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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

लिखने योग्य अच्छा काम...!!


         सुबह का वक्त था..., ट्रेन प्लेटफार्म से धीरे-धीरे खिसक रही थी...दौड़ कर किसी तरह चढ़ पाया..., बैठने के लिए सीट तलाश करने लगा...नीचे की एक बर्थ पर खाली जगह दिखाई दी...वहां बैठना चाहा...पास में ही बैठा एक व्यक्ति बोला,
                   “नहीं-नहीं, यहाँ मत बैठो मेरी बर्थ है...|”
मैंने वहां बैठने का निर्णय बदल लिया...ट्रेन के गलियारे में, आते-जाते लोगों के धक्के खाते खड़ा रहा...तभी दूसरे बर्थ पर बैठे एक व्यक्ति को उसी बर्थ पर आराम से बैठा एक आदमी यह कहते हुए उठा रहा था,
        “अरे यहाँ से उठो, यह हमारी रिजर्व बर्थ है...”
लेकिन दूसरा उठने से रहा... बोला,
        “मैं अब बैठ गया हूँ नहीं उठूँगा..मैं रोज चलता हूँ|”
उठाने वाला भी थक-हार कर चुप हो गया...| ट्रेन अपनी पूरी गति पकड़ चुकी थी...इधर मैं भी गलियारे में खड़े-खड़े लोगों के धक्के खाते ऊब गया था...अब ऊपर के खाली बर्थ पर बैठना चाहा...जैसे ही मैंने ऊपर बैठने का प्रयास किया नीचे आराम से बैठे व्यक्ति ने टोक दिया,
       “अरे भाई इतना परेशान होकर तो हम लोग रिजर्वेशन करा पाते हैं, आप लोग इस बात को समझते नहीं...पिछली बार तो वेटिंग ही कन्फर्म नहीं हो पाई तो हम लोग गैलरी में ही लेट और बैठ कर गए थे...|”
उसने फिर कहा,
                “वहां न बैठो, मैं लेटने जा रहा हूँ...|”
मैंने उसकी बात सुनी, उससे बहस नहीं करना चाहता था फिर भी झुंझलाकर बोल उठा,
                  “समझता हूँ...|
खैर बैठने के इस प्रयास को भी मैंने छोड़ दिया और सोचने लगा...
        ...ये रेल वाले भी अजीब व्यवस्था बनाते हैं...बैठने तक की कोई ठीक व्यवस्था देते नहीं...हाँ, लेटने की पहले कर देते हैं...कहने को जनरल बोगी लगी है...लेकिन वहां भी तिल रखने की जगह नहीं होगी...शौचालय में लोग घुस कर बैठे होंगे...जनसँख्या या व्यवस्था, पता नहीं कौन जिम्मेदार है...सोचते-सोचते सीट की तलाश में दूसरे कूपे में आ गया...अचानक एक बर्थ पर खाली जगह दिखाई दी, उल्लसित हो वहां मैं बैठ गया...यहाँ भी पास ही बैठे एक व्यक्ति के सज्जनतापूर्ण प्रतिरोध का सामना करना पड़ा...फिर भी मैं ही सफल हुआ| गाड़ी कहीं रुकी थी...चल पड़ी...एक टीटी आता हुआ दिखाई दिया, मैं थोडा नर्वश सा हुआ क्योंकि टिकट तो जनरल क्लास का लिए था और बैठा स्लीपर बोगी में..., टीटीई पास बैठे व्यक्ति से उलझ गया शायद वह भी मेरे ही जैसा इस बोगी के लिए अनधिकृत था, दोनों में थोड़ी बहस होने लगी, मैं उनके बीच के वार्तालाप को ध्यान से सुनने लगा, टीटीई कह रहा था,
         “टिकट दिखाओ..|
उसके टिकट दिखाने पर टीटीई ने कहा,
         “इस बोगी में क्यों बैठ गए...यह टिकट तो जनरल क्लास का है...|” 
         “क्या करते जनरल डिब्बे में बहुत भीड़ है खड़े होने तक की जगह नहीं है” यात्री ने कहा|
         “लेकिन पेनाल्टी देनी पड़ेगीया अभी यहाँ से हटो...”
टीटीई ने थोडा हडकाते हुए से कहा| ट्रेन भागी जा रही थी..उतरना संभव नहीं था, यात्री ने पूंछा,
         “कितनी पेनाल्टी...”
इस पर टीटीई ने कोई धनराशि बताई, लेकिन यात्री उसे देने में अपनी असमर्थता जताते हुए कहा,
         “मेरे पास इतना पैसा नहीं है…|”  
इसके बाद टीटी उस व्यक्ति को थोडा अलग ले गया, वहां से वापस आकर वह यात्री मुस्कराते हुए पुन: अपनी सीट पर बैठ गया...| मुझे अपने एक मित्र की रेल यात्रा के बारे में कही एक बात याद आ गई...उन्होंने बताया था,
         “जेब में पैसा हो तो टिकट लिए हैं या नहीं या फिर किस बोगी में बैठे है इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए, आपकी यात्रा सकुशल सम्पन्न हो जाएगी|”
अब मेरी बारी थी...लेकिन यह क्या...! टीटी ने एक बार मुझे देखा और आगे बढ़ गया...शायद मुझे डेली पेसेंजर समझ कर नजरंदाज कर दिया हो...जो भी हो मैंने राहत की सांस ली| तभी बैठे-बैठे मेरी नजर सामने लगे एक छोटे से पोस्टर पर पड़ी... हाँ...,वह पोस्टर किसी सामाजिक संस्था का था...उस पर लिखा था-
         “अच्छा लिखने से बेहतर है कि लिखने योग्य अच्छा काम किया जाय|
मैं इस पर चिंतन-मनन करने लगा...|
        ट्रेन पुन: अपनी पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी...अचानक मेरी दृष्टि ट्रेन के गलियारे में झाड़ू लगाती एक औरत पर पड़ी...वह कृशकाय, चीथड़ों में लिपटी थी...लगभग डेढ़ साल की बच्ची को कांख में दबाए झाड़ू लगाते हुए धीरे-धीरे मेरी ओर चली आ रही थी....उसकी बच्ची को देख...मैं सोचने लगा...इस बच्ची का पिता कौन होगा...कोई अपनी पत्नी और बच्चे को इस हालात में छोड़ सकता है..! या फिर इसकी माँ किसी वहशी दरिन्दे का शिकार हुई होगी...इस अभागी बच्ची का भविष्य क्या होगा...! तब तक उस औरत का हाथ मेरी ओर बढ़ चुका था... शायद उसने अपना काम पूरा कर लिया था...मैंने उसके हाथ पर एक सिक्का रख दिया...वह आगे बढ़ चुकी थी...मैंने पुन: उस छोटे से पोस्टर की ओर देखा, दृष्टि इस वाक्य पर रुक गई, “लिखने योग्य अच्छा काम किया जाय,” मैं फिर अपनी विचारमग्नता में खो गया...पता नहीं...लिखने योग्य अच्छा काम कौन कर रहा है...यह पोस्टर..! या झाड़ू लगाती कांख में बच्ची दबाए कृशकाय यह औरत...! या लिखने के लिए मसाला तलाश रहा मैं...! या फिर टीटीई समेत हम सब को ढोती बेचारी यह ट्रेन...! और मैं...अपने इन विचारों में मगन हो गया...लेकिन...वह औरत..! वह तो...बच्ची को कांख में दबाये लोगो के सामने हाथ फैलाती आगे बढ़ी जा रही थी...|
           इस बात की चर्चा मैंने जब अपनी पत्नी से किया तो उन्होंने कहा,
           “अरे ! वह इन पैसों से जाकर समोसा खा लेगी या फिर कोई उससे भींख मगवा रहा होगा...इन सबके पीछे माफिया लोग रहते हैं..! नहीं तो इतनी सारी व्यवस्था होते हुए भी वह यह सब क्यों झेल रही है,”
पत्नी ने आगे फिर जोड़ा,
           “समय बिताने के लिए आपके पास अच्छा काम है...बस लिखने बैठ जाओ...! अगर समाजसेवा का इतना ही शौक है तो ऐसे लोगों के लिए शेल्टर होम खोलो...या फिर उन परिस्थितियों, माफियाओं से भिड़ो जिसके कारण उसके लिए यह हालात पैदा हुआ..|”
पत्नी ने ये सारी बातें एक सांस में कह डाली...मैं अपनी हदें जानता हूँ...मैंने सोचा...बस अब चुप हो जाना ही अच्छा है और मन ही मन ही..ही..करने लगा...|
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