न जाने क्यों कई
दिनों से मन में बेचैनी सी छाई हुई थी..इसका कारण खोजने लगा तो कुछ समझ में नहीं आ
रहा था..फिर अपने अन्दर डुबकी लगाने की सूझी...जैसे सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा
जी बिष्णु की नाभि-कमल की नाल में इसका उद्गम स्थल खोजने के लिए नाल के अन्दर उतर
जाते हैं...खैर..ब्रह्मा जी को कमल-नाल का कोई ओर-छोर नहीं मिला था। लेकिन मेरी
समस्या इतनी अनंत नहीं थी...! खोदा पहाड़ निकली चुहिया के अंदाज में मुझे मेरी बेचैनी
का कारण भी मिल गया...! हाँ इधर कई दिनों से कुछ लिख नहीं पाया था, यही न लिख
पाना ही मेरी बेचैनी का कारण था...! अब ब्रह्मा जी तो अपने सृष्टि-कमल पर अकेले ही
बैठे थे, फलतः अपनी समस्या का अनंत व्याख्यान लिख गए जिसका धर्म हम सब आज तक निभाते
आ रहे हैं...। लेकिन...भले ही शब्द ब्रह्म हो, इस सृष्टि-धर्म के चक्रव्यूह में इधर
कई दिनों से हम कुछ लिख नहीं पा रहे थे...क्योंकि अब इस विकसित सृष्टि में हम अकेले तो हैं नहीं...!
उस दिन लिखने की कोशिश की तो श्रीमती
जी ने तमाम उपाधियों से हमें विभूषित कर दिया। अंत में पूँछा कि आपके इस
लिखने-विखने में क्या फायदा..? ये भी तो नहीं कि कहीं छपते हो कि दो पैसे की आमदनी
हो रही हो और घर चले...। नौकरी करो और कभी समय मिले तो लिखने बैठ जाओ..., मैं ही एक
वेबकूफ हूँ जो घर की चक्की में पिसती रहती हूँ...! अब इतनी बातें सुन किसमें लिखने
जैसी निठल्लेपन की हिम्मत बचेगी..? मैं भी शब्द को ही ब्रह्म मानने की बात को भूल समझ
श्रीमती जी की सृष्टि का एक प्यांदा बन गया...और लेखकीय जैसे धतकर्म से मन उचट
गया..।
इस दौरान मैं उन्हें बराबर लिखने के
महत्त्व को समझाता जा रहा था, जैसे कि..देखो भाई शब्दों का अपना महत्त्व होता
है..। वह छपे या न छपे लेकिन शब्द अमर्त्य होते हैं, तभी तो..जब कोई बात निकलती है
तो दूर तक जाती है...! मैंने उन्हें यह भी समझाया कि अपने शब्दों से ही कोई पप्पू..फेंकू..या
कुछ भी हो जाता है..और.…इन्हीं शब्दों से कोई अपने लिए सत्ता की सृष्टि रच लेता
है...तथा...इन्हीं शब्दों से ही आप का बंटाधार भी हो सकता है...क्योंकि शब्दों से
तमाम ‘अर्थ रूपी माया’ जुड़ कर तरह-तरह का व्यावहारिक जगत निर्मित होने लगता है। इस व्यावहारिक जगत में
कहनेवाला-सुननेवाला दोनों अपने-अपने तरीके से प्रवृत्त हो जाते हैं...! फिर, मैंने
उन्हें यह भी समझाने की कोशिश की कि पहले के ऋषि-मुनि कौन सा छपने के लिए लिखते
थे..! आखिर उन्हीं के लिखे को पढ़-पढ़ कर हमने भी अपनी यह सृष्टि रच ली है, मेरा
कहने का मतलब दो जून की रोटी के जुगाड़ वाली इस नौकरी को पा लिए हैं...। आगे मैंने
फिर कहा, “देखो यह सब न सही..तुम तो जानती ही हो कि मैं कोई नशा-पाती तो करता
नहीं..! मेरे लिए समझो यही नशा-पाती है...लिख कर मैं अपने तमाम स्ट्रेस दूर कर
लेता हूँ..छपना-वपना मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है..!” इस पर श्रीमती जी बोली, “अरे..जब
छ्पोगे-वपोगे नहीं तो इस लिखने का क्या मतलब...आखिर तुम्हारे विचारों को भी लोग
कैसे जानेंगे..?”
उनके इस मौंजू प्रश्न पर मैंने अपनी
लफ्फाजी को थोड़ा और आगे बढ़ाया...। अब उन्हें समझाने के लिए मैंने साइंस का सहारा लिया। इसके लिए मुझे ‘उर्जा संरक्षण का नियम’ मुफीद लगा...! मैंने श्रीमती जी को समझाने की
कोशिश की..देखो उर्जा कभी ख़तम नहीं होती उसका रूप भले ही बदल जाए...! उसी प्रकार
शब्द भी एक उर्जा हैं, यदि शब्द गढ़ लिए गए तो उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता
और वह छपे तभी उसका महत्त्व है ऐसा नहीं...! देखो जिन शब्दों को हम गढ़ते हैं, कहीं
न कहीं इस सृष्टि की निरंतरता में उनका योगदान होता है...! ये शब्द कभी व्यर्थ नहीं
जाते इनका कोई न कोई सामाजिक योगदान तो होता ही है...। स्थितियां-परिस्थितियाँ तक
इन्हीं शब्दों के बल पर बदल जाती है..।कम से कम इसी बहाने समाज-सेवा ही करने दो...!
अब श्रीमती जी की झल्लाहट उभर आई...! बोली, “देखों बातों से पेट नहीं
भरता...! तुम्हारे निठल्ले से इन शब्दों से क्या मिलने वाला है, तुम्हें तो जैसे हम
सब की परवाह ही नहीं...!” यह सुनते ही मैं बोल पड़ा, “यह तुम कैसे कहती हो..? यह
पूरी जिंदगी तुम्हारे लिए कुर्बान है...तुम सब की परवाह करने के कारण ही मैं, मैं
हूँ...।”
मैं समझ गया था कि इस समय लिखना बड़ा
मुश्किल है...यह सोचते ही मैंने बड़े मीठे अंदाज में कहा, “अच्छा सुनों...जरा चाय
बना सकती हो..?” सुन श्रीमती जी ने मेरी ओर देखा और किचेन में चली गयीं..। अगले कुछ
पलों बाद मेरे हाथ में चाय का कप था...! हाँ, अब मैं मुस्कुरा रहा था...। उनके मेरे इस
मुस्कराहट का कारण पूँछने पर मैंने कहा, “यह चाय का कप भी मेरे शब्द ‘कुर्बानी’ का
असर है...! देखा शब्द भी पेट भर देते है..।” श्रीमती जी मेरी बात को समझ गयीं…आँखे
तरेरी..,जैसे कह रही हों कि स्त्रियों की भावनाओं को तुम पुरुष गंभीरता से नहीं
लेते...। मैं भी लिखने की बेचैनी लिए ही लिखने की टेबल से उठ गया था..!
लेकिन आज कई दिनों बाद छुट्टी के दिन
मैंने अपनी इस बेचैनी को दूर करने की ठान ली..। किसी को ‘पाती’ लिखना
था...! सुबह-सुबह ही सुपुत्र जी के कक्ष में प्रवेश किया...। कलम-कागज़ का युग तो अब
समाप्त प्राय है, सो उन्हीं के कंप्यूटर पर अपने शब्द-ब्रह्म को उतारने की
सोची...। लेकिन यह क्या..! सुपुत्र महोदय भी सबेरे-सबेरे ही अपने कंप्यूटर पर गेम
खेलने में जुटे पड़े है...! ओह इन्हें इनके कंप्यूटर से बेदखल करना इस समय बड़ा
मुश्किल काम है...! हालांकि ये जानते हैं कि श्रीमती जी के डर के कारण मैं इनके
कंप्यूटर चेयर पर कम से कम लिखने के लिए काबिज नहीं हो सकता वह भी इनको इससे
जबरदस्ती उठाकर...! लेकिन मेरी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी, मैं मन ही मन उन्हें
उठाने की तरकीब सोचने लगा...। अचानक ही मन में तरकीब कौंधी...! एक पारंपरिक पिता की
कठोरता ले नाटकीय अंदाज में सुपुत्र के मर्म पर प्रहार किया, “सुबह-सुबह ही
कम्पूटर पर गेम खेलने बैठ गए...जब देखो तब गेम खेलते रहते हो...इसी कारण पिछली
परीक्षा में कम नंबर मिले थे...क्यों अपनी बर्बादी पर तुले हो...!” जैसा मैंने
सोचा था मेरा तीर निशाने पर लगा था, सुपुत्र महोदय कंप्यूटर को ऑफ कर पैर पटकते
हुए एक झटके से अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, और मुझे घूरते हुए पास में ही पड़ी
पढ़ने के मेज पर चले गए..। इधर मैं भी बिना समय गँवाए उनकी कुर्सी पर धम्म से बैठ
गया जैसे मुझे अपने मन की मांगी मुराद मिल गयी हो..।
मैंने कम्पूटर ऑन किया, की-बोर्ड पर उंगलियाँ
चलने लगी थी...मतलब मैं ‘पाती’ टाइप कर रहा था...। इस बीच अपने पढ़ने की मेज से
सुपुत्र जी बीच-बीच में मुझे अपने आग्नेय नेत्रों से घूर लिया करते थे, जैसे कहना
चाह रहे हों कि अपने लिखने के चक्कर में मेरा खेल बिगाड़ दिए हो मैं भी देख
लुँगा..। मैं भी लिखते हुए कनखियों से, मुस्कुराते हुए, उन्हें इस भय के साथ देख
लिया करता कि कहीं अपनी माता जी से मेरी पोल न खोल दें..। कुछ देर बाद श्रीमती जी
भी आयीं और मेरे बगल में ही कुर्सी खींच बैठ, मुझे लिखते हुए देखती रही।इधर एक
अज्ञात भय लिए लिखने की मेरी तन्द्रा भंग सी होने लगी, लेकिन मुझे इस लेखकीय धर्म
को निभाते देख श्रीमती जी ने कोई टिप्पड़ी नहीं की..। कुछ देर बैठकर वह फिर घरेलू
कार्य निपटाने चली गई, ऐसा उन्होंने दो बार किया..! दूसरी बार तो जैसे मुझे कुछ
टोकते-टोंकते रह गयी हों...। मैं अपने शब्द-ब्रह्म की माया में ही उलझा रहा..! अचानक
घर की लॉबी से उनका स्वर सुनाई पड़ा, “तुमको तो लिखने से ही फुर्सत नहीं...मुझे भी
अपने एक काम से मार्केट जाना है..।” मैं चौक गया...! यह प्लान तो लग रहा है जैसे मेरे
लिखते रहने की भावना से आचानक उपज आई है, क्योंकि किसी मार्केटिंग की पहले से कोई
योजना तो थी नहीं..! मेरा लिखने का काम पूरा होने वाला ही था, इसे पूरा करने का
लोभ संवरण मैं नहीं कर पाया..., बोल पड़ा, “यार बस हो गया है..दो लाइन और बचा है..इसे
पूरा कर उठता हूँ..।” इधर सुपुत्र जी अपनी माँ की आवाज सुन मुस्कुराते हुए कनखियों
से मुझे देखने लगे, जैसे कहना चाहते हों कि लिखो-लिखो और लिखो, अब मजा आएगा...!
श्रीमती जी ने लगभग पांच मिनटों तक मेरे उठने का इंतज़ार किया फिर मार्केट चली
गयीं...।
श्रीमती जी के जाने के कुछ क्षण बाद ही
लिखने का मेरा काम पूरा हो गया...। मैं उठ गया, देखा तो वे जा चुकी थीं...लॉबी में आ, पसर कर मैं टी.वी. देखने लगा था..। लगभग डेढ़ घंटे बाद वे लौटी..., लॉबी में इत्मीनान
से मुझे बैठे देख जैसे उन्हें तसल्ली नहीं हुई, मुझसे न पूँछकर सीधे सुपुत्र जी
से पूँछा, “क्यों ये कब तक लिखते रहे..?” सुपुत्र जी भी जैसे मुझसे बदला लेने के
ही इंतज़ार में बैठे थे...। श्रीमती जी के यह पूंछने भर की देरी थी कि झट से बोल पड़े,
“अरे...मम्मी आपके आने की आहट सुन अभी-अभी पापा कम्प्यूटर छोड़े हैं...जबकि मैंने
कहा था कि मम्मी नाराज होंगी...लेकिन पिता श्री नहीं माने..।” सुनते ही मैं तत्काल
बोल पड़ा, “नहीं...ये महाशय झूँठ बोल रहे हैं..! मेरा काम तो उसी समय समाप्त हो गया
था...मैं डेढ़ घंटे से बैठा टी.वी. देख रहा हूँ..।” लेकिन मेरी इस बात का श्रीमती जी
पर कोई असर नहीं हुआ और इसे होना भी नहीं था...वे आईं...मेरे बगल ही दीवान पर बैठ गयी, बोली, “केवल अपने लिए जीते हो...नौकरी करो और यदि उससे समय बचे तो लिखो...स्वार्थी
हो..बाकी परिवार की जैसे कोई जिम्मेदारी ही नहीं...सुनो यह नौकरी कर तुम भी मेरे
ऊपर कोई अहसान नहीं करते हो...मैं भी बच्चों को पालती हूँ...घर का सारा काम करती
हूँ..।” मुझे लगा जैसे श्रीमती जी यह कहते-कहते कुछ रूवांसी सी होने लगी थी। मैंने
बात को यह कहते हुए सँभालने का प्रयास किया कि तुम गलत समझ रही हो इधर कई दिनों से
कुछ लिखा नहीं था..मन में अचानक एक विचार कौंधा सोचा उसे लिख डाले...बस..।
“बड़े आए विचार वाले...! तुम्हीं एक
विचार वाले हो...? सुनो..अगर मैं अपनी कहानी और विचार लिखने बैठ जाऊँ तो पूरी एक
किताब बन जाएगी...लेकिन मुझे घर-बच्चों के लिए समय देना है, यही मेरी किताब और यही
मेरी कहानी है..इसे लिखने की मैं जरुरत नहीं समझती...समझे..!” श्रीमती जी ने कहा। मेरा कोई उत्तर उन पर असर नहीं कर रहा था..। बचाव की मुद्रा छोड़ते हुए जैसे ही
मैंने कहना चाहा, “तुम भी तो...” इस पर तुरंत श्रीमती जी बोल पड़ी, “सबेरे से ही
लिखने बैठे हो...मैं क्या करती..? मुझे भी अपना काम करना था...मैं भी चली गई..! और
सुनो...तुम जो मोबाइल खरीदने की बात कर रहे थे..अब नहीं खरीदुंगी..घर के अन्य
कामों के लिए भी पैसों की जरुरत है..तुम निठल्ले..तुम्हारे शब्द निठल्ले...!”
हाँ...कुछ दिन पहले ही मैंने एक अच्छे फोन खरीदने की अनुमति श्रीमती जी से मांगी
थी..कारण..राह चलते भी अपनी भाषा में मैं कुछ लिख सकूँ...लेकिन उनकी यह बात सुनते
ही मैं हँस पड़ा..और बोल पड़ा, "जैसी तुम्हारी मर्जी...हाँ पहली बार पता चला कि शब्द
भी निठल्ले होते हैं...!" और मैंने उनसे उसी समय कह दिया था कि तुम्हारी आज की इस
कहानी को मैं अपने निठल्ले से शब्दों में व्यक्त कर दुँगा...!
जैसे बहुत बारिश हुयी हो जिससे किसी नदी में बाढ़
का पानी उफान मारने लगा हो..तथा यह नदी अपने साथ सब-कुछ बहा ले जाना चाहती
हो...लेकिन इस बारिश के गुजर जाने के बाद धीरे-धीरे यही नदी सागर की ओर बहते हुए फिर
शान्त हो जाती है...! स्त्री की मनोदशा इसी नदी के सामान ही होती है उसके भी आवेग
संवेग शायद ऐसे ही होते है...और....सागर भी अपनी अतल गहराइयों को लिए तमाम लहरों को
अपने में समेटते हुए धीर-गंभीर ही बना रहता है...लेकिन अपने वाष्पन से नदी को जल
भी देता रहता है...! इसी सागर के सामान शायद यह पुरुष होता है...हम दोनों अपनी-अपनी
भूमिकाओं को निभाते जा रहे थे...दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर ही निर्भर करता
हैं..अतः हम दोनों अपनी सीमाओं को समझते हुए एकदम शान्त-चित्त हो चुके थे....!
आज मैं जब अपने इन्हीं निठल्ले शब्दों को
व्यक्त कर रहा था तो टी.वी. समाचार में किसी बड़े आदर्शवादी नेता के कहे राजनीतिक
शब्दों का स्टिंग चल रहा था..और उनके इन शब्दों से उनकी नई-नई उभरी राजनीतिक
पार्टी में विभाजन जैसा राजनीतिक भूचाल खड़ा हो गया है..! पहली बार मेरे समक्ष यह भी
प्रमाणित हो गया कि उन शब्दों का क्या मतलब जो भूचाल न लाए...! यदि शब्द भूचाल
नहीं ला पाते तो फिर वे निठल्ले ही माने जाएंगे...!
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