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बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

हलचल

        अनमनेपन से यूँ ही पोर्टिको में बैठा उस छोटे से लान को निहारे जा रहा था। निगाहें लगभग स्थिर थी। इस लान पर हरी दूबों का चादर अभी पूरा फैल नहीं पाया है। लगभग एक तिहाई भाग वैसे ही नमी हटने के बाद चट्टान सा दिखाई देने लगता है। मन में वहाँ भी हरियाली लाने का विचार कौंधने लगा।

        अब दृष्टि लान के उस कोने पर टिक गई जिसके एक किनारे पर कुछ पौधे झुरमुटनुमा थे। वहीं किनारे पर ही पानी का वह पाइप भी खुला था जिससे बहता हुआ पानी वहाँ एक छोटे से बन गए गड्ढे में इकट्ठा हो रहा था। पूरे लान में हरियाली लाने के लिए नमी की जरूरत समझते हुए पानी को ऐसे ही बहते रहने देने का मन में विचार उठा। मेरा अनमनापन अब मुझे न जाने क्यों उदासी की ओर भी ढकेलने लगा और दिन भी मुझे जैसे कुछ थमा हुआ सा नजर आने लगा था। वैसे लान पर पड़ती धूप अपनी किशोरावस्था को पार करती हुई प्रतीत हो रही थी। इस अलसाहट ने मन मस्तिष्क को भी स्थिर कर दिया था।

          मेरी निगाहें अब भी पानी और उस झुरमुट की ओर ही टिकी हुई थी। मैंने देखा कि वहाँ अब गौरैया का एक जोड़ा भी आ गया था। यह जोड़ा वहीं पानी के आसपास ही फुदकने लगा। अचानक उनमें से एक इकट्ठे हो चुके पानी के उस छोटे से गड्ढे में उतर गया। वह कभी अपने सर को डुबोकर तो कभी अपने पंखों को उस पानी में भिगोकर फड़फड़ाए जा रहा था। ऐसे ही कुछ क्षण के बाद वह पानी में से निकल आया। अब गौरैया के इस जोड़े का दूसरा साथी भी पानी के उस गड्ढे में जा वही क्रिया करने लगा। मैं देखता रहा और वे दोनों बारी-बरी अपने स्नान के इस क्रिया को दुहराते रहे। मेरे होठों पर न जाने क्यों एक हल्की सी मुस्कान तिर आई।

         कुछ क्षण बीते होंगे। पास के पीपल के पेड़ों से उतर कर तीन या चार की संख्या में अब वहाँ बुलबुल भी आ गए थे। कुछ क्षण फुदकने के बाद इनमें भी जैसे नहाने की होड़ लग चुकी थी। लेकिन इन सब की यह क्रिया पूरे अनुशासन के साथ चलती जा रही थी क्योंकि जब एक पक्षी पानी में होता तो दूसरा अपनी बारी की प्रतीक्षा में दिखाई देता। मैने ध्यान दिया कि अब तक यहाँ कई तरह के पक्षियों का जमावड़ा हो चुका था, जैसे चर्खी, किलहटी और एक छोटे भुर्रैया जो हरे रंग की थी। इनकी चहचहाहटों का एक हलका सा शोर कानों में पहुँचने लगा था। तभी मैंने देखा बगल के नीम के पेड़ से उतरते हुए वहाँ एक गिलहरी भी आ गई। पक्षियों के इस मजमें में थोड़ा सा हलचल हुआ लेकिन कुछ ही क्षण में फिर सब अपने में मगन हो गए। गिलहरी गौरयों के जोडों के पास ही बडे़ इत्मीनान से जैसे अपने हाथों की अंजुरियो में कुछ भर-भर कर खाने लगी थी। इस अनमनेपन और उदासी के क्षण में यह सब देखते हुए जीवन में एक लय का अहसास सा हुआ। तभी देखा दो चर्खी पक्षी में आपस में थोड़ा जैसे विवाद सा हुआ हो और दोनों गुत्थम-गुत्था से हुए। थोडा़ सा हलचल हुआ और गौरैया का जोड़ा फुर्र से उड़ गया। अन्य पक्षी भी इस हलचल को भाँप उड़ गए और गिलहरी भी नीम के पेड़ पर चढ़ गई। एक सभा विसर्जित हो चुकी थी और इधर मेरे भी नहाने का समय हो चुका था।
                                    -विनय                                                                 


गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

भईया..! मैं तो रामधुन गा कर उठ जाऊँगा...

           देखिए न गाँधी जयंती तो निकल गई...और बेचारे गांधी पर कुछ नहीं लिख पाया....कम से कम दो-चार अक्षर उस महात्मा के नाम कुछ न कुछ पोस्ट कर देता...! लेकिन...लेकिन करें क्या..? कोई मानसिक उद्वेलन पैदा ही नहीं हुआ कि कुछ लिख पायें...एक बार सबेरे जो गांधी जी की फोटू पर माला चढ़ाया था तब तो मन हुआ था कि अपना मोबाइल किसी को दे कर कह दें कि एक तस्वीर तो ले लो...कम से कम उसी को पोस्ट कर उस पर कुछ लिख देता...लेकिन फिर मन ही नहीं हुआ...सोचा क्या फायदा...और बैठे-बैठे मन उनके रामधुन में रम गया...

            अभी कल ही धर्म के चक्कर में पड़ कर मन ख़राब कर लिया था....बात यह थी कि मैंने आजकल धर्म को “रिलिजन” के रूप में ग्रहण कर लिया है और अपने हिसाब से थोड़ा गुस्से में इस ‘रिलिजन’ को फसाद की जड़ मानते हुए तल्ख़ होकर इस पर कुछ शब्दों को फेसबुकिया दिया...हाँ गुस्से में तो था ही वह भी इसलिए कि देश में कहीं न कहीं इस मुए धर्म के चक्कर में कुछ न कुछ ऐसा कांड हो जाता है कि मन ख़राब हो जाता है...तो...मन तो मन वह बिना विचारों के तो रह नहीं सकता और ख़राब हुए मन से कुछ न कुछ तो निकालना ही पड़ता है...अब अपनी इस पीड़ा को कहाँ और किससे कहें...? यह अपना जो सोशल मीडिया हैं न यह बेचारा मेरी सारी गुस्ताखी सह लेता है...इसी पर अपनी सारी भड़ास निकाल देता हूँ और मन हलका कर लेता हूँ...अब गांधी जी तो हूँ नहीं कि एक लाठी लेकर भड़ास निकालने पदयात्रा पर निकल पडूँ...और देश गुलाम भी नहीं कि कोई गांधी बनने जैसा अवसर हाथ आ जाए...हाँ उतना बड़ा करेजा भी नहीं...और साथ में बहुत सारी दुनियादारी भी है, अगर सही में गांधी जी जैसा भड़ास निकालने की सोचा तो फिर हो चुका..! अब उनका ज़माना नहीं है अब एक धोती से काम नहीं चलने वाला...थोड़ा माल-मत्ता भी जुटाना पड़ता है...!! एक बात और है जो माल-मत्ता नहीं जुटा पाता उसी की शामत भी आती है...! एक बात और है अगर आज गांधी होते भी तो बस ऐसे ही बैठे-बैठे रामधुन गाने के सिवा वे भी कुछ न कर पाते..! हाँ थोड़ा बहक रहा हूँ ओ क्या कह रहा था कि...? अरे हाँ...! तो यह फसेबुक मेरा भड़ास सह लेता है...गलती नहीं कर रहा हूँ यदि आप पढ़ लेते होंगे तो आप भी सह लेते होंगे...खैर...

          मैं ये कह रहा था कि धर्म पर मेरी सारी गुस्ताखियाँ धर्म को “रिलिजन” ही मान कर होता है...और मानूँ भी क्यों न...? पता नहीं आप अभी भी ‘धर्म’ को धर्म के रूप में ही क्यों लेते हैं...? जब मैं छोटा था तब मैं भी धर्म को धर्म ही मानता था...हाँ जब ‘धर्म’ शब्द कान में पड़ता तो तत्काल मन में सबके लिए एक अच्छे विचारों वाले विचार की धमक सुनाई पड़ती..क्योंकि मेरे दादा जी ने बचपन में मुझे जड़-भरत की कथा सुनाते हुए कहा था ‘यही धर्म है’...

           जड़-भरत एक अहंकारी राजा की पालकी अपने काँधे पर उठाए चींटियों को भी अपने पैरों से बचाते हुए चले जा रहे थे...और पालकी बेतरह डगमगा रही थी...राजा द्वारा पालकी के डगमगाने का कारण पूँछने पर जब जड़ भरत ने चींटियों को अपने पैरों से बचाने के लिए उछल-उछल कर पैर रखना बताया तो राजा का अहंकार भी दूर हो गया था....और उस राजा ने जड़ भरत से ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त किया तथा उन्हें महात्मा मानते हुए उन्हें अपना गुरु माना...इस कहानी के अंत में दादा जी ने कहा था... ‘प्रत्येक जीव के प्राणों की फ़िक्र करनी चाहिए यही धर्म है’...यही नहीं ऐसी ही तमाम कहानियों को सुनाते हुए वह कह देते ‘यही धर्म है’ या फिर कभी कहते “यही इसका नियम है”...और ऐसे नियमों का पालन करनेवाले ही धार्मिक होते हैं...मैंने इन्हीं बातों को धर्म मान लिया था...और आज तक यही समझते आया हूँ...और जो ऐसा करते दिखाई देते हैं उन्ही को धार्मिक माना...

          लेकिन भाई लोग आज मात्र ‘धर्म’ शब्द का ही इस्तेमाल करते हुए दिखाई देते हैं ‘यही धर्म है’ ऐसा कहते हुए कोई नहीं सुनाई देता...और यह जो ‘धर्म’ शब्द है न यह अब इतना सुनाई देने लगा है कि दादा जी वालीं बात मैं भूल गया कि ‘यही धर्म है’ या ‘यही इसका नियम है’....! और इस सुनाई देने वाले ‘धर्म’ को ही मैं धर्म लिख मारा...! क्योंकि इस ‘धर्म’ में आज ‘रिलिजन’ घुस गया है...यह धर्म बेचारा इस चक्कर में अस्त-व्यस्त हो चुका है....हाँ...अब अंग्रेजी में तो पोस्ट थी नहीं...नहीं तो ‘रिलिजन’ ही लिखता...!

          क्या करें मन बड़ा अस्त-व्यस्त हो चुका है...मेरी ऐसी पोस्ट पढ़ लोग मुझे अस्त-व्यस्त सोचते होंगे तो वे सही भी हैं....क्योंकि दादा जी की वे बातें अब झूँठी जो लगने लगी है...!

         लेकिन नहीं...मैं दादा जी को झूँठा नहीं मान सकता....क्योंकि उनके पीठ पीछे उस समय भी लोग उनकी बात ‘यही इसका नियम है’ या ‘यही धर्म है’ कह और इसे मुझे सुनाते हुए उन पर व्यंग्य कसते थे...! लेकिन दादा जी की सोच उस समय मुझपर प्रभावी थी मैं भी मुस्कुरा कर सुन भर लेता...!

          क्या करें...मैंने चींटी के जीवन रक्षा तथा किसी की सौ गालियाँ खा कर भी उसे क्षमा कर देने जैसी भावनाओं को धर्म के रूप में ग्रहण करते आया था....वहीँ आज पता नहीं किस ‘धर्म’ के लिए जब इंसानों को इंसानों का ही खून बहाते सुनता हूँ तो वाकई मैं अस्त-व्यस्त हो जाता हूँ...सोचता हूँ...हमारे उस बचपन के धर्म में यह ‘रिलिजन’ कहाँ से घुस आया...!! 

         अब इस धरम-वरम के चक्कर से बचना चाहुँगा...यहीं पर दादा जी की सुनाई एक कहानी और याद आती है...वह धार्मिक ग्रंथों से ही कहानियाँ सुनाते थे...शायद किसी राजा की ही कहानी थी....राजा को श्राप मिला था कि उनके अन्दर कलियुग का प्रवेश होते ही उनका पतन हो जाएगा...और कलियुग था कि राजा में प्रवेश ही नहीं कर पा रहा था...क्योंकि राजा जी बड़े नियम संयम और शुद्धता से रहते थे....लेकिन एक दिन कलियुग को कोई अवसर मिल गया और वह राजा में पहुँच गया...और जब राजा का पतन अवश्यम्भावी हो गया तो उन्होंने कलियुग के प्रभाव में आने का उससे ही कारण पूँछा...तब कलियुग ने राजा के द्वारा एक दिन की अपवित्रता का उल्लेख करते हुए कहा कि उसी दिन मैंने आप में प्रवेश किया था....

        तो भईया मतलब साफ़ है...धर्म..अधर्म..सम्प्रदाय...जाति..वर्ग..आदि की चर्चा में फँसना अपने में कलियुग को प्रवेश देने जैसा ही होगा..! फिर तो दिमाग भी अस्त-व्यस्त हो जाएगा और पतन अवश्यम्भावी...जैसे उस राजा का हुआ था...! हाँ इस पर चर्चा करना मन को दूषित कर लेने जैसा ही है...और निश्चित रूप से यह कलियुग अपना असर दिखाना शुरू कर देगा....इस व्यर्थ की चर्चा से दूर रहना ही अच्छा है....भाई लोग भी नाहक परेशान हो उठते है...!!
       
           अब सोचता हूँ वह व्यंग्य की शैली भी गजब की होती है...सब की छीछालेदर कर डालिए लेकिन कोई बोल नहीं पाता और आप अपनी बात भी कह देते हैं...लेकिन इस शैली में भी मुझे एक चिंता प्रतीत होती है...वह यह कि....जैसे यह कायरों की शैली हो क्योंकि वक्रोक्ति भी भला कोई असर करती है....? लेकिन सीधी बात में खतरा भी तो होता है...आतंकवादी खतरा...!!

           खैर...जब साहित्य रचने की मन में अभिलाषा है तो कोई बात नहीं...यह व्यंग्य की शैली ही ठीक है....आप भी बुरा मत मानिए मैं साहित्य ही रच रहा हूँ....और कुछ नहीं..केवल राम-धुन गा कर उठ जाऊँगा.....जय हिन्द...!!!   

       अरे मैं कहाँ अटक गया था ...धर्म के चक्कर में गांधी जयंती पर गांधी जी को भी भुला दिया...
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