई हम भविष्य की इस कोरी कल्पना में अपने को क्यों हलाकान करें..? हाँ एक बात और है...आने वाले समय में ‘विज्ञान का आतंक’ होगा और आज का यह परिवेशगत ‘धर्म’ अपनी मौत मर जाएगा..! जो समाज अधिक दक्ष होगा उसके जीवितता की उतनी ही अधिक संभावना रहेगी..ऐसे में आज के इस धर्म के आडम्बर और इसके लिए होने वाले संघर्ष का महत्त्व शनैः-शनैः अपने आप कम होता जाएगा परिणामतः बहुसंख्यक अल्पसंख्यक के तर्क का कोई अर्थ नहीं होगा और इस प्रकार प्रतिक्रियावादियों के ये तर्क भी बेमानी हैं...
         
                 एक बात मैं आप को और बता दूँ....वैसे भी मेरी आदत किसी के ‘धर्म’ पर टिप्पड़ी करने की नहीं रही है...और मैं आतंकवाद को धर्म से भी नहीं जोड़ता लेकिन जिस परिवेश में आतंकवाद प्रश्रय पाता है आतंक उसी परिवेश का माना जाएगा...अगर इस्लाम में आतंकवादी कुछ ज्यादा ही पैदा हो रहे हैं तो यह भी उनके अपने परिवेश का ही दोष है शायद इसी कारण इसे धर्म से जोड़ दिया जाता है...और उनके ‘धर्म’ ने तर्क को स्थान नहीं दिया जिसके कारण ही यह दोष उन्हें झेलना पड़ रहा है....| हाँ मैं ‘हिन्दू’ शब्द को किसी धर्म की परिधि में नहीं बाँधता और न ही इस शब्द के लिए कोई स्थिर विचार ही पाता हूँ की कह दूँ कि यही हिन्दू है...मतलब ‘हिन्दू’ शब्द में मैंने विचारों का प्रवाह पाया है जिसमें सब कुछ बहता चला जाता है...शायद यही कारण है कि हिन्दू जीवन दर्शन में ‘सेक्युलर’ या धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द गढ़े हुए प्रतीत होते हैं....हिन्दू विचारधारा में इन शब्दों की कोई आवश्यकता भी नहीं है...लेकिन...इस जीवन दर्शन को जब मैं आडम्बर में उलझा हुआ पाता हूँ तो भयभीत हो जाता हूँ...अब अपने भोंडे प्रदर्शन से यह भी ‘धर्म’ बनने लगा है...जिसके अपने खतरे होते हैं...आतंक भी इन्ही खतरों में से एक है...क्योंकि कोई भी परिवेश लोगों को अपने ‘धर्म’ में ढालने लगता है...और यह वैचारिक प्रवाह में बाँध बन कर खड़ा हो जाता है...मेरे भाई यदि हम ही अपनी आलोचना नहीं करेंगे तो कौन करेगा...? हमारे यहाँ तो शास्त्रार्थ की संस्कृति रही है...हम विभिन्न तर्कों को ग्रहण करते हुए ही अपने धार्मिक विचार गढ़ पाए हैं...जो आज भी जारी है...यही हमारी उदात्तता है...इसी कारण हम बेधड़क हो अपने ही ऊपर लिख पाते हैं...लेकिन इसी से हमने दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना भी सीखा है हम तर्क कर सकते हैं लेकिन ‘तू-तड़ाक’ की शैली में दूसरों की आस्थाओं पर असम्मान व्यक्त नहीं कर सकते...!! जब तक कोई आवाज अपने अन्दर से ही नहीं आती तब-तक किसी व्यक्ति, समुदाय या धार्मिक समूहों की विसंगतियों में सुधार नहीं लाया जा सकता तथा बाहर की आवाज तो प्रतिक्रियावाद को ही जन्म देती है जिसमें आतंक और विकृतियाँ छिपी होती हैं|
         
               मेरे भाई एक बात और कहना चाहता हूँ...वैसे अपनी प्रतिष्ठा किसे अच्छी नहीं लगती लेकिन यह सब जो लिखता हूँ किसी प्रतिष्ठा की इच्छा में नहीं लिखता...क्योंकि ‘प्रतिष्ठा शुकारोविष्ठा’ जैसे वाक्य को मैंने कहीं पढ़ लिया है अब इसका अर्थ चाहे जो हो लेकिन मैंने इसका अर्थ यही ग्रहण किया है कि किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा पाने की लालसा उसे उसके कर्तव्य से विमुख कर देती है...अगर मैं लिखता भी हूँ तो वे मेरे अन्दर उठने वाले विचार ही होते हैं ये किसी प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं हैं क्योंकि ‘राजपद’ और ‘स्वर्णमुद्राओं’ की अभिलाषा में केवल ‘रीतिकाव्य’ ही रचा जा सकता है...जिसका साहित्यिक मूल्य तो हो सकता है लेकिन यह आत्मिक और सामाजिक मूल्य विहीन ही होता है...इस गुलामी को मैं पसंद नहीं करता...इसी रीतिकाल के बाद भारत राजनैतिक गुलामी के मकडजाल में भी उलझ गया था...
        
              अंत में एक बात और कहना चाहता हूँ...टपकती बूँदों की प्रतिक्रिया में बुलबुले तो बन जाते हैं और रंगीन भी दिखाई देते हैं लेकिन ये शीघ्र ही खो जाते हैं; जबकि यही बूँदे धीरे-धीरे समुद्र गढ़ देती हैं...तो..मेरे भाई व्यर्थ की प्रतिक्रिया में विचारों का बुलबुला न खड़ा करें बल्कि इससे बेहतर है बूँद बन जाना...! क्योंकि एक सागर बूँदों की प्रतीक्षा कर रहा होता है...हिन्दुस्तान भी तो एक सागर ही है...!!
       
        यह सब मैंने क्यों लिखा इस सम्बन्ध में फेसबुक पर कुछ दिनों पूर्व मेरे द्वारा की गई एक पोस्ट और उस पर की गयी टिप्पड़ियों को पढ़ लें जिसे मैं यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ....हो सकता है बातें कुछ-कुछ समझ में आ जाएँ......         
            
         "अपनी फेसबुक प्रोफाइल में धार्मिक दृष्टिकोण के अंतर्गत मैंने पहले अपने लिए 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग किया था...लेकिन न जाने क्यों मैंने इसे "अहिंसा परमोधर्मः" में बदल दिया था...जिसे आज पुनः मैंने "हिन्दू" में बदल दिया...हालाँकि इसे बदल देने का मन कई दिनों पहले से हो रहा था..लेकिन ऐसा नहीं कर पा रहा था...
लेकिन आज जब मैंने 'दैनिक जागरण' एक छोटी सी न्यूज़ पढ़ी "बोले मुसलमान, नेपाल को फिर से दो 'हिन्दू' पहचान"...इस समाचार का सार यह था कि 'मुसलामानों के अनुसार धर्मनिरपेक्ष नेपाल से ज्यादा महफूज वे हिन्दू नेपाल में रहेंगे| क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष नेपाल में धर्मपरिवर्तन का खतरा अधिक दिखाई देता है...
असल बात यह है कि..मुझे लगा कि 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग हम केवल धर्म के सन्दर्भ में ही क्यों करे...इस शब्द का अर्थ मैंने एक विचारधारा के रूप में लिया जो किसी धार्मिक विचारधारा से इतर अर्थ रखता है और जिसका मतलब है कि सभी व्यक्तियों के विचारों का सम्मान होना चाहिए चाहे आप उससे सहमत हों या न हों..वास्तव में मैंने जब अपने 'रिलीजियस व्यू' को 'हिन्दू' से बदल कर "अहिंसा परमोधर्मः" किया था तो कुछ दिनों बाद मुझे प्रतीत हुआ कि कहीं इसे लिख मैं अपनी विचारों में कट्टरता को तो प्रश्रय नहीं दे रहा..? क्योंकि 'हिन्दू' शब्द में एक विराट विचारधारा को समाहित है..जबकि 'अहिंसा' कुछ-कुछ मुझे 'हिन्दू' शब्द से कम व्यापक प्रतीत हुआ...इसी कारण इसे मैंने फिर से 'हिन्दू' कर दिया|
               वास्तव में "अहिंसा परमोधर्मः" मुझे अपने इसी हिन्दू जीवन शैली से मिला था..अतः मुझे अपने पहले बदलाव पर दुःख पहुँचा..प्रायश्चित स्वरुप मैंने इसे फिर 'हिन्दू' कर दिया"

              एक बात और है 'हिन्दू' विचारधारा में लाख कमियाँ हों लेकिन अंत में आधुनिक भारतीय राज्य व्यवस्था में "भारतीय संविधान' इसी की देन है...हमें अपनी कमियों से भी लड़ने की प्रेरणा यही 'हिन्दू विचारधारा ही देती है..'

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एक मित्र - परम् सुहृद विनय कुमार तिवारी जी सर्वोच्च न्यायलय ने भी हिन्दू की व्याख्या में एक जीवन शैली/एक विचारधारा ही पुष्ट किया है । ये हिन्दू शब्द पूरी सनातन संस्कृति का आत्मशातिकरण है। कुछ सिरफिरों/नासमझों को इस शब्द संस्कृति की स्वर्णिमता /सोंधी महक पल्ले नही पड़ती तो*****। आप के इस बौद्धिक पोस्ट ने ह्रदय को गदगद कर दिया। हार्दिक धन्यबाद।
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अग्रज- Kanwaria me Hindu atankvad ka roop hame dikhai de raha hai Aisa kyon?

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Vinay Kumar Tiwari haan aap ne theek hi kaha hai..is buraai se bhi "hindu" hi ladenge..jiska pramaan swayan aap ka prashn hai..
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एक मित्र- Bilkul sahi Vinay Kumar Tiwari ji
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एक मित्र-App logo ko lajja nahi aa rahi hai kawariyo ko hindu aatankwadi kahne me. Dub mariye apni aisi vichardhara ke sath.
·          एक मित्र- ............ kis aingal se tumhe kawariyo me hindu aatankwad dikh raha hai. Dharm nirpechhata aur apne kuch musalman dosto ki najaro me ucha uthne ke liye is star tak gir jaoge.
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एक मित्र-Abhi tak to gala fad rahe the ki aatankwad ka dharm nahi hota to fir ye hindu aatankwad kaha se ho gaya.
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Vinay Kumar Tiwari मित्र ji लगता है काँवरियों के भीड़ में से नहीं गुजरे हो अन्यथा इनके आतंक का सही अन्दाजा होता। एक बात और है धर्म जब दिखावे का रूप ग्रहण करने लगता है तो धीरे-धीरे आतंकवाद में ही बदलने लगता है, वैसे भी आपका तथाकथित हिन्दू धर्म सामूहिक ऊपासना पद्धति में विश्वास नहीं रखता और हिन्दू "धर्म " की उदारता का यही राज है।
इस सामूहिक आडंबरपूर्ण नए प्रचलन के समर्थन में पूरबिए अन्दाज से हटकर आपकी "तू-तड़ाक" की शैली हिन्दू आतंकवाद के आगमन का संकेत है
·        मित्र -Vinay tiwari ji yahi tipaddi aap us samay karte jab alvida ki namaj ke liye raste band kara diye jate hai aur tajiyo ke julus ke liya vijali ke khambho ka tar kat diya jata hai uske bad aap kawariyo par ungli uthate.
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एक मित्र Chan kawariyo ki udandata ko aap hindu aatankwad ka nam de rahe hai. Mai aap ko salah de raha hu ki aap apna dharm badal lijiye nahi to pana nahi ye hindu aatankwDi aapke sath kya karenge.

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एक मित्र Maine dekha hai gopiganj aur me aur saidabad ke aage alvida ki namaj ke liye kawariyo ko 4 kimi ghuma kar bheja gaya jo nahi gaye unhe rok diya gaya.

· एक मित्र Tab aap kaha the

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एक मित्र  Jisdin hindu aatankwadi ho gaya us din aap jaise seqular logo ka nakab utar jayega

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एक मित्र Aur agar ye kawariye hindu aatankwadi hote to pradesh sarkar dwara lagaye gaye baja pratibandh ko tod dete. Lekin unhone aisa nahi kiya.

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एक मित्र Mai aap ki bahut ijjat karta tha aur aap ki sabhi tippadiya bahut hi sundar aur man ko chhune wali hoti thi lekin mujhe lagta hai ki aap bhi aapne aap ko seqular aur budhhajivi dikhane ke liye is tarah ki tippadiya kar rahe hai.