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गुरुवार, 29 सितंबर 2016

पुरस्कारार्थी

            आज दो दिन बाद टहलने का अवसर मिला..टहल-टुहल कर आया तो कुछ देर यूँ ही बिताया...तुलसी की पत्ती डाल कर चाय बना। असल में "का हो" (हाँ, श्रीमती जी को मैं "का हो" ही कह कर संम्बोधित करता हूँ) यहाँ एक बार आई थीं तो तुलसी के पौधे लगा दिए थे, उन्हीं पत्तियों का प्रयोग चाय में करता हूँ। चाय पी रहा था कि "जागरण"अखबार आ गया। एक खबर की हेडिंग से मैं कुछ अधिक ही प्रभावित हो गया!
           "अब बाबू जी... पुरस्कारों से तो पेट नहीं भरता" लेकिन यह हेडिंग ही मुझे गलत प्रतीत हुई। शंकरगढ़ वाली "दुईजी" अम्मा की बात छोड़िए। मुझे लगता है उन्होंने पुरस्कारों के लिए अपने आवेदन पर "फारवर्डिंग" और "रिकमेंडेशन" उचित माध्यम द्वारा नहीं कराया होगा नहीं तो, पुरस्कारों से तो पेट भरता ही है! 
            हाँ... आज चाय पीते-पीते और अखबारपढ़ते-पढ़ते पुरस्कारों को लेकर दिमाग में तमाम बातें कौंधने लगी। जैसे, हाल के दिनों में साहित्यिक-असाहित्यिक पुरस्कारों पर अखबारों और इहीं फेसबुक पर पढ़ तमाम विमर्शों पर धियान चला गया।
           तब तक देखता हूँ, मुझसे मिलने आयाराम जी आ चुके थे...पीते हुए चाय की ओर मैंने इशारा किया, तो वे बोले, "नहीं नहीं, आप पियो, समझो मैंने भी पी लिया"। खैर,  मैने आने का कारण पूँछा तो अपनी एक व्यक्तिगत समस्या लेकर बैठ गए.. तो लीजिए, आप भी आयाराम की व्यक्तिगत समस्या से रू ब रू होइए - आयाराम चालू हो चुके थे और उन्होंने जो मुझे बताया वह नीचे पूरा का पूरा हू ब हू लिखे दे रहा हूँ...

         "क्या है कि, इधर धड़ाधड़ दो-चार मोटी-मोटी पत्रावलियाँ मेरे समक्ष रखी गई। अब इतनी मोटी फाईल कौन पढ़े सो मैंने अपने कार्यालय सहायक से  पूँछा, इतनी मोटी फाईल..! आखिर माजरा क्या है?"
          कार्यालय सहायक ने  बताया, "सर,ये पुरस्कारार्थियों के आवेदन है!"
           मैं थोड़ा अकबक सा बोला, "पुरस्कारार्थी! आवेदन.? क्या मतलब?"
           "अरे सर गौरमेंट द्वारा विशेष क्षेत्र में काम करने वालों को विशेष विशेष तरह का पुरस्कार दिया जाता है, उसी के लिए लोग आवेदन किए हैं।" सहायक ने समझाया।
            "अरे! तो इसमें आवेदन की कौन सी बात..? सरकार को जिसको पुरस्कार देना हो दे, इसमें हमारा क्या काम?" 
           "आपकी बात तो सही है सर, यहाँ से केवल फारवर्डिंग ही लगनी है और हमारा कोई काम नहीं है" कार्यालय सहायक ने बात रखी। 
           "ठीक है, लेकिन फारवर्डिंग भी एक प्रकार का रिकमेंडेशन ही है। आखिर, हमारी भी तो कुछ जिम्मेवारी है कि बस ऐरे गैरे नत्थू खैरे को पुरस्कार दिलवाता फिरूँ?" कार्यालय सहायक की नजरों में झाँकते हुए रहस्यात्मक अन्दाज में मैंने कहा। जैसे, किसी पुरस्कार देने की चयन समिति का मैं सदस्य होऊँ। 
            "लेकिन सर, यह कोई वैसा मामला नहीं, और फिर फारवर्डिंग ही तो लगानी है! यहाँ हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। फिर इन्हें पुरस्कार मिले या न मिले यह ऊपर वालों का हेडअक् है, इससे हमें क्या लेना देना..गौरमेंट में पुरस्कार देने वाली कोई समिति भी तो होती होगी जो किसी को पुरस्कार देने या न देने पर निर्णय करती होगी.." मेरे सहायक ने शंका समाधान किया। 
           एक बात है भाई! कुछ भी हो, मैं यहाँ अपनी कलम की सार्थकता पर अपने दायित्वों को लेकर थोड़ा गर्वोन्मत्त जैसा हो उठा था..मेरी एक चिड़िया क्या बैठती पुरस्कारार्थियों की पुरस्कारांक्षा को जैसे पर लग जाते! मैं अपने इस अहमियत पर मन ही मन मुस्कुरा उठा था। 
               हाँ, हमें पुरस्कारार्थियों के आवेदनों पर "रिकमेंडेशन" से लेकर "फारवर्डिंग" तक का गुरुतर दायित्व निभाना पड़ रहा था। तो मैं भी, मेरे भी अहर्निश मासिक पुरस्कार पर कोई आँच न आए, इस गुरुतर दायित्व-बोध पर थोड़ा चौकन्ना हो उठा था। क्योंकि, फँसने पर ऊपरवाला नीचे को ही पकड़ता है और यहाँ तो, नीचे से ऊपर तक "रिकमेंडेशन दर रिकमेंडेशन" और "फारवर्डिंग दर फारवर्डिंग" झेलते हुए ही पुरस्कार किसी पुरस्कारार्थी को प्राप्त होने वाला है। 
               यहीं पर एक समस्या थी, इस "रिकमेंडेशन" और "फारवर्डिंग" के बाद भी यदि भाई पुरस्कारार्थियों को पुरस्कार न मिला तो फिर, मेरी क्या गत होगी..? अपने "फारवर्डिंग" पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता मैं नहीं देख सकता। इतना जरूर था कि आज के बेरोजगारी के जमाने में पुरस्कार की इनामी धनराशि इस बात की गारंटी थी कि कोई पुरस्कार लेने से मना नहीं करेगा लेकिन यदि कोई पुरस्कृत, पुरस्कार वापसी पर उतर आए तो मुझ जैसे प्राथमिक "रिकमेंडेटरी" और "फारवर्डक" पर क्या बीतेगी?
           
             हाल ही में पुरस्कार-वापसी-गैंग की चर्चा से उठी ऐसी ही तमाम शंकाओं ने मेरे माथे पर अच्छा खासा बल डाल दिया था। वैसे भी, कोई भी गैंग हो अपने सहयोगी गैंग की ही मदद करता है और इस पुरस्कार-वापसी-गैंग को भी अपने उस पुरस्कार-प्रदाता-गैंग की चिन्ता तो रहेगी ही जिसने इन्हें पुरस्कार देने के विचार को अमलीजामा पहनाया होगा। ऐसे में पुरस्कार-प्रदाता-समिति में हुए किसी बदलाव पर वापसी-गैंग भी सक्रिय हो सकता है। फिर क्या पता, किसी पुरस्कार वापसी पर मची चिल्ल-पों की गैंगवार की जड़ मुझे ही मान, कुपात्र को पुरस्कृत कराने का ठीकरा मेरे सिर फोड़ दिया जाए? 
                लेकिन एक बात है, यहाँ पुरस्कार वापसी की संभावना नगण्य थी.. क्यों..? क्योंकि, एक पुरस्कारार्थी महोदय अपनी पुरस्कारांक्षा में एक बड़ी सी मोटी फाईल लिए तीन दिन तक मेरे पीछे फारवर्डिंग के लिए दौड़ते रहे थे और मैं था कि अपनी व्यस्तता के चक्कर में इसका निपटारा नहीं कर पा रहा था। अन्त में वे "फारवर्डिंग" के लिए ऐसे बैठे जैसे धरने पर बैठे हों और मुझसे फारवर्डिंग करा कर ही माने। आखिर मैं भी क्या करता, मरता क्या न करता के अन्दाज में, यह सोचकर कि अभी कहीं से कोई सिफारिश आ जाए तो करना ही पड़ेगा और सिफारिश पर काम करने का अपराधबोध भी झेलना पडे़गा, सो उसकी फाईल के पन्नों को उलटने लगा था। वे कलाकार व्यक्ति थे। बड़ी कलाकारी से फाईल तैयार किया गया था, अखबार की कटिंग और कुछ सम्मान-पत्रों और इक्का-दुक्का विदेश यात्राओं से उसकी कलाकारी झलक रही थी, सो फारवर्ड कर दिया। अब आप ही बताइए, जो इतनी शिद्दत से फारवर्डिंग के लिए लगा हो, कलाकारी किया हो, वह भला क्यों किसी वापसी-गैंग का सदस्य बनेगा? जबकि उनकी सारी कलाकारी पुरस्कारधर्मा ही थी। खैर..
            मेरे इस फारवर्डिंग के बाद उस पुरस्कारांक्षी के चेहरे पर जैसे पुरस्कृत हो जाने की प्रसन्नता झलक उठी..आखिर, मैं पूँछ ही बैठा, "तुम फारवर्डिंग पर इतना खुश हो रहे हो?"
              "साहब, ऊपर मेरी बात हो गई है.. वहाँ से मुझे कहा गया है...अपना आवेदन फारवर्ड कराकर भेज भर दो.." पुरस्कारार्थी ने जैसे पुरस्कृत हो जाने के दर्प में कहा था।  वाकई! किसी की पुरस्कारांक्षा फारवर्डिंग के दर्प से भर उठी थी और उसकी बेचारगी भी इसी में छिप गई थी। 
               यह बात मेरे लिए आई गई हो गई थी। ऐसे ही एक दिन कार्यालय में बेकाम सा मैं कुर्सी पर बैठा आराम फरमा रहा था कि एक सज्जन एक मोटी सी फाईल लिए मेरे कमरे में प्रवेश किए। हाँ, वह हाँफ रहे थे, उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें चुहचुहाई थी। आते ही फाईल को, मुझसे किसी "फला" पुरस्कार का आवेदन बताते हुए बोले,
            "सर, इसे रिकमेंड कर दीजिए, आज अन्तिम दिन है..!" 
            ध्यान आया, अभी पिछले दिनों ही तो इसी पुरस्कार के लिए एक अन्य पुरस्कारार्थी का आवेदन रिकमेंड हुआ था तो, अब दुबारा उसी पुरस्कार के लिए दूसरे पुरस्कारार्थी का अभ्यावेदन फारवर्ड करना ऊसूलों के खिलाफ जा रहा था। पुरस्कारांक्षा भी रिकमेंडेटरी के लिए अजीब बला है। हाँ, ऊसूलों के खिलाफ इसलिए कि, पुरस्कार तो एक ही व्यक्ति को मिलता है, फिर, पुरस्कारों का कोई घोषित रिक्त पद भी मेरे संज्ञान में नहीं था। थोड़ा झल्लाते हुए उसके अभ्यर्थना पर तुषारापात करने के अंदाज में पुरस्कारार्थी से मैंने कहा,
             "देखो! मैं किसी ऐसे कामों के लिए संस्तुति-फंस्तुति कर्ता अधिकारी नहीं हूँ और न ही मेरा यह काम है.. आप सीधे ऊपर दे आईए..।"
             वैसे फंस्तुति का मतलब पुरस्कार का अपमान करना नहीं था। असल में "फंस्तुति" माने मेरी वह अकर्मण्यता थी जिसके कारण मैं ऐसे महानुभावों के "पुरस्कारधर्मा" से लबरेज कृत्यों को पहचान नहीं पाया था और अपने काम को पहचनवाने के लिए इन्हें मेरे पास आना पड़ा, नहीं तो संस्तुति करने में क्या हर्ज था। लगता है ऊपर बैठे लोग भी फंस्तुति के ही शिकार हैं नहीं तो दुनियाँ में अच्छे कामों वाले पुरस्कारार्थियों की कोई कमी है क्या?
            "सर..सर, मैं इसकी एक प्रति ऊपर दे आया हूँ...लेकिन वहाँ लोग बोले हैं कि अपने जिले से इसे रिकमेंड कराकर भी भेजवा दें..और साहब, आपके लिए ही यह मार्क भी हुआ है..साहब, आज इसका अन्तिम दिन है... कर दीजिए साहब" कहने के दौरान उस पुरस्कारांक्षी की बदहवासी भी झलक उठी थी। सही भी है पुरस्कारधर्मा कार्य पुरस्कारार्थी को पुरस्कारों के लिए बदहवास बना देता है। अन्यथा ऐसे कार्य करने का क्या मतलब? इसी बदहवासी में पुरस्कारार्थी "ऊपर" भी बात कर लेता है। 
             मुझे मार्क हुआ है का क्या मतलब!  ऐसे फालतू कामों के लिए हमीं हैं? लेकिन नौकरी की अपनी बाध्यता का ख्याल आते ही अपनी औकात पर उतर आया। सोचा, किसी के पुरस्कार अभ्यर्थना को रिकमेंड करने-कराने में कोई फँसने-फँसाने की बात नहीं है, और फिर सांन्त्वना पुरस्कार भी तो कोई चीज होती है, हो सकता है इसे यही मिलना हो। मैंने कार्यालय सहायक को पत्र टाइप करने के लिए कहा, लेकिन सहायक ने अवगत कराया, 
            "सर, बिजली नहीं है, इन्वर्टर भी बैठ चुका है, बिजली आने पर पुरस्कार हेतु फारवर्डिंग-पत्र बना देंगे।" सुनकर एक बार तो यही मन हुआ कि इन्वर्टर की खराबी के लिए अपने इस सहायक को अभी यहीं इसी वक्त अपुरस्कृत कर दूँ..लेकिन..खैर, छोड़िए इसे।
           अब पुरस्कारार्थी की अधीरता देखते बन रही थी, जैसे पुरस्कार की रेल छूटी जा रही हो कि छूट गई तो बैठने से रह गए। शाम तक बिजली आने की कोई सम्भावना नहीं थी, और आज अन्तिम दिन था। बोला,
     
            "साहब, मजमून दिलवा दें हम नीचे से टाईप कराए दे रहे हैं.."
            "वाह! ये पुरस्कारार्थी जो कर रहे हैं सो तो कर ही रहे हैं कार्यालय की भी समस्या हल किए दे रहे हैं, इन्हें कम से कम सांन्त्वना पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए" इन विचारों के साथ मजमून दिलवा दिया और आगे फारवर्डिंग तो लगनी ही थी।
             लेकिन आयाराम की समस्या जैसे अभी भी बरकरार थी, कहने लगे,
            "फारवर्डिंग में असली समस्या तो अब आई है..!"
              मैंने पूँछा, " वो, कैसे?"
             "चार पुरस्कारार्थियों के आवेदनों का कैसे निस्तारण करें? अब आप ही बताइए चाहिए! राष्ट्रीय एकीकरण के निमित्त "गुरु गोविंद सिंह राष्ट्रीय एकता पुरस्कार" चाहिए, और प्रशस्ति-पत्र लगा है "अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा का" यहीं नहीं जिला साक्षरता समिति के प्रमाणपत्र में जातिवाद, छुआछूत को जड़ से उखाड़ देने का प्रमाणपत्र दिया गया है...कुल छियाछठ कामों का उल्लेख है जिसमें कविता, भाषण और रैली का आयोजन सम्मिलित है। अब ऐसे किसी महान भारतरत्न को क्या ऐसा कोई छोटा-मोटा पुरस्कार दिलवाया जा सकता है? मैं तो भाई फारवर्ड नहीं कर सकता। मेरा वश चले तो मैं पुरस्कृत होने के लिए किए गए कार्यों की बजाय अपुरस्कृत होने वाले कार्यों के लिए ही अपना रिकमेंडेशन दूँ...क्या मजाक बना रखा है!" आयाराम तल्खी लिए कह गए थे। 
           कुछ क्षण सोचते हुए मैंने भी कहा,
            "ऐसे में तो सभी महान फेसबुकिए भी पुरस्कार के हकदार होंगे..यहाँ तो फोटुओं की भी कोई कमी नहीं इनके सामने तो ये आवेदक ठहर भी नहीं पाएंगे...ऐसा करिए आयाराम जी! आप सभी पुरस्कारार्थियों की पत्रावलियों के प्रमाणपत्रों को व्यक्तिगत काम बताकर लिख मारिए और ऐसे ही सभी आवेदनों को निस्तारित करते हुए भविष्य के लिए अपनी टिप्पणी भी कर दीजिए कि "पुरस्कारों के लिए, अपने पुरस्कारधर्मा (पुरस्कारांक्षा में किए गए) कार्यो के बजाय अपुरस्कृत होने लायक कार्यों पर ही आवेदन प्रस्तुत करें"
              लेकिन तब तक आयाराम जी जा चुके थे। 
              वाकई! पुरस्कारार्थी भी बड़े कलाकार होते हैं, और कोई भी पुरस्कार कलाकारी से ही हासिल किया जा सकता है। लेकिन आज के बेरोजगारी के जमाने में ऐसी कलाकारी भी करनी पड़ती है। यही पुरस्कारार्थियों की बेचारगी है। मुझे तो लगता है, ऐसे लोगों को पुरस्कार अवश्य मिलना चाहिए, और यही नहीं, एक पुरस्कार इस बात पर भी मिलना चाहिए कि पुरस्कारार्थी ने कितनी बड़ी कलाकारी से पुरस्कार हेतु अपनी अभ्यर्थना प्रस्तुत की है...वाकई! बेचारों बेरोजगारों का, सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाएगा। ये लोग तब तक पुरस्कार भी वापस नहीं करेंगे जब तक इन पुरस्कृतों को और बड़े पुरस्कार की आशा न हो। 
           यह तो हुई फारवर्डिंग और रिकमेंडेशन की बात, जरा सोचिए, पुरस्कार-चयन-समिति कैसे काम करती होगी..! यही सोच, अब किसी पुरस्कृत व्यक्ति के लिए पुरस्कार वापसी गैंग का सदस्य बनना हमें जायज़ लगने लगा है क्योंकि यह गैंग, किसी विरोधी गैंग के विरुद्ध होता है। हाँ, एक बात है पुरस्कार-वापसी-गैंग के सभी सदस्य फारवर्डिंग या रिकमेंडेशन की वजह से पुरस्कृत नहीं हुए होते बल्कि यह भी गैंगगीरी का ही नतीजा होती है। मतलब, पुरस्कृत होना गैंगगीरी का नतीजा है। 
           आयाराम तो गयाराम हो गए..अब #चलते-चलते यहाँ एक बात मैं कहना चाहता हूँ, वह कि, 
           पुरस्कारों से पेट भरता है... बस शर्त यही है कि पुरस्कारों के लिए ही काम करें...." और.. पुरस्कारों के लिए रिकमेंडेशन और फारवर्डिंग उन्हीं का किया जाता है जिनके पेट भरे हों या फिर जो पुरस्कारों के लिए ही काम करते हों..."दुईजी अम्मा" ने पुरस्कारों के लिए काम नहीं किया होगा, इसीलिए वो आज भी भूँखी हैं.
             --Vinay 
            #दिनचर्या 19/29.9.16

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

बतकही

            लंच के लिए आवास पर आया था। आते ही श्रीमती जी से यह कह विस्तर पर लेट गया कि आज कुछ ज्यादा ही थकान है। इस पर उन्होंने कहा कि खाना खाकर कुछ देर आराम करके तब जाना। खैर.. 

              मैं अभी खाना खाया ही था कि आफिस से फोन आ गया, अब मुझे तुरन्त जाना था। मैंने यह बात श्रीमती को बताई कि मुझे तुरन्त जाना है। वे कहने लगी,

    

             "थोड़ी देर आराम कर लो तब जाओ" इस पर मैंने काम की दुहाई दी और कहा, "नहीं, अभी जाना पडे़गा।" 

               अब वह बोल पड़ी, "देखिए..नौकरी कोई एक दिन की नहीं है..अभी बहुत दिन नौकरी करनी है...यह तो रोज-रोज का काम है..ऐसा तो लगा ही रहता है...आप बहुत जल्दी परेशान हो उठते हो।"

               पत्नी की इस बात पर मैं तुरन्त बोल पड़ा, "देखो..मुझे, नौकरी कैसे करनी है, यह मुझे, तुम नहीं बताओगी..और फिर मेरे सरकारी कार्य करने पर तुम नियंत्रण नहीं कर सकती.."

                मैं अभी यह कहते हुए चुप ही हुआ था कि श्रीमती जी तपाक से कह उठी, "सुनिए, मैं तुम्हारे सरकारी कार्य करने पर नहीं, तुम्हारे दिमाग पर नियंत्रण कर रही हूँ।" 

                मैं भौंचक सा उन्हें निहारने लगा...मेरी यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि कोई कैसे मेरे दिमाग को नियंत्रित कर सकता है... चुप्पी ओढ़ लिया...सोचा..इनसे पार पाना कठिन है...! 

                --Vinay 
                  15.6.16