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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

प्रश्नशंकुलता


      जीवन और जगत कितना रहस्यमय है...! इसे समझना कठिन ही नहीं असंभव सा प्रतीत होता है, सहज और सरल दिखाई देने वाली चीजें वास्तव में उतनी सहज और सरल नहीं होती, जटिल सी लगने वाली चीजें विश्लेषण के क्रम में सहज भी हो सकती हैं...| चूँकि मानव इसी जगत का हिस्सा है अत: उसके उपर भी उपरोक्त स्थितियां लागू होती हैं| वह अपने मन में उठने वाले ऐसे ही तमाम प्रश्नों के बीच स्वयं को उलझा हुआ पाता है...मानसिक विश्लेषण के क्रम में उसे प्रतीत होता है कि मानसिक चेतना भी बहुत ही रहस्यमयी होती है...स्वयं को समझने के प्रयास में किसी एक निश्चित बिंदु पर पहुँचने में वह संदेहों के बीच से गुजरता रहा है...| यह संदेह वैचारिक धरातल को ले कर नहीं अपितु अपने को उसके केंद्र में रख कर जानने एवं समझने को लेकर है...और यह संदेह यथार्थता और उसके बीच फंसी हुई व्यावहारिक परिस्थितियों के कारण रहा है|
         समझना है क्या...? और क्यों...? यह एक जटिल प्रश्न है...इस तरह का प्रश्न उसके सामने क्यों खड़ा होता है...? हाँ... यह प्रश्न उसके व्यक्तित्व की सहजता से भी जुड़ जाता है...| क्योंकि समझ व्यक्तित्व को एक ऐसा दर्पण प्रदान करती है जिसमें अपने अक्स के साथ ही दूसरों को भी उसका अक्स साफ़ दिखाई देने लगता है...यहाँ तक कि वह दूसरी चीजों का अक्स भी इसी में देख लेता है...| वास्तव में व्यक्तित्व के निर्माण की दिशा और दशा इसी से सम्बंधित हो सकती है...जब हम व्यावहारिक जीवन के किसी प्रश्न में उलझ जाते है तो उसके केंद्र में हमारा व्यक्तित्व ही होता है जो विभिन्न धारणाओं के धरातल पर खड़ा होता है...ऐसे में व्यक्तित्व जिन विचारों एवं धारणाओं पर आधारित होता है सर्वप्रथम उन्हीं को समझने की आवश्यकता है...इसी समझने के प्रयास में ऐसा प्रतीत होता है कि वह सदैव एक प्रक्रिया में रहा है...इस प्रक्रिया की दिशा चाहे जो रही हो...लेकिन यह प्रक्रिया कैसी है; क्या यह व्यक्तित्व निर्माण की दिशा है या उसकी व्याख्या है...! विचारों की यह प्रश्नशंकुलता है बड़ी विचित्र..! उलझाव भरा...! क्या हम अपने व्यक्तित्व निर्माण की व्यख्या कर सकते हैं...और क्या यह एक वास्तविक सम्भावना है...!